Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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६८/गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा ५७-५८
ममय क्रोध की द्वितीयकृष्टि का प्रथम समय वेदक होता है ।
शङ्का-जिस प्रकार क्रोध की प्रथम कृष्टि का वेदन करने वाला चारों कषायों' की प्रथम कृष्टियों को बांधता है, उसी प्रकार क्रोध की द्वितीयकृष्टि का वेदन करने वाला क्या चारों ही कषायों की द्वितीयकृष्टियों को बांधता है अथवा नहीं बाँधता है ? २
समाधान-जिस कषाय की जिस कृष्टि का वेदन करता है उस कषाय की उस कृष्टि को बाँधता है तथा शेष कषायों की प्रथम कृष्टियों को बांधता है।'
क्रोध की द्वितीय कृष्टि का बेदन करने वाले क्षपक के जो प्रथमस्थिति है, उस प्रथम स्थिति में आवली और प्रत्यावली काल के शेष रह जाने पर ग्रागाल और प्रत्यागाल न्युच्छिन्न हो जाते हैं। उसी प्रथम स्थिति में एक समय अधिक पावली के शेष रहने पर उस समय क्रोध की द्वितीयकृष्टि का चरमसमयवर्ती वेदक होता है। उस समय में चारों संज्वलन कषायों का स्थितिबन्ध दो मास और कुछ कम बीस दिवस प्रमाण है, शेष घातिया कमों का स्थितिबन्ध वर्षपृथक्त्वप्रमाण है, शेष कर्मों का स्थितिबन्ध संख्यात सहस्र वर्ष प्रमाण है। उस समय चारों संज्वलनों का स्थितिसत्त्व पाँच वर्ष और अन्तर्मुहूर्त कम चार-मास प्रमाण है: शेष तीन धातिया कर्मों का स्थितिसत्त्व संख्यात सहस्रवर्ष प्रमाण है । नाम-गोत्र-वेदनीयकर्म का स्थितिसत्व असंख्यातवर्ष प्रमाण है।
तदनन्तर समय में क्रोध की ततीय कृष्टि से प्रदेशाग्र का अपकर्षण कर प्रथमस्थिति को करता है। उस समय में श्रोध की तृतीय संग्रहकृष्टि की अन्नर कृष्टियों के असंख्यात बहुभाग उदोर्ण होते हैं और उन्हीं के असंख्यात बहभाग बँधते हैं। इतनी विशेषता है कि उदीर्ण होने वाली अन्तरकृष्टियों से बँधने वाली अन्तर कृष्टियों का परिमारग विशेष हीन होता है।"
क्रोध की सतीयकृष्टि को वेदन करने वाले की प्रथम स्थिति में एक समय अधिक प्रावली के शेष रहने पर चरम समयवर्ती क्रोध वेदक होता है और उसी समय में क्रोधसंज्वलन की जघन्य स्थिति का उदीरक होता है । उस समय चारों संज्वलन कषायों का स्थितिबन्ध दो मास है और स्थितिसत्त्व पूर्ण चार वर्ष प्रमाण है ।
नदनन्तर समय में मान को प्रथमकृष्टि का अपकर्षण करके प्रथम स्थिति को करता है। .यहाँ पर जो संज्वलनमान का सर्ववेदक काल है, उस वेदक काल के विभाग मात्र प्रथमस्थिति है। तब मान की प्रथम संग्रहकृष्टि को वेदन करने वाला उस प्रथम संग्रहकृष्टि की अन्तरकृष्टियों के असंख्यात वहुभाग वेदम करता है और तब ही उन उदीर्ण हुई कृष्टियों से विशेष हीन कृष्टियों को बांधता है तथा शेष कषायों की प्रथम संग्रहकृष्टियों को ही बाँधता है। मान की प्रथम संग्रह कृष्टि को वेदन करने वाले की जो प्रथम स्थिति है, उसमें जब एक समय अधिक पावलीकाल शेष रहता है तब तीनों संज्वलन कषायों का स्थितिबन्ध एक मास और अन्तमुर्हत कम बीस दिवस है तथा स्थितिसत्त्व तीन वर्ष और अन्तर्मुहूर्त कम चार मास है । ८ ।।
१. क. पा. चूणि सूत्र ११३६ से ११४१। २. क. पा. चूरिंगसूत्र ११५७ । ३. क. पा. चूरिणसूत्र ११६० । ४. क.पा. चूणिमूत्र ११७५ से ११८२ । ५. क.पा. चूणिसूत्र ११८३ से ११८५। ६. क.पा. चूणिसूत्र ११८७ से ११६० । ७. क.पा. चूणिसूत्र ११६१ से ११६५। ८, क.पा. चूणिसूत्र ११६८ से ११६६ ।