Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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पापा ५५-५६
गुणास्थान /५६ शा-क्षपक श्रेणी में होने वाले परिणामों में कर्मों का क्षपण कारण है और उपशम श्रेणी में होने वाले परिणामों में कर्म का उपशमन कारण है, इसलिए इन भिन्न-भिन्न परिणामों में एकता से बन सकती है ? . समाधान--नहीं, क्योंकि क्षपक और उपशामक जीवों के होने वाले उन परिणामों में अपूर्वता की अपेक्षा समानता पायी जाती है, इससे उनके एकता बन जाती है ।।
अपूर्वकरण के परिणामों में प्रतिसमय कम से वृद्धि को स्पष्ट करने के लिए अंकसंदृष्टि इस
. अपूर्व करण के परिणामों की संख्या अङ्कसंदृष्टि में ४०१६ है । काल =समय है। प्रथम समय के परिणाम ४५६, द्वितीयादि समयों के परिधान क्रमशः ७ ८ ::. . .५.२०. १३६१२-५६५ हैं । इस प्रकार प्रतिममय परिणामों में वृद्धि होती जाती है।
बिहापयले एसपि पाऊ उपसमंति उपसमया ।
___ खवयं दुक्के खवया णियमेण खवंति मोहं तु ॥५५॥ - गाथार्य--जिनके निद्रा और प्रचला का बन्ध नष्ट हो चुका है और आयु (अवशेष) है वे पशामक जीव मोह का उपशमन करते हैं तथा क्षपकश्रेणी प्रारोहणा करने वाले क्षपक नियम से मोह का क्षय करते हैं ॥५५॥
विशेषार्थ--अपूर्वकरणगुणस्थान के सात भाग होते हैं। उन सात भागों में से प्रथम भाग में मीनावरण कर्म की निद्रा और प्रचला प्रकृतियों को बन्ध-व्युच्छित्ति होती है, क्योंकि स्त्यानगृद्धित्रिक की तो बन्धब्युच्छित्ति सासादन नामक द्वितीय गुणास्थान में हो जाती है । अपूर्वकरण के छठे भाग में अरमविक (परभव में उदय में आने वाली) नामकर्म की तीस प्रकृतियों की बन्ध-व्युच्छित्ति होती है । पान्तम-सातवें भाग में हास्य-रति, भय-जुगुप्सा इन चार नोकषाय को बन्ध-व्युच्छित्ति होती है तथा हास्य, रति, अर ति, शोक, भय और जुगुप्सा इन छह नोकषायों का उदय-विच्छेद भी होता हैं ।। प्रशमश्रेणी आरोहक के अपूर्वकरण के प्रथम भाग तक मरण नहीं होता है, किन्तु प्रथम भाग के आचात् मरण भजनीय है । यदि मरण नहीं होता तो चारित्रमोहनीय कर्म की २१ प्रकृतियों का लियम से उपशम करता है और यदि मरण हो जाता है तो नियम से वैमानिक देवों में असंयत सम्यगरिट होता है । क्षपकणी पर चढ़ने वाले जोबों का मरण नहीं होता, वे तो नियम मे २१ प्रकृतियों
क्षय करते हैं। . इस अपूर्वकरगगुणस्थान में चार नवीन आवश्यक प्रारम्भ हो जाते हैं- १. स्थितिकाण्डकघात प्रशुभकर्मों का अनन्त बहुभागप्रमाण अनुभागकाण्डकघात, ३. प्रतिसमय गुणश्रेणीनिर्जरा और गुणसंक्रमरण । एक स्थितिकाण्डकघात के काल में संन्यात हजार अनुभागकाण्डकघान होते हैं 1
अनिवृत्तिकरणगुणस्थान का म्यरूप 'एक्कम्हि कालसमए संठाणादीहि जह गियति ।
रए रिणयति तह चिय परिणामेहि मिहो जे हु ॥५६॥ प. पु. १ पृ. १८१-१८२ सूत्र १६ की टीका । २. ज. प. पु. १३ पृ. २१७-२२८। ३. घ. पु. १ ] १८६ सूष १७ की टीका; प्रा. पं सं. प्र. १ गा, २० ।