Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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-६३-६४
efta ही है, ऐसा निश्चय करना चाहिए। कहा भी है
जो क्षायिक है, एक है, अनन्तस्वरूप है, तीनों कालों के समस्त पदार्थों को एक साथ जानते है, निरतिशय है, क्षायोपशमिकज्ञानों के अन्त में प्राप्त होनेवाला है, कभी च्युत होने वाला नहीं और सूक्ष्म, व्यवहित तथा विप्रकृष्ट पदार्थों के व्यवधान से रहित है, वह केवलज्ञान हैं ।"
गुणस्थान / ८१
इसी प्रकार केवलदर्शन का भी व्याख्यान करना चाहिए, क्योंकि केवलज्ञान के समान ही सुना आवरण करने वाले दर्शनावरण कर्म के अत्यन्त क्षय होने से वृत्ति को प्राप्त होने वाले और मस्त पदार्थों के अवलोकन स्वभाव वाले दर्शनोपयोग के भी अनन्त विशेषण से युक्त केवल संज्ञा के होने पर कोई प्रतिबन्ध नहीं पाया जाता ।
यहाँ ऐसा नहीं मानना चाहिए कि "ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग में कोई भेद नहीं है, क्योंकि के विषय में भेद नहीं उपलब्ध होता तथा दोनों समस्त पदार्थों के साक्षात्वा रण स्वभाव वाले हैं, लिए उन दोनों में एक से ही कार्य चल जाने के कारण दूसरे उपयोग को मानना व्यर्थ है; " क्योंकि स्वरूप से उन दोनों का विषयविभाग अनेक बार दिखला माये हैं । इसलिये सकल और म केवलज्ञान के समान प्रकलंक केवलदर्शन भी केवलरूप अवस्था में है ही, यह सिद्ध हुआ । सत्या यागमविरोध आदि दोषों का होना अपरिहार्य है ।
वौर्यान्तराय कर्म के निर्मूल क्षय से उद्भूत्तवृत्तिरूप श्रम और खेद यदि अवस्था का विरोधी खराय से रहित, प्रप्रतिहत सामर्थ्य वाला वीर्य अनन्त वीर्य कहा जाता है । परन्तु वह इस भगवान् अशेष पदार्थविषयक ध्रवरूप ( स्थायी) उपयोग परिणाम के होने पर भी प्रखेद भाव रूप उपकार प्रवृत होता हुआ उपयोगसहित ही है, ऐसा जानना चाहिए, क्योंकि उसके बलाधान के बिना सुरतर उपयोगरूप वृत्ति नहीं बन सकती । अन्यथा हम लोगों के उपयोग के समान अरिहन्त केवली उपयोग के भी सामर्थ्य के बिना अनवस्थान का प्रसंग प्राप्त होता है। कहा भी है
हे भगवन् ! आपके वीर्यान्तराय कर्म का बिलय हो जाने से अनन्त वीर्य शक्ति प्रगट हुई है । भूतः ऐसो अवस्था में समस्त भुवन के जानने यादि अपनी शक्तियों के द्वारा आप अवस्थित ।। १ ।। *
इस कथन से प्रात्यन्तिक अनन्त सुखपरिणाम भी इस भगवान् के व्याख्यान किया गया जानना चाहिए, क्योंकि जिसकी अनन्त ज्ञान अनन्त दर्शन और प्रनन्त वीर्य से सामर्थ्यं वृद्धि को स हुई है, जो मोह रहित है, जो ज्ञान और वैराग्य की श्रतिशय परमकाष्ठा पर अधिरूढ़ है, उसका परम निर्वाणरूपी वस्त्र है ऐसे सुख की प्रात्यन्तिकरूप से उत्पत्ति उपलब्ध होती है । किन्तु
और वैराग्य के प्रतिशय से उत्पन्न हुए सुख से अन्य सुख नाम की कोई वस्तु नहीं ही है, क्योंकि सिरागसुख है वह न्यायपूर्वक निष्ठुरता से विचार किया गया एकान्त से दुःखरूप हो है । उसी कार कहा भी है
जो इन्द्रियों के निमित्त से प्राप्त होने वाला सुख है, वह पराश्रित है, बाधा सहित है, बीच-बीच
बबल पु. १ पृ. १८८ । २. जयधवल मूल पृ. २२६६ ।