Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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६४ / गो. सा. जी काण्ड
प्ररूपणा की गई है, उसी प्रकार संज्वलन माया, मान और शोध के अपूर्वस्पर्धकों की भी प्ररूपणा करनी चाहिए | "
प्रथम समय में जो अपूर्वस्पर्धक निवृत किये गये हैं, उनमें क्रोध के प्रपूर्वस्पर्धक सबसे कम हैं, इससे मान के पूर्व स्पर्धक विशेष अधिक हैं, इससे माया के अपूर्वस्पर्धक विशेष अधिक हैं और लोभ के पूर्व स्पर्धक विशेष अधिक हैं। यहाँ सर्वत्र विशेष का प्रमाण अनन्तवाँ भाग है । "
प्रथम समय में निर्वर्तित उन्हीं पूर्वस्पर्धकों के लोभ की आदिवर्गणा में प्रविभागप्रतिच्छेदा अल्प हैं, इससे माया की आदिवर्गणा में अविभागप्रतिच्छेद विशेष अधिक हैं । इससे मान की प्रादिवर्ग में अविभागप्रतिच्छेद विशेष अधिक हैं और इससे क्रोध की आदिवर्गणा में श्रविभागप्रतिच्छेद विशेष अधिक हैं । इस प्रकार चारों कषायों के जो अपूर्वस्पर्धक हैं उनमें अन्तिम प्रपूर्वस्पर्धक की दिवा में विभागप्रतिच्छेद चारों ही कषायों के परस्परतुल्य और अनन्तगुणित हैं । "
क. पा. चूणिसूत्र ५०५ से ५१४ तक के कथन को स्पष्ट करने के लिए अङ्क- संदृष्टि इस प्रकार है— क्रोधादि चारों कषायों के अपूर्वस्पर्धकों की संख्या क्रमशः १६-२० २४ २८ है और आदिवर्गणा में अविभागप्रतिच्छेद क्रमशः १०५, ८४, ७०, ६० हैं । आदिवfरणा को अपनी-अपनी अपूर्व स्पर्धक शलाकाओं से गुरण करने पर प्रत्येक कशय के अन्तिम स्पर्धक की प्रादिवर्गरणा के विभागप्रतिच्छेदों का प्रसारण श्रा जाता है, जो परस्पर तुल्य होते हुए भी अपनी आदिवर्गा की पेक्षा अनन्तगुणित होता है ।" यथा-
आदिवर्ग के विभागप्रतिच्छेद अपूर्वस्पर्धक शलाका
अन्तिम स्पर्धक की आदिवर्गणा के प्रविभागप्रतिच्छेद
क्रोध
१०५
×१६
गाथा ५८
मान
८४
x२०
१. क. पा. चूरि ४. क. पा. सुप्त पृ. ७६२ । ५. क. पा. सूत्र ५२२ से ५२६ ।
माया लोभ
६०
x २६
५०
x२४
१६८०
१६८०
१६८०
१६८०
अश्वकर्णकरण के प्रथम समय में लता समान प्रनन्तवाँ भाग प्रतिबद्ध पूर्वस्पर्धकों में से और स्तन पूर्वस्पर्धकों में से प्रदेशाग्र के असंख्यातवें भाग का अपकर्षण करके उदीरणा करने पर अनुभाग का अनन्तवाँ भाग उदयरूप से पाया जाता है और अनुदी भी रहता है, किन्तु उपरिम अनन्तबहुभाग अनुदीर्ण ही रहता है । बन्ध की अपेक्षा प्रथम अपूर्वस्पर्धक को आदि करके लता समान स्पर्धकों के अनन्त भाग तक अपूर्वस्पर्धक निवृत्त होते हैं। इतनी विशेषता है कि उदयस्पर्धकों की अपेक्षा ये बन्धस्पर्धक अनन्तगुणित हीन अनुभाग शक्तिवाले होते हैं । *
अब अश्वकर्णकरण के द्वितीय समय की प्ररूपणा की जाती है। यथा- अश्वकर्णकरण के द्वितीय समय में वही स्थितिकाण्डक, अनुभागकाण्डक और वही स्थितिबन्ध होता है, किन्तु अनुभागवन्त्र नन्तगुणा हीन होता है तथा गुणश्रेणी असंख्यातगुणी होती है । जिन अपूर्वस्पर्धकों को प्रथम समय में निवृत्त किया था, द्वितीय समय में उन्हें भी निवृत्त करता है और उनसे असंख्यातगुणित होन
५६१ से ५०४ । २. क. पा. मिसूत्र ५०५ से ५०६ । ३. क. पा. चूग्णसूत्र ५१० ५१४ ।