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'चरकसंहिता-भा० टी० लिये जो रूपांतर उत्पन्न होते हैं उन सबको शास्त्रानुसार यथा उद्देश वर्णन करते. हैं ॥४१॥४२॥ ४३ ॥
प्राणा:समुपतय्यन्तेविज्ञानमुपरुध्यतो वमन्तिवलमङ्गानिचेष्टा व्युपरमन्तिचः॥४४॥इन्द्रियाणिविनश्यन्तिखिलीभूतेवचेतना । ओत्सुक्यं भजतेसत्त्वंचेतोभीराविशत्यपि ॥४५॥स्मृतिस्त्यजति मेषाचहीश्रियौचापसर्पतः। उपप्लवन्तेपाप्मानओजस्तेजश्चनश्यति ॥ ४६॥
जैसे-प्राणोंको उपताप हो, ज्ञान नष्ट हो जाय, अंग वलहीन होजायँ, संपूर्ण . चेष्टा जातीरहे, इन्द्रिये नष्ट होजाय, चैतन्यता जाती रहे, मन व्याकुल होजाय,चित्त'
भयातुर होजाय, स्मृति जाती हे तथा मेधा, कांति, लज्जा यह सब नष्ट होजायें: . उपद्रवरूपी पापोंका प्रवेश हो, अज और तेज सव नष्ट होजायें यह सव यमलोक. जानेवाले मनुष्योंके लक्षण होते हैं ॥ ४४ ॥ ४५ ॥ १६ ॥
शीलंव्यावर्ततेऽत्यर्थभत्ति.श्वपरिसर्पते। विक्रियन्तेप्रतिच्छायाश्छायाश्चविरुतिंगताः॥४७॥शुक्रप्रच्यवतेस्थानादुन्मार्गभजतेऽनिलः। क्षयंमांसानिगच्छन्तिगच्छत्यसृगुपक्षयम् ॥४८॥ ऊ माणःप्रलयंयान्तिविश्लेषंयान्तिसन्धयः।गन्धाविकृततांयान्ति भेदवर्णस्वरौतथा॥४९॥वरस्यंमजतेकायःकायश्छिद्रविशुध्यति
धूमलनायतेमनिंदारुणाख्यश्चचर्णकः ॥ ५॥ .. — स्वभाव अत्यंत बिगडजाय,भक्ति जातीरहे,छाया और प्रतिच्छायामें विकाग्युक्त
लक्षण होनेलगे. अथवा स्थानसे वीर्य गिरताहो वायु अपने स्थानोंको छोड उलट 'मागाँसे गमन करने लगजाय, मांस क्षीण होजाय,रक्त नष्ट होजाय, शरीकी गरमी,
शान्त होजाय, संपूर्ण संधिये ढीली पडजायँ,गंधमें विकृति होजाय, वर्ण और स्वर बिगडजाय, शरीर विरस होजाय, संपूर्ण शरीरमें छिद्रोंकी उत्पत्ति होजाय अथवा । शरीरके छिद्र सुखजायँ, मस्तकसे धुआंसा निकले और मस्तकपर गोबरके चूर्णके समान दारुण चूर्णसा उत्पन्न होजाय यह सब शरीर त्याग करनेवाले रोगियोंके. लक्षण है ॥ ४७ ॥ ४८ ॥ ४९ ॥ ५० ॥ .
सततस्पन्दनादेशाःशरीरयेऽभिलक्षिताः। तेस्तम्भानुगताःसर्वेन . चलन्तिकथञ्चन॥५१॥गुणाःशरीरदेशानांशीतोष्णमृदुदारुणा