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शारीरस्थान ०१.
(६७३) : देहेको धारण करनेवाला आत्मा सम्पूर्ण शरीरमें गमन करनेवाला होनेसे स्पर्श युक्त शरीरकेही सुख दुःखको जानता है । केश, नख, आदि जो स्पर्शयुक्त नहीं हैं 'अर्थात् मनुष्यके शरीरकी स्पर्शनेन्द्रिय जिस स्थानमें प्राप्त नहीं हैं उसके सुख दुःखको नहीं जानसकता ॥ ७८ ॥
आत्माको विभुत्वं । विभुत्वमतएवास्ययस्मात्सर्वगतोमहान्ः मनसश्चसमाधानात्पश्यत्यात्मातिरस्कृतम् ॥ ७९ ॥ नित्यानुबन्धमनसादेहकमानुपातिना सर्वयोनिगतंविद्यादेकयोनावापस्थितम् ॥८॥ क्योंकि आत्मा सर्वगत है और महान है इसलिये इसको विभु कहतेहैं । यह आत्मा योग, समाधीक बलसे दीवार और पर्वतसे छिपी हुई वस्तुको भी देखसकताहै । कर्म देहका अनुवर्ती होनेसे देहान्तरमें गमन कर सकताहै । मनके साथ आत्माका नित्य सम्बन्ध होनेसे वह नाना योनियोंमें गमन करता हुआ भी एक योनिमें रहनेके समान ही मानताहै ॥ ७९ ॥ ८० ॥
आत्माका अनादित्व। आदि स्त्यात्मनःक्षेत्रपारम्पर्य्यमनादिकम् । • अतस्तयोरनादित्वात्किंपर्वमितिनोच्यते ॥ १॥ 'आत्मा अनादि है और क्षेत्र परम्परा भी अनादि है । जब दोनों अनादि हैं फिर उनमें पहिले और पीछेका प्रश्नही नहीं होसकता ॥ ८१॥
आत्माका सर्वसाक्षित्व । ज्ञःसाक्षीत्युच्यतेनाज्ञःसाक्षीह्यात्माह्यतःस्मृतः ।
सर्वभावाहिसर्वेषांभूतानामात्मसाक्षिकाः ॥ ८२ ॥ आत्मा ज्ञाता होनेसे साक्षी कहा जाताहै क्योंकि अज्ञ साक्षी नहीं होसकता। मनुष्यके सम्पूर्ण भावोंका साक्षी आत्माही हैं ॥ ८२ ॥ .
नैकःकदाचिद्भूतात्मालक्षणैरुपलभ्यते।विशेषोऽलुपलायस्यतस्यनैकस्यविद्यते ॥ ८३ ॥ संयोगःपुरुषस्येष्टोविशेषोवेदनाकृतः । वेदनायत्रनियताविशेषस्तत्रतत्कृतः॥८॥ . पुरुष (आत्मा) एकही है.यह किसी लक्षणद्वारा सिद्ध नहीं होसकता अर्थात् पुरुष अनेक हैं । तात्पर्य यह हुआ कि चैतन्य आत्मी सम्पूर्ण संसारमें एकही हैं ऐसा नहीं, किन्तु अनन्त और अनेक आत्मा हैं। इसीलिये दूसरे आत्माके सुखदुः