Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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गाथा ६२
गुग्णस्थान / ७७
चित्त' को स्पष्ट करने के लिए गाथा में "कलिहामलभायणुदय" पद के द्वारा स्फटिकमरिण के निर्मल भाजन में रखे जल का दुष्टान्त दिया है । इस दृष्टान्त के द्वारा यह बतलाया गया है कि कीचड़ या मिट्टी आदि की सत्ता भी श्रभाव को प्राप्त हो जाने से जल पुनः मलिन नहीं हो सकता, उसी प्रकार मोह के सत्र का भी नाश हो जाने से चित्त पुनः मलिन नहीं हो सकता, अतः सर्वदा के लिए चित्त 'समचित्त' हो गया । यद्यपि यह भाव "णिस्सेसखी रग मोहो" से भी ग्रहण हो सकता या तथापि "फलिहामल भायणुवय" दृष्टान्त द्वारा इस भाव को अधिक स्पष्ट कर दिया गया है। arer में आया हुआ गंथो' अर्थात् निर्ग्रन्थ शब्द विशेष महत्व रखता है। साधु पाँच प्रकार के होते हैं - १. पुलाक, २. वकुश, ३. कुशील, ४. निर्ग्रन्थ और ५. स्नातक १ । बाह्य परिग्रहत्याग की अपेक्षा ये पाँचों ही निर्ग्रन्थ हैं तथापि पुलाक, वकुश और कुशील के मोहनीय कर्मोदय के कारण अन्तरंग परिग्रह विद्यमान है। क्षीणमोह गुणस्थानवर्ती के अन्तरंग परिग्रह का कारण मोहनीयकर्म का क्षय हो जाने से उसकी निर्ग्रन्थ संज्ञा वास्तविक है तथा अन्तर्मुहूर्त पश्चात् केवलज्ञान व केवलदर्शन उत्पन्न होने वाला है इसलिए भी उसकी निर्ग्रन्थ संज्ञा है । यद्यपि उपशान्तमोह गुणस्थावर्ती के भी अन्तरंग परिग्रह का प्रभाव होने से निर्ग्रन्थपना है तथापि अन्तरंग परिग्रह के कारस्भूत मोहनीय कर्म का सत्त्व होने से गाथा ६१ में उसको निर्ग्रन्थ संज्ञा नहीं दी गई है। श्री पूज्यपादस्वामी व श्री अलकदेव यादि श्राचार्यों ने भी अन्तर्मुहूर्त काल के द्वारा जिसको केवलज्ञान व केवलदर्शन उत्पन्न होने वाला है' इस विशेषण के द्वारा मात्र क्षीणमोह को ही निर्ग्रन्थ संज्ञा दी है ।
जो कर्मबन्ध कराते हैं, वे ग्रन्थ अर्थात् परिग्रह हैं ( ग्रन्थाः परिग्रहाः ) । अन्तरंग और बहिरंग के भेद से परिग्रह दो प्रकार का है । अन्तरंग परिग्रह चौदह प्रकार का है- १. मिथ्यात्व २. हास्य, ३. रति, ४. अरति ५ शोक, ६. भय, ७. जुगुप्सा, प. स्त्रीवेद ६. पुरुषवेद, १०. नपुंसक वेद ११. क्रोध, १२. मान १३. माया, १४. लोभ । बाह्य परिग्रह १० प्रकार का है- १. क्षेत्र, २. वास्तु, ३. सुवर्ण, ४. चांदी, ५. धन, ६. धान्य, ७. दासी, ८. दास, ६. वस्त्र, १०. भाण्ड । इन २४ प्रकार के परिग्रहों से जो सर्वात्मना निवृत्त है, वह निर्ग्रन्थ है ।"
इस गुणस्थान में नाम, स्थापना और द्रव्यनिक्षेपरूप क्षीणकषाय का ग्रहण नहीं है. किन्तु भावनिक्षेपरूप क्षीणकषाय का ही ग्रहगा है ।
क्षीणकषाय गुणस्थानवर्ती प्रथम समय से ही सर्व कर्मों के प्रकृति- स्थिति अनुभाग श्रीर प्रदेश का प्रवन्धक हो जाता है । भात्र योग के निमित्त से एक समय की स्थितिवाले सातावेदनीय का पथ बन्ध होता है। एक समय अधिक प्रावली मात्र उपस्थकाल के शेष रहने तक तीनों घातिश कर्मों की उदीरणा करता रहता है। क्षीणकषाय के द्विचरम समय में द्वितीय शुक्लध्यान के द्वारा निद्रा और प्रचला इन दोनों कर्मप्रकृतियों के उदय और सत्व का एक साथ व्युच्छेद हो जाता है।
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१. 'धुलाकवकुश कुशील निर्ग्रन्थस्नातका निर्ग्रन्थाः | त. सु. प्र. ९ / ४६ ] २. सम्यग्दर्शन नित्वरूपं च भूषावेशायुधविरहितं तत्सामान्ययोगात् सर्वेषु हि पुलाकादिषु निर्ग्रन्यशब्दो युक्तः । | त.रा.दा. प्र. ९ / ४६ / ६ ] । ४. ग्रन्थन्ति रचयन्ति ३. कष्वं मुहूर्तादुद्भिद्यमान केवलज्ञानदर्शनभाजो नियन्याः त.रा.वा. ९ / ४६ / ४ ] | संसारकारणं कर्मबन्धमिति प्रस्थाः परिग्रहाः मिध्यात्ववेदादयः श्रन्तरङ्गाश्चतुर्दश बहिरंगाश्च क्षेत्रादयो दश तेभ्यो निष्क्रान्तः सर्वात्मना निवृत्तो निन्य इति । (गो. जी. मं. प्र. टीका ) 1 ५ ध.पू. १ पृ. १६० ।