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चरकसंहिता-भा० टी०। यह सुनकर भगवान् आत्रेयजी कहनेलगे कि मोह,इच्छा, द्वेष और कर्मही प्रकृ० त्तिका मूल अर्थात कारण हैं। उस प्रवृत्तिके होनेसे अहंकार, संग,संदेह,अभिसंप्लव अभ्यवपात, विप्रत्यय, विशेष और अनुपाय यह उपस्थित होजातेहै । जैसे-तरुणः वृक्षमें शाखा आदि निकलकर बडी २ टहनी बढकर होजाती है और वृक्षसे सद टहनी व्याप्त रहती है उसीप्रकार अहंकारादि बढकर पुरुषसे व्याप्त रहतेहै । उन अहंकार आदिकोसे व्याप्त हुआ पुरुष आत्मज्ञानको नहीं जानसकता ॥ १० ॥
अहंकारका लक्षण। तत्रैवजातिरूपवित्तबदिशालविद्याभिजनवयोवीर्यप्रभावलम्पन्नोऽहमित्यहङ्कारः॥ ११ ॥ मैं अच्छी जातिका हूं, मेरा रूप बहुत उत्तम है एवम् मैं बुद्धि, शील, विद्या, कुल, यौवन, वीर्य और प्रभाववाला हूं इस प्रकार चित्तमें अहंभाव आनेको अहं: कार कहतेहैं ॥११॥
संगलक्षण । यन्मनोवाकायकर्मलापवायससङ्गः ॥ १२॥ मन, वाणी, देह और कर्म इनका इसप्रकार उपयोग करना जिसमें मोक्षको. प्राप्त न होसके उसको संग कहतेहैं ॥ १२ ॥
संदेहका लक्षण । कर्मफलमोक्षपुरुषप्रेत्यभावादयःसन्तिवानेतिसंशयः॥ १३॥ कर्मका फल और मोक्ष तथा आत्मा एवं पुनर्जन्म है या नहीं इसप्रकार बुद्धि होनेको संशय कहतेहैं ॥ १३ ॥
आभिसंप्लवका लक्षण। . सर्वास्ववस्थास्वतन्योऽहमहंस्रष्टास्वभावसंसिद्धोऽहमहंशरीरेन्द्रियबुद्धिस्मृतिविशेषराशिरितिग्रहणासमिसंप्लवः ॥ १४॥ जो कुछ हूं सो मैंही हूं, सव अवस्थाओं में अनन्य हूं अर्थात् मेरे समान फोई नहीं मैं श्रेष्ठ हूं मेरा स्वभाव बहुत अच्छा और ठीक है, मैं शरीर, इन्द्रिय, बुधि और स्मृति विशेषका राशि हूं ऐसी बुद्धि होनेका नाम संप्लव है ।। १४॥
- अस्यवपातका लक्षण । . मनमातृपितु दारापत्यवन्धविनत्यगणोगणत्यवाहानित्यस्यवपातः॥१५॥