Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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माथा ४८-४६
गुगणस्थान/५५
अपयविशुद्धि (५४ की जघन्यविशुद्धि) अनन्तगुणी होकर जघन्यविशुद्धि का अन्त प्राप्त होने तक करना चाहिए।
प्रथम निर्वर्गग्गाकाण्डक के दुसरे समय की उत्कष्ट विमुद्धि से ! ४३ की निशुद्धि से) लापर द्वितीय निवर्गणाकाण्डक के दूसरे समय की जघन्यविशुद्धि (४४ को जघन्यविशुद्धि) अनन्तगरणी है। इससे ऊपर प्रथम निर्वर्गणाकाण्डक के तीसरे समय की (४४ की) उत्कृष्टविशुद्धि अनन्तगुणी है। इससे ऊपर द्वितीय निर्वर्गणाकाण्डक के तृतीय समय की जघन्यविशुद्धि (४५ की जघन्यविशुद्धि) अनन्तगुणी है। इससे ऊपर प्रथम निर्वर्गणाकाण्डक चतुर्थसमय को उत्कृष्टविशुद्धि (४५ की । उत्कृष्टविशुद्धि) अनन्तगुरणी है। इस प्रकार जानकर द्वितीय निवर्गणा
काण्डक के अन्तिम समय की जघन्यविद्धि अनन्तगुणी है, इसके प्राप्त होने तक अल्पबहुत्व करते जाना चाहिए। इस प्रकार अनन्तर उपरिम निर्वर्गणाकाण्डक के जघन्य परिगामों का अन्तर अधस्तन निर्बर्गणाकाण्डक के उत्कृष्ट परिणामों के साथ क्रम से अनुसन्धान करते हुए अधःप्रवृत्तकरण के अन्तिम समय की जघन्य विशुद्धि द्विचरम निर्वर्गणाकाण्डक के अन्तिम समय की उत्कृष्ट विशुद्धि से अनन्तगुणी होकर । जघन्य-विशुद्धियों के अन्त को प्राप्त होती है । इस स्थान के प्राप्त होने । तक ले जाना चाहिए।
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द्विचरम निर्वर्गणाकाण्डक के अन्तिम समय की उत्कृष्टविशुद्धि मे। ऊपर अधःप्रवृत्तकरण के अन्तिम समय की जघन्यविशुद्धि (५४ की जघन्य विशुद्धि) अनन्तगुरणी है। इसमे अन्तिम निर्वर्गणाकाण्डक के प्रथम समय की उत्कृष्टविशुद्धि (५४ को उत्कृष्टविशुद्धि) अनन्तगणी । है। इस प्रकार समनन्तर पूर्व समयों को देखते हुए उत्कृष्टविशुद्धि ही अनन्तगुणी ले जानी चाहिए। उत्कृष्टविशुद्धि का यह क्रम अधःप्रवृत्तकरण के अन्तिम समय तक ले जाना चाहिए। यह विषय इस चित्र से स्पष्ट हो जाता है
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विशेष—इस चित्र में १ से १६ तक की संख्या अध:प्रदत्तकरण के समयों की सूचक है। कोष्ठक के भीतर की संख्या निर्वर्गरगाकाण्डक में चार-चार समय होते हैं। 'ज' जघन्य का और 'उ' उत्कृष्ट का सूचक ५ है। १, ४० आदि संख्या जघन्य परिणाम का प्रमाण प्रगट करती है । १६२, २०५ आदि संख्या उत्कृष्ट परिणाम के प्रमाण की सूचक है ।। - जघन्य से अन्य जघन्य, जघन्य से उत्कृष्ट, उत्कृष्ट से जघन्य, २ उत्कृष्ट से अन्य उत्कृष्ट इन सब स्थानों में विशुद्धि अनन्तगुरणी बढ़ती है। ।
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१. ज.ध.पु. १२ पृ. २४६ से २४६ तक । २. ज.ध.पु. १२ पृ. २५० ।