Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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७२/गो, सा, जीवकाण्ड
गाथा ५६-६०
अणुलोहं वेदंतो जीवो उबसामगो व खवगो वा ।
सो सुहमसंपरानो जहखादेणूगो किंचि ॥ ६०॥ गाथार्थ-धुले हुए कसूम्भी बस्त्र में जिस प्रकार सूक्ष्म लालिमा रह जाती है उसी प्रकार (बादरकषाय का प्रभाव हो जाने पर भी) सूक्ष्म कषाय युक्त जीव या सूक्ष्मसराग है, ऐसा जानना चाहिए ।।५६ ।। जो उपशमक या क्षमक सूक्ष्म लोभ का वेदन कर रहा है वह सूक्ष्मसाम्परायिक चारित्र वाला है और वह यथाख्यात चारित्र से किचित् न्यून है ।।६।।
विशेषार्थ:-अनिवत्तिकरण परिणामों के द्वाश पचपि राम-ध रूप कषाय को धो दिया है अर्थात उसका अभाव कर दिया है तथापि धुले हुए कसूम्भी बस्त्र के समान सूक्ष्म लोभरूप राग या कषाय शेष रह जाती है । उस सूक्ष्म लोभोदय के कारण उपशामक अथवा क्षपक का सुश्मसाम्पराय चारित्र यथाख्यातचारित्र से कुछ न्यून रह जाता है।
सूक्ष्मकषाय को सूक्ष्मसाम्पराय कहते हैं। उसमें जिन संयतों का प्रवेश हो गया है वे सूक्ष्मसाम्प रायसंयत दसवें गुणस्थानवर्ती हैं। उनमें उपशमक और क्षपक दोनों होते हैं। सूक्ष्मसाम्पराय की अपेक्षा उनमें भेद नहीं होने से उपशमक और क्षपक इन दोनों का एक ही गुणस्थान होता है। इस गुणस्थान में अपूर्व और अनिवृत्ति इन दोनों विशेषणों की अनुवृत्ति होती है। इमलिए ये दोनों विशेषगा भी सूक्ष्मसाम्पराय के साथ जोड़ लेने चाहिए अन्यथा पूर्ववर्ती गुणस्थानों से इस गुरगस्थान की कोई भी विशेषता नहीं बन सकती।'
इस गुणस्थान में जीव कितनी ही प्रकृतियों का क्षय करता है, आगे क्षय करेगा और पूर्व में क्षय कर चुका है इसलिए इसमें क्षायिकभाव है तथा कितनी ही प्रकृतियों का उपशम करता है, आगे उपशम करेगा और पहले उपशम कर चुका है, इसलिए इसमें औपशामिकभाव है।
प्रथम समयवर्ती सूक्ष्मसापरायिक क्षपक के सूक्ष्मकृष्टियों के असंख्यात बहुभाग उदीर्ण होते हैं। संख्यातसहस्र स्थितिकाण्डकों के व्यतीत हो जाने पर मोहनीय कर्म का अन्तिम स्थितिकाण्डक उत्कीर्ण होता है। उस स्थितिकाण्डक के उत्कीर्ण हो जाने पर पागे मोहनीयकर्म का स्थितिघात नहीं होता, क्योंकि सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान का जितना काल शेष है उतना ही मोहनीय कर्म का सत्व है और उस स्थितिसत्त्व को अधःस्थिति के द्वारा निर्जीर्ण करता है।
चरमसमयवर्ती सूक्ष्मसाम्परायिक क्षपक के नाम और गोत्रकर्म का स्थितिबन्ध आठमुहूर्त प्रमाण होता है, वेदनीयकर्म का स्थितिबन्ध बारह मुहूर्त प्रमाण होता है, शेष तीन घातिया कर्मों का स्थितिबन्ध अन्तर्मुहूर्त प्रमाण होता है ।
क्रोध के उदय से चड़े हुए प्रथम समयवर्ती लोभवेदक बादरसाम्परायिक संयत के समस्त लोभ-वेदककाल के माधिक दो बटे तीन भाग प्रमाण (3) प्रथमस्थिति होती है। उस स्थिति का कुछ कम प्राधा सूक्ष्मसाम्परायिक संयतका काल है।
१. भ. पु. १ पृ. १८७ २. घ. पु १ पृ. १८८। ३. क.पा, बुरिणसूत्र १३३६ से १३४६ । ४. क. पा. चूगिमूत्र
१३६८ से १३७० । ५. ज. व. पु. १३ पृ. ३२० ।