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शारीरस्थान - अ० २.
उत्तर ।
( ६८७ )
शुकंतदस्यप्रवदन्तिधीरायद्वीयते गर्भसमुद्भवाय । वाय्वग्निभूस्यब्गुणपादवत्तंषड्भ्योर सेभ्यः प्रभवश्चतस्य ॥ २ ॥
इसप्रकार अग्निवेशके प्रश्नको सुनकर भगवान् आत्रेयजी कहते हैं कि, छः रसोंका अन्तिम परिणामभूत जो वर्यि है उसको बुद्धिमान् शुक्र कहते हैं । वह पुरुषका शुकही स्त्रीकी योनिमें प्राप्तहो शुद्ध आतवसे मिलकर गर्भको प्रगट करता है क्योंकि छः रसोंसे इसकी उत्पत्ति होती है इसलिये इसकी छ:रसोंसे उत्पत्ति मानते हैं । वह · वायु, अग्नि, पृथ्वी और जल इनके गुणोंसे युक्त होता है इसलिये इसको चतुष्पाद् कहते हैं ॥ २ ॥
गर्भके विषय में प्रश्न |
सम्पूर्ण देहः समयेसुखञ्च गर्भः कथं केन चजायतेत्री । गर्भचिराद्विन्दतिसप्रजापिभूत्वाथवानश्यति केनगर्भः ॥ ३ ॥
(प्रश्न ) वह वायु, अग्नि, पृथ्वी और जलसे युक्त हुआ गर्भ किससमय संपूर्ण देहको प्राप्त होता है ? और स्त्री किसप्रकार कैसे सुखपूर्वक प्रगट करती है । और जो स्त्रिये वंध्या दोषयुक्त नहीं भी हैं वह भी कभी कभी बहुत समय में अर्थात् विलम्बसे गर्भको क्यों धारण करती हैं बहुतसी स्त्रियों को गर्भ होकर फिर वह नष्ट क्यों हो जाता है ॥ ३ ॥
यथाक्रम उत्तर ।
" शुक्रासृगात्माशय कालैसम्पद्यस्योपचाराश्चाहितैस्तथार्थैः । गर्भश्चकाले चसुखी सुखञ्चसञ्जायते सम्पारम्पूर्णदेहः ॥ ४ ॥
(उत्तर) शुद्ध शुक्र और शुद्ध रक्त, आत्मा, जरायु और काल इन सबके उत्तम होनेसे तथा हितकारक पदार्थों के सेवन से एवम् हितकारक भावोंके होनेसे अपने -समय पर संपूर्णदेह हुआ वह सुखी गर्भ सुखपूर्वक उत्पन्न होता है ॥ ४ ॥
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१ अन्न वाय्वादिपादवति वक्तव्ये यद्गुणपदमधिक विहितं तेन प्रशस्तगुणवतामेवं वाय्वादीन विशुद्धशुक्रारम्भकत्वामेति दर्शयति । वाय्वादिषु शुक्रारम्भकेषु "पादव्यपदेशेन चतुर्ध्वेव शुभारम् -करवं” विद्यते । आकाशन्तु यद्यपि शुक्रं पाञ्चभोतिकेऽस्ति, तथापि न पुरुषशरीरान्निर्गत्य गर्भाशय -राच्छीत किन्तु भूनचतुष्टयमेव क्रियावद् भवतेि आकाशन्तु व्यापकमेव तत्रागतेन शुक्रेण सम्बद्धं मचाते आकाशस्य गमनाभावादिद्द गर्भाशयगमनाभिधानप्रस्तावे ' शुक्रगतत्वेनानभिधानम् अन्यन्त्रापि च भूतानां गमनमस्वावे आकाश मनभिधानत्वात् यथा 'भूतेस्तुर्भिः सहितः सुसूक्ष्मैमनोजवो देहदुरेटि देहादिति । २ 'सम्पत् शब्दः शक्रादिभिः प्रत्येकमा सम्बध्यते ।