Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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गाथा ५७-५८
गुगाम्थान/६७
अन्तर अनन्तगुरणा है। इससे तृतीय संग्रहकृष्टि-अन्तर अनन्तगुणा है। माया और मान का अन्तर अनन्तगुरणा है। मान का प्रथमसंग्रहकृष्टि-अन्तर अनन्तगुणा है। इससे द्वितीय संग्रहकृष्टि अन्तर अनन्तगुणा है। इससे तृतीय संग्रहकृष्टि-अन्तर अनन्त गुणा है। मान का और क्रोध का अन्तर मनन्तगुणा है। क्रोध का प्रथम संग्रहकृष्टि-अन्तर अनन्तगुणा है । इससे द्वितीय संग्रहकृष्टि-अन्तर अनन्तगुणा है। इससे तृतीय संग्रहकृष्टि-अन्तर अनन्तगुरणा है। क्रोध की अस्लिमकृष्टि से लोभ के मपूर्वस्पर्धकों की आदिवर्गरणा का अन्तर अनन्तगुणा है।'
बादर कृष्टिकरणकाल के अन्तिम समय में चारों संज्वलनों का स्थितिबन्ध अन्तमुहर्त से अधिक चार मास होता है, शेष कमों का स्थितिबन्ध संख्यात सहस्रवर्ष है। मोहनीयकर्म का स्थितिसत्त्व संख्यात-सहस्र वर्षों से घटकर अन्तर्मुहूर्त से अधिक पाठ वर्ष प्रमाण हो जाता है, शेष तीन पातिया कर्मों का स्थितिसत्त्व संख्यात हजार वर्ष है तथा नाम, गोत्र और वेदनीयकर्म का स्थितिसत्त्व असंख्यात सहस्रवर्ष है ।
बादरकृष्टियों को करने वाला पूर्वस्पर्धकों और अपूर्वस्पर्धकों का वेदन करता है, किन्तु कृष्टियों का बेदन नहीं करता है। संज्वलन क्रोध की प्रथम स्थिति में प्रावली मात्र शेष रहने पर कृष्टिकरण काल समाप्त हो जाता है। कृष्टिकरणकाल के समाप्त होने पर अनन्तर समय में कृष्टियों को द्वितीय स्थिति से अपकर्षण कर उदयावली के भीतर प्रवेश कराता है। उस समय में चारों संज्वलनों का स्थितिबन्ध चार माह है और स्थितिसत्त्व आठ वर्ष है, शेष तीन घातियाकर्मों का स्थितिबन्ध एवं स्थितिमत्त्व संख्यात सहस्रवर्ष है । वेदनीय, नाम और गोत्रकर्म का स्थितिबन्ध संख्यात सहस्रबर्ष तथा स्थितिसत्त्व असंख्यात सहस्र वर्ष है। . संज्वलनक्रोध का जो अनुभागसत्त्व एक समय कम पावली के भीतर उच्छिष्टावलि रूप से अवशिष्ट है वह सत्रधातो है, जो दो समय कम दो प्रावलिप्रमाण नवकसमय प्रबद्ध हैं, वे देशघाती है और उनका वह अनुभागसत्त्व स्पर्ध कस्वरूप है। शेष सर्व अनुभागसत्त्व कृष्टिस्वरूप है ।
बादरकृष्टिवेदककाल के प्रथम समय में ही प्रथम संग्रहकृष्टि से प्रदेशाग्र का अपकर्षण करके प्रथम स्थिति को करता है। उस समय में कोध की प्रथम संग्रहकृष्टि के असंख्यात बहुभाग उदीर्ण अर्थात् उदय को प्राप्त होते हैं तथा क्रोध की इसी प्रथम संग्रहकृष्टि के असंख्यात बहभाग बन्ध को प्राप्त होते हैं, किन्तु शेष दो संग्रहकृष्टियाँ न बँधती हैं और न उदय को प्राप्त होती हैं ।५.
श्रोध की प्रथमकृष्टि का वेदन करने वाले की जो प्रथम स्थिति है, उस प्रथमस्थिति में एक समय अधिक प्रावली के शेष रहने पर क्रोध की प्रथमकृष्टि का चरमसमय वेदक होता है। तदनन्तर समय में क्रोध की द्वितीय कृष्टिप्रदेशाग्र को अपकषित कर क्रोध की प्रथम स्थिति को करता है। उस समय क्रोध की प्रथम संग्रहकृष्टि के जो दो समय कम दो प्रावली प्रमाण नवक समयप्रबद्ध हैं वे और उदयावलि में प्रविष्ट जो प्रदेशाग्र हैं वे, प्रथमकृष्टि में शेष रहते हैं । उस
१.क.पा. स्पिसूत्र ६२७ से ६४२ । २. क.पा. चूरिण सूत्र ६७३ से ६७७ । ३. क. पा. चूणिसूत्र ६.७८ से ६८५। ४. क. पा. चूणिमूत्र ६८६ से ६८८ । ५. क. पा. चूगिभूत्र ६६१-६२। ६. क. पा. चूणिमूत्र