Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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५८) गो. सा. जीवकाण्ड
हैं । अपूर्वकरण को प्राप्त होने वाले उन सब क्षपक और उपशामकजीत्रों के परिणामों में अपूर्वपने की अपेक्षा समानता पाई जाती है, इसलिए वे सब मिलकर एक अपूर्वकरण गुणस्थान होता है ।
पडसमयमसंख लोगपरिणामा । प्रणुकट्ठी पत्थि यिमे ॥५३॥
तारिसपरिणामद्वियजीया हू जिरोहि गलियतिमिरेहिं । स्ववणुवसमणुज्जया भरिया ।।५४।।
मोहस्स पुकररा
तोमुहुत्तमेत्ते कमउढापुण्वगुणे
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गाथार्थ - अपूर्वकरण गुणस्थान का काल अन्तर्मुहूर्त है और इसमें परिणाम क्रमशः प्रतिसमय बहते हुए असंख्यात लोकप्रभाग होते हैं वे परिणाम उत्तरोत्तर प्रतिसमय समानवृद्धि को लिये हुए हैं। इस अपूर्वकरण गुणस्थान में नियम से अनुकृष्टि रचना नहीं होती ।। ५३ ।। अपूर्व परिणामों को धारण करने वाले जीव मोहनीय कर्म की ( शेष प्रकृतियों का ) क्षपण अथवा उपशमन करने में उद्यत होते हैं । अज्ञानरूपी अन्धकार से सर्वथा रहित जिनेन्द्रदेव ने ऐसा कहा है ।। ५४ ।।
विशेषार्थ - ( १ ) पूर्वकरण गुणस्थान का काल यद्यपि सामान्य से अन्तर्मुहूर्त कहा गया है। तथापि अधःप्रवृत्तकररण के अन्तर्मुहूर्त काल से संख्यातगुणा हीन है । ( २ ) अधःप्रवृत्तकरण के परिणामों की अपेक्षा अपूर्वकरण के परिणाम असंख्यातलोक गुण हैं। (३) अपूर्वकरण के प्रथम समय से लेकर अन्तिम समय तक के परिणाम प्रतिसमय क्रम से बढ़ते गये हैं अर्थात् संख्याव विशुद्धता दोनों ही प्रतिसमय बढ़ती गई हैं। अपूर्वकरण के प्रतिसमय परिणामों की खण्ड- रचना नहीं होती, क्योंकि इस गुरगस्थान में उपरितन समयवर्ती जीवों के परिणाम अधस्तन समयवर्ती जीवों के परिणामों के सण नहीं होते हैं । अधःप्रवृत्तकररण में उपरितन समय के परिणाम प्रधस्तन समयों के परिणामों के सदृश होते हैं इसलिए अधः प्रवृत्तकरणा में परिणामों की अनुकृष्टि रचना होती है ।
अपूर्व परिणामों को धारण करने वाले जीव अर्थात् साठवें गुणस्थानवर्ती जीव मोहनीय कर्म की शेष २१ प्रकृतियों का क्षय करने में अथवा उपशम करने में उद्यमशील होते हैं ।
शङ्का - आठवें गुग्गस्थान में न तो कर्मों का क्षय ही होता है और न उपशम ही होता है फिर इस गुणस्थानवर्ती जीवों को क्षपण व उपशमन में उद्यमशील कैसे कहा गया है ?
समाधान नहीं, क्योंकि भावी अर्थ में भूतकालीन अर्थ के समान उपचार कर लेने पर आठवें गुरणस्थान में यह संज्ञा बन जाती है ।
शङ्का - इस प्रकार मानने से तो प्रतिप्रसङ्ग दोष प्राप्त होगा ?
समाधान — नहीं, क्योंकि प्रतिबन्धक मरण के प्रभाव में अर्थात् आयु के शेष रहने पर नियम से चारित्रमोह का उपशम करने वाले तथा चारित्रमोह का क्षय करने वाले, अतएव उपशमन और क्षरण के सम्मुख हुए जीव के क्षरण व उपशमन में उद्यमशील यह संज्ञा बन जाती है ।
१. ब. पु. १ पृ. १५० १२. घ. पु. १ पृ. १५१ । ३. ध.नु. १ पृ. १८३ सूत्र १६ की टीका 1