Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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गगगरपान/७१
तेरहवें सयोगकेवली गुणस्थान का स्वरूप 'केवलणाणविवायरकिरण-फलाबप्पणासिअण्णाणो । पवकेवललद्ध ग्गमसुजरिणय-परमप्प-चवएसो ॥६३।। असहाय-पाण-दंसरण-सहिनो इदि केवलो हु जोएण ।
जुत्तो ति सजोगजिरणो, प्रणाइरिणहरणारिसे उत्तो ॥६४६ गाथार्य--जिसका केवलज्ञानरूपी सूर्य की अविभागप्रतिच्छेदरूप किरणों के समूह से (उत्कृष्ट भनन्तानन्त प्रभार) अज्ञान अन्धका सर्वथा नष्ट हो गया हो और जिसको नद केवललब्धियों के प्रकट होने से परमात्मा' यह व्यपदेश प्रारत हो गया है। वह इन्द्रिय, पालोक आदि की अपेक्षा न रखने बाले ज्ञानदर्शन से युक्त होने के कारण केवली और काययोग से युक्त रहने के कारण सयोगी तथा पातिकर्मों से रहित होने के कारण जिन कहा जाता है । ऐसा अनादिनिधन पार्ष आगम में कहा है ॥६३-६४।।
विशेषार्थ--जिस प्रकार प्रातःकाल सूर्य के उदय होने पर उसकी किरणों के कलाप (समूह) से रात्रिकालीन अन्धकार नष्ट हो जाता है, उसी प्रकार ज्ञानाबरणादि घातिया कर्मों के क्षय होने के काल में केवलज्ञानरूपी सूर्य के उदय होने पर उसके सर्वोत्कृष्ट-अनन्त अविभागप्रतिच्छेदों के द्वारा सर्वज्ञेयविषयक अज्ञानरूपी अन्धकार नष्ट हो जाता है अर्थात् समस्त ज्ञेय उस केवलज्ञान में प्रतिभासमान हो जाते हैं, कोई भी पदार्थ अप्रनिभासित नहीं रहता। कहा भी है--
'जो ज्ञये कथमज्ञः स्यावसति प्रतिबन्धरि ।
दाहोऽग्निदाहको न स्यावसति प्रतिबन्धरि ॥१३॥ -जानावरणरूप प्रतिबन्धक के नहीं रहने पर ज्ञाता अर्थात् केदलज्ञानी ज़यों के विषय में अज्ञ कैसे रह सकता है जैसे प्रतिबन्धक (मरिण, मंत्रादि) के नहीं रहने पर दाह स्वभाव होने से अग्नि दाह्यपदार्थ को कैसे नहीं जलायेगी अर्थात् अवश्य जलायेगी।
केवलज्ञान मात्र शैयों को जानता है, क्योंकि केवलज्ञान जेयप्रमाण है जैसा कि श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने जिनेन्द्रदेव की साक्षी से प्रवचनसार गाथा २३ में 'णाण गेयपमाणमुद्दिट्ट" इन शब्दों द्वारा कहा है । यदि केबली अज्ञेयों को भी जानने लगे तो 'जान ज्ञेयप्रमाण है इस सिद्धान्त से विरोध प्रा जायेगा । इसीलिए श्री स्वामी कार्तिकेयाचार्य ने 'णेयेण विणा कहं गाणं' ज्ञयों के बिना केवलज्ञान कैसे हो सकता है ? ऐसा कहा है, अर्थात् जो ज्ञेय नहीं हैं उनको केवली नहीं जानता। यदि कहा जावे कि कोई भी अज्ञेय नहीं है तो अज्ञेय के अभाव में ज्ञेय का भी सद्भाव नहीं हो सकता, क्योंकि सब सप्रतिपक्ष पदार्थों की उपलब्धि अन्यथा बन नहीं सकती।" श्रीवीरसेनाचार्य ने पञ्चास्तिकाय गाथा के आधार पर यह मिटान्त सिद्ध किया है कि सर्व पदार्थ सप्रतिपक्ष हैं, क्योंकि कुन्दकुन्दाचार्य ने 'सब पयस्था सप्पडिवखा' इन शब्दों द्वारा इस सिद्धान्त का उपदेश दिया है।
२. प. पु. १ पृ. १६२ तथा ज. घ. मूल पृ. २२७० ।
१. घ. पु. १ पृ. १६१; ज.ध. मूल पृ. २२७० । ३. ज. प. पु. १ पृ. ६६। ४. ध, पु. १४ पृ. २३४ ।