Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
View full book text
________________
७८/गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा ६२ शङ्का-ध्यान परिणाम के विरुद्ध स्वभाव वाली निद्रा ब प्रचला का उदय कैसे सम्भव है ?
समाधान-ऐसी शंका ठीक नहीं क्योंकि ध्यान-उपयुक्त के भी निद्रा-प्रचला का प्रवक्तव्य उदय सम्भव है।
तदनन्तर चरम समय में ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय इन तीनों धातिया कर्मों के उदय तथा सत्त्व का एक साथ व्युच्छेद हो जाता है।'
जाव ण छदुमत्थादो तिहं धावीण वेवगो होइ।
सागर रेल खयां सध्यष्ट्र सम्वदरसी य॥ जब तक क्षीणकषाय वीतरागसंयत छमस्थ अवस्था से नहीं निकलता है तब तक ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय इन तीनों घातिया कर्मों का वेदक रहता है । इसके पश्चात् यनन्तर समय में तीनों धातिया कर्मों का क्षय करके सर्वज्ञ और सर्वदर्शी बन जाता है ।
शङ्का-क्षीणकषाय के चरम समय में घातिया कर्मों के साथ अघातिया कर्म भी निमल क्षय को क्यों नहीं प्राप्त हो जाते ?
समाधान-ऐसी शंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि घातिया कर्मों के समान अघातिया कर्मों का विशेष स्थितिघात नहीं होता । क्षीराकषाय के अन्तिम समय में भी तीन अघातिया कर्मों का स्थितिसत्त्व पल्य के असंख्यातवें भाग रह जाता है । अघातिया कर्मों के विशेष घात का या भाव प्रसिद्ध भी नहीं है, क्योंकि घातिया कर्मों की अपेक्षा अघातिया कर्मों में उतने अप्रशस्तभाव का अभाव है। घाती कर्म की अपेक्षा समानता होने पर भी जैसे प्रातिया कर्मों में मोहनीय कर्म अधिक अप्रशस्त है, अतः उसका विशेष घात होकर अन्तर्मु इर्त पूर्व विनाश हो जाता है । इसी प्रकार कर्मपने की अपेक्षा समानता होने पर भी अघातिया की अपेक्षा घातिया विशेष अप्रशस्त होने से दूसरे शुक्लध्यान के द्वारा क्षीणकषाय के अन्तिम समय में निर्मूल क्षय को प्राप्त हो जाते हैं। यह कथन उत्पादानुच्छेद नय के द्वारा किया गया है।
शान्तक्षीणकषायस्य पूर्वजस्य त्रियोगिनः । शुक्लायं शुक्ललेश्यस्य मुख्यं संहननस्य तत् ॥१॥ द्वितीयस्याद्यवत्सर्वं विशेषत्वेकयोगिनः ।
विघ्नावरणरोधाय क्षीणमोहस्य तत्स्मृतम् ॥२॥ -प्रथम शुक्लध्यान उपशान्तकषाय व क्षोणकषाय वालों के होता है, किन्तु वे पूर्व के ज्ञाता होने चाहिए। यह ध्यान उत्कृष्ट संहनन वाले, शुक्ललेण्या में विद्यमान और तीनों योगों से युक्त जीवों के होता है । द्वितीय शुक्लध्यान का कथन भी प्रथम शुक्ल ध्यान के समान है। विशेषता इतनी है कि द्वितीय शुक्लध्यान क्षीणमोहगुणस्थान में एक योगवाले के, ज्ञानावरग-दर्शनावरण और अन्तराय इन तीन कर्मों का क्षय करने के लिए होता है।'
-.
१. ज.ध. मूल पृ. २२६५; चूरिणसूत्र १५६३ से १५६६ ; ज.ध. १६/१२०-१२५ । २. क.पा. सुत्त पृ. ८६६ । ३. ज.ध. मूल पृ. २२६६-६७ तथा ज.ध. १६ पृ. १२५-२६ । ४, ज.ध. मूल पृ. २२६६ तथा ज.ध. १६ पृ. १२३ ।