Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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७०/गो. मा. जीवकाण्ड
गाथा ५७-५८
हानि के रूप से परिणमित कर अत्यन्त सूक्ष्म या मन्द अनुभागरूप से अवस्थित करने को सूक्ष्मसाम्परायिक-कृष्टिकरण कहते हैं। सर्व जघन्य वाद र कृष्टि से सर्वोत्कृष्ट सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टि का भी अनुभाग अनन्तरिणत हीन होता है। इसीलिए सूक्ष्मसाम्परायिककृष्टियों का स्थान लोभ की ततीय कृष्टि के नीचे है। लोभ की द्वितीय कृष्टि का बेदन करने वाला प्रथम समय में ही सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टियों की रचना करना प्रारम्भ करता है। यदि संज्वलन लोभ के द्वितीय विभाग में सूक्ष्मसाम्पराधिक कृष्टियों की रचना न करे तो तृतीय विभाग में सूक्ष्मकृष्टि का बेदकरूप से परिरगमन नहीं हो सकता।'
लोभ की द्वितीय कृष्टि के वेदन करनेवाले के जो प्रथमस्थिति है उस प्रथम स्थिति में जब एक समय अधिक पावली काल गेप रह जाता है उस समय वह चरमसमयवर्ती बादरसाम्परायिक होता है । उसी समय में अर्थात् अनिवृत्तिकरण गुणस्थान के अन्तिम समय में लोभ की संक्रम्यमारण चरम बादर साम्परायिक कृष्टि सामस्त्यरूप से सूक्ष्मसाम्पर। यिक कृष्टियों में संक्रान्त हो जाती है। लोभ की द्वितीय बादरकृष्टि के एक समय कम दो प्रावली प्रमाण नवकसमपप्रबद्धों को छोड़कर तथा उदयावली-प्रविष्टद्रव्य को छोड़कर शेष सर्व कृष्टियाँ संक्रमण को प्राप्त हो जाती हैं अर्थात् सूक्ष्मप्टि रूप परिरम जाती हैं ।
संज्वलन कोध को उत्कृष्ट कृष्टि भी प्रथम अपूर्वस्पर्धक की प्रादिवर्गणा अर्थात् अपूर्वस्पर्धकों की जघन्यवर्गणा के अनुभाग के अनन्तबै भाग है । इस प्रकार कृष्टियों में अनुभाग उत्तरोत्तर अल्प है । यत: जिसके द्वारा संज्वलन कषायरूप कर्म कृश किया जाता है उसकी कृष्टि यह संज्ञा सार्थक है । यह कृष्टिका लक्षण है ।
सभी संग्रहकृष्टियाँ और उनकी अवयव कृष्टियाँ समस्त द्वितीय स्थिति में होती हैं, किन्तु जिस कृष्टिके का वेदन होता है, उसका ग्रंश प्रथस्थिति में होता है।
किसके कितनी संग्रहकृष्टियाँ बनती हैं, इसका स्पष्टीकरण-यदि क्रोध कषाय के उदय के साथ क्षपकश्रेणी चढ़ता है तो उसके बारह संग्रष्टियाँ होती हैं। मानकषाय के उदय के साथ चढ़ने वाले के नौ संग्रहकृष्टियाँ होती है। माया के उदय के साथ क्षपकश्रेणी चढ़ने वाले जीव के छह संग्रह-कृष्टियाँ होती हैं। लोभकषाय के उदय के साथ क्षपकणी चढ़ने वाले के तीन संग्रहकृष्टियों होती हैं । एक-एक संग्रहकृष्टि की अवयव या अन्तरकृष्टियाँ अनन्त होती हैं । प्रत्येक कषाय में तीन-तीन संग्रहकृष्टियाँ होती हैं।
कृष्टियों के बेवककालों का अल्पमहत्य--अन्तिम बारहवीं कृष्टि को (सूक्ष्मक्रष्टिरूप परिणमाकर) अन्तमुहर्त तक वेदक करता है, तथापि उसका वेदक काल सबसे कम है। ग्यारहवीं कृष्टि का बेदककाल विशेष अधिक है। दसवीं कृष्टि का वेदककाल विशेष अधिक है। नवमी कृष्टि का वेदककाल विशेष अधिक है। पाठवीं कृष्टि का वेदककाल विशेष अधिक है। सातवीं कृष्टि का वेदककाल विशेष अधिक है। छठी कृष्टि का देदककाल विशेष अधिक है। पांचवीं कृष्टि का वेदककाल बिशेष अधिक है। चतुर्थकृष्टि का वेदक काल विशेष
३. क. पा. चूणिमूष ७३१ मे ७३६ ।
१. जयधवल के आधार से । २. क. पा. चूर्णिसूत्र १२६५-६७ । ४. क. पा. गाथा १६८। ५. क. पा. नूणिसूत्र ७०६ से ७१४ ।