Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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८०/गो. सा.. जोत्रकाण्ड
गाथा ६३-६४
__ चार घातिया कर्मों के क्षय होने से नव केवललब्धियाँ उत्पन्न होती हैं । ज्ञानावरण कर्म के क्षय होने पर क्षायिकज्ञान', दर्शनावरण कर्म के क्षय होने पर क्षायिकदर्शन', मोहनीय कर्म का क्षय होने पर क्षायिक सम्यक्त्व व क्षायिकचारित्र' और अन्त रायकर्म के क्षय होने पर क्षायिकदान, क्षायिकलाभ, क्षायिकभोग, क्षायिक उपभोग, क्षायिकवीर्य' इस प्रकार क्षायिकज्ञान, क्षायिकदर्शन, क्षायिकसम्यक्त्व, क्षायिकचारित्र, क्षायिकादान, क्षाधिकलाभ, क्षायिकभोग, क्षाधिक उपभोग और क्षायिकवीर्य ये नौ क्षायिक भाव हैं जिनको नब केवलल ब्धि कहा गया है । उपयुक्त ज्ञानाबरणादि कर्म देवत्व अर्थात परमात्मपद के घातक हैं । इन कर्मों का क्षय हो जाने पर नव केवललब्धियाँ उत्पन्न हो जाती हैं और उनके साथ-साथ परमात्मपद भी प्राप्त हो जाता है ।
असहायज्ञान को केवलज्ञान कहते हैं, क्योंकि वह इन्द्रिय, प्रकाश और मनोव्यापार की अपेक्षा से रहित है। सर्वार्थसिद्धि आदि में भी कहा है केवलस्थासहायत्वात्' (१:३०)तथा श्रीवीरसेनाचार्य ने भी कहा है 'केबलमसहायम्' । घातिया कर्मों का क्षय हो जाने से ज्ञान व दर्शन असहाय हो गया इसलिए उनकी केवली संज्ञा है ।
तेरहवें गुणस्थान में पुद्गल धिपाकी शरीर नामकर्म का उदय है तथा द्रव्यमन, बचन व काय से युक्त हैं इसलिए तेरहवें गुणस्थान में कर्मों को ग्रहण करने की शक्तिरूप योग विद्यमान है ।" योग का कार्य सातावदनीय कामं का श्राप भी तेरहवें गुणस्थान में पाया जाता है। अतः वे सयोगकेवली हैं। अथवा मन-वचन और काय की प्रवृत्ति को योग कहते हैं। जो केवली योग के साथ रहते हैं वे सयोगकेवली हैं । अथवा बचन और काय के परिस्पन्द लक्षण वाले योग का सदभाव है जो ईर्यापथ बन्ध का हेतु है । ऐसे योग के साथ विराजमान केवली सयोग ही हैं।
यहाँ केवलज्ञानादि के स्वरूप का कथन करते हैं। यथा-केवलज्ञान में केवल प्राब्द का अर्थ है जो ज्ञान असहाय है अर्थात् इन्द्रिय, आलोक और मन की अपेक्षा के बिना होता है । इस प्रकार केवल जो जान वह केवलज्ञान है । जो सूक्ष्म, व्यवहित और विप्रकृष्ट अर्थों में अप्रतिहतप्रसारवाला है, जो करण, क्रम और व्यवधान से रहित है तथा जिसकी वृत्ति ज्ञानावरण कर्म के पूरा क्षय होने से प्रगट हुई है ऐसा निरतिशय और अनुतर ज्योतिरत्ररूप केवलज्ञान है; यह उक्त कथन का तात्पर्य है। फिर भी उसको जो प्रानन्त्य विशेषरण दिया है वह उसके अविनश्चरपने की प्रसिद्धि के लिए दिया है. क्योंकि जैसे घट का प्रध्वंसाभाव सादि-अनन्त होता है उसी प्रकार क्षायिक भाव के सादि-अनन्त स्वरूप से अवस्थान का नियम उपलब्ध होता है। अथवा केवलज्ञान का 'अनन्त' यह विशेपरण समस्त द्रव्य और उनकी अनन्त पर्यायों को विषय करने वाले उस केवलज्ञान के परमोत्कृष्ट अनन्त परिणामपने की प्रसिद्धि के लिये जानना चाहिए। कारण कि प्रमेय अनन्त हैं. अतः उनकी परिच्छेदक ज्ञानशक्तियों को। भी अनन्त सिद्ध होने में प्रतिषेधका अभाव है । यह सब कथन केबल उपचार मात्र हो नहीं है किन्तु परमार्थ से ही सकल प्रमेय राशि के अनन्त गुणरूप और ग्रागमप्रमारग से जानने में आने-वाली ऐसी केवलज्ञानसम्बन्धी अविभागप्रतिच्छेदसामर्थ्य उपलब्ध होती है । इस प्रकार यथोक्त अविभागप्रतिच्छेदों का अस्तित्व केवल कल्पनारूप नहीं है, वस्तुतः वह द्रव्य है। इसलिये इसकी अनन्तता
१. ज. ध. पु. १ पृ. ६७। २. ज. प. पु. १ पृ. २१, ध. पु. १ पृ. १६१; ज.ध. मूल पृ. २२६६, ज. घ. पु. १६ पृ. १३१ । ३. ज. प. पु. १ पृ. २३ । ४. गो. जी. गा. २१६ । ५. प. पु. १ पृ. १६१। ६. ज. प. मूल पृ.२२६६, ज. प्र. पु. १६ पृ. २३० ।