Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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५१-५२
गुग्णस्थान / ५७
समय अनन्तगुणा-अनन्तगुणा बन्ध करता हुआ, असाता आदि प्रशस्त प्रकृतियों के द्विस्थानिक भाग को प्रतिसमय अनन्तगुणाहीन बाँधता हुआ संख्यातहजार स्थितिबन्धापसररण करके इन चार कोंके द्वारा अधःप्रवृत्तकररण को व्यतीत कर दोनों श्रेणियों में से किसी एक श्रेणी के अपूर्वमें प्रवेश करता है जहाँ प्रथम समय से ही अपूर्व - अपूर्व परिणाम होते हैं, वही अपूर्व करण स्थान है।
अपूर्वकका निर्थं
'एव गुणट्ठाणे, विसरिससमयद्वियेहिं जीवेहि । पुध्वमपत्ता जह्मा होंति अपूण्या हृ परिणामा ||५||
भिसमय द्वियेहि जीवेहि रग होदि सवदा सरियो । करणेहि एक्कसमयडियेहिं सरिसो विसरिसो वा ॥ ५२ ॥
गाथार्थ - इस गुणस्थान के उत्तरोत्तर समयों में स्थित जीवों के परिणाम विसरश होते हैं र्थात् समानरूप नहीं होते । उपरिम समय में जो विशुद्धपरिणाम होते हैं वे परिणाम अधस्तन पूर्वसमय में प्राप्त नहीं होते इसलिए प्रतिसमय अपूर्व प्रपूर्व परिणाम होते हैं || ५१ || पूर्वकरण के सर्वकाल में भिन्न समयों में स्थित जीवों के परिणाम सदृश नहीं होते, किन्तु एक ही समय में स्थित यों के परिणाम सर भी होते हैं और विसा भी होते हैं ।। ५२ ।।
विशेषार्थ - अपूर्व कर रणप्रविष्टशुद्धि संयतों में सामान्य से उपशामक व क्षपक दोनों प्रकार के शाम होते हैं । करण शब्द का अर्थ परिणाम है और जो पूर्व समयों में नहीं हुए वे अपूर्व परिणाम है। नाना जीवों की अपेक्षा अपूर्वकरण की आदि से लेकर प्रत्येक समय में क्रम से बढ़ते हुए प्रसंख्यातMisप्रमाण परिणाम वाला यह गुणस्थान है । इस गुणस्थान में विवक्षित समयवर्ती जीवों के परिणाम अन्य समयवर्ती जीवों के द्वारा श्रप्राप्य होने से पूर्व हैं । विवक्षित समयवर्ती जीवों के परिणामों से भिन्न समयवर्ती जीवों के परिणाम असमान अर्थात् विलक्षण होते हैं। इस प्रकार प्रत्येक समय में होने वाले अपूर्व परिणामों को पूर्वकरण कहते हैं । प्रपूर्वकरण में अपूर्व विशेषरण द्वारा मषः करण का निषेध किया गया है, क्योंकि जहाँ पर उपरितन समयवर्ती जीवों के परिणाम अधस्तन यवर्ती जीयों के परिणामों के साथ सहश भी होते हैं और विसा भी होते हैं, ऐसे अधःप्रवृत्त में होने वाले परिणामों में अपूर्वता नहीं पायी जाती है ।
शङ्का - पूर्वशब्द 'पहले कभी नहीं प्राप्त हुए' अर्थ का वाचक है, असमान अर्थ का वाचक नहीं है, इसलिए यहाँ पर अपूर्व शब्द का अर्थ असमान या विसा नहीं हो सकता है ।
समाधान — ऐसा नहीं है, क्योंकि पूर्व और समान ये दोनों शब्द एकार्थबाची हैं, इसलिए पूर्व और असमान इन दोनों का अर्थ भी एक ही समझना चाहिए ।
शङ्का - अपूर्वऋरारूप परिणामों में प्रवेश करने वाले कौन जीव होते हैं ?
समाधान - प्रपूर्वकरण परिणामों में प्रवेश करने वाले सातिशय-प्रप्रमत्तसंयतजीव होते ६.पु. १ पृ. १०३ गा. ११७: प्रा. पं सं. श्र. १ गा. १८ । २. भ.पु. १. १८३ गा. ११६ : प्रापं सं. १ १७ ॥