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चरकसंहिता - भा० टी० ।
ऋतुद्वारा वर्षको अङ्गकल्पना । इहखलु संवत्सरंपडङ्गमृतुविभागेनविद्यात्तदादित्यस्योदगथनमादानं च श्रीनृतूञ् शिशिरादीन् ग्रीष्मान्तान् व्यवस्येत् वर्षादीन पुनर्हेमन्तान्तान दक्षिणायनंविसर्गञ्च ॥ २ ॥
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ऋतुओंके विभागसे अँवत्सर छः भागांम वांटा हुआ है । इन छहों में शिशिर, वसंत, ग्रीष्म इन तीन ऋतुओं में सूर्यका उत्तरायण काल है इसीको आदानकाल कहते हैं (इस कालमें सूर्य अपनी किरणों द्वारा रसको ग्रहण करताहै) और वर्षा, शरद, हेमन्त इन तीन ऋतुओं में सूर्य दक्षिणायन होता है इसको विसर्ग काल कहते हैं ।. ( इस कालम सूर्य रसादिको त्यागता है अर्थात् छोड़ता है ) ॥ २ ॥
- आदान और विसर्गकालके गुण दोष ।
विसर्गेचपुनर्वायवोनातिरूक्षाः प्रवान्तीतरेपुनरादाने सोमश्चाव्याहतबलः। शिशिराभिर्भाभिरापूरयञ्जगदाप्याययतिशश्वदतोविसर्गः सौम्यः ॥ ३ ॥
विसर्गकालको पवन-अत्यन्त रूखी नहीं होती । किंतु आदानकालकी पवन अत्यन्त रूखी होती है । विसर्गकालमें चन्द्रमा बलवान्, सुंदर शीतल अपने प्रकाशसे जगत्को सुख देनेवाला हाताह इस कारण विसर्गकाल सौम्य होताहै ॥ ३ ॥ आदानं पुराग्नेयंतावेतावर्क वायूसोमश्चकालस्वभावमार्ग - परिगृहीताः कालत्तुरसदोषदेहवलनिर्वृत्तिप्रत्ययभताः समुपदिश्यन्ते ॥ ४ ॥
आदानकाल- अग्नितत्त्ववाला होता है और अत्यन्त रूक्ष होता है | आदानकाल और विसर्गकाल तथा सूर्य, वायु. चंद्रमा, यह सब अपने २ कालस्वभाव और गतिमं प्रवृत्त हुए काल. ऋतु, दोप. देहबल, इनको प्रवृत्त करनेवाले अर्थात् रचनेवाले कहे जाते ॥ २ ॥
तत्ररविर्भाभिराददानोजगतः
स्नेहंवायवस्तीत्ररूक्षा
श्रोपशोपयन्तः शिशिरवसन्ती प्मे पुयथाक्रमंरौक्ष्य मुत्पाद्यन्तोरुक्षानूरसानूतिक्तकषायकटुकांश्चाभिवर्द्ध.. यन्तो नृणांदविल्यमावहन्ति ॥ ५ ॥