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चरकसंहिता-मा० टी०। कृत्स्नमौत्पातिकंघोरमरिष्टमपलक्ष्यते । .. इत्येतानिमनुष्याणांभवन्तिविनशिष्यताम् ॥ ५९॥
तथा संपूर्ण लक्षण घोर उत्पातकेसे होने लग जायँ । यह संपूर्ण लक्षण विना. शको प्राप्त होनेवाले मनुष्य के होतेहैं ॥ ५९॥ लक्षणानियथोद्देशयान्युक्तानियथागमम् । मरणायेहरूपाणिपश्यतापिभिषाग्विदा ॥६० ॥ अपृष्टेननवक्तव्यमरणप्रत्युपस्थितम् । पृष्टेनापिनवक्तव्यंतत्रयापघातकम् ॥ ६१ ॥ आतुरस्यभवेदुःखसथवान्यस्थकस्यचित् । अध्रुवंमरणंयस्यनैनमिच्छेचिकित्सितुम् । यस्यपश्येद्विनाशायलिङ्गानिकुशलोभिषक् ॥ ६२॥
यह सम्पूर्णलक्षण शास्त्रानुकूल और अपने उद्देश्य के अनुसार कथन करदियेगले है । इन मरणख्यापक रूपोंको देखतेहुए भी विना पूछे वैद्यको किसीके पास नहीं कहना चाहिये । और पूछनेपर भी यह अवश्य मरजायगा इस प्रकार नहीं कहना चाहिये और खासकर जिस जगह रोगी और रोगीके घरवाले हों. उस स्थानमें तो कहनाही नहीं चाहिये क्योंकि ऐसा खोटा शब्द कहनेसे रोगीको अत्यन्त दुःख होताहै और उसके घरवालों में भी व्याकुलता उत्पन्न होजाती है। जव वैद्य किसीको मरनेके लक्षणोंवाला देखे तो कहे कि इस समय हम इसकी चिकित्सा नहीं करसकते परन्तु यह कभी न कहे कि यह मरजायगा क्योंकि यदि दैवयोगसे वह वचजाय तो वैद्यको बडीमारी हानि पहुंचती है इसलिये कुशलवैद्य अपने मुखसे रोगीके पास य रोगियों संबन्धियोंके पास उसके मरणकी बात न कहे ॥ ६०॥ ६१ ॥ ६२ ॥
___ साध्यरोगीके लक्षण। लिङ्गेभ्योमरणाख्यभ्योविपरीतानिपश्यता। लिङ्गान्यारोग्यमागन्तुर्वक्तव्यंभिषजाध्रुवम् ॥ ६३ ॥ दूतैरौत्पातिकैीवैःपथ्यातुरकु. लाश्रयः । आतुराचारशीलेष्टद्रव्यसम्पत्तिलक्षणैः ॥ ६४॥ . जिस रोगीके कोई लक्षण उपरोक्त लक्षणों मेंसे न हों अर्थात् ऊपर कहुए सब अशुभ लक्षणोंसे विपरीत शुभ लक्षण दिखाई देते हों तथा अन्य किसी प्रकारके ::उत्सात न होते हों एवं दूतसम्बन्धी वा मार्गसम्बन्धी, कुलसम्बन्धी, पथ्यसम्बन्धी किसी प्रकारके अशुभ लक्षण न हों तथा रोगीके आचार, स्वभाव, इन्द्रियादि द्रष्टः ज्य विषय और शारीरिक सम्पत्ति इन सबके शुभ लक्षण हों तो वह रोगी अवश्य नाराग होजाताहै ऐसा वैद्यको कहना चाहिये ॥ ६३ ॥ ६४॥