Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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७६/गो. सा. जीवकाण्ड
गोश ६२
वर्ण, गन्त्र, रस, स्पर्श, अगस्लघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, दो विहायोगति में से कोई एक, बस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुस्वर और दुःस्वर में से कोई एक, सुभग, प्रादेय, यश कीति और निर्माण ये प्रकृतियाँ हैं। इनमें से तंजसशरीर, कार्मणशरीर, वर्ण, गन्ध, रस, शीत-उष्या-स्निग्ध-रूक्ष स्पर्श, अगुरुलघ, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सूभग, प्रादेय, यशःकीति और निर्माण ये प्रकृतियाँ परिणाम प्रत्यय हैं । उच्चगोत्र पारणाम प्रत्यय है। इस प्रकार परिणाम प्रत्यय वाले इन नाम और गोत्र कर्मों का अनुभागोदय की अपेक्षा अवस्थित वेदक है, क्योंकि परिणाम प्रत्यय वाले उनके अवस्थित परिणाम विषयक होने पर दूसरा प्रकार सम्भव नहीं है । परन्तु यहाँ पर बेदी जाने वाली भवप्रत्यय शेष सातावेदनीय आदि प्रघातिया प्रकृतियों के छहवृद्धि और छहहानि के क्रम से अनुभाग को यह वेदता है।'
उपशान्तकषाय गुणस्थानवी जीव के यद्यपि कषाय सत्ता में विद्यमान है तथापि उपशान्त है अर्थात् अनुदयस्वरूप है । अतः रागोदय के अभाव में उसका चित्त निर्मल है। उस निर्मलता को स्पष्ट करने के लिए गाथा में दो दष्टान्त दिये हैं—१. जैसे गंदले जल में कतक फल अथवा निर्मली डाल देने से कीचड़ नीचे बैठ जाती है और जल निर्मल हो जाता है। २. वर्षा ऋतु में सरोवर का जल गंदला रहता है, किन्तु शरद् ऋतु आने पर मिट्टी आदि जो जल में मिश्रित थी, सरोवर में नीचे चली जाती है और सरोवर का जल स्वच्छ हो जाता है। इन दोनों दृष्टान्तों द्वारा यह स्पष्ट कर दिया गया है कि कीचड़ या मिट्टी आदि सत्ता में बैठी है, किन्तु जल को मलिन नहीं कर रही है । इस प्रकार मोहनीय कर्म सत्ता में विद्यमान है किन्तु उदर में ग्राकर चित्त को मलिन नहीं कर रहा है । कीचड़ अादि का अस्तित्व होने के कारण पुनः जल को मलिन कर सकती है, उसी प्रकार भवक्षय या कालक्षय के कारण सत्ता में बैठा हुआ मोहनीय कर्म चित्त को पुन: मलिन कर देता है ।
क्षीणमोह नामक प्रारहवें गूगगस्थान का स्वमाप *रिणस्सेसखोरणमोहो फलिहामलभायणुदयसमचित्तो ।
खीणकसानो भगदि पिगंथो बीयरायहि ॥ ६२॥ गाथार्थ-जिसने मोह का निःशेष रूप से क्षय कर दिया है, स्फटिकमणि के निर्मल भाजन में रखे हुए स्वच्छ जल के समान जिसका चित्त निर्मल है. वीतरागदेव ने ऐसे निर्ग्रन्थ को क्षीणकषायगुणस्थानवर्ती कहा है।
विशेषार्थ-मोह दो प्रकार का है. -द्रव्यमोह और भावमोह । प्रकृति-स्थिति-अनुभाग और प्रदेश के भेद से द्रव्यमोह चार प्रकार का है। राग और द्वेष के भेद से भावमोह दो प्रकार का है। जिसने द्रव्यमोह और भावमोह को उनके भेदों ब प्रभेदों सहित पूर्णरूप से नष्ट कर दिया है अतः उनका कोई भी अंश किसी प्रकार से शेष नहीं रहा है. इसलिए गाथा में "णिस्सेस-खीण-मोहों' पद दिया गया है। मोहनीय कर्मोदय के कारण अथवा राग-द्वेष के कारण चित्त में नानाप्रकार की तरंगें उठती थीं, जिससे समचित्त (तरंगों रहित चित्त, निर्मलचित्त-शान्तचित्त) का अभाव था, किन्तु मोह नष्ट हो जाने पर तरंगों का उठना समाप्त हो गया है अतः चित्त 'समचित्त' हो गया । इस 'सम
१. ज. प. पु. १३ पृ. ३३२-३३४ । २. घ. पु. १ पृ. १६० ; जयधयल मूल पृ. २२६४ । प्रा. पं. सं. १/२५ ।