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इन्द्रियस्थान-अ०.१२. (८६९) आतुरस्यगृहेयस्यभिद्यन्तेवापतन्तिवा।
अतिमात्रममत्राणिदुर्लभतस्यजीवितम् ॥ ३७॥ जब वैद्य रोगीके घरमें पहुंचे तब यदि किसी बर्तन आदिका फूटना अथवा मट्टी, पत्थर बरसना आदि अत्यंत अमंगल उत्पात हों तो उस रोगीका वचना दुर्लभ जाने ॥ ३७॥
भवतिचात्र। यहादशभिरध्यायैासतःपरिकीर्तितम् । मुमूर्षतांमनुष्याणांलक्षणंजीवितान्तकृत् ।। ३८॥ तत्समासेनवक्ष्यामिपायान्तरमाश्रितम् । पर्यायवचनंह्यर्थविज्ञानायोपपद्यते ॥ ३९ ॥
अंब यहां कहतेहैं कि, मरणासन्न मनुष्यों के जीवनका अंत करनेवाले जो लक्षण इन बारह अध्यायोंमें विस्तारपूर्वक कथन करचुकेहैं उनको स्थानकी समाप्तिमें पर्याय भेदसे संक्षेप रूपमें वर्णन करतहैं। क्योंकि पर्यायद्वारा दूसरीवार कहाजानेसे पढने बालोंको अर्थविज्ञानका सहज उपाय होजाता है ॥ ३८॥ ३९॥ . इत्यर्थपुनरेवेयंविवक्षानोविधीयते।
'तस्मिन्नेवाधिकरणेयत्पूर्वमभिदर्शितम् ॥ ४०॥ . जिस विषयको हम पहिलेही इस इन्द्रियस्थानमें वर्णन करचुके हैं उसी विषयकों फिर वर्णन करतहैं ॥ ४० ॥ वसतांचरमेकालेशरीरेषुशरीरिणाम्। अत्युग्राणांविनाशायदेहेभ्यः प्रविवसताम् ॥ ४१ ॥ इष्टांस्तितिक्षतांप्राणान्कान्तवासंजिहाल, ' ताम् । तन्त्रयन्त्रेषुभिन्नषुतमोऽन्त्यप्रविविक्षताम् ॥ ४२ ॥ विनाशायेहरूपाणियान्यवस्थान्तराणिच । भवन्तितानिवक्ष्यामियथोदेशयथागमम् ॥४३॥ शरीरमें रहते हुए शरीरियोंके अन्तकालके समय शरीरके नष्ट करनेके लिये जो अत्यंत उग्र विकृतियां उत्पन्न होती हैं और देहरूपी यंत्रमें छिन्नभिन्नता उत्पन्न होकर प्राणोंको त्यागनेवाले और शरीररूपी घरको छोडकर प्रस्थान करनेवाले,अपने प्रिय शरीरको छोड देनेवाले, कालके मुखमें पडनेवाले, प्राणोंको त्यागनेवाले,माणि. योंके शरीरमें वा इन्द्रियोंमें अथवा अन्य शरीर संबंधी तंत्रों में शरीरके विनाशके