Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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दाथा ६१
मुगास्थान/७५ किये जाने वाले प्रदेशज की अपेक्षा वह गुणश्रेणी अवस्थित होती है ।'
अवस्थित परिणाम होने से समग्र उपशान्तकाल के भीतर केवलज्ञानावरण और केवलदर्शनावरण के अनुभाग-उदय की अपेक्षा अवस्थित वेदक होता है । निद्रा और प्रचला अध्र व उदयवाली प्रकृतियाँ हैं. इसलिए इनका कदाचित् वेदक और कदाचित् अवेदक होता है । यदि वेदक होता है तो जब तक वेदक रहता है तब तक अवस्थित वेदक ही होता है, क्योंकि अवस्थित परिणामवाला है।
तराय कर्म की भी पाँचों प्रकृतियों का अवस्थित वेदक ही होता है, क्योंकि अवस्थित एक भेदरूप परिणाम के होने पर इनके उदय का दूसरा प्रकार सम्भव नहीं है। शेष लब्धिकर्माशों का अर्थात् अन्तरायकर्म को पाँच प्रकृतियों के अतिरिक्त चार ज्ञानावरगा और तीन दर्शनावरण प्रकृत्तियों का अनुभाग-उदय वृद्धि हानि या अवस्थानरूप होता है ।
शङ्का-लब्धिकर्माण किसे कहते हैं ?
समाधाम-जिनका क्षयोपशमरूप परिणाम होता है वे लब्धिकर्माश हैं, क्योंकि क्षयोपशमसब्धि होकर कर्माशों की लब्धिकांश संज्ञा की सिद्धि होने में विरोध का अभाव है। इन समस्त शब्धिकर्माशों का अनुभाग-उदय अवस्थित ही होता है, यह नियम नहीं है।
शङ्का-ऐसा किस कारण से होता है ?
समाधान-क्योंकि परिणाम प्रत्यय होने पर भी यहाँ पर उनकी छह प्रकार की वृद्धि, छह प्रकार की हानि और अवस्थित रूप परिणाम सम्भव है। यथा-सर्वप्रथम अवधिज्ञानावरण को कहते है--उपशान्त कषाय में यदि अवधिज्ञानावरण का क्षयोपशम नहीं है तो अवस्थित उदय होता है, क्योंकि नवस्थितपने का कारण नहीं पाया जाता । यदि अवधिज्ञानावरण का क्षयोपशम है तो वहीं छद्धि, छहहानि और अवस्थित रूप अनुभाग का उदय होता है, क्योंकि देशावधि और परमावधि ज्ञानी । जीयों में असंख्यातलोक प्रमाण भेद रूप अवधिज्ञानावरण सम्बन्धी क्षयोपशम के अवस्थितपरिणाम
के होने पर भी वृद्धि, हानि और अवस्थान के बाह्य एवं आभ्यन्तर कारणों की अपेक्षा से तद्रूप परिकणाम होने में विरोध नहीं है। सर्वावधिज्ञानो जीव उत्कृष्ट क्षयोपशम से परिणत होता है और उसके
अवधिशानावरण का उदय अबस्थित होता है, उससे अन्यत्र उसका उदय छहवृद्धि छहहानि और अवस्थितरूप से अनवस्थित होता है । इसी प्रकार मनःपर्ययज्ञानावरण की अपेक्षा भी कथन करना चाहिए। इसी प्रकार शेष ज्ञानावरगा पीर दर्शनावरण की अपेक्षा भी आगमानुसार जानकर कथन करना चाहिए।
जो नामकर्म और गोत्रकर्म परिगाम-प्रत्यय होते हैं, उनके अनुभागोदय की अपेक्षा अवस्थित। वेदक होता है।
शङ्का-वे कौन प्रकृतियाँ हैं ?
समाधान-मनुष्यगति, पंचेन्द्रिय जाति, औदारिकगरीर, तंजसशरीर, कार्मरणशरीर, छह संस्थानों में से कोई एक संस्थान, औदारिक शरीर अंगोपांग, तीन उत्तम संहननों में से कोई एक संहनन
१. ब. ध. पु. १३ पृ. ३२६ से ३२८ । २. ज. प. पु. १३ पृ. ३३१ । ३. ज. प. पु. १२ पृ. ३३२-३३३ ।