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प्रसादनीभाकाटीकाहाहिता ___
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प्रथमो भागः १. क्षेमराज-श्रीकृष्णदास-प्रेष्टिना
मुम्बय्यां स्वकीय : "श्रीवेटेश्वर" स्टीस्-मुद्रणयन्त्रालये . मुद्रयित्वा प्रकाशितः।
.... संवत् १९५२, शके १८४४, Mop अस्य प्रन्थस्य सर्वेऽधिकारा राजकीयनियमानुसारेण "श्रीवेटर"
। यन्त्रालयाषिपतिना स्वायत्तीकृतास्सन्ति ।
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स्थानों में कुलाहार नलका कंठसे शुदाइतक: रव------हृत्कमल यकृत और दोनों वृक्कोंका है का है
फुप्फुसका है. -नाशय और मृबनलकाओंका है.
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श्रामाशय Stomacy हैसे तक तन्वंत्रका ऊपरी भाग यहांजेन्यू नम मीर: एलिअम. इन तीनोंको नन्बंध वारीक nिali Indistincs करते इस स्थलांत्रक अोभाग - सीकम और १९ यह एसिडेंग कोलन और ॥ ट्रांसबरी कालम डिसेंडिंग सन कहलाती है . इनको मूलांत्र मोटी 'श्रांतें Latre.. hdcationes कहते हैं- १३ को मलाशय Reclhimal
मर१५-१५ ये दोनों वृrKidnry १६ वत्ति मूत्राशय Blarldeekll ||25 गत Live १८ पिना Gali-laddak है १९ श्रीस !! Shirent नया जहां २ का अंक है यह काठको दुरारी श्वासनल RESEAR.
लोकप्स Lunga है और २२ यह हवन Hirint तथा पौनसं दोन पुरय मूत्रनली है और""गुदातेधा नल कार है।
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और अरबी में रीया कहते हैं - बाहर का
करता है. (Lungs.)
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इसमें जो श्वास नल का है यह श्राहार नलकासे जुड़ी है अर्थात् यहश्वास नलकां गाडी होती है और इससे पीछे आहार नलका दूसरी होती है जो मुंहसे आमाशय को जाती है।
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"झ"दृष्टिशिराअर्थात् वी नाईकी रग. आयुर्वेदज्ञ वैद्य नेत्रों में चार पटल (परदे मानते हैं और यूनानी हकीम साततवदे मानते हैं और डाक्टर तीनही परदे मानते हैं.
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क्षुद्रमस्तिष्क. |३ मस्तिष्ककाअग्रखंड.
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धन्यवाद।
हमारे आयुर्वेदिक शास्त्रमें चरक ही एक ऐसा अनुपम ग्रन्थ है कि जिसकी प्रशंसा आयुर्वेद के तत्वज्ञाता मुक्तकण्ठ हो करतेहैं । जिस महर्षि पतञ्जलिके व्याकरणमहाभाष्य सथा योगदर्शनको विचारते समय कुशाग्रबुद्धि प्रतिभासम्पन्न भी विद्वान उन्हें वश्यवाक् समझतेहैं जिनकी कृपासे मनुष्योंकी वाणी संस्कृत होकर अपशब्दोंके दोषोंसे बचतीहै उन्ही महर्षि पतञलिने मनुष्योंकी नीरोगताके लिये आयुर्वेदशास्त्र की शिरोमाण यह चरकसंहिता बनाई है चरकसंहिताके उद्धार करनेवाले वही (पतञ्जलि ही) चरक हैं इसमें यही प्रसिद्ध श्लोक-( योगेन चित्तस्य पदेन वाचां मलं शरीरस्य च वैद्यकेन । अपाकरोद्यः प्रवर मुनीनां पतञ्जाल प्राञ्जलिरानतोऽस्मि) प्रमाण है। जो कुछभी हो इस ग्रन्थमें वह उत्तान गम्भीर आशय और चिकित्सामें वैद्यकी बुद्धि यदि उत्तम हो तो एक योगसे कितने ही योग नवीन कल्पित कर लेना इत्यादि अलौकिक वाव लिखीहुई हैं।
समयानुकूल अब इसकी हिन्दी टीकाकी वडी आवश्यकता होगई है । एक आवृत्ति यह पण्डित मिहिरचन्द्रनीकी बनाई हुई टीकासहित छपचुकी है अबकी बार पटियालाराज्यान्तर्गत टकसालग्रामनिवासी आयुर्वेदोद्धारक वैद्यपञ्चानन पण्डित रामप्रसादजी वैद्योपाध्याय द्वारा प्रसादनीनामक सरल हिन्दीभाषामें टीका बनवाई है मानन्दकी बात है, कि इस टीकामें उक्त वैद्यजीने अतिकठिन स्थलोंपर भी ऐसी सरलटीका बनाई है कि लोग विना परिश्रम इस ग्रन्थका अभिप्राय सपझ जायेंगे। .
इस सर्वोपकारक कार्य करनेके लिये हम वैद्यजीको अनेक धन्यवाद देतेहैं और आशा करतेहैं कि और भी उत्तम उत्तम ग्रन्थोंकी भाषाटीका बना आयुर्वेदके प्रचार करनेमें आप भाग लियाकरेंगे।
खेमराज श्रीकृष्णदास, "श्रीवेङ्कटेश्वर" स्टीम् यन्त्रालयाध्यक्ष-बम्बई.
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आयुर्वेदोपदेशेषु विधेयः परमादरः ।
आयुर्वेद के उपदेशों को परम आदरसे धारण करना चाहिये | यह क्यों ? इसलिये 'कि, यह धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चार पुरुषार्थोंकी आधारभूत मनुष्यकी आरोग्यताकी प्राप्ति और आयुकी रक्षाके लिये है । और "हिताहितं सुखं दुःखमायुस्तस्य हिताहितम् । मानञ्च तच्च यत्रोक्तमायुर्वेदः स उच्यते ॥ " अर्थात् जिस शास्त्रमें बायुसंवाहित अवस्था, आहत अवस्था, सुखी अवस्था, दुःखी व्यवस्था, आयु, आयुका हित और अहित तथा आयुका परिमाण यथार्थ रूपसे कहे हों उसे आयुर्वेद कहते हैं । महात्मा धन्वन्तरिजीने सुश्रुतसे कहा है कि, "एफोत्तरं मृत्युशतमथर्वाणः प्रचक्षते । तत्रकः काल संज्ञस्तु शेषास्त्वागन्तवः स्मृताः॥” मर्थात् - अथर्ववेद के जाननेवाले '१०१ मृत्युएँ होती हैं' ऐसा कहते हैं, उनमेंसे जो अवश्यम्भावी समयोचित एक मृत्यु है उसको कालमृत्यु कहते हैं, शेष सौ मृत्युओको आगन्तुक, ( अकालमृत्यु ) कहते हैं । उन १०० मृत्युओंसे वचने के लिये ही आयुर्वेदके उपदेशोंको परम आदरसे धारण करना चाहिये क्योंकि, यह आयुर्वेदही धर्मादि चतुर्विध पुरुषार्थका साधनभूत आयुका रक्षक है ।
यह आयुर्वेद प्रथम ब्रह्मा के हृदयमें आविर्भूत हुआ, ब्रह्माने दक्ष प्रजापतिको पढाया, दक्षसे अश्विनीकुमारोंने पढा, अश्विनीकुमारोंने इन्द्रको पढाया, इन्द्र के यहांसे भरद्वाज (आयुर्वेदको ) लाये और सांगोपांग ऋषियों को सुनाया। और इसी आयुर्वेदको महात्मा आत्रेयजीने आत्रेयसंहितानामक पचास हजार श्लोकोंमें एक संहिता बनाकर अभिवेश आदि अपने छः शिष्योंको पढाया । फिर इन छः य शिष्योंने भगवान् आयजीसे व्यायुर्वेदको पढकर अपने २ नामसे छः संहितायें बनाई उन सर्वो में अग्निवेशकृत संहिता अत्युतम मानी गई, इस संहिताकी ऋषि और देव: चाओंने भी प्रशंसा की । यह संपूर्ण संहितायें आज कल लुप्तप्राय सी होगई हैं।
इनके सिवाय शल्पशालाक्य तंत्र में भगवान् धन्वंतरि जी की संहिता अत्युत्तम मानी गई । भगवान् धन्वतरिजीने सुश्रुत आदि व्यपने शिष्योंको शल्यशालाक्य प्रधान जो आयुर्वेदका उपदेश किया उसको महात्मा नागार्जुनने संग्रह किया, वह य" सुश्रुतसंहिता " नाम से प्रख्यात और अतिउत्तम तथा शल्यशालाक्य चिकि सामें अति श्रेष्ठतम मानागया । और वृद्धवाग्भट्ट वाग्भट्टआदि और संहितायें भी चरक और सुश्रुतसे पीछे वनीं ।
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भूमिका |
चरक भगवान्को शेष भगवान्का अवतार कहाजाता है इन्होंने आत्मिक मल दूर करने के लिये " योगदर्शन", वाणीका मल दूर करनेके लिये व्याकरण "अष्टा व्यायी" पर "महाभाष्य" और शारीरिक मलको दूर करनेके लिये यह "चरफसंहिता" बनाई |
,
अग्निवेशकृत संहिताको ही महापं चरकजीने विधिवत् संस्कारकर जो विषय अत्यंत बढे हुए थे उनको संक्षिप्त और जो अत्यंत सूक्ष्म थे उनको किंचित् बढाकर और विना कथन किये विषय को सम्मेलित कर यह अद्वितीय, अनुपम " चरक संहिता "येय बनाया। चिकित्सा में इसके समान अन्य कोई ग्रंथ आयुर्वेद के ज्ञाता - योकी दृष्टिमें माननीय ने हुआ । इस ग्रंथ में १७ अध्याय चिकित्सास्थानके, कल्प और सिद्धिस्थान महात्मा दृढवलेने व्यग्निवेश आदि संहिताओंमेंसे संग्रहकर मिलायें हैं इसलिये कोई ऐसी शंका भी करते हैं कि, यह संपूर्ण संहिता महर्षि चरक. प्रणीत नहीं है । परन्तु कुछ भी हो यह चरकसंहिता चिकित्सा शास्त्रमें अद्वितीय है इसीलिये कहा है कि "यदिहास्ति तदेवास्ति यन्नेहास्तिन तत्कचित्" । अर्थात् जो विषय इस संहितामें लिखा है वही और तंत्रोंमें भी मिलता है परन्तु जो इसमें नहीं है वह कहीं भी नहीं । यद्यपि भावमिश्र आदिकोंने फिरंग आदि एक आध विषयको विशेषरूपसे लिखकर यह माना है कि, यह नवीन रोग हमने ही अपने ग्रन्यमें लिखाई और फिरंगियों के संसर्ग से यह फिरंगरोग उत्पन्न हुआ परन्तु चरकसंहिता ऐसे अनेक विषय सूक्ष्मरूपसे कहे गये हैं जिनको देश व फालके भेदसें विभक्तकर स्थूलरूप से यदि लिखाजाय तो "भावप्रकाश" जैसे पचासों ग्रन्य तैयार करनेपर भी संपूर्ण विषय नहीं लिखे जा सकते । इसलिये कहा है कि "एकस्मि: नपि यस्येह शास्त्रे लब्यास्पदा मतिः। स शास्त्रमन्यदप्पाशुयुक्ति ज्ञात्वा मनुध्यते " ॥ अर्थात् जिसकी मति इस एकही शाखको यथोचित रविसे जान गई है वह इस तंत्र की युक्तियों की जान लेनेसे अन्य शास्त्रोकोभी शीघ्र जानसकताहै, तात्पर्य यह कि. जिसको यह चरकसंहिता यथोचित रीतिसे याती है वह अन्य शास्त्रोंको इस चरककी युक्तियों द्वारा शीघ्र जानलेता है । "इदमखिलमधीत्य सम्यगर्थान्विमृशति यो विमलः प्रयोगनित्यः । स मनुजसुखजोवितमदानाद्भवति धृति-स्मृति वृद्धि धर्मवृद्धः॥" अर्थात् जो मनुष्य इस संपूर्ण संहिताको ययोचित पढकर इसके विषयफों भले प्रकार समझ चिकित्साका प्रयोग करताहे वह मनुष्योंको सुख और जीवन कों देनेवाला होनेसे धृति, स्मृति, बुद्धि और धर्ममें सबसे बडा माना जाता है ।
"यस्य हावालाही हाई तिष्ठति संहिता |
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भूमिका । सोर्थज्ञः स विचारज्ञाश्चिकित्साकुशलश्च सः।
रोगास्तेषां चिकित्साश्च स किमर्थं न बुध्यते ॥ अर्थात्-यह बारह हजार श्लोकात्मक संहिता जिसके हृदयमें स्थित है वह अर्थका जाननेवाला, संपूर्ण वैद्यकीय विषयोंको समझनेवाला, विचारवान् और चिकित्सा कुशल होताहै ऐसे कौन रोग और उनकी चिकित्सायें हैं जिनको इस संहिताका जाननेवाला वैद्य न समझताहो । परन्तु शोक है कि आज इस चरकसंहिताके पढने पढानेवाले और आयुर्वेदीय ज्ञान समझने वथा समझानेवालोंका प्रायः अभाव ही सा होगयाहै जिससे इस समय आयुर्वेदकी अत्यंत अवनत दशा है।
यद्यपि आजकल सुननेमें आताहै कि आयुर्वेदकी उन्नति होने लगीहै।कहीं आयवैदविद्यापीठ, कहीं वैद्य महासभा, कहीं नये ढंगकी शिक्षा, कहीं आरोग्यभवन और कहीं आयुर्वेदीय महौषधालय खोलेगयेहैं । कोई २ महाशय तो खास धन्वः न्तरिसे ही गुप्तप्रयोग सीखआहे, किसी किसीने वनस्पतियों का अद्वितीय उद्धार ही करमारा है परन्तु क्या इन सब बातोंसे आयुर्वेदकी उन्नति होनेका कोई ढंग दिखाई पडताहै ? विचारसे देखिये तो उन्नतिवाजोंने इस जीर्ण शीर्ण आयुर्वेदको — सर्वथा नष्ट करनेकाही सूत्रपात करदियाहै । अव सम्भव है कि आयुर्वेद जाननेवा
लोको भी किसी आईनके अन्दर बन्द होना पडेगा । यह सब अदूरदर्शी उन्नतिबाजोंक झूठे चटकीले विज्ञापनोंका फल नहीं तो और क्या है? अब आप विचारसे देखिये कि औषधालयों और विज्ञापनों द्वारा आयुर्वेदकी कितनी उन्नति हुई। यद्यपि औषधालय भी आयुर्वेदके अंग हैं,आयुर्वेद विद्यापीठवें भी बहुत कुछ लाभ पहुंच सकताहै और वैद्य महासभायें भी आयर्वेदको उन्नत अवस्थामें ला सकती हैं परन्तु कव ? जवकि आयुर्वेद के मेमसे माफर्षित हों, जवं आयुर्वेदके पुनरुद्धारार्थ स्वार्थको त्याग दें, जब आयुर्वेदके महत्वको जान, आयुर्वेदके गौरवको समझ,भूतः पूर्व आयुर्वेदकी उन्नत अवस्थाको यादकर और पूर्वज महर्षियोंकी परोपकारितापर ध्यान दे, प्रेमभरे हृदयसे ऐहलौकिक और पारलौकिक उन्नत्तिका आधार आयुवदको ही मानने लगें।
इसमें कोई संदेह नहीं कि अव आयुर्वेदकी उन्नति के लिये ऋषियोंके समान हिमालय और देवलोकमें जानेकी आवश्यकता नहीं । क्योंकि यह मायुर्वेद भण्डार इस जीर्ण शीर्ण दशामें भी किसी अंगमें अपूर्ण नहीं है । निरूहण,अनुवासन, (गुद. द्वारा पिचकारियोंका करना) आदिवस्तिकर्म, उत्तरवस्ति (मूत्रमार्गसे कैथीटर
आदि प्रवेशकर मूत्राशय और उसके मार्गको दोषरहित करना)शिरावस्ति (शरी. रकी नसों में सूक्ष्म पिचकारी द्वारा औषध पहुंचाना) भर्शके मस्से काटना, पथरी
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भूमिका। निकालना और क्षारकर्म आदि यह सव आयुर्वेदके चिकित्साका अनुकरण करके ही याज उन्नतशील शुभराजमें डाक्टरी विद्याकी उन्नति हो रही है।इस इतनी उन्नत अवस्या भी बहुतसी शल्यचिकित्सा इण्डियन सर्जरी कहीजाती है । आंख बनाना भारतके सामान्य वैद्योंका अनुकरण है । आयुर्वेदके शल्यशालाक्य नाननेवालोंने जो २ कार्य किये हैं उनको यभी उन्नतशील चिकित्सकोंने स्वप्नमें भी नहीं देखा होगा। जैसे अश्विनीकुमारोंका दक्षका कटाहुआ शिर लगादेना, ब्रह्माका मस्तक जोडना,भोजका मस्तक चीरकर कपालके भीतरसे जीवोंकानिकालना आदि अनेक प्रकारफी क्रियायें फैसी विचित्र थीं । परन्तु समय भगवान्के हेरफेरसे माज वह सब कहानी मात्र रहगई ।जिसको अनुकरण मानतेहैं वह डाक्टरी विद्या अब शल्यकियामें इतनी उन्नत होतीजाती है विचारे आयुर्वेदाभिमानी उनकी वासतक नहीं समझ सकते । दा ! समय भगवान् क्या नहीं कर सकते ? परिवर्तनशील जगत्में ऐसी कौनसी वस्तु है जिसको समय भगवान्ने अपने झपाटेमें न लिया हो?। आज जिसको राजा महाराजा ऋषि और देवता भी महान सत्कारसे देखते हों फल उसीकी
ओर देखकर तुच्छ पाणी भी वही घृणासे नाक चढाने लगतेहैं । आज जिसका झण्डा माकाशमं फहराताहै कालचक्रसे कल वह मटियामेट होकर मानो कभी था ही नहीं ऐसा प्रतीत होनेलगताहै । काल भगवानकी विचित्र महिमा है। जिस मायुः वेदको ऋषिगण देवलोकसे लायेथे, जिस आयुर्वेदको ब्रह्मासे प्राप्त न होनेके रोष में भैरव जलकर मरनेलगेथे, जिस आयुर्वेदको ऋषियोंने हिमालयकी चोटियोंपर पहुँच अनेक प्रयासोंसे प्राप्तकर नि:स्वार्थभावसे जगतके हितके लिये प्रचार कियाथा आज उन्हीं अपियों की संतान झुठे विज्ञापनों द्वारा ठगीकर उस आयुर्वेदकों लाञ्छित करना मुख्य उन्नति माननेलगी। ___ यह कभी नहीं कहा जासकता कि,सब संसार ही एकसा होताहै,अब भी बहुतेरे योग्य पुरूप परोपकारी सद्वैद्य और आयुर्वेदकी महिमाको जाननेवाले हैं जिनकी कृपासे औरंगजेबी जमानेके महाआवातसे वहुए ग्रंथ इस उन्नतशील श्रीभारत; सरकारके शुभ राज्यमें वडी आसानीसे छपछपकर प्राप्त होनेलगे हैं।
पन्नु खेदका विषय है कि,और सब विद्याओंकी उन्नति होतेहुए भी आयुर्वेदकी रक्षा व जीणोद्वारका कोई प्रबंध अभी तक नहीं दीखता । उचित प्रबंध नहीं होनें बने कारणों में सबसे बडे चार कारण हैं, जिनके विना आयुर्वेद अपने चमत्कारकी गर्भना नहीं करसकता । वह चार कारण यह है-गाजाओंकी पोरसे पायदीय सर्वांग शिक्षाशा कोई प्रबन्ध न होनाराआयुर्वेदके जिस अंगके जोज्ञाता हैं उनका स्वच् हदयसे आयुर्वेदको प्रचार न करना २ । आयुर्वेदीय शिक्षाके
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भूमिका।
(७) योग्य मनुष्योंका सीखनमें यत्न न करना ३।आयुर्वेदीय औषधिसंग्रह आदि नियम न रखकर दुकानोंकी पुरानी गली, सडी औषधियोंसे चिकित्सा करना ४ । यदि आयुर्वेदीय शिक्षाका यथोचित प्रबन्ध होजाय तो फिर भी आयुर्वेद उसी उन्नत अव: स्थामें पहुंच सकताहै। उन्नतिके लिये कुछ वाहरसे लानेकी आवश्यकतानहीं। उन्हीं पुराने ऋषिप्रणीत संहिताओंकी सर्वांग शिक्षाका प्रबन्ध होजाय तो सब कुछ हौसकताहै।
चरक, सुश्रुत माद ग्रन्थोंसे ऐसा कौन विषय बचा है जो स्थूल वा सूक्ष्मरूप इनके भीतर न भराहो।
विचारशील महाशयगण, जरा विचार करें कि, पहलेके आत वैद्य किसप्रकारसे औषधोंको सिद्ध करतथे और निदानज्ञानपूर्वककैसी उत्तम रीतिसे औषधप्रयोग करतेथे जिससे वे पीयूषपाणि कहे जातेथे और रोगी निस्सन्देह नीरोग होतेथे। परन्तु आजकलके बहुतसे चिकित्सकनामधारी महाशय तो इन सब आयुः वेदयि क्रियाओंको छोडकर आलस्यग्रस्त हो अमृतसागर भाषा पढपढ कर अण्ट. सण्ट संस्कृत असंस्कृत जैसे तैसे गोलिये बना मयनेको रसवैद्य-देववैद्य होताहै ऐसा .माननेलगे।
ऐसे वैद्य ऐसी रस गोलियोंको पास रख रोगीको, देखकर निदान कहने और रोगानुसार चिकित्सा करनेकी कठिनवासे निरन्तर बचे रहतेहैं और इसी कारण इनकी योग्यताकी पोल भी नहीं खुलनेपाती परन्तु इनकी कृपासे आयुर्वेदीय . असली क्रिया नष्ट होकर भागेको प्रायः निर्मूल होतीजातीहै और इनकी उन गोलि.. योंके खानेसे क्या होताहै इसे तो खानेवाले या उनके परिवारके लोग या ईश्वरही
. बहुतसे लोगोंको चरक, सुश्रुत आदि ग्रन्योंका रहस्य जानने और इनके अनु. सार क्रिया करनेका उत्साह भी होता है तो यह विचारे "चरक" जैसे सर्व युक्तिसंपन्न ग्रन्थको किस से पढे! । यद्यपि इस ग्रंथकी भोजवृत्ति और वाचस्पतिकी टीका संपूर्ण नहीं मिलती वथापि चक्रपाणिकृत संस्कृतटीका तथा गंगाधर शास्त्री कृत संस्कृतटीका (पुरानी) संपूर्ण मिलतीहै। जिससे इस ग्रन्थकी योग्यतासे विद्वान् लोगोंको लाभ उठाना कठिन नहीं परन्तु केवल भाषामात्र जाननेवालोंको “चरकका" भाव जाननेके लिये भाषाटीकाको छोड और कोई उपाय नहीं । यद्यपि
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(८)
भूमिका ।
एक दो टीकाएं हिन्दी भाषामें पहिले भी छप चुकी हैं परन्तु " ज नर्मको अच्छी तरह न समझानेके कारण आयुर्वेद रसिकोको पादरणीय इसलिये यह पुस्तक "श्रीवेंकटेश्वर" स्टीम प्रेसके स्वत्वाधिकारी श्रीमान् सेठ खेमराज श्रीकृष्णदासजीने संवत् १९६६ में हिन्दीभाषा में मूलानुसार सरल उत्तम टीका बनाने के लिये मुझे दिया। इस डेढसाल के वीचमें यद्यपि अनेक प्रकार आध्या त्मिक, आधिभौतिक और आधिदैविक आपत्तियोंके असामयिक आक्रमणोंसे अभिभूत होने के कारण इस ग्रंथ की टीका बनाने के लिये मुझे यथेष्ट अवकाश न मिलराखा, तथापि इस टीकामें अपनी मति गतिके अनुसार निरालस होके कठिन से कठिन भावांको सर्वसाधारण के समझने योग्य करने में त्रुटि नहीं की है, और ययास्थल औषधनिर्माणक्रियायें इस तौर लिखी गई हैं कि फिर किसीसे कुछ पूछने की आवश्यकता नहीं | शीघ्रतावश यदि कहीं कुछ त्रुटि रहगई हो तो बुध जन क्षमाकर मुझे सूचित करेंगे जिससे दूसरी बार छपनेमें वह ठीक होजावें ।
इस प्रसादनीनामक भापाटीका सहित चरकसंहिताको 'त्वदीयं वस्तु गोबिन्द तुभ्यमेव समर्पितम्' के तौर श्रीमान् सेठ खेमराज श्रीकृष्णदास अध्यक्ष श्रीवेङ्कटेश्वर" स्टीम् प्रेस बम्बई को सर्वाधिकार सहित सादर अर्पण करता हूं और कोई महाशय इसके छापने आदिका साहस न करें, नहीं तो लाभके बदले हानि उठानी पडेगी.
और पं० हरि शर्मा शास्त्रीजीने इसका शोधन करते समय, शीघ्रता के कारण पुनरुक्ति, वाक्योंमें कर्मणि कर्त्तरी प्रयोगभेद आदिको दुरुस्त कर हमारी बडी भारी सहायता की है इस लिये उन्हें अनेकशः धन्यवाद हैं ।
!
गारक लेन 1. टेप
व
अश्विन शुद्ध १० सोमवारं. मुँपए १९६८
३४.
::
"
1
विनीत
रामप्रसाद वैद्योपाध्याय, राजवैद्य रियासत पटियाला.
।
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॥ श्रीः॥ अथ चरकसंहिताविषयानुक्रमणिका ।
-
-
-
विषय.
. सूत्रस्थान १. । १, दीर्घजीवित अध्याय । मंगलाचरण मआयुर्वेदावतरणक्रम आयुर्वेदका प्रयोजन षियोंका एकत्रित हो विचार करना " पायका निश्चय भरद्वानका इन्द्रभवन में जाना आयुर्वेदका स्वरूप और भरद्वाजका इन्द्रसे
प्राप्त करना (माद्वानसे ऋषियोंका आयुर्वेदग्रहणकरना"
युनर्वसुका छः शिष्योंको आयुर्वेदका । उपदेश । ; आप्रवेशादि छः संहिताओंमें ऋषि. __ योकी अनुमति आयुर्वेदका लक्षण आयुके नाम
आयुर्वेदका महत्त्व } वृद्धिहासके कारण व सामान्य और
श्लोक. व्याधियों के हेतु और आश्रय आत्माका लक्षण रोगोंके कारण दोषोंका प्रशमन : वायुके गुण और अमनोपाय पित्तके गुण और शमनोपाय कफके गुण और शमनकाउपाय चिकित्साका साधारण निर्देश रसस्वरूप निदर्शन रॉकी संख्या और नाम रसोंका कार्य द्रव्यके तीन प्रकार जंगम आदिभेदसे फिर तीन प्रकार जङ्गम वर्णन पार्थिवद्रव्य वर्णन औद्भिज्य द्रव्य वर्णन लेहादि द्रव्य वर्णन मूलप्रधान द्रव्य फलप्रथा- द्रव्य ल५ .
np . प .-: ....के गुण स्नानके महाफल स्वच्छवस्त्र परिषानके, भषादि मूत्रके गुण : भेड, गकरी,गौ मादिः दूर्गावर बहेड' र थोर शो गुण अधिने गुण . त्वचापमान वृक्ष गडनिय मादियोट गोषत्र ज्ञान
विशेषके लक्षण ₹
५० आयुर्वेदका अधिकारधतीय अध्याय ।
द्विविष द्रव्य
गुणकर्म
समवाय समघायिकारण कर्मलक्षण .
का प्रयोजन
,' .
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(१०)
चरकसंहिता
पृष्ठांक.
विषय.
पृष्ठांक
२४
विषय. औषधियोंके ज्ञानकी कठिनता २१ औषधजाननेवालेकी प्रशंसा औषधविज्ञानसंबंधी बैद्यको दोष मूर्खवैद्यकी औषधिका निषेध २२
२. अपामार्ग तण्डुलीय अध्याय । प्रतिज्ञावर्णन अर्धगत रोगनाशक द्रव्य वान्तिकारक द्रव्य विरेचक द्रव्य
२५ उदावादि वस्तिदेने योग्य द्रव्य वातनाशक पांचकर्मिक संग्रह अनेक यवागू कल्पना और उनकगुण २६ द्वितीयाध्यायका उपसंहार
२९ ३. आरग्वधीय अध्याय । कुष्ठकिलासआदिपर लेप
२९ दूसरा लेप खाज और पामानाशक लेप कुष्ठआदि रोगोंपर अनेक लेप वातजन्य रोगोंपर लेप उदरपीडाहर लेप वातरक्तपर लेप वातरक्तपर लेप शिरःपीडापर लेप पीडापर लेप.. ..
वारक लेप
बलकारकादि चार कषाय. तृप्तिनाशकादि छः कषाय० स्तन्यआदि चार कषाय. लेहके उपयोगी आदि सात कषाय० छर्दिनिग्रहणादि तीन कषाय० पुरीष संग्रहणीयं आदि पांच कषाय० कासहर आदि पांच कषाय० दाहप्रशमन आदि पांच कघाय. शोणितास्थापनादि पांच कषाय० पांचसौ कषाय जीवनीय दश द्रव्य वृहणीय दश द्रव्य लेखनीय दश द्रव्य भेदनीय दश द्रव्य संधानीय दश द्रव्य दीपनीय दश द्रव्य बलकारक दश द्रव्य वर्णशोधक दश द्रव्य उवम कण्ठ करनेवाले दश द्रव्यं हृदयके हितकारक दश द्रव्य तृप्तिनाशक दश द्रव्य अर्शनाशक दश द्रव्य · कुष्ठनाशक दशद्रव्य खर्जुनाशक दशद्रव्य कृमिनाशक दशद्रव्य
अश्विन शुक्ल १ सोमवार,
. संवत् १९६८.
विन रामप्रसाद वैद्य
राजवैद्य रियाव्य
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(११)
विषप.
पृष्ठांक.
५६
५७
६०
विषयानुक्रमणिका।
विषय.
नजला नाशक धूमपान मलबन्धक दश द्रव्य सुगन्धिकारक दश द्रव्य
शिरोविरेचन धूम शिरोविरेचनीय दश द्रव्य
धूम्रपानके गुण वमनविनाशक दश द्रव्य
धूमपानके काल तृषानग्रहकर दश द्रव्य
उचित धूमपानके लक्षण हिचकीनिवारक दश द्रव्य
असमय धूमपानके उपद्रव मलरोधक दशद्रव्य
उपद्रव शान्तिके उपाय पुरीपशोधक दश द्रव्य
धूमपानके अनधिकारी
विशेष रोगोंमें विशेष स्थानोंसे धूमपान ५९ मूत्रके रोधक दश द्रव्य
नेचा प्रमाण मूत्रशोधक तथा मूत्रविरेचनीय दश द्रव्य,,
धूमपान ठीक न होनेके दोष कासहारक दश द्रव्य
अणु तेलका प्रयोग श्वासहर दश द्रव्य
अणु तैलकी नस्यक गुण शोथहारक दश द्रव्य
अणुतेल विधि स्वरनाशक दश द्रव्य
तेलके गुण अमनाशक दश द्रव्य
दन्तधावन दाहनाशक दश द्रव्य
दन्तघ वनक गुण शीतप्रशामक दश द्रव्य
सुवर्णादिकी जिम्भी उददेशामक दश द्रव्य
निहाकी स्वच्छतासे लाम अंगमर्दनाशक दश द्रव्य
दन्तधावनके श्रेष्ठ वृक्ष शूलनाशक दश द्रव्य
लवंगादि मुखमें रखने के लाभ रुधिरस्थापक दशद्रव्य
तैलगण्डषका फल पीडानिवारक दश द्रव्य
शिरमें तैलमर्दनके गुण संज्ञास्थापक दश द्रव्य
कर्ण और शरीरमें तैलसे लाभ संतानस्थापन दश द्रव्य
पांवमें तेललगानेके गुण वयस्थापन दश द्रव्य
स्नानके महाफल
६६ अध्यायका उपसंहार
स्वच्छवस्त्र परिधान के फल ५. मात्राश्रितीय अध्याय ।
सुगन्धिपुष्पोंका धारण मात्राविचार
५२ रत्नयुक्त भूषण धारण करनेका फल । भोजन करनेपर तुरत भोजन निषेध ५३. पावभाद घोनेके गुण न खाने योग्य पदार्थ
डाढी मूंछके बालाको स्वच्छ रखनेका सेवन योग्य पदार्थ अंजन लगाना
जूते धारणके फल , , दिनमें लेखन अंजनका निषेध
छत्र और दण्डधारणका फलं . अंजनके गुण
| शरीररक्षावृत्ति धर्मपूर्वक है. .
द
"
फल
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पृष्ठांक,
(१२)
चरकसंहिता. विषय
पृष्ठांक. । विषय, योग्यवृत्तिकी आज्ञा .
प्यासके रोकनेसे उपद्रव
आसू रोकनेमें उपद्रव और उपाय , ६. तस्याशितीय अध्याय ।
निद्रा रोकनेमें उपद्रव और उपाय ., मात्रा और ऋतु के अनुकूल भोजनसे
श्वास रोकनेमें उपद्रव और उपाय. लांम
वेगोंको कदापि न रोके ऋतुद्वारा वर्षको अंगकल्पना
धारण करने योग्य वेग आदान और विसर्गकालके गुणदोषं
पुण्यके लाभ शीतकालका वर्णन
व्यायामके लाभ हेमन्तमें कृत्य
अत्यंत कसरतके उपद्रव शिशिरकृत्य
शक्तिके बाहर कोई कार्य न करे हेमन्त और शिशिरके कार्य ७३
हिताहितका विचार करे वसन्तमें वमनादिकर्म धारणीय द्रव्य
वातादिकी समता विषमता तथा भोज्य पदार्थ
शरीरगत छिद्रोंका वर्णन ग्रीष्मके गुण तथा उसमें सेवनीय पदार्थ७४
मलवृद्धि आदिका ज्ञान वर्षामें जठराग्निका दुर्बळहोना "
साध्य रोगकी चिकित्सा करे पूवनका कोप
दोष दूर करने (शोधन) का समय में त्यागने योग्य कर्म
भागन्तु रोगोंका कारण में रहने के नियम
आगन्तु रोगोंकी शांति ने योग्य जल तथा हंसोदक
दूषित पुरुषके संगके दोप कसात्म्य
सेवन करने योग्य पुरुष आत्म्यका लक्षण
भोजन आदिमें नियम । ७. न वेगान्धारणीय अध्याय।
अध्यायका उपसंहार वेगों के रोकनेका निषेध
८.इन्द्रियोपकरणीय अध्याय।. मूत्रके वेगको रोकनेसे दोष " .
इन्द्रियोंका वर्णन तथा मनकी अनेकता ८९ मूत्र रुकनेपर उपाय
इन्द्रियोंके नाम, द्रव्य और अधिष्ठान ९० मळरोकनेमें रोग
" इन्द्रियोंके विषयाद मनरोकने में चिकित्सा
आध्यात्मिक द्रव्यगण वीर्यके वेगको रोकने में उपद्रव और यत्न,, इन्द्रियों में विशेपता अघोवायुके रोकनेमें उपद्रव
इन्द्रियोंके विपरीत होनेका कारण उपाय
. .
मनका विषय वमन रोकनेसे रोग और उनका उपाय ,, प्रकृति स्थिर रखनेके हेतु छींक रोकनेके उपद्रव और उपाय ८० सेवन योग्य सत्कार्योंका वर्णन डकारके रोकने में उपद्रव
अकर्चव्यों का वर्णन जंभाइक रोकनेमें उपद्रव
भोजन करनेके नियम क्षुधा रोकने के उपद्रव · ,
अध्ययन कालके नियम
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"
"
विषय,
अन्य नियम
विशेष उपयोगी नियम
हवनादिके नियम अध्यायका संक्षिप्त वर्णन
रोगी के चार गुण
सोह गुणोंमें वैद्यकी प्रधानता
रोगों में वैद्यको कारणता
मूर्ख वैद्य के लक्षण कुत्सित वैद्यका कर्म
वैद्यको प्राणदातृत्व . राजयोग्य चिकित्सक के लक्षण वैद्यका कर्तव्यकर्म
वैद्य पडूगुण
वैद्यकी निष्पति
"7
९. खुड्डाक चतुष्पाद नामक अध्याथ।
चिकित्साके चार पाद
विकार और स्वास्थ्य का लक्षण
चिकित्सालक्षण
वैद्यके चार गुण
औषधि गुण चद्रष्टय
सेवक के चार गुण
सुखदाता वैद्यके लक्षण
दोषों से बचने का उपाय
वैद्यके उपदेश
वैद्यकी चार प्रकारकी वृत्ति
अध्यायका संक्षिप्त विवरण
औषधसे आरोग्य लाभ
उक्त
विषयानुक्रमणिका ।
मैत्रेयका प्रतिवाद
पृष्ठांक
दृष्टान्त
उक्त विषय में आत्रेयका खण्डन आत्रेयकी अनुभूत चिकित्सा असाध्यरोगकी चिकित्सा का फल साध्यासाध्य रोगों के भेद
९८
९९
१००
१.०१
१०२
"1
""
37
53
१०३
33
"3
१०४
33
""
""
23
36
39
१०५
75
97
१०. महाचतुष्पाद अध्याय ।
13
१०६
१०७
91
१०८
73
११०
"3
१११
विषय.
साध्य के अन्य भेद
अध्यायका संक्षिप्त वर्णन
33
सुखसाध्य के लक्षण कृच्छ्रसाध्यके लक्षण
15
द्विदोषन तथा कष्टसाध्य व्याधिके लक्षण ११२
वैद्यको शिक्षा
११३
११. तित्रैषणीय अध्याय ।
एषणाओंका निर्देश
एषणाओं का वर्णन
धनकी एषणा
धनप्राप्तिके उपाय
परलोककी एषणाम विवाद
प्रत्यक्ष के बाघक
जन्मकारणपर विवाद
स्वभाववादियोंके मतका खंडन पर निर्माण वादियों का खंडन यच्छावादियों का विषय
सत् असत्को परीक्षा
आप्त तथा उनका उपदेश
प्रत्यक्षका लक्षण
अनुमानका लक्षण
युक्तिका लक्षण
आप्तागमका लक्षण फल
पुनर्जन्म अनुमान युक्तिसे पुनर्जन्म की सिद्धि परलोषणा कर्तव्यकर्म
(१३).
पृष्ठांक
उपस्तम्भादि त्रिक
उपस्तम्भका वर्णन तीन प्रकारका बल
तीन आयतनों का वर्णन शब्दातियोगादिका वर्णन गन्धातियोगादि वर्णन रखातियोगादिका वर्णन
स्पर्धातयोगादिका वर्णन स्पर्शनेन्द्रियकी सर्वव्यापकता
१११
25
११४.
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19
११५
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११६
११७
११८
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१२०
१२१
93
१२२
११३
१२४
37
35
33
१२५
35
39
१२६
15
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१२८
१४२
१३०
१४५
१४६
(१४)
चरकसंहिताविषयः पृष्ठांक. . विषयः
पृष्ठांक.. कर्मकृत आयतनका वर्णन . १२६
वायुके साधारण धर्म . १३९ वाणीके मिथ्यायोगका वर्णने १२७
मारीचिका प्रश्न .
. १४०
पित्तकी ऊष्माका वर्णन मानस मिथ्यायोग शारीरिक मिथ्यायोग
शरीरमें सोमकी प्रधानता
१४१
पुनर्वसुका सिद्धांत कर्मक मिथ्यायोगका संक्षिप्त वर्णन , कालातियोगादिका वर्णन
अध्यायका संक्षिप्त वर्णन रोगोंके कारण
१३. स्नेहाध्याय ।
अग्निवेशका प्रश्न तीन प्रकारके रोग
१४३ पुर्नवसुका उत्तर
१४४ हितकर्तव्य रोगोंके तीन मार्ग
रोगविशेषोंमें तैलोंकी उत्कृष्टता बहिर्मार्गज रोगोंके नाम
घृतके गुण शाखानुसारी रोग
तैलके गुण मध्यमार्गानुसारी रोग
वसाके गुण कोष्ठानुसारी रोग
मजाके गुण
१३१ तीन प्रकारके वैद्य
स्नहपानका समय
स्नेहपर अनुपान भिषक्छद्मचरके लक्षण
स्नेहकी विचारणा सिद्धसाधित वैद्यके लक्षण
असंयुक्त स्नेहका वर्णन वैद्य गुणयुक्तके लक्षण
स्नेहकी चौसठ विचारणा औषधियोंके भेद
१३२
मात्राओंका वर्णन शारीरिक रोगोंमें आषैध भेद
उत्तम मात्राके योग्य पुरुप बालकोंकी अज्ञानताका.फल
प्रधानमात्राके गुण .
१४८ मनुष्यका कर्तव्य
१३४
मध्यममात्राके योग्य पुरुष अध्यायका उपसंहार
हस्वमात्राके योग्य पुरुष , १२. वातकलाकलीय अध्याय। घृतपानके योग्य व्यक्ति वायुके विषयमें ऋषियोंका प्रश्न १३४ तैलपानके योग्य व्यक्ति सांकृत्यायनकुशका मत . १३५ सापानके योग्य पुरुप भरद्वाजका मत
मजापानके योग्य पुरुप वाहूलीकका प्रत
स्नेहपानकी अवधि बडिश घामार्गवका मत .
स्नेहकर्मके योग्य पुरुप वायोविदका मत
स्हर्कमेक अयोग्य व्यक्ति वायुके भेद और कर्म
अस्निग्धक लक्षण .. कुपित वायुके कर्म
१३८ सम्यक् स्निग्धके लक्षण बाह्यवायुके कर्म .
अतिस्निग्धके लक्षण कुपितबाह्य वायुके कर्म
स्नोपनके पूर्व कर्तव्य कर्म
१५०
१३७
Page #41
--------------------------------------------------------------------------
________________
विषय,
पृष्ठांक.
१६६
१५५
विषयानुक्रमणिका।
(१५) विषय.
पृष्ठांक. स्नेहपानके पश्चात् कर्म . '
जेन्ताक स्वेदके लिये भूमिपरीक्षा · १६६ १५२
अश्मधनस्वदका लक्षण
" पातस्नेहव्यक्तिके कर्त्तव्यकर्म अधिकस्नेहपानके दोप
कुटींवेदका वर्णन
भूस्वेदका वर्णन कोष्ठानुसार स्नेहपान विधि . १५३ मृदुकोष्ठ व्यक्तिके विरेचन द्रव्य
कुम्भीस्वेदका वर्णन
पस्वेदका वर्णन . मृदुकोष्ठ के लक्षण
होलाकस्वेदका वर्णन
१७० स्नेहयुक्त अग्निका तीव्रत्व
विना अमिस्वेदन विधान
१५४ अजीर्ण स्नेहपानमें उपाय
अध्यायका संक्षिप्त वर्णन
१७१ स्नेहमके उपद्रव स्नेहपानमें विरेचन विधि
१५, उपकल्पनीय अध्याय । स्नेहमें मिलानेयोग्य यूप और यूपके द्रव्य,
निवासस्थानका वर्णन स्निग्ध करना
१५६
मदनफलकी मात्राका प्रमाण
१५८ अध्यायका संक्षिप्त वर्णन
१७८ वमन होनेपर वैद्यका कर्तव्य
१७९
वमनके योगायोग दि लक्षण १४. स्वेदाध्याय। स्वेदनकर्मका यत्न १५८
१८० रात्रिके भोजनका क्रम विरेचन विधि
१८१ स्वेदनसे रोगशान्तिम दृष्टांत
१८३
अध्यायका संक्षिप्त वर्णन स्वेदनसे कार्यसिद्धि
१५९ स्वेदनके भेद
१६. चिकित्सा प्रभृतीय अध्याय ।
१८३
सदसद्वद्यके कर्मका फल रोगानुसार स्वेदन विधि स्वेदनेक अयोग्य अंग
अच्छे विरेचनके लक्षण नेत्र में स्वेदन विधि
दुष्टविरेचनके लक्षण स्वेदन कर्मके अयोग्य रोगी
अतिविचितके ल. स्वेदनके योग्य रोग
संशोधनयि रोग पिण्डस्वेदका वर्णन १६२ संयोधन का फल
१८६ कफरोगियोंको स्वेदन विधि
संशोधनकी उत्कृष्टता : " स्वेदनका सहज उपाय
औषध क्षीणके लिये पथ्य नाडी स्वेदनकी विधि
वमन विरेचनातियोगमें चिकित्सा १८७ लेपपर पट्टी बांधनेका सामान १६३ अभिवेशका प्रश्न लेपवन्धनका समय
१६४ पुनर्वसुका उत्तर
१.८६ स्वेदके तेरह भेद
१८९
• अध्यायका संक्षिप्त वर्णन शंकरस्वेदका लक्षण
१७.फियंतःशिरसीय अध्याय । प्रस्तरस्वेदका लक्षण . ".
-
रोगोंपर अभिवेशका प्रश्न १९० नाडीस्वेदका लक्षण परिषकका ल.
गुरुका उत्तर
शिरोरोगोंके कारण अवगाहका ल.
१६६
१८४
१८५
१६५
Page #42
--------------------------------------------------------------------------
________________
पृष्ठांक.
w
.
.
."
"
२११:
चरकसहिंताविषय
विषयः
पृष्ठकि.
विद्रधिके लक्षण विरका लक्षण
१९१
स्थानभदसे विद्रधि लक्षण १०४ घातादिनन्य शिरोरोग
प्रमेहके विनाशी इन पिडिकाओंकी शासन रोगोंके कारण
उत्पत्ति
२०५ पत्तज शिरोरोगोंके कारण
इनकी साध्यामाध्यता कफज घिरोरोगके लक्षण
पिडिकाओक उपद्रव विधोपन शिरोरोगके लक्षण
दोषोंकी त्रिविधगति कृमिन शिरोरोगके ल.
दोषोंका चय कोपोपशम मातजन्य हृदयरोग
१९४
अध्यायका संक्षिप्त वर्णन पित्तज हृदयरोग
१८. त्रिशोफीय अध्याय।। कफन हृद्रोगके लक्षण
सूजनोंके भेद तथा वातादिजन्य लक्षण २०९ सानिपातिक हृद्रोग वर्णन १९५
आगन्तुजशोथके हेतु लक्षण सनिपातके १३ भेद
निजशोथ लक्षण दोषाही वृद्धिसे १५ भेद
वातजशोथ दोषोंकी क्षीणतासे २५ मेद
पित्तजशोथ दोषाँकी क्षय वृद्धि का क्रम व लक्षण ,,
कफजशोथ समयके लक्षण
द्विदोषजादि भेद सेदखीण के लक्षण
वातजशोथके ल. हत्यिक्षपके लक्षण
पित्तजशोथ लक्षण ভলাষ্টীল ভস্থ
कफजशोथ लक्षण क्षीणशुक्रके ल.
उपनिहिका कारण विष्टायके ल०
गलशुणिका कारण सूत्रक्षीणके ल.
गलगण्ड लक्षण हालक्षीणके ल०
गलग्रह लक्षण सीपमोजका ल.
विसर्पका कारण भोज लक्षण
तिल झाई नीलक लक्षण स्थ्य कारणा
शंखकके लक्षण सयुमेहके कारण
कर्णमूलका कारण महपिडिकाओंका वर्णन
प्लीहाका कारण शराविका लक्षण
गुल्मका कारण
२१६ कच्छपिका लक्षण
नधनका कारण जालनी लक्षण
उदरका लक्षण सर्वपिका लक्षण
अनाहका कारण
रोहिणीका कारण विनता लक्ष।
२०३ । व्याधिके साध्यासाध्य भेद
૨૨૨
२१३
२०१
मनसी लक्षण
Page #43
--------------------------------------------------------------------------
________________
(१७)
विषय:
विषय.
२४५
.
२५०
२२७
विषयानुक्रमणिका। पृष्ठांक,
पृष्ठांक. . च्याधियों के नाम रखनेका क्रम २१८ दिवानिद्राका निषेध दोषोंका नित्यत्व
दिवानिद्राके उपद्रव विकाररहित शुद्ध वायु दोषोंक कर्म २१९ निद्राजनक योग
૨૪૬ अन्यायका बक्षिप्त वर्णन २२. निद्रा न मानेके हेतु १९. अष्टोदरीय अध्याय ।
अध्यायका उपसंहार
૨૪૭ रोगोंकी संख्या
२२०
२२. लंघन वृहणीय अध्याय । रोगोंके वातादिभेद
आमिवेशका प्रश्न २२१
२४८ अध्यायका उपसंहार
२२६ लंघन द्रव्य
૨૪૧ अध्यायका संक्षिप्त वर्णन
बृहण द्रव्य
रूक्षण द्रव्य २०. महारोगाध्याय।
स्नेहन द्रव्यके गुण रोगोंके भेद
स्वेदन द्रव्य रोगोंका निज आगन्तुकादि भेदोंसे
स्तंभन द्रव्यके गुण सकारण वर्णन और रोग कल्पना
लंघन क्रम
लंघनयोग्य प्राणी घातरोगों में सामान्य चिकित्सा क्रम २३१
बृहणका वर्णन पिचके चालीस रोग
२५२ पिचाविकारों में चिकित्सा क्रम २३४
लेह्यस्वेद्य कफके पीस रोग
स्तंभनके योग्य लेष्मविकारकी चिकित्सा २३५
सम्यक् लघनके लक्षण
२५३ अध्यायका उपसंहार
आति लंघनके दोष अध्यायका संक्षिप्त वर्णन
सम्यक् बृंहणके ल. २१. अष्टौ निदितीय अध्याय ।
२३. संतपणीय अध्याय । आठप्रकार के निंदनीय पुरुष २३७ सतर्पणसे होनेवाले रोगोंके सकारण नाम२५५ अतिस्थूलमें आठ. अवगुण
सतर्पणसे उत्पन्न हुये रोगों में चिकिअतिस्थलताका कारण
साक्रम मेदके बहुत बढजानेके दोष २३९ सतर्पणजनित रोगनाशक काथ २५६ अतिकृशता के कारण और लक्षण २४० सतर्पणजनित मूत्रदोषोपर काथ , समताके छक्षण
२४१ सतर्पणननित प्रमेहादिपर काय २५७ मतिस्थूल और अतिकशका
संघर्षण जनित रोगों की चिकित्सा , चिकित्सा क्रम
संतर्पणजन्य रोगोंके नाम और स्थूलव्यक्तिकी चिकित्ण
चिकित्सा कृशतानाशक प्रयोग २४२ पुरिकर्ता मन्य निद्राका कारण और उसके उचिता
विण्मूत्रानुलोमी तर्पण नुचित प्रकार ।
२४३ । মুগাইলায় বল
२३६ २३७
.
.
२३८
१०. पण
1
२५९
Page #44
--------------------------------------------------------------------------
________________
२६४
(१८)
। चरकसंहिता-" • विषय. पृष्ठांक. .विषय.
• पृष्ठांक. बलवर्णदायक संतर्पण . २६०
: : उपरोक्त उपदेशोंका तत्व २८४ २४. विधिशोणितीय अध्याय । अमिवेशका आसवाविषयक प्रश्न २८५ शुद्धरतके गुण
आत्रेयजीका उत्तर (आसवाझावर्णन), दूषितरक्तके उपद्रव
उपसंहार
. २८७ दूषितरक्तमें कर्त्तव्य कर्म
२६२
२६. आत्रेयभद्रकाप्यीय अध्याय। वातादिदोषोंसे दूषितरक्तके लक्षण २६३
ऋषियोंका रसविषयक आन्दोलन २८७ शुद्धरक्त के लक्षण
रस विषयक सिद्धान्त
२८९ रक्तमोक्षणानंतर कर्तव्य
पार्थिव द्रव्योंके गुणकर्म . २९१ मदमूछादिकेहेतु
जलीयद्रव्य वातादिकृत उन्मादका लक्षण
आग्नेयद्रव्य वातादिजनितमूच्छाका लक्षण २६५
नाय गद्रव्य संन्यासरोगका ल.
आकाशीयद्रव्य
२९२ संन्यासरोगकी चिकित्सामें शीघ्रता २६७ संन्यासरोगमें चिकित्सा
द्रव्यविषयक सिद्धान्त .
रसोंके विकल्पकी संख्या २५. यजःपुरुषीय अध्याय ।
रसविकल्पज्ञ वैद्यकी प्रशंसा २९४ ऋषियोंका आन्दोलन
२६९
परादि१७ गुणोंके नाम और लक्षण काशीनरेशवामकका वाक्य २७० मौद्गल्यका मत
रसगुणविषयक सिद्धान्त
रसोंकी उत्पचि शरलोसाका मत वायोविदका मत
२७१
पंचमहाभूतोंके न्यूनाधिक्यका फल २९७ हिरण्याक्षका मत
अग्निमारुतात्मक रसौके कर्म . . शौनकका मत
मधुरादिदरसोंके गुणागुण . . भद्रकाप्यका मत
द्रव्योंके वीर्यका वर्णन
३०३ भरद्वाजका मत
रमेंमें प्रधानता
३०४ काङ्कायनका मत
विपाकका वर्णन
३०५ भिक्षुआत्रेयका मत
२७३ वीर्यका वर्णन पुनर्वसुका वचन
रमविपाक वीर्यके लक्षण वामकका प्रश्न और आत्रेयका उत्तर २७४
प्रभावका लक्षण आनिवेशका प्रश्न
रसवीर्यादिका सिद्धान्त आत्रयका उत्तर
मधुरादिदरसोंके स्वरूप अग्निवेशका प्रश्न आत्रेयका उत्तर
विरुद्धाहारविषयक अग्निवेशका प्रश्न ३०९ आहारोंके भेद वर्णन
आत्रेयजीका उत्तर श्रेष्ठहितकारी द्रव्योंका वर्णन २७६ विरुद्ध आहारोंकावर्णन
३१० सामान्यतःसे अहितद्रव्य - २७७ विरुद्ध अन्नसेवनरोगोत्पत्ति ३१६ ईताहितद्रव्यों में प्रधानोंका वर्णन २७८ । विरुद्ध अन्नजन्य रोगोंके उपाय ३१७
२९६
"
-
२७२
०
०
"
س
०
م
२७५
"
Page #45
--------------------------------------------------------------------------
________________
पृष्ठक.
३२९
३३०
३३१
३३२
विषयानुक्रमणिका। विषय.
पृष्ठांक.
.विषय. २७. अन्नपानविधि अध्याय ।
मोरके मांसका गुण अन्नपानकी उत्कृष्टता
३१८
हंसके मांसका गुण अन्नपानादिके स्वाभाविक कर्म ३१९
मुके मांसका गुण वर्गकि नाम
३२०
धन्वानूप मांसके गुण शूकधान्यवर्ग।
कपिजलके मांसका गुण शालिवान्योक गुण
लवाके मांसका गुण यवकादिका वर्णन
३२१
कबूतरों के मांसका गुण साठीचावलोंके गुण
शुकमांसके गुण वरकआदिधान्य
खारगोशक मांसका गुण वीहि और पाटलक गुण ।
चिडियाक मांसके गुण कोरदूष और श्यामाकके गुण
गादडके मांसके गुण यवके गुण
रोहूमछलोक मांसके गुण वेणुयवके गुण
कछुएके मांसका गुण गेहूंके गुण
गवयमांसका गुण नान्दोमुख और मधूलीके गुण
महिषमांसका गुण शमी धान्य वर्ग।
अण्डोंके गुण मूंगके गुण
मोसकी उत्कृष्टता राजमाषके गुण
शाकवर्ग। उरदके गुण
मकोयके शाकका गुण कुल्थीके गुण
राजक्षवकके गुण मोठके गुण
कालशाककरालशाक चनाके गुण
चांगेरीके गुण तिलके गुण
पोहेका शाक शिम्बीके गुण
चौलाईका शाक अरहर आदिके गुण
मण्डूकपण्यादि शाकोंके गुण मांसवर्ग।
सूप्यशाकोंके गुण प्रसह पशु और पक्षियोंके नाम
शाोंकी साधारण विधि भूमिधयके नाम जलमें सेनेवालवजलचरपक्षियों के नाम ,
अन्य नानाविधशाकोंके गुण 1 जांगल पशुओंके नाम
विदारीकन्दके गुण
३२६ विकिरपक्षियों के नाम
फलवर्ग। प्रतुदपक्षियों के नाम
दाखके गुण इनके लक्षण
३२७ खजूरके गुण प्रसहादिके मांसका गुण
फल्गु फालसा महुमा बकरेके मांसका गुण
३२८ आंबडेके गुण भेडे आदिके मांसके गुण
ताल नारियल
३२३
३३३..
३२४
३३४
"
३२५
" ३३५
३३७.
३३८.
Page #46
--------------------------------------------------------------------------
________________
पृष्ठांक
(२०)
चरकसंहिताविषय..
पृष्ठांक,
विषय. भव्यके गुण
प्याजके गुण
३४७ कचे फोंके गुण
लहसनके गुण पके आरुकके गुण -
मद्यवर्ग पालेवतके गुण
सुराके गुण
३४७ । खम्भारतूद
मदिराके गुण
३४८ टंकके गुण
जगलमद्यका गुण यिल्वके गुण
३४०
आरिष्टके गुण आमके गुण
शर्करामद्यके गुण
३४८ जामुनके गुण
पक्वरसके गुण बेरके गुण
शीतरपिकका गुण गंगेरी करील बिम्बी तोदन धिन्वन:३४१
गौडके गुण खिरनी, नसकेला चिरौंजी
सुरासबके गुण लवलोक गुण
घातक्यासवके गुण कदम्बादिके गुण
मधुके गुण गोंदीफल आदिका गुण
जौ, गेंहू भादिका मद्य ... ... ३५० आंवलका गुण
सौवीर और तुषोदकके गुण बहेदेके गुण
अम्लकांजिकके गुण अनारका गुण
नवीन और पुराने मद्यके गुण वृक्षाम्लक गुण ,
जलवर्ग। अमलवेत तथा पिंजौरेके गुण
दिव्य जलको षड्गुणत्म
३५१ नारंगीके गुण
३४३
पात्रभेदसे जलभेद बादामादिके गुण
ऐन्द्रजलका गुण
३५२ पियालके गुण
ऋतुभेदसे जलके गुण अंकाटके गुण
हिमालयकी नदियोंके गुण ३५३ कंजेके गुण
मलयाचलकी नदियोंका गुण पिचपापडाका गुण
पश्चिमकीओर बहनेवाली नदियोंका गुण,, मिलावेकी गुठलीके गुण
अन्यनदियोंका जल
वर्षाती नदियोंका जल . हरित वर्ग।
पादि जलके गुण पदरख-सौंठके गुण
वर्जित जल जंभीरीक गुण
दुग्धवर्ग। . मूलीके गुण तुळसीके गुण
गोदुग्धके गुण
३५४ अजवायन आदिके गुण
भैसके दूधके गुण गण्डीरादिके गुण
ऊंटनांक दूधका गुण भूतृणके गुण
घोडी आदिके दूधका गुण धनिये आदिके गुण
बकरीके दूधका गुण गाजरके गुण
भेट तथा हस्तिनीके दूधका गुण
"
३५४
-
३५५
Page #47
--------------------------------------------------------------------------
________________
(२१)
"
३५७
३६७
३
"
विषय. खोके दूधका गुण दहीके गुण दहीका निषेध
कदहीके गुण तक्रके गुण नवनीतके गुण घृतका गुण पुराने घृतका गुण तक्रपिण्डिकाके गुण
इक्षवर्ग। ईखके रसका गुण पौंडा, गन्ना तथा गुडके गुण मत्स्याण्डकादिके गुण गुडशर्करादिके गुण मधुशर्कराके गुण
शहदके भेद । शहदके रंग
शहदके गुण मधुके गुण मधुको योगवाहित्व
कृतान्नवर्ग। लाजमण्डके गुण भातके गुण मांसादि सिद्ध अन्न कुल्माषक गुण कृताकृतयूपके लक्षण सत्तके गुण शालिघान्यका सच जोकी रोटियोंका गुण जोकी धानीके गुण विरूढधानाक गुण फलादि संस्कृतके गुण वेशवारफे गुण वृतासिद्ध गेहूके पदार्थके गुण पृथुक गुण यूष गुण पाकके गुण
विषयानुक्रमणिका। पृष्ठांक, विषय.
पृष्ठांक. रसालाके गुण पानकके गुण रागषांडवके गुण आम आर भांवळेका अवलेह लेह (चटनी) गुण
३६६ शुक्तके गुण शिण्डाकीका गुण
आहारयोगवर्ग। तेलके गुण
३६६ तेलको उत्कृष्टता, दृष्टान्त ३५८
अरण्डतलके गुण सरके तैलके गुण पियालके तैलके गुण अलसीके तैलके गुण कसूमके तैलके गुण
३६८ फकि तेलके गुण
मजा वसाके गुण . ३६० मेठके गुण
पीपलके गुण मिरचके गुण , हांगके गुण संधानमकके गुण संचरनमक के गुण विडनमकके गुण उद्भिदनमकके गुण समुद्रादि वणके गुण
३७० जवाखारके गुण क्षारोंके गुण जीरा और धनियाका गुण पुराण धान्यमें विशेषता वर्जितमांस मांसरसका गुण . वर्जितशाक
३७२ वर्जितफल अनुपानका वणन
"
"
३६3
३७१
"
"
""
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--------------------------------------------------------------------------
________________
८.
( २२ )
विषय.
दूधका अनुपा
अन्य अनुपान अनुपान के कर्म
जलपानका निषेध
उपसंहार
चरादि परीक्षा शरीरावयवका वर्णन
स्वभावका वर्णन
धातुओं का लघु गुरुत्व
संस्कार और मात्राकृत गुरु लघुत्व हितकर्म
आहारद्वारा शरीरोपचयक्रम
अग्निवेशका प्रश्न
रसदोष से उत्पन्न रोग
रक्तदोषज रोग
पृष्ठांक
मांसदोपजरोग
अस्थिदोषज रोग
मजादोषज रोग शुक्रदोपज रोग कुपित दोषों के कर्म
रसरक्त मांसमेदादिगत दोषोंकी
चिकित्सा
संपूर्ण रोगों में सामान्य चिकित्साक्रम हितकारी उपदेश
प्राणस्थान तथा प्राणाभिसर वैद्य वैद्योंके भेद
३७३
""
अग्निवेशका प्रश्न
द्वैद्य के लक्षण
रोगाभिसर के लक्षण
२८ विविधाशितपीतीय अध्याय ।
हितकर आहारसे रस रक्तादिकी
उत्पत्तिक्रम
चरकसंहिता
72
३७४
93
३७५
19
३७६
37
33
३८२
हिताहित आहारविषय में. आत्रेयका उत्तर, असहनशक्तिवाले शरीरोंकावर्णन
३८२
३८३
37
33
३७७
३७९
३८४
"3
""
39
२८५
""
३८७
२९ दशप्राणायतनीय अध्याय ।
३५०
३८६
""
३९१
53
३९४
विषय.
पृष्ठांक
३० अर्थे दशमूलीय अध्याय ।
३९७
३९८ |
हृदयानि अंगावयव
महामूलादि नामका कारण ओजघातुका गुणकर्म महाफलकी निरुक्ति
ओजबलादिवर्धक एक २ उपाय आयुर्वेदवित् के लक्षण तंत्रादिशब्द की व्याख्या सुखायु और दुःखायुके लक्षण हिताहित आयुका वर्णन
97
३९९
33
४००
33
४०२
72
४०३
आयुका प्रमाण आयुर्वेदका नित्यत्वप्रतिपादन आयुर्वेद के आठ अंग तथा उनसे
*
धर्मप्राप्ति आयुर्वेद अर्थप्राप्ति
शास्त्रविषयक आठ प्रश्न
35
25
क्रमानुसार प्रश्नाष्टकका उत्तर आठ स्थानोंके नाम भेषजाश्रय अध्यायों के नाम स्वास्थ्यवृत्तिक अध्यायोंके नाम नैर्देशिक अध्यायों के नाम उपकल्पना विषयक अध्यायों के नाम रोगाध्यायों के नाम योजनाचतुष्क अध्यायोंके नाम अन्नपान चतुष्क अध्यायोंके नाम वैद्यगुणागुणविषयक अध्यायों के नाम सूत्रस्थानके अध्यायों का संक्षिप्त वर्णन निदानस्थानके अध्यायोंके नाम विमानस्थानके अध्यायोंके नाम शारीरस्थान के अध्यायोंके नाम इन्द्रियस्थान के अध्यायोंके नाम चिकित्सास्थान के अध्यायों के नाम कल्पस्थानके अध्यायोंके नाम सिद्धिस्थान के अध्यायोंके नाम
13
स्थानार्थ अध्यायार्थ और प्रश्नका ल० ४१३
प्रश्नार्थका लक्षण
तन्त्रादिकी निरुक्ति
jok
33
33
38'
४०९
25
23
33
४१०
33
"3
४११
33
४१२
3 35
13
Page #49
--------------------------------------------------------------------------
________________
विषय. अज्ञवैद्यके लक्षण सेवनीय वैद्य { स्थानकी निरुक्ति
अथ निदानस्थान |
१. ज्वरनिदान ।
निदानके पर्यायवाची शब्द त्रिविध निदान
इति सूत्रस्थान की अनुक्रमणिकां ।
व्यावियो के भेद
व्याधिक पर्याय शब्द रोग की उपलब्धि विषय
विहातुक लक्षण उन्मादो क्षण
- क्षण
के लक्षण
पर्याय
उ:
₹ ! पण
सेाप्ति भेद
संख्या संप्राप्ति के लक्षण प्राधान्य संप्राप्तिके लक्षण
विधि संप्राप्तिके लक्षण विकल्पसम्प्राप्ति के लक्षण
विशेष
पिचकोपका कारण
विषयानुक्रमणिका ।
पृष्ठांक.
प्रकुपितपित्तका कर्म
पित्तज्वर के लक्षण
कफ प्रकोपका कारण
प्रकुपित कफका कर्म -कफज्वर के लक्षण
४१४
४१६
.४१७
४१८
33
33
28
४१९
37
""
35
33
४२०
वलफालका लक्षण
विशेषता निदान कथन
ज्वर के भेद
वायुकोपका कारण अतिकुपित वायुका कर्म
वातज्वर के लिंगव अंगविशेषोंमें वेदना
"7
37
"y
४२१
38
97
४२२
""
४२३
99
૪૧૪
35
४२५
03
४२६
23
विषय.
द्वन्द्वजादिज्वरोंका निदान द्वन्द्वनादिज्वरों के लक्षण
आगन्तुस्वरका कारण व उसमें
दोषोत्पत्ति
ज्वरके भेद
ज्वर के पूर्वरूप
ज्वरका रूप
सोत्पत्तिक ज्वरका लक्षण ज्वरके पूर्व कर्तव्य कर्म
ज्वर में कर्तव्य
ज्वर में घृतपान
घृतको उत्कृष्टत्व
२. रक्तपित्तनिदान |
रक्तपित्तका कारण
·
रक्तके दूषित होनेका कारण रक्तपित्तनामका कारण
रक्तपित्तके पूर्वरूप
रक्तपित्तकें उपद्रव
ररित मार्ग
रक्तपित्त का साध्या साध्यत्व रक्तपित्तकी उत्पत्ति आदि रक्तपित्त में चिकित्साक्रम
साध्यसाध्य विवेचन साध्य रोगको असाध्य होनेका
असाध्यके विशेष लक्षण रक्तपिच कर्तव्यता
( २३ )
पृष्ठांक
३. गुल्मनिदान |
गुल्मों के भेद अभिवेशका प्रश्न
आयजीका उत्तर
वातकुपित होनेका कारण
प्रकुपित वातसे गुल्मकी उत्पत्ति
वातगुल्म के लक्षण वायुपित्त प्रकोपका कारण पित्तप्रकोप से गुल्म
४२७
37
Sy
४२८
"3
४२९
"8
४२०
37
४३१
$7
४३२
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" " Do
72
22
४३५
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33
कारण ४३७
૪૩૮
21
15
"3
४३९
57
.४४०
""
'75 ४४१
"
22 ४४२
$3
Page #50
--------------------------------------------------------------------------
________________
· पृष्ठांक.
४५७
"
४५१
(४६४
(२४)
. चरकसंहिताविषय.
पृष्ठांक.
विषय. कफके प्रकुपित होनेका कारण
मज्जामेहीके लक्षण प्रकुपित कफसे गुल्मकी उत्पत्ति
हस्तिमेहीका लक्षण निचयगुल्मका वर्णन
४४४ मधुमेहीके लक्षण
४५८ रक्तगुल्म
त्रिदोपजन्य प्रमेहके पूर्वरूप रक्तगुल्मकी उत्पत्ति के कारण
प्रमेहके उपद्रव गुल्ममें पूर्वरूप
४४५
साध्य प्रमेहोंकी चिकित्साविधि- १५९ गुल्ममें चिकित्सानिर्देश
४४६
५. कुष्ठनिदान। ४. प्रमेहनिदान।
कुष्ठोत्पत्तिका कारण
४६० प्रमेहॉकी संख्या
४४७ प्रमेहनिदान भेद
कुष्ठभेद
४४९ दोषदृष्यका वर्णन
सात प्रकारके कुष्ठ
कुष्ठोंके भेद और उत्पचिके कारण ., प्रकुपि कफके कर्म
कुष्ठका साधारण निदान
४६२ प्रमेहाक नाम
कष्ठके पूर्वरूप कफप्रमेहका साध्यत्व
• कपालके लक्षण । उदकमेहका लक्षण
उदुम्बरकुष्ठ के ल. इक्षुमेहके लक्षण
मण्डल कुष्ठके लक्षण सान्द्रमेह के लक्षण सान्द्रप्रसादमेहके लक्षण
ऋष्पजिबकुष्ठके लक्षण शुक्लमेहके लक्षण
पुण्डरीककुष्ठके लक्षण शुक्रमेहके ल.
सिधमकुष्ठके लक्षण शीतमेहके ल.
काकणक कुष्ठके लक्षण
४५३ सिकतामेहके ल.
कुष्ठीका साध्यासाध्यत्व वर्णन शनमेंहके ल.
उपेक्षितकुष्ठका फल आलालमेहके ल.
प्रकुपित दोपोंके उपद्रव पित्तनमेहका ल.
कुपित दोषांमें उपद्रव छः प्रमेहाके नाम
६. शोषनिदान। क्षारमेहीके ल. .
शोषोंके आयतनोंकी संख्या ४६९ कालमेहीके ल. नीलमेहीके ल.
साहसका वर्णन रक्तमेहीके लं०
वायुके कम मंजिष्ठमेहीके ल.
शोषमें उपदेश हरिद्रामेहीके ल.
सन्धारणजन्य शोषका वर्णन वात प्रमेह होनेका कारण
क्षयशोषका वर्णन
४७२ मज्जामेहका कारण
यक्ष्मा होनेकी रीति
४७३ हस्तिमेहका कारण
वीर्यकी रक्षामें उपदेश
४७४ मधुमेहका कारण
विषमाशनका वर्णन
४७५. वातप्रमेहोंका असाध्यत्व
४५७ विषमाशनशोषमें कर्तव्यता वसामेहीके लक्षण
राजयक्ष्मानामका कारण
"।
.
"
४७६
Page #51
--------------------------------------------------------------------------
________________
४८५
विषयानुकमाणका ।
(२५) विषय.
पृष्ठांक. विषय.
पृष्ठांक. राजयक्ष्माके पूर्वरूप
४७७
अथ विमानस्थान राजयक्ष्माके रूप
४७८
१.रसविमान। ७. उन्मादनिदान ।
रसोंका वर्णन उन्मादके भेद ४७९ दोषोंका वर्णन
५०१ उन्मादरोगी पुरुष
४८० रसोंद्वारा दोषोंका चयापचय उन्माद के पूर्वरून
द्रव्यप्रभावका वर्णन उन्मादकी पहिचान
क्षारसेवनका निषेध
५०४ पित्तोन्मादके लक्षण
४८९ लवण सेवनका निषेध कफोन्मादके लक्षण
सात्म्यके लक्षण साध्योंकी उपक्रमणविधि
४८३ आहारके आयतन
५०७ आगन्तुक उन्मादके लक्षण ४८४
प्रकृतिका वर्णन
करणका वर्णन आगन्तुक उन्मादकी उत्पत्ति मिन्नमत ,
संयोगका वर्णन आगन्तुक उन्मादके पूर्वरूप
राशिका वर्णन उन्मादोरमत्तिसे पूर्वचेष्टा
देशका वर्णन उन्मादके रूप
कालका वर्णन आपातकाल
उपयोगका वर्णन भूतादिकृत उन्मत्तताके तीन प्रयोजन ४
उपयोका और मोकसात्म्यका वर्णन सायोंका वर्णन
आहारविधि उन्मादका द्विविधत्व
उष्णभोजनके गुण ८, अपस्मारनिदान ।
स्निग्ध भाननके गुण अपस्मारके भेद
४८९ मात्रावत् भोजनका गुण अपस्मारके योग्य पुरुप
जीर्णभोजनमें भोजनके गुण अपस्मारके लक्षण
वीर्याविरुद्ध भोजनके गुण अपस्मारके पूर्वरूप
इष्टदेशमें भोजनका गुण वातज अपस्मारके लक्षण
नातिद्रुत भोजनके गुण पित्तज अपस्मारके लक्षण
नातिविलम्बित भोजनके गुण कफज अपस्मारके लक्षण
मौनसे भोजनके गुण
४९२ सान्निपातिक अपस्मारके लक्षण
आत्माको देखकर भोजनके गुण ५१३ रोगोंकी उत्पत्ति
४९३
२.त्रिविधकुक्षीय विमान । एकरोगसे अनेक रोगोंकी उत्तति
त्रिविकुक्षीयका वर्णन ४९४
५१४ रागोंके हेतुओं का वर्णन
अमात्राके भेद
दोषोंके कुपित होने का कारण रोगों में श्रमकारक लक्षण रोगोंकी शांतिका वर्णन
पृथक् २ दोषांके उपद्रव
कुरित वातादि दोपोंके उपद्रव वैद्यको उपदेश
४९७
आमदूषित होनेका कारण चिकित्साकी विधि
४९८
आमके विसूचिकादि भेद इति निदानस्थानकी विषयानुक्रमणिका।
अलसका ल.
४९०
४९१
५१७
Page #52
--------------------------------------------------------------------------
________________
पृष्ठांक.
५२१
"
.५२९ ५३०
चरकसंहिता- ... विषय.
पृष्टांक,
विषय... आमविषका वर्णन
५१८
५. स्रोतोंका वर्णन । साध्यामकी चिकित्सा
स्रोतोंका वर्णन
५४८ विषचिकादि आमदोषकी चिकित्सा ५१९
दूपित उदकवाही स्रोतके लक्षण आहारपचनेका स्थान
५२०
दूषित अन्नवाही स्रोतके लक्षण ३, जनपदोद्ध्वंसनीय विमान !
रसवहादिलोतोंका वर्णन पुनर्वसुका प्रस्ताव
मूत्रवाही स्रोतोंके लक्षण अग्निवेशका प्रश्न
५२३ पुरीपवाही स्रोतोंके लक्षण आत्रेयजीका उत्तर
स्वेदवाही स्रोतोके लक्षण ५५२ वातको अनारोग्यत्व
शरीरघात्ववकाशोंके नाम जलको अनारोग्यत्व
५२४ प्राणवाही स्रोतोंके दूपित होने का कारण५५३... देशको अनारोग्यत्व
उदकवाही स्रोतोंके दूपित होनेका कारण,, कालको अनारोग्यत्व
५२५ अन्नवाही स्रोतों दूपित होनेका कारण,, जनपदोद्ध्वंसकारी भावोंकी चिकित्सा ५२६ रक्तवाही स्रोतों दूषित होनेका कारण,, आभिवेशका प्रश्न
५२८ रसवादी स्रोतोंके दूषित होनेका कारण ५५४ आत्रेयका उत्तर
मांसवाझी खातोंके दूपित होनेका कारण,, युद्धका कारण
भेदोवाही स्रोतोंके दूषित होनेका कारण,, अभिशापका हेतु
अस्थिवाही स्रोतोंके दूषित होनेका कारण, संसारमें अधर्मके आनेकाक्रम
मजावाही स्रोतोंके दूपित होनेका कारण,, कर्मोंका वर्णन
शुक्रवाही स्रोतोंके दुपित होनेका कारण५५५ कर्मके भेद
मूत्रवाही स्रोतोंके दूषित होनेका कारण ,, आयुके नियतानियतं पर विचार ५३४ वोंके स्रोतोंके दूपित होने का कारण , अग्निवेशका प्रश्न
५३७ स्वेदवाही स्रोतों दूषित होने का कारण,, काल तथा अकाल मृत्युका वर्णन
अन्यकारण अग्निवेशका प्रश्न
खेतोंकी आकृति
. ५५६ ज्वरमें उष्णजलका विधान
दूपित स्रोतोंकी चिकित्साका विधान ,, उष्णजलके गुण
५३९
६. रोगानीक विमान । । अपतपणके भेद लंघनपाचनके गुण
रोगोंके विभाग दोषावसेचनके गुण
रोगोंको संख्यासंख्येयत्व ५५८ अयोग्य रोगांके लक्षण
५४२ दोषोंका वर्णन
५५९ ४. त्रिविध रोग विशेष विज्ञानीय
दोषोंका विविधकोप
५६० अनुबन्धानुबन्ध भेद विमान।
सन्निपातादि दोषभेद रोग विशेपज्ञानके भेद
आमिसेद आप्तोपदेशका लक्षण
दोषोंकी साम्यावस्था या प्रकृति ५६२ प्रत्यक्ष आर अनुमान
५४३. प्रत्यक्षज्ञानका लक्षण ।
चार प्रकारके अन्न प्रणिधान अनुमानज्ञानका लक्षण , ५४५
वातप्रकृतिक रोग अन्म अनुमान शेयभावोंका वर्णन ५४६ वायुके जीतनेका उपाय
५६५
५३८
पY.
५६१
.
"
५४४
Page #53
--------------------------------------------------------------------------
________________
पृष्ठांक
६०५
६०७
६०९
५७८
६१.
. विषयानुक्रमणिका । विषय.
पृष्ठांक.
विषय पित्तका प्रकोप और जीतनेका क्रम ५६५ सर्वतंत्र सिद्धान्तः कफका प्रकोप और जीतनेका क्रम ५६६ प्रतितनसिद्धान्त: अध्यायका उपसंहार
अधिकरण सिद्धान्त: .जध्यायका संक्षेप
५६८ अभ्युपगमसिदान्तः ७. व्याधितरूपीयविमान ।
शब्दः रोगीके भेद
५६८
अथ प्रत्यक्षम् अज्ञानियोंका भ्रम
५६९ अनुमानम् चारप्रकारके सहज कृमि
अथ औपम्यम् रुधिरज कृमि
५७२
अथ ऐविह्यम् कफज कृमि
अथ संशयः विष्ठाके कृमि
५७३
अथ प्रयोजनम् क्रिामे चिकित्सा
५७४
अथ सव्यभिचारम् पेटके कोडॉकी चिकित्सा ५७५ अथ जिज्ञासा संशोधन औपधकी विधि ५७६
अथ व्यवसाय: विरेचन होजानेपर कर्म
अथार्थप्राप्तिः शमिनाशक औपधी
अथ सम्भवः विडंगतैल
अथानुयोज्यम् अध्यायका संक्षेप
अथाननुयोज्यम् ८.रोगभिषग्जितीय अध्याय।
अथानुयोगः शास्त्रपरीक्षा
अथ प्रत्यनुयोगः
५८५ आचार्यकी परीक्षा
अथ वाक्यदोषः
५८६ अध्ययनको विधि
वाक्यन्यूनता अध्यापन विधि
५८८
अथाषिक्यम् उपदेश
अनर्थक
५८९ बैद्यको उपदेश
अपार्थक
विरुद्ध सम्भाषणविधि
५९४
पाक्यप्रशंसा विगृह्यसंभाषणविधि
५९६
वाक्छल प्रतिवादीके भेद
सामान्यछल सभाके भेद
अहेतु वादमर्यादाके लक्षण
अतीतकालम् वादका लक्षण
उपालम्भ द्रव्यादि लक्षण
परिहार अथ प्रतिज्ञा
प्रतिज्ञाहानि अथ स्थापना
अभ्यनुज्ञा अथ प्रतिष्ठापना
हेत्वन्तर अथ हेतु
अर्थान्तर अथ उत्तरम्
६०४ निग्रहस्थान अथ दृष्टान्तः
वाद विषयक उपदेश अथ सिद्धान्तः
कारण
५८४
६११
"
६१२
६१३
६१४
६०१
" ६१७ ६१८
Page #54
--------------------------------------------------------------------------
________________
( २८ )
विषय
करण
कार्ययोनि
कार्य
कार्य फलम्
अनुबन्ध देश
काल
प्रवृत्ति
उपाय
परीक्ष्य
परीक्षाके भेद
वैद्यपरीक्षा
भेषजपरीक्षा
औषधपरीक्षा
कार्य योनिपरीक्षा
कार्यपरीक्षा कार्यफलपरीक्षा
देशलक्षण
रोगी परीक्षा दुर्बलरोगीको औषध
अल्पवळ औषधकी व्यर्थता
बलप्रमाण ग्रहण के कारण
कफप्रकृति
पित्तप्रकृतिके लक्षण
वातप्रकृति के लक्षण मिली हुई तथा सम प्रकृति विकृतिपरीक्षा
सारद्वारा परीक्षा
रक्तसार
मांसमार
मेदःसार
अस्थिसार
मजासार
शुक्रसार
सत्त्वसार
सर्वसार
समुदाय द्वारा परीक्षा प्रमाणसे परीक्षा
सात्म्य द्वारा परीक्षा
चरकसंहिता -
पृष्ठक ६१८
30
Jy
६१९
""
33
39
""
97
६२०
६२१
६२२
६२३
६२५
53
६२५
36
१०
६२६
६२७
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६२८
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६३०
६३१
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६३२
37
3,
६३३
2250
23
33
६३४
23
६३५
६३६
૬૮
विषय.
सत्त्व से परीक्षा मध्य सत्त्वादि पुरुष
भोजन शक्तिद्वारा परीक्षा व्यायामशक्तिद्वारा परीक्षा अवस्था से परीक्षा
बालआदि अवस्था
वयः क्रमसे औषध प्रयोग
कालभेद
षऋतुविभाग
शीत संघोशन निषेध
ग्रीष्म में निषेध
वर्षा में निषेध
कार्यकाल निर्णय
प्रवृचि
उपाय
प्रतिपत्ति
वमनद्रव्य
विरेचनके द्रव्य
आस्थापनका वर्णन
रसानुसार आस्थापन
मधुर स्कन्ध
अम्लस्कन्ध
लवणस्कन्ध
कटुकस्कन्भ
तिक्तस्कन्ध
कषायस्कन्ध
अनुवासन द्रव्य शिरोविरेचन द्रव्य
अध्यायका संक्षिप्त वर्णन
पृष्ठांक.
६३८
६३९
मनका वर्णन
बुद्धिकी प्रवृत्ति
ज्ञानेन्द्रिय
कर्मेन्द्रिय
पञ्चमहाभूत
""
६४०
""
23
६४१
६४२
""
६४३
""
६४४
""
६४५
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६४६
""
६४८
६४९
33
६५४
६५६
६५७
६५८
इति विमानस्थानकी अनुक्रमणिका ।
33
६५०
६५१
६५२
६५३
अथ शारीरस्थान ।
१. कतिधा पुरुषीय अध्याय । अग्निवेश के पुरुपविषयक प्रश्न पुनर्वसुजी पुरुषविषयक उत्तर
६६०
६६२
37
६६३
""
६६४
35
Page #55
--------------------------------------------------------------------------
________________
विषय. पृथ्वी आदिके गुण गुणादिवर्णन
ज्ञानों की अनेकता
पुरुषको प्रधानता पुरुषकी कारणता पुरुषको कारणताका दृष्टान्त कर्तव्यपर विचार
कारणोंक नाम और कर्म आत्माका वर्णन
प्रकृतियों और क्षेत्रज्ञका वर्णन पुरुषका वर्णन
जीवनमरणके लक्षण आत्माको कर्तृत्व
आत्माको वशित्व
आत्माकी विभुत्व आत्माका अनादित्व
अत्माका सर्वसाक्षित्व
अतीतरोगकी चिकित्सा भविष्यत् रोगकी चिकित्सा
वर्तमान व्याधिकी चिकित्सा दुःख हेतु
प्रज्ञापराध
कालजनित रोग
स्वाभाविक रोगों का वर्णन
कर्मजरोगों की शान्ति
श्रवणेंद्रिय का मिथ्यायोग
त्वगिन्द्रियका मिथ्यायोग दर्शनेन्द्रियका मिथ्यायोग
रसनेन्द्रियका मिथ्यायोग घ्राणेन्द्रियका मिथ्यायोग. असात्म्य के लक्षण
सुखदुःखों के प्रधान हेतु वेदना के स्थान
योग और मोक्ष
अष्टविध योगबल
मोक्षप्राप्ति के उपाय दुःखोंसे निवृत्ति के उपाय
धृति के लक्षण
स्मृतिके लक्षण मोक्षका रूप अध्याय का संक्षिप्त वर्णन
विषयानुक्रमणिका ।
पृष्ठांक
६६४
६६५
१७
६६६
"1
६६७
39
६६९
६७०
23
29
६७१
६७२
33
६७३
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39
६७४
32
६७५
३७६
६७७
६७८
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६७९
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६८०
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६८१
૬૮૨
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६८३
39
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६८४
६८५
६८६
(२९)
विषय.
पृष्ठक
२. अतुल गोत्रीय शारीर अध्याय ।
गर्भके चतुष्पाद में प्रश्न
६८६
६८७
उत्तर
गर्भके विषय में प्रश्न
यथाक्रम उत्तर
सन्तानका प्रश्न मिथ्याकल्पितगर्भ एकगर्भ अनेक सन्तान होनेके विषय में
प्रश्न
उत्तर
गर्भ में नपुंसकादि होनेके हेतु
सद्योगर्भके लक्षण
गर्भस्थ बालकादिका परिचय
""
गर्भकी उत्पत्ति
गक भेद
गर्मी असात्म्यजता
गर्भका रससे उत्पन्न न होना गर्भका सत्त्वगुणी न होना
19
गर्मी विकृतिका कारण
६९२
आत्माके देहभर में प्राप्त होने का कारण ६९३
६९५
आत्रेयका मत
पितासे होनेवाले अवयव आत्माचे उत्पन्न हुए गर्भावयव आत्मा हुए मा
सात्म्य हुए गर्भ अवयव गर्भकी रसज उत्पत्ति
गर्भके रसन अवयव
सवका उत्पादकत्व
भरद्वाजका प्रस्ताव आत्रेयजीका उत्तर
अध्यायका संक्षिप्त वर्णन
37
૬૮.
दैवका लक्षण
ऋतुओंके रोगोंका शमन
अध्यायका उपसंहार
३. खुड्डीका गर्भावक्रान्तिशारीर
अध्याय ।
६८९
६९०
६९१
आत्रेय की प्रतिज्ञा
गर्भकी उत्पत्तिका कारण
गर्मके वैकारिक द्रव्य
i
""
६.९६
६९७
39
६९९
"" ७००
33
७०१
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७०४ ७०५
""
""
७०६
७०७
७०९
७१२
४. महती भवकान्तिशारीर
अध्याय ।
७१३
"
७१४
Page #56
--------------------------------------------------------------------------
________________
१:११
"
.
७३०
mm .
(३०)
विषय. राभंकी आनुपूर्विक उत्पत्ति गर्भको पहिलो अवस्था गर्भका आकाशात्मक अवयन • गर्भका वाय्वात्मक अवयव गर्भका अश्यात्मक अवयव गर्भका जलात्मक अवयव गर्भका पृथिव्यात्मक अवयव फन्या आदिका विशेष भाव दहि दलक्षण शर्मनाशक भाव चौथे महीने में गमके लक्षण पांचवें महीने में गर्भका लक्षण छठे महीने में गर्मका लक्षण सातवें महीनेमें गर्भका लक्षण
आठवें महीनेमें गर्भके लक्षण प्रसवका समय दूपितरक्तजन्य विकृतावयव दुषितशुक्रजन्य विकृतावयव सत्त्वके अनेक भेद ब्राह्मका लक्षण
आर्षका लक्षण ऐन्द्रका ल. याम्यके ल. वारुणक लं. कौवेरका ल. गांधर्वका ल. ब्राह्मकी उत्कृष्टता आसुरके ल. राक्षसके ल. मिशाचके ल. तापके ल. प्रेतकेह. शाकुन के ल. पाशवके ल. मात्स्यके लक्षण वानस्पत्य के लक्षण उत्त्वके भेदोंका संक्षिप्त वेशन अध्यायका उपसंहार
चरकसंहितापृष्ठांक. विषय.
पृष्ठांक. ७१४ ५.पुरुषविचय शारीर अध्याय । ७१५
जगत् तथा पुरुषकी तुल्यता ७३२ ७१६ अमिवेशका प्रश्न
७३३ आयजीका उत्तर
७३४ . वियोगका कथन
७३५ ७१७
अमिवेशका प्रश्न प्रवृत्ति के मूलका वर्णन अहंकारका लक्षण
७३६ संगलक्षण
संदेहका लक्षण ७२०
अभिसंप्लवका लक्षण ७२१
अभ्यवपातका लक्षण विप्रत्ययका लक्षण
विशेषका लक्षण ७२२
अनुपायका लक्षण मोक्षसाधनका क्रम
७३८ शुद्धसत्वबुाद्धका कथन मुक्तका लक्षण
.. ७४१ अध्यायका उपसंहार ७२६
६. शरीरविचय शारीर अध्याय । शरीरविचयका प्रयोजन
७४२ शरीरका वर्णन धातुमात्म्यकी विधि
विधि स्वस्थके घातुसात्म्य रखनेका उपदेश ७४४ धातुओं की वृद्धि और ह्रासका कारण ,, धातुओंके गुण गुरु और लघु धातुओंका वर्णन ७४५ प्रतिघातुओंकी वृद्धि का हेतु समानकी अप्राप्तिमें उपाय शरीरधातुके भेद
७४७ पूर्णवैद्य के लक्षण
.७४८ गर्भके बाहर आनेका वृत्तान्त बालकके आहार व उपचार ७५२ कालाकालमृत्युवर्णन आयुका प्रमाण
. ७५४ अध्यायका उपसंहार ....
७४०
७२३ ७२५
७४३
७२७
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१२९
७५१
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Page #57
--------------------------------------------------------------------------
________________
विषयानुक्रमणिका।.
( ३१)
- विषय.
पृष्ठांक.
"
७५८
पृष्ठांक. ७. शरीर संख्या शारीराध्याय । त्वचाके भेद शरीरफ अंगावभाग शरीरकी हड्डियोंकी संख्या इन्द्रिये और इन्द्रियोंके अधिष्ठान
आदि प्राणायतन और मर्म कोष्ठ प्रत्यंगोंके नाम अदृश्य अंगोंके नाम पार्थिवद्रव्योंका वर्णन
७६० आप्यद्रव्योंके नाम
७६१ आमेयद्रव्यों के नाम वायवीयद्रव्यों के नाम आन्तरिक्ष द्रव्योंके नाम अध्यायका उपसंहार
७६२ ८. जातिसूत्रीय शारीराध्याय । उत्तम संतान होनेका उपाय
७६२ 'स्त्रीपुरुषका कर्तव्य कर्म
७६३ स्त्रीसहवास करनके दिन
७६४ सहवासको विधि गर्भधारणक अयोग्य स्त्री स्त्रीगमनविधि
७६५ उत्तमपुत्र उत्पन्न करनेकी विधि उत्तमपुत्रके लिये इवन विधि ७६७ यज्ञके अन्त में कर्म
७६८ । सत्त्वभेदका कारण
७६९ पुंसवनविधि
७७१ गर्भस्थापन औषध
७७२ गर्भनाशक भाव
७७३ गर्भिणीकी उपचारविधि
७७५ मिणीके उपचारमें मुख्य कर्म ७७६ गर्भकी रक्षाविधि
७७७ आमगर्भ में पुष्पदर्शन
७७८ नागोदरगर्भके लक्षण
७७९ 'उक्तगर्भमें चिकित्सा प्रसुप्तगर्भ में चिकित्सा
७८० उदावरुद्धगर्भकी चिकित्सा मृतगर्भकाल.
७८१
विषय. मृतगर्ममें उपाय
७८२ गर्भकी मास परत्व रक्षणविधि ७८३ सप्तममासमें अन्य उपचार ७८४ आठवें मासमें गर्भरक्षण विधि ७८५ नवममासके गर्भकी रक्षणविधि सूतिकागारकी विधि
७८६ सूतिकागृहका सामान
७८७ प्रसवकालके चिह्न
७८० प्रसववेदनामें कर्तव्यकर्म आत्रेयजीका मत
७८९ प्रसवकालमें औषध
७९० प्रसवकालका मन्त्र प्रसव उपरांत कर्म
७९२ अमरानिकालनेकी विधि कुमारके कर्म
७९३ नालुबा छेदन विधि
७९४ नाभिपाकका यत्न
७९५ जातकविधि रक्षाविधि
७९६ प्रसूतिकाका आहाराविहार वर्णन ७९७ प्रसूताका रोगावस्थामें उपाय ७९८ बालक होनेपर दशमदिनकी विधि " . धात्रपिरक्षिा
८०१. उत्तम स्तनके ल.
८०२ उत्तमदूधके ल. बातदूषित दूध पित्तदूषित दूध
८०३ कफदूषित दूष धात्रीके खानेपीनेकी विधि दुग्धशोधक उपाय
८.४ दुग्धोत्पादक विधि शुद्धदूधवालीका कत्तव्य कर्म कुमारागारविधि वस्त्रों में धूपदेनेवाली औषधि . कुमारकी अन्यरक्षावधि बालकके खिलौने कुमारके रोगोंका उपचार
८०७ अध्यायका उपसंहार /
८०८ इति शारीरस्थानकी विषयानुक्रमणिका।
"
.
Page #58
--------------------------------------------------------------------------
________________
(३२)
चरकसंहिता-विषयानुक्रमणिका ।
૮૨૦
८१२
विषय.
पृष्ठांक. अथेन्द्रियस्थान। १. वर्णस्वरीय इन्द्रियाध्याय । आयुके प्रमाण जाननेकी रीति ८०९ परीक्ष्यवस्तुओके भेद
८११ प्रकृतिवर्णन विकृतिका वर्णन निमित्तानुरूपाके लक्षण प्रकृतिवर्ण वैकारिकवर्ण
८१३ वर्णजन्य आरिष्ट लक्षण स्वराधिकारः
८१४ वैकृतिकस्वरका लक्षण आसन्नमृत्युरोगीका लक्षण ८१५
२. पुष्पित इन्द्रियाध्याय । पुषितके ल.
८१८ गंधका ज्ञान रसज्ञान, विरसताका ज्ञान मधुरताका ज्ञान
३, परिमर्षणीय इन्द्रियाध्याय । स्पर्शके लक्षण
८२१ विस्तारपूर्वक स्पर्शका लक्षण ८२२ केशपरीक्षा उदरपरीक्षा जखपरीक्षा अंगुलीपरीक्षा
विषय.
पृष्ठांक. ४. इन्द्रियानीकइन्द्रियाध्याय । नेत्रइन्द्रियद्वारा परीक्षा कणेंद्रियद्वारा परीक्षा
८२५ नासिकाद्वारा परीक्षा
८२. त्वचाद्वारा परीक्षा
५. पूर्वरूपीय इन्द्रियाध्याय । भिन्न २ मृत्युकारक रोग ८३ स्वप्न के भेद ६. कतमानिशरीरीय इंद्रियाध्याय त्याज्यरोगोंके लक्षण
८३ ७.पन्नरूपीय इन्द्रियाध्याय। छायाके.भेद
८४ पंचभूतात्मक छायाका लक्षण तेजसीप्रभाका लक्षण ८. वाशिरसीय इन्द्रि
याध्याय । ९. यस्यश्यावनिमित्तीय
इन्द्रियाध्याय। ८९ १०. सद्योमरणीय इन्द्रिः
याध्याय। ११. अणुज्योतीय इन्द्रि
याध्याय। १२. गोमयचूर्णीय इन्द्रि
याध्याय। दूतपरीक्षा अशुभशकुन 'साध्यरोगीके लक्षण रोगमुक्त लक्षण
.८१९
८२०
'
८२४
इति इन्द्रियाध्यायकी विषयानुक्रमणिका । .
Page #59
--------------------------------------------------------------------------
________________
ueft:0
अथ चरकसंहिता । भाषाटीकासहिता ।
सूत्रस्थान
प्रथम अध्याय १. मंगलाचरण |
यत्सेवया जडधियोऽपि हि तां प्रतिष्ठां गच्छन्ति यां न विबुधा अमितप्रयासैः ॥ तां वै प्रसादसुमुखीं गिरिराजकन्यां सर्वस्य चास्य जननीं हृदि भावयामि ॥ १ अथाहीशप्रणीतायाः संहितायाः प्रसादनी ॥ रामप्रसाद वैद्येन भाषा वै क्रियते मया ॥ २ ॥ दोहा - जाकी सेवा जडहु नर, लभहिं प्रतिष्ठा जोय ।
२ ॥
अतिप्रयास करि करि विबुध, पायस नहिं सोय ॥ १ ॥ सो प्रसन्नमुख गिरिसुता, जो सब जगकी माय । कारज रामप्रसादके, होवहु सदा सहाय ॥ चरकरचित या ग्रंथकी, भाषा लिखों बनाय | रामप्रसाद प्रसादनी, जो सबके मन भाय ॥ अथातो दीर्घजीवितमध्यायं व्याख्यास्याम इति ह स्माह
३ ॥
भगवानात्रेयः ॥
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भगवान् आत्रेय कहने लगे कि अब हम दीर्घजीवितीय अध्यायका विस्तारपूर्वक कथन करते हैं क्योंकि संसारमें धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष, इन चार पुरुषार्थोंकी प्राप्ति के लिये ही सत्पुरुषोंकी प्रवृत्ति होती है इन सब पुरुषार्थोंके साधनके लिय दीर्घजीवनकी आवश्यकता है वह दीर्घजीवन अरोगिता ( तंदुरुस्ती) रहने पर होसक्ती है अरोगिता रखने के लिये ही आयुर्वेदकी प्रवृत्ति है इसलिये अरोगिताको मुख्य रखते हुए प्रथम दीर्घजीवितीय अध्यायका कथन करतेहैं ॥ १ ॥
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(२)
चरकसंहिता-भा० टी०।
आयुर्वेदावतरणक्रम । दीर्घजीवितमन्विच्छन्भरद्वाजउपागमत् ।
इन्द्रमुग्रतपावुद्धाशरण्यममरेश्वरम् ॥ १॥ पूर्व कालमें वर्तमान समयकी समान किमीवातको जानने के लिये सहस्रां प्राणियों , का प्राण अर्पण करनेकी आवश्यकता नहीं होतीथी । उस समय महात्मा तपस्वी अपने तप और योग वलसे भूत भविष्यत्को जानकर उसका उचित उपाय अपने तपोवलसे जानलेतेथे फिर वह कार्य जिसरीतिसे सिद्ध होनेवाला हो वह प्रयल करलेतेथे । सो वही इसमें लिखा है कि दीर्घजीवनकी इच्छा करते हुए तपोवलशाली महात्मा भरद्वाजजी देवताआके पति इंद्रको इस कार्यकी सिद्धिके योग्य समझकर उनके पास गये ॥ १ ॥
ब्रह्मणाहियथाप्रोक्तमायुर्वेदप्रजापतिः। जग्राहनिखिलेनादावश्विनौतुपुनस्ततः ॥ २ ॥ अश्विभ्यांभगवाञ्छकःप्रतिपेदे हिकेवलम् । ऋषिप्रोक्तोभरद्वाजस्तस्माच्छक्रमुपागमत् ॥ ३॥
क्योंकि पहलेपहल ब्रह्माने संपूर्णरूपसे आयुर्वेद दक्षमजापतिके पास कथन ' कियाथा। फिर प्रजापतिसे अश्विनीकुमाराने क्रमपूर्वक संपूर्ण ग्रहण किया । अश्विनीकुमारासे केवल इंद्रने ही पढा इसलिये ऋषियोंके कहनेसे महर्षि भरद्वाज इंद्रके पास गये ॥ २ ॥३॥
आयुर्वेदका प्रयोजन । विनीभूतायदारोगा प्रादुर्भूताःशरीरिणाम् । उपवासतपःपाठब्रह्मचर्यबतायुपाम् ॥ ४ ॥ तदाभूतेष्वनुक्रोशंपुरस्कृत्य महर्षयः। समेताःपुण्यकाणः पावे हिमवतःशुभे॥५॥
असलम भरद्वाजका इंद्रके पास जाकर आयुर्वेद के जाननेका कारण यह था कि जव मनुष्याके उपवास, तप, पटन, पाटन, ब्रह्मचर्य, व्रत,आयु,इनके नष्ट करनेवाले अथवा यों कहिये कि इनमें विघ्न डालनेवाले रोग प्रगट हुए । तव पुण्यकर्मा महात्मा ऋषि प्राणियोंपर दया करके हिमवान, पर्वतके एक सुंदर पार्श्वम इकटे हुए॥४॥५॥
ऋषियोंका एकत्रित हा विचार करना। गिराजमदग्निश्चवसिष्टाकल्यपो भृगः । आत्रेयोगौतमः सांख्यः पुलस्त्योनारदोऽसितः ॥ ६॥ अगस्त्योवामदेवश्चमा
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सूत्रस्थान-अ० १.
( ३ )
र्कण्डेयाश्वलायनौ । पारीक्षिद्भिक्षुरात्रेयो भरद्वाजः कपिष्ठलः ॥ ७ ॥ विश्वामित्राश्वरथ्यौ चभार्गवश्च्यवनोऽभिजित् । भार्ग्यः शाण्डिल्यकौण्डिन्यौवाक्षिर्देवलग़ालवौ ॥८॥ साकु'त्यो वैजवापिश्चकुशिको बादरायणः । वडिशः शरलोमाचकाप्यकात्यायनावुभौ ॥ ९ ॥ कांकायनः कैकशेषोधौम्योमारीचिका
पौ । शर्कराक्षोहिरण्याक्षो लौगाक्षः पेंगिरेवच ॥ १० ॥ शौनकः शाकुनेयश्च मैत्रेयो मैमतायनिः । वैखानसाबालाखल्यास्तथा चान्ये महर्षयः ॥ ११ ॥
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जो ऋषि हिमालय के एकपार्श्वमें इकट्ठे हुए थे उनके नाम लिखते हैं- अंगिरा, जमदग्नि, वशिष्ठ, काश्यप, भृगु, आत्रेय, गौतम, सांख्य, पुलस्त्य, नारद, अंसित, अगस्त्य, वामदेव, मार्कण्डेय, आश्वलायन, पारीक्षित्, भिक्षु, अत्रि, भरद्वाज, कपि'छल, विश्वामित्र, अश्वरथ्य, भार्गव, च्यवन, अभिजित्, गर्ग, शांडिल्य, कौडिन्य नाक्षि, देवल, गालव, सांकृत्य; वैजवापि, कुशिक, बादरायण, वडिश, शरलोमा, 'काव्य, कात्यायन, कांकायन, कैकशेष, धौम्य, मरीचि, कश्यप शर्कराक्ष, हिरण्याक्ष, • लौगाक्ष पैंगि शौनक, शाकुनेय, मैत्रय, मैमतायनि, वैखानस, वालखिल्य, तथा अन्य महर्षिलोग आनकर इकट्ठे हुए ॥ ६ ॥ ७ ॥ ८ ॥ ९॥१० ॥ ११ ॥ ब्रह्मज्ञानस्यनिधयोदमस्यनियमस्यच । तपसा ते जसादीताहूयमानाइवाग्रयः ॥ १२ ॥ सुखोपविष्टास्ते तत्रपुण्याञ्चक्रुरिमां कथाम् । धर्म्मार्थकाममोक्षाणामारोग्यंमूलमुत्तमम् ॥ १३ ॥ रोगास्तस्यापहर्त्तारः श्रेय सोजीवितस्यच । प्रादुर्भूतोमनुष्याणामन्तरायोंमहानयम् ॥ १४ ॥ ..
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- यह सब महात्मा ब्रह्मके जाननेमें और इंद्रियों के दमन करनेमें तथा नियमों के 'पालने में समुद्र थे, तप और तेज़के प्रभावसे हवन करनेसे प्रज्वलित अग्निके समान
प्रकाशमान होरहे थे । यह सब महात्मा सुखपूर्वक बैठेहुए उस हिमालयके शिख
-स्में यह पवित्र कथा कहने लगे कि धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष इनका उत्तम मूल आरोग्यता ही है अर्थात् आरोग्यता रहनेपर ही धर्मादि चतुर्विधं पुरुषार्थकी प्राप्ति
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(४)
चरकसंहिता-भा० टी०। हांसकती है ! सो रोग (वीमारियां) इस आरोग्यताके हरलेनेवाले हैं । आरोग्यता न रहनेसे जीवन और कल्याण (मुख) भी नष्ट ही होजाताहै । इस लिये. यह मनुष्योंक लिये महान् अन्तराय ( भारी विघ्न ) आन उपस्थित हुआ है ॥ १२॥ १३ ॥ १४ ॥
उपायका निश्चय। कास्यात्तेषांशमोपायइत्युक्त्वाध्यानमास्थिताः । अथतेशरणं शक्रंददृशुर्ध्यानचक्षुषा ॥१५॥ सवक्ष्यतिशमोपाययथावदमरप्रभुः । कःसहस्त्राक्षभवनंगच्छेत्प्रष्टुंशचीपतिम् ॥ १६ ॥ सो अव इन रोगाके शांत करनेका क्या उपाय करना चाहिये इसके जाननेके. लिये सब ऋषियोंने ध्यान लगाया, इसके अनंतर उन ऋषियोंने इस विघ्नसे बचा. नेका यत्न इंद्रके पास जानेसे प्राप्त होगा यह अपनी समाधिमें ध्यान करके नान लिया । फिर नेत्र खोलकर सव आपसमें कहने लगे कि इन रोगोंकी शांतिका ठीक २ उपाय हमको देवताओंके पति इंद्र बतलायेंगे, परन्तु उन शचीपति. इंद्रके भवनमें इस उपायको सीखने कौन जावेगा ॥ १५॥ १६ ॥
अहमथेनियुज्येयमतिप्रथमंवचः।
भरद्वाजोऽववीत्तस्मादृषिभिःसनियोजितः॥१७॥ .इस आन्दोलनको सुनकर भरद्वाजजीने सबसे पहले कहा कि यह काम मुझे सोपाजाय में इस कार्यको करूंगा इसलिये सव ऋषियोंने इनहीको नियुक्त किया कि आप ही जाइये ।। १७ ॥
___ भरद्वाजका इंद्रभवन में जाना । सशकभवनंगत्वासुरपिंगणमध्यगम्। ददर्शवलहन्तारंदीप्य. मानमिवानलम् ॥ १८॥ सोऽभिगम्यजयाशीभिरभिनन्यसुरेश्वरम् । प्रोवाचभगवान्धीमानृपाणांवाक्यमुत्तमम् ॥ १९ ॥ ऋषियाले विदा होकर भरद्वाज इंद्रके स्थानमें ( स्वर्गमें ) पहुंचे वहां जाकर देवर्षिगणांक मध्यम सिंहासनपर प्रदीप्त अनिके समान तेजस्वी इन्द्रको देखा। फिर बुद्धिमान् भगवान् भरद्वाजने इंद्रके पास जाकर आशीर्वादादिसे प्रसन्न कर ऋषियों के उत्तम वाक्यांको कयन किया ॥ १८ ॥ १९॥
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। सूत्रस्थान-अ० १.
(Y __व्याधयोहिसमुत्पन्नाःसर्वप्राणिभयंकराः। तद्ब्राहिमेशमोपाय
यथावदमरप्रभो ॥२०॥ तस्मैप्रोवाचभगवानायुर्वेदंशतक. . तुः । पदैरल्पैमतिबुद्धाविपुलांपरमषये ॥ २१॥ ___कि हे देवेश! पृथ्व में संपूर्ण मनुष्योंको दुःख देनेवाले भयंकर रोग उत्पन्न होग-.. यह कृपा करके उन रोगाके शांतिकारक उपायका कथन कीजिये । यह सुनकर भगवान् इन्द्रने भरद्वाजजीको विपुलबुद्धिशाली जानकर संक्षेपमें ही आयुर्वेद. शास्त्रका उपदेश करदिया ॥ २०॥ २१॥
आयुर्वेदका स्वरूप तथा भरद्वाजका इंद्रसे उसे प्राप्तकरना। हेतुर्लिंगौषधज्ञानंस्वस्थातुरपरायणम्। त्रिसूत्रंशाश्वतं पुण्यंबुवुधेयंपितामहः ॥२२॥ सोऽनन्तपारंत्रिस्कन्धमायुर्वेदमहामतिः। यथावदचिरात्सर्वबुबुधेतन्मनामुनिः ॥ २३॥ तेनायुरमितलेभेभरद्वाजःसुखान्वितः । ऋषिभ्योऽनधिकन्तञ्चशशं
साऽनवशेषयन् ॥२४॥ जिस शास्त्रमें हेतु अर्थात् रोगके उत्पन्न करनेवाला कारण और रोगबोधक चिह्न तथा औषधज्ञान होनेका भलीप्रकार वर्णन है । और आरोग्य (तन्दुरुस्त) तथा रोगियोंको परम उपयोगी है। जिसमें हेतु, लिङ्ग, और औषधज्ञान यह तीन प्रधान, सूत्र हैं ऐसे इस सनातन पवित्र आयुर्वेदशास्त्रको पहले पितामहने जाना अर्थात इसका आविर्भाव पहले ब्रह्माके हृदयमें हुआ।सो इस अनन्तपार आयुर्वेदको "जिसमें निघंटु, निदान,चिकित्सा, अथवा वही हेतु, लिङ्ग, औषधज्ञान, यह तीन स्कंछ अर्थात् कंधे हैं" महामति भरद्वाजजीने चित्त लगाकर थोडे ही कालमें संपूर्णरूपसे जानालया। फिर इस आयुर्वेदके प्रतापसे भरद्वाजजी दीर्घायु और सुखको प्राप्त हुए। और यह शास्त्र क्रमपूर्वक ऋषियोंको पढादिया ॥ २२ ॥ २३ ॥ २४ ॥
___ भरद्वाजसे ऋषियोंका आयुर्वेदका ग्रहण करना। ऋषयश्चभरद्वाजाजगहुस्तंप्रजाहितम्। दीर्घमायुश्चिकोर्षन्तो वेदंवर्धनमायुषः॥२५॥ महर्षयस्तेददृशुर्यथावज्ज्ञानचक्षुषा। सामान्यञ्चविशेषञ्चगुणान्द्रव्याणिकर्मच ॥२६॥समवायंचतज्ज्ञात्वातन्त्रोक्तंविधिमास्थिताः। लोभरेपरमंशसंजीवितंचापिनिर्गदम् ॥ २७॥ . . (१) त्रीणि हेत्वादीनि सून्यते यस्मिन् येन वा तत्रिसूत्रमिति चक्रपाणिः ।
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(६)
चरकसंहिता-भा० टी०। ऋषियोंने भी दीर्घायु होनेकी इच्छा करतेहुए प्रजाके हितके लिये इस आयुव. ईक शास्त्रको भलीभांति ग्रहण किया। फिर इस शास्त्र के ज्ञानरूपी नेत्रद्वारा ऋषि याने सामान्यतासे और आधिकतासे द्रव्योंके गुण व स्वरूप तथा प्रयोग और कर्मको भलीप्रकार जाना । फिर इन सबके सूक्ष्म स्थूल समवायको तथा जिसप्रकार पांच भूतोंसे आरंभ हो शारीरिक व द्रव्योंके सूक्ष्म अशोद्वारा चयापचय कोप शमन होताहै इन सवको जानकर आयुर्वेदोक्त विधिका अनुसरण करतेहुए परमः आनंद और रोगरहित जीवनको प्राप्त किया ॥ २५ ॥ २६ ॥ २७ ॥
पुनर्वसुका छः शिष्योंको आयुर्वेद उपदेश । अथमैत्रीपरःपुण्यमायुर्वेदपुनर्वसुः। शिष्येभ्योदत्तवान्षड्भ्यः सर्वभूतानुकल्पया॥२८॥आग्नवेशश्चभेलश्चजतूकर्णःपराशरः॥ हारीतःक्षारपाणिश्चजगृहुस्तन्मुनेर्वचः ॥ २९ ॥ बुद्धोवशेषस्तत्रासीन्नोपदेशान्तरं मुनेः । तन्त्रप्रणेताप्रथममग्निवेशो यतोऽभवत् ॥३०॥अतोभलादयश्चक्रुःस्वस्वंतन्त्रकृतानिच। श्रावयामासुरानेयसषिसंघसुमेधसः ॥ ३१॥ इसके अनंतर मित्रतापरायण पुनर्वसुजीने संपूर्ण प्राणियोंपर कृपा करके यह पवित्र आयुर्वेद ६ शिष्योंको पढाया और १ अग्निवेश २ भेल ३ जतूकर्ण ४ पराशर
हारीत ६ क्षारपाणी इन छहां शिष्यांने भी मुनिके कहे आयुर्वदको ग्रहण किया। यद्यपि । महर्षि आत्रेय (पुनर्वसु )जीके उपदेशमं कुछ भेद न था वह सवकेलिये एकसाही था परंतु इन छः शिष्यामें आग्निवेश सवमं आधक बुद्धिवाले थे इसलिये प्रथम तंत्र (ग्रंथ) कर्ता अग्निवेश ही हुए फिर भेल आदि पांचोंने भी अपने २ नामसे संहिताएँ बनाकर ऋपियाम विराजमान आत्रेयजीको ( अपने गुरु पुनर्व: सुलो) सुनाई ॥ २८ ॥ २९ ॥ ३० ॥ ३१॥
अमिवेशादि छ. संहिताआम ऋषियोंकी अनुमति । श्रुत्वालत्रणमर्थानामृपयःपुण्यकर्मणाम् । यथावत्सत्रितमितिप्रहृष्टास्तेऽनुमेनिरे ॥ ३२ ॥ सर्वएवाऽस्तुवस्तांश्चसर्वभूतहितपिणः । सर्वभूतेष्वनुक्रोशइत्युच्चेरब्रुवन्समम् ॥ ३३ ॥ तंपुण्यंगुश्रुवुः शब्द दिविदेवर्षयः स्थिताः। सामराःपरमपीणांश्रुत्वामुमुदिरेपरम् ॥ ३४ ॥ अहोसाध्वितिघोपश्चलोकां
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सूत्रस्थान-अ० १: स्त्रीनन्ववादयत् । नभसिस्निग्धगम्भीरोहर्षाद्भुतैरुदीरितः॥ ॥३५॥ शिवोवायुवौसर्वाभाभिरुन्मीलितादिशः ।निपे
तुःसजलाश्चैवदिव्याःकुसुमवृष्टयः ॥ ३६ ॥ - इनकी बनाईहुई संहिताओंको सुनकर संपूर्ण ऋषि प्रसन्न हुए और मनमें कहने लंगे कि बहुत अच्छे प्रकारसे सूत्रांका क्रम रखकर ग्रंथोंको बनायाहै,फिर संपूर्ण सृष्टिके हितैषी वह ऋषि इनकी स्तुति करके कहनेलगे कि आपने सब प्राणियोंपर दया की है आपको धन्य है । ऋषियोंकी कीहुई इस पवित्र आनन्दध्वानको सुनकर स्वर्गके देवता अत्यंत प्रसन्न हुए और बहुत अच्छा हुआ २ यह प्रेमसे कहाहुआ शब्द तीनों लोकोंमें उत्तम गुजार करता हुआ आकाशसे प्रतिशब्द देनेलगा । उस समय कल्याणकारी मंद सुगंध पवित्र वायु चलनेलगा और सब दिशा प्रकाशमय हो शोभा देनेलगी देवलोकसे जलसे भीगे हुए सुगंधित दिव्यपुष्पोंकी वृष्टि होनेलगी ॥ ३२ ॥.३३ ॥ ३४ ॥ ३५ ॥ ३६ ॥
अथाग्निवेशप्रमुखाविविशनिदेवताः। वुद्धिःसिद्धिःस्मृतिमेंधाधृतिःकार्तिःक्षमाया ॥ ३७ ॥ तानिचानुमतान्येषां तन्त्राणिपरमर्षिभिः । भावायभूतसंघानां प्रतिष्ठां भुविलेभिरे ॥ ३८॥
इसके अनंतर इस पुण्य कर्मके फलसे अग्निवेश आदि छहों ग्रंथकर्ताओंके शरीरमें बुद्धि, सिद्धि, स्मृति, मेधा, धृति, कीर्ति, क्षमा, दया यह ज्ञानदेवता प्रविष्ट हुए अर्थात् यह सव उत्तम गुण उनमें निवास करनेलगे । और ऋषियोंस सम्मान पाएहुए इनके ग्रंथ संपूर्ण मनुष्यों के कल्याणकारक होतेहुए पृथिवीमें प्रतिष्ठाको प्राप्त हुए ॥ ३७॥३८॥
आयुर्वेदका लक्षण । . हिताहितसुखदुःखमायुस्तस्यहिताहितम् । - मानञ्चतच्चयत्रोक्तमायुर्वेदःसंउच्यते ॥ ३९॥ ., अब प्रथम आयुर्वेद शब्दकी निरुक्ति कहतेहैं। जिस शास्त्रमें आयुके हित (अच्छी) अवस्था, अहित (खराव) अवस्था, सुखयुक्त अवस्था, दुःखयुक्त अवस्था आय और आयुका हित, अहितं, तथा आयुका परिमाण कथन कियाहुआ हो या यों काहिये जिसके द्वारा यह.सव जानाजाय उसको आयुर्वेद कहते ॥ ३९ ॥
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(८)
चरकसंहिता-भा० टी०।
आयुके नाम । शरीरेन्द्रियसत्त्वात्मसंयोगोधारिजीवितम् ।
नित्यगश्चानुवन्धश्च पर्यायैरायुरुच्यते ॥ ४० ॥' शरीर, इंद्रिये, मन, आत्मा, इनके संयोगको आयु कहते हैं। उसीको धारी, जीवित, नित्यग, और अनुबंध भी कहतेह यह आयुके पर्यायवाचक शब्द हैं ॥४०॥
आयुर्वेदका महत्त्व। तस्यायुषःपुण्यतमोवेदोवेदविदांमतः ।
वक्ष्यतेयन्मनुष्याणांलोकयोरुभयोर्हितः ॥ ४१ ।। वेदके जाननेवालोंने उस आयुके वेदको अर्थात् इसआयुर्वेद (वैद्यक ) शास्त्रको परमोत्तम मानाहै, यह मनुष्योंके लिये इस लोकमें और परलोकमें परमाहतकारी है। सो उसीका यहां वर्णन करतेहैं ॥ ४१॥
वृद्धिदासके कारण व सामान्य और विशेषके लक्षण । सर्वदासर्वभावानांसामान्यंवृद्धिकारणम् । ह्रासहेतुर्विशेषश्चप्रवृत्तिरुभयस्यतु ॥ ४२ ॥ सामान्यमेकत्वकरंविशेषस्तुपृथक्त्वकृत् ।
तुल्यार्थताहिसामान्यविशेषस्तविपर्यायः॥४३॥ द्रव्य गुण काँकी समानता उनकी वृद्धि करनेमें कारण होती है जैसे चिकनें पदार्थके सेवनसे उसीके समान चिकने स्वभाववाली मेदकी वृद्धि होती है । और शोकातुर अवस्थामें शोकयुक्त वात सुननेसे शोकवृद्धि होती है सर्दीके मौसममें उसीके स्वभाववाली शीतल पवन चलनेसे शीतकी वृद्धि होती है। आठ घटॉमें समान गुणवाले दो घट और मिलादेनेसे घटौंकी संख्यामें वृद्धि होती है. वातप्रकृतिवालेको वातकारक समानगुणवाले पदार्थसे वातवृदि होती है । इसी प्रकार द्रव्यादिकांकी असमानता घटानेका कारण है, जैते-मेदसे यसमान गुणवाला सूक्षपदार्य मेदको घटाने (दास) का कारण होता है । शोकातुर चित्तमें आनंददायक वातके आनेसे शोक कम होताहै इस प्रकार द्रव्य गुण काकी समानतासे प्रवृत्तिवृद्धि और असमानतासे प्रतिमासका कारण होती हैं। यहां सामान्यका अर्थ एकत्व करनेवाला जानना । और विशेषका अर्थ अलग २ करनेवाला जानना । तुलमार्थता जैसे मेदम
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सूत्रस्थान-अ०.१.. स्नेह तुल्य अर्थ करता है उसको सामान्य कहते हैं और विपर्यय. अर्थात् उलटे अर्थक करनेवालेको विशेष कहते हैं ॥ ४२ ॥ ४३ ॥
. . . आयुर्वेदका अधिकार। . .. · सत्त्वमात्माशरीरञ्चत्रयमेतस्त्रिदण्डवतालोकस्तिष्ठतिसंयोगा• तत्रसवप्रतिष्ठितम् ॥ ४४ ॥ सपुमांश्चेतनंतचतञ्चाधिकरणं :
स्मृतम् । वेदस्यास्यतदहिवेदोऽयंसम्प्रकाशितः ॥ ४५ ॥ मन शरीर आत्मा इन तीनोंका तीन दंडोंकी समान परस्पर संबंध है इन तीनोंके संबंधको वैद्यक शास्त्रमें पुरुष कहाजाताहै और सम्पूर्ण संसार इन तीनोंके संबंधसे ही है । इस वैद्यक शास्त्रमें इन तीनोंके संबंधरूप पुरुषको ही पुमान, चेतन और आयुर्वेदका अधिकरण मानते हैं । और इस पुरुषके लिये ही इस आयुर्वेदका प्रकाश किया गया है ॥ ४४ ॥ ४५ ॥
विविध द्रव्य । खादीन्यात्मामनःकालोदिशश्चद्रव्यसंग्रहः ।
सेन्द्रियंचेतनद्रव्यंनिरिन्द्रियमचेतनम् ॥ ४६॥ आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी, आत्मा, मन, काल, दिशा इन सबको द्रव्य कहते हैं ! इंद्रियवालोंको चेतन और इंद्रियरहितको अचेतन कहते हैं। मनुष्य पशु पक्षी आदि इंद्रियवालोंको चेतन और वृक्षादि जड पदार्थोंको अचेतन कहते हैं ॥ ४६ ॥
गुण कर्म । सागुर्वादयोबुद्धिः प्रयत्नान्ताःपरादयः ।
गुणाःप्रोक्ताःप्रयत्नादिकमतेविंदमुच्यते ॥४७ ॥ शब्द, स्पर्श, गंध, रस, रूप, ( यह अर्थ अर्थात् इंद्रियोंके विषय कहे जातेहैं) और गुरु, लघु, शीत, उष्ण, स्निग्ध, रूक्ष, मंद, तीक्ष्ण, स्थिर, सर, मृदु, कठिन, विशद, पिच्छल, खर, मसूण, स्थूल, सूक्ष्म, सांद्र, द्रव यह बीस द्रव्यके गुण है। बुद्धि, इच्छा, द्वेष, सुख, दुःख, प्रयल, पर, अपर, युक्ति, संख्या, संयोग, मिभाग, पृथक्त्व, परिमाण, संस्कार, अभ्यास यह सब गुण कहाते हैं और प्रयल चेष्टा आदि कर्म कहे जाते हैं ॥ ४७ ॥
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(१०)
चरकसंहिता-भा० टी०।
समवाय। समवायोऽपृथग्भावोद्रव्यादीनांगुणैर्मतः ।
सनित्यायत्रहिद्रव्यंनतत्रानियतागुणाः॥४८॥ द्रव्य और उनके गुण आपसमें अलग नहीं होते द्रव्य और गुणका नित्य संबंध है उस नित्य संबंधको समवाय संबंध कहते हैं जहां द्रव्य रहते हैं उनमें गुणभी नियत रहते हैं ॥४८॥
समवायिकारण। यत्राश्रिताःकर्मगुणाःकारणंसमवायियत् ।
तद्र्व्यंसमवायी तु निश्चेष्टःकारणंगुणः ॥ ४९ ॥ जिसमें गुण कर्म मिलेहुए रहते हों और जो गुण कर्मका समवाय हो उसको द्रव्य कहते हैं। जो द्रव्यम समवाय और व्यापार रहित हुआ कारण हो उसको गुण कहते हैं. ॥ ४९ ॥
- कर्मलक्षण । संयोगेचवियोगेचकारणद्रव्यमाश्रितम् ।
कर्तव्यस्यक्रियाकर्मकर्मनान्यदपेक्षते ॥ ५०॥ जो द्रव्यके संयोग और वियोगमे कारण हैं और द्रव्यके आश्रय है उनको कर्म कहते हैं कर्तव्यकी जो क्रिया है उसीको कर्म कहते हैं इसके सिवाय कर्म किसी
औरका नाम नहीं। तात्पर्य यह है, जो करते समय उस कर्तव्यकी अपेक्षासे क्रिया आरम्भ कीजाती है उसको कर्म कहते हैं ॥ ५० ॥
वैद्यकका प्रयोजन । इत्युक्तंकारणकार्यधातुसाम्यमिहोच्यते ।
धातुसाम्यक्रियाचोक्तातन्त्रस्यास्यप्रयोजनम् ॥ ५॥ इस प्रकार यहां पर सामान्यतास कार्य कारणका कथन करदिया अब रसरक्त आदि धातुओंकी सास्यावस्था और उनका साम्यावस्थाम रखनेका क्रम कहा जायगा क्योंकि इस शास्त्रका प्रयोजन ही धातुओंकी साम्यता ( आरोग्यता) का है ॥५१॥
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: सूत्रस्थान-अ० १.
(११) व्याधियोंके हेतु और आश्रय । कालबुद्धीन्द्रियार्थानांयोगोमिथ्यानचातिच । द्वयाश्रयाणांव्याधीनांत्रिविधाहेतुसंग्रहः॥ ५२ ॥
शरीरसत्त्वसंज्ञचव्याधीनामाश्रयोमतः। · तथासुखानांयोगस्तुसुखानाकारणशमः ॥ ५३ ॥ ___ काल, बुद्धि, इंद्रिय, विषय इनका मिथ्या योग अयोग और आतियोग यह तीन प्रकारका व्यापार होना ही शारीरिक तथा मानसिक व्याधियांका कारण है। शरीर और मन यह दोनों ही रोगोंके अधिष्ठान हैं अर्थात् रोग शरीरमें और मनमें ही होतेहैं। और काल, बुद्धि, इंद्रियोंके विषय, इनका उचित योग रहनेसे रोग न होकर सुख प्राप्त होताहै ॥ ५२ ॥ ५३ ॥
आत्माका लक्षण। निर्विकारःपरस्त्वात्मासत्त्वभूतगुणेन्द्रियैः ।
चेतनेकारणनित्योद्रष्टापश्यतिहिक्रियाः ॥ ५४॥ आत्मा निर्विकार है, पर है, और मन, भूतगण और इंद्रियें इनके चैतन्यमें कारण है, नित्य है, द्रष्टा है, सव क्रियाओंको देखताहै ॥ १४ ॥
रोगोंके कारण। . वायुःपित्तंकफश्चोक्तःशारीरोदोषसंग्रहः ।
मानसःपुनरुद्दिष्टोरजश्वतमएवच ॥ ५५॥ वात, पित्त, कफ, यह तीन शारीरिक दोष हैं । रजोगुण और तमोगुण मानसिक दोष हैं । अर्थात् वात, पित्त, कफ यह बिगडकर शरीरमें रोग करतेहैं और रज,तम मनमें रोग करनेवाले हैं ॥५५॥
दोषोंका प्रशमन । प्रशाम्यत्यौषधैःपूर्वोद्रव्ययुक्तिव्यपाश्रयैः ।
मानसोज्ञानविज्ञानधैर्यस्मृतिसमाधिभिः ॥ ५६ ॥ शारीरिक रोग द्रव्योंकी युक्तियोंसे सम्बन्ध रखनेवाले औषधों द्वारा शांत होतेहैं: और मानसिक रोग ज्ञान, विज्ञान, धैर्य, स्मृति, समाधि आदिसे शांत होतेहैं ५६॥
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चरकसंहिता-भा० टी०।
वायुके गुण और शमनका उपाय। रुक्षःशीतोलघुःसक्ष्मश्चलोऽथविषदःखरः।।
विपरीतगुणैव्यैारुतःसंप्रशाम्यति ॥ ५७ ।। तीनों दोषीम प्रथम वायुका स्वभाव लिखते हैं। वायु रूक्ष, शीतल, लघु, सूक्ष्म, चंचल, विशद, खर होताहै । इसके विपरीत स्निग्ध, उष्ण, आदि गुणांवाले द्रव्यांसे शांतिको प्राप्त होताहै ॥ ५७ ॥
पित्तके गुण और शमनोपाय । सस्नेहसुष्णंतीक्ष्णंचद्रवमम्लंसरंकटु ।
विपरीतगुणैःपित्तंद्रव्यैराशुप्रशाम्यति ॥५८॥ पित्त-नेहयुक्त, उष्ण, तीक्ष्ण, पतला, खट्टा, सारक और कटुस्वभाववाला है । अपनेसे विपरीत रूक्ष, शीतादिगुणवाले द्रव्योंसे शांत होताहै ।। ५८॥
कफै गुण और शमनका उपाय । गुरुशीतमृदुस्निग्धमधुरस्थिरपिच्छिलाः ।
श्लेष्मणः प्रशमंयान्तिविपरीतगुणैर्गुणाः ॥ ५९॥ कफ-भारी, शीतल, मृदु, चिकना, मधुर, स्थिर, पिच्छिलस्वभाववाला है और । अपनेसे विपरीत हलके, उष्ण, चरपरे, रूक्ष गुणोंवाले द्रव्योंसे शांत होताहै ॥५९॥
चिकित्साका साधारण निर्देश । विपरीतगुणैर्देशमात्राकालोपपादितः।। भेपविनिवर्तन्तेविकाराःसाधुसंमताः ॥ ६ ॥ साधनंनत्वसाध्यानांव्याधीनामुपदिश्यते ।
भूयश्चातोयथाद्रव्यंगुणकर्मप्रवक्ष्यते ॥ ६१॥ । कारण और कारणसे उत्पन्नहुई व्याधिसे विपरीत गुणवाले द्रव्योंको देश,काल श्री मात्रा विचारकर उपयोग करनेसे साध्य व्याधियांकी शांति होतीहै । परन्तु जो संपूर्ण लक्षणांसे असाध्य रोग है उनकी शांति नहीं होती । फिर भी द्रव्याम गुण तया कर्मको कथन करतह ॥ ६० ॥ ६१ ॥
रसस्वरूपनिदर्शन। रसनार्थीरसस्तस्यद्रव्यमापः क्षितिस्तथा। निवृत्तीचविशेपेचप्रत्ययाः खादयस्त्रयः ॥ ६२॥
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सूत्रस्थान-अ. १, रसका स्वाद जीभद्वारा होताहै क्योंकि रस, रसना (जीभ ) इंद्रियका विषय है। उस रसका कारण पृथ्वी और जल ही मानेगयेहैं। वैसे तो उस रसमें कमी और अधिकता पहुंचानेमें आकाश, अग्नि, वायु,इन तीनोंको भी कारण मानाहै ॥६२१७.
रसोंकी संख्या और नाम । ' स्वादुरम्लोऽथलवणोकटुकस्तिक्त एवचः ॥
- कषायश्चेतिषट्रकोऽयंरसानांसंग्रहःस्मृतः॥ ६३॥ मीठा, खट्टा, नमकीन, चर्परा, कड्डुवा, कषेला, यह छः रस हैं ॥ ६३ ॥
रसोंका कार्य । स्वाद्वम्ललवणावायुंकपायवादुतितकाः। - जयन्तिपित्तंश्लेष्माणकवायकटुतित्तकाः । ६४ इनमें मीठा, खट्टा, नमकीन, यह तीन रस वायुको शांत करते कषैला: मोठा, कडुवा, यह तीन रस पित्तको शांत करतेहै । कला, अपरा. कडुवा, यह तीन कफको शांत करतेहैं ॥ ६४ ॥
द्रव्यके तीन प्रकार । किञ्चिद्दोषप्रशमनंकिञ्चिद्धातुप्रदूषणम् । · स्वस्थवृत्तौहितंकिञ्चिद्व्यत्रिविधमुच्यते ।। ६५ कोई द्रव्य दोषोंको शमन करनेवाला होता है कोई हम ऐसे हैं जो रस रक्त. आदि धातुओंको दूषित करतेहैं । कोई ऐसे हैं जो स्वस्थ अवस्थाकी रक्षा रखतेहैं । इसप्रकार द्रव्य तीन प्रकारके होते हैं ॥ ६५ . .
जङ्गमादिभेदसे फिर ग्रीनप्रहार ! तत्पुनस्त्रिविधंज्ञेयंजाडसन्निदपार्थिवम।। ६६॥ फिर वह द्रव्य जंगम, औद्भिद, पार्शिव, इन भेदोंसे तीन प्रकारके हैं ।। ६६.
जाङ्गारवर्ण ! मधूनिगोरसाःपित्तंवसामजामासिवम् । निष्सूनचर्मरेतो. स्थिस्नायुरॉखरानखाः । नन्नेभ्यःयुज्यन्तेकेशालोमानि रोचनाः ॥१७॥ उनमें-शहद, ध, पित्त चरबी, मज्जा, रक्त,मांस,गल,मून, चर्म,कर्य, हड्डियां स्नायु, सींग, नख, खुर, केश, लोम,रोक्न यह द्रव्य नगमों (फिरने तुरनेवालों) से लिएजातेहैं ॥ ६७॥ ..
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चरकसंहिता - भा० टी० ।
पार्थिवद्रव्यवर्णन | सुवर्णसमलाः पञ्चलोहाःससिकता सुधा । मनःशिलालेमणयो लव गंगेरिकाञ्चने॥६८॥भौममौषधमुद्दिष्ट मौद्भिदन्तु चतुर्विधम् ! सोना, चांदी, वा, शोशा, रांगा, लोहा और इनके मल, सिकता; ( वाढू ) चूना, मनसिल, हरिताल, हीरा आदि मणि, लवण, अंजन, गेरू, यह सब पार्थिव द्रव्य को है ॥ ६८ ॥
( १४ )
औद्भिद्रव्यवर्णन |
वनस्पतिविरुधश्च वानस्पत्यस्तर्थोपधिः ॥ ६९ ॥ फलैर्वनस्पतिः पुष्पैर्वानस्पत्यः फलैरपि । ओषध्यः फलपाकान्ताः प्रतानैवीं
रुधः स्मृताः ॥ ७० ॥
आदि द्रव्य ४ प्रकारके हैं जैसे- वनस्पति, वीरुध वानस्पत्य, ओषधी इनमें जिनमें केवल फल ही लगे उनको वनस्पति कहते हैं जिनमें फूल फल दोनों लगें उनको वानस्पत्य कहते हैं । जो फल पकने पर सूरजादें उनको औषधी कहते हैं । जो फैलती हैं उनको वीरुध (वेल ) कहते हैं ॥ ६९ ॥ ७० ॥
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मूलत्वक्सारनिर्यासनाडस्वरसपल्लवाः । क्षाराः क्षीरंफलंपुष्पं भस्मतैलानिकण्टकाः ॥ ७१ ॥ पत्राणिशुङ्गाः कन्दाश्चप्ररोहाश्रद्भिदगणः । मूलिन्यः पोडशैकोनाः न्योविपेरी
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तकाः ॥ ७२ ॥
जड, त्वचा. सार. गोंद, नाडी, रस, कॉपल, खार, दूध, फल, पुष्प, भस्म; तेल, कांटे, त्र, शुंग, कंद, अंकुर, यह सब औद्धिद्रव्यों के ग्रहण किये जाते हैं । इनमें सोलह २६ प्रकारकी औषधियांकी जड ही लीजाती हैं । उन्नीस प्रकारकी फल प्रधान मानोजाती हैं। बाकी सबके फल फूल मूल त्वक् रस आदि उपयोगमें आते हैं ॥ ७१ ॥ ७२ ॥
स्नेहादिद्रव्यवर्णन | महास्नेहाश्चचत्वारःपंचवलंत्रणानिचाअष्टौमूत्राणिसंख्यातान्यष्टादेवपयांसिच ॥ ७३ ॥ शोधनार्थाश्चपवृक्षाः पुनर्वसुनि - दर्शिताः । यएतान्वेत्तिसंयोक्तुंविकारेपुसवेदवित् ॥ ७४ ॥
-: इयपिपाठ: ।
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. सूत्रस्थान-अ०.१ चार महास्नेह, पांच लवण, · आठ. मूत्र और आठ प्रकारको ही दूध कहे हैं। और वमन विरेचन आदि संशोधन कार्यके लियेः पुनर सुजीले ई. प्रकारके वृक्ष कहे हैं जो इन सबका विकारों में, विधिवत् उपयोग करना अनिताहै वह आयुर्वेदका जाननेवाला मानाजाताहै ॥ ७३ ॥ ७४ ॥
मूलपधान द्रव्य। .. हस्तिदन्तीहैमवतीश्यामात्रिवृदधोगुडा। सप्तलातामा . प्रत्यक्त्रेणीगवाक्ष्यपि ॥ ७५ ॥ ज्योतिष्मतीचदिबीजाण
पुष्पीविषाणिका । अजगन्धाद्रवन्तीचक्षीरिणीचानबोडशी ॥ ७६ ॥ शणपुष्पीचबिम्बीचछर्दनेहैमवत्यपि । श्वेताज्यों
तिष्मतीचैवयोज्याशीविरेचने ॥ ७७. ॥ एकादशाबारी. . ष्टायाःप्रयोज्यास्ताविरेचने । इत्युक्तानामकरी यांलालिमा • फलिनीशृणु ॥७,
अब क्रमसे ऊपर कहेहुए द्रव्योंका वर्णन करते हैं।नागदंती,वच,काली निशोर लाल निशोथ, विधायरा, सातला, सफेद अपराजिता वा उमेद वच, दंती इंद्रायण, मालकांगुनी, कंदूरी, शणपुष्पी, घंटारखा (छनछुना), विकाका (मैजीसंगी या
आवर्तकी), अजगंध वंती छोटीदती),दूधली यह १६ द्रव्य मूलप्रधान है अर्याल जहां इनका कोई और कहाहो तो मूल ही लेना चाहिये क्योंकि गूलमें ही अधिक गुण है इनमें शणपुष्पा, दूरी, वच, यह तीनों वमन करनेके काम लीजाती हैं । श्वेता और मालकांगुनी शिरोविरेचनमें प्रयुक्त की जाती हैं। और वाकी एकादश औषधियां विरेचन कराने में काम आती हैं। यह तो सूलप्रधान कहीं अव फलप्रधानोंको सुनो ॥ ७९ ॥ ७६ ॥ ७७ ।। ७८॥ . . . . . . फलप्रधान द्रव्यं ।
। शंखिन्यथविडङ्गानित्रपुषंमदनानिच । आनू . स्थलजमली-- तकंद्विविधस्मृतम् ॥ ७९ ॥ प्रकीआँचोदकी-प्रत्यक्षु पीतथाभया । अन्तःकोटरपुष्पीचहस्तिपर्शाश्वशारदम् ।। ॥८० ॥ कम्पिल्लकारखधयोः फलंयत्कुटजस्ताव । धामापचमथेक्ष्वाकुजीमूतंकृतवेधनम् ॥ ८१ ॥ मदनकुटजैश्चैवा
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(१६)
चरकसंहिता-भा० टी०। हस्तिपार्णनी। एतानिवमनेचैवयोज्यान्यास्थापनेषु च।।८।। दशयान्यवशिष्टानितान्युक्तानिविरेचने । नामकर्मभिरुक्तानिफलान्येकोनविंशतिः॥ ८३॥
शंखपुष्पी, वायविंडग, त्रपुष (खीरा), मैनफल, अनूपज और जलज: मुलहठी, धामार्गव ( अपामार्ग या कटुतुम्बी), इक्ष्वाकु (कडुई तोरई ),जीमूत और कृतवेधन (यह दोनों भी तोरईके भेद है), कंजा, लताकरंज, चिरचिटा, हरड, अंत:कोटरपुष्पी ), नीलिनी ( हस्तिपीके फल (मोरट या लाल एरंडका फल ), कमीला,
मलतास,और इंद्रजौ यह उन्नीस फलप्रधान हैं। इनमें से कड्डुई तोरई,कडुई घीया, कई तुवी,कृतवेधन (यह भी तोरईका ही भेद है), मैनफल, इंद्रजौ, खीरा, हस्तिपर्णी,यह नव द्रव्य वमन और आस्थापनमें काम आते हैं।प्रत्यकपुष्पी (चिरचिरा) नस्य और वमनमें प्रयुक्त कीजाती है। वाकी दश फलप्रधान द्रव्य विरेचनमें प्रयुक्त किये जाते हैं । इस प्रकार फलप्रधान १९ औषधियोंके नाम और कर्मको कथन किया है ।। ७९ ॥ ८० ॥ ८१ ॥ ८२ ॥ ८३ ॥
चारप्रकारके स्नेह । . सपिस्तैलंवसामज्जालेहोदृष्टश्चतुर्विधः । पानाभ्यञ्जनवस्त्यर्थ
नस्वार्थचैवयोगतः ॥८४ ॥ स्नेहनाजीवनावल्यावर्णोपचयव.. र्धनाः । स्नेहाह्येतेषुविहितावातपित्तकफापहाः॥ ८५॥ घी, तेल, चरवी,मजा, यह चार प्रकारके स्नेह देखनमें आतेहैं।यह प्रायःपीनेमें, मालिश करनेम, वस्तिकर्ममें, और नस्यमें प्रयुक्त कियेजाते हैं। यह चतुर्विध स्नेह,. स्नेहन, जीवन, वर्णकारक और वलवर्धक है तथा वात,पित्त,कफ इन तीनों दोषोंको दूर करते हैं ॥ ८४ ॥ ८५ ॥
लवणपञ्चक। सोवर्चलंसैन्धवञ्चविडमोद्भिदमेवच । सामुद्रेणसहैतानिपञ्च स्युलवणानिच ॥ ८६ ॥ स्निग्धान्युप्णानितीक्ष्णानिदीपनीयतमानिच । आलेपनार्थयुज्यन्तेस्नेहस्वेदविधौतथा ॥ ८७॥ अधोभागोईभागानरूहेप्वनुवासने । अभ्यञ्जनेभोजनायें शिरसश्चविरेचने ॥८॥ शस्त्रकर्मणिवस्त्यर्थमननोच्छादनेपुच । अजीर्णानाहयोतिगुल्मेशलेतथोदरे ॥ ८९ ॥
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सूत्रस्थान-अ० १.
(१७) . संचर, सेंधा, विड, उद्भिद् (खारी), सामुद्र यह पांच प्रकारके नमक होते हैं, यह चिकने, गर्म, तक्षिण, अत्यंत क्षुधावर्द्धक होते हैं और लेप, स्नेह, स्वेद आदि
कर्ममें शरीरके नीचेऊपरके भागोंमें प्रयुक्त किये जाते हैं तथा निरूहण, अनुवा. सनं, अभ्यंग, भोजन, शिरोविरेचन, शस्त्रकर्म, वी, अमन, उत्सादन, अजीर्ण,
अफरा, बादी, गोला, शूल, और उदररोग इनमें इनका प्रयोग किया जाताहै ॥ ८९॥
मूत्राष्टक तथा उपयोग। उक्तानिलवणान्यर्द्धमूत्राण्यष्टौनिबोधमे।मुख्यानियानिह्यष्टानिसर्वाण्यात्रेयशासने॥ ९० ॥ ऊपर सब लवणोंका कथन करचुके हैं अब आठ प्रकारके सूत्रोंका वर्णन सुनो, जो आठ प्रकारके प्रधान है ॥ ९०॥
अविमत्रमजामत्रंगोमत्रंमाहिषंतथा । हस्तिमत्रमथोष्टस्यहयस्यचखरस्यच ॥ ९१ ॥ उष्णन्तीक्ष्णमथोस्निग्धंकटुकंलवगान्वितम् । मूत्रमुत्सादनयुक्तं युक्तमालेपनेषुच ॥ ९२ ॥ युक्तमास्थापनेयुक्तंमूत्रश्चापिविरेचने । स्वेदेष्वपिचतयुक्तंमानाहेषुगदेषुच ॥१३॥ उदरेष्वथचास्सुिगुल्मकुष्ठकिलासिषु । तद्युक्तमुपनाहेषुपरिषकेतथैवच॥ ९४ ॥ दीपनीयंविषघ्नंचक्रिमिन्नंचोपदिश्यतेोपांडुरोगोपसृष्टानामुत्तमंशर्मचोच्यते ॥१५॥ श्लेष्माणशमयेत्पीतमारुतश्चानुलोमयेताकर्षेत्पित्तमधोभागमित्यस्मिन्गुणसंग्रहः ॥ ९६ ॥सामान्येनमयोक्तंतुपृथक्वेन प्रवक्ष्यते ॥९७॥ भेडका मूत्र,बकरीका मूत्र,गोमूत्र, भैसका मूत्र, हथिनीका मूत्र,ऊंटनीका मूत्र, घोडेका मूत्र, गधेका मूत्र यह आठ मूत्र हैं । यह-गर्म, तीक्ष्ण, चिकने, कटु
और नमकीन है । इन मूत्रोंका उत्सादन, लेप, आस्थापन, विरेचन, स्वेदन, अफारा, उदररोग, अर्श, गुल्म, कुष्ठ, किलास, उपनाह ( पुलटिस ), परिषेक इनमें प्रयोग किया जाताहै । तथा आग्नेको दीपन करताहै और विष तथा कृमियोंको नष्ट करताहै। इन मूत्रोंका प्रयोग सब किसमके पाण्डुरोगोंमें परम उत्तम मानाहै । इनके पोनेसे कफ शान्त होताहै । वायुका अनुलोमन होताहै और बढा हुआ पित्त नीचे
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(१८)
चरकसंहिता-भा० टी०। गमन कर निकल जाताहै । यह सामान्यतासे मूत्रोंके लक्षण कथन किये हैं। अव . विशेषतासे श्रवण करो ॥ ९१-९७॥
मेषादिमूत्रके गुण । अविमूत्रसतिक्तस्यात् स्निग्धंपित्ताविरोधिच॥आजकषायमधुरं पथ्यंदोपान्निहन्तिच । गव्यसमधुरंकिञ्चिद्दोषतंक्रिमिकुष्ठनुत् ॥ ९८ ॥ कण्डूलंशमयेत्पीतंसम्यग्दोषोदरोहतम्।अर्शःशोफोदरनन्तुसक्षारंमाहिसरम् ॥ १९ ॥ हस्तिकंलवणंमूत्रं हितन्तुक्रिमिकुष्टिनाम्।प्रशस्तबद्धविण्मूत्रविषश्लेष्मामयाशसाम् ॥ १०० ॥ सतिक्तंश्वासकासनमझेनचौष्ट्रमुच्यते । वाजिनांतिक्तकटुकंकुष्ठव्रणाविषपाहम् ॥१०१॥ खरमत्रमपस्मारोन्मादग्रहविनाशनम् । इतीहोक्तानिमूत्राणियथासाम
र्ययोगतः ॥ १०२॥ भेडका मूत्र कडुआ, चिकना, गर्म तथा पित्तको कुपित नहीं करनेवाला होता है । वकरीका मूत्र-कषैला, मीठा, पथ्य और त्रिदोषनाशक है । गोमूत्र कषैला, मीठा, कुछ कुछ दोपाको नष्ट करनेवाला, कृमि तथा कुष्ठको नष्ट कर्ता, खाजनाशक, और पीयाहुआ उदरके सव विकारोंको शांत करताहै । भैसका मूत्र-अर्श, शोथ और उदररोगांको नष्ट करताहै तथा खारा और दस्तावर है। हस्तीका मूत्रनमकीन है और कृमि, कुष्ठ और मल मूत्रके अवरोधको नष्ट करताहै, तथा विषविकार, कफ और अर्शवालोंको हित है। उंटका मृत्र-कटुतायुक्त, श्वासकासनाशक, और अर्शजित् है । पोडेका मूत्र-कडवा है, चर्परा है, और कुष्ट, घाव,विष, इनको नष्ट करताहै । गधेका मूत्र-मिरगी, उन्माद, ग्रहदोष इनको नष्ट करता है। इस प्रकार क्रमपूर्वक मूत्रोंके गुण कथन करदिये हैं ॥ ९८-१०२ ॥
भेडी वकरी गाय आदिके दूधोंका वर्णन । अतःक्षीराणिवक्ष्यन्तेकर्मचेपांगुणाश्चये । अविक्षीरमजाक्षीरं गोक्षीरंमाहिपंचयत् ॥ १०३ ॥ उष्ट्रीणामथनागीनांवडवायाः स्त्रियास्तथा।प्रायशोमधुरास्निग्धशास्तन्यपयःस्मृतम् ॥१०॥
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सूत्रस्थान - अं० १.
( १९ )
प्रीणनंबृंहणंवृष्यं मेध्यंबल्यंमनस्करम् । जीवनीयंश्रमहरंश्वासकासनिबर्हणम् ॥ १०५ ॥ हन्तिशोणितपित्तञ्च सन्धानंविहतस्यच । सर्वप्राणभृतांसात्म्यंशमनंशोधनं तथा ॥ १०६ ॥ तृष्णानंदीपनीयं चश्रेष्टक्षीणक्षतेषुच । पाण्डुरोगेऽम्लपित्तेचशोगुल्मेतथोदरे॥ १०७॥अतीसारज्वरेदाहेश्वयथैौचविधीयते ॥ योनिशुक्र प्रदोषेषुमूत्रेष्वप्रसरेषुच ॥ १०८ ॥ पुरीषेग्रथितेपथ्यं वातपित्तविकारिणाम् । नस्याले पावगाहेषुवम नास्थापनेषुच ॥ ॥ १०९ ॥ विरेचनेस्नेह ने चपयः सर्वत्रयुज्यते । यथाक्रमंक्षीरगुणानेकैकस्य पृथक्पृथक् ॥ ११० ॥ अन्नपानादिकेऽध्याये भूयो वक्ष्याम्यशेषतः ॥ १११ ॥
अव दूधोंका और उनके गुण कर्म का कथन करते हैं । भेड, बकरी, गौ, भैंस, ऊँटनी, हथंनी, घोडी, स्त्री इन आठोंके दूध-मीठे, चिकने, शीतल, स्तनोंमें दूध चढानेवाले, पालनकर्त्ता, मांसवर्द्धक, वीर्यजनक, बुद्धि, बल, मनको ताकत देनेवाले, जीवनकर्ता, श्रमहर्ता श्वासकासनाशक, रक्तपित्तके हरनेवाले, संधानकर्ता ( टूटे स्थानको जोडनेवाले), संपूर्ण प्राणियोंको सात्म्य, दोषोंको शमन और शोधन करनेवाले, तृषानाशक, दीपनीय हैं और क्षतक्षीणमें अत्यंन्त पथ्य हैं तथा पाण्डुरोग, अम्लपित्त, शोष, गुल्म, उदररोग, अतिसार, ज्वर, दाह, सूजन, योनि-. दोष, शुक्रदोष, मूत्ररोग, मलकी गांठसी बंधना, इनमें पथ्य हैं और वात पित्तके रोगियोंको हितकर्ता हैं, इनका प्रयोग- नस्य, लेप, अवगाहन, वूमन, आस्थापन, विरेचन, स्नेहन इन कर्मोंमें किया जाता है । इस प्रकार सामान्यतासे दूधोंके गुणोंका वर्णन कर दिया है । आगे अन्नपानादिवर्णनाध्यायमें सबके गुणों का अलग २ वर्णन किया जायगा ॥ १०३ - १११ ॥
ar और थूहर के दूध के गुण ।
अथापरेत्रयो वृक्षाः पृथग्ये फलमूलिभिः । स्नुह्यर्काश्मन्तकास्तेपामिदंकर्म्म पृथक्पृथक् ॥ वमनेऽश्मन्तकविद्यात्स्नुहीक्षीरं विरेचने ॥ ११२ ॥
अब फलप्रधान व मूलप्रधान वृक्षसे अन्य तीन वृक्षोंका वर्णन करते हैं। वह यह है - १ थोहर, २ आक, ३ अश्मंतक ( कोविदार ) इनमें अश्मंतक वमन करानेमें, थोहरका दूध रेचन कराने में ॥ ११२ ॥
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२०)
चरकसंहिता-भा० टी० ॥
अर्कक्षीरके गुण । क्षीरमर्कस्यविज्ञेयंवमनेसविरेचने ॥११३ ॥ आकका दूध, विरेचन, और वमनमें प्रयुक्त किया जाताहै ॥ ११३ ॥
त्वचाप्रधान ३ वृक्ष । इमांस्त्रीनपरान्वृक्षानाहुर्येषांहितास्त्वचः। पूतिकः कृष्णगन्धाचतिल्लकश्चतथातसः । विरेचनेप्रयोक्तव्यःपूतिकस्तिल्लकस्तथा ॥ ११४ ॥ कृष्णगन्धापरीसपेंशोथेष्वस्सुिचोच्यते । दविद्रधिगण्डेषुकुष्ठेष्वप्यलजीषुच॥११५ ॥ षड्वृक्षाशोधनानेतानपिविद्याद्विचक्षणः ॥ ११६ ॥ जिनकी त्वचा प्रयुक्त कीजाती है इन तीन वृक्षोंका और कथन कियाहै । वह यह है-१ पूतिकरंज, २ सुहाँजना, ३ पठानीलोध । इनमें पूतिकरन और लोध विरेचन कर्ममें प्रयुक्त करने चाहिये । और सुहाँजना-विसर्प, शोथ और अर्श रोगाम प्रयुक्त किया जाताहै । बुद्धिमान् वैद्यको उचित है कि थोहर, आँक, अश्मंतक, पूतिकरंज, सुहांजना, लोध, इन छः वृक्षोंको दगु, विद्रधि, गलगंड, कुष्ठ, अलजी, (अजीर्णरोगका भेद और पादरोग) और संशोधन कर्ममें प्रयुक्त करे ।। ११४-११६ ॥
इत्युक्ताःफलमूलिन्यः स्नेहाश्चलवणानिच ।
सूत्रंक्षाराणिवृक्षाश्चपड्यदृष्टाःपयस्त्वचः ॥ ११७॥ इस प्रकार १९ फलप्रधान द्रव्य, १६ मुलप्रधान, ४ स्नेह, ५ लवण, ८ मूत्र. ८ दृध और जिनके दूध में त्वचाका वर्णन कियाहै वह ६ वृक्ष इन सवका वर्णन किया जा चुका है ॥ १२७ ॥
गडरिये आदियोंसे औषधिका ज्ञान । ओपधीर्नामरूपाभ्यांजानतेाजपावने । __अविपाश्चैवगोपाश्चयेचान्येवनवासिनः ॥११८ ॥ अब आपधियोंके जाननेकी विधि लिखते हैं कि बकरी, भेड और गोआकं चगनेवाला और उनमें रहने और विचरनेवालासे वनापधियांक नाम आरहा जानना चाहिये ।। ११८ ॥
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सूत्रस्थान - अ० १.
औषधियों के ज्ञानकी कठिनता ।
ननामज्ञानमात्रेणरूपज्ञानेनवापुनः । औषधीनांपर प्राप्तिकाश्चेद्वेदितुमर्हति ॥ ११९ ॥
€२१)
क्योंकि कोई भी मनुष्य संपूर्ण औषधियोंके नाम और रूपोंको नहीं जानसकता कोई २ पुरुष ऐसे होंगे जो वहुतसी औषधियोंको जानते हैं परन्तु उनमें उसीको ओषधियोंके तत्त्वका जाननेवाला कहना चाहिये जो उनके नाम रूप और प्रयोग करने की विधि जानता हो ॥ ११९ ॥
औषधी जाननेवालेकी प्रशंसा |
योगज्ञस्तस्यरूपज्ञस्तासांतत्त्वविदुच्यते ।
किंपुनर्यो विजानीयादोषधीः सर्वदाभिषक् ॥ १२० ॥ रूपन्तासान्तुयोविद्याद्देशकालोपपादितम् । पुरुषपुरुषंवीक्ष्य सविज्ञेयोभिषक्तमः ॥ १२१ ॥
जो वैद्य औषधियोंका नाम रूप प्रयोग और किस किस कालमें कौन २ औषधि कैसे २ संपादन कर उसका कैसे २ प्रयोग करना यह विधि जानता है उसका तो कहना ही क्या है अर्थात् उसको धन्य है । हरेक मनुष्यको देख देख कर शास्त्रविधिसे जो उसके अनुकूल हो वह औषध देना चाहिये ॥ १२० ॥ १२१ ॥
औषध विज्ञान सम्वन्धी वैद्यको उपदेश | यथाविषयथाशस्त्रंयथाग्निरशनिर्यथा । तथैौषधमविज्ञातंविज्ञातममृतंयथा ॥ १२२ ॥ औषधानभिज्ञातं नामरूपगुणैस्त्रिभि: । विज्ञातंवापि दुर्युक्तं युक्तिवा ह्येन भेषजम् | योगादपिविषं तीक्ष्णमुत्तमं भेषजं भवेत् ॥ १२३ ॥ भेषजवापिदुर्युक्तीक्ष्णं सम्पद्यतेविषम् । तस्मान्नभिषजायुक्तं युक्तिबाह्येनभेषजम् ॥ ॥ १२४ ॥धीमताकिञ्चिदादेयं जीवितारोग्यकांक्षिणा ॥ कुर्य्यान्निपतितो मूर्ध्निसशेषंवासवाशनिः ॥ १२५ ॥
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(२२)
चरकसंहिता-भा० टी०। क्योंकि विना जानी औषधका प्रयोग कियाहुआ जैसे विष, शस्त्र, आग्ने, विद्युत मनुष्यको मारडालते हैं ऐसे अनर्थकारक होता है । विचारकर जानीहुई
औषधी अमृतके समान गुणको करती है । जो औषध नाम, रूप, गुण इन तीनास जानी हुई नहीं अथवा जानीहुई होनेपर भी अनुचित रीतिसे प्रयुक्त कीगई हो वह औषधी महाअनर्थको करती है । इसीप्रकार अच्छीतरह जानकर प्रयोगमें लायाहुआ विप भी उत्तम औषधींके गुणको करताहै । और उत्तम औषधी अनुचित विधिसे देनेसे विषकी समान मारडालती है । इसलिये वैद्योंको उचित है कि विना युक्तिसे कभी ओषधीका प्रयोग न करें॥१२२॥१२३॥१२४॥१२६॥
मूर्ख वैद्यके औषधका निषेध ।। सशेपसातुरंकुऱ्यान्नत्वज्ञमतमौषधम् । दु:खितायशयानाय श्रदधानायरोगिणे ॥ १२६ ॥ योभेषजमविज्ञायप्राज्ञमानीप्रयच्छति । तस्याथमृत्युदतस्यदुर्मतेस्त्यक्तधर्मणः ॥ ॥ १२७ ॥ नरोनरकपातीस्यात्तस्यसम्भाषणादपि । वरमाशीविपविपक्कथितंताम्रमेववा ॥ १२८ ॥ पीतमत्यग्निसन्तप्ता भाक्षितावाप्ययागुडाः । नतुश्रुतवतावेदविभ्रताशरणागतात् १२९ ॥ गृहीतमन्नपानवावित्र्तवारोगपीडितात् । भिषक्वु. भूर्युर्मतिमानतः स्याद्गुणसम्पदि ॥ १३०॥ परंप्रयत्नमातिष्ठेप्राणदास्याद्यथानृणाम् । तदेवयुक्तंभैपज्यंयदारोग्यायकल्पते ॥ १३१ ॥सचैवभिपजांश्रेष्ठोरोगेभ्योयःप्रमोचयेत् । सम्यक्प्रयोगंसर्वेपांसिद्धिराख्यातिकर्मणाम् ॥ १३२ ॥ सिद्धिराख्यातिसर्वेश्चगुणैर्युक्तंभिपक्तमम् इति ॥ १३३ ॥ जीवन और आरोग्यताकी इच्छावालेको कभी अयोग्यरीतिसे औषध सेवन न करना चाहिये । यदि इंद्रलोकसे वन गिरकर मनुष्यके शिरम लगे वह अच्छा है क्योकि उससे भी शायद मनुष्य जीवित रहसकता हो, परंतु अज्ञ ( मूर्ख) की दीई ओपी उस वज्रसे भी अधिक दुर्गुण करती है अर्थात मारही डालती है जो बंध दुःसले व्याकुल शय्यापर पढे श्रद्धालु रोगीको विनाजानी औषधी देदे. ताई उस धर्मरदित, पापी, नरकगामी मृत्युके दूतसे वोलनेम भी मनुष्य नरकगामा हानाता है । सांपविप पोलेना अच्छा है, लाल कियागुआ तपाहुआ ताम्रभी
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सूत्रस्थान - अ० १, .
(-२३ ) पोना अच्छा है. परंतु पाखंड से विद्वान् वैद्यकासा रूप धारणकर शरणागत रोगि योंको भ्रममें डालकर उनसे अन्न पान धन आदि लेना कदापि उचित नहीं । इस लिये वैद्य होने की इच्छावाला बुद्धिमान् मनुष्य पहले जो जो वैद्योंके गुण कहे हैं ( आगे लिखेंगे ) उनको अपनेमें उत्पन्न करे फिर मनुष्यों के प्राणोंकी रक्षा के लिये सदैव यत्नवान् रहै क्योंकि वैद्य मनुष्यों के प्राणोंका देनेवाला होता है । औषधीं वही उत्तम होती है जो रोगसे छुडाकर आरोग्य बनावे | और जो रोगों से छुडादे उसीको उत्तम वैद्य कहते हैं । सम्पूर्ण कमका विधिवत् प्रयोग कियाहुआ संपूर्ण गुणोंसे युक्त वैद्यको सिद्धि आरै ख्यातिको देता है ॥ १२६-१३३ ॥
तत्र श्लोकाः | आयुर्वेदागमोहेतुरागमस्य प्रवर्त्तनम् । सूत्रणं साभ्यनुज्ञानमायुर्वेदस्यनिर्णयः ॥ १३४ ॥ सम्पूर्णकारणंज्ञेयं आयुर्वेदप्रयोजनम् । हेतवश्चैव दोषाश्च भेषजसंग्रहेणच ॥ ॥ १३५ ॥ रसाः सप्रत्ययद्रव्या स्त्रिविधोद्रव्यसंग्रहः । मूलिन्यश्चफलिन्यश्च स्नेहाश्चलवणानिच ॥ १३६ ॥ मूत्रं क्षीराणिवृक्षाश्चषड्येक्षीरत्वगाश्रयाः । कर्माणि चैषां सर्वेषां योगायोगगुणागुणाः ॥ १३७ ॥ वैद्यापवादोयत्रस्थाः सर्वे चभिषजांगुणाः। सर्वमेतत्समाख्यातं पूर्वेऽध्यायेमहर्षिणा ॥ १३८॥
इति दीर्घजीविताध्यायः ॥ १ ॥
अब इस अध्यायका उपसंहार कहते हैं इस अध्यायमें आयुर्वेदका आगमन, और उसके आनेका कारण, आयुर्वेदकी प्रवृत्ति, अग्निवेशादिकों का संहिताएं बनाना, आयुर्वेदका निर्णय, संपूर्ण कारण और कार्य, आयुर्वेदका प्रयोजन, हेतु, दोष संक्षेपसे औषधसंग्रह कथन, छःरस, द्रव्य तीन प्रकारका द्रव्यसंग्रह, फलप्रधान, मूलप्रधान द्रव्य, स्नेह, लवण, मूत्राष्टक, दूधवर्ग, छः वृक्ष जिनके दूध और छिलके काम आते हैं । इन सवके कर्म तथा योग, अयोग, गुण, अगुण, वैद्यके दोष और वैद्यकी सिद्धि ख्यातिका प्रकार यह सब इस प्रथमाध्याय में वर्णन किया है ।। १३४ - १३८ ॥
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इति श्रीमहर्षिचरकप्रणीतायुर्वेदीय संहितायां पटियाला राज्यांतर्गतटकसालनिवासि - वैद्यपंचानन वैद्यरत्न पं० रामप्रसादैवैद्योपाध्यायविरचितप्रसादन्याख्यभापाटीकायां दीर्घजीवितीयो नाम प्रथमोध्यायः ॥ १ ॥
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(२४)
चरकसंहिता-भा० टी०। द्वितीयोऽध्यायः ।
प्रतिज्ञावर्णन । अथातोऽपामार्गतण्डुलीयमध्यायं व्याख्यास्याम् इतिह स्माहभगवानात्रेयः। भगवान् आत्रेय कहने लगे कि अब हम अपामार्गतण्डुलीय नामक दूसरे अध्यायका कथन करते हैं ॥१॥
ऊर्द्धगतरोगनाशक द्रव्य । अपामार्गस्यवीजानिपिप्पलीमरिचानिच । विडङ्गान्यथाशनणिसर्पपांस्तुम्बुरूणिच ॥१॥ अजाजीञ्चाजगन्धाञ्चपीलून्येलोहरेणुकाम् । पृथ्वीकांसुरसाश्वेतांकुठेरकफणिजकौ ॥२॥ शिरीपवीजंलशनंहारद्रलवणद्वयम् । ज्योतिष्मतीनागरञ्चविद्यान्मूर्द्धविरेचने ॥३॥ गौरवेशिरसाशलेपीनसेऽर्धावभेदके । क्रिमिव्याधावपस्मारेघ्राणनाशेप्रमोहने ॥४॥
अपामार्गके वीज, पीपल, कालीमिर्च, वायविडंग, सुहांजनेके बीज, सरसों तुंवर, काला जीरा, अजमोद, पीलू, इलायची, रेणुका, बड़ी इलायची, तुलसकि धाज. सफेद कोयलके वीज, छोटी तुलसीके वीज, सिरसके बीज, लहसन, दाना हलदिय. संघा और संचर नमक, मालकांगनीके वीज, साट, इन सव औषधियांको शिरोविरेचन देवे । मस्तकके भारीपनमें, शिरकी पीडामें, पीनस रोगम, आधाशीशीम, मस्तकके कृमियाम, अपस्मारमं, गंध लेनकी शक्तिके जाते रहनेम. बेहोशीम, इतने रोगाम प्रयोग करे ॥ १ ॥२॥३॥ ४ ॥
वान्तिकारक द्रव्य । मदनंमधुकंनिम्बंजीमतंकृतवेधनम् । पिप्पलीकुटजेक्ष्वाकूप्येलांघामार्गवाणिच ॥ ५॥ उपस्थितेश्लेष्मापित्तव्याधावामाशयाश्रये । वमनार्थप्रयुजीतभिपग्देहमदृषयन् ॥६॥
मनफल. मुलटी, नीम, जीमूत( कड़वी तोरईका भेद),कृतवेधन (तोरई),पीपल, मट जा.कटुवा, पडी इलायची, कड़वी तोरई इन आँपधिपांको आमाशयमं स्थित
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। सूत्रस्थान-अ० २.
(२५, पित्त कफकी व्याधियोंमें जिस प्रकार देह दूषित न हो उस प्रकार वमन करानके लिये प्रयुक्त करे ॥५॥६॥
विरेचक द्रव्य। त्रिवृतांत्रिफलांदन्तींनलिनांसप्तलांवचाम् ।कम्पिल्वकंगकाक्षीञ्चक्षीरिणीमुदकीटिकाम्॥ ७॥ पीलून्यारग्वधंद्राक्षांद्रवन्तीनिचुलानिच । पक्वाशयगतेदोषेविरेकार्थप्रयोजयेत्॥ ८॥ निशोत, हरड, बहेडा, आमला,दंती, नीलिनी,सप्तला, वच, कमीला, इंद्रायण, हरी दूधली, करंजुवा, पीलू, अमलतास, मुनक्का, छोटीदंती, निचुल (हिंजल ) इन सवको पकाशयमें स्थित दोष निकालनेको विरेचनके लिये प्रयुक्त करे।।७॥८॥
उदावर्तादिमें वस्तिदेनयोग्य द्रव्य । पाटलाञ्चाग्निमन्थाञ्चबिल्वंश्योनाकमेवच । काश्मय॑शालप
चिपृश्निपर्णानिदिग्धिकाम् ॥९॥ बलांश्वदृष्ट्रांबृहतीमेरण्डं सपुनर्नवम्। यवानुकुलुत्थान्कोलानिगुडूची मदनानिच॥१०॥ पलाशंकत्तृणंचैवस्नेहांश्चलवणानिच । उदावतेविबन्धेषुयुंज्यादास्थापनेसदा ॥११॥ . पाढ, अरणी, वेलगिर, सोनापाठा, धमार वृक्ष, शालपर्णी, पृष्ठपर्णी, कटेली, खरटी, गोखरू,बडीकटेली, एरंड, पुनर्नवा, यव, कुलथी, वेर, गिलोय, मैनफल, पलास, रोहिसवण, और चतुःस्नेह, पंचलवण,इनको उदावर्त,मल मूत्रका अवरोध तथा आस्थापन, वस्तीकर्म आदिमें प्रयुक्त करे ॥ ९ ॥ १० ॥ ११ ॥
वातनाशक पांचकमिक संग्रह। अतएवौषधगतात्संकल्प्यमनुवासनम् । मारुतघ्नमितिप्रोक्तः संग्रहःपाञ्चकर्मिकः ॥ १२ ॥ तान्यपस्थितदोषाणांस्नेहस्वेदोपपादनैः । पञ्चकर्माणिकुर्वीतमात्राकालौविचारयन् ॥ १३ ॥ मात्राकालाश्रयायुक्तिःसिद्धिर्युक्तोप्रतिष्ठिता । तिष्ठत्युपरियुतिज्ञोद्रव्यज्ञानवतांसदा ॥ १४॥
और यही उपरोक्त द्रव्य अनुवासनवस्तिमें भी प्रयुक्त किये जाते हैं।तथा यही द्रव्य बातनाशक होनेसे पंचकर्मोंमें प्रयुक्त कियेजाते हैं । जिन मनुष्योंके शरीरोंमेंसे दोष निकालना हो उनको पहले स्नेहन स्वेदन कराकर फिर मात्रा और कालका विचार
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(२६)
चरकसंहिता-भा० टी० रखते हुए "वमन, विरेचन, नस्य, निरूहण, अनुवासन" यह पञ्चकर्म करावे ।
औषधीकी मात्रा और समयका विचार युक्तिके अधीन है जो बुद्धिमान् वैद्य युक्तिद्वारा विचारकर काम करता है उसीको सिद्धिकी प्राप्ति होती है । औषधी जाननेवाले वैद्याम युक्तिक्रम जाननेवाला वैद्य सदा शिरोमणि रहताह ॥ १२॥ १३ ॥ १४ ॥
___ अनेक यवागुकल्पना और उनके गुण। अतऊर्ध्वप्रवक्ष्यामियवागविविधौषधाः । विविधानांविकाराणांतत्साध्यानानिवृत्तये ॥१५॥ पिप्पलीपिप्पलीमलचव्याचत्रकनागरैः । यवागर्दीपनीयास्याच्छूलनीचोपसाधिता ॥१६॥
अव अनेक प्रकारकी औषधियोंसे सिद्ध कीहुई यवागुओंका वर्णन जो रोग युवागृद्वारा शांत होते हैं उन रोगांकी शांतिके लिये करते हैं । पीपल, पीपलामूल, चव्य, चित्रक. साठ, इन पांचोंसे सिद्ध कीहुई यवागू अग्निको दीपन करतीहै और उनके शूलको नष्ट करती है ॥ १५ ॥ १६ ॥
दधित्थविल्वचाङ्गेरीतक्रदाडिमसाधिता।
पाचनीग्राहणीपेचासवातेपाञ्चमालिका ॥ १७॥ कथ, विल्व, चूका. तक्र, अनारदाना, इनसे सिद्ध कीहुई यवागू पाचन और संग्राही है । लघुपञ्चमूलसे सिद्ध कीहुई यवागू वातातिसारमें हितकारक है ॥ १७ ॥
शालपणीवलाविल्वैःपश्चिपण्याचसाधिता।
दाडिमाम्लाहितापेयापित्तश्लेष्मातिसारिणाम् ॥१८॥ शालिपी. सी. विल्वगिरी, पृष्ठपर्णी, इनसे सिद्ध कीहुई यवागू खहे अनारे खट्टी करके पीहुई यवागू पित्त कफके अतिसारमें हितकारक है।॥ १८ ॥
पयस्यद्धोंदकेछागेहीवेरोत्पलनागरैः।
पयारक्तातिसारनीपृश्निपाचसाधिता ॥ १९ ॥ यकरके दृधम दृधत आधा जल मिलाकर उसमें सगन्धवाला,नीलोफर,सीट पृष्ठ पी. इनसे सिद्ध कोईई पेया रक्तातिसारको नष्ट करती है ॥ १९ ॥
दद्यात्सातिविपांपेयांसामेसाम्लांसनागराम्। श्वदंष्टाकण्टकारीभ्यांमत्रकृच्छ्रेसफाणिताम् ॥२०॥
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सूत्रस्थान अ० २...
(२७) • अनारके रससे खट्टी कीहुई और अतीस तथा सोंठसे सिद्ध की हुई पेया आमातिसारमें देना चाहिये । गोखरू और कटेलीसे सिद्ध कीहुई पेयामें फाणित मिलाकर मूत्रकृच्छकी शांतिके लिये देवे ॥ २० ॥
विडङ्गपिप्पलीमलाशयभिमरिचेनच ।
तक्रसिद्धायवागूःस्याक्रिमिनीससुवचिका.॥ २१॥ बायविडंग, पीपलामूल, मुहांजना, काली मिर्च, और तक इनसे सिद्ध कीहुई पेयाम सञ्चर नमक मिलाकर पीनेसे पेटके कृमि नष्ट होते हैं ॥ २१॥ . मृद्वीकाशारिवालाजपिप्पलीमधुनागरैः।
पिपासानाविषनीचसोमराजीविपाचिता ॥२२॥ मुनक्का, सारिवा, धानोंकी सील, पीपल, सोंठ इनसे सिद्ध कहुिई पेया शहद मिलाकर पीनेसे प्यासको शांत करती है। बावर्चासे सिद्ध कीहुई पेया विषविकारको शांत करती है ॥ २२ ॥
सिद्धावराहनियंहेयवागूqहणीमता ।
गवेधुकानांमृष्टानांकर्षणीयासमाक्षिका ॥ २३ ॥ ' वाराहीकन्दसे सिद्ध कीहुई पेया देहको पुष्ट करती है । गवेधुका (ऋषि योंका अन्न ) को भूनकर उसकी पेयाको ठंढाकर शहद मिलाकर पीनेसे स्थूलता नष्ट होती है ॥ २३ ॥
सर्पिष्मतीवहुतिलास्नेहनीलवणान्विता। . कुशामलकनियुहेश्यामाकानांविरूक्षणी ॥ २४ ॥ घृत और बहुतसे तिलोंकी सिद्ध कीहुई पेया लवण युक्त कर पीनेसे शरीर चिकना होता है । कुशा और आमलोंसे सिद्ध कीहुई श्यामाकके चावलोंकी पेया शरीरको रूखा करती है ॥ २४ ॥
दशमूलीशृताकासहिकाश्वासकफापहा ।
यमकेमदिरासिद्धापकाशयरुजापहा ॥ २५॥ दशमूलसे सिद्ध कीहुई यवागू-खांसी, हिचकी, श्वास, और कफको नाश करती है । घृत, तेल, मद्य इनके साथ सिद्ध कीहुई यवागू पक्कांशयके सब रोगोंको. नष्ट करती है ॥ २५ ॥
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चरकसंहिता · भा० टी० ।
शाकैर्मासैस्तिलैर्माषैः सिद्धावचनिरस्यति । जम्ब्वाम्रास्थिदधित्थाम्लाविल्वैः सांग्राहिकीमता ॥ २६ ॥
फलपत्रक शाक, मांस, तिल, उडद, इनसे सिद्ध हुई यवागू मलको निकालती है। जामुन. आमकी गुटली. कथका गुद्दा. कांजी, वेलगिर, इनसे सिद्ध यवागू संग्राही ( दस्त ( कनेवाली ) होती है ।। २६ ।।
क्षारचित्रकहिङ्ग्वम्लवेतसैर्भेदनीमता ।
(२८)
अभयापिप्पलीमूलविश्वैर्वातानुलोमनी ॥ २७ ॥
खार ( जवाखार ), चीता, हींग, अम्लवेत इनसे बनाई हुई यवागू भेदिनी ( दस्तावर ) होती हैं | हरड, पीपलामूल, सोंठ इनसे सिद्ध यवागू वायुको अनुलोमन करती है ॥ २७ ॥
तक्रसिद्धायवागूः
स्याद्घृतव्यापत्तिनाशिनी । तैलव्यापदिशस्तातुतकापण्याकसाधिता ॥ २८ ॥
तक (महा) से सिद्ध की हुई यवागू अधिक घृत खानेसे पैदा हुए विकारको शांत करती है । ऐसे ही तिलोंकी खल और छाछसे सिद्ध यवागू तेलके खानसे हुए विका गंकी शांति करती हैं ॥ २८ ॥
.
गव्यैर्मांसरसैः साम्लाविषमज्वरनाशिनी ।
कण्ट्यायवानांयमकेपिप्पल्या मलकैः श्रिता ॥ २९॥
पञ्चगव्य या गोदूब और हरिणादिके मांस के रससे सिद्ध और अनारदाने से खट्टी की हुई यवागृ विषमज्वरको नष्ट करती है ॥ वृत, तेल, पीपल और आँवलोंके साथ सिद्ध जावाँकी यवागृ कंटके रोगाम हितकारी हैं ॥ २९ ॥ ताम्रचूडरसेसिद्धारेतोमार्गरुजापहा ।
समापविदलावृप्याघृतक्षीरोपसाधिता ॥ ३० ॥
मुर्गे मांसस सिद्ध पंया वीर्यमार्गक रोगों को शांत करती है । उडदकी दाल, श्री. और दूध की पेया वीर्यको उत्पन्न करती है ॥ ३० ॥ उपोदिकादाधिभ्यान्तुसिद्धामदविनाशिनी ॥
क्षुधहन्यादपा मार्गक्षीरगोधारसोता ॥ ३१ ॥
पोईका शाक और दहीसे सिद्ध यवागृ उन्मत्तताको नष्ट करती है । अपामार्ग के €3. यौन इव और गांधावूक रस अथवा गांधाकं मांस के इससे सिद्ध यवागृ क्षुधाको नष्ट करती है ॥ ३१ ॥
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सूत्रस्थान-अ० ३.
(२९) द्वितीयाध्यायका उपसंहार। . तत्रश्लोकाः॥अष्टाविंशतिरित्येतायवाग्वःपरिकीर्तिताः। पंचकर्माणिचाश्रित्यप्रोक्ताभैषज्यसंग्रहः ॥ ३२ ॥ पूर्वमूलफलज्ञानहेतोरुक्तंयदौषधम् । पञ्चकर्माश्रयज्ञानहेतोस्तत्कीतितपुनः ॥ ३३ ॥ स्मृतिमानयुक्तिहेतुज्ञोजितात्माप्रतिपत्तिमान् । भिषगौषधसंयोगैः चिकित्सांकर्तुमर्हति ॥ ३४ ॥ ___ इति भेषजचतुष्कऽपामार्गवण्डुलायो नाम द्वितीयोऽध्यायः ॥ २ ॥
इस प्रकार इस अध्यायमें अटूठाईस प्रकारकी यवागुओंका और पंचकमके आश्रयीभूत औषाधियोंका कथन कियाहै।जो पहले मूलफलके ज्ञानार्थ कहआये. पंचकर्ममें आश्रय होनेके कारण वे यहां फिर कहेगये, स्मृतिमान् जिद्रिय, औषध और रोग तथा युक्तिको जाननेवाला वैद्य औषधियोंके संयोगसे चिकित्सा करे ॥ ३२ ॥ ३३ ॥ ३४ ॥ इति श्रीमहर्पिचरकप्रणीतायुवेदसंहितायां पटियालाराज्यांन्तर्गतटकसालनिवासिवद्यपञ्चानन वैद्यरल पं० रामप्रसादेवैद्योपाध्यायकृतप्रसादन्याख्यटोकायामपामार्ग
तण्डुलीयो नाम द्वितीयोध्यायः ॥२॥
. . तृतीयोऽध्यायः।
-oc00अथातआरस्वधीयमध्यायंवक्ष्यामः
इति हस्माह भगवानात्रेयः। अब हम आरग्वधीय अध्यायकी व्याख्या करेंगे ऐसे भगवान् आत्रेय कहने लगे ॥१॥
__कुष्ठः किलास आदिपर लेप । आरग्वधःसैडगजःकरलोवासागुड़चीमंदनहरिद्रे । श्याह्नः सुराबःखदिरोधवश्चनिम्बोविडङ्गकरवीरकत्वक् ॥१॥ ग्रन्थिश्वभौजॉलशुनःशिरीषः सलोमशोगुग्गुलुकृष्णगन्धे । फणि- .
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(३०)
चरकसंहिवा-भा० टी०। ज्झकोवत्सकसप्तपर्णीपीलूनिकुष्टंसुमनःप्रवालाः ॥ २ ॥ वचाहरेणुस्त्रिवृतानिकुम्भोभल्लातकगीरकमञ्जनंच । मनःशिलालेगृहधूमएलाकासीसमुस्तार्जुनरोधसर्जाः ॥ ३ ॥ इत्यर्द्धरूपैविहिताःपडेते गोपित्तपीताःपुनरेवपिष्टाः । सिद्धाः परंसर्पपतैलयुक्ताश्चूर्णप्रदेहाभिषजाप्रयोज्याः ॥४॥ कुष्टानिकृच्छ्राणिनवं किलासंसुरेन्द्रलुप्तंकिटिमंसद् । भगन्दराशास्यपचाँसपामांहन्युः प्रयुक्तास्त्वचिरान्नराणाम् ॥ ५ ॥ १ अमलतास, पनवाड, करंज,अडूसा, गिलोय, मैनफल, दोनों हलदी १२ सरलवृक्ष, देवदारु, खरसार, मुस्तक, नीम, वायविडंग, कनेरकी छाल । ३ गठिवन, भोजपत्र, लहसन, सिरसके वीज, जटामांसी, गूगल, सुहांजना । ४ वनतुलसी, सतीना पीलू (अखरोटविशेष), कूठ, चमेली।५ वच, रेणुका, निशांत, दंती,भिलावे, गेरु,रसात या सुर्मा । ६ मनसिल,हरिताल,घरका धूमसा, इलायची, कसीस, मोथे, अर्जुनकी छाल, लोध, राल, । यह आध २ श्लोक में ६ गण कहे हैं । इनमसे किसी एक गणके चूर्णको गौके घृतमें मिलाकर खूब घोटे फिर ससकि तेलमें मिलाले तो यह उत्तम प्रलेप तयार हो । इस प्रकार बनाया हुआ किसी एक गणका प्रलेप वैद्यको अत्यंत प्रयोजनीय है । इसके लेपसे मनुष्योंके कष्टसाध्य कुष्ठ, नवीन किलास कुष्ट. इंद्रगुप्त, किटिभ, दट्ट, भगंदर, अर्श, अपची, खुजली यह सव शीघ्र नष्ट होतेहे ॥ परंतु यह कुष्ठहर लेप उन रोगियोंको लाभदायक होतहे जिनको वमन विरेचन द्वारा शुद्ध देह होनेपर प्रयोग किये जावें । पहले अध्यायमें शाधनकारी द्रव्य लिखचुके होउनसे कल्पस्थान और सिद्धिस्थानमें कही विधिके अनुसार शुद्ध काय करके फिर इन वाह्यदोषहर लेपोंका प्रयोग करे ॥ १ ॥२॥ ॥३॥४॥५॥
दूसरा लेप। कुष्टहरिद्रेसुरसंपटोलंनिम्बाश्वगन्धेसुरदारुशिग्रु । ससर्पपंतुम्बुरुधान्यवन्यंचण्डांसचूर्णानिसमानिकुयात् ॥ ६॥ तैस्तकयुक्तःप्रथमंशरीरलाक्तमुद्वर्तयितुंयतेत । तथास्यकण्डःपिंडकाःसकोठाः कुष्टानिशोफाश्चशमंत्रजन्ति ॥ ७॥ फूट. दोनों दलदी, तुलसी, पोलपत्र, नीम, असगंध, देवदारु, सौभांजन, सरसा, नुबुरू. धनिया. केवटीमुस्तक, चंडा (गठीनेका भेद ), इन सबके चूर्णको छाछ और ससाक तलमें घांटकर शरीर पर मालिश करनेसे खुजली, फुनसिय, चत, गुट. सूजन यह सब नष्ट होते हैं ॥ ६॥ ७॥
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( ३१ )
सूत्रस्थान - अं० ३.
खाज और पामानाशक लेप. । कुष्ठामृतासङ्गकटंकटेरी काशीशकाम्पिल्लक रोधमुस्ताः । सौगन्धिकंसर्जरसोविडङ्गमनः शिलालेकरवीरकत्वक् ॥ ८ ॥ तैलाक्तगात्रस्य कृतानि चूर्णान्येतानिदद्यादवचूर्णनार्थम्। ददुः सकण्डुः किटिभानिपामाविचर्चिकाचैव तथैतिशान्तिम् ॥९ ॥ कूठ, गिलोय, तुत्य, दोनों हलदी, कसीस, कमीला, नागरमोथा, लोध, गंधक, सल, वायबिडंग, मनसिल, हरिताल, कनेर की छाल, इन सबके चूर्णको सरसोंके में पकाकर देहपर मलनेसे दाद, खाज, किटिभ, पामा, विवचिका यह सब नष्ट होते हैं ॥ ८ ॥ ९ ॥
कुष्ट आदि रोगोंपर अनेक लेप ।
मनःशिलालेमरिचानितैलमार्कम्पयः कुष्ठहरः प्रदेहः । तुल्यं विडङ्गमरिचानिकुष्ठं लोधञ्चतद्वत्समनःशिलंस्यात् ॥ १० ॥ 'रसाञ्जनं सप्रपन्नाडबीजंयुक्तः कपित्थस्यरसेनलेपः । करञ्जवी - जैडगज सकुष्ठंगो मूत्रपिष्टश्चपरःप्रदेहः ॥ ११ ॥
मनसिल, हरिताल, कालीमिर्च, तेल, आकका दूध इन सबको एकजीव कर लेप करने से शरीरपरका कुष्ठ नष्ट होता है । ऐसे ही बिडंग, मिर्च, कूठ, लोध, मनसिल, इन सबको बराबर ले चूर्णकर तेलके योगसे लेप मालिस करनेसे कुष्ठ दूर होता है ॥ १० ॥ रसौत, पनवाडके बीज, कूठ इनको कैथके रसमें मिला लेपकरनेसे कुष्ट दूर होता है | अथवा - करंजुवेके वीज, पनवाडके बीज, कूठ, इनको गोमूत्र में पीसकर मालिस करने से कुष्ठ नष्ट होता है ॥ ११ ॥
उभे हरिद्रेकुटजस्यबीजं करञ्जबीजं सुमनः प्रवालान् । त्वचंसचव्यांहयमारकञ्चलेपंतिलक्षारयुतंविदध्यात् ॥ १२ ॥
अथवा - दोनों हलदी, इंद्रजौ, करंजुवे के बीज, चमेलीकी कोंपलें, कनेरकी छाल और उसके भीतर का सार, तिलोंका खार इन सबका लेप कुष्ठको नष्ट करता है ॥ १२ ॥ मनःशिलात्वक्कुटजात्सकुष्टः सलोमशः सैडगंजः करञ्जः । यन्थिश्च भौर्जः करवीरमूलं चूर्णानि साध्यानितुषोदकेन ॥ १३ ॥ पलाशनिर्दाहरसेनचापिकर्षोद्धृतान्याढकसम्मितेन दिवप्रलेपप्रवदतिलेपमेतत्परंकुष्ठनिषूदनाय ॥ १४ ॥
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( ३२)
चरकसंहिता-भा० टी०। अथवा-मनसिल, कूठ, कुडाकी छाल, जटामांसी, पनवाडके वीज, करंजुवेक वीज. भोजपत्रकी गांठ, कनेरकी जडकी छाल, इन सबको एक २ कर्ष लेकर एक आढक तुषाके पानीम और एक आढक ढाकके खार मिले जलमें पकावे जव गाढी होकर कडछीसे लिपटने लगे तो इसको उतारलेवे इसके लेपसे अवश्य ही कुष्ठ. - नाशको प्राप्त होता है ॥ १३ ॥१४॥
पर्णानिपिष्टाचतुरंगुलस्यतऋणपर्णान्यथकाकमाच्याः। तेलाक्तगात्रस्यनरस्यकुष्टान्युद्वत्तयदश्वहनच्छदैश्च ॥ १५॥
आरग्वधके पत्र, मकोहके पत्र इनको छाछमें घोकटर अथवा कनेरके पत्रोंको तलम पकाकर शरीरपर मलनेसे कुष्ट दूर होता है ॥ १५ ॥
वातजन्यरोगांपर लेप ।। कोलंकुलत्थाःसुरदाररास्नामाषातसीतैलफलानिकुष्ठम् । बचाशताहायवचूर्णमम्लमुष्णानिवातामयिनांप्रदेहः ॥ १६ ॥ वर, कुलथी, देवदारु, उडद, अलसी, तिल, सरसों, सूह, राई, एरंडवीज, कूठ, वच, सॉफ, जो इनके वूर्णको कांजीम घोटकर वायुके रोगीके शरीरपर । लेप कर ॥१६॥
आनूपमत्स्यामिषवेशवारैरुष्णैःप्रदेहःपवनापहःस्यात् । लेहेश्चतुर्भिर्दशमलमित्रैर्गन्धौषधैर्वानिलजित्प्रदेहः ॥ १७॥ जलयुक्त भूमिम रहनेवाले जीवोंका तथा मछलीका मांस, हींग, मिर्च, अदरक, जारा, हलदी, धनियां इनको घोटकर गर्म करके लेप करनेसे वायुका रोग शांत होताह । अथवा चतुःस्नेहमें दशमूलका चूर्ण, और गंधद्रव्योंको मिलाकर गर्म प्रलेपसे वायुकी उग्रपीडा शांत होती हे ॥ १७॥
उदरपीडाहर लेप। तक्रेणयुक्तंपवचूर्णमुष्णसक्षारमार्तिञ्जठरोनिहन्यात् । कुष्टशताबांसवचांयवानांचूर्णसतैलाम्लमपन्तिवाते ॥ १८॥ छाम यवांका चूर्ण और जवाखार मिलाकर गर्म करके पेटपर लेप करनेसे पेटकी पीटा नष्ट होता है । कृट, सौंफ,वच यवांकाचूर्ण, तेल,कांजी इनको पकाकर गर्म २. लेप करनेस वायुको पीडा शांत होती है ॥ १८ ॥
वातरक्त पर लेप। उभेशताहमधुकंमधवलांपियालञ्चकशेरुकञ्च । तंविदारीश्चसितोपलाञ्चकुर्यात्प्रदेहंपवनसरक्ते ॥ १९ ॥
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सूत्रस्थान-अ.३."
(३३) सोया, सौंफ, मुलैठी, खरैटी, महुआ, 'चिरौंजी, कसेरू, घृत, विदारकिंद, मिसरी, इनको मिलाकर किया हुआ लेप वातरक्तको शांत करताहै ॥. १९ ॥
. वातरक्तपर लेप । रास्त्रांगुंडूचीमधुकंबलेटेसजीवकंसर्षभकम्पयश्च। घृतञ्चसिद्धंमधुशेषयुक्तरक्तानिलाप्रिणुदेत्प्रदेहः ॥ २० ॥ राना, गिलोय, मुलैठी,. खरैटी, गंगेरण, जीवक, ऋषभक इन औषधियोंके चूर्णसे चारगुना घी और १६ गुना दूध मिलाकर घृतपाकविधिसे घृत सिद्ध करे इस घृतमें शहद मिलाकर लेप करनेसे वातरक्तको शांत करताहै ॥ २०॥ - वातेसरक्तेसघृतःप्रदेहोगोधूमचर्णछगलीपयश्च ॥ २१ ॥ ... अथवा घी, गेहूंका चूर्ण, वकरीका दूध इनको पकाकर लेप करना भी वातरक्तमें हित है ॥ २१॥
शिरःपीडा पर लेप। नतोत्पलंचन्दनकुष्ठयुक्तशिरोरुजायांसघृतःप्रदेहः । प्रपौण्डरीकंसुरदारुकुष्ठंयष्टयामेलाकमलोत्पलेच । शिरोरुजायांसघृतःप्रदेहोलोहैरकापद्मकचोरकैश्च ॥२२॥ तगर, कमल, चंदन, कूठ, इनके चूर्णको घृतसे लेप करे तो मस्तकपीडा शांत होती है । अथवा पंड्यारा, देवदारु, कूठ, मुलैठी, इलायची, कमल, नीलोफर इनकों पीसकर घृत मिलाकर लेपकरनेसे मस्तकपीडाशांत होतीहै । अथवा अगर,एरकवास, पद्माख, गठिवन इनको जलमें पीस लेप करनेसे मस्तकपीडा शांत होती है ॥ २२ ॥
पार्श्वपीडा पर लेप। रास्नाहरिद्रेनलदंशताहृदेवदारूणिसितोपलाञ्च। . . . जीवन्तिमूलंसंघृतंसतैलमालेपनंपावरुंजासुकोष्णम् ॥२३॥ राना, हलदी, दोरुहल्दी, खस, सौंफ, सोया, देवदारु, मिसरी, जीवन्तीकी जड इनको घृत और तेलमें मिलाकर थोडा गर्म लेप किया हुआ पसवाडेके शूलकों नष्ट करता है ॥ २३ ॥
दाहनिवारक लेप। शैवालपद्मोत्पलवेत्रतुझंप्रपौण्डरीकाण्यमृणाललोध्रम्। ' प्रियंगुकालीयकचन्दनानिनिपिणःस्यात्सघृतःप्रदेहः ॥ २४ ॥
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(३४)
चरकसंहिता-भा० टी०। पानीको काई. कमलगट्टा, नीलोफर, वेत, तुंग पुंडरिया, कमलकी डंडी, पठानीलोध, गोदनीके फूल, कालीयक, ( काली अगर ) चंदन इनको घृतयुक्त कर लेप करनेसे दाह दूर होता है ॥ २४ ॥ सितालतायेतसपद्मकानियष्टयाह्नमैन्द्रीनलिनानिदूर्वा । यवासमूलंकुशकाशयोश्चनिर्वापणःस्याज्जलमेरकाच ॥ २५॥ सफेद दूव, वेतसमजनु, पद्माख, मुलैठी इंद्रायण, कमल, दुर्वा, जवासेकी जड, कुशा, कांसको जड, जल के पटेरेकी जड, इन सवको जलसे पीस लेप करनेसे दाह दूर होता है ।। २५ ॥
विषघ्न लेप। शलेयमेलागुरुणीसकुष्ठेचण्डानतंत्वक्सुरदारुरास्ता। शीतनिहन्यादचिरात्प्रदेहोविषंशिरीषस्तुससिन्धुवारः ॥२६॥ भूरिछरीला. इलायची, अगर, कूठ, मठियन, तगर, दारचीनी, देवदारु, राना, इनका लेप शीतताको शीघ्र नष्ट करताहै । ऐसेही सम्भालू और सिरसका लेप विषको शीघ्र नष्ट कर देता है ।। २६ ॥
देहदुर्गधनाशक लेप । शिरीपलामजकमलास्त्वग्दोयसस्वेदहरःप्रघर्षः ।
पत्रामधुलोधाभयचन्दनानिशरीरदोर्गन्ध्यहरःप्रदेहः ॥ २७ ॥ । . सिरस, खस, नागकेशर, लोध इनके चूर्णका उवटना मलनेसे त्वचाका दोष
और पसीना नष्ट होता है। तेजपत्र, नेत्रवाला, पठानी लोध, खस, चन्दन इन सबको पीसकर लेप करनेसे देहकी दुर्गन्धि नष्ट होती है ॥२७॥
उक्त अध्यायका उपसंहार ।। तत्र श्लोकः। इहात्रिजःसिद्धतमानुवाचवात्रिंशतसिद्धमहार्षिपूज्यः । चूर्णप्रदेहान्विविधासयन्नानारग्वधीयेजगतो हितार्थम् ॥२८॥ इति भेषजचतुष्के आरग्वधीयो नाम तृतीयोऽध्यायः ॥३॥ इस प्रकार इस आरम्यघीय अध्यायम सिद्ध और महार्षियोंके पूज्य आत्रेय भगवान ने अनेक रोगीको नष्ट करनेवाले ३२ प्रकारके चूके प्रलेपाका कथन जगतकं हितार्थ किया है ॥ २८॥
बीमा गरकरणीतसंहितायां पटियालाराज्यांतर्गतटकसालनिवासियपंचानन· धेशरत्न पं. रामप्रसादवद्योपाध्यायनप्रसादन्यायभापाटीकाया
मारण्यायो नाम तृतीयाध्यायः ॥३॥
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सूत्रस्थान - अ० ४..
चतुर्थोऽध्यायः ।
अथातः षड्विरेचनशताश्रितीयमध्यायं व्याख्यास्याम इति हस्माह भगवानात्रेयः ।
(३५)
अब हम षडूविरेचनशताश्रितीय अध्यायका कथन करेंगे ऐसा भगवान् आत्रेय कहने लगे ।
1
अध्यायभर के विषय । इहखलुषविरेचनशतानिभवन्ति । षड्विरेचनाश्रयाः। पंचकषायशतानि | पंचकषाययोनयः । पञ्चविधंकषायकल्पनम् । पञ्चाशन्महाकषायांइतिसंग्रहः ॥ १ ॥
इस ग्रंथ में ६०० योग विरेचनके हैं । उन छः सौ विरेचनोंको ६ स्थानों में आमयोभूत माना है और ५०० क्वाथ तथा ५ क्वाथोंके कारण पांचप्रकारकी काथोंको कल्पना, पचास ९० महाकषाय, यह संग्रह इस अध्यायमें वर्णन किया है ॥ १ पविरेचनशतानीतियदुक्तं तदिह संग्रहेणोदाहृत्यविस्तरेणकल्पोपनिषदिव्याख्यास्यामः ॥ २ ॥
जो ६०० विरेचन इस अध्यायमें कहें इनको संक्षेपसे यहां कहकर आगे 'कल्पस्थान में विशेषतासे वर्णन करेंगे ॥ २ ॥ .
योगकल्पना | त्रयस्त्रिंशद्योगशतंप्रणीत फलेष्वेकोनचत्वारिंशज्जीमूतकेषु योगाः ॥ पञ्चचत्वारिंशदिक्ष्वाकुषुधामार्गवः । षष्टिधाभवति योगयुक्तः ॥ ३ ॥ कुटजस्त्वष्टादशधायोगमेतिकृतवेधनंषष्टिधाभवतियोगयुक्तम् । श्यामात्रिवृद्योगशतंप्रणीतंदशापरे चान्त्रभवन्तियोगाः ॥ ४ ॥ चतुरंगुलोद्वादशधायोगमेतिलोधं. विधौषोडशयोगयुक्तम् । महावृक्षोभवतिविंशतियोगयुक्तः एकोनचत्वारिंशत्लमलाशंखिन्योयोगाः ॥ ५ ॥ अष्टाचत्वारिंशद्दन्तीद्रवन्त्योरितिषविरेचनशतानि ॥ ६ ॥ .
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( ३६ )
चरकसंहिता - भा० टी० 1
इनमें १३३ विरेचन मैनफलके योगसे होते हैं । ३९ योग जंगली तोरीके संयोगसे ४५ कडवी तुम्बीके संयोगसे । ६० प्रकारके धामार्गव ( अपामार्ग ) के योगसे । २८ प्रकारके कुटजके योगसे । ६० प्रकारके कृतवेधन ( कडुवी तोरी) के योग से। ११० प्रकारके दक्षिणी निशोथ (काली निशोथ) के योगसे । १२ प्रकार अमलतासके योगसे । १६ प्रकारके लोधके योगसे । २० प्रकार थोहरके योगसे । ३९ सातला और शखिनीके योगसे । ४८ प्रकार दंती और द्रवंतीके योगसे । इसप्रकार सब मिलाकर ६०० प्रकारके विरेचनके योग होते हैं ॥ ३ ॥ ४ ॥ ५ ॥ ६ ॥
पविरेचनाश्रयाः क्षीरमूलत्वक्पत्रपुष्पफलानीति ॥ ७ ॥
विरेचन के छः आश्रय हैं जैसे- दूध, मूल, छाल. पत्र, फूल, फल । इन छहीं द्वारा ही विरेचन होतेहैं ॥ ७ ॥
५ कषाययोनि । पञ्चकपाययोनयइति मधुरकपायोऽम्लकषायः कटुकषायस्तिक्तकपायः कपायकपायश्चेतितन्त्रेसंज्ञा ॥ ८ ॥
मधुरकपाय, अम्लकषाय, कटुकषाय, तिक्तकषाय, कषायकषाय यह पांच ! प्रकार शास्त्र में कषाययोनि मानी है । या ऐसे काहये कि जिन द्रव्योंसे कषाय ( काय ) बनता है उनको कषाययोनि अर्थात् कषायका कारण कहते हैं वह द्रव्य मधुरादि पांच रसांके आश्रयीभूत होनेसे कषाययोनि ५ प्रकारको है ॥ ८ ॥ कषायकल्पना ।
पञ्चविधंकपायकल्पनमिति । तद्यथा। स्वरसः कल्कः शृतः शीतः फाण्टःकपायइति ॥ ९ ॥ " यन्त्रप्रपीडनाद्रव्यांद्रसः स्वरस उच्यते । यत्पिण्डरसपिष्टानां तत्कल्कं परिकीर्त्तितम् ॥ १० ॥ वौतुक्कथितं द्रव्यंशृतमाहृश्चिकित्सकाः । द्रव्यादापोत्थितात्तोयेतत्पुनर्निशिसंस्थितात् ॥ ११ ॥ कषायोयोऽभिनिर्यातिस शीतः समुदाहृतः । क्षिप्त्वोष्णतोयेमृदितं तत्फाण्टंपरिकीतितम् " ॥ १२ ॥ तेषां यथापूर्ववलाधिक्यम् । अतः कपायकरूपनाव्याध्यातुरवलापेक्षिणीनत्वेवंखलुसर्वाणि सर्वत्रोपयोगीनिभवन्ति । पञ्चाशन्महाकपायाइतियदुक्तं तदनुव्याख्यास्यामः ॥ १३ ॥
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सूत्रस्थान-अ० ४..
(३७ ऐसे ही कषायोंको कल्पना भी पांच प्रकारकी है जैसे स्वरस, कल्क, शृत, शीत और फ़ांट यह पांच कषाय हैं। १ यंत्र आदिसे औषधको दबाकर जो उसमेंसे रस निकले उसको स्वरस कहते हैं। २ जो द्रव्यको गीला ही पीसकर चटनीकी समान गोलासा बना लिया जाय उसको कल्क कहते हैं । जोद्रव्य पानी में डालकर आगपर पकायाजाय उसको शृत (काथ, काढा) कहते हैं।४द्रव्य (औषधि)को थोडा कूटकर शीतल पानीमें सायंकाल भिगोदेवे और रात्रिभर पडा रहनेदे फिर प्रातः काल मलकर छानले इसको शीत (शीतकषाय, हिम)कहते हैं। ५ द्रव्यके चूर्णको गर्म जलमें डालकर मसले फिर छानलेवे इसको फांट कहते हैं ॥९॥१०॥१११२।। इनमें फांटसे हिममें, हिमसे क्वाथमें, काथसे कल्कमें, कल्कसे स्वरसमें अधिक गुण होताहै । यह काथ विना विचारे सर्वत्र ही उपयुक्त नहीं किये जाते । रोग और रोगीका बलाबल विचारकर जो जहां उपयोगी हो उसीका वर्ताव करना चाहिये। अब जो पचास महाकषाय कह आये हैं उनकी व्याख्या करते हैं ।। १३ ॥
जीवनीयादि ६ कषायवर्ग। . . . 1. तद्यथा । जीवनीयोबृहणीयोलेखनीयोभेदनीयःसन्धानीयो
दीपनीयइतिषट्कःकषायवर्गः ॥१४॥ . वह सब इसप्रकार हैं-जीवनीय, (जीवनके बढानेवाले ) बृहणीय (मांसको पुष्ट करनेवाले) लेखनीय (मलको उखाडकर निकालनेवाले) भेदनीय (मलको फाड: नेवाले) संधानीय (टूटेहएको जोडनेवाले) दीपनीय (जठराग्निको चैतन्य करने वाले) इसप्रकार यह छः कषायोंका वर्ग हुआ ॥ १४ ॥
. वलकारकादि ४ कषाय० । बल्योवर्यःकण्ठयाहृद्यःइतिचतुष्कःकषायवर्गः॥१५॥ वलकारक, वर्णकर्ता,कंठ्य (स्वरशोधक),..हय (हृदयको हितकारी) यह चार प्रकारका कषायवर्ग है ।। १५ ।।
. तृप्तिनाशकादि ६ कषाय० । तृतितोऽशोधःकुष्टतःकण्डूनः कामिनोविषन्नइतिषट्कः कषायवर्गः ॥१६॥ तृप्तिनाशक (रुचिकारक), अर्शनाशक, कुष्ठनाशक, कंडू ( खान ) नाशक, कृमिनाशक, विषनाशक, यह छः प्रकारके वाथ हैं ॥ १६ ॥
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(३८)
चरकसंहिता-मा० टी०।।
स्तन्य आदि ४ कपाय। स्तन्यजननःस्तन्यशोधन शुक्रजननःशुक्रशोधनइतिचतुष्कः कपायवर्गः ॥ १७ ॥ स्तन्य ( स्तनाम दूध ) जनक. स्तन्यशोधक, शुक्रजनक, शुक्रशोधक, यह चार प्रकारके क्याथ हैं ॥ १७ ॥
नेहके उपयोगी आदि ७ कषाय० । लेहोपगःस्वेदोपगोवमनोपगोविरेचनोपगआस्थापनोपगोऽनुवासनोपगःशिरोविरेचनोपगइतिसप्तकःकयायवर्गः ॥ १८॥ . . स्नेहकर्मोपयोगी. स्वेदोपयोगी. वमनोपयोगी, विरेचनोपयोगी, आस्थापनोपयोगी, अनुरासनोपयोगी. शिरोविग्चनोपयोगी, यह सात प्रकारके क्वाथ हैं॥१८॥
छर्दिनिग्रहण आदि ३ कषाय० । छदिनिग्रहणस्तृष्णानिग्रहणोहिकानिग्रहणइतित्रिकाकषायवर्गः।। १९॥
गर्दिनिग्रहण ( छर्दिको रोकनेवाले ), प्यासको रोकनेवाले, हिचकी रोकनेवाले यह तीन प्रकारके कषाय हैं ॥ १९ ॥
पुर्गपसंग्रहणीयआदि ५ कषाय० । । · पुरीपसंग्रहणीयः पुरीपविरेजनीयोमूत्रसंग्रहणीयोमूत्रविरेज
नीयोसूत्रविरेचनीय इतिपञ्चकःकपायवर्गः ॥२०॥ नलको वांधनेवाले. मलको शुद्ध करनेवाले, अधिक मृत्रको रोकनेवाले, मूत्रको शुह करनेवाले. मृत्रको लावालं, यह पांच कषायोंका वर्ग है ॥२०॥
कासह आदि ५ कषाय० । कासहरःश्वासहरःशोथहरोज्वरहरःश्रमहरइतिपञ्चकःकपायवर्गः ।। २१ ॥ रगंलीयो इग्नवाला. श्वानका दग्नवाला.सूजनको हनेवाला, ज्वरको हरनेवाला, माग्नेवाला. यह पांच प्रकारका कपायवर्ग है ।। २१ ।।
दाहप्रशमन आदि ५ कषाय० । दाप्रशमनःशीतप्रशमनउदर्दप्रशमनोऽङ्गमईप्रशमनःशूलप्रशमन इतिपश्चकःकापायवर्गः ॥ २२ ॥
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सूत्रस्थान-अ० ४.
(३९) दाहको शमन करता शीतको शांत करनेवाला, उदर्दरोगको शांत करनेवाला, अंगमर्द ( अंगडाई) को शांत करनेवाला,शूलको शांत करनेवाला यह पांच प्रकारका कार्थोंका वर्ग है ॥२२॥
शोणितास्थापन आदि ५ कषाय० । । शोणितास्थापनोवेदनास्थापन संज्ञास्थापनःप्रजास्थापनोवयः- .
स्थापनइतिपञ्चकःकषायवर्गः । इतिपञ्चाशन्महाकषायाः ॥२३॥ रक्तको स्थापन करनेवाला, पीडाको हटानेवाला, बुद्धिको, ठहरानेवाला, संतानकारक, आयुवर्द्धक,यह पांचप्रकारका कषाय है । इसप्रकार पचास महाकषाय होतेहे ॥२३॥
५०० कपाय। · महताञ्चकषायाणांलक्षणोदाहरणार्थव्याख्याताभवान्तातेषामैककस्मिन्महाकषायेदशदशावयविकानकषायाननुव्याख्यास्यामः। तान्येवपञ्चकषायशतानिभवन्ति ॥ २४॥ ऊपर कह पचास ५० कषायोंके लक्षण उदाहरणके लिये कहेहैं । अब उनहींमेंसे एक २ के दश २ अंगोंका वर्णन करतेहैं । वही सब मिलकर पांच सौ होतेहैं ॥२४॥
, जीवनीय १० द्रव्य । तद्यथा। जीवंकर्षभकौमेदामहामेदाकाकोलीक्षीरकाकोलीमद्माषपर्णीजीवन्तीमधुकमितिदशेमानिजीवनीयानिभवन्ति ॥ २५॥ जैसे-जीवक, ऋषभक, मेदा, महामेदा, काकोली, क्षीरकाकोली, मुद्गपर्णी, माषपर्णी, जीवती, मुलहटी, यह दश औषधियोंका जीवनीय गण है ॥ २५ ॥
. बृहणीय १० द्रव्य । क्षीरिणीराजक्षवकबलाकाकोलीक्षीरकाकोलीवाटयायनीभद्रौदनीभारद्वाजीपयस्यर्ण्यगन्धाइतिदशेमानिबृहणीयानिभवन्ति ॥ २६ ॥ क्षीरविदारी, राजक्षवक (दूधिया ), खरटी, काकोली, क्षीरकाकोली, सफेद खरटी, सहदेई, वनकपास, विदारीकन्द, विधायरा, यह दश औषध बृंहणीय गण हैं ॥ २६ ॥
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चरकसंहिता - भा० टी० ।
लेखनीय १० द्रव्य |
मुस्तकुष्ठहारेद्रादारुहरिद्रावचातिविषाकटुरोहिणीचित्रकाचे - रविल्व है ममत्यइतिदशेमानिलेखनीयानि भवन्ति ॥ २७ ॥
( ४० )
नागरमोथा, कूठ, हलदी, दारूहल्दी, वच, अतीस, कुटकी, चित्रक करंज, सफेद वच, यह लेखनीय दशक है ।। २७ ।।
भेदनीय १० द्रव्य ।
सुवहाक रुवकाग्निमुखीचित्रा चित्रकचिरबिल्वशंखिनीशकुलादनी स्वर्णक्षीरिण्यइतिदशेमानि भेदनीयानि भवन्ति ॥ २८ ॥ निशांत, आक, एरंड, भलावे, दंती, चित्रक, कंजा, शंखिनी (गुलाचीन ) कुटकी, स्वर्णक्षीरी (सत्यानासी ) यह दश औषधी भेदन करनेवाली हैं ॥ २८ ॥ सन्धानीय १० द्रव्य |
मधुकमधुपर्णी पृश्निपर्ण्यम्चष्ट की समङ्गामोचरसधातकीलोभप्रियंगुकट्फलानीतिदशेमानिसंधानीयानि भवन्ति ॥ २९ ॥
मुलहटी, गिलोय, पृष्ठपर्णी, पाटला, वाराहकांता, मोचरस, धावेके फूल, लोध, प्रियंगु, कायफल, यह दश औषध संधानीय ( जोडनेवाली ) हैं ( कहीं संधारणीय पाठ है जिसका अर्थ मलको धारणकरनेवाली हो सकता है ) ॥ २९ ॥ दीपनीय १० द्रव्य ।
पिप्पलीपिप्पलीमूलचव्यचित्रकशृङ्गवेराम्लवेतस मरिचाजमोदा भल्लातकास्थिहिंगुनिर्यासाइतिदशेमा निदीपनीयानिभवन्ति ॥ ३० ॥
इतिपट्ककषायवर्गः ।
पीपल. पीपलामूल, चव्य, चित्रक, सोंठ, अम्लवेत मिर्च, अजवायन, भलावे की मांगी, हींग. यह दश ओषध अग्रिको दपिन करनेवाली हैं यह ६ कषायांका घरी है ॥ ३० ॥
वलकारक १० द्रव्य |
ऐन्द्रीऋपभ्यतिरसुर्ण्यप्रोक्ता पयस्थश्वगंधास्थिरारोहिणीवलातिबलाइतिदशेमानिवल्यानिभवन्ति ॥ ३१ ॥
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सूत्रस्थान - अ० ४.
( ४१ ) .
इंद्रायणं, कौंच, सतावर, विधायरा, विदारीकंद, असगंध, शालपर्णी, कुटकीचला, अतिचला, यह दश बलदायक औषध हैं ॥ ३१ ॥
वर्णशोधक १० द्रव्य | चन्दनतुङ्गपद्मकोशी र मधुक मंजिष्ठाशारिवापयस्यासितालता इति दशेमानिवर्ण्यानि भवन्ति ॥ ३२ ॥
चंदन, तुंग, नागकेशर, पद्मकाष्ठ, खस, मुलैठी, मजीठ, सारिवा, क्षीरका कोली, सफेद दूब यह दश औषध वर्णकारक ( देहका रंग सुधारक ) हैं ॥ ३२ ॥ उत्तम कण्ठ करनेवाले १० द्रव्य
शारिवेक्षुमूलमधुकपिप्पलीद्राक्षाविदारी कैटर्यहंसपदी बृहतीकण्टकारिकइतिदशेमानिकण्ठयानिभवन्ति ॥ ३३ ॥
सारिवा, इक्षुमूल, मुलैठी, पीपल, मुनक्का, बिदारीकंद, कायफल, लाजवंती, बडी कटेली, कटेली, यह दश औषध कंठको शुद्ध करती हैं ॥ ३१ ॥ हृदय के हितकारक १० द्रव्य ।
आम्राम्रातकनिकुचकरमर्दवृक्षाम्ला म्लवेतसकुवलबदरदाडि - ममातुलुङ्गानीतिदशेमानिहृद्यानि भवन्ति ॥ ३४ ॥ इति चतुष्कः कषायवर्गः ।
आम, अंवाडा, वडहर, करौंदा, इमली, अम्लवेत, कलमी वेर, जंगली बेर, दाडिम, विजौरा, यह दश हृदयको प्रिय हैं । यह चार कषायोंका वर्ग हुआ ॥ ३४ ॥
तृप्तिनाशक १० द्रव्य । नागरचित्रकचव्यविडङ्गमर्वागुडूचीवचामुस्तपिप्पलीपटोला - नीतिदशेमानितृप्तिन्नानि भवन्ति ॥ ३५ ॥
सोंठ, चीता, चव्य, विडंग, मूर्वा, गिलोय, वच, मोथे, पीपल, पटोल, यह दश औषध तृप्तिनाशक ( रुचिकारक ) हैं ॥ ३५ ॥
अर्शोनाशक १० द्रव्य | कुटजबिल्वचित्रकनागरातिविषाभयाधन्वयशकदारुहरिद्रावचाचव्यानीतिदशेमानिअर्शोघ्नानिभवन्ति ॥ ३६ ॥
कुडा, वेल, चीता, सोंठ, इलायची, हरड, जवासा, दारुहलदी, वच, चव्य यह दश औषध तृप्तिनाशक हैं ॥ ३६ ॥
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चरकसंहिता - भा० टी०
कुष्ठनाशक १० द्रव्य !
खदिराभयामलकहरिद्रारुष्करसलपर्णारग्वधकरवीरविडङ्गजातिप्रवा लाइतिदशेनानिकुष्टानिभवन्ति ॥ ३७ ॥
खैरेसार, हरड, आमले, हलदी, भलावे, सप्तपर्ण, अमलतास, कनेर, विडंग, चमेलीकी कोपलें, यह दश औषध कुष्ठनाशक हैं ॥ ३७ ॥
खर्जूनाशक १० द्रव्य | चन्दननलदकृतमालनक्तमालनिम्बकुटजसर्षपमधुकदारुह
(४२)
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रिद्रामुस्तानीतिदशेमानिकण्डुघ्नानि भवन्ति ॥ ३८ ॥
रक्तचंदन, रूस, अमलतास, कंजा, निव. कुडा, ससौ, मुलैठी, दारुहलंदी, नागरमोथा, यह दशक खाजनाशक हैं ॥ ३८ ॥
कृमिनाशक १० द्रव्य |
अक्षीवमरिचगण्डीर केवूकविडङ्गनिर्गुण्डीकिणही श्वदंष्ट्रावृपपर्णिकाआखुपणिकाइतिदशेमानिकृमिघ्नानि भवन्ति ॥ ३९ ॥
सुहांजना, मिर्च, गंडीर ( समठशाक ), केबुक (केमुकवृक्ष), विडंग, संभालू, कटभी ( मालकांगुनी या कटभलिता ), गोखरू, वृषपर्णी, आखुपर्णी, यह दशक कृमिनाशक है || ३९ ॥
विषनाशक १० द्रव्य |
हरिद्रामंजिष्ठासुबहा सूक्ष्मैला पालिन्दी चन्दनकनकशिरीपतिन्धुवारश्लेष्मातकाइतिदशेसानिविषघ्नानि भवन्ति ॥ ४० ॥ इतिषट्कः कषायवर्गः ।
L
हल्दी, मंजीठ, रास्ना, इलायची छोटी, सारिवा, चंदन, निर्मलीका फल, सिरस, संभाल, लिसोडे, यह दशक विषनाशक है । यह ६ कषायका वर्ग है ॥४॥ स्तन दूधको वढनेवाले १० द्रव्य ।
वीरणेशालीषष्टिके क्षुबालिकादर्भ कुमूकाश गुन्द्रेत्कटकन्तृणसूलानीतिदशेमानिस्तन्यजननानि भवन्ति ॥ ४१ ॥
खस, शालिधान्य, षष्टिकधान, इक्षुवालिका (बडी किस्मकी डाभ ), दर्भ, कुशा, कास, गुंद्रप, टेर, उत्कट ( वरू ), कतृण (रोहिसतृण ) यह दशक स्तनोंमें दूध उत्पन्न करनेवाला है ॥ ४१ ॥
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मूत्रस्थान-अ० ४.
दुग्धशोधक १० द्रव्य । पाठामहौषधसुरदारुमुस्तमूर्वागुडूचीवत्सकफलकिराततिक्तकटुरोहिणीशारिवाइतिदशेमानिस्तन्यशोधनानिभवन्ति ॥ ४२॥ पाठा, सोंठ, देवदारु, मोथा, मूर्वा, गिलोय. इंद्रजों, चिरायता, कुटकी,सारिवा, यह दशक स्तनोंके दूधको शुद्ध करताहै ॥ ४२ ॥
.. वीर्यउत्पन्नकरनेवाल १० द्रव्य । जीवकर्षभककाकोलक्षिारकाकोलामुद्दपीमाषपर्णीमेदावृक्षरुहाजटिलाकलिङ्गाइतिदशेमानिशुक्रजननानिभवन्ति ॥४३॥ जीवक, ऋषभक, काकोली, क्षीरकाकोली. मुद्गपर्णी, माषपर्णी, मेदा, वंदा, जटामांसी, कुर्लिंग (काकडासँगी) यह दशक शुक्रको पैदाकरताहै ॥ ४३७
वीर्यशोधक १० द्रव्य ।। कुष्ठैलवालुककट्फलसमुद्रफेणकदम्बनिर्यासेक्षुकाण्डेविक्षरकवसुकोशीराणीतिदशेमानिशक्रशोधनानिभवन्ति ॥ ४४ ॥
इतिचतुष्कः कषायवर्गः । कूठ, एलवालुक, कायफल, समुद्रफेन, कदवका गोंद, ईख, कांस, तालमखाने, अगस्तियाके फूल, खस, यह दशक शुक्रको शुद्ध करताहें । यह चार कषायोंका वर्ग है ॥ ४४ ॥
स्नेहके उपयोगी १० व्य। मृद्दीकामधुकमधुपर्णीमेदाविदारीकाकोलीक्षीरकाकोलीजीवकजीवन्तीशालपर्ण्यइतिदशेमानिनेहोपगानिभवन्ति ॥४५॥ मुनक्का, मुलैठी, गिलोय, मेदा, विदारीकंद, काकोली, क्षीरकाकोली, जीवक, जोवती, शालपर्णी, यह दशक स्नेहकर्ममें उपयोगी है ॥ ४५ ॥
. .. , पसीना उत्पन्न करनेवाले १० द्रव्य । शोभाञ्जनकरण्डार्कवृश्चीरपुनर्नवायवतिलकुलत्थमाषबदराणीतिदशेमानिस्वेदोपगानिभवन्ति ॥ ४६ ॥ सुहांजना, आक, एरंड, सफेद पुनर्नवा, लाल पुनर्नवा, जा. तिल, कुलथी, उडद, वेर, यह दशक पसीना देनेमें उपयोगी है ॥.४६ ।।
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(११).
चरकसंहिता-भा० टी०।
वमनकारक १० द्रव्य । मधुमधुककाोविदारकर्बुदारणोपविदुलविम्बीशणपुष्पीसदापुप्पीप्रत्यकपुष्प्यइति दशेमानिवमनोपगानिभवन्ति ॥४७॥ शहद, मुलैठी. लाल कचनार, सफेद कचनार,कदव, जलवेत, कंदूरी,शणपुष्पी, आक, अपामार्ग. यह दशक वमनकराने में उपयोगी है ॥४७॥ ।
विरेचन प्रवर्तक १० द्रव्य । द्राक्षाकाश्मय्यपरूषकाभयामलकविभीतककुवलबदरक पीलूनीतिदशामनिविरेचनोपगानिभवन्ति ॥४८॥ दाख, कंभारी, फालसा, हरड आमले, वहेडे, वडाबर, वेर, झडीबेर, पीलूफल यह दशक विरेचन उपयोगी है ॥ ४८ ॥
मलवन्धक १० द्रव्य । त्रिवृहिल्वपिप्पलीकुष्टसर्पपवचावत्सकफलशतपुष्पामधुकमदनफलानीतिदशेमान्यास्थापनीयोपगानिभवन्ति ॥४९॥ निशोत, बिल्व. पीपल, कूठ, सौं, वच, इंद्रजौं, सौंफ, मुलैठी, मैनफल, यह । दशक आस्थापन वस्तीम उपयोगी है ॥ ४९ ॥ .
सुगन्धिकारक १० द्रव्य । रास्नासुरदामविल्वमदनशतपुप्पावृश्चीरपुनर्नवा श्योणाकाइतिदशेमानिअनुवासनोपगानिभवन्ति ॥५०॥ गस्ना. देवदारु. विल्व, मैनफल, सौफ, सफद पुनर्नवा लाल, पुनर्नवा, गोखरू, अग्णी, सानापाटा, यह दशक अनुवासन वस्तीम उपयोगी है ॥ ५० ॥
शिरोविरेचनीय १० द्रव्य ।। ज्योतिप्मतीक्षवकमरिचपिप्पलीविडङ्गशिसर्पपापामार्गतण्डलश्वेतामहाश्वेताइतिदशेमानिशिरोविरेचनोपगानिभवन्ति ५१॥
इति सप्तकः कपायवर्गः॥ मालकांगुनी. नाछिकती. मिरच. पीपल, वायविडंग, सुहांजना, सरसा. अपा. मागं बीज. सफंद कायल. वडी कोयलका वृक्ष, यह दशक शिरोविरेचन उपः यांनी । इसप्रकार मात कपायांका वर्ग है ॥५१॥
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।
. . सूत्रस्थान-अ०४.
(४५), वमन विनाशक १० द्रव्य । जम्ब्वाम्रपल्लवमातुलङ्गाम्लवदरदाडिमयवयष्टिकोशीरमल्लाजा इति दशेमानिछर्दिनिग्रहाणिभवन्ति ॥ ५२॥ जामनके पत्र,आमके पत्र, बिजौरा,खट्टा बेर, दाडिम, जव, मुलैठी, खस सोरठकी मट्टी (गोपीचन्दन ), लाजा ( धानको खील ), यह दशक वमन रोक. नेवाला है ॥५२॥
- तृषानिग्रहकर १० द्रव्य । - नागरधन्वयवासकमुस्तपर्पटकचन्दनकिराततिक्तकगुडूचीहीवेरधान्यकपटोलानीतिदशेमानितृष्णानिग्रहाणिभवन्ति॥ ५३ ।। सोंठ, जवासा, नागरमोथा, पापडा, चन्दन, चिरायता, गिलोय, खस, धनियां, पटोलपत्र, यह दश औषध प्यासको रोकती है ॥ ५३ ॥
हिचकी निवारक १० द्रव्य । , शटीपुष्करमूलवदरवीजकण्टकारिकावृहतीवृक्षरुहाभयांपिप्पलीदुरालभाकुलीरशृङ्गयइतिदशेमानिहिक्कानिग्रहाणिभवन्ति ॥ ५४॥ . .
. . इति त्रिक कषायवर्गः। कचूर पोहकरमूल, वेरकी मींगी, कटेली, वडी कटेली, आकाशवेल, हरड, पपिल, जवासा, काकडासिंगी, यह दश औषध हिचकीको हटाती हैं । यह तीन कषायोंका वर्ग: है ॥ ५४॥
मलरोधक १० द्रव्य । प्रियंग्वनन्ताम्रास्थिकट्वङ्गलोध्रमोचरससमजाधातकीपुष्पप-'
झापद्मकेशराणीतिदशेमानिपुरीषसंग्रहणानिभवन्ति ॥५५॥ प्रियंगु, सारिवा, आमकी गुठली, सोनापाठा,लोध, मोचरस,समंगाधावके फूल भाडंगी, कमलकी केशर, यह दश औषष मलको बांधती हैं ॥५५॥
पुरीष शोधक १० द्रव्य । जम्बुशल्लकीत्वक्कच्छुरामधूकशाल्मलीश्रीवेष्टकभृष्टमृत्पयस्योपलतिलकणाइतिदशेमानिपुरीषविरेजनीयानिभवन्ति ॥५६
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( ४६ )
चरकसंहिता - भा०टी० ।
जामनकी छाल, छडके वृक्षकी छाल, जवासा मुलेठी, सेमलकी छाल, सरलका गांद, भुनी हुई मिट्टी. क्षीरकाकोली, कमल, तिल, यह, दशक मलको शुद्ध करने - बाला है ॥ ५६ ॥
नूत्रके रोधक १० द्रव्य । जम्वालक्षवटकपीतनोदुम्बराश्वत्थभल्लातकाइमन्तकसोमवल्काइतिदशेमानि सूत्र संग्रहणानि भवन्ति ॥ ५७ ॥
जामन. आम, पाकर, वड, अंबाडा, गूलर, पीपल वृक्ष, भिलावा, अश्मन्तक -1 कोविदार ). खैर यह दश औषध अधिकमूत्र की रोकनेवाली हैं ॥ ५७ ॥ मूत्रशोक तथा मूत्र विरेचनीय १० द्रव्य | वृक्षादनीश्वदंष्ट्रावसुकोशीरपाषाणभेददर्भकुशकशागुन्द्रोकटमूलानीति दर्शमानिसूत्रविरेचनीयानिभवन्ति ॥ ५८ ॥
दंदा, गोरू, वसुक (अगस्तिया वृक्ष ) हुलहुल, पाषाणभेद, दर्भ, कुश, काँस, पटेर रू. यह दश औषध मूत्र लानेवाली हैं ॥ ६८ ॥ पद्मोत्पलनलिन कुसुदसौगन्धिकपुण्डरकिशतपत्र मधुकप्रियंगुधातकीपुष्पाणीतिदशेमानिसूत्रविरेजनीयानि भवन्ति ॥ ५९ ॥ इति पञ्चकः कषायवर्गः ।
कमल, नीलकमल, नलिनकमल, कुमुद ( भवूल ), सौगंधिक कमल, पुंडरीक कमल, गुलाब, मुलैठी. फूल. मिरंगु, धावेके फूल, यह दश औषधी सूत्रको शुद्ध करनेवाली है । यह पांच प्रकारका कपाचवर्गे हे ॥ ५९ ॥
कासहारक १० द्रव्य |
द्राक्षाभयामलकापिप्पलीदुरालभाशृङ्गीकण्टकारिकावृवीरपुनर्नवातामलक्यइतिदशेमानि का सहराणि भवन्ति ॥ ६० ॥
दाख. हरड आमला, पीपल. जवासा. ककडसिंगी कटेली. सफेद पुनर्नवा, लाल पुनर्नवा, भूमि आमला. यह दशक खांसीको नष्टकरनेवाली औषधियांका है ॥ ६० ॥ श्वासहर १० द्रव्य ।
शटी पुष्कर लाम्लवेतसे लाहिंग्व गुरुसुरसा तामलकोजीवन्तीचण्डाइनिदशेमानिश्वासहराणि भवन्ति ॥ ६१ ॥
कपूर. पोहकरमूल, अमलवेत, छोटी इलायची. हींग, अगर, तुलसी, भृमिश्रामला जीवति गठाना, यह दवा औषधी बासको हरनेवाली हैं ॥ ६१ ॥
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सूत्रस्थान-अ०४.
.(४७) . _शोथहारक १० द्रव्य । पाटलानिमन्थविल्वयोणाककाइमर्यकण्टकारिकाबहतीशालपर्णीपृश्निपर्णीगोक्षुरकाइतिदशेमानिशोथहराणिभवन्ति ॥६२॥ पाटला, अरणी, वेल सोनापाठा, कंभारी, कटेली, वडी कटेली, शालपर्णी, पृश्निपर्णी, गोखरू यह दश औषधि सूजनको हरनेवाली हैं ॥ ६२ ॥
वरनाशक १० द्रव्य । ' शारिवाशर्करापाठामंजिष्ठाद्राक्षापीलपरूषकाभयामलकविभीतकानीतिदशेमानिज्वरहराणिभवन्ति ॥ ३॥ सारिवा, शर्करा (तरंजवीन और शीरखीस्त या खांड), पाठा, मजीठ, मुनक्का, पीलू, फालसा; हरड, आमले, वहेडे यह दश औषध ज्वरनाशक हैं ॥ ६३ ।।
श्रमनाशक १० द्रव्य । द्राक्षाखर्जूरपियालवदरदाडिमभल्गुपरूषकेक्षुयवयष्टिकाइति। दशेलानिश्रमहराणिभवन्ति ॥१४॥ इति पञ्चकः कषायवर्गः
दाख, खजूर, चिरोंजी, वेर, अनार, गूलर,फालसा, ईख, जौ, साठीके चावल, यह दश औषधि श्रमको हरती हैं। यह पांचप्रकारका कषायवर्ग है ॥ १४ ॥
दाहनाशक १० द्रव्य । लाजाचन्दनकाश्मर्यफलमधुकशर्करानीलोत्पलोशीरशारि, • वागुडूचीहीवेराणीतिदशेमानिदाहप्रशमनानिभवन्ति॥६५॥
धानकी खील,चंदन,कंभारी, मुलैठी, मिसरी, नीलोफर,खस, सारिवा, गिलोय, नेत्रवाला, यह दश औषध दाहको शांत करतीहें ॥ ६५ ॥
शीतप्रशामक १० द्रव्य । तगरागुरुधान्यकशंगवेरभूतीकवचाकण्टकारिकाग्निमन्थश्योणाकपिप्पल्यइतिदशेमानिशीतप्रशसनानिभवन्ति ॥६६॥ तगर, अगर, धनियां, सोंठ, अजवायन, वच, कटेली, अरणी, श्योनाक, पीपल, यह दश औषध,शीतको हरनेवाली हैं ।। ६६ ॥
उदर्दशामक १० द्रव्य । तिन्दुकपियालवदरखदिरकदरलप्तपर्णाश्वकणार्जुनासनारिमे. दाइतिदशेमान्युदर्दप्रशमनानिभवन्ति ॥६७॥
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( ४८ )
चरकसंहिता - भा० टी० ।
सिंदुक (कंद ) चिरौंजी, बेर, खैरसार, सफेद कत्था, सप्तवर्ण, सालवृक्ष, अर्जुनवृक्ष, विजेसार, अरिमेद यह दश औषध उदर्दको शांत करती हैं ॥ ६७ ॥ अंगमर्दनाशक १० द्रव्य | विदारिगन्धापृश्निपर्णीवृहती कण्टकारिकैरण्डकाकोलीचन्दनोशीरैलामधुकानीतिदशेमान्यङ्गमर्द प्रशमनानि भवन्ति ॥६८॥ शालपर्णी, पृष्ठपर्णी, वडी कटेली, छोटी कडेली, एरंडकी जड़, काकोली, चन्दन, उशीर, इलायची, मुलैठी, यह दश औषध अंगमर्द को रोकती हैं ॥ ६८ ॥
शूलनाशक १० द्रव्य । पिप्पलीपिप्पलीमूलचव्यचित्रकशृङ्गवेरमरेिचाजमोदाजगंधाजाजीगण्डीराणीतिदशेमानिशूलप्रशमनानिभवन्ति ॥ ६९ ॥ इति पञ्चकः कषायवर्गः ।
१
पीपल, पीपलामूल, चव्य, चित्रक, सोंठ, मिर्च, अजवायन, अजमोद, जीरा, गंडीर, यह दश औषध शूलको शांत करती हैं । यह पांचप्रकारका कषायवगं हुआ६० रुधिरस्थापक : १० द्रव्य । मधुमधुकरुधिरमोचरसमृत्कपाललो गैरिकप्रियंगुशर्करालाजाइतिदशेमानिशोणितस्थापनानि भवन्ति ॥७०॥
शहद. मुलैठी, रुधिर ( रक्तचन्दन या केशर ), मोचरस, मट्टीका ठीकरा - लोथ, गेरू, प्रियंगु, मिश्री, लाजा (खील) यह दश औषध रुधिरको स्थापन करती हैं ॥ ७० ॥
पीडानिवारक १० द्रव्य |
शालकट्फलकदम्वपद्मकंतुंग मोचरसशिरीपवंजु लैलावालुकाशोकाइतिदशेमानिवेदनास्थापनानिभवन्ति ॥ ७१ ॥
शाल, कायफल, कदंब, पद्मकाष्ट, नागकेशर, मोचरस, सिरस, वेत, एलवालुक अशोक, यह देश पधियांकां वर्ग पीडा नष्ट करताहै ॥ ७१ ॥
संज्ञास्थापक १० द्रव्य । हिंगुकेटय्यरिमेदवचाजीरकवयःस्थागोलोमीजटिलापलंकपाशोकरोहिण्यइतिदशे मानिसंज्ञास्थापनानिभवन्ति ॥७२॥
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सूत्रस्थान-अं०४
.(४९) हींग; कैर्य (वकायनं ), अरिभेद, (दुर्गंधिवाला खैर), बच, ग्रंथिपर्ण, ब्राह्मी, जटामांसी, छड़, गूगल, कुटकी, यह दशं औषध संज्ञास्थापक (बेहोशी दूरकरनेवाले हैं ॥७२॥
सन्तानस्थापन १० द्रव्य ऐन्द्रीब्राह्मीशतवीर्य्यासहस्रवी-मोघाव्ययाशिवारिष्टावाट्य- . पुष्पीविश्वक्सेनकान्ताइतिदशेमानिप्रजास्थापनानिभवन्ति७३॥ ऐद्री (इलायची या इंद्रायण), ब्राह्मी, दूर्वा, सफेददूर्वा,पाड़र, आमला, हरड, कुटकी, खरटी, प्रियंगु यह दश औषध प्रजास्थापक हैं ।। ७३ ॥
- वयस्थापन १० द्रव्य । अमृताभयांधात्रीमुक्ताश्वेताजीवन्त्यतिरंसामण्डूकपर्णीस्थिरा पुनर्नवाइति दशेमानिवयस्थापनानिभवन्ति ॥ ७४ ॥ इति पञ्चक कषायवर्गः। गिलोय, हरडे, यावला, राना, सफेद कोयल, जीवंती, शतावर, मंजीठ, शालि पर्णी, पुनर्नवा, यह दश.औषध अवस्था (आयु) को स्थापन करते हैं। यह पांच कषायोंका वर्ग है ॥ ७४ ॥, . . . .. ..
इति पञ्चकषायशतान्यभिसमस्यपञ्चाशन्महाकषायाः महताञ्चकषायाणां लक्षणोदाहरणार्थव्याख्याताभवन्ति ॥७५॥ नहिविस्तरस्यप्रमाणमस्तिनचाप्यतिसंक्षेपोऽल्पबुद्धीनांसाम
झ्योपकल्पतेतस्मादनतिसंक्षेपणानतिविस्तरेणचोद्दष्टाः । एतावन्तोयल्पबुद्धीनांव्यवहारायबुद्धिमताञ्चस्वालक्षण्यानुमानयुक्तिकुशलानामनुक्तार्थज्ञानायेति ॥ ७६ ॥ ' ' इसप्रकार यह पांच सौ महाकषाय और इनके लक्षण उदाहरणके लिये कहदिये हैं। क्योंकि यदि इनका विस्तार करनेलगें तो अप्रमाण बढजायँगे । और अत्यंत संक्षेपसे कहनेसे अल्पबुद्धिवाले समझनेमें असमर्थ होंगे। इसलिये न अति विस्तारसे और न अति संक्षेपसे इन.. कषायोंका वर्णन करादिया है । इतना कहना ही अल्पबुद्धिवालोंको व्यवहारके लिये उत्तम है.और बुद्धिमान् तो लक्षण,अनुमान युक्ति द्वारा जो विषय कहनेसे रहगया उसको भी समझसकेंगे ॥७५ ॥७६ ॥
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(५.)
चरकसंहिता-भा० टी०। एवं वादिनभगवन्तमात्रेयसाग्नवेशउवाच । नैतानिभगवन्पञ्चकपायशतानिपूर्य्यन्ते । तानितानिह्येवाङ्गानिसंप्लवन्तेतेषुतेषुमहाकपायेष्विति ॥७७॥ तमुवाचभगवानात्रेयः। नैतदेवं बुद्धिमताद्रष्टव्यमग्निवेश ! एकोऽपिह्यनेकांसंज्ञांलभतेका
-न्तराणिकुर्वन् । तद्यथापुरुपोबहूनांकर्मणांकरणेसमों भवति । स यद्यत्कर्मकरोतितस्यतस्यकर्मणः कर्तीकरणकार्यसंप्रयुक्ततत्तगौणनामविशेषेप्राप्नोति । तद्वदौषवद्रव्यमपिद्रष्टव्यम् । यदिचैकमेवकिञ्चिद्व्यमासादयामस्तथागुणयुक्तंयत्सर्वकर्मणांकरणेसमास्यात्कस्ततोऽन्यदिच्छेदुपधारयितु- . मुपदेष्टुंवाशिष्येभ्यइति ।। ७८ ।। इसप्रकार कहतेहुए आत्रेयभगवान्से अग्निवेश कहनेलगे हे भगवन् ! यह पांचसौ कपाय पूरे नहीं होसकते क्योंकि वही २ अंग और कषायोंमें भी हैं। जैसे मुलैठी । कई जगह कषायाम गिनीजाचुकी और अलग २ एक २ अंगसे ५०० कषाय पूर्ण करनेह फिर मुलैठोके पायको किनमें लियाजाय?उसीके अनेक जगह आनेसे गणना भी पूरी नहीं होती।७७॥यह प्रश्न सुनकर भगवान् आत्रेय कहनेलगे कि हे अग्निवेश! बुद्धिमानांको इसप्रकार कहना उचितनहीं क्योंकि एक वस्तुभी अलगरकार्याक करनेसे अनेकसंज्ञाको प्राप्त होती है। जैसे एकही पुरुष अनेक कमाको अलग २ करनेकी सामर्थ्य रखता है । फिर वह जिस २ समय जिस २ कामको करतौह उसरसमय उसीर कामको करनेवाला होनेसे उसी २ गौण नामको प्राप्त होता है । उसीप्रकार औषध भी अलग २ कार्य करते अलग २ नामांको प्राप्त होती हैं । यदि एक ही द्रव्य सव काम गुणकर्ता प्राप्त होजाय और रसीस सब कार्य सिद्ध होसकें तो फिर और द्रव्यांका अपने शिष्योंको उपदेश करना ही वृथा है ( सो इन ५० दशकाम एक २ कपाय अंगभूत होनेसे मधुयष्टी आदिको कहना ही था इन दशारको ही कपायत्व हैं । एक २ में दश २ होनेसे ५०० संज्ञा होगई ) ॥ ७८॥
अध्यायका उपसंहार । तत्र श्लोकाः । यतोयावन्तियैर्द्रव्येविरेचनशतानिषट् । उक्तानिसंग्रहेणेहतथैवैपांपडाश्रयाः ॥ ७९ ॥ रसालवणवर्जाश्चक
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सूत्रस्थान -अ० ४. पायाइति संज्ञिताः । तस्मात्पञ्चविधायोनिः कषायाणामुदाहृता ॥ ८० ॥ तथाकल्पनमप्येषामुक्तंपञ्चविधंपुनः । महताञ्च कषायाणांपञ्चाशत्परिकीर्तिता ॥ ८१ ॥
यहां अध्यायका उपसंहार करते श्लोक कहते हैं । संक्षेपसे ६०० विरेचन संग्रह के लिये कहें और उनके ६ आश्रय कहेहैं । छै रसोंमें नमकको छोड़ पांच रसोंवाले कषाय होते हैं इसीलिये कपायोंकी पांच प्रकारकी योनि है । इसीप्रकार कषायोंकी कल्पना भी पांच प्रकारकी कही है । और पचास महाकषाय कहे हैं ॥ ७९ ॥ ८० ॥ ८१ ॥
पञ्चचापिकषायाणांशतान्युक्तानि भागशः । लक्षणार्थंप्रमाणंहिविस्तरस्यनविद्यते ॥ ८२ ॥
(५१)
फिर उनको ५०० कषायों में विभागसे कथन करदियाहै लक्षणार्थ कहने में विस्तारसे कथन करने की आवश्यकता नहीं ॥ ८२ ॥
नचालमतिसंक्षेपःसामर्थ्यायोपकल्प्यते ।
अल्पबुद्धेरयं तस्मान्नातिसंक्षेपविस्तरः ॥ ८३ ॥ मन्दानांव्यवहाराय बुधानांबुद्धिवृद्धये । पञ्चाशत्को ह्ययंवर्गः कषायाणामुदाहृतः ॥ ८४ ॥
और अति संक्षेपसे कहना भी अल्पबुद्धिवालों के लिये समझने में कठिन होगा । इसलिये न अति संक्षेपसे और न विस्तारसे, साधारण मनुष्योंके व्यवहारके लिये और बुद्धिमानोंको बुद्धिकी वृद्धिके लिये यह पांचसौ कषायोंका वर्ग कहा है ॥ ८३ ॥ ८४ ॥ .
तेषां कर्मसुवाह्येषुयोगमाभ्यन्तरेषुच । संयोगंचवियोगञ्चयोवेदसभिषग्वरः ॥ ८५ ॥
इति भेषजचतुष्कषविरेचनशवाश्रितीयोनाम चतुर्थोध्यायः ॥
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चरकसंहिता-भा० टी०। सो जो मनुष्य इन ६०० विरेचनोंका और ५०० कषायोंका वाह्यकर्मोम आर आभ्यंतर कामें संयोग और वियोग भलीप्रकार जानकर उपयोग करताह वही वैद्यामें श्रेष्ठ है ।। ८५॥
इति श्रीचरकप्रणातार्युवेदीयसंहितायां पटियालाराज्यांतर्गतटकसालनिवासिवद्यपञ्चरनन वैद्यरत्न पं. रामप्रसादवेद्योपाध्यायविरचितप्रसादन्याख्यभाषाटीकायां
पविरेचनशताश्रितायो नाम चतुर्थोऽध्यायः ॥ ४ ॥
-
अथ पञ्चमोऽध्यायः।
अथातोमात्राश्रितीयमध्यायंव्याख्यास्यामः। इतिहसमाहभगवानात्रेयः। अब हम मात्राश्रितीय अध्यायका कंथन करतहै। ऐसा भगवान् आत्रेय कहनेलगे ;
मात्राविचार । मात्राशीस्यात् ।आहारमात्रापुनरग्निवलापेक्षिणी ॥ यावद्ध्य- .. स्याशनमशितमनुपहत्यप्रकृतियथाकालंजरांगच्छतितावदस्य मात्राप्रमाणं वेदितव्यभवंति। तत्रशालिषष्टिकमुद्गलावकपिञ्जलैणशशशरभशम्बरादीन्याहारद्रव्याणिप्रकृतिलघून्यपि मात्रापेक्षीणिभवन्ति ॥ तथापिष्टेक्षुक्षारविकृतिमापानूपोदकपिशितादीन्याहारद्रव्याणिप्रकृतिगुरूण्यापमात्रामेवापेक्षन्त॥ नचैवमुक्तेद्रव्येगुरुलाघवमकारणं मन्यते । लघूनिहिद्रव्याणिवाय्वनिगुणवहुलानिभवन्ति । पृथिवीसोमगुणवहुलानीतराणि । तस्मात्स्वगुणादपिलघन्यग्निसन्धक्षणस्वभावान्यल्पदोपाणिचोच्यन्ते अपिसाहित्योपयुक्तानिगुरूणिपुनर्नाग्निसन्धुक्षणस्वभावान्यसामान्यादतश्चातिमात्रंदोपवान्तसौहित्योपयुक्तानिअन्यत्रव्यायामाग्निवलात् ।सैपाभवत्यग्निवलापेक्षिणीमात्रानचनापेक्षेतद्रव्यम् । व्यापेक्षयाचत्रिभागसौहि
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. सूत्रस्थान-अ०.५.
। त्यमर्द्धसौहित्यवागुरूणामुपादश्यते । लघूनामपिचनातिसौ
हित्यमग्नेर्युक्त्यर्थम् । मात्रावद्धयशनमशितमनुपहत्यप्रकृति बलवर्णसुखायुषायोजयत्युपयोक्तारमनुष्यमिति ॥१॥
मनुष्यको उचित मात्रासे भोजन करना चाहिये वह मात्रा अर्थात् आहारका 'परिमाण मनुष्यकी जठराग्निके बलके आधीन है। जो भोजन कियाहुआ मनुष्यके स्वभारमें कुछ फर्क न लावे और ठीक समयपर पचजावे उस मनुष्यके लिये वही परिमित (ठीक मात्रा) भोजन है । शालीचावल, साठी चावल,मूंग, लवा तित्तर, कृष्णसार, शशा, शरभ, शावर यह स्वभावसे ही हलके होतेहैं। परंतु फिर भी मात्रासे
अधिक सेवन करना उचित नहीं । इसीतरह पिष्टपदार्थ, खांड, गुड आदि, दूधका विकार, खोआ, रंबडी आदि,उडद और अनूपसंचारी जीवोंका मांस यह स्वभावसे ही गुरु (भारी) हैं। यह भी जितने ठीक पचसके उतनी मात्रासे सेवन करने चाहिये।
यहां पर जो इन द्रव्योंकी गुरुता, लघुता, कहींहै वह निष्प्रयोजन नहीं । क्योंकि "जितने हलके पदार्थ हैं उनमें वायु और अग्निका गुण अधिक होताहै । इसप्रकार
गुरुपदार्थोंमें पृथ्वीका गुण और सोमगुण आधिक होता है । इसी कारणसे हलके पदार्थ ठीक मात्रासे खाये हुए अपने गुणके संवबसे स्वभावसे ही अग्निदीपन और अल्पदोष होतेहैं । और भारी पदार्थ स्वभावसे ही आनके मन्द करनेवाले होते? इसलिये अधिक मात्रासे उपयोग कियेहुए दोषोंको प्रवल करतेहैं। और विना व्यायाम ( कसरत) और जठरानिकी ताकतसे गुरु (भारी) भोजन करना उचित नहीं । तात्पर्य यह हुआ कि हलके पदार्थ यथेच्छ पेट भरकर खाय परंतु भारी पदार्थ बहुत पेट भरकर न खावे किंतु आहारकी मात्रा जठराग्निके वल पर निर्भर है द्रव्यके हलकेभारीपन पर नहीं। असलमें सव पदार्थोंके खानेका क्रम यह है कि जितने हलके पदार्थ हैं उनको तीन भाग पेटभरकर खाना हित है।और जितने भारी हैं उनको आधा पेंट भर कर खाना हित है और हलका पदार्थ भी अधिक पेट भरकर खाना-जठराग्निको मंद करताहै । ठीक मात्रासे किया भोजन प्रकृति (स्व. भावः) को नहीं बिगाडता इसलिये ठीकमात्रासे कियाहुआ भोजन मनुष्योंको बल, वर्ण, सुख, आयु इनको देनेवाला होताहै ॥१॥
भोजन करने पर तुरत भोजन निषेध । भवन्तिचात्र ॥ गुरुपिष्टमयंतस्मात्तण्डुलानपृथुकानपि! .. - नंजातुभुक्तवान्खादेन्मात्रांखादेबुभुक्षितः ॥ २॥
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४)
चरकसंहिता-भा० टी०। अब यहां कहतेहैं कि जब तक पहले लियाहुआ आहार पाचन न होलेवे तक तक उसके ऊपर कोई भारी पदार्थ या पिष्टपदार्थ (मैदा, पिष्टी 'आदि) खीर चावल, चिडुवा, कदापि न खावे । जव अन्न जीर्ण होकर भूख लगी होय तव परिमाणसे भोजन करे ॥२॥
नखानेयोग्य पदार्थ। वल्लूरंशुष्कशाकानिशालूकानिविसानिच । नाभ्यस्येदोरवा- . न्मासंकृशंनैवोपयोजयेत् ॥३॥ कर्चिकांश्चकिलाटांश्चशीकरंगव्यमाहिषे । मत्स्यान्दधिचमाषांश्च यवकांश्चनशीलयेत् ॥ शुष्क मांस, शुष्कशाक, शालूक ( कमलकी डंडी), विस, अनूपादिमांस इन सवको भारी होने के कारण नित्य खानेका अभ्यास न करे और रोगादिसे सूखे जीवका मांस न खाय । छाछसे तथा और तरहसे फटाहुआ दूध, सूअरका मांस, गोमांस, (भैसका मांस ) इनको कभी भी ग्रहण न करे । मछली; दही, उडद, जी; इनको नित्य खानेका अभ्यास न करे ॥ ३ ॥ ४ ॥
सेवन योग्य पदार्थ । पष्टिकाशालिमुद्दांश्चसैन्धवामलकेयवान् । आन्तरिक्षपयःसर्जािङ्गलमधुचाभ्यसेत् ॥ ५॥ तच्चनित्यं प्रयुञ्जीतस्वास्थ्ययेनानुवर्तते ।
अजातानांविकाराणामनुत्पत्तिकरञ्चयत् ॥६॥ सटीक चावल, शाली चावल, मूंग, सेंधानमक, आमले, गेहूं, अगस्त्यो. दयसे शुद्ध आकाशका जल, दूध, घी, जांगल पदार्थ, सहद, इनको नित्य खायाकरे। जो द्रव्य देहकी स्वस्थावस्थाको न विगाडे, और रोगोंको उत्पन्न न करे वह पदार्थ खाना चाहिये ॥५॥६॥
अतऊईशरीरस्यकार्य्यमभ्यञ्जनादिकम्।
स्वस्थवृत्तमाभप्रेत्यगुणतःसंप्रवक्ष्यते ॥ ७॥ अब इसके उपरांत स्वस्थताकी रक्षाके लिये अभ्यंजनादि शरीरके कृत्य और उनके गुणांका कयन करतह ॥ ७ ॥
अंजन लगाना । सोवीरमअनंनित्यंहितमक्ष्णोःप्रयोजयेत् ।
पञ्चरानेटरात्रेयास्त्रावणार्थरसाशनम् ॥ ८॥ • मामिदमिन पाटान्तरम् ।
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- सूत्रस्थान-अ०५. सफेद सुर्मा शुद्धतापूर्वक बनाया हुआ नित्यप्रति दोनों नेत्रोंमें डालना नेत्रोंको हितकारी है।और पांचवीं या आठवीं रोत्रीमें आंखोंसे जल निकालनेके लिये रसोत डालना चाहिये ॥ ८॥
_ दिनमें लेखन अंजनका निषेध। . नहिनेत्रामयंतस्यविशेषाच्श्लेष्मतोभयम् । दिवातन्नप्रयाक्तव्यंनेत्रयोस्तीक्ष्णमञ्जनम् ॥ ९ ॥ विरेकदुर्बलादृष्टिरादित्यं । • प्राप्यसीदति । तस्मात्स्राव्यंनिशायान्तुध्रुवमञ्जनमिष्यते ॥ .॥ १० ॥ ततःश्लेष्महरंकर्महितंदृष्टेःप्रसादनम् ॥ ११ ॥
ऐसा करनेसे मनुष्यको नेत्ररोगका आंखों में नजला आनेका भय नहीं होतानिनों को स्रावित करनेवाला तीक्ष्ण अंजन दिनमें नहीं डालना चाहिये क्योंकि नेत्रोंकाजल निकलकर निर्मल नेत्रों में सूर्यका प्रकाश लगनेसे दृष्टि कमजोर पडजातीहै। इसलिये जल निकालनेवाला अंजने रात्रीको ही डालना चाहिये।और इसी कारणसे कफको नष्ट करनेवाला तीक्ष्ण अंजन रात्रिमें डालना नेत्रोंकी ज्योतिको प्रसन्न रखता: है॥९॥ १० ॥११॥
. . . अननके गुण । यथाहिकणकादीनांमलिनांविविधात्मनाम् । धौतानांनिर्मलाशुद्धिस्तैलचेलकचादिभिः ॥१२॥ एवंनेत्रेषुमत्यानामञ्जनाश्च्योतनादिभिः । दृष्टिनिराकुलाभातिनिर्मलेनभसीन्दुवत् ॥ १३ ॥ . जैसे सुवणादि धातु तेल कपडा बाल आदिके संयोगसे धुलकर स्वच्छ होजातेहैं ऐसे ही मनुष्योंके नेत्र अंजन और आश्योतन आदि कर्मसे स्वच्छ होकर जैसे निर्मल आकाशमें चन्द्रमा प्रकाशमान होताहै ऐसे निर्मल प्रकाशमान नेत्र रहतेहैं।॥१२॥१३॥
नजलानाशक धूमपान । हरेणुकांप्रियंगुञ्चपृथ्वीकांकेशरंनखम् । ह्रीवेरचन्दनपत्रंत्वगेलोशारपद्मकम् ॥ १४ ॥ध्यामकंमधुकंमांसीगुग्गुल्वगुरुशर्करम् । न्यग्रोधोदुम्बराश्वत्थप्नक्षलोधत्वचःशुभाः ॥ १५ ॥ वन्यस्वर्जरसंमुस्तंशैलेयकमलोत्पले । श्रीवेष्टकंशल्लकीञ्चशुक:
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(५६) चरकसंहिता-भा० टी.
हमथापिच.॥ १६ ॥ पिटालिम्पोच्छिरषिकांतांवतियवसं.. निभाम् । अंगुष्ठसमितांकुदिष्टांगुलसमांभिषक् ॥ १७ ॥
शुष्कांविगातांवत्तिधमनेत्रार्पितांनरः स्नेिहाकामग्निसंप्लुष्टां पिवेत्प्रायोगिकीसुखाम् ॥ १८॥ रेणुक, प्रियंगु, कालाजीरा, नागकेशर, नख, सुगंधवाला, चन्दन, तेजपत्र,तज; इलायची, खस, पद्माख, रोहिषतृण,मुलैठी,जटामांसी, गुग्गुल, अगर, मिश्री, वड़, गूलर, पीपलवृक्ष, प्लस, पठानीलोध, वंशलोचन, वडा नरसल, राल, मोथा, छारछवीला, कमल, उत्पल, सरलका गोंद, छल्लवृक्ष, शुकह (सिरस या ग्रंथिवर्ण) इन सवको पीसकर आठ अंगुल लंबे काने (सरपतेकी सीख) पर एक जौके समान . मोटा लेप करके अंगूठेके समान मोटा करके सुखालेवे सूखने पर उसमेंसे सीख निकालडाले फिर इस वचीको धीमें भिगोकर एकतर्फसे. नालमें लगादे दूसरी तर्फसे आग लगादेवे फिर इसके धूमको पान करे यह धूम नजलेको नष्ट करता- . है ॥ १४ ॥ १५ ॥ १६ ॥ १७ ॥१८॥ .
वसाघृतमधूच्छिष्टैयुक्तियुक्तैर्वरौषधैः। .
वर्तिमधुरकै कृत्वास्नैहिकधूममाचरेत् ॥ १९ । चर्वी, घी, मोम और जीवनीय दश औषधि इनको मिलाकर इनका धूम पारे । इसको स्नेहिक धूमपान कहते हैं ॥ १९ ॥
शिरोविरेचनं घूम। श्वेताज्योतिष्मतीचैवहरितालंमनःशिला ।
गन्धाश्चागुरुपत्राद्याधूमोमूद्धविरेचनम् ॥२०॥ सफेद कोयल, मालकांगुनी,हरिताल,मनसिल,अगर,पत्रजआदि गंधद्रव्य मिला कर वत्ती बनावे इसका धुआं पीनेसे शिरका विरेचन होता है ॥ २० ॥ .
धूम्रपानके गुण गोरवंशिरसःशूलंपीनसावभेदको। कर्णाक्षिशूलंकासश्चहिकावासो गलग्रहः ॥ २१॥ दन्तदौर्वल्यमानावःश्रोत्रघ्राणाक्षिदोपजः। प्रतिघ्राणास्यगन्धश्चदन्तशलमरीचकः ॥ २२ ॥ हनुमन्याग्रहःकंडक्रिमयःपाण्डतामुखे । श्लेप्मप्रसकोवैस्वव्यंगलशण्ड्यपजिविका ॥ २३ ॥ खालित्यंपिञ्जरत्वञ्चकेशा
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: सूत्रस्थान-अ० ६. ८५७ ) नांपतनन्तथा। क्षवथुश्चातितन्द्राचबुद्धमोहोऽतिनिद्रता॥२४॥ घूमपानात्प्रशाम्यतिबलभवतिचाधिकम् । शिरोरुहकपालानामिन्द्रियाणांस्वरस्यच ॥२५॥ नचवातकफात्मानोबलिनोऽप्यू
जत्रुजाः। धूमवक्रकपानस्यव्याधयःस्युःशिरोगताः ॥२६॥ • 'आं पीनेसे भारीपन,मस्तक पीडा,पीनस;अविभेदक,कानकी पीडा, नेत्रपीडा, खांसी, हिचकी, श्वास, गलेका रुकना, दांतोंकी दुर्बलता, रोममार्गका बंद होना, कान नासिका और नेत्रोंका बहना तथा दुर्गंधि, दंतपीडा, अरोचक,हनुग्रहं, मन्या स्तंभ, खाज, कृाम, पांडु, मुखसे कफका गिरना, स्वरभंग, गलशुंडी, उपजिह, खालित्य,वालोंका पीलापन व गिरनाछींक, तंद्रा, बेहोशी,अतिनिद्रा यह संब नष्ट होतेहैं । और बाल,शिर, इंद्रिय,स्वर इनका बल बढताहै ।जो मनुष्य मुखसे धूएंको श्रीकर नासिका द्वारा निकालताहै उस मनुष्यके ऊर्ध्वजत्रुवोंमें वात कफके बलवाने रोग नहीं होते और शिरमें होनेवाली वात कफकी व्याधिये नहीं होती॥२१-२६॥
धूमपानके काल । ' प्रयोगपानेतस्याष्टोकालाःसम्परिकीर्तिताः। वातश्लेष्मसमुरक्लेशःकालेष्वेषुहि लक्ष्यते ॥ २७॥ स्नात्वाभुक्त्वासमुल्लिख्य
क्षुत्त्वादन्तानविघृष्यच । नावनाञ्जननिद्रान्तेचात्मवानधूमपो '' भवेत् ॥ २८ ॥ तथावातकफात्मानोनभवन्त्यूर्द्धजत्रुजाः ।
रोगास्तस्यतुपेयाःस्युरापानास्त्रिस्त्रयस्त्रयः ॥२९॥ परंद्विकालपायीस्यादतःकालेषुबुद्धिमानाप्रयोगेस्नैहिकेत्वेवं विरेच्यंत्रिश्चतु:पिबत् ॥३०॥ धुंएके पीनेके आठ काल हैं क्योंकि वात कफके बलवान होनेके भी यही आठ काल हैं । स्नान करके,भोजन करके, वमन करके, छीकें लेकर, दतौनके पीछे, नास लेनके पीछे, अंजन करके, और सोकर उठके बुद्धिमान मनुष्य धूमपान करे।इस प्रकार धूमपान करनेसे उजत्रु (गर्दनसे.ऊपर) के होनेवाले वात और कफके रोग कभी नहीं होते । यह धूमपानके आठ काल कहे हैं,इनमें एक समय तीन २ वार धूमपान करना चाहिये।यही धूमपानका क्रम है यद्यपि.धूमपानके आठ समय कहे गये तथापि एक दिन में प्रायोगिक धूम दो समय, स्नेहिक धूम एक बार, विरेचन चूम एकदिनमें तीन चार बार पीवे ॥ २७-३०॥ .. .
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(५८)
चरकसंहिता-भा० टी० ।
उचित धूमपानके लक्षण . . . हृत्कण्ठन्द्रियसंशुद्धिलघुत्वंशिरसःशमः यथेरितानांदोषाणां सम्यक्पीतस्यलक्षणम् ॥ ३१ ॥. . . . उत्तम रीतिसे धूम्रपान किया-हृदय, कंठ, इंद्रिय इनकी शुद्धि करताहै और शिरम हलकापन लाताहै तथा संव दोषोंको चलायमान कर यथास्थानमें ठीक करदेताहे यह अच्छे धूमपानके लक्षण हैं ॥ ३१ ॥
__असमय धूमपानके उपद्रव । वाधिय॑मान्द्यंमकत्वरक्तपित्तंशिरोभ्रमम् ।
अकालेचातिपीतश्चधूमःकुर्य्यादुपद्रवान् ॥ ३२॥ अकाल धूमपान और अतिधूमपान कियाहुआ-बाधिर्य,जडता,मूकता, रक्तापितः । शिरमं चकर इन उपद्रवोंको पैदा करताहै ॥ ३२ ॥
उपद्रवशान्तिके उपाय। तत्रेष्टंसर्पिषःपानंनावनाञ्जनतर्पणम् । स्नेहिकंधमजेदोषेवायुः पित्तानुगोयदि ॥ ३३॥ शीतन्तुरक्तापत्तेस्थाच्छ्लेष्मपित्तविरूक्षणम् । परन्त्वतःप्रवक्ष्यामिधूमोयेषांविगर्हितः॥३४॥ धूम्रपानसे हुए उपद्रवोंको शांत करनेके लिये घी पिलाना, नस्य, अंजन, और तर्पण करना हित है।यदि धूमपानसे वात पित्त कुपित हों तो चिकनी क्रिया करनी चाहिये यदि रक्तपित्त कुपित हो तो शीतल क्रिया करनी और कफ पित्त कुपित हां तो रूक्ष क्रिया करना हित है । अब जिनको धूमपान न करना चाहिये उनको कहते हैं ॥ ३३ ॥ ३४ ॥
___ धूमपानके अनाधिकारी। नविरिक्त पिवेधमनकृतेवास्तिकमणि । नरक्तीनविषणात्तों नशोचीनचगर्भिणी॥ ३५॥ दस्त करायेहुए मनुष्यको धूमपान न करना चाहिये तथा वस्तिकर्मके पीछे, रक्त विकारवाला, विषति, शोकातुर, गर्भवती स्त्री, यह सब धूमपान न करें ॥ ३५॥
नश्रमेनमदेनामेनपित्तेनप्रजागरे। नमछम्रिमतृष्णासुनक्षीणेनापिरक्षते ॥ ३६॥ नमद्यदुग्धेपीत्वाचनस्नेहनचमाक्षि- .
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सूत्रस्थान - अ०.५.
(५९) कम् । धूर्मन भुक्त्वादघ्नाचनरूक्षः क्रुद्धएवच ॥ ३७ ॥ नतालुशोषेतिमिरेशिरस्यभिहते न च । नशंखकेनरोहिण्यांन मेहेनमदात्यये ॥ ३८ ॥ एषुधूममकालेषु मोहात्पिबतियोनरः । रोगास्तस्य प्रवर्द्धन्ते दारुणाधूमविभ्रमात् ॥ ३९ ॥
एवं श्रमयुक्त, मद्य पोकर, आमाजीर्णवाला, पित्तकी कुपित अवस्था में रात्रि आगाहुआ, यह भी धूमपान न करे। ऐसे ही मूर्छा, भ्रम, तृषा, क्षतक्षीण, इनसे ग्रसित मनुष्य, और मद्य, दूध, स्नेह, शहद, इनको पानकर भी धूम न पीवे । दही खाकर, रूक्ष, क्रोधयुक्त, तालुशोषी, तिमिररोगी, जिसके सिरमें चोट लगीहो, कनपटीके रोगवाला, रोहिणीरोगमें, प्रमेह में, मदात्ययमें, इनमें भी धूमपान न करे जो मनुष्य इन वर्जित रोगोंमें और अकालमें मोहवश धूमको पान करता है उस मनुष्यके धूमपानकी खराबीसे दारुण रोग वृद्धिको प्राप्त होते हैं ।। ३६- ३९ ॥ विशेष रोगों में विशेषस्थानोंसे धूमपान ।
धूमयोग्यः पिबेद्दोषेशिरोघ्राणाक्षिसंश्रये । घ्राणेनास्येनकण्ठस्थेमुखेनप्राणपोवमेत् ॥ ४० ॥ आस्येन धूमकवलान्पिवन्धाननोद्वभेत् । प्रतिलोमंग तोह्याशुधू मोहिंस्याद्धिचक्षुषी ॥ ४१ ॥ ऋज्वङ्गचक्षुस्तचेताः सूपविष्टत्रिपर्ययम् । पिबेच्छिद्रपिधायैकं नासाधूममात्मवान् ॥ ४२ ॥
जिसके मस्तक, नाक, नेत्रोंको वातादि दोष आक्रमण करलेवे तो धूमपानयोग्य वह मनुष्य नासिकाद्वारा धूमपान करके मुखमेंको धूम निकालदेवे । किंतु मुखद्वारा घूम पीकर नाकद्वारा न निकाले क्योंकि प्रतिलोम होकर धूम नेत्रोंको बिगाडदेता है, सब अंगों को नरम करके सुखपूर्वक बैठा हुआ धूमपानमें मन लगाकर नाकका एक छिद्र वेदकर दूसरे छिद्र द्वारा बुद्धिमान् मनुष्य तीन बार धूम्रपान करे ॥ ४० ॥ ४१ ॥ ४२ ॥
नेचा प्रमाण. 1.
चतुर्विंशतिकं नेत्रस्वं गुलीभिर्विरेचने । द्वात्रिंशदंगुल स्नेहेप्रयोगेऽध्यर्द्धमिष्यते ॥ ४३ ॥ ऋजुत्रिकोषाफलितं कोलास्थ्यग्रप्रमाणितम् । बस्तिनेत्र समद्रव्यं घूमनेत्रंप्रशस्यते ॥ ४४ ॥ दूराद्विनिर्गतः पर्वच्छिन्नोनाडीतनूकृतः । नेन्द्रियबाधतेधमो
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१६०)
चरकसंहिता भा० टी०। मात्राकालनिपेवितः ॥ ४५ ॥ यदाचोरश्चकण्ठश्चशिरश्चलघुतांत्रजेत् । कफश्चतनुताप्राप्तःमुपांतधूममादिशेत् ॥ ४६ ॥ विरेचन धूम्रम २४ अंगुल लंबी नाली लेना चाहिये। स्नेह धूम्रपानमें३२अंगुली और प्रायोगिक धूम्रपानमें १६ अंगुलकी नली लेवे धूम्रपानकी नली मुखकी तर्फसे ऋमपूर्वक सीधी होनी चाहिये इसके जोडमें भीतर छिद्र रहना चाहिये । इसमें तीन टुकडे होतेहे इसकी नलीका छिद्र वेरकी गुठलीके समान होना चाहिये । जिन द्रव्यांसे वस्तीके नेत्र बनतेहैं उनहीसे धूमनेत्र बनाए जातेहैं दूसरे निकलकर खिंचता हुआ धूम नालके जोडमेको होताहुआ बंधकर नलीकी ओर आवे ऐसी नली लेना वाहिये । इस प्रकार मात्रा और कालके अनुसार पीया हुआ धूम इंद्रियोंकोवाधा नहीं करता। धूम पान करते जब छाती,कंठ, मस्तक,यह हलके प्रतीत होनेलगे और तफ पतला होकर निकलने लगे तो जानना कि ठीक धूमपान किया गया ॥ ४३-४६॥
धूमपान ठीक न होनेके दोष । अविशुद्धःस्वरोयस्यकंठश्चसकफोभवेत् । स्तिमितोमस्तकश्चैवमपीतंधूममादिशेत् ॥ ४७ ॥ तालुमू चकण्ठश्चशुष्यतेपरितप्यते । तृप्यतेमुह्यतेजन्तरक्तञ्चस्रवतेऽधिकम् ॥ ४८ ॥ यदि धूमपानसे स्वर शुद्ध न हो (बिगडजाय) कंठमें कफ बोले, मस्तक भारी होजाप, तो समझो कि धूम ठीक नहीं पीयागया ॥४७॥ अति धूम्रपानसे ताल, सूर्दा, कंट, यह सूखने लगतेहैं, और तपने लगतेहैं, प्याससे और चक्कर आनेसे जीव व्याकुल होने लगताह लोहू गिरने लगता है ॥ ४८ ।।
लगतह, प्यासस शिरश्चभ्रमतेऽत्यर्थमाचास्योपजायते।
इन्द्रियाण्युपतप्यन्तेधमेऽत्यर्थनिविते ॥४९॥ शिग्म बहुत चकर आने लगतहैं, मृी आने लगती है सव इंद्रिय व्याकुल होजातहिं, इस प्रकार उपद्रव होत ॥ ४९ ॥
अणुतेलका प्रयोग। वर्मवणुतेलञ्चकाले पुत्रिपुनाचरेत् । प्रावृद्गरहसन्तेगतमेघेनभस्तले ॥ ५२ :
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. सूत्रस्थान-अ०५. अत्यंत धूमपानसे यदि देहके छिद्रोंसे रुधिर निकलनेलगे तो अणुतैलका शरीरपर मालिश करावे। परन्तु वर्षा, शरद, वसंत इन ऋतुओंमें अणुतल न लगावे और मेघाच्छन्न आकाशके दिन भी अणुतल न लगावे ॥५०॥
अणुतैलकी नस्यके गुण । नस्यकर्मयथाकालंयोयथोक्तनिषेवते । नतस्यचक्षुर्नप्राणन श्रोत्रमुपहन्यते ॥ ५१॥ नस्युःश्वेतानकपिला केशा श्मश्चणि वापुनः । नचकेशा प्रलुठ्यन्तेवद्धन्तेचविशेषतः॥ ५२ ॥ मन्यास्तम्भःशिरःशूलमर्दितंहनुसंग्रहः । पानसा वभेदौच .. शिरःकम्पश्चशाम्यति ॥५३. ॥ शिराःशिरःकपालानांसन्धयः स्नायुकण्डराः । नावनप्रणिताश्चास्यलभन्तेऽभ्यधिकंबलम्, ॥ ५४॥ मुखंप्रसन्नोपचितस्वर स्निग्धःस्थिरोमहान्। सर्वे-- न्द्रियाणांवैमल्यंबलंभवतिचाधिकम् ॥ ५५॥ नचास्यरोगाः सहसाप्रभवन्त्यूर्द्धजत्रुजाः।जीयंतश्चोत्तमाङ्गेचजरानलभते वलम् ॥ ५६ ॥ जो मनुष्य शास्त्रोक्त रीतिसे विधिपूर्वक ठीक समय नसवार लेता है उसके नेत्र, नासिका और कानोंकी शक्ति कभी नष्ट नहीं होती। और केश, डाढी, मूंछ सफेद तथा पाले नहीं होते और बाल बढते हैं।कभी उखडकर नहीं गिरते । उस मनुष्यके मन्यास्तंभ, शिरकी पीडा, अदितवायु, हनुस्तंभ, पीनस, अधसिरा, शिरका कांपना यह सब रोग शांत होते हैं। और उचित नस्यके फलसे मनुष्यके मस्तक और कपाल:की शिरा,संधि, स्नायु, कंडरा,तृप्त हो बलवान होती है मुख प्रसन्न और शुद्ध रहता, है। आवाज तर और बलवान् होजाती है।सब इंद्रियें निर्मल और अधिक बलवाली. होतीहैं।और गलेसे ऊपर होनेवाले रोग अपना प्रभाव नहीं दिखाते बुढापां आनेपर भी इसके बाल सफेद नहीं होते ॥ ५१ ॥ ५२ ॥५३ ॥५४॥ ५५ ॥५६ ॥
अणुतैल विधि । चन्दनागुरुणीपत्रंदात्विक्मधुकंबलाम् । प्रपौण्डरीकंसूक्ष्मै- . लांविडङ्गबिल्वमुत्पलम ॥ ५७ ॥ ह्रीवेरमभयंवन्यत्वङ्मस्तं सारवां स्थिराम् । सुरावंपृश्निपर्णीञ्चजीवन्तीञ्चशतावरीम्॥ . ॥ ५८ ॥ हरेणुंबृहतींव्याघ्रीसुरभीपाकेशरम् । विपाचयेच्छत
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१६२) चरकसंहिता-भा० टी०। गणेसाहेन्द्रविमलेम्मसि ॥ ५९ ॥ तैलादशगुणशेपंकपायमवतारयेत् । तेनतैलंकपायेणदशकृत्वोविपाचयेत् ॥ ६० ॥ अथास्यदशमेपाकेसमांशंछागलंपयः । दद्यादेषोणुतैलस्य नावनीयस्थसंविधिः ॥६१॥ तस्यमात्रांप्रयुञ्जीततैलस्याईपलोन्मितामास्निग्धस्विन्नोत्तमाङ्गस्यपिचुनानावनैस्त्रिभिः॥२॥ व्यहोत्यहाच्चसप्ताहमेतत्कर्मसमाचरेत् ।निवातोष्णसमाचारोहिताशनियतेन्द्रियः ॥१३॥
अणुतलक्षी विधि लिखते हैं चंदन, अगर, तेजपत्र,दारुहलदी,दालचीनी, मुलैठी, खरेंटी, पंड्यारा, छोटी इलायची, वायविडंग,वेलगिरी, कमल,नेत्रवाला, खस,केवटीमोया, तज,नागरमोथा, शारिखा, शालिपर्णी, देवदारु, पृष्ठपर्णी, जीवतो, शतावर, रेणुका,बडी कटेली. छोटी कटेली,शल्लकी, कमलकी केशर, इन सव औषधि. यांको कूटकर सौगुने वर्षाके निर्मल जलमं पकाये जव चतुर्थावशेष रहे तो उता' छानले फिर इससे दशवां हिस्सा तेल लेकर उसमें तेलकी वरावर काथ डालकर पका. , 'पानी जलकर तेल रहनेपर एक भाग हाथ फिर मिलाये इसी प्रकार दशवारमें सब काय तेलम जलादे परन्तु दशी वार इसमें वरावरका वकरीका दूध डालकर पकावे तेलमात्र शेष रहनेपर छानले इस तेलको अणु (सूक्ष्म ) तेल कहते है । इसके नस्यकी यह विधि है, दो तोला तेल लेकर पहले मस्तकको स्निग्ध करे फिर मस्तकको पसीना दे फिर तीन २ दिनके अन्तरसे रूई के फोहके साथ इस तेल की नसवार देवे इस प्रकार एक सप्ताह करे और नस्य लेनेके पीछे वासे बचकर रहे गर्मजलका व्यवहार करे, पथ्य और मित भोजन करे. जितेन्द्रिय हे ॥ ५७-६३ ॥
तेलके गुण । तैलमेतत्रिदोपतमिन्द्रियाणांवलप्रदम् ।
प्रयुञ्जानोयथाकालंयथोक्तानश्नुतेगुणान् ॥ ६४ ॥ यह तेल विदोषनाशक है और इंद्रियाको वल देता है । यह उचित रीतिसे काल आदि विचारकर सेवन कियाहुआ अनेक गुणांको करता है ।। ६४ ॥
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- सूत्रस्थान में०५..
:. दन्तधावन । आपोथिताग्रंद्वौकालौकषायंकटुतिक्तकम् । . भक्षयेद्दन्तपवनंदन्तमांसान्यवाधयन् ॥६५॥
नित्य प्रातः और सायंकाल दोनों समय कूचीयुक्तं नम्र दतौन करे दतौन कषैले, कडुए, चरपरे वृक्षकी होनी चाहिये । इसकी नरम कूचीसे एक २दांतको इस प्रकार साफ करे जिससे मसूडे न छिलजाय ॥ ६५ ।।
दन्तधावनके गुण । 'निहन्तिगन्धवैरस्य॑जिह्वादन्तास्यजंमलम्।
निष्कृष्यरुचिमाधत्तेसद्योदन्तविशोधनम् ॥ ६६ ॥ दतौन करना मुखको दुर्गन्धि और विरसताको दूर करताहै तया जीभ, दांत और 'मुखकी मैलको दूर करताहै और रुचिको उत्पन्न करताहै । दातोंको शीघ्र साफ करताहै ॥६६॥
सुवर्णादिकी जिभ्भी। सुवर्णरूप्यताम्राणिनपुरीतिमयानिच।
जिह्वानिलेखनानिस्थुरतीक्ष्णान्यनजूनिच ॥६७॥ • जीभका मैल दूर करनको सुवर्ण, चांदी, ताँवा, शीशा, पीतल, इनमेंसे किसीकी जिभ्भी होनी चाहिये वह टेढी कुछ २ नरम जो जीभको न काटडाले ऐसी होनी 'चाहिये ।। ६७॥
जिताकी स्वच्छतासे लाभ । . ... .. जिह्वामूलगतंयच्चमलमुच्छासरोधिच।
: सौगन्ध्यंभजतेनतस्माजिह्वांविनिर्लिखेत् ॥ ६८॥ उससे जीभका मैल दूर करे (कोई वृक्षकी भी मानतेहैं ) जीभका मैल उतारनेसे श्वासको रोकनेवाला मल दूर होकर मुख सुगंधित होताहै इसलिये जीभका मैल उतारडाले ॥६॥
दन्तधावनके श्रेष्ठ वृक्ष । कराकरवीरार्कमालतीककुभासनाः ।
शस्यन्तेदन्तपवनेयेचाप्येवंविधाद्रुमाः॥६९ ॥ दतौन, कंजा, कनेर, आक, मालती, कोह; विजेसार तथा और भी गुणदोषादि ' विचारकर ऐसे वृक्षकी सीधी नरम टहनीकी करनी चाहिये ।। ६९ ॥ .
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(६४)
चरकसंहिता--भा० टी०।
लवंगादि मुखमें रखनेके लाभ। धा-ण्यास्येनवैशयरुचिसौगन्धमिच्छता । जातीकटुकपगानां लवङ्गस्यफलानिच ॥७० ॥ कक्कोलकफलंपत्रंताम्बूलस्यशरी तथा । तथाकर्पूरनि-सासूक्ष्मैलायाःफलानिच॥७१ ॥ मुखका शुद्धि, रुचि, और मुगधिकी इच्छा करनेवाले मनुष्यकों जायफल, लताकस्तुरी, सुपारी, लौंग, कंकोल, शुद्ध पान, कपूर, छोटी इलायची इनको मुखमें धारण करना चाहिये ॥ ७० ॥ ७१॥
तैलगण्डूषका फल । हन्वोवलंस्वरवलंवदनापचयःपरः । स्यात्परञ्चरसज्ञानमन्नेच रुचिरुत्तमा ॥७२॥ नचास्यकण्टशोषःस्यान्नौष्ठयोःस्फुटना
द्भयम् । नचदन्ताःक्षयं यान्तिदृढमूलाभवन्तिच ॥७३॥ मुखम तेलको धारण करके कुल्ले करदेना ठोडीको बल देताहै स्वरको बलवान् करताहै । मुखकी पुष्टि, रसका परिज्ञान और अन्नमें परमरुचिको पैदा करताहै७२ तथा मुख और कण्ठका सूखना, होठोंका फटना यह कदापि नहीं होता । और दांत गिरते नहीं उनकी जडं दृढ होजातीहैं ।। ७३ ॥
नशुलन्तेनचाम्लेनहृष्यन्तेभक्षयन्तिच ॥ परानपिपरान्भक्ष्यान्तैलगण्डूपसेवनात् ॥ ७४॥ तथा दांताम पीडा, और खट्टे पदार्थके खानेसे दांत खट्टे नहीं होते और बहुत की वस्तुको भी तोडसके यह मुखमं तेल धारणकरनेका फल है ॥ ७४॥
शिरम तैल मर्दनके गुण । नित्यस्नेहाशिरसःशिरःशूलंनजायवे नखालित्यंनपालित्यं नकेशाःप्रपतन्ति च ॥ ७५ ॥वलंशिरःकपालनांविशेषेणा- . भिवर्द्धते। दृढमूलाश्चदीर्घाश्चकृष्णा केशाभवन्तिच ॥७६ ॥ इन्द्रियाणिप्रसीदन्तिसुत्वरभवतिचामलम् । निद्रालाभःसुखं चस्यान्मृनितेलनिपेवणात् ॥ ७७॥ प्रतिदिन मस्तकम तेल डालनेसे-मस्तकपीडा, खालित्य : (गंज ), वालोंका संद होना, बालोंका टूटना यह कभी नहीं होते। और मस्तक तथा कपालम वल
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सूत्रस्थान - अ० ५.
( ६५ ) आता है । केश चिकने, दृढमूल, लंबे, और काले होते हैं ।। ७६ ॥ ७६ ॥ तेलको शरीरपर मालिस करना सब इंद्रिय और त्वचाको प्रसन्न और नरम करता है तथा निद्राको और सुखको देता है ॥ ७७ ॥
कर्ण और शरीरमें तेलसे लाभ ।
नकर्णरोगावातोत्था नमन्याहनुसंग्रहः । नोच्चैः श्रुतिर्नबाधिर्य्यस्यान्नित्यंकर्णतर्पणात् ॥७८॥ स्नेहाभ्यङ्गाद्यथाकुम्भश्चर्मस्नेहविमर्दनात् । भवत्युपाङ्गादक्षश्चदृढः क्लेश सहोयथा ॥७९॥ तथाशरीरमभ्यङ्गाद्दृढं सत्वक प्रजायते । प्रशान्तमारुताबाधं क्लेशव्यायामसंग्रहम् ॥ ८० ॥ स्पर्शनेचाधिकोवायुःस्पर्शनञ्च त्वगाश्रितम्। त्वच्यश्चपरमोभ्यङ्गस्तस्मात्तंशीलयेन्नरः ॥८१॥ नचाभिघाताभिहतं गात्रमभ्यङ्गसेविनः । विकारंभजतेऽत्यर्थं वलकर्मणिवाक्वचित् ॥ ८२ ॥ सुस्पर्शोपचिताङ्गश्च बलवान् प्रियदर्शनः । भवत्यभ्यङ्गनित्यत्वान्नरोऽल्पोजरएवच ॥ ८३ ॥
प्रतिदिन कानोंमें तेल डालना - वातजानेत कान के रोग, मन्यास्तंभ, हनुस्तम्भ, ऊंचा सुनना, और वहरापन इनको दूर करता है ॥ ७८ ॥ चिकनाईके संयोगसे जैसा घड़ा मजबूत होता है और चमड़ा नरम होता है, तथा रथका पहिया मजबूत और घूमनेवाला होताहै, ऐसे ही स्नेह मर्दनसे शरीर भी मजबूत, नरम क्लेशसहनकी शक्तिवाला दृढ होजाता है बादी नष्ट होकर रोग रहित होजाता, क्लेश और श्रमको सह सकता है ! स्पर्शमें वायुकी अधिकता है और वह स्पर्श त्वचाके आधीन हैं | तेलका मालिश करना त्वचाको बलवान् करता है इसलिये मालिस करनेका नित्य अभ्यास करे ॥ ७९ ॥ ८० ॥ ८१ ॥ नित्य स्नेह मर्दन करनेवाले शरीरमें चोट आदि असर नहीं करती। कही जोरका काम करनेमें इसको कष्ट नहीं होता ॥८२॥ और उत्तम नरम अंगोंवाला, बलवान, खूबसूरत, बुढापारहित, नित्य स्नेहमर्दनके प्रभावसे होता है ॥ ८३ ॥
पांव तेल लगाने के गुणं । खरत्वं शुष्कतांरौक्ष्यंश्रमः सुतिश्च पादयोः सद्यएवोपशाम्यन्ति पादाभ्यङ्गनिषेवणात् ॥ ८४ ॥ जायते सौकुमार्य्यञ्चवलंस्थैर्यचपादयोः । दृष्टिः प्रसादं लभतेमारुतश्चोपशाम्यति ॥ ८५ ॥
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चरकसंहिता - भा० टी० 1
नचस्याद्गृध्रसीवाताः पादयोःस्फुटनंनच । नशिरास्नायुसङ्कोचः पादाभ्यङ्गेनपादयोः ॥ ८६ ॥
और पैरोंका - खरदरापन, सूखापन रूखापन, थकावट, पैरोंका सोजाना, यह सब पैपर तेल मर्दनसे शीघ्र शांत होते हैं और पैरोंमें सुकुमारता वल, दृढ़ता यह होजाते हैं । दृष्टेि प्रसन्न होती है वायु शांत होजाती है । और पादाभ्यंग करनेवाले के गृती आदि वायुके रोग, परोंका फटना, शिरा और स्नायुओंका संकोच यह कभी नहीं होते ॥ ८४ ॥ ८५ ॥ ८६ ॥
( ६६ )
स्नान के महाफल | दौर्गन्ध्यंगौरवतन्द्रां कण्डूमलमरोचकम् । स्वेदंवीभत्सतांहन्तिशरीरपरिमार्जनम् ॥ ८७ ॥ पवित्रंवृष्यमायुष्यं श्रमस्वेदमलापहम् । शरीरवलसन्धानंस्नानमोजस्करं परम् ॥ ८८ ॥ शरीरको स्पंज या गीले कपडेसे अथवा उवटनसे मर्दन करे तो शरीरकी दुर्गंध, भारीपन, तंद्रा, खुजली, मैल, अरुचि, पसीना, वीभत्सता यह सब दूर होते हैं ॥ ८७ ॥ स्नान करना - पवित्रताकारक, वृष्य, आयुवर्द्धक, श्रमनाशक, स्वेदना३. मलनाशक, बलकारक और तेजको करनेवाला है ॥ ८८ ॥
स्वच्छवस्त्र परिधान के फल ।
काम्यंयशस्यमायुष्यमलक्ष्मीन्न प्रहर्षणम् ।
श्रीमत्पारिषदंशस्तंनिर्मलाम्बरधारणम् ॥ ८९ ॥
निर्मल वस्त्रोंको धारण करनेसे -शोभा, यश, आयु, लक्ष्मी, आनंद, और सभ्यता ती तथा प्रशंसा होता है ॥ ८९ ॥
सुगन्धि पुष्पाका धारण ।
वृप्यंसौगन्ध्यमायुष्यं काम्यं पुष्टिवलप्रदम् ।
सौमनस्यमलक्ष्मीप्तं गन्धमाल्यनिपेवणम् ॥ ९० ॥
चंदन और सुगंधित फूल माला धारण करना · वृष्यता, सुगंधि, आयु, सुंदरता, पृष्टि और वल को बढाता । तथा अलक्ष्मीका नाश करता है ॥ ९० ॥
रत्नयुक्त भूषणधारणकरनेका फल |
धन्यंमङ्गल्यमायुष्यंश्रीमद्वयसन सूदनम् । हर्पणकाम्य मोजस्य रत्नाभरणधारणम् ॥ ९१ ॥
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सूत्रस्थान- ५
(६७) रल, और आभूषण धारण करना संपत्ति, मंगल, आयु, इनको बढाताहै, धनबानोंके दोषोंको दूर करताहै, तथा आनंद,काम्यता और ओजको बढ़ाता है।९१॥
.. . पाव आदिधोनेके गुण। . मेध्यम्पवित्रमायुष्यमलक्ष्मीकलिनाशनम् ।
पादयोर्मलमार्गाणांशौचाधानमभीक्षणशः ॥ ९२॥ नित्य पैरों और गुदा आदि मलमागाका धोकर शुद्ध रखना-बुद्धि, पवि. त्रता, आयु, इनको देताहै और अलक्ष्मी तथा कलियुगके दोषोंको दूर करताहै ॥ ९२ ॥
डाढीमूलके वालोंको स्वच्छ रखनेका फल । पौष्टिकंवृष्यमायुष्यंशुचिरूपविराजनम् ।
कश्मश्रुनखादनिांकल्पनसंप्रसाधनम् ॥ ९३ ॥ क्षौरकर्म कराने, नख कटानेसे तथा कंघी आदिस केशोंको साफ रखनेसे-पुष्टि, वृष्यता, आयु, पवित्रता, और सुंदरताकी वृद्धि होती है ॥ ९३ ।।
जूतेधारणके फल ।। चक्षुष्यंस्पर्शनहितंपादयोर्व्यसनापहम् ।
वल्यपराक्रमसुखंवृष्यंपादत्रधारणम् ॥ ९४ ॥ जूता पहनना-नेवों और स्पर्शको हितकारी है तथा बल, पराक्रम, सुख वीर्य, इनको करताहै ॥ ९४ ॥
छत्र आर दण्ड धारणा फल । .. ईताप्रशमनंबल्यंगुप्त्यावरणसंकरम् । धर्मानिलरजोम्बुघ्नं छत्रधारणमुच्यते । स्खलतःसंप्रतिष्ठानं शत्रूणाञ्चनिषधनम् ।अवष्टम्भनमायुष्यभयनंदण्डधारणम् ॥ ९५॥ . छतरी धारणकरना-टीडी आदि जानवरोंका गिरना, ओस, धूप, वायु, जल, धूल, पिशाच आदिकोंसे रक्षा करताहै और वल देताहै । हाथमें डंडा रखना-पांव 'चूककर गिरनेसे वचताहै, शत्रुओंको भय देताहै, देहको सहारा देताहै, और आयु -तथा वलको बढाताहै ।। ९५ ॥
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(६८)
चरकसंहिता-भा० टी०।
शरीररक्षावृत्ति धर्मपूर्वक है। नगरीनगरस्यवरथस्यैवरथीसदा।
स्वशरीरस्यमेधावीकृत्येष्ववहितोभवेदिति ॥ ९६ ॥ .. जैसे नगरका रक्षक नगरकी रक्षाके लिये और रथ हाकनेवाला रथकी रक्षाके लिये सावधान रहताहै ऐसे ही बुद्धिमान् मनुष्यको अपने शरीरके कृत्योंमें साव: धान रहना चाहिये ॥ ९६ ॥
योग्य वृत्तिकी आज्ञा । भवतिचात्र । वृत्युपायानिषेवत येस्युर्द्धाविरोधिनः। शममध्ययनञ्चैवसुखमेवंसमश्नुते ॥ ९७॥ मनुष्यको उचित है कि धर्मसे अविरोधि अर्थात् धर्मयुक्त जीविकाके उपायोंको करे (अधर्मसे जीवन निर्वाह न करे ) और इंद्रियोंको तथा चित्तवृत्तियों को शांत. भावसे रखताहुआ अध्ययन आदि करे ऐसा करनेसे दोनों लोकोंमें सुख प्राप्तः । होताहै ॥ ९७ ॥
तत्रश्लोकाः । मात्राद्रव्याणिमात्राञ्चसंश्रित्यगुरुलाघवम् । द्रव्याणांगर्हितोभ्यासायेषांयेषांञ्चशस्यते ॥ २८॥ अञ्जनं. धमवर्तिश्चत्रिविधावर्तिकल्पना। धूमपानगुणाःकालाः पानमानंचयस्ययत् ॥ ९९ ॥ व्यापत्तिचिह्नभैषज्यंधूमोयेषांविगहिंतःपेयोयथायन्मयंचनेत्रयस्यचयद्विधम्॥१०॥नस्यकम्मगुणानस्तःकार्ययच्चयथायदााभक्षयेद्दन्तपवनयथायद्यद्गुणञ्च. यत्॥१०॥यदर्थयानिचास्येनधााणिकवलग्रहे । तैलस्पये गुणादृष्टाः शिरस्तैलगुणाश्चये ॥१०२ ॥ कर्णेतैलंतथाभ्यङ्ग पादाभ्यङ्ग्रेच मार्जने । स्लानेवाससिशद्धचसौगन्ध्यरत्नधारणे॥१०॥शोचेसंहरणलोनांपादत्रच्छनधारणम् । गुणमात्राश्रितीयेऽस्मिन् यथोक्तादण्डधारणे ॥ १०४॥ इति अग्निवेशवेवन्त्रेचरकप्रतिसंस्कवेश्लोकस्थानेमात्रा
श्रितीयोनामपञ्चमोऽध्यायः ॥५॥
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सूत्रस्थान-अ० ६.. अब अध्यायका उपसंहार करतेहैं । इस अध्यायमें मात्रा, द्रव्य, और मात्राको लेकर गुरु द्रव्य और हलके द्रव्य, निंदनीय द्रव्य, द्रमोंका निंदित अभ्यास और जिनको गुरुपदार्थ पच सकतेहैं इनका वर्णन कियाहै । इसके उपरान्त क्रमसे अञ्जन चूमबत्ती, तीन प्रकारको वत्तियें धूमपानके गुण, समय; प्रमाण, धूमपानके दोष, उनका यत्न, जिनको धूम न पीना चाहिये, जैसे पीना जैसे धूमपानकी नली बनाना, जिन चीजोंसे पीना यह सव वर्णन कियाहै तथा नस्य कर्मके गुण, जो नस्य जिस प्रकार जव लेना, दतौनकी विधि, गुण, वृक्ष,कवल, तेल मुखमें धारण करनेके गुण, मस्तकमें तेल लगानेका गुण,कानमें तेल डालनेका गुण,शरीरपर तेल मलनेका गुण, पैरों में तेल मलनेका गुण, देहको उवटने यागीले वस्त्रसे मांजनेका गुण, स्नान,शुद्धवस्त्रधारण,सुगंधित चन्दनादिधारण,रत्नाभरणधारण,शौच,क्षौरकर्म,जूता पहनना, छत्र, दंडा, इन सवको धारण करनेके गुण इस मात्राश्रितीय अध्याय वर्णन कियह ॥ ९८॥ १०४ ॥ इति श्रीमहर्पिचरकप्रणीतायुर्वेदीयसंहितायां पटियालाराज्यान्तर्वतिटकसालनिवासिवैद्यपञ्चानन वैद्यरत्न पं० रामप्रसादवैद्योपाध्यायविरचितप्रसादन्याख्यभाषाटोकायां
मात्राश्रितीयो नाम पञ्चमोऽध्यायः॥५॥ .
षष्टोऽध्यायः।
-ocesअथातःतस्याशितीयमध्यायव्याख्यास्यामः । इतिहस्माह भगवानात्रेयः॥ अब हम तस्याशितीय (जो पहले भोजनसम्बन्धी कह चुके हैं उसीके विषयमें) अध्यायकी व्याख्या करतेहैं । ऐसा भगवान् आत्रेय कहने लगे।
मात्रा और ऋतुके अनुकूल भोजनसे लाभ । तस्याशितीयाध्याहाराबलंवर्णश्चवर्द्धते।
तस्यतुसात्म्यविदितंचेष्टाहारख्यपाश्रयम् ॥१॥ . ठीक मात्रासे उचित रीतिपर कियाहुआ भोजन वल और वर्णको बढाता है परन्तु जिस ऋतुमें जैसा आहार और विहार शरीरके अनुकूल हो वैसा..करनाही चल और वर्णकी वृद्धि करताहै ॥ १॥
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चरकसंहिता - भा० टी० ।
ऋतुद्वारा वर्षको अङ्गकल्पना । इहखलु संवत्सरंपडङ्गमृतुविभागेनविद्यात्तदादित्यस्योदगथनमादानं च श्रीनृतूञ् शिशिरादीन् ग्रीष्मान्तान् व्यवस्येत् वर्षादीन पुनर्हेमन्तान्तान दक्षिणायनंविसर्गञ्च ॥ २ ॥
( ७० )
ऋतुओंके विभागसे अँवत्सर छः भागांम वांटा हुआ है । इन छहों में शिशिर, वसंत, ग्रीष्म इन तीन ऋतुओं में सूर्यका उत्तरायण काल है इसीको आदानकाल कहते हैं (इस कालमें सूर्य अपनी किरणों द्वारा रसको ग्रहण करताहै) और वर्षा, शरद, हेमन्त इन तीन ऋतुओं में सूर्य दक्षिणायन होता है इसको विसर्ग काल कहते हैं ।. ( इस कालम सूर्य रसादिको त्यागता है अर्थात् छोड़ता है ) ॥ २ ॥
- आदान और विसर्गकालके गुण दोष ।
विसर्गेचपुनर्वायवोनातिरूक्षाः प्रवान्तीतरेपुनरादाने सोमश्चाव्याहतबलः। शिशिराभिर्भाभिरापूरयञ्जगदाप्याययतिशश्वदतोविसर्गः सौम्यः ॥ ३ ॥
विसर्गकालको पवन-अत्यन्त रूखी नहीं होती । किंतु आदानकालकी पवन अत्यन्त रूखी होती है । विसर्गकालमें चन्द्रमा बलवान्, सुंदर शीतल अपने प्रकाशसे जगत्को सुख देनेवाला हाताह इस कारण विसर्गकाल सौम्य होताहै ॥ ३ ॥ आदानं पुराग्नेयंतावेतावर्क वायूसोमश्चकालस्वभावमार्ग - परिगृहीताः कालत्तुरसदोषदेहवलनिर्वृत्तिप्रत्ययभताः समुपदिश्यन्ते ॥ ४ ॥
आदानकाल- अग्नितत्त्ववाला होता है और अत्यन्त रूक्ष होता है | आदानकाल और विसर्गकाल तथा सूर्य, वायु. चंद्रमा, यह सब अपने २ कालस्वभाव और गतिमं प्रवृत्त हुए काल. ऋतु, दोप. देहबल, इनको प्रवृत्त करनेवाले अर्थात् रचनेवाले कहे जाते ॥ २ ॥
तत्ररविर्भाभिराददानोजगतः
स्नेहंवायवस्तीत्ररूक्षा
श्रोपशोपयन्तः शिशिरवसन्ती प्मे पुयथाक्रमंरौक्ष्य मुत्पाद्यन्तोरुक्षानूरसानूतिक्तकषायकटुकांश्चाभिवर्द्ध.. यन्तो नृणांदविल्यमावहन्ति ॥ ५ ॥
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सूत्रस्थान-अ०६... आदानकालमें सूर्य अपनी तीक्ष्ण किरणोंसे जगत्के रसको खींचताहै । संपूर्ण वायु तीव्र और रूखा होनेसे चिकनाईको शोषण करताहै इसप्रकार सूर्य और वायु क्रमसे शिाशेर, वसंत, प्रष्मि ऋतुओंमें रूक्षताको करतेहुए कडुए, कषैले, और चपरे रसप्रधान द्रव्योंको प्रगट करतेहैं । इसलिये आदानकालमें रूक्षतासे मनुष्योंको दुर्बल करते हैं ॥५॥ :. वर्षाशरद्धेमन्तेषुतुदक्षिणाभिमुखेऽकेंकालमार्गेमेघवातवर्षाभिः
हतप्रतापेशशिनिचाव्याहतवलेमाहेन्द्रसलिलप्रशान्तसन्तापे जगत्यरूक्षारसाः प्रवर्द्धन्तेऽम्ललवणमधुरायथाक्रमंतत्रबलमुपचीयन्तेनृणामिति ॥६॥ भवतिचात्र ॥ आदावन्तेचदौर बैल्यविसर्गादानयोर्नृणाम् । मध्ये मध्यवरन्त्वन्तेश्रेष्ठमग्रेचनिदिशेत् ॥ ७॥ वर्षा, शरद और हेमंत ऋतुमें सूर्य दक्षिणमें होनेसे सूर्यके प्रतापको काल, मार्ग, मेघ, वायु, वर्षा, दवा रखतेहैं । तब चंद्रमाका प्रताप बलवान रहताहै । वर्षाके जलसे जगत्का संताप दवजाताहै इसी कारण संपूर्ण चिकने रसोंवाले द्रव्योंकी सामग्री वढतीहै । और अम्ल, लवण, मधुर रस यथाक्रम बढकर मनुष्योंके वलको बढातेहैं ॥ ६ ॥ विसर्गकालके प्रथम ( वर्षाऋतुमें) और आदानकालके अंतं (ग्रीष्म ) में मनुष्य आदिकोंम निर्वलता होतीहै । ऐसे ही आदान और विसर्गके मध्य(शरद, वसंत) में मध्यवल होताहै । और विसर्गके अंत (हेमंत ) में आर आदानके आदि (शिशिर ) में सव मनुष्यादिकोंमें पूर्ण बल होताहै ॥ ७ ॥ ..
शीतकालका वर्णन। ... . शीतेशीतानिलस्पर्शसंरुद्धोबलिनांबली । पक्काभवतिहेमन्ते ।
मात्राद्रव्यगुरुक्षमः ॥ ८ ॥ सयदानन्धनंयुक्तलभतेदेहज तदा । रसंहिनस्त्यतोवायुःशीतःशीते प्रकुप्यति ॥ ९॥ . शीतकालमें ठंढे पवनके लगनेसे शरीरके भीतर रुककर बलवान् मनुष्योंकी जठ, राग्नि वलवाली होतीहै । इसीलिये शीतकालमें जठराग्नि भारी मात्रा और गुरुभोजनको पाचन करसकती है। यदि चैतन्य जठराग्निको इंधन (आहार ) न मिले तो वह देहके रसको फूंकदेतीहै । रसके सूखनसे शरीर रूखा होजाताहै इसलिये रूक्ष, गुणयुक्त शीतल शारीरिक वायु शीतकालमें कुपित होतीहै ।। ८ ॥९॥
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(७२)
चरकसंहिता-भा० टी०। तस्मात्तुपारसमयेस्निग्धाम्ललवणानसान् । औदकानूपमांसानांमध्यानामुपयोजयेत् ॥ १०॥ विलेशयानांमांसानिप्रसहानांभृतानिच । भक्षयेन्मदिरांसीधुंमधुचानुपिबेन्नरः॥११॥ . इसलिये शीतकालमें चिकने, खट्टे, नमकीन, रसयुक्त पदार्थोंको और नलचारी (मछली आदि ) अनूपसंचारी जीवोंके मांस और प्रसह आदि विलमें रहनेवालोंके मांस, मद्य, सीधु, आर मधु इनका सेवन करे ॥ १० ॥ ११ ॥
हेमन्तमें कृत्य। . . . मोरसानिक्षुविकतर्विसांतैलंनवौदनम् । हेमन्तेऽभ्यस्थतस्तोयमुष्णञ्चायुनहीयते ॥ १२ ॥ अभ्यंगोत्सादनमूर्ध्नितैलंजन्ताकमातपम् । भजेद्भूमिगृहञ्चोष्णमुष्णंगर्भगृहंतथा ॥ १३ ॥ शीतेसुखंवृतंसेव्यंयानंशयनमासनम् ।प्रावाराजिनकौष्णेयप्रवेणीकुथकास्तृतम् ॥ १४ ॥ गुरूष्णवासादिग्धाङ्गोगुरुणाऽगुरु- } णासदा। शयनेप्रमदांपीनांविशालोपचितस्तनीम् ॥ १५॥ आलिङ्गयाऽगुरुदिग्धाङ्गीसुप्यात्समदमन्मथः प्रकामश्चनिषेवेतमैथुनशिशिरागमे ।। १६ ॥ हेमंत ऋतुम-दूध, खांड, आदि मिठाई वसा, तैल, नवीन अन्न, और गर्म जलसे स्नान इनका सेवन करनेसे आयु क्षीण नहीं होती तथा शरीर पर मालिश, उवटना, सिरम तेल लगाना, जैताक स्वेद, धूप, गर्म घर, घरके वीचका कमरा, चारों तरफसे ढकी हुई सवारी, शय्या, आसन, वाघम्बर, शाणीके और रेशमक कपडे रंग बेरंगे कंवल, गर्म और भारी वस्त्र, इनका सेवन करे तथा गाढे अगरका लेपन कियाकरे और तीखे पुष्ट स्तोंवाली, अंगरसे मुगंधित लेपन कोहुई कामदेवको भी माहित करनेवाली स्वीसे लिपटकर शयन करे और इच्छापूर्वक मैथुन करे ॥ १२-१६ ॥
शिशिर कृत्य । वर्जचदन्नपानानिलघनिवातलानिच । प्रवातंप्रमिताहारसुदमन्थं हिमागमे ॥ १७॥
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विशेषतासे निर्वातल्या शिशिर ऋतुम सबसे शीत बाधिक हो।
सूत्रस्थान-अ० ६...
(७३) शिशिर ऋतुमें भी हेमन्तके समान क्रिया करे।और,हलके,रूक्ष,वातल, अन्नपान, आयुका वेग, अल्पाहार, जलमें घुले सत्तू शर्वत आदि सेवन न करे ॥ १७ ॥
हेमन्त और शिशिरके कार्य । हेमन्तशिशिरेतुल्येशिशिरेऽल्पविशेषणम् ।रोक्ष्यमादानजंशीतमेघमारुतवर्षजम्॥ १८ ॥ तस्मा?मन्तिकःसर्वःशिशिरेविधिरिष्यते॥निवातमुष्णमधिकं शिशिरेगृहमाश्रयेत् ॥ १९ ॥ कटुतिक्तकषायाणिवातलानिलघानचा वर्जयेदन्नपानानिशिशिरेशीतलानिच ॥ २०॥ हेमन्तेनिचितःश्लेष्मादिनकृद्भाभिगीरतः। कायाग्निबाधतेरोगांस्ततःप्रकुरुतेबहून् ॥ २१ ॥ हेमन्त और शिशिर यह दोनों ऋतु वराबर ही हैं किन्तु शिशिरमें आदानजन्य रूक्ष शीत होताहै और वृष्टि, वायु आदिसे शीत अधिक होताहै इतनी विशषता है॥ १८॥ इसीलिये शिशिर ऋतुमें सब क्रिया हेमंतके समान ही करनी चाहिये । विशेषतासे निर्वात और गर्म स्थानमें रहना चाहिये । तथा कडुए, कषैले, तीते, वायुके करनेवाले हलके, शीतल पदार्थों को त्यागदेना चाहिये ॥ १९ ॥ २० ॥ हेमतम शीतसे संचित हुआ कफ वसन्तऋतुमें सूर्यकी किरणोंसे पिघलकर शरीरमें सञ्चालित हुआ शरीरकी अग्निको विगाडकर अनेक रोगोंको उत्पन्न करताहै २१॥
वसन्तमें वमनादि कर्म धरणीय द्रव्य तथा भोज्य पदार्थ । तस्माद्वसन्तेकर्माणिवमनादीनिकारयेत् । गुर्वम्लस्निग्धमधुरं दिवास्वप्नश्चवर्जयेत्॥ २२ ॥ व्यायामोद्वर्तनधमकवलग्रहमञ्जनम् । मुखाम्बुनाशौचविधिशीलयेत्कुसुमागमे ॥ २३ ॥ चन्दनागुरुदिग्धाङ्गोयवगोधूमभोजनः। शारंभशाशमैणेयंमागंलावकंपिञ्जलम् ॥ २४ ॥ भक्षयेन्निगदसीधुपिवेन्माध्वीकमेववा । वसन्तेनुपिबेस्त्रीणांकामिनीनांश्चयौवनम्॥ २५ ॥ इसालये वसन्तमें वमन विरेचनादिसे वढेहुए दोषको निकाल देना चाहिये।भारी, खट्टे,चिकने,और मीठे पदार्थ तथा दिनमें सोना इनको त्याग, देवोव्यायाम,मालिस, धूमपान, कवलग्रहण, अंजन, सुखोष्ण जलसे स्नान शौचादि अगुरु चंदनका लेपन
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(७४)
चरकसंहिता-भा०टी०॥ इनका सेवन करे । तथा जव,गेंहू, शावर, शशा, हिरन, लवा,सफेद तीतर, इनका भोजन करे और आसव, सीधु, अथवा मावकि इनको पीवे । और वसन्तऋतुम. वर्गीचों तथा स्त्रीकी जवानीका आनन्द लेवे ॥ २२ ॥ २३ ॥ २४ ॥ २५ ॥
ग्रीष्मके गुण तथा उसमें सेवनीय पदार्थ । मयखेर्जगतःसारंग्रीमेपेपीयतेरविः स्वादुशीतंद्रवंस्निग्धमन्नपानंतदाहितम्॥२६॥शीतंसशर्करमन्थंजाङ्गलान्मृगपक्षिणः। घृतंपयःसशाल्यन्नंभजनग्रीष्मेनसीदति ॥ २७॥मद्यमल्पंनवा पेयमथवासुवहूदकम् । लवणाम्लकटूष्णानिव्यायामश्चात्रवजयत्॥२८॥दिवाशीतगृहेनिद्रानिशिचन्द्रांशुशीतले । भजेच्चन्दनदिग्धाङ्ग:प्रवातहर्म्यमस्तके ॥२९॥ व्यजनैःपाणिसंस्पर्शीश्चन्दनोदकशीतलैः।सेव्यमानोभजेदास्यांमुक्तामणिविभूषितः ॥ ३० ॥ काननानिचशीतानिजलानिकुसुमानिच । ग्रीप्मकालेनिषेवेतमैथनाद्विरतोनरः ॥ ३१ ॥ ग्रीष्मऋतुम सूर्यभगवान् अपनी किरणोंसें जंगत्के सारको पीजाते हैं इसलिये ग्रीष्मऋतुम-पतले, शीतल और चिकने आहारका सेवन करना चाहिये ऐसे ही शीतल,सुगंधित, मीठे जल पीने उचित हैं।और ठंढे मिसरी मिले मंथ,जंगली जीवों का मांस.वृत.दूध,शालीचावल, इनका भोजन करनेसे मनुष्य गर्मीसे दुःखित नहीं होतााग्रीष्मऋतुम मद्य पीना उचित नहीं यदि पीनेकी आवश्यकता भी हो तो थोडा मद्य अधिक जल मिलाकर पीवे । गर्मों में नमकीन, खट्टे, चरपरे,और उष्ण पदार्थ संवन नहीं करना चाहिये । दिनमें शीतल स्थानमें रात्रीको जहाँ चन्द्रमाकी किरण पडतीहा और हवा आती हो ऐसे स्थानमं मकानके शिखर पर शीतल चन्दनादि लगाकर शयन करे और शतिल चन्दनादिसे सुगंधित जलसे भीगे पझेकी पवनका सेवन करे । तथा मणि मुक्ता आदि आभूषणोंको पहने । और घने वृक्षाके जंगल शीतल जल.सुगंधित फूल इनको सेवे।परन्तु गर्मीमें स्त्रीका सेवन न करे।।२६-३१॥
वर्षाम जठराग्निका दुर्वल होना । आदानदुर्वलेदेहेपक्ताभवातदुर्वलः । स वर्षास्वनिलादीनांदृपणैर्वाध्यतंपुनः ॥ ३२ ॥ .
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(७५)
सूत्रस्थान-अ०६. आदान कालके आकर्षणसे दुर्वलहुए देहम जठराग्नि भी दुर्वल होजातीहै । फिर वह जठराग्नि वर्षाकालके जल वायु आदिसे और भी क्षीण होजाती है ॥ ३२॥
पवनका कोप। भवाष्यान्मेघनिस्यन्दात्पाकादम्लाजलस्यच ।
वर्षास्वग्निवलेक्षीणेकुप्यन्तिपवनादयः ॥ ३३॥ वर्षाकालमें पृथ्वीकी भांफ निकलनेसे, वर्षाके होनेसे, जलका खट्टा परिपाक. होनेसे अग्नि दुर्वल होकर वातादि दोष कुपित होते हैं ॥ ३३ ॥
वर्षामें त्यागनेयोग्य कर्म। तस्मात्साधारणःसवोंविधिर्वर्षासुवक्ष्यते ।उदमन्थदिवास्वनमवश्यायनदीजलम्॥३४॥व्यायाममातपश्चैवव्यवायश्चात्र वर्जयेत् । पानभोजनसंस्कारान् प्रायःक्षौद्रान्वितान्भजेत् ॥ ॥३५॥ व्यक्ताम्ललवणस्नेहवातवर्षाकुलेऽहनि । विशेषशीते. भोक्तव्यंवर्षास्वनिलशान्तये ॥ ३६ ॥ अग्निंसंरक्षणवतायवगोधूमशालयापुराणाजाङ्गलैमासभोज्ययूषैश्वसंस्कृतः॥३७॥ पिवेत्क्षौद्रन्वितञ्चाल्पमाध्वीकानिष्टमम्वुवा । माहेन्द्रतसशीतंवाकौपंसारसमेववा ॥ ३८॥ प्रघर्षोद्वर्तनस्नानगन्ध-. माल्यपरोभवेत् । लघुशुद्धाम्बरःस्थानं भजेदक्लोदिवार्षिकम् ॥ ३९॥ इसलिये वर्षाकालमें त्रिदोष नाशक साधारण क्रियाका सेवन करे वर्षाऋतुम--. शवत आदि जलके मंथ, दिनमेंसोना, ओस, नदीका पानी, कसरत,धूपमें फिरना, मैथुन, इनको त्यागदेवे । खाने पनि के पदार्थों में मायःशहदका प्रयोग करना हितकारक है । जिसदिन हवा और वर्षा होनेसे ठंढा हारहाहो उसदिन खट्टे नमकीन, चिकने, पदार्थ खाने चाहिये । ऐसा करनेसे वर्षाकालकी वायुकी शांति होतीहै । जठराग्निकी रक्षा करनेवालेको-यव, गेहूं, पुराने चावल, और जीवनके देनेवाले जंगली जीवोंके मांसका यूष, मधुयुक्त माध्वीक और अरिष्ट, और आकाशका जल या गर्मकरके ठंढा कियाहुआ अथवा कूएका जल. सेवन करना चाहिये। देहको भीगे वस्त्रसे घिसना, उबटन लगाना, स्नान करना, गंध लगाना, माला पहनना, हलके सूखे वस्त्र, इनको धारण करना चाहिये और कीचवाले तक्ष, गीले स्थानमें न रहे ॥ ३४-३९॥
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(७६)
घरकसंहिता-भा० टी०।
दषामें रहनेके नियम । वर्षाशीतोचिताङ्गानांसहसवाकराईमाभः ततानामाचितपित्तं प्रायःशरदिकुप्यति ॥४०॥ तत्रानपानमधुरंलघुशीतंसतिक्तकम् । पित्तप्रशमनंसव्यंमात्रयासुप्रकाक्षितैः ॥४१॥ लावान्क्रपिञ्जलानेणानुरभ्राशरभाशशान् । शालीनयवगोधूमान्सेव्यानाहुर्घनात्यये ॥४२॥ तिक्तस्यसर्पिषः पानविरेकोरक्तमोक्षणम् । धाराधरात्ययेकार्यमातपस्यचवर्जनम् ॥ १३ ॥ वसांतैलमवश्यायमौदकानूपमामिषम्। क्षारंदधिदिवास्वप्नं प्राग्वातश्चात्रवर्जयेत् ॥ ४४ ॥ वर्षाऋतुके शीतसे संचित हुआ पित्त-शरदूऋतु सूर्यको किरणांसे तपायमान होकर कुपित होताहै । इसलिये शरद् ऋतु-मधुर, हलके, शीतल, कडुए, पित्तनाशक, पदार्थ क्षुधाके समय परिमाणसे खाने चाहिये। और लवा, सफेद तीतर, हिरन, मेढा, शावर, शशा, इनका मांस चावल, जौ, गेहूं इनका भोजन करना हित
। शरदतुम तिक्तपदार्थका सेवन, घृतपान, विरेचन, रक्तमोक्षण इनको करे और धूपम न फिरे । तथा-वसा, तेल, ओस, मछली, अनूपसंचारी जीवोंका मांस खार, दही, दिनम शयन, पूर्वकी वायु इनका सेवन न करे ॥ ४०-४४ ॥
पनियोग्य जल: तथा हंसोदक। दिवासूयाशुसन्तप्तंनिशिचन्द्रांशुशांतलम् । कालेनपक्वनिदोपमगस्त्येनाविषीकृतम् ॥४५॥ हंसोदकमितिख्यातंशारद विमलंशुचि । स्नानपानावगाहेपुशस्यतेतद्यथामृतम् ।। ४६ ॥ शारदांनिचमाल्यानिवासांसिविमलानिच । शरत्कालेप्रशस्यन्तेप्रदापेचंद्ररश्मयः॥४७॥
शन्दऋतु में जल-दिनमें सूर्यको किरणांसे तपकर रात्रिको चन्द्रमाकी किरणास शीतल हो कालकं प्रभावसे निर्देष होजाताहै और अगस्त्यऋषिके उदय होनेसे निर्विप होजाताहे । वह शरदऋतुका निर्मल जल हंसोदक कहाजाताहै इस पवित्र जलको स्नान. पान, अवगाहन आदिम अमृतके समान गुणकारी मानाहै शरदः ऋतु उत्तम फूलमाला, स्वच्छ स्त्र, और सायकालकी चांदनी इनका सेवन करना चाहिये ॥ ४५-४७॥
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(७७)
सूत्रस्थान - अ० ७.
ओकसात्म्य |
इत्युक्तमृतुसात्म्यंयच्चेष्टाहारव्यपाश्रयम् । उपशेतेय दौचित्यादोकसात्म्यं तदुच्यते ॥ ४८ ॥
इस प्रकार जिस २ ऋतु जैसा २ आहार विहार सात्म्य ( शरीरानुकूल ) है उसका कथन करदिया है । आहार विहारका सुखकारी अभ्यास " ओकसात्म्य 2. कहा जाता है ॥ ४८ ॥
सात्म्यका लक्षण ।
दोषाणामामयानाञ्चविपरीतगुणं गुणैः । सात्म्यमिच्छन्तिसात्म्यज्ञाश्चेष्टितंचाद्यमेवच ॥ ४९ ॥ इति ।
जो आहार विहार दोषोंसे और रोगोंसे विपरीत गुण करनेवाला अर्थात् रोगसे बचाकर आरोग्य रखनेवाला है उसको "सात्म्य" कहते हैं । सात्म्य के जाननेवाले ओकसात्म्यको भी सात्म्य ही कहते हैं ॥ ४९ ॥
तत्रश्लोकः । वृतावृतोनृभिः सेव्यमसेव्यंयच्चकिञ्चन । तस्याशितीये निर्दिष्टहेतुमत्सात्म्यमेवचेति ॥ ५० ॥
इति अग्निवेशकृतेतन्त्र चरकप्रतिसंस्कृतेतस्या शितीयोऽध्यायः ॥ ६ ॥
यहाँ अध्यायकी पूर्तिका श्लोक है कि इस तस्याशितीय अध्यायमें जो २ पदार्थ - जिस २ ऋतु सेवन करने योग्य हैं उन उनका वर्णन किया गया है कारणके अनु-सार सात्म्य अर्थात् शरीरानुकूल हैं ॥ ५० ॥
इति श्रीमहपिचरकप्रणीतायुर्वेदसंहितायां पटियाला राज्यान्तर्गतटकसालनिवासिवैद्यपञ्चानन वैद्यरत्न पं० रामप्रसादकृतप्रसादन्याख्यभाषाटीकायां तस्याशितीयो नाम षष्ठोध्यायः ॥ ६ ॥
सप्तमोऽध्यायः ।
अथातो न वेगान्धारणीयमध्यायं व्याख्यास्यामः । इति हस्माहभगवानात्रेयः ।
अब हम "न वेगान्धारणीय" नामके अध्यायकी व्याख्या करते हैं । ऐसा भगवान् आत्रेय कहने लगे ।
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६७८)
चरकसंहिता-भा० टी०। .
वेगोंके रोकनेका निषेध । नवेगान्धारयेद्धीमाजातान्मूत्रपुरीषयोः । नरेतसोनवातस्यन वम्याःक्षवथोर्नच ॥१॥ नोद्वारस्यनजृम्भायानवेगान्क्षुत्पिपासयोः । नवाप्पस्यननिद्राया न श्वासस्यश्रमेणच ॥ २ ॥ एतान्धारयतोजातान्वेगानोगाभवन्तिये। पृथक्पृथचिकि
सार्थं तन्मेनिगदतःशृणु ॥३॥ बुद्धिमान् मनुष्यको उचित है कि- मूत्र, मल, रेत, अधोवायु, छर्दि, छींक. डकार, जाई, भूख, प्यास, अश्रुपात, निद्रा, श्रमजन्यश्वास, इनके वेगोंको कनी न रोके । इनके वेग रोकनेसे जो जो रोग पैदा होतेहैं उनको अलग २ आगे वर्णन करतेहे सो तुम सुनो ॥ १॥ २ ॥३॥
मूत्रके वेगको रोकनेके दोष। वस्तिमेहनयो शलमत्रकच्छंशिरोरुजा ।
विरामोवङ्क्षणानाहःस्याल्लिङ्गमूत्रनिग्रहे ॥ ४ ॥ मूत्रका वेग रोकनेसे वस्ति और लिंगमें पीडा होतीहै । मूत्रकृच्छ, मस्तकमें पीडा देहेका नवना, पेट में पीडा, और अफारा यह उपद्रव होते हैं ॥ ४ ॥
मूत्र रुकनेपर उपाय । स्वेदावगाहनाभ्यङ्गान्सर्पिषश्चावपडिकम् ।
सूत्रेप्रतिहते-त्रिविधंबस्तिकर्मच ॥ ५ ॥ ( यत्न ) मूत्रक रुकनेमें--पसीना देना, जल में बैठना, मालिस करना, घृतपान काना, और निरूहण, अनुवासन, उत्तरवस्ति यह तीन प्रकारका वस्तिकर्म करना ॥५॥
मलरोकनमें दोष । पक्वाशयशिरःशूलंवातव!निरोधनम् ।
पिण्डिकोद्वेष्टनाध्मानं पुरीपेस्याद्विधारिते ॥६॥ मलका वेग रोकनेस- पकाशयम और शिरम पीडा, अधोवायु और विष्ठाका रुस्ला, पिंडलियाम पीडा, अमारा यह उपद्रव होते हैं ॥ ६ ॥
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(७९)
सूत्रस्थानं - अ० ७:
म रोकने में चिकित्सा |
स्वेदाभ्यङ्गावगाहाश्चवर्त्तयोवस्तिकर्म्मच । हितं प्रतिहते वर्च
स्वन्नपानं प्रमाथिच ॥ ७ ॥
( यत्न ) मलके रुकने में स्वेदन, मालिश, गरमजल में बैठना, तीन प्रकारकी वर्ती, वस्तिकर्म, और वायुको अनुलोम करनेवाले अन्नपान, इनका सेवन करे ॥ ७ ॥ वीर्यके वेगके रोकने में उपद्रव और यत्न ।
मेद्रेवृषणयोः शूलमङ्गमद्दहृदिव्यथा । भवेत्प्रतिहतेशुक्रे विवर्द्धमूत्रमेवच ॥ ८ ॥ तत्राभ्यङ्गावगाहाश्चमदिराचरणायुधाः । शालिः पयोनिरूहाञ्चशस्तमैथुनमेवच ॥ ९॥
रेत (वीर्य) के आये हुए वेगको रोकने से- लिंग और पोतोंमें पीडा अंगोंका टूटना, हृदयमें व्यर्थ, और मूत्रका रुकना यह उपद्रव होते हैं। (यत्न ) मालिश, अवगाहन, मद्यपान, मुरंगेका मांस, चावल, दूध, निरूहनवस्ती, मैथुन यह वीके वेग रोकने के उपद्रवोंको शांत करते हैं ॥ ८ ॥ ९॥
अधोवायुके रोकने में उपद्रव ।
।
वातमूत्रपुरीषाणांसङ्गाध्मानकुमोरुजा जठरेवातजाश्चान्येरोगाः स्युर्वातनिग्रहात् ॥ १० ॥
अधोवायुका वेग रोकने से - वात, मूत्र, मल, इनका रुकना तथा अफारा आलस्य, शूल, पेटमें दर्द, और वायुके रोग उत्पन्न होते हैं ॥ १० ॥
उपाय ।
स्नेहस्वेदविधिस्तत्रवर्त्तयोभोजनानिच ।
: पानानिवस्तयश्चैवशस्तंवातानुलोमनम् ॥ ११ ॥
अधोवायु के वेग रोकने के विकारशांतिके लिये-स्नेहन, स्वेदन, त्रिविधवर्तीका चूमपान, वातका अनुलोमन करनेवाले अन्न पान और वस्तिकर्म करना हित है११॥ मन रोकने से रोग और उनका उपाय ।
कण्डूकोठाऽरुचिव्यङ्गशोथ पाण्ड्वामयज्वराः । कुष्ठहृल्लास वीसपश्छिर्दिनिग्रहजागदाः ॥ १२ ॥ भुक्त्वाप्रच्छर्दनंधूमोलंघनं रक्तमोक्षणम् । रूक्षान्नपानंव्यायामोविरेकश्चात्रशस्यते ॥ १३॥
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(८)
चरकसंहिता-भा० टी०। वमनका वेग रोकनेसे-खाज, कोठेमें पीडा, अरुचि, व्यंग (छांई), सूजन, पांड, ज्वर, कुष्ठ, हृल्लास, विसर्प यह रोग होते हैं । ( यत्न ) वमन रोकनेसे हुए रोगाम भोजनके पीछे वमन कराना, धूम्रपान, लंघन, सिरामोक्षण ( फस्त), रूक्षः अन्नपानका सेवन, व्यायाम, विरेचन यह कर्म करने हितकारी है ॥ १२ ॥ १३ ॥ ..
छींक रोकनके उपद्रव और उपाय । मन्यास्तम्भःशिरःशूलमर्दितावईभेदको । इन्द्रियाणाञ्चदौर्बल्यंक्षवथोःस्याद्विधारणात् ॥ १४ ॥ तत्रोर्ध्वजत्रुकेऽभ्यङ्गः
खेदोधूसंसनावनः। हितंवातनमाद्यश्चघृतञ्चोत्तरभक्तिकम्॥१५॥ छोकके रोकनेसे-गरदनका अकडना, शिरमें पीडा, अदितवायु, अधसिरा, इंद्रियोंकी दुर्बलता यह उपद्रव होतेहैं । (यल) छींकका वेग रोकनेसे हुए रोगोंमेंगर्दनकी नाडियोंपर मालिश करना, स्वेदन, धूम्रपान, नस्य, और वायुको नाश करनेवाली क्रिया भोजनके पीछे घृतपान करना, यह क्रियाएँ हित है।। १४ ॥१५॥
डकारके रोकने में उपद्रव । हिक्काकासेऽरुचिःकम्पोविवन्धोहृदयोरसोः ।
उद्गारनिग्रहात्तत्रहिकायास्तुल्यमौषधम् ॥ १६ ॥ . डकारका वेग रोकनेसे-हिचकी, खांसी, अरुचि, कम्प, हृदय और छातीका जकडना और भारी होना यह लक्षण होतेहैं ( यल) जो यत्न हिचकांके होतेहै.. सो करे ॥ १६॥
जंभाईके रोकनमें उपद्रव । विनामाक्षेपसङ्कोचाः सुप्तिःकम्पःप्रवेपनम् ।
जृम्भायानिग्रहात्तत्रसवातघ्नमौषधम् ॥ १७ ॥ जुभाईका वेगरोकनेसे-अंगोंका नवना, आक्षपक, संकोच, तंद्रा या अंगोंका सोना, कंप, यह उपद्रव होतेहैं ( यत्न ) वातनाशक क्रिया करना हित है ॥ १७॥
क्षुधा रोकनेके उपद्रव । कार्यदौर्बल्यवैवर्ण्यमङ्गमदोंऽसचिभ्रमः ।
क्षुद्वेगनिग्रहात्तत्रस्निग्धोष्णंलघुभोजनम् ॥ १८ ॥ क्षुधाका पंग रोकनेसे-कृशता, दुर्वलता विवर्णता, अंगमर्द, अरुचि, भ्रम, यह उपद्रव होत । (यत्न ) इसम उत्तम, स्निग्ध, हलके भोजन कराना हितकारक * ॥ १८॥
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. . कप
सुत्रस्थान::अ०.५..
प्यासके रोकनमें उपद्रव ।। कण्ठास्यशोषोबाधियश्रमःश्वासोहदिव्यथा ।
पिपासानिग्रहात्तत्रशीततर्पणमिष्यते ॥ १९॥ प्यासका वेग रोकनेसे कंठ और मुखका सूखना,कानोंसे न सुनना,श्रम श्वास हृदयमें व्यथा, यह उपद्रव होतेहैं । (यल ) इसमें शीतल और तर्पण (दूध शर्वव आदि पिलाना) हित है ॥ १९ ॥
आँसू रोकनेमें उपद्रव और उपाय। . प्रतिश्यायोऽक्षिरोगश्चहृद्रोगश्चारुचिर्भमः । - बाष्पनिग्रहणात्तत्रस्वप्नोमद्यप्रियाःकथाः ॥ २०॥ __ आंसुओंका वेग रोकनेसें प्रतिश्याय, नेत्ररोग, हृद्रोग, अरुचि,भ्रम, यह उपद्रम होतेहैं (यल) इसमें सोना मद्यपीना, मीठी बातें सुनना हितकारक हैं ॥ २० ॥
निद्रारोकनेमें उपद्रव और उपाय । जृम्भाङ्गमर्दस्तन्द्राचशिरोरोगाक्षिगौरवम् ।
निद्राविधारणात्तत्रस्वप्नःसंवाहनानिच ॥ २१॥ निद्राका वेग रोकनेसे-जंभाई, अंगमर्द ( अंगडाई),तंद्रा, मस्तक और नेत्रोंका भारी प्रतीत होना यह उपद्रव होतेहैं । (यल) इसमें आनंदसे सोना,शरीरको धीरेर दबाना, या पाँवोंको हाथोंसे मलना यह हित है ॥ २१॥
___ श्वासरोकनेमें उपद्रव और उपाय । गुल्महृद्रोगसंमोहाःश्रमनिश्वासधारणात् ।
जायन्तेतत्रविश्रामोवातनाश्चक्रियाहिताः ॥ २२ ॥ परिश्रमका श्वास रोकनेसे-गुल्म, हृदयमें रोग और मोह होताहै। (यल) विश्राम करना और वातनाशक क्रिया यह सब हित है ॥ २२॥
वेगोंको कदापि न रोके। वेगनिग्रहजारोगायएतेपरिकीर्तिताः।
इच्छंस्तेषामनुत्पत्तिवेगानेतान्नधारयेत् ॥ २३॥ ....यह वेगोंको रोकनेसे जो रोग होतेहैं. उन रोगोंके उत्पन्न न होने देनेकी इच्छा बाला मनुष्य इन वेगोंको कभी न रोके ॥ २३॥
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चरकसंहिता - भा० टी० । धारणकरनेयोग्य वेग । इमांस्तुधारयेद्वेगानूहितैपप्रेित्य चेह च । साहसानामशस्तानां मनोवाक्कायकर्म्मणाम् ॥२४॥ लोभशोकभयक्रोधमान वेगान् निधारयेत् । नैर्लज्जेर्ष्यातिरागाणामभिध्यायाच्चबुद्धिमान् ॥ २५॥ परुपस्यातिमात्रस्यसूचकस्यानृतस्यच । वाक्यस्याकालयुक्तस्य - धारयेद्वेगमुत्थितम् ॥ २६ ॥ देहप्रवृत्तिर्याकाचित्वर्तते परपीडया | स्त्रीभोगस्तेयहिंसाद्यातस्या वेगान् विधारयेत् ॥ २७ ॥ इस लोक और परलोकके सुखकी इच्छावाले मनुष्यको नीचे लिखे वेगोंको रोकना चाहिये. जैसे- अयोग्य रोतिपर - साहस, मनका वेग, वाणीका वेग, शरीरका वेग, कर्मका वेग, तथा लोभ, शोक, भय, क्रोध, अभिमान इनके वेगोंको रोकना चाहिये। और बुद्धिमानको उचित है कि निर्लज्जता, ईर्ष्या, अत्यंत राग इनको भी त्याग देवे । कठोर, गढ़े, मिथ्या, वेसमय, असंगत वाक्योंके कहनेका स्वभाव या वेग भी रोकना उचित है । जिस कार्यसे किसीको दुःख हो ऐसा कार्य कभी न करें और परस्त्रीगमन, चोरी, तया हिंसा आदि अयोग्य कार्यों को भी न करें ॥ २४ ॥ २९ ॥ ॥ २६ ॥ २७ ॥
पुण्यके लाभ | पुण्यशब्दोविपापत्वान्मनोवाक्कायकर्म्मणाम् । धर्मार्थकामा
नूपुरुपः सुखो भुङ्क्तेा चनोति ॥ २८ ॥
जो मनुष्य, मन, वाणी-देह, इन कमासे निष्पाप है अर्थात् मन, वाणी, देहसे कोई पाप नहीं करता वह पवित्र धर्मात्मा पुरुष, धर्म, अर्थ, काम इनके सुखको भोगतीह और मोक्ष साधनके लिये धर्मको संचय करता है ॥ २८ ॥ व्यायामके लाभ |
(८२)
शरीर चेष्टाया चेष्टास्थैय्र्यार्थावलवर्धिनी । देहव्यायामसंख्याता मात्रयातांसमाचरेत् ॥ २९ ॥ लाघवं कर्मसामथ्यं स्थैय्यं क्लेशसहिष्णुता । दोपक्षयोऽग्निवृद्धिश्च व्यायामादुपजायते ॥ ३० ॥ जिस शारीरिक चेष्टासे- शरीरकी दृढ़ता और वल बढ़े उस चेष्टाको व्यायाम ( कसरत ) कहते हैं । वह व्यायाम जितनी शरीरकी सामर्थ्य हो उतना -
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: सूत्रस्थान - अ० ७:-:'
(८३१
ही करना चाहिये ॥ २९ ॥ व्यायाम करने से देह में हलकापन, कामकरनेकी सामथ्र्य दृढता, और कष्ट सहलेनेकी सामर्थ्य बढती है। तीनों दोष शांत होते हैं तथा जठराग्नि बलवान् होती है ॥ ३० ॥
अत्यन्त कसरतके उपद्रव ।"
श्रमः क्लमःक्षयस्तृष्णारक्तपित्तंप्रतामकः । अतिव्यायामतः कासोज्वरश्छर्दिश्चजायते ॥ ३१ ॥ व्यायाम हास्य भाष्याध्व
ग्राम्यधर्मप्रजागरान् । नोचितान पिसेवेतबुद्धिमानतिमात्रया ३२ अतिव्यायाम करनेसे थकावट, ग्लानि, क्षय, तृषा, रक्तपित्त, तमक, श्वास, खांसी, ज्वर, और वमन, होते हैं ॥ ३१ ॥ बुद्धिमानको उचित है कि व्यायाम, हास्य, भाषण, रस्ता चलना, मैथुन, जागना इनको अधिकता से सेवन न करे ॥ ३२ ॥ शक्तिके बाहर कोई कार्य न करे ।
एतानेवंविधांश्चान्यान्योऽतिमात्रंनिषेवते । गजः सिंहमिवाक
न् सहसासविनश्यति ॥ ३३ ॥
इन ऊपर लिखे कामों को जो पुरुष बहुत अधिकतासे करता है अथवा अन्य ऐसेही. कामों को अधिकता से करता है वह पुरुष जैसे सिंहको खैंचने से हाथी नष्ट होता है ऐसाशीघ्र नष्ट हो जाता है ॥ ३३ ॥
हिताहितका विचार करे ।
उचितादहिताद्धीमान्क्रमशोविरमेन्नरः। हितं क्रमेणसेवेतक्रमवात्रोपदिश्यते ॥ ३४ ॥ प्रक्षेपापचयेताभ्यां क्रमः पादांशिको भवेत् । एकान्तरततश्चोदयन्तरं त्र्यन्तरतथा ॥ ३५ ॥ क्रमेणापचितादोषाः क्रमेणोपचितागुणाः । सन्तोयान्त्यपुन - र्भावमप्रकम्याभवति ॥ ३६ ॥
जो अफीम आदि अहित पदार्थ हैं उन्हें शरीरके अनुकूल होनेपर भी सेवन न करे, यदि उनको सेवनका अभ्यास हो तो क्रमसे त्यागदेवे । इसी प्रकार दुग्धादि हित पदार्थों का सेवन अनुकूल न होनेपर भी क्रमसे अभ्यास करे। यहां सेवन और त्यागके क्रमको दिखाते हैं जिस द्रव्यंको त्यागना या ग्रहण करना चाहे उसको एकचार ही त्यागना या ग्रहण करना उचित नहीं । जिसको त्यागना चाहे उसमें से प्रथम दिन एक अंश (छोटासा हिस्सा ) कम करदें दो दिन या चार दिन बीचम
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(८४)
चरकसंहिता-भा० टी०। देकर एक अंश और कम करे, इस प्रकार चार चार दिनके अंतरसे एकरअंश कम करते२ अहित पदार्थको त्यागदेवे । इसी प्रकार एकर अंश वढाते हुए हित पदार्थका . अभ्यास करे । ऐसे ही जो २ अवगुण ( दोष) हों उनको क्रमसे छोडता २ त्यागदेवे । और गुणोंको क्रमपूर्वक अभ्यास करते २ ग्रहण करलेवे । ऐसा करनेसे गुण . निश्चल हो शरीरमं निवास करते हैं और दोष अपना बल नहीं करसकते॥३४.३६॥
वातादिकी समता विषमता। समपित्तानिलकफाः केचिद्गर्भादिमानवाः । दृश्यन्तेवातलाः केचित्पित्तलाःश्लेष्मलास्तथा ॥३७॥ तेषामनातुराःपूर्वेवातलाद्याःसदातुराः।दोषानुशयिता ह्येषांदेहप्रकृतिरुच्यते ॥३८॥ विपरीतगुणस्तेपांस्वस्थवृत्तेविधिर्हितः । समसवरसंसात्म्यं समधातोःप्रशस्यते ॥३९॥ कोई पुरुष ऐसे भाग्यवान् होते हैं जिनके शरीरमें गर्भसे ही वात, पित्त, कफ, साम्यावस्थावाले होते हैं। किसीकी प्रकृति वातकी, किसीकी पित्तकी, तथा किसीकी कफमधान होतीहै । इन सव मनुष्योंमें पहले कहेहुए (समप्रकृतिके) नीरोग रहतेहैं और वाकी तीन सदा रोगी रहतेहैं । जिसके शरीरमें जो दोष प्रधान होताहै उसके अनुसार उसकी प्रकृति कही जाती है।३७ ॥३८ ॥ जिनके शरीरमें वातादि दोष बढेहुए हैं उनके शरीरमं वायुआदि दोषोंसे विपरीत गुणवाली क्रिया हितकारक होतीह (असे वातप्रकृतिवालेको उष्ण और निग्ध तथा लवणरसयुक्त पदार्थाका सेवन हितकर है)। और जिसके शरीरम वातादिक और धातुसाम्य हो उसके शरीरमं तो सब रस सात्म्य (शरीरानुकूल ) ही होतेहैं ।। ३९ ।।
शरीरगत छिद्रांका वर्णन । द्वेअधःसप्तशिरसिखानिस्वेदमुखानि च। - मलायनानिवाध्यन्तेदुष्टेर्मात्राधिकैर्मलैः ॥४०॥ शरीरके नचिके भागमें गुदा, लिंग यह दो मलमार्ग होतेहै । ऊपरके भागम दों नेत्र. दो कान, दो नासिका, एक मुख यह सात मलमार्ग होते हैं और इनसे अन्य रोममार्ग पसीना निकालनेके मार्ग हैं।इन सबको मलमार्ग कहते हैं । मल दुष्ट होने अथवा अधिक होनसे मलमागीको दूपित करते हैं ॥ ४० ॥
मलवृद्धि आदिका ज्ञान । मलवृमिंगुरुत्वेनलाघनान्मलसंक्षयम् । मलायनानांबुच्येतल होत्सगतिविच ॥ ११ ॥
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. सूत्रस्थान-अ०७. . । .. यदि मलमार्ग भारी हों तो मल बढे हुए जानना और मलमार्गोंकेहलकेपनसे मलका क्षय जानना चाहिये । अथवा यों कहिये कि मलमार्गोंसे मल अधिक निकले तो मल बढाहुआ समझे और अत्यन्त कम होनेसे मलकी क्षीणता जाने ॥४१॥
___साध्य रोगकी चिकित्सा करे। तान्दोलिंगरादिश्यव्याधीन्साध्यानुपाचरेत् । व्याधिहेतुप्रतिद्वन्द्वात्राकालौविचारयेत् ॥४२॥ वैद्यको उचित है कि दोषोंके चित्रोंसे रोगको समझकर जो साध्य रोग हैं उनमें रोगले और रोगके कारणसे विपरीत गुणवाली चिकित्सा मात्रा और कालको विचारकर करे ॥ ४२॥
विषमस्वस्थवृत्तानामेतेरोगास्तथापरे।
जायन्तेऽनातुरस्तस्मात्स्वस्थवृत्तपरोभवेत् ॥ ४॥ · जो मनुष्य स्वस्थ अवस्थामें ही अपनी आरोग्यताको रक्षाका यत्न नहीं रखता उसको यह रोग तथा अन्यान्य रोग होतेहैं इसलिये अपने स्वास्थ्यकी रक्षामें सदैव सावधान रहना चाहिये ॥४३॥
दोष दूर करने (शोधन) का समय । . माधवप्रथमेमासिनभस्यप्रथमेपुनः।
सहस्यप्रथमेचैवहारयेद्दोषसञ्चयम् ॥४४॥ . स्निग्धस्विन्नशरीराणामूर्द्धश्चाधश्चबुद्धिमान्। वस्तिकर्मततःकु
-नस्तःकर्मचबुद्धिमान् ॥४५॥ यथाक्रमंयथायोगमतऊईप्रयोजयेत् । रसायनानिसिद्धानिवृष्ययोगांश्चकालवित् ॥ ॥४६॥रोगास्तथानजायन्तेप्रकृतिस्थेषुधातुषु। धातवश्वाभिवद्धन्तेजराचान्त्यमुपैतिच ॥४७॥ विधिरेषविकाराणामनुत्पतौनिदर्शितः। निजानामितरेषान्तुपथगेवोपदिश्यते॥४८॥ बुद्धिमान् मनुष्य चैत्र, श्रावण, मार्गशीर्ष, इन तीन महीनोंमें एक २ वार शरीरको स्नेहन और स्वेदन करके वमन, विरेचन आदिसे शरीरके और नस्य आदिसे मस्तकके दोष निकाले तथा वस्ति कर्म करे । यदि उचित समझे तो नसोंमेंसे रक्तस्त्राव करे। फिर.यथाक्रम शरीरकी सत्ता ठीक होनेपर जैसे उचित हो वैसे रसायन और वृष्य योगोंको समय आदिको जाननेवाला वैद्य प्रयुक्त करे ॥ ४४ ॥ ४५ ॥४६॥ इस प्रकार दोषोंको दूर करनेसे नीरोग मनुष्यके शरीरमें रोग उत्पन्न नहीं होते और
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( ८६ )
चरकसंहिता - भा० टी० ।
• प्रकृतिमं स्थित हुई धातुएँ वृद्धिको प्राप्त होती हैं तथा बुढापा शीघ्र नहीं आता४७॥ स्वम्य मनुष्यकी आरोग्यताकी रक्षा के लिये यह विधि कहचुकेहैं । अव शारीरिक आगंतुक, मानसिक, रोगांके विषयमें अलग कथन करते हैं ॥ ४८ ॥
I
आगन्तुरोगांका कारण । येभृतविपवाय्वग्नि संप्रहारादिसम्भवाः । नृणामागन्तवोरोगाः प्रज्ञापराध्यति ॥ ४९ ॥ ईर्ष्याशोकभयक्रोधमानद्वेपादयश्रये । मनोविकारास्तेऽप्युक्ताः सर्वे प्रज्ञापराधजाः ॥ ५० ॥ भृत. विष, वायु, अग्नि, प्रहार आदिसे उत्पन्न हुए रोगोंको आगंतुक रोग कहते हैं । यह रोग मनुष्यांकी बुद्धिके दोषसे होते हैं, अर्थात् किसी असावधानतासे होते हैं याद बुद्धिमान् विचारपूर्वक बचकर रहे तो यह रोग नहीं होते । इन रोगोंमं बुद्धिका दोष होनेसे इनको प्रज्ञापराधज कहा जाता है ॥ ४९ ॥ और ईर्ष्या, शोक, भय, क्रोध, मान, द्वेष आदि सव मनके विकार ( मानसिक रोग ) भी बुद्धि के दोष से ही होते हैं ॥ ५०॥ आगन्तुरोगों की शान्ति ।
त्यागः प्रज्ञापराधानामिन्द्रियोपशमः स्मृतिः । देशकालात्मवि-. ज्ञानंसवृत्तस्यानुवर्त्तनम्॥ ५१ ॥ आगन्तूनामनुत्पत्तावेषमार्गों निदर्शितः । प्राज्ञः प्रागेवतत्कुर्य्याद्धितं विद्यात्तदात्मनः ॥५२॥ आप्तोपदेशः प्राज्ञानांप्रतिपत्तिचकारणम् । विकाराणामनुत्पतावुत्पन्नानाञ्च शान्तये ॥ ५३ ॥
इन रोगोंम बुद्धिके कुविचारोंका त्याग, इन्द्रियोंको वशमें रखना, शास्त्रां के उपदेशांका स्मरण, देश काल और आत्माका ज्ञान, अच्छे महात्माओंके सुयोग्य आचरणका सेवन, यह आगंतुक रांगाके न होने का मार्ग दिखाया है अर्थात् इन आचरणांके सेवनसे आगंतुक रोग होते ही नहीं । इसलिये बुद्धिमानको आत्माकं हितकार्यका प्रथमसे ही सेवन करना चाहिये ॥ ५१ ॥ ५२ ॥ प्रामाणिक भद्रपुरुष के उपदेश और प्राज्ञपुरुषों के सिद्धांत पर चलना आगन्तुक विकारोंको उत्पन्न नहीं होने देता और उत्पन्न हुए विकारोंकी शांति करता है ॥ ५३ ॥
दूषित पुरुषर्क संग दोष ।
पापवृत्तवचःसत्त्वाःसूचकाः कलहप्रियाः। मम पहासिनोलुब्धाः परवृद्धिद्विपः शठाः || ५४॥ परापवादरतयः परनारीप्रवेशिनः । निर्वृणास्त्यक्तधर्माणः परिवर्ज्यानराधमाः ॥ ५५ ॥
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सूत्रस्थान - अ० ७.
· (८७)
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पापके आचरणवाले, पापयुक्त वाक्य कहनेवाले, पापी मनवाले, झूठे, दभी, 'कलहप्रिय, दूसरोंके चित्तों को दुःखप्रद हास्य करनेवाले, अतिलोभी, पराई समृद्धिको देखकर जलनेवाल, शठ, पराईं निंदामें रत रहने वाले, परस्त्रीगामी, निर्दयी, धर्मसेंविहीन ऐसे अधम मनुष्यों का संग कभी नहीं करनी चाहिये ॥ ५४ ॥ ५५ ॥ सेवन करने योग्य पुरुष बुद्धिविद्यावयः शीलधैय्र्यस्मृतिसमाधिभिः । वृद्धोपसेविनो वृद्धाःस्वभावज्ञागतव्यथाः ॥ ५६ ॥ सुमुखाः सर्वभूतानां प्रशान्ताः शंसितव्रताः I सेव्याःसन्मार्गवक्तारः पुण्यश्रवणदर्शनाः ॥ ५७ ॥
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जो मनुष्य बुद्धि, विद्या, अवस्था, शीलता, धैर्य, स्मृति, समाधि, इन गुणोंसे युक्त हो तथा वृद्ध पुरुषोंकी सेवा कियाहुआ हो और स्वयं भी योग्य या वृद्ध हो, जिसको दुनिया के हाल मालूम हों, जिसके चित्तमें ईर्ष्या आदि विकार न हों, उत्तम सत्य, मीठे वाक्य बोलनेवाला हो, जो सबसे शांतिपूर्वक बर्ताववाला हो, और जिनका शुद्ध आचार हो तथा अच्छे मार्गका उपदेश करनेवाला हो जिसका दर्शन पुण्यकारक हो, ऐसे भद्रपुरुषका संग अवश्य करना चाहिये ॥ ५६ ॥ ५७ ॥ भोजन आदिमें नियम | आहाराचारचेष्टासुसुखार्थीप्रेत्य चेह च । परंप्रयत्नमातिष्ठेद्बुद्विमान् हितसेवने ॥ ५८ ॥ ननक्तंदधिभुञ्जीतन चाप्यघृतशकरम् । नामुद्गसूपनाक्षौद्रनोष्णनामलकैर्विना ॥ ५९ ॥ अलक्ष्मी दोषयुक्तत्वान्नक्तन्तुदधिवर्जितम् । श्लेष्मणस्यात्ससर्पिष्कंदधिमारुतसूदनम् ॥६०॥ नचसन्धुक्षयेत्पित्तमाहारचं विपाचयेत् । शर्करा संयुतं दद्यात्तृष्णा दाहनिवारणम् ॥ ६१ ॥ मुद्गसूपेनसंयुक्तं दद्याद्रक्तानिलापहम् । सुरसञ्चाल्पदोपञ्चक्षैौद्रयुक्तं भवेद्दधि ॥ ६२ ॥ उष्णंपित्तास्रकंद्दोषान्धात्रीयुकन्तुनिर्हरेत् । ज्वरास पित्तवीसर्पकुष्ठपाण्ड्रामयभ्रमान् ॥६३॥ प्राप्नुयात्कामलाञ्चाग्रांविधिहित्वादधिप्रियइति ॥६४॥ बुद्धिमान मनुष्य इस लोक और पर लोकके सुखकी इच्छा करता हुआ हितका रक आहार विहारका यत्नसे सेवन करता है ॥ ५८ ॥ रात्रिके समय दहो न खावे !
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(८८)
चरकसंहिता-भा० टा. इसी प्रकार घी खांडके बिना अथवा मुंग या आमलेके यूष विना, या शहतके विना मिलाये दही न खावे और गरम करके भी दही न खाय, रात्रिम दही खानेसे लक्ष्मीका नाश होताहै इस लिये रात्रिको दही नहीं खाना चाहियेोघीयुक्त दही कफको करताहै और वायुको हरताहै और पित्तको कुपित नहीं करता, तथा भोजनको पचाताहै खांड मिलाकर दही खानेसे दाह और तृषाशांत होतेहैं।मूंगके यूषके साय दही खानेसे वायु शांत होताहै। शहत मिली दही सुस्वाद होती है और उसमें कफका दोष क्षीण होजाताहै।गर्म दही रक्तपित्तको करतीहै।आमलेके यूषसे त्रिदोषको हरतीहं । जो मनुष्प विना विधिसे दहीका सेवन करताहै उसको ज्वर, रक्तपित्त, विसर्प, कुष्ठ, पांड, भ्रम, कामला, आदि रोग उत्पन्न होतेहैं ।। ५९।६०।६।६२।६३३६४॥
अध्यायका उपसंहार ।
अत्र श्लोकाः ॥ वेगावेगसमुत्थाश्चरोगास्तेषाञ्चभेषजम् ।येषांवेगाविधार्याश्च मदर्थयाद्धताहितम् ॥उचितेचाहितेवज्यसेव्यचानुचितेक्रमः! यथाप्रकृतिचाहारोमलायनगदौषधम् ॥६५॥ भविष्यतामनुत्पत्तौरोगाणामौषधश्चयत् । वाःसेव्याश्चपुरुषाधीमतात्मसुखार्थिना ॥ ६६ ॥ विधिनादधिसेव्यञ्चयेनयस्मात्तदविजः । नवेगान्धारणेऽध्याये सर्वमेवावदन्मुनिरिति ॥ ६७ ॥
इति अग्निवेशकृतेतन्त्रेचरकप्रतिसंस्कृते न वेगान्धारणीयाध्यायः ।। अब अध्यायका उपसंहार करतेहैं । इस अध्यायम वेग रोकनेका निषेध, और वेगोंके गेकनेसे पैदाहुए रोग, एवं उनकी चिकित्सा रोकने योग्य वेग और मनुष्यके लिये हित तथा अहित,उचित अभ्यास करना और अनुचितका त्यागना और उनका क्रम, वातादि प्रकृतिके आहार, मलों के मार्ग, रोगांकी औषधी, जिससे रोग ही न प्रगट हा ऐसा क्रम, प्रगटहए रोगांकी आँध, आत्मसुखकी इच्छावाले बुद्धिमान्को सेवनाप और त्याज्य कर्म, विधिसे दहीका सेवन, इन सब वाताको भगवान् पुनसुजाने इस नवेगान् धारणीय अध्यायमें वर्णन कियाह ।। ६५ ॥ ६६ ॥ ६७ ॥ पनि बीमाचिरकप्रणीताशियसंहितायां पटियालाराज्यांतर्गतटकसालग्रामनिवासिवगजानन वगरल पं० रामप्रसादवद्योपाध्यायविरचितप्रसादन्याल्यभापाटीकायां
नवेगान्धारणीयो नाम लममाध्यायः ।। ७ ।।
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सूत्रस्थान - अ० ८..
अष्टमोऽध्यायः ।
(८९)
अथातइन्द्रियोपक्रमणीयमध्यायं व्याख्यास्याम इतिहस्माह
भगवानात्रेयः ।
भगवान् आत्रेय कहते हैं कि अब हम इन्द्रियोपकरणीय अध्यायकी व्याख्यात करते हैं ।
इन्द्रियों का वर्णन तथा मनकी अनेकता । इहखलुपञ्चेन्द्रियाणिपञ्चेन्द्रियद्रव्याणि । पञ्चेन्द्रियाधिष्ठानानिपञ्चेन्द्रियार्थाः । पञ्चेन्द्रियाधिकारेअतीन्द्रियं पुनः मनः सच्वसंज्ञकञ्चेत्याहुरेकेतदर्थात्मसम्पत्तदायत्तचेष्टम् ॥ चेष्टाप्रत्ययभूतमिन्द्रियाणाम् ॥१॥ स्वार्थेन्द्रियार्थसंकल्पव्यभिचरणाच्चानेकमेकस्मिन्पुरुषेसत्त्वम् । रजस्तमःसत्त्वगुणयोगाच्चन चानेकत्वंनाने कह्येककालमनेकेषुप्रवर्त्तते ॥ २ ॥ तस्माच्चाने - ककालासर्वेन्द्रियप्रवृत्तिः । यद्गुणंचाभक्ष्णिंपुरुषमनुवर्त्तते सत्त्वंतत्सत्त्वमेवोपदिशन्तिऋषयोबाहुल्यानुशयात् ॥ ३ ॥ मनःपुरःसराणीन्द्रियाण्यर्थग्रहणसमर्थानि भवन्ति ॥ ४ ॥
पांच इन्द्रियें हैं । पाँच ही इन्द्रियोंके द्रव्य हैं। पांच इन्द्रियोंके अधिष्ठान हैं । और पांच ही इन्द्रियों के विषय हैं । तथा पांच इन्द्रियोंको बुद्धि हैं । ऐसा इन्द्रि 'याधिकारमें कहा है । और मन अतीन्द्रिय है, कोई मनको सत्त्व भी कहते हैं । मनविषय हो आत्माकी संपत्ति है तथा आत्माके और मनके सन्निकर्ष से चेष्टाएँ निर्वाहित हैं । ऐसे ही सब इन्द्रियोंकी चेष्टाका कारणभूत भी मन ही है । यदि कहें कि स्वार्थ, इंद्रियार्थ, और संकल्पकी पृथक्तासे एकही पुरुषमें अनेक मन हैं और सत्त्व, रज, तम, इन प्रकृतिक गुणोंसे भी मन अनेक हैं ऐसा प्रतीत होता है । सो
ठीक नहीं। क्योंकि एक पुरुष एक ही कालमें सब गुणोंमें या स्वार्थ आदि
·
सब कार्यों में प्रवृत्त नहीं होता । इसीलिये अनेक कालोंमें सब इंद्रियोंकी प्रवृत्ति
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(९०)
चरकसंहिता-भा० टी०। होताह अर्थात् जब चक्षु इंद्रियसे मनका संयोग होता तो देखता है. जब अवणेन्द्रियसे संयोग होताहै तव सुनताह । किन्तु एक ही कालमें सव इन्द्रियोंकी प्रवृत्ति नहीं होती और एक कालमें सब गुण ही पाए जाते हैं इसलिये मन एक है अनेक नहीं । जो गुण जिसके मनमें अधिकतासे निरंतर रहताहै उसके अनुसार ही ऋषिलोग उसकी वृत्तिको कथन करतेहे अर्थात् सत्वगुणकी अधिकतासे सतोगुणी, रजोगुणसे रजोगुणी, तमोगुणसे तमोगुणी वृत्ति कही जाती है । मनकी अनुगामिनी होकर इंद्रियं अपने अर्थको ग्रहण करनेमें समर्थ हो सकती है ॥ १-४ ॥
__ इन्द्रियोंके नाम द्रव्य और अधिष्ठान । तत्रचक्षुःश्रोत्रघ्राणरसनस्पर्शनामितिपञ्चेन्द्रियाणि ॥ पञ्चेन्द्रियद्रव्याणिखवायुज्योतिरापोभूरिति । पञ्चेन्द्रियाधिष्ठानान्यक्षिणीकर्णीनासिकेजिह्वात्वक्चेति ॥५॥ चक्षु, श्रवण, घ्राण, रसन, स्पर्श यह पांच इंद्रियें हैं । और तेज, आकाश, पृथ्वी, जल, वायु, यह क्रमसे पांच इंद्रियोंके पांच द्रव्य है । आंख, कान, नासिका, जीभ, त्वचा, यह क्रमसे पांच इंद्रियोंके आधिष्ठान ( रहनेके स्थान )हे ॥ ५ ॥
इन्द्रियोंके विषयादि । पञ्चेन्द्रियार्थाःर्शब्दस्पशरूपरसगन्धाः।
पञ्चेन्द्रियवुद्धयश्चक्षुवुद्धयादिकास्ताः ॥६॥ रूप, शब्द, गंध, रस, स्पर्श, यह क्रमसे पांचों इन्द्रियोंके अर्थ (विषय ) हैं। देखनेकी बुद्धि, सुननेकी बुद्धि, गंधलेनेकी वाई, रसज्ञानकी बाई, स्पर्शकी बुद्धि यह क्रमसे पांच इंद्रियांकी बुद्धि (वोध) हैं ॥ ६ ॥
पुनरिंद्रियेन्द्रियार्थस्वत्त्वात्मसन्निकर्पजाः।
क्षणिकानिश्चयात्मिकाश्चेत्येतत्पञ्चपञ्चकम् ॥ ७॥ इन्द्रियाद्धि यह ( बोध, ज्ञान ) इंद्रिय और उस इन्द्रियका अर्थ (विषय) तया मन और आत्मा इन सबके सनिकर्षसे होती हैं । फिर वह बुद्धि क्षणिका और निथयात्मिका इन भेदासे दो प्रकारकी है । यह इंद्रियपंचकका पंचक कहागया अर्यात् एक २ इन्द्रियका एकएक पंचक होनेसे पांच पंचक कहेगयेह ॥ ७॥
अध्यात्मिकद्रव्यगण । मनोमनोरथोबुद्विरात्माचेत्यध्यात्मद्रव्यगणसंग्रहःशुभाशभप्रवृत्तिनिवृत्तिहतुश्चद्रव्याश्रितकर्मयदुच्यते क्रियेति ॥ ८॥
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- सूत्रस्थान-अं०८: · · मन, मनके विषय, बुद्धि, आत्मा, यह अध्यात्मद्रव्योंके गणका संग्रह है। शुभ तथा अशुभ कार्योमें प्रवृत्त और निवृत्त होनेका हेतु भी यही आध्यात्मिक द्रव्यगण है। द्रव्यके आश्रयीभूत जो कर्म है उसको क्रिया कहतेहैं ।। ८ ॥ इन्द्रियोंमें विशषता।
.. तत्रानुमानगम्यानांपञ्चमहाभूतविकारसमुदायात्मकानामपिसतामिन्द्रियाणांतेजश्चक्षुषिश्रोत्रेनभः घ्राणेक्षितिरापोरसने स्पर्शनेऽनिलोविशेषेणोपदिश्यते ॥९॥ यह अनुमान द्वारा सिद्ध है कि पांचों इन्द्रियां पांच महाभूतोंके ही विकार हैं। इनमें तेज नेत्रोंमें, आकाश कानोंमें, और नासिकामें पृथ्वी, जीभमें जल, स्पर्शमें वायु, विशेषतासे रहतेहैं ॥९॥
तत्रयद्यदात्मकमिन्द्रियविशेषात्तदात्मकमेवार्थमनुधावति
तत्स्वभावाद्विभुत्वाच ॥ १०॥ 1 इनमें जो इंद्रिय जिस महाभूतसे बनीहुई है वह उसीके स्वभाववाली होनेसे और विभु होनेसे उसी महाभूतके गुणको ग्रहण करनेवाली होतीहै ॥ १० ॥
इन्द्रियोंके विपरीत होनेका कारण । तदर्थातियोगायोगामिथ्यायोगात्समनस्कमिन्द्रियविकृतिमापद्यमानंयथास्वबुद्धयुपघातायसम्पद्यते ॥११॥ समयोगात्पुनः प्रकृतिमापद्यमानंयथास्वंबुद्धिमाप्याययति ॥ १२ ॥ इनके विषयोंका अतियोग, अयोग, मिथ्यायोग होनेसे मन और इन्द्रिय विकृत होजातेहैं और बुद्धि भी नाशको प्राप्त होती है। ऐसे ही ठीक योग होनेसे मन और इंद्रिय ठीक प्रकृतिस्थ रहतेहैं और बुद्धि भी बढतीहै ॥ ११ ॥ १२॥
मनका विषय । मनसस्तुचिन्त्यमर्थः तत्रमनसोबुद्धेश्चतएवसमानातिहीनमिथ्यायोगाःप्रकृतिविकृतिहेतवोभवन्ति ॥ १३ ॥ तत्रेन्द्रियाणा समनस्कानामनुपततानामनुपतापायप्रकृतिभावेप्रयतितव्यमेभितुभिः ॥ १४ ॥ मनका विषय चिंतन करनाहै। यहां पर मन और बुद्धिका ठीक योग होना प्रकृति (तंदुरुस्ती) का कारण है और अतियोग, मिथ्यायोग, अयोग, विकृति व्याधिका कारण है । इसलिये जिस . योगसे. मन और इंद्रिय अपनी शक्तिसे
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(९२)
चरकसंहिता-भा० टी०। वृत न हो और अपने ठीक स्वभाव, रहें उस योगका अनुसरण करना चाहिये ॥ १३ ॥ १४ ॥
प्रकृति स्थिर रखनके हेतु । तद्यथासात्म्येन्द्रियार्थसंयोगेनवुद्धयातम्यगवेक्ष्यावेक्ष्यकर्मणां सम्यक्प्रतिपादनेनदेशकालात्मगुणाविपरीतोपसेवनेनचेति॥ तस्मादात्महितंचिकीर्पतासर्वणसर्वसर्वदास्मृतिमास्थायसदृत्तमनुष्टेयम्। तद्धयनुष्ठानयुगपत्सम्पादयत्यर्थद्वयमारोग्यामिन्द्रियविजयश्चेति ॥ १५॥ इन नीचे कहेहुए हेतुओंसे असात्म्य विषयोंका सेवन न करना, और आत्माके अनूकूल अर्थाका सेवन करना, इस लिये आत्महितच्छावालेको सव कार्याको विचारपूर्वक देश, काल, और आत्माके अनूकूल जानकर सेवन करना चाहिये सत्कायोंका सेवन करे । ऐसा करनेसे आरोग्यताका लाभ और इन्द्रियोंका बल टीक रहसकताहै ॥ १५ ॥
___ सेवनयोग्य सत्कार्योंका वर्णन । तत् सद्वृत्तमखिलेनोपदेक्ष्यामः । तद्यथा ॥ देवगोब्राह्मणगुरुवृद्धसिद्धाचार्यानर्चयेत् । अग्निमनुचरेत् । ओषधीःप्रशस्ताधारयेत् ॥ द्वौकालावुपस्पृशेत्॥ मलायतनेष्वभीक्ष्णंपादयोश्चवैसल्यमादध्यात् । त्रिपक्षास्यकेशश्मश्रुलोमनखान्संहारयेत् । नित्यमनुपहतवासाःसुगन्धिः स्यात् ।। १६॥
सो अव हम उसी संपूर्ण सवृत्तका कथन करतेहैं वह ऐसा है कि देवता, गौ, ब्राह्मण, गुरु, वृद्धपुरुष, सिद्ध, आचार्य, इनका पूजन करे । अग्निम हवन करे । पवित्र उत्तम औषधियोंको धारण करे । प्रातःकाल और सायंकाल जलसे आचमन
आदि करे ( संध्या करे ) मलमार्ग और हाथ पांवोंको पवित्र रखना चाहिये, एक पसम ( १५ दिनमें ) तीन वारं क्षारकर्म दाढी नख आदि ठीक कगवे मैले और फटे बचोका न पहने । मनको प्रसन्न रक्खे । उत्तम सुगंधीको धारण करें ॥ १६ ॥
साधुवेशःप्रसाधितकेशोमूर्द्धश्रोत्रपादतैलनित्योधूमपःपूर्वाभिभापीसुमुखः । दुर्गप्वभ्युपपत्ताहोतायष्टादाताचतुप्पथानांनमस्कत्तीवलीनामुपहर्ताऽतिथीनांपूजकःपितॄणांपिण्डदःकाले
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सूत्रस्थान -०८.....
( ९३
'हितमितमधुरार्थवादी । वश्यात्मधमात्माहेतुवीर्य्यः फलेनेर्षुः । निश्चिन्तोनिर्भीको धीमान्हीमान् महोत्साहः दक्षः क्षमावान्धार्मिकः आस्तिकः विनयबुद्धिविद्याभिजनवयोवृद्धसिद्धाचार्य्याणामुपासिता । छत्रीदण्डी मौनीसोपानत्को युगमात्रदृग्विचरेत् ॥ १७ ॥
श्रेष्ठ पुरुषों की समान वेष धारण करे । केशों को साफ और संवारकर रक्खे | मस्तक, कान, नाक, और पैरोंके तलुवोंमें नित्य तैल लगायाकरे, घूमपान करे, जब कोई भले पुरुष घर आवें उनका आदर सत्कार से सम्मान करे अथवा जिनसे मिले पहले ही मीठे वचनोंसे प्रसन्न करले, भयसे व्याकुलको धैर्य देवे, कठिन कार्योंकी प्राप्ति के लिये होम, यज्ञ, दान, इनको करे, चतुष्पथको नमस्कार करे, वलिआदिसे अग्निदेवता, भद्रपुरुष और दीन आदिकोंको प्रसन्न रक्खे । अतिथियोंका पूजन करे, पितरोंको पिंड आदि देवे, समय विचारकर हितयुक्त और मधुर अर्थवाला संभाषण करे, आत्माको वश में रखने में तत्पर रहे, धर्मात्मा होय, जिसकार्यमें सवका भला हो वह करे, कार्यको कर फलके लिये ईर्षा न करे, निश्चित रहे, भयभीत न हो,बुद्धि, लज्जा, उत्साह, चातुरी, क्षमा इनको धारण करे। धर्म करे, आस्तिकतावाला होय, और विनय, बुद्धि, विद्या, इनमें जो वृद्ध हों और सिद्ध तथा आचार्य हों उनकी उपासना, सेवा करे, छत्री, यष्टि, पगडी, उपानह इनको धारण करे, मार्ग चलते समय आंगेको चार हाथ मार्ग देखकर चले ॥ १७ ॥ मङ्गलाचारशीलःकुचैलास्थिकण्टकामेध्य केशतुषोत्करभस्मकपालखान बलिभूमीनां परिहर्त्ताप्रामाद्वयायाम वर्जी स्यात् । सर्वप्राणिषुवन्धुभूतःस्यात्क्रुद्धानामनुनता भीतानामाश्वासयितादीनानामभ्युपपत्ता । सत्यसन्धः । सामप्रधानः । परपरुषवचनसहिष्णुः अमर्षघ्नः । प्रशमगुणदर्शी ॥ १८ ॥
सदाही मंगलवस्तुओं और मंगल (शुभ) कार्यों का सेवन करे, खराव वस्त्र, अस्थि, कटि अमेध्य (विष्ठा आदि), केश, तुष, कंकड आदि, भस्म, ठीकडे वाली भूमिमें और जहां स्नान करनेका जल बहरहाहो तथा जिस भूमिमें बाले दी हो एवं श्मशान आदि भूमिमें न जावे । थकावट होनेसे पहले कसरत छोडदेवे अर्थात् अत्यंत व्यायाम न करे । सब प्राणियोंसे बंधुओंकी समान प्रेम रक्खे क्रोधयुक्तोंको नम्रतासे शांत करले ! भयभीतों को आश्वासन करे अर्थात दिलासा देवे, दीन पुरुषों पर दया करे, सत्यभा
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(९४)
चरकसंहिता-मा० टी०। पण तत्पर रहे, और साम, दान, दंड, भेद, इन चारोंम सामगुणका अवलम्बन को, पराये कहेहुए कठोर वचनाको सहन करनेवाला होय, आप क्रोध और अहंभाव न लावे, उत्तम शांतिदायक गुणोंका अवलम्बन करे ॥ १८ ॥
अकर्तव्योंका वर्णन । रागद्वेपहेतूनांहन्ता॥नानृतंब्रूयात् नान्यखमादीत । नान्यस्त्रियमभिलपेत् । नान्यश्रियंनवैरोचयेत् । नकुर्यात् पापन पापेऽपिपापीस्यात् । नानदोषान्त्रयात् । नान्यरहस्यमागमयेत् ॥ १९ ॥नाधार्मिकै नरेन्द्रद्विष्टैःसहासीत । नोन्मत्तर्नपतितैनभ्रूणहन्तृभिक्षुट्टै दुष्टैः ।नदुष्टयानान्यारोहेत् । नजानुसमंकठिनमासनमध्यासीत ॥२० ॥नानास्तीर्णमनुपाहितमविशालमसमंवाशयनंप्रपद्येत । नगिरिविषममस्तकेष्वनुचरेत । नगुममारोहेत । न जलोप्रवेगमवगाहेत । कुलच्छायां नोपासति । नाग्न्युत्पातमाभतश्चरेत् । नोचैर्हसेत् । नशब्दवन्तमारुतंमुश्चेत् । नासवृतमुखो जृम्भांक्षवथुहास्यवाप्रवर्त्तयेत् । ननासिकांकुष्णीयात् । नदन्तानविघट्टयेत् । ननखान्वादयेत् । नास्थीन्यभिहन्यात् । नभूमिविलिखेत् । नछिंद्यात्तणम् ॥ नलोष्टमृद्गीयात् ॥ २१ ॥ नविगुणसङ्गैश्चेष्टेत । ज्योतीप्यग्निञ्चामेध्यमशस्तञ्चनाभिवीक्षेतनहुंकाच्छवम् । नचैत्यध्वजगुरुपूज्याशस्तच्छायामानामेत् । नक्षपास्वमरसदनचैत्य चत्वरचतुष्पथोपवनश्मशानायतनान्यासवेत । नैकः शून्यगहनचाटवीमनुप्रविशेत् । नपापवृत्तान्तीयमित्रभृत्यान्भजेत् । नोत्तमविरुध्यत्नावरानुपासीतनजि रोचयेत् । नाऽनार्यमाश्रयेत्।नभयमुतादयेत् । नसाहसातिस्वप्नप्रजागरन्नानपानाशनान्यासंवत । नो जानुश्चिरांतष्ठेत् । नव्यालानुपासर्पन्नदंष्ट्रिणानविपाणिनः । पुरावातातपावश्यायातिप्रवातायातकलिनारभेत । नानिभृतोऽग्निमुपासीत ।
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: सूत्रस्थान. - अ०.८...
नोच्छिष्टोनाधः कत्वाप्रतापयेत् । नाविगतक्लमोमानाप्लुतव'दनोननग्न उपस्पृशेत् । नस्नानशाटयास्पृशेदुत्तमाङ्गम् । नकेशाग्राण्यभिहन्यात् । नोपस्पृशेतएववाससीविधूयात् । नास्पृष्ट्वा रत्नाज्य पूज्य मंगलसुमनसोऽभिनिष्क्रामेत् । नपूज्यमंगलान्यपसव्यं गच्छेत् । नेतराण्यनुदक्षिणम् ॥ २२ ॥
राग और द्वेष के कारणों को न रहनेदे । झूठ न बोले । पराई वस्तु न लेवे । परस्त्रीकी कभी भी इच्छा न करे । परसंपत्ति देखकर डाह न करे। किसीसे विरोध न करे । पाप न करें । पापीसे भी पाप न करे । किसीके भी दोष अपने मुखसे न कहे किसीकी भी गुप्त बात को प्रगट न करे ॥ १९ ॥ अधर्मी और राजद्रोही पुरुषके पास भी न जाय । उन्मत्त, पतित, भ्रूणहत्यारे (गर्भगिराने वाले ), और क्षुद्र तथा दुष्ट पुरुषों का संग न करे । खराब घोडे आदिपर सवारी न करे । जानु ( गोड़े, ) ओंधे करके अथवा जिस तरह बैठनेसे कष्ट हो वैसे न बैठे ॥ २० ॥ जिस शय्यापर - वस्त्र न बिछा हो, और ओढनेको कपडा न हो, तथा जो लम्बी चौडी ठीक न हो, और नष्ट भ्रष्ट हो तथा 'टेढी दो ऐसी शय्यापर शयन न करे । पर्वत और पर्वतों की खराब घाटियोंपर न चढे । वृक्षपर न चढे । अधिक वेगवाली चढी हुई नदीमें स्नान न करे.. अपने कुलकी छाया या बेरीके वृक्षकी छाया में न बैठे । अग्नि लगे -स्थान में न जाय ऊंचे स्वरसे न हँसे । सभा आदिमें अपान वायुका शब्द न करे । -मुखको बिना ढके जंभाई, छीक, हास्य न करे । नाकको न कुरेले । दातोंको न कटकटावे | नखोंको न बजावे, हड्डियोंको हनन न करे, (मटकावे नहीं), पृथ्वीको न कुरेले । तिनके न तोडा करे । वृथा मट्टीके डेले न फोडाकरे ॥ २१ ॥ दुष्टाचारी मनुष्यों का संग अथवा उनसे कोई व्यवहार न करे । तेज, ज्योति, अग्नि, पवित्र और निंदितों के सामने न देखे । मुर्देको देखकर हुंकार न करे ! चैत्यस्थान ध्वजा, गुरु, माता पिता आदि पूज्य जनोंकी छायाको और खराब छायाको उलंघन न करे । रात्रिमें - देवालय, चैत्य, आंगन, चतुष्पथ, बाग, श्मशान और हिंसाको भूमिमें न रहे । शून्य स्थान अथवा शून्य वनमें अकेला न जाय । पापवृत्तिवाले -स्त्री, मित्र, नौकर, आदिको अपने पास न रक्खे । भद्रपुरुषोंसे विरोध न करें । कुटिल पुरुषका संग न करे । कपटी पुरुषसे मेलजोल न करे | खोटे पुरुषका आश्रय न लेय। किसीको भी भय न देवे । वहुत साहस बहुत सोना, बहुत जागना, बहुत स्नान करना, बहुत पानी और बहुत भोजन करना उचित नहीं, अर्थात् इनको बहुत न करे । जानुओंको ऊपरको कर
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चरकसंहिता-मा० टी०। वडी देर तक न बैठे । सांप सिंहादि, और सींगवाले, जविकि पास न जाय, पूर्वकी वायु, मूर्यकी धूप, हिम, बहुत वेगवाली पवन इनको त्यागदेवे । कलह न छेडे । दावानल आदि अनिके समीप न जायं । उच्छिष्ट होकर या शय्या आदिके नीचे रख आग्नि न सके । जबतक थकावट दूर होकर पसीना न सूखजाय तबतक स्नान न करे । नंगा होकर न न्हावे । जिस कपडेसे स्नान कियाहो उसते मस्तकादि उत्तम अंगको न पोंछे । केशांके अग्रभागको पकडकर न झटके। जिस कपडेसे शरीरं पोछा हो या स्नान किया हो उस गीले वस्त्रको न पहिरे । रत्न, घृत, पूज्य और मंगलवस्तुओका स्पर्श करके प्रसन्न मन हो घरसे निकले । पूज्य और मंगल वस्तुओंको बांई ओर करके न जाय । ऐसेही अपूज्य और अमं. गलको दाहनी ओर करके न जाय ॥ २२ ॥
भोजन करनेके नियम । नारत्नपाणि स्नातोनोपहतवासानाऽजपित्वानाहुत्वादेवताभ्योऽनारूप्यपितृभ्योनाऽदत्त्वा गुरुभ्योनातिथिभ्योनोपाधितेभ्योनापुण्यगन्धोनामालीनाप्रक्षालितपाणिपादवदनानाऽशु
मुखोनोदङ्मुखीनविमनाभक्ताशिष्टाशुचिक्षुधितपरिचरोनापात्रीप्वमेध्यासुनादेशेनाऽकालेनाकीर्णेनाऽदत्त्वायमग्नयेनाप्रोक्षितंप्रोक्षणोदकैनमन्त्रैरनभिमान्त्रितनकुत्सयन्नकुत्सितंनप्रतिकूलोपहितमन्नमादीतानपऍपितमन्यत्रमांसहरितशुष्कशाकफलभक्ष्येभ्यः ॥२३॥ हायाम रलको धारण किये विना, न्हाये विना, मैले तथा फटे कपडे पहनकर, विना जपकिंय, हवन किये बिना, देवताओंको अर्पण किये बिना, पितृजनी, गुरुजनों और अतिथियोंको दिये विना, अपने आश्रित पुरुषांको दिये विना, पवित्रं चन्दन गंध आदि धारण किये बिना, माला पहने विना, हाय, पांव, मुख धोये विना अशुद्ध मुखो. उत्तरको मुख करके भोजन न करे । और अपमानित,अभक्त, दुष्ट, अपवित्र, और भूख नीकरके पास रहते हुए, अशुद्ध पात्र में, निंदित स्थानमें, बिना समय, बहुत मनुप्नाम अकेले, अग्निमें आहुति डाले विना, प्रोक्षणोदकसे प्रोक्षण किये बिना, मंत्रांसे अभिमंत्रित किये बिना, भोजनकी निंदा करते हुए, निंदित पदायोंको, शके हाथसे दियेको ऐस भाजनका न करे । और मांस, हरितपक्षी, ससंशाक, फलोग और पेडा आदि मिठाईस सिवाय वासी पदार्थ न साय॥२३॥
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सूत्रस्थान-अ०८.
(९७. नाशेषभुक्स्यादन्यत्रदधिमधुलवणसक्तुसर्पियः। ननक्तंदधि भुञ्जीतं । नसक्तूनेकाननीयात् ॥ २४ ॥ ननिशिनभुक्त्वान वहून्नदिनोंदकान्तारतान् ॥ २५ ॥ भोजन करते समय दधि, मधु, लवण, और सत्तुओंके विना सव पदार्थ थोडेर छोडकर भोजन करने चाहिये । रातको दही न खाय । केवल सत्तू (घी मीठे. विना) न खाय । रात्रिको और भोजनके पीछे तथा बहुत किस्मके मिलेहुए सत्तू न खाय । दो बार सत्तू न खाय । सूखे सत्तू न फांके ॥ २४ ॥ १५ ॥
नछित्त्वाद्विजैर्भक्षयेत् । नाऽनृजुःक्षुयान्नाद्यान्नशयीत। नवेगितोऽन्यकार्य:स्यात। नवाय्वग्निसलिलसोमाद्विजगुरुप्रतिमु. खंनिष्ठीविकावातवर्धोमूत्राण्युत्सृजेत् । नपन्थानमवमूत्रयेनजनवतिनान्नकाले नजप्यहोमाध्ययनवलिमङ्गलक्रियासुरले, ष्मसिंघाणकमुश्चेत । नस्त्रियमवजानीत । नातिविश्रम्भयेत् नगुह्यमनुश्रावयेन्नाधिकुर्य्यात्। नरजस्वलांनातुरांनामेध्यांनाशस्तांनानिष्टरूपाचारोपचारांनादक्षिणांनाकामांनान्यकामां नान्यस्त्रियनान्ययोनिनायोनौनचैत्यचत्वरचतुष्पथपवनश्मशानायतनसलिलौषधिद्विजगुरुसुरालयेषुनसन्ध्ययोनातिननिषिद्धतिथिषुनाशुचिर्नजग्धभेषजोनाप्रणीतसङ्कल्पोनानुपस्थितप्रहाँनाभुक्तवान् नात्यशितोनविषमस्थोनमूत्रोच्चारपीडितोन श्रमव्यायामोपवासलमाभिहतोनारहसिव्यवायगच्छेत् ॥२६॥ दांतोंसे कुचले विना न खाय । शरीरको टेढा करके छींकना,खाना, सोना उचित नहीं । मलादिकके वेगको रोककर कोई कार्य न करे । वायु, अग्नि, जल, चंद्रमा, सूर्य, ब्राह्मण, गुरु, इनके सामने थूक, अपानवायुका त्याग, मलत्याग, मूत्र, यह न करे।मार्गमें मल मूत्र न करे । वहुत मनुष्योंमें भोजनके समय, जप होम, पठन, पाठन, बलि, तथा मंगलकार्यमें थूक और नाककी मैलको न त्यागे । स्त्रीको बहुत अपमानित न करे और उसका अत्यंत विश्वास भी न करे तथा अपनी गुप्त वातोंको भी स्त्रीसे प्रगट न करे और कुल अपने कारोवारकी मालिक भी न वनावे। ऐसे ही रजस्वला, रोगिणी, अशुद्ध अश्रेष्ठा, कुरूपा, खोटे आचारवाली, कुबुदिनी विना इच्छावाली, दूसरे पुरुषकी इच्छावाली, परस्त्री, इनसे मैथुन न करे । स्त्रीकी .
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(९८)
चरकसंहिता-भा० टी० योनिसे विना अयोनिमथुन न करें ।चित्य, चत्वर (देवालय मंदिर आदि),चौराहा उपवन, श्मशान, वधस्थान, जल, औषधीदनेक स्थान, द्विजस्थान, गुरुस्थान, देवमंदिर, इन स्थानाम भी वांगमन न करे । दोनों संध्याआम एकादशी आदि निषिद्ध तिथिम,अपवित्र अवस्था में,औषधी खाकर,विना निश्चय किये,विना कामेच्छा प्रगटहुए, भूखे, वहुत भोजन करके विषमरीतिसे,मलमूत्रके वेगमें, थकाहुआ, व्यायाम करके, व्रत करके, आलस्प युक्त भी मैथुन न करे । एकांत स्थानके विना भी स्त्रीसंग न करे ।। २६ ।।
अध्ययनकालके नियम । नसतोनगुरून्परिवदेत् । नाशुचिरभिचारकर्मचैत्यपूज्यपूजाध्ययनमभिनिवर्तयेत्। नविद्युत्स्वनातवीपुनाभ्युदितासुदिक्षु नामिसंप्यूवेनभूमिकस्पेनमहोत्सवेनोल्कापातेनमहामहोपगमनेनष्टचन्द्रायांतिथौनसन्ध्ययोर्नसुखान्द्रो वपतितंनातिमात्र नतान्तनविस्वरनानवस्थितपदंनातिद्रुतनविलम्बितंनातिक्लीवनात्युच्चै तिनीचैः स्वरैरध्ययनमभ्यसेत् । नातिसमयंद्रुह्यात् । ननियमभिन्द्यात् ॥ २७॥ श्रेष्ठ महात्माओंकी और गुरुजनोंकी निन्दा न करे । विना शुद्ध हुए मंत्र तंत्र, देवमंदिर पीपल आदिका पूजन, पृज्योंका पूजन, विद्याध्ययन, न करे । अकाल विद्युत्रात होनेपर, दिग्दाह होनेपर भूकंप होनेपर, बड़े उत्साहमें, उल्कापातके समय, सूर्य चंद्र ग्रहण में, अमावस्याको, दोनों संध्याआम, ऐसे ही गुरुमुखसे सिवाय, अत्यंत मात्रासे, बहुत जोरसे, खराव स्वरसे, पदोंको तोड फोड कर बहुत जल्दी २, बहुत देरम, बहुत दुर्वलताले,वहुत ऊंचे स्वरसे, वहुत नीचे स्वरसे, अध्य चन न करे । पढने समयको व्यर्थ न खोवे । पढनेक नियमको न विगाडे॥२७॥
अन्य नियम । न नक्तंनादेशेचरेत् । नसन्ध्यास्वभ्यवहाराध्ययनस्त्रीस्वप्नसेवी स्यात् । नवालवृद्धलुब्धसूर्खक्लिप्टक्लीवैःसहसख्यं कुर्यात् । न मंबंद्युतवेश्याप्रसङ्गासचिस्यात्ानगुह्यविवृणुयात् निकश्चिदवजानीयात् । नाहमानीस्यात् । नदक्षोनादाक्षिणानासयको नदक्षिणान्परिवदेत् । नगवांदण्डमुद्यच्छेत् । नवृद्दाननगु
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सूत्रस्थान-अ०.८..
(९९) . रून्नगणान्ननृपानवाधिक्षिपेत्नचातिब्रूयात् ॥ नबान्धवानुर-- . तकृच्छाद्वितीयगुह्यज्ञानबहिःकुर्यात् ॥ २८ ॥
रात्रिके समय और खराव स्थानमें न फिरे । संध्याके समय भोजन, अध्ययन मैथुन, और शयन, न करे । बालक,अतिवृद्ध,लोभी, मूर्ख, रोगी, और नपुंसकोंसे मित्रता न करे। मद्यपान,जूआ और वेश्याओंमें कभी रुचि न करे।घरकी गुप्त बातें किसीसे न कहे।किसीका भी अपमान न करे।अहंकार (मैं वडा हूं वा वडा गुणी हूं) न करे ! चतुराई रहित; सूम, तथा किसीको दोष लगानेवाला न होवे । ब्राह्मण आदिकोंकी निंदा न करे । गौऑपर डंडा न चलावे । वृद्धपुरुषों, गुरुजनों, बहुत दलवालों तथा राजाओंकी निंदा आदि न करे । न इनके सामने बहुत बोले । अपने वांधवोंको अपने प्रेमियोंको आपत्तिमें सहायता करनेवालोंको, अपने रहस्य जाननेवालोंको, न छोडै ॥ २८॥
विशेष उपयोगी नियम। नाधीरोनात्युच्छ्रितसत्त्वःस्यात्। नाभृतभृत्योनविश्रब्धास्वजनोनैक सुखी । नदुःखशीलाचारोपचारोनसर्वविशम्भी ।नसवाभिशंकी। नसर्वकालविचारी ॥ नकार्यकालमातपातयेत्। नापरीक्षितमाभनिविशेत् । नेन्द्रियवशगःस्यात् ॥ २९ ॥ धैर्यरहित और बडा सात्त्विक न वनै। नौकरोंकी नौकरी न रक्खे । आदमियोंसे विश्वासरहित भी न वने । कुटुंबके विना अकेला ही मुख न भोगे। और दूसरोंकों दुःख मिलनेवाला आचरण न करै । सभीका विश्वास भी न करे । प्रत्येक मनुष्यके झूठा होनेका भ्रम भी न करे । सदा सोचता भी न रहे । कामके समयको व्यर्थ नष्ट न करै । विना जाने कार्यमें प्रवेश न करे । इंद्रियोंके वशमें न होजाय ॥ २९ ॥
नचञ्चलंमनोभ्रामयेत् । नबुद्धीन्द्रियाणामतिभारमादध्यात्।। - नचातिदीर्घसूत्रीस्यात् । नक्रोधहर्षावनुविदध्यात् । नशोकमतुविशेत् । नसिद्धावीत्सुक्यंगच्छेन्नासिद्धौदैन्यसाप्रकृतिमभीक्ष्णंस्मरेत् । हेतुप्रभावनिश्चितःस्यात् । हेत्वारंभानित्य । नकतमित्याश्वसेत् ॥ नवीर्यजह्यात् । नापवादमनुस्मरेत् ॥३०॥ मन स्वयं ही चंचल होताहै इसको और भी भ्रमित न करे अर्थात मनको टिकात् कर रख । बुद्धि और इंद्रियोंपर बहुत भार न दे अर्थात् जिससे रोग होजाय इतना काम न लेय । कामको वहुत देरमै करनेवाला न होय । क्रोध और हर्षाको बढने न
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(१००) चरकसंहिता-भा०टी०। दे। शोकातुर न बनारहे। कार्य सिद्ध होनेसे अत्यंत प्रसन्न न होय । कार्यके न हानेसे अति दीनता भी न प्रगट करे। अपने जन्म कर्म आदिका सदेव स्मरण रखे। जिस कार्यका आरंभ कर उसके फल (नतीजे) को पहले सोचलेवे । उन्नतिके हेतु
आको नित्य आरंभ करतारहे। अपने आपको कभी कृतकृत्य न समझे । अपने पराक्रमको न छोडे । किसीने अपमान कियाहो तो, उसको याद न करे ॥ ३० ॥
हवनादिके नियम । नाशुचिस्त्तमाज्याक्षततिलकुशसर्षपैरनिंजुहुयात् । आत्मानमाशीभिराशासानः॥ अग्निमनापगच्छेच्छरीरात् । वायुमेप्राणानादधातु । विष्णुवलमादधातु । इन्द्रोमेवीयशिवामां प्रविशंस्त्वापः॥ आपोहिष्टत्यपःस्पृशेत् ॥ द्विःपरिमृजेदोष्ठौ पौचाभ्युक्ष्यमूर्भिखानिचोपस्पृशेत् । अद्भिरात्मानंहृदयांशरश्चब्रह्मचर्यज्ञानदानमैत्रीकारुण्यहर्षापेक्षाप्रशमपरश्चस्यादिति ॥३१॥ शुद्ध पवित्र होकर बी, चावल, तिल, कुशा, सौं इनको अग्निम हवन करे । होम : करनेके पीछे अपनेको इस प्रकार आशीर्वाद दे “आपने हमारे शरीरमंसे मत जाय, वायु हमारे प्राणों की रक्षा करे, विष्णु हमारे शरीरभ वल दें । इंद्र हमारे वीर्यको वढावे । शुभकारक जल हमारे शरीरमें प्रवेश करे । इस प्रकार कहके आपोहिष्टामयोभुवः इत्यादि मंत्रासे अपने शरीरको छीटे दे। दो बार होठोको दोनों पावाको उपरके सव द्वाराको जलसे छोटे देकर मस्तक और आकाशको छोटे दे। जलसे शरीर, हृदय, मस्तक प्रोक्षण करें । ब्रह्मचर्य, ज्ञान, दान, मंत्री, कृपा, तथा आनदको चाहं और शांतचित्तरहै ॥ ३१ ॥
अध्यायका संक्षिप्त वर्णन ।
अत्र श्लोकाः। पञ्चपञ्चकमुद्दिष्टंमनोहेतुचतुष्टयम्। इन्द्रियोपक्रमेऽध्यायेसद्वृत्तमखिलेनच॥३२॥स्वस्थवृत्तयथोद्दिष्टयःसम्यगनुतिष्ठति । सलमाःशतमव्याधिराथुपानवियुज्यते ॥ ३३ ॥ नृलोकमापूरयतयशसासाधुसम्मतः । धर्मार्थाचतिभूतानांवन्धतामुपगच्छति ॥ ३४ ॥ परान्सुतिनोलोकान्पुण्यकर्माप्रपद्यते ॥
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सूत्रस्थान - अ० ९.
( १०१)
तस्मादवृत्तमनुष्ठेयमिदं सर्वेण सर्वदा ॥ ३५ ॥ यच्चान्यदपिक- ञ्चित्स्यादनुक्तमिहपूजितम् । वृत्तंतदपिचात्रेयः सदैवाभ्यनुमन्यते ॥ ३६ ॥
इति स्वस्थवृत्तचतुष्कः ॥ अग्निवेशकृतेतन्त्रेचरकप्रतिसंस्कृते इन्द्रियोपक्रमणीयोऽष्टमोध्यायः ॥ ८ ॥
अब अध्यायका उपसंहार करते हैं। इस इन्द्रियोपक्रमणीय अध्याय में पांच पंचक सन, हेतुचतुष्टय, संपूर्ण सद्वृत्त, स्वास्थ्यरक्षा, भले प्रकार कहे गये हैं । इनका जो मनुष्य अनुसरण करेगा वह रोगरहित, शतायु, साधुसम्मत, यशस्वी - मनुष्यलोकको अपनी शोभासे परिपूर्ण करनेवाला होगा । सब लोग उसको धर्मात्मा कहकर उससे मित्रभाव करेंगे । वह पुण्यकर्मा सव मनुष्योंसे उत्तम लोकोंको प्राप्त होता है। इसलिये यह सद्वृत्त सबको ही ग्रहण करना चाहिये। जो इस अध्याय में कहने से रहेहुए सदाचरण हों महात्मा आत्रेयजीने उनकी भी प्रशंसा की है । ३२-३६ ॥
इति श्रीमहर्षिचरकप्रणीतायुर्वेदसंहितायां पटियाला राज्यान्तर्गतटकसालनिवासिवैद्य - पश्चानन वैद्यरत्न पं० रामप्रसाद वद्योपाध्यायविरचितप्रसादन्याख्यभाषाटीकायामिंद्रियोपक्रमणीयो नामाष्टमोध्यायः ॥ ८ ॥
नवमोऽध्यायः ।
अथातःखुड्डाकचतुष्पादमध्यायं व्याख्यास्यामः । इतिहस्माहभगवानात्रेयः ॥
अव हम खुड्डाक चतुष्पाद नामके अध्यायका व्याख्यान करेंगे । रेसा भगवान् माजी कहने लगे ।
चिकित्सा के चार पाद ।
भिषगद्रव्याण्युपस्थातारोगीपादचतुष्टयम् । गुणवत्कारणंज्ञेयं विकारव्युपशांतये ॥ १ ॥
वैद्य, औषधी, परिचारक, और रोगी यह चिकित्साके चार पाद हैं यदि यह चारों यथोचित गुणोंवाले हों तो रोगोंकी शांति अवश्य होजाती है ॥ १ ॥
विकार और स्वास्थ्यका लक्षण ।
विकारोधातुवैषम्यं साम्यंप्रकृतिरुच्यते । BVCL सुखसंज्ञकमारोग्यंविकारोदुःखमेवच ॥
04047
615.536 C37C(H)
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( १०२ )
चरकसंहिता - भा० टी० ।
airat धातुओं और वातादिदोषों में विषमता ( यथोचित न होना ) विकार अर्थात् रोग कहा जाता है। और इनका ठीक होना आरोग्यता कहाँ है । सो आरोग्यताको सुख कहते हैं । रोगको दुःख कहते हैं ॥ २ ॥
चिकित्सा ल० । चतुर्णाभिषगादीनांशस्तानां चातुवैकते ।
प्रवृत्तिर्धातुसाम्यार्थाचिकित्सेत्यभिधीयते ॥ ३ ॥
धातुदोष आदिकी विकृतिमें उनको ठीक अर्थात् साम्यावस्थामें करने के लिये वैद्य आदि चारों पादोंकी जो योग्यतासे प्रवृत्ति है वह चिकित्सा कही जाती है ॥ ३ ॥ वैद्यके चार गुण | श्रुतेपर्यवदातृत्वं बहुशो दृष्टकर्मता ।
दाक्ष्यशौचमितिज्ञेयंवैद्ये गुणचतुष्टयम् ॥ ४ ॥
शास्त्रको अच्छी तरह से जाननेवाला, दूरदर्शी, ( रोगादिमें भविष्यत्को जानने, बाला) क्रियामें कुशल, शुद्धता, यह वैद्यके चार गुण हैं ॥ ४ ॥
औषधिगुण चतुष्टय | बहुतातत्र योग्यत्वमनेकविधकल्पना । सम्पच्चेतिचतुष्कोऽयं द्रव्याणां गुणउच्यते ॥ ५ ॥
अच्छे गुणयुक्त, रोके अनुसार, अनेक प्रकारसे कल्पनापूर्वक प्रयोग, और कीडे आदिसे रहित नवीन होना, यह चार गुण औषधक कहे हैं ॥ ५ ॥
सेवक के चार गुण !
उपचारज्ञतादाक्ष्यमनुरागश्चभर्त्तरि । शौचञ्चेतिचतुष्कोऽयगुणः परिचरेजने ॥ ६ ॥
प्रेमसे सेवा करना, सब कार्यका जाननेवाला होता, चतुरता, स्वामीका भक्त होना, यह चार गुण परिचारक (सेवक ) के होने चाहिये ॥ ६ ॥
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रोगीके चार गुण । स्मृतिनिर्देशकारित्वमभीरुत्वमथापि च । . ज्ञापकत्वञ्चरोगाणामातुरस्यगुणाः स्मृताः ॥ ७ ॥
स्मरण रखना, वैद्यकी आज्ञामें चलना, निर्भय होना ( घबरानेवाला न होना ) अपने रोगोंको यथार्थ कहना यह चार गुण रोग के कहे हैं ॥ ७ ॥
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. (१०३ )
सूत्रस्थान - अ० ९.
१६ गुणों में वैद्यकी प्रधानता ।
कारणंषोडशगुणंसिद्धौपादचतुष्टयम् । विज्ञाताशासितायोक्ताप्रधानंभिषगत्रतु ॥ ८ ॥
. बैद्य आदि चार पादोंका जो चतुष्टय है अर्थात् सोलह गुण सम्पन्न होने से रोगों आरोग्य होता है । इन सबमें ज्ञाता, उपदेश करता, औषधि आदिके क्रमको बताकर आरोग्यकारक पथपर चलानेवाला होनेसे वैद्य प्रधान होता है ॥ ८ ॥ पक्तौहिकारणंपक्तुर्यथापात्रेन्धनानलाः। विजेतुर्विजयेभमिश्चमः प्रहरणानिच ॥ ९ ॥ आतुराद्यस्तथासिद्धौपादाः कारणसंज्ञिताः । वैद्यस्यातश्चिकित्सायां प्रधानं कारणभिषक् ॥ १० ॥ जैसे भोजन बनाने में वर्तन, लकडी, अग्नि आदि अन्य पाकके कारण होनेपर भीं वनानेवाला ही मुख्य मानाजाताहै । और विजयमें भूमि, सेना, अस्त्र शस्त्र आदि विजय के कारण होते हुए भी सेनापति ही मुख्य माना जाता है । ऐसे ही आरोग्य करनेमें रोगी, परिचारक, औषध, इनके कारण होनेपर भी वैद्यको ही प्रधान कारण समझना चाहिये ॥ ९ ॥ १० ॥
मृद्दण्डचक्रसूत्राद्याः कुम्भकारादृतेयथा । नावहन्तिगुणंवैद्या
पादत्रयं तथा ॥ ११ ॥
जैसे घट आदि मट्टीका पात्र वनाते समय मट्टी, दंड, चक्र, सूतका डोरा आदि संव होते हुए भी कुम्हारके विना घडा नहीं बना सकते । ऐसेही वैद्यके विना सेवक, औषध, रोगी, आरोग्यता प्राप्त नहीं करसकते ॥ ११ ॥ रोगों में वैद्यको कारणता ।
गन्धव पुरवन्नाशंयद्विकाराः सुदारुणाः । यान्तियच्चेतरेवृद्धिमा - शूपाय तीक्षणः ॥ १२ सतिपादत्रयेज्ञाज्ञाभिषजावत्रकारणम् । वरमात्माहुतोज्ञेनन चिकित्साप्रवर्त्तिता ॥ १३ ॥
रोगी, औषध, और परिचारक, यह चिकित्साके तीन पाद होतेहुए भी इन्द्रजाल के समान जो रोग शीघ्र निवृत्त होजाता है अथवा ठीक उपाय न होनेसे वढजाता है इसमें भी सर्वज्ञ अथवा अज्ञ वैद्यको ही कारण मानना चाहिये अर्थात् अन्य पादत्रय होनेपर भी वैद्य अच्छा होनेसे रोगका नाश और वैद्यके मूर्ख होनेसे रोगकी वृद्धि होती है । इसीसे कहते हैं कि अपने आप मरजाना अच्छा है परन्तु मूर्खसे चिकित्सा कराना अच्छा नहीं ॥ १२ ॥ १३ ॥
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(१०४) चरकसंहिता-भा० टी०।
. . मूर्ख वैद्यके लक्षण । पाणिचाराद्यथाचक्षुरज्ञानानीतभीतवत् ।
नौर्मारुतवशेवाज्ञोभिषक्चरतिकर्मसु ॥ १४ ॥ __ अन्धा मनुष्य जैसे चलते समय आगेको हाथ मारता है और अति पवनके वेगसे जैसे नाव डगमगातीहै ऐसे ही चिकित्साके समय मूर्ख वैद्य डगमगाताहुआ अंटसँट बल करताहै ॥ १४ ॥
कुत्सित वैद्यका कर्म । यदृच्छयासमापन्नमुत्तायोनियतायुषम् ।
भिषग्मानौनिहन्त्याशुशतान्यनियतायुषाम् ॥ १५॥ : मूर्ख वैद्यके हाथसे यदि कोई दैववश एक पुरुष भी अच्छा होजाय फिर वह उसको दृष्टांतमें रख "मैं ऐसा योग्य वेद्य हूं" यह कहकर वह दुष्ट सैकड़ों मनुष्योंकी आयुको नष्ट करताहै ॥ १५ ॥
वैद्यको प्राणदातृत्व । तस्माच्छास्त्रेऽर्थविज्ञानेप्रवृत्तौकर्मदर्शने। ...
भिषक्चतुष्टयेयुक्तःप्राणाभिसरउच्यते ॥ १६ ॥ इसलिये जिस वैद्यने शास्त्र और उसके मर्मको समझाहो, औषध और औषधके प्रयोगको जाना हो तथा चिकित्साक्रमको अच्छी तरह देखलियाहो वह गुणचतुष्टय युक्त वैद्य प्राणोंको देनेवाला कहा जाता है ॥ १६ ॥
राजयोग्य चिकित्सकके लक्षण । .. हेतौलिङ्गप्रशमनेरोगाणामपुनर्भवे ।
ज्ञानंचतुर्विधंयस्यसराजाहुभिषक्तमः ॥१७॥ जो पैद्य रोगके कारण और लक्षण तथा रोगनाशक उपाय और जिस प्रकार फिर रोग न होय ऐसी स्वास्थ्यरक्षा इन चार प्रकारोंके विषयको जानता है वह राजाओंकी चिकित्सा करने योग्य वैद्यराज होता है ॥ १७ ॥
वैद्यका कर्तव्यकम् । शस्त्रंशास्त्राणिसलिलंगुणदोषप्रवृत्तये। : . पात्रापेक्षीण्यतःप्रज्ञांचिकित्सार्थविशोधयेत् ॥ १८॥ ... . शस्त्र, शास्त्र, जल, यह गुण और दोषमें पात्रकी अपेक्षा करतेहैं अर्थात् शस्त्र योग्य शूरवीरके हाथमें होनेसे गुणदायक होताहै और नालायक दुष्ट आदिके
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सूत्रस्थान - अ० ९
( १०५)
हाथमें होनेसे दोषकारक (दुःखदायक ) होताहै । जल उत्तम पात्रमें शुद्ध और उत्तम होता है, मलिन पात्रमें निंदनीय होता है अथवा यों कहिये नीममें जानेसे कडुआ और इक्षुम मीठा होता है इसी प्रकार शास्त्र भी बुद्धिके आधार पर है । इसलिये वैद्यको निर्मल ( उत्तम ) बुद्धिकी आवश्यकता है ॥ १८ ॥
वैद्यके षड्गुण ।
'विद्यावितक विज्ञानंस्मृतिस्तत्परताक्रिया । यस्यैतेषड्गुणास्तस्यनसाध्यमतिवर्त्तते ॥ १९ ॥
जिस वैद्य - विद्या, युक्ति, विज्ञान, स्मृति, तत्परता ( दत्तचित्तता ) और क्रियाकुशल होना, यह छः गुण विद्यमान हैं उस वैद्यको कोई भी रोग असाध्य नहीं होता ॥ १९ ॥
वैद्यको निष्पत्ति | विद्यामतिः कर्मदृष्टिरभ्यासः सिद्धिराश्रयः । वैद्यशब्दाभिनिष्पत्तौ बलमे ककमप्यदः ॥ २० ॥
विद्या, बुद्धि, वैद्यकार्य में बहुत दृष्टि, अभ्यास, सिद्धि, आश्रय, इनमें से एक एक गुण पूर्ण होना भी वैद्यशब्दकी निष्पत्तिके लिये हो सकता है यदि संपूर्ण अर्थात् छः गुण हों तो फिर कहना ही क्या है अर्थात् बहुत ही अच्छा है ॥ २० ॥
सुखदाता वैद्यके लक्षण ।
-यस्य त्वेते गुणाः सर्वे सन्तिविद्यादयः शुभाः ।
सवैद्यशब्दं सद्भतमनुप्राणिसुखप्रदः ॥ २१ ॥
जिस वैद्यमें यह सब गुण हैं वही वैद्य संमानके योग्य और सबको सुख देनेवाला होता है ॥ २१ ॥
दोषोंसे वचनेका उपाय । शास्त्रंज्योतिः प्रकाशार्थदर्शनं बुद्धिरात्मनः ।
ताभ्यांभिषक्सुयुक्ताभ्यां चिकित्सन्नापराध्यति ॥ २२ ॥
शास्त्र सूर्यकी समान सब वस्तुओं और रोग द्रव्यादिकोंमें प्रकाशकारक है और इसके प्रकाशमें नेत्रोंकी समान सब वस्तुओंको देखनेवाली अपनी बुद्धि है । इसलिये जो वैद्य शास्त्र और बुद्धि के संयोगसे अर्थात् शास्त्र और बुद्धि इन दोनोंको मिलाकर काम लेता है वह चिकित्सा करने में दोषका भागी नहीं होता अर्थात् शको प्राप्त होता है || २२ ॥
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(१०६) चरकसंहिता-भा० टो।
- वैद्यके उपदेश । :. . चिकित्सितेत्रयःपादायस्माद्वैद्यव्यपाश्रयाः।
तस्मात्प्रयत्नमातिष्ठद्भिषस्वगुणसम्पदि ॥ २३॥ . चिकित्साके तीन पाद (आतुर, परिचारक, भेषज) वैद्यके ही अधीन हैं इसलिये वैद्यको उचित है, कि अपने गुणोंमें पूर्ण रूपसे संपन्न रहनेमें यत्नवान् रहै ॥२३॥
वैद्यकी चार प्रकारकी वृत्ति । मैत्रीकारुण्यमार्गेषुशक्येप्रीतिरुपक्षणम् ।
प्रकृतिस्थेषभूतेषुवैद्यवृत्तिश्चतर्विधेति ॥ २४ ॥ वैद्यको रोगियों में मित्रभाव और दयाभाव रखना योग्य है तथा साध्य रोगों में साहसपूर्वक यत्न करना उचित है और स्वस्थ मनुष्योंमें जिस प्रकार वह रोगी न हों यह यत्न रखना आवश्यक है इस चार प्रकारकी बुद्धिको ब्राह्मी बुद्धि कहतेहें ॥ २४ ॥
अध्यायका संक्षिप्त विवरण। .
तत्रश्लोको। भिषगाजतांचतुष्पादंपादःपादश्चतुर्गुणः । भिषप्रधानपादेभ्योयस्माद्वैद्यस्तुयद्गुणः ॥२५. ज्ञानानिबुद्धिाहीचभिषजांयाचतुर्विधा।सर्वमेतचतुष्पादेखुड्डाकेसम्प्रकाशितमिति ॥२६॥
___ खुड्डाकचतुष्पादाध्यायःसमाप्तः ॥९॥ चिकित्साके चार पाद और एक एक पादके चार चार गुण उन सबमें वैद्यकी प्रधानता, वैद्यके चार प्रकारके गुण और ज्ञान ब्राह्मी बुद्धि, यह इस खुड्डाकचतुष्पाद अध्यायमें वर्णन किया गयाहै ॥ २५॥ २६ ॥ । इति श्रीमहर्षिचरकप्रणातायुर्वेदीयसंहितायां पटियालाराज्यांतर्गतटकसालनिवासिवैद्यपञ्चा
. नन वैद्यरत्न पं. रामप्रसादवैद्योपाध्यायविरचितप्रसादन्याख्यभाषाटीकायां . . . . खुड्डाकचतुष्पादो नाम नवमोऽध्यायः ॥ ९ ॥
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(१०७)
सूत्रस्थान-अ० १०. दशमोऽध्यायः ।
अथातोमहाचतुष्पादमध्यायंव्याख्यास्यामः।
इतिहस्माह भगवानात्रेयः॥ __ अब हम महाचतुष्पाद नामक अध्यायकी व्याख्या करतेहैं। ऐसा आत्रेय भगवान् कहने लगे।
औषधसे आरोग्यलाभ। चतुष्पादंषोडशकलंभेषजमितिभिषजोभाषन्ते । यदुक्तंपूर्वाध्यायेषोडशगुणमितितद्भेषजम् । युक्तियुक्तमलमारोग्यायेति
भगवान्पुनर्वसुरात्रेयः १ वैद्य जन षोडशकलासंपन्न चतुष्पादको ही औषध अर्थात् चिकित्सा मानतेहैं । सो षोडशगुणंसपन्न चिकित्सा इससे पहले अध्यायमें कह आए हैं, वह युक्तियुक्त चिकित्सा आरोग्यताप्राप्तिके लिये बहुत है ऐसा भगवान् पुनर्वमुजीने कथन किया ॥१॥
उक्तविषयमें मैत्रेयका प्रतिवाद । नेतिमैत्रेयार्किकारणंदृश्यन्तेह्यातुराः केचिदुपकरणवन्तश्चपरिचारकसम्पन्नाश्चात्मवन्तश्चकुशलैश्चभिषम्भिरनुष्ठिताःससुत्तिष्ठमानास्तथायुक्ताश्चापरेम्रियमाणास्तस्माद्भेषजमकिञ्चि
करं भवति ॥ २॥ यह सुनकर मैत्रेयजी कहनेलगे ऐसा नहीं होता क्योंकि हमने देखा है कि बहुतसे रोगी तो योग्य औषध, उत्तम सेवक, बुद्धिमान, और कुशल वैद्यकी चिकित्साद्वारा आरोग्य (तंदुरुस्त) होजातेहैं । और बहुतसे सर्वगुणयुक्त औषधादि होने पर और योग्य चिकित्सकसे चिकित्सा किये जाने पर भी मृत्युको प्राप्त होतेहैं । इसमें क्या कारण है कि उसी प्रकार चिकित्सा करनेसे बहुतसे लोग आरोग्य होजातेहैं और उसी प्रकारकी चिकित्सासे बहुतसे मृत्युक्श होतेहैं । इसलिये जानपडताहै कि मनुष्यका जीवन मरण दैवाधीन है औषध आदिसे कुछ नहीं होता ॥ २॥
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(१०८)
चरकसंहिता-भा० टी०।
. दृष्टान्त । तद्यथा-श्वभ्रेसरसिचप्रसिक्तमल्पसुदकम्, नयांस्यन्दमानायांपांशुधानेपांशुमुष्टिप्रकीर्णइति । तथापरेदृश्यन्तेअनुपकरणाश्चापरिचारिकाश्चानात्मवन्तश्चाकुशलैश्चभिपग्भिरनुष्ठिताः समुत्तिष्टमानाः । तथायुक्ताम्रियमाणाश्चापरेयतश्चप्रतिकुर्वन् . सिद्धयतिप्रतिकुर्वनाम्रियतेअप्रतिकुर्वन्ाम्रयतेततश्चिन्त्यतेभेषजमभेपजनाविशिष्टमितिमैत्रेयः ॥३॥ उसको इसतरहसे समझिये कि जैसे एक बडे भारी गढेमें अथवा तालावमें जलकी अंजली डालदेना अथवा किसी वहतीहुई नदी या रेतके वडे भारी ढेर पर एक बालू रेतकी मुट्टी बखेरदेना किसी गणनाम नहीं होती। इसी प्रकार असंख्य प्राणियों के मरणमें एक दो का अच्छा हो जाना भी किस गणनाम है । और देखने में भी आता है कि बहुतसे रोगी योग्य परिचारकके विना, उत्तम औषधादि न होनेपर, खोटे स्वभावके होनेपर, और अयोग्य वैद्यसे अथवा विना ही वैद्यसे आरोग्य होजातेहैं। एंव योग्य चतुष्पादी चिकित्सासे भी अनेक २ प्राणी मरजाते हैं। कोई यत्न न करनसे मरजातह वस, जव यत्न करनेपर भी मरजाते हैं और विना यत्न भी आरोग्य होजातेह ता चिकित्सा करना और न करना एकसा ही प्रतीत होताहै । इस प्रकार मंत्रयजीने कहा ॥३॥
उक्त विषयमं आत्रेयका खण्डन । मिथ्याचिन्त्यतइत्यात्रेयःकिंकारणंयेह्यातुराःपोडशगुणसमुदितेनानेनभेपजेनोपपद्यमानाइत्युक्तंतदनुपपन्ननहिभपजसाध्यानांव्याधीनांभेपजमकारणंभवति। येपुनरातुरा केवलाद्देपजादृतेसमुनिष्टन्तेनतेपांसम्पूर्णभेपजोपपादनायसमुत्थानविशेपोस्तियथाहिपतितंपुरूसमर्थमुत्थानायोत्थापयन्पुरुयोवलमम्योपादध्यात् । साक्षिप्रतरमपरिक्लिष्टएवोनिष्टेत्तद्वत्सम्पूर्णभेपजीपलम्भादानुराधायचातुराः केवलापजादपिनियन्तेनच सर्ववतेभेपजोपपन्नाःसमुनिष्टेरननहिसर्वव्याधयोभवनत्युपायसाध्याः ॥2॥नोपायसाध्यानांव्याधीनामनुपायेन सिन्दिगम्तिनचासाध्यानांव्यार्धानांभेषजसमुदायोस्तिनालं
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सूत्रस्थान - अ० १०.
( १०९)
ज्ञानवानभिषङ्मुमूर्षुमातुरमुत्थापयितुम् । परीक्ष्यकारिणोहि कुशला भवन्ति । यथाहियोगज्ञेोभ्यासनित्यइष्वासोधनुरादायेषुमपास्यन्नातिविप्रकृष्टेमहतिकार्येनापबाधोभवति । सम्पादयतिचेष्टकार्य्यम् । तथाभिषक्स्वगुणसम्पन्न उपकरणवान्वीक्ष्यकर्मारम्भमाणः साध्यरोगमनपराधः सम्पादयत्येवातुरमारोग्येणं तस्मान्नभेषजमभेषजेनाविशिष्टंभवति ॥ ५ ॥
यह सुनकर आत्रेय कहने लगे हे मैत्रेय ! यह शंका करना आपका वृथा है: - क्या कारण है जो षोडश गुण संपन्न चिकित्सासे रोगी मरजाते हैं और आरोग्य हो जाते हैं आप ऐसा कहते हैं । जो रोग भेषजसाध्य है उसमें षोडशगुणयुक्त चिकित्सा की हुई कभी निष्फल नहीं जाती। और जो कहते हो विना चिकित्सा से ही रोगी अच्छे होते देखे हैं उनके रोगमें विशेषतासे संपूर्ण चिकित्सा की आवश्यकता नहीं उनके अल्पदोषवाली व्याधि स्वयं भी परिपाकको प्राप्त हो शांत होजाती है । जैसे कोई मनुष्य गिरपडा हो वह अपने आप उठनेको तैयार है परंतु दूसरेका दिया सहारामिलने से वह और भी सुखपूर्वक उठ जाता है । और दूसरेके सहारेसे उठनेका वलप्राप्त होनेसे विना कष्ट खडा होता है । ऐसाही साध्य रोगों में औषध के प्रयोगसे रोगी शीघ्र आरोग्य होजाते हैं । और जो औषधकि प्रयोगसे रोगी शीघ्र आरोग्य होजाते हैं । और जो औषध सेवन करनेपर भी मरजाते हैं सो संपूर्ण रोग भेषजसाध्य नहीं होते अर्थात् असाध्य रोग औषधसे साध्य नहीं हैं ॥ ४ ॥ और जो रोग चिकित्सा करने से दूर होते हैं वह चिकित्सा के विना शांत होही नहीं सकते । ऐसे ही असाध्य रोग संपूर्ण यत्नोंसे भी साध्य नहीं होते । और मरणोन्मुख रोगीको ज्ञानवान् वैद्य भी आरोग्य नहीं कर सकता । इसलिये, साध्य, असाध्य, कष्टसाव्यकी परीक्षा करके चिकित्सा करनेवाले कुशल वैद्य निदानद्वारा रोगको जानकर चिकित्सा करनेसे व्याधिको जीतलेते हैं । जैसे वाण चलाने में चतुर तथा नित्यका अभ्यासवाला धनुषधारी सामने आयेहुए वडे शरीरवालेको वाण मारकर विद्ध करताहुआ आप उसे बडे बलवालेसे अवाध्य रहता है । और अपने इच्छित कार्यको सिद्ध करता है । ऐसे ही योग्य वैद्य भी अपने गुणोंके बलसे और उपकरण ( औषधादि) के बलसे विचारपूर्वक चिकित्सा करताहुआ साध्य और कष्टसाध्यरोगों में निर्विघ्नता से रोगियोंको आरोग्य कर लेता है । इसलिये चिकित्सा करना और न करना वरावर नहीं हो सकता ॥ ५ ॥
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६.११०)
चरकसंहिता-भा० टी०।
आत्रेयकी अनुभूत चिकित्सा । इदंचेदंचनःप्रत्यक्षयदनातुरेणभेषजेनातुरंचिकित्सामः। क्षाहमक्षामेनकृशंदुर्बलमाप्याययामः॥६॥ स्थूलंमेदस्विनमपतपैयामः । शीतेनोष्णाभिभूतमुपचरामः । शीताभिभूतमुष्णेन । न्यूनान् धातूम्पूरयामाव्यतिरिक्तानहासयामः व्याधीमूलविपर्ययेणोपचरन्तःसम्यक्प्रकृतीस्थापयामातेषांनस्तथाकुर्वतामयभेषजसमुदायः कान्ततमोभवति ॥ ७॥ हे मैत्रेय ! यह हमारा साक्षात् अनुभव है कि हम रोगीको रोगसे विपरीत गुण शाली (आरोग्यकारक) औषधिसे, और कमजोरको शक्तिवाली औषधसे चिकित्सा. कर आरोग्य करलेतेहैं । ऐसे ही कृश और दुर्वलको तर्पण औषधीद्वारा पुष्ट कर तेहैं । स्थूल और मेदवालेको रूक्षण कर कृश करलेतेहैं । एवं गर्मीसे पीडितको शीतल क्रिया द्वारा, शीतसे पीडितको उष्णक्रिया द्वारा, अच्छा करतेहै। रसरक्तादि धातुएं कम होगईही तो औषध द्वारा बढा देतेहैं।वढीहुई हों तो कमकर देते हैं। विषम होगईही तो यथोचित कर देतेहैं । इसी प्रकार जिसको जो रोग हो उस रोगके कार णसे विपरीत चिकित्सा कर रोगको दूर करके उसको स्वस्थ कर देतेहैं इस प्रकार । जिस २ को जो २ रोग हो उस २ रोगमें उसी २ प्रकारकी चिकित्साका प्रयोग करनेपर हमारी औषधिय परम लाभदायक होतीहैं ॥ ६ ॥७॥
भवंतिचात्र। .. साध्यासाध्यविभागज्ञोज्ञानपूर्वचिकित्सकः ।
कालेचारभतेकर्मयत्तत्साधयतिध्रुवम् ॥ ८॥ - इसीलिये कहाहै। जो वैद्य रोगको साध्य और असाध्य विचारकर ठीक समय पर हेतु और रोगके विपरीत चिकित्सा. करताहै वह वैद्य औषधसाध्य रोगोंको अवश्य जीतलेताहै ॥ ८॥
असाध्यरोगकी चिकित्साका फल ।। स्वार्थविद्यायशोहानिमुपक्रोशमसंग्रहम् ।
प्राप्नुयानियतवैद्योयोऽसाध्यंसमुपाचरेत् ।। ९ ॥ .. जो वैध असाध्यरोगमें चिकित्सा आरंभ करताहै उसके स्वार्थ( धनादि )विद्या, यश, नष्ट होजातेहें और अपयश फैलताहै तथा उद्योग व्यर्थ जाताहै । इसलिये असाध्य रोगमं यत्न करना वृथा हैं ॥ ९॥
'
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सूत्रस्थान-अ० १०,
(१११), साध्यासाध्यरोगोंके भेद । ..:. ' सुखसाध्यंमतंसाध्यंकृच्छ्रसाध्यमथापिच । -
द्विविधञ्चाप्यसाध्यस्याद्याप्ययदनुपक्रमम् ॥ १० ॥ साध्य व्याधियें दो प्रकारकी होतीहैं एक साध्य और कृच्छ्रसाध्य । ऐसे ही असाध्य भी दो प्रकारकी होती है जैसे याप्य और अचिकित्स्य ॥ १० ॥
साध्यके अन्य भेद ।। साध्यानांत्रिविधश्वाल्पमध्यमोत्कृष्टतांप्रति।
विकल्पोनत्वसाध्यानांनियतानांविकल्पना ॥११॥ . साध्य रोगोंके और भी तीन भेद कहेहैं जैसे अल्प मध्य, उत्कृष्ट, परंतु असाध्य रोगके भेद नहीं यह प्राणनाशक होताहै । और जो चिकित्सायोग्य हैं उनमें भेद अवश्य होताहै ॥ ११ ॥
सुखसाध्यके लक्षण । हेतवःपूर्वरूपाणिरूपाण्यल्पानियस्यच । नचतुल्यगुणोदृष्यो न दोष प्रकृतिर्भवेत् ॥ १२ ॥ नचकालगुणस्तुल्योनदोषो दुरुपक्रमः । गतिरेकानवत्वञ्चरोगस्योपद्रवोनच ॥ १३ ॥ दोषश्चैक समुत्पत्तौदेहःसर्वोषधक्षमः । चतुष्पादोपपत्तिश्चसुखसाध्यस्यलक्षणम् ॥ १४ ॥ (सुखसाध्यके लक्षण ) जिस व्याधिके हेतु (रोगोत्पादक कारण ) और पूर्वरूप, तथा रूप यह सब अल्पहों और दूष्य, देश, प्रकृति, काल, इनके साथ रोगकी साम्यता न होय । और रोग दुरुपक्रम न हो अर्थात् यत्न करनेयोग्य हो। और रोग एकही गतिवाला हो तथा जो रोग नवीन हो और उपद्रवरहित हो जो एक दोषसे ही उत्पन्न हुआहो। जिस रोगीकी देह सब तरहसे चिकित्साक्रम सहन करसकतीहोता तथा चिकित्साके चारों पाद संपन्न हों । यह जिस रोगमें होंय वह सुखसाध्य जानो ॥ १२ ॥ १३ ॥ १४ ॥
कृच्छ्रसाध्यके लक्षण । निमित्तपूर्वरूपाणीरूपाणामध्यमे बले । कालप्रकृतिदुष्टानां सामान्योऽन्यतमस्यच ॥१५॥ गर्भिणीवृद्धालानांनात्युपद्रवपीडितम् । शस्त्रक्षाराग्निकृत्यानामनवंकृच्छ्रदोषजम् ॥१६॥ .
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भी कगामी (अनारोग भोचित दिनका रोग तथा जिन रोगाभणी, वालक स्वभाव,
९ ११२) चरकसंहिता-भा० टोक। विद्यादेकपथंरोगनातिपूर्णचतुष्पदम् । द्विपथनातिकालंवालच्छ्रसाध्यंद्विदोषजम् ॥ १७ ॥ शेषत्वादायुषोयाप्यमसाध्यं
पथ्यसेवया। लब्ध्वाल्पसुखमल्पेनहेतुनाशप्रवर्तकम् ॥१८॥ : जिस व्याधि निमित्त, पूर्वरूप, रूप,यह मध्यम बलवाले हों और समय, स्वभाव,
और दूष्य (रसरक्तादि ) इनके साथ रोगकी तुल्यता होय। गर्मिी , वालंक, वृद्ध, . इनके रोग, और जिनमें बहुत बढेहुए उपद्रव नहीं तथा जिन. रोगोंमें शस्त्र, क्षार, आग्नि इनका प्रयोग करनापडे, और बहुत दिनका रोग; यह सब कष्टसाध्य होतेहैं । एक दोषज और एकमार्गी रोग भी चिकित्साके चार पादोंके बिना कष्टसाध्य होताहै। दिमार्गगामी (ऊर्ध्वगामी और : अधोगामी ) शीघ्र प्रगटहुआ तथा विदोषज रोग भी कष्टसाध्य होताहै ॥ १५॥ १६ ॥ १७॥ यदि आयुबल वाकी हो तो असाव्य रोगर्भ भी पथ्य आदि सेवनसे कुछ समय व्यतीत होजाताहै: और 'वह रोग कुछ दबासा रहताहै ऐसे रोगको याप्य कहतेहैं । इस रोगमें थोडासा कुपथ्य करनेसे भी यह रोग बढजाताहै जैसे पुराना अर्श और श्वास ॥ १८ ॥ . .....
विदोषज तथा कष्टसाध्य व्याधिके लक्षणं । ...... ... गम्भीरबहुधातुस्थमर्मसन्धिसमाश्रितम् । नित्यानुशायिनं रोगंदीर्घकालमवस्थितम् ॥ १९ ॥ विद्याद्विदोषजंतद्वत्प्रत्याख्येयंत्रिदोषजम् । क्रियापथमतिकान्तंसर्वमार्गानुसारिणम् । ॥२० औत्सुक्यारतिसंमोहकरमिन्द्रियनाशनम् । दुर्बलस्य सुसंवृद्धव्याधिसारिष्टमेवच ॥ २१ ॥ .... (असाध्य ) जो रोग गंभीर हो, वहुत- धातुमि स्थित हो, मर्मस्थान और सधियोंमे पहुंचाहुआ होय, जिसमें नित्य उपद्रव बढतहों ऐसा द्विदोषज अथवा त्रिदोषज रोग जबाव देनेयोग्य होताहै अर्थात् यत्नकरनेयोग्य नहीं । जव व्याधि चिकित्सायोग्य न रहीहो। संपूर्णमार्गगामी होगईहो । और रोगीके शरीरमें व्यग्रता (घबराहट) बीमारी अशक्ति और मोह उत्पन्न होय तथा इंद्रियोंकी शक्ति नष्ट होगईहो तथा दुर्बल मनुष्यकी वढीहुई. और मरणयामक व्याधिका यत्न करना .. उचित नहीं वह रोग असाध्य होतेहैं ॥ १९ ॥ २० ॥२१॥ .....
वैद्यको शिक्षा। 1. भिषजाप्रापरीक्ष्यवेविकाराणांसुलक्षणम् । पश्चात्कार्यस
मारम्भःकार्यःसाध्येषुधीमता ॥ २२॥ साध्यासाध्यविभाग
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. सूत्रस्थान-अ०११: । ज्ञोयःसम्यक् प्रतिपत्तिमान् । नसमैत्रयतुल्यानांमिथ्यावुदि प्रकल्पयेत् । इति ॥२३॥ मतिमान् योग्य वैद्यको चाहिये कि इस प्रकार पहले रोगोंकी परीक्षा करके याद रोग साध्य प्रतीत हों तो उनका यत्न आरंभ करे । जो वैद्य. साध्य और असाध्य रोगोंको अच्छी तरहसे जानताहै जो लक्षणद्वारा रोग जानकर चिकित्सा करताहै जो गुण और सामग्रीयुक्त है वह चिंकित्सासे साध्य रोगीको आरोग्य कर सकता है मैत्रेय ! उसकी चिकित्सामें आपको मिथ्याशंका करना उचित नहीं ॥२२॥२३॥
' ' अध्यायका संक्षिप्तवर्णन। . . । तत्रश्लोकौ । इहौषधंपादगुणा प्रभावोभेषजाश्रयः आत्रेयमैत्रेयमतीमतिद्वैविध्यनिश्चयः ॥ २४ ॥ चतुर्विधविकल्पाश्च व्याधयःस्वस्वलक्षणाः। उक्तामहाचतुष्पादेयेष्वायत्तभिषग्'जितामिति ॥२५॥ · · अंग्नीत्यादि ॥ महाचतुष्पादाध्याय:समाप्तः ॥
इस महाचतुष्पाद अध्यायमें-औषध, पादगुण, और औषधका प्रभाव तथा आत्रेय और मैत्रेयजीका पक्ष प्रतिपक्ष और मतभेद तथा उनका निश्चय और व्याधिक चार भेद, तथा व्याधियें और उनके, लक्षण, कथन किये गयेहैं जिस वैद्यको इस ' महाचतुष्पादका ज्ञान है वह औषधि द्वारा रोगोंको जीत सकताहै ॥२४॥२५॥ .
इति श्रीमहर्षिचरंकप्रणीतायुर्वेदीयसंहितायां पटियालाराज्यान्तर्गतटकसालनिवासिवैद्य-. । - पञ्चानन वैद्यरल पं० रामप्रसादवैद्योपाध्यायविरचितप्रसादन्याख्यभाषाटीकायां ।
. .. महाचतुष्पादो 'नाम दशमोऽध्यायः ॥५॥ ... . . एकादशोऽध्यायः। ....
. अथातस्तिषणीयमध्यायव्याख्यास्याम इतिहस्माहभग
वानात्रेयः॥ -- अब हम तिषणीय (तीन.एषणावाले) अध्यायकी व्याख्या. करतेहैं, एसा. आत्रेय भगवान कहनेलगे।..
. . . . . . . . . .
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(११४) चरकसंहिता-भा० टी०।
एषणाओंका निर्देश। इहखलुपुरुपेणानुपहतसत्त्वबुद्धिपौरुपपराक्रमेणहितमिहचामुनिश्चलोकेसमनुपश्यतातित्रएषणाःपर्येष्टव्याभवन्ति ॥ इस संसार मन, बुद्धि, पुरुषार्थ और पराक्रमवाले पुरुषको इस लोक और परलोकके सुखकी इच्छा करतेहुए तीन प्रकारकी एषणा अर्थात् चाहनाएं प्राप्त करनी योग्य हैं ॥ १॥
___ एषणाओंका वर्णन । तद्यथा। प्राणपणाधनपणापरलोकैपणेतिआसान्तुखल्वेषणानांप्राणैषणांतावत्पूर्वतरमापद्येतकस्मात्प्राणपरित्यागौहिसर्वत्यागः तस्यानुपालनस्वस्थस्यस्वस्थवृत्तिरातुरस्यविकारप्रशमनेऽप्रमादस्तदुभयमेतदुक्तंवक्ष्यतेच । तद्यथोक्तमनुवर्तमानः प्राणानुपालनादीर्घमायुरवाप्नोतीति । प्रथमैषणाव्याख्याता । भवति ॥ २॥ वह तीन एपणा यह हैं । १ प्राणषणा, २ धनैषणा, ३ परलोकैषणा, इन तीन । एपणाआम प्राणपणा अर्थात् प्राणरक्षामं यत्नवान् होना सबसे प्रथम कहाँह क्योंकि प्राणांके परित्याग होने पर ही सब वस्तुओंका परित्याग होजाताहै । इसीसे आरोग्य पुरुषको अपनी आरोग्यता ( तन्दुरुस्ती) की सावधानीसे रक्षा करना अत्या वस्यक है और रोगयुक्तको सर्वथा रोगको शांत करनेका उपाय करना चाहिये । यह बात कह भी चुकें और आगेको भी कहतेहैं कि जैसे स्वास्थ्यरक्षाके लिये पहले कायन करचुरह या कथन किये जायंगे उनके अनुसार वर्ताव करते हुए प्राणाका पालन करनेसे दीयोयु होताह । यह प्रथम एषणाका कथन किया गया ॥ २ ॥
धनकी एषणा। अथद्वितीयांधनैपणामापद्यते । प्राणेभ्योह्यनन्तरंधनमेवपय्येव्यंभवति । नयतःपापात्पापीयोऽस्तियदनुपकरणस्यदीर्घमायःतस्मादपकरणानिपय्यटुंयतेततत्रोपकरणोपायाननुव्याख्यास्यामः ॥३॥
सप गरी धनेषणा अर्यात् धनमाप्तिके लिये यल करनेका फयन करते क्योंकि माणसाने अनंता धनकी यावश्यकता होतदिइस पापसे बढकर संसारमं कोई भी
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सूत्रस्थान - अ० ११.
( ११५ ) दुःखदायक पाप नहीं कि आयु तो दीर्घ होय परन्तु धन पास न होय । इसलिये जीवनका परम उपकरण आरोग्यताक्षे अनन्तर धन होता है सो उस धनके प्राप्त करनेके लिये यत्नवान् रहना चाहिये अब उस धनप्राप्तिके यत्नोंको कथन करते हैं ॥ ३ ॥
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धनप्राप्ति के उपाय |
तद्यथा । कृषिपाशुपाल्पवाणिज्यराजोपसेवादीनि । यानिचान्यान्यपि सतामविगर्हितानि कर्माणि वृत्तिपुष्टिकराणिविद्यात्तान्यारभेतकर्तुम् । तथाकुर्वन् दीर्घजीवितमनुवसतः पुरुषो भवतीति । द्वितीयाधनैषणाव्याख्याताभवति ॥ ४ ॥
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जैसे खेती करना, पशुओं को पालना, वाणिज्य ( व्यापार आदि) करना, राजसेवा अर्थात् नौकरी आदि करना, तथा और भी ऐसे २ धनमाप्ति के उपाय " जिनके करने से श्रेष्ठ पुरुषोंमें निंदा और अपयश न होय" और धन तथा जीवनकी वृद्धि होय वैसे यत्नों को करे । ऐसा करनेसे मनुष्य श्रेष्ठतापूर्वक दीर्घजीवनका आनन्द प्राप्त करसकता है । यह दूसरी धनकी एषणाका कथन कियागयाहै ॥ ४ ॥
परलोककी एषणामें विवाद ।
अथतृतीयां परलोकैषणामापद्येतसंशयश्चात्रकथं भविष्यामइतश्युतानवेतिकुतः पुनः संशयइतिउच्यते सन्तिो के प्रत्यक्षपराः परोक्षत्वात् पुनर्भवस्यनास्तिक्यमाश्रिताः सन्तिचागमप्रत्ययादेव पुनर्भवमिच्छन्तिश्रुतिभेदाच्च ।
"मातरंरांपितरञ्चैकेमन्यन्तेजन्मकारणम् । स्वभावपरनिर्माणं यदृच्छाञ्चापरे जनाः ॥"
इत्यतः संशयः । किंनुखल्वस्तिपुनर्भवानवेति । तत्रबुद्धिमान्नास्तिक्यबुद्धिजह्यात्वचिकित्साञ्चाकस्मात् प्रत्यक्षह्यल्पमनल्पमप्रत्यक्षमस्तियदागमानुमानयुक्तिभिरुपलभ्यते । यैरेवतावप्रत्यक्षमुपलभ्यतेतान्येवसन्तिचाप्रत्यक्षाणि ॥ ५ ॥
द्विन्द्रियैः
'अब इसके उपरांत तीसरी परलोक एषणाको कहते हैं । सो यहां यह संशय होता है कि इस लोकसे पतित होनेपर अर्थात यह शरीर छोड़ने पर हम फिर कहीं प्रगट होंगे या नहीं, अथवा शरीरत्याग के अनन्तर हम किसी रूपमें रहेंगे या शरीरांद में ही
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चरकसंहिता - भा० टी० ।
सबका अंत है । यह संदेह कैसे हुआ उसको कहते हैं ( ॥ १ ॥ ) कुछ लॉग प्रत्यक्षवादी हैं वह कहते हैं कि हमको कोई परलोकको जाता या परलोकसे आकर जन्मलेता दिखाई नहीं देता इसलिये पुनर्जन्म या परलोकको हम नहीं मानते जो इंद्रि यद्वारा प्रत्यक्ष है उसीको हम मानते हैं अप्रत्यक्ष नहीं । इस प्रकार नास्तिकताको ग्रहण करते हैं ( ॥ २ ॥ ) दूसरे ( आस्तिकलोग ) अनुमानसे तथा आप्तवाक्यसे और श्रुतिवाक्यसे पुनर्जन्म सिद्ध है ऐसा मानते हैं (॥३॥ ) तीसरे जन्मका कारण माता पिता ही होते हैं सदासे ऐसा ही चला आया है इनसे सिवाय और कोई कारण नहीं (॥ ४ ॥ ) चौथे स्वभावको ही मानते हैं, अर्थात् जीव अपने आप ही जन्म लेता है अन्य कारण नहीं ( ॥ ५ ॥ ) पांचवें कहते हैं कि कोई इस संसा: ant रचनेवाला है वही इस जीवको उत्पन्न करता है ( ॥ ६ ॥ ) छठे कहते हैं यह विश्व में एक ऐसी शक्ति है जिससे मनुष्यादि उत्पन्न होते हैं और इसको रचनेवाला कोई नहीं । इसलिये संशय होता है कि पुनर्भव ( पुनर्जन्म ) होता है या नहीं । अब समाधान करते हैं कि धृष्टतासे नास्तिक ही बनजाना और युक्ति प्रमाण इत्यादिक न मानना इसका तो कुछ यत्न ही नहीं । यदि तुम कहो पुनर्जन्म प्रत्यक्ष नहीं अर्थात् दीखता नहीं; सो संसार में प्रत्यक्ष बहुत कम है और अप्रत्यक्ष बहुत है अर्थात् ऐसी बहुत वस्तुएं हैं जो प्रत्यक्ष तो नहीं परन्तु आप्तोपदेश, अनुमान, युक्ति इनसे स्पष्ट प्रतीत होती हैं। और देखिये तो सही जिन इंद्रियोंद्वारा हमको प्रत्यक्षकी उपलब्धि होती है वह इंद्रियें ही अप्रत्यक्ष हैं तो प्रत्यक्ष न होनेसे क्या इंद्रियोंका अभाव मानोगे ? ( कभी नहीं ) ॥ ५ ॥
प्रत्यक्ष
वाधक ।
सताञ्च रूपाणामतिसन्निकर्षादतिविप्रकर्षादावरणात् करणदौबल्यान्मनोऽनवस्थानात्समानाभिहारादाभिभवादतिसौक्ष्म्याचप्रत्यक्षानुपलब्धिः । तस्मादपरीक्षितमेतदुच्यतेप्रत्यक्षमेवास्तिनान्यदस्तीतिश्रुतयश्चैतानकारणंयुक्तिविरोधात् ॥ ६ ॥
औरभी देखिये अनेक प्रकारसे रूपवाली वस्तुके विद्यमान रहते भी प्रत्यक्ष नहीं होता । जैसे अति समीप होनेसे अर्थात् नेत्रमें जो अंजन या अन्य कोई पदार्थ नेत्रसे छुआ देनेसे दिखाई नहीं पडता ऐसेही बहुत दूर होनेसे भी प्रत्यक्ष नहीं होता । एवं बीच में कोई भीत आदि होनेसे, इंद्रियकी दुर्बलतासे अथवा मनकी चञ्चलतासे अर्थात् मनके संयोग के बिना भी इंद्रियसे प्रत्यक्ष होने योग्य वस्तु-: का प्रत्यक्ष नहीं होता । ऐसे ही समान वस्तुओं में मिलजानेसे अर्थात् एक चावल
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सूत्रस्थान-अ० ११.
(११७) उठाकर फिर चावलोंके बडे ढेरमें मिलादो तो फिर वह प्रत्यक्ष नहीं होता! एक वस्तु दूसरेसे बढनाय तबभी प्रत्यक्ष नहीं होता जैसे सूर्य के प्रकाशसे तारागण रहते हुए भी दिखाई नहीं देते और अत्यंत सूक्ष्म होनेसे ( जैसे परमाणु ) भी प्रत्यक्ष नहीं होता इसलिये यह कहदेना कि जो हमारी इंद्रियोंसे प्रत्यक्ष है वह ही है और कुछ नहीं यह कहना अप्रामाणिक चकवाद है श्रुतिवाक्यसे तथा युक्तिसे भी पुनर्जन्मके न होने में कोई हैतु नहीं अर्थात् पुनर्जन्म युक्ति और शास्त्रसे सिद्ध है ॥ ६ ॥ (यह प्रत्यक्षवादियोंका खंडन हो चुका)।
जन्मकारणपर विवाद । आत्मामातुःपितुर्वाय सोपत्ययदिसञ्चरेत्। द्विविधंसञ्चरेदात्मा सर्वोवावयवेनवा ॥ ७ ॥ सर्वश्चेत्सञ्चरेन्मातुःपितुर्वामरणं भवेत् । निरन्तरनावयवःकश्चित्सूक्ष्मस्यचात्मनः ॥ ८ ॥ बुद्धिर्मनश्चनिर्णीतेयथैवात्मातथैवते । येषाञ्चैषामतिस्तेषांयो
स्तिचतुर्विधा ॥९॥ . अव यदि कहो कि माता और पिताका आत्मा ही पुत्र रूपसे पैदा होताहै या माता अथवा पिताके आत्मासे पुत्रका आत्मा उत्पन्न होताहै तो यह भी नहीं होसकता। क्योंकि माता या पिताका आत्मा दो प्रकारसे अपत्यरूपमें आसकता है या तो संपूर्ण रूपसे, अथवा अंशविभाग अर्थात् हिस्सेसे याद कहो कि संपूर्ण आत्मा ही अपत्य (.संतान ) रूपसे संचार करताहै तो माता या पिताका संपूर्ण आत्मा पुत्र में आनेसे माता या पिताका मृत्यु होजाना चाहिये । यदि कहो आत्माका कोई भाग संतानरूपसे पैदा होताहै तो यह भी नहीं होसकता । क्योंकि सूक्ष्म आत्माके विभाग नहीं होसकते । इसलिये यह कहना कि कर्माधीन पुनर्जन्म नहीं होता माता पितासेही आत्माकी उत्पत्ति होतीहै-वृथा है । यदि कहो कि माता पिता की बुद्धि, और मन संतान रूपसे पैदा होतेहैं, यह कहना भी ठीक नहीं, क्योंकि बुद्धि,मन भी आत्माके समान सूक्ष्म हैं और उनके भी विभाग नहीं होसकते दूसरे यह भी बात है जो माता पितासे ही संतानकी उत्पत्ति मानोगे तो उनके मतमें स्वेदज, अंडज, जरायुज, उद्भिज्ज, यह चार प्रकारकी योनि नहीं होसकती क्योंकि बताओ स्वेदसे उत्पन्न होनेवालोंके और जमीनकी पानीयुक्त भाफसे पैदाहोनेवालों के माता पिता कौन हैं अर्थात् कोई नहीं ॥ ७॥ ८॥ ९॥ . ... १ इन्द्रिय और अर्थक सन्निकर्षसे व्यभिचार रहित निश्चयात्मक ज्ञानको प्रत्यक्ष कहतेहैं ।
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चरकसंहिता - भा० टी० 1
स्वभाववादियों के मतका खण्डन ।
विद्यात्स्वाभाविकंषण्णांधातूनां यत्स्वलक्षणम् । 'संयोगे चवियोगेच तेषां कर्मैव कारणम् ॥ १०॥
यदि कहो कि यह स्वाभाविक धर्म है कि पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश और आत्मा इनके संयोग होनेसे उत्पत्ति और वियोग होनेसे नाश होजाता है तो बतलाइये इन सबके संयोग और वियोग होने में कारण कौन है यदि कहो पूर्व जन्मका कर्म कारण है तो पुनर्जन्म सिद्ध होगया । नहीं तो संयोग वियोगमें कोई हेतु नहीं दीखता ॥ १० ॥
(२१८)
परनिर्माणवादियों का खण्डन । अनादेश्चेतनाधातानेंष्यतेपरनिर्मितिः । . परआत्मासचे द्धेतुरिष्टोऽस्तुपरिनिर्मितिः ॥ ११ ॥
और अनादि चैतन्य आत्मा कोई बना भी नहीं सकता क्योंकि जो वस्तु बनाईं जाती हैं वह जिस दिन बनी वह दिन उसकी आदिका है इसलिये जो अनादि है उसको कोई बना नहीं सकता । यदि कहो परमात्मा इसका बनानेवाला है तो इसमें कोई आपत्ति नहीं; क्योंकेि परमात्माको कर्त्ता माननेमें आस्तिकतामें कोई हानि नहीं ॥ ११ ॥
यहच्छावादियों का विषय ।
नपरीक्षा नपारीक्ष्यंनकर्ताकारणंनच । नदेवानर्षयः सिद्धाः कर्मकर्मफलंनच ॥ १२ ॥ नास्तिकस्यास्तिनैचामायच्छोपहतात्मनः । पातकेभ्यः परञ्चैतत्पातकनास्तिकग्रहः ॥ १३ ॥ तस्मान्मति॑िविमुच्येताममार्गप्रसृतांबुधः । सत बुद्धिप्रदीपेन पश्येत्सर्वयथातथम् ॥ १४ ॥ इति ॥
यदि कहो प्रमाणसे कोई परीक्षा नहीं और न परीक्षाका कोई विषय हैं । नं कोई कर्ता है। न कारण है। न ऋषिहै। न देवता है। न सिद्ध है। न कुछ कर्म है। न कर्मका फल होता है । न और कुछ हैं । न आत्मा है । मरण जन्म भी ऐसे ही है इसकाभी कोई कारण नहीं । ऐसे अंटसंट बकनेवालेके समीप जाना भी पापोंसे बढकर महापाप है । क्योंकि इस मूर्ख निंदक नास्तिक को किसी प्रकार मानना तो है ही नहीं, इससे बात करना भी मूर्खता है ॥ १२ ॥ १३ ॥ इसलिये धृष्टता और कुमा
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सूत्रस्थान-अ० ११. (११९) गंगामी कुबुद्धिको त्यागकर श्रेष्ठबुद्धिरूप दीपकसे जैसा जो कुछ यथार्थ (ठीक २) हा उसकी परीक्षा करे अर्थात् देखलेवे ॥ १४ ॥
सत्असतकी परीक्षा। द्विविधमेवखलुसर्वसच्चासच्चतस्यचतुर्विधापरीक्षा ।
आप्तोपदेशः प्रत्यक्षमनुमानयुक्तिश्चति ॥ १५॥ . संपूर्ण जगत्में भला और बुग यह दो भेद हैं । सत् सत्यको कहतेहैं और असत् झूठको कहतेहैं। इन सत् और असत्के जाननेके लिये चार प्रकारकी परीक्षा है अर्थात् चार प्रमाणों द्वारा यावन्मात्रका सत् और असद निर्णय होसकता है। वह चार परीक्षा (प्रमाण) यह हैं । १ आप्तोपदेशं, २ प्रत्यक्ष, ३ अनुमान और ४ युक्ति ॥१५॥
आप्त तथा उनका उपदेश।
आप्तास्तावत् । रजस्तमोभ्यांनिर्मुक्तास्तपोज्ञानबलेनये । येषांत्रिकालममलं ज्ञानमव्याहतंसदा ॥ १६॥ आता:शिष्टविबुद्धास्तेतेषांवाक्यमसंशयम् । सत्यंवक्ष्यन्तितेकस्मादसत्यं नीरजस्तमाः॥१७॥
अब पहले आप्तके लक्षण कहतेहैं । जिन महात्माओंका रजोगुण और तमोगुण तप तथा ज्ञानके वलसे नष्ट होगयौहै और जो भूत, भविष्यत्, वर्तमान के जानने वाले हैं तथा जिनका निर्मल ज्ञान कभी नष्ट नहीं होता उन महात्माओंको आप्त शिष्ट और ज्ञानी कहतेहैं इनके वाक्य निःसंदेह सत्य होतेहैं क्योंकि, रज तमसे निर्मुक्त होनेके कारण यह असत्य बोलतेही नहीं इसलिये इनके वाक्य (आप्तोप देश) निःसन्देह सत्य माननीय हैं ॥ १६ ॥ १७ ॥
प्रत्यक्षका लक्षण ।। आत्मेन्द्रियमनोऽर्थानांसान्निकर्षा प्रवर्तते ।
व्यक्तातदात्वेयाबुद्धिःप्रत्यक्षंसानिरुच्यते ॥१८॥ आत्मा, इंद्रिय, मन और इंद्रियका विषय इन सवका सनिकर्ष होनेसे जो निश्चयात्मक ज्ञान होताहै उसको प्रत्यक्ष कहते हैं ॥ १८॥
" अनुमानका लक्षण! . प्रत्यक्षपूर्वत्रिविधंत्रिकालञ्चानुमीयते । वह्निनिगूढोधूमेनमै- ' "थुनगर्भदर्शनात् ॥ १९ ॥ एवंव्यवस्यन्त्यतीतंबोजात्फलमनागतम् । दृष्टावीजात्फलं जातमिहैवसदृशंबुधाः॥२०॥
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चरकसंहिता-भा० टी०। ... : प्रत्यक्षपूर्वक तीन प्रकारका अनुमान होताहै । कार्य लिङ्गानुमान,कारण लिङ्गानुमान, कार्यकारण लिङ्गानुमान; अथवा यों कहिये पूर्ववत्, शेषवत्, सामान्यतोसृष्ट, यह तीनप्रकारका अनुमान अतीत,. अनागत, वर्तमान, इन तीन कालोंके ज्ञानका बोधक होताहै । जैसे धूमके दर्शनसे अग्निका बोध होजाना यह वर्तमान कालिक अनुमान है । गर्भवतीको देखकर यह बोध होना इसने पहले मैथुन किया? यह अतीतकालिंक अनुमान है।बीजोंको देखकर यह बोध होना कि इनसे ऐसे फल होंगे यह भावष्यत्कालिक अनुमान है अथवा यों कहिये इन बीजोंसे ऐसे फल होंगे और ऐसे फलोंसे ही यह बीज हुए इसको कार्यकारणानुमान कहते हैं ॥१९॥२०॥
... युक्तिका लक्षण । . .. जलकर्षणबीज संयोगाच्छस्यसंभवः । युक्तिःषधातुसंयोगागर्भाणांसम्भवस्तथा ॥ २१ ॥ मथ्यमन्थनमन्थानसंयोगादग्निसम्भवः । युक्तियुक्ताचतुष्पादसम्पयाधिनिबर्हणी। ॥ २२ ॥ बुद्धिःपश्यतियाभावान्बहुकारणयोगजान् । युक्ति... स्त्रिकालासाज्ञेयात्रिवर्ग:साध्यतेयया ॥२३॥
युक्तिके लक्षण जैसे-जल, खेत, बीज, ऋतु, इन चारोंके योगसे शस्य (अन्नकी खेती) उत्पन्न होतीहै । ऐसे ही पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, और आत्माके योगसे गर्भ उत्पन्न होताहै । और जैसे मंथ और मंथन (यज्ञमें घिसकर अग्नि पैदा करनेकी दोनों लकडियोंको मंथ और मंथन. कहतेहैं ) तथा मंथनकर्ता, इनके संयोगसे अग्निकी उत्पत्ति होतीहै इसी प्रकार चतुष्पादसम्पन्न चिकित्सासे व्याधि भी नष्ट होजातीहै । इसप्रकार जो बुद्धि अनेक कारणोंसे पैदाहुए अनेक भावोंको देखने में समर्थ होतीहै उसीको युक्ति कहतेहैं यह युक्ति भूत, भविष्यंत, वर्तमान, इन तीन कालोंमें ही व्यापक होनेवाली है। इसीके द्वारा धर्म अर्थ काम की सिदि होती है ॥ २१ ॥ २२ ॥ २३ ॥ . - एषापरीक्षानास्त्यन्याययासर्वपरीक्ष्यते। ..........
परीक्ष्यंसदसच्चैवतयाचास्तिपुनर्भवः ॥ २४॥ सम्पूर्ण सत् और असत्के जानने के लिये यह चार प्रकारकी परीक्षा है अर्थात यह चार प्रमाण हैं । इन चारोंसे अधिक परीक्षा अर्थात् पाँचवां कोई प्रमाण नहीं यद्यपि. कोई२ अर्थापत्ति अनुपलब्धि आदि अन्य प्रमाणभी,मानतेहैं परंतु अनुमान और युक्तिके अंतर्गत अर्थापत्ति आदिके आजानेसे इन चारोंसे अन्य प्रमाण कल्पना
होती है लाम ही व्यापक
होते हैं यह युक्ति भए अनेक भा
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सूत्रस्थान-अ० ११.
१ १२१) करना वृथा है । इन चार परीक्षाओस ही सभीका परीक्षण होजाताहै । इन चार परीक्षाओं द्वारा ही सत्, असत् और पुनर्भव जानाजाता है ॥ २४॥ . *. .
भातागमका लक्षण, फल। • तत्राप्तीगमस्ताववेदोयश्चान्योऽपिकश्चिद्वेदार्थादविपरीतःपरी
क्षकैःप्रणीतः । शिष्टानुमतोलोकानुग्रहप्रवृत्तःशास्त्रवादः .. सचाप्तागमः। आप्तागमादुपलभ्यते दानतपोयज्ञसत्याहिंसा- . ब्रह्मचर्याण्यभ्युदयनिःश्रेयस्कराणीति । नचानतिवृत्तसत्त्वदोषाणामदोषैरपुनर्भवोधर्म्यद्वारेषुपदिश्यते ॥ २॥ . सबसे बढकर प्रमाणिक वेद है और भी जो वेदके आशयसे विरुद्ध न हों ऐसे वाक्य तथा आप्तऋषियोंके रचेहुए शास्त्र एवं श्रेष्ठ पुरुषोंके मानेहुए और लोकपरंपरासे प्रचलित शास्त्रोंके वाक्य वेदसे अविरुद्ध आप्तागम कहेजातेहैं । इन आता
गम (प्रामाणिक वाक्य ) द्वारा-दान, तप, यज्ञ, सत्य, अहिंसा, और ब्रह्मचर्य — इनकी प्राप्ति होतीहै इसीसे इस लोक और परलोकमें सुखकी प्राप्ति होतीहै . आप्तोंका उपदेश है कि जबतक रजोगुण औरः तमोगुण दूर होकर मनकी शुद्धि नहीं होती तब तक मोक्षकी प्राप्ति नहीं होसकती ॥ २५ ॥ . धर्मद्वारावहितैश्चव्यपगतभयरागद्वेषलोभमोहमानैर्ब्रह्मपरैराप्तैः ।
· कर्मविद्भिरनुपहतसत्त्वबुद्धिप्रचारैःपूर्वैःपूर्वतरैर्महर्षिभिर्दिव्य- .. • चक्षुभिदृष्टोपदिष्टपुनर्भवइतिव्यवस्येदेवं प्रत्यक्षमपिचोपल
क्यते ॥ २६ ॥ जो धर्ममें रत हैं और जिनके भय,राग,देष,लोभ,मोह, मान, यह समूल नाशकों प्राप्त होचुकेहैं तथा ब्रह्मके जाननेवाले, आप्त, कर्मके जाननेवाले, और जिनके मन, बुद्धि निश्चल हैं तथा जो सदैव ज्ञानयुक्त हैं उन पहले होनेवाले प्राचानतम मह; पियोंने ज्ञानके नेत्रोंद्वारा पुनर्जन्मको देखकर उसे. सिद्ध किया है और प्रत्यक्षमें भी पुनर्जन्मकी उपलब्धि होतीहै ॥ २६ ॥..
. पुनर्जन्ममें अनुमान। . . .. मातापित्रोविसदृशान्यपत्यानितुल्यसम्भवानांवर्णस्वराकृति- . .. सत्त्वबुद्धिभाग्यविशेषाः प्रवरावरकुंलजन्मदास्यैश्वर्यसुखा- सुखमायुः । आयुषोवैषम्यमिहकृतस्यावातिरशिक्षितानाञ्चरु
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( १२२ )
चरकसंहिता कुमा० टी०
दितस्तनपान हासत्रासादीनाञ्च प्रवृत्तिलक्षणोत्पत्तिः कर्मसामान्ये फलविशेषोमेधाक्वचित्क्वचित्कर्मण्यमेधाजातिस्मरणमि
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हागमनमितश्च्युतानाञ्चभूतानां समदर्शनेप्रियाप्रियत्वमतएवानुमीयते । यत् स्वकृतमपरिहार्यमविनाशिपौर्वदेहिक देवसंज्ञकमानुबन्धिककर्म्मतस्यैतत्फलमितश्चान्यद्भविष्यतीतिफलाद्दीजमनुमीयते । फलञ्च वीजात् ॥ २७ ॥
और यह देखने में भी आता है कि संतानके शरीरावयव माता पिताके समान नहीं होते । और एकही माता पितासे पैदा हुए पुत्रों के भी वर्ण, स्वर, आकृति, सत्त्व, बुद्धि, और भाग्य में भेद ( फरक ) होता है अर्थात् सव एकसे नहीं होते। ऐसे ही कुल जन्म, दास्य, ऐश्वर्य, इनमें भी बडाई छोटाई तथा किसीकी सुखायु और किसीकी दुःखाय व्यतीत होती दिखाई देती है। इसी प्रकार आयुमें न्यूनता अधिकता, और इस जन्म में किये हुए बहुतसे कर्मों का फल इसी जन्ममें न होना, विना ही किसीसे सीखे जन्मलेते ही बच्चेका रोना, स्तनपान करना, हँसना, दुःखित होना, इनसे भी पुनर्जन्म सिद्ध है । ऐसे ही बालकके जन्मसे शुभ तथा अशुभ लक्षणोंसे कर्म तुल्य होते हुए भी फलमें भेद होनेसे, एककामके करनेमें बुद्धिभेद होनेसे और इस लोकसे मरकर फिर इसी लोकमें आकर जन्म लिया है ऐसा बहुत मनुष्योंको स्मरण होजा: ता है इससे तथा एकही वस्तुमें एकका प्रेम दूसरेका विरोध देखने में आता है, ऐसे २ हेतुसे स्पष्ट प्रतीत होता है कि जो २ जिस २ ने पूर्वजन्ममें किया है वह किसीसे मिटाया नहीं जाता वह अविनाशी है, उसी कर्मको लोकमे दैव उसीको अनुवन्धी कर्म (पुरारब्ध ) कहते हैं जिसका फल इस जन्ममें भोगना पडता है । ऐसे ही इस जन्मके किकर्मके फलको आगेको होनेवाले जन्म में भोगना पडेगा । जैसे फलसे बीज और वीजसे फल होता हैं, ऐसे ही कर्माधीन जन्म होता जाता है ॥२७॥ युक्तिसे पुनर्जन्मकी सिद्धि । युक्तिश्चैषाषड्धातुसमुदयाद्गर्भजन्मकर्तृकरणसंयोगात्क्रियाकृतस्यकर्मणःफलंनाकृतस्यनां कुरोत्पत्तिरबीजात् । कर्मसदृशं फलंनान्यस्माद्दीजादन्यस्यात्पत्तिरितियुक्तिः ॥ २८ ॥
१ पूर्वाऽभ्यरतस्मृत्यनुबन्धाज्जातस्य हर्षेभयशोकसंप्रतिपत्तेः ) न्या० भा० । जातः खंल्वयं कुमारकोऽस्मिञ्जन्मन्यग्रहीतेषु हर्ष भयशोकहेतुपु हर्पभयशोकान् प्रतिपद्यते लिंगानुमेयान् ते च स्मृत्यनुबन्धादुत्पद्यन्ते नान्यथा । स्मृत्यनुबन्धच पूर्वाभ्यासंमन्तरेण न भवति पूर्वाभ्यासश्च पूर्वजन्मनि सति नान्यथा ।
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सूत्रस्थान - अ० : ११.
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और यह युक्ति से भी सिद्ध है कि पांच महाभूत और छठी आत्मा इन छहों कें संवन्धसे ही गर्भकी उत्पत्ति होती है और गर्भमें आकर जन्म लेनेमें आत्मा के पूर्वजन्मका संबंध है क्योंकि कर्ता और कारण के संयोग होने पर ही क्रियाका आरंभ होता है | किये हुए कर्मका हो फल होता है विना कियेका नहीं होता । जैसे विना बीजके अंकुरकी उत्पत्ति नहीं होसकती । जैसा कोई कर्म करता है उसी प्रकारका फल भोगना पडता है । जैसे जबके बीजसे जवकी उत्पत्ति सर्षपसे सर्षपकी उत्पत्ति होती है अन्य बीजसे अन्यकी उत्पत्ति नहीं होती ऐसे ही जैसा कर्म होता है उसका वैसाही फल होता है । यह युक्ति है ॥ २८ ॥
एवंप्रमाणैश्चतुर्भिरुपदिष्टैःपुनर्भवोधर्म्मद्वारेष्वनुविधीयते ॥ २९ ॥
इस प्रकार चारों प्रमाणोंसे पुनर्जन्म स्पष्ट सिद्ध है इन चार प्रमाणोंद्वारा पुनर्जन्म में आस्तिकता होनेसे मनुष्य धर्मपरायण होसकता है जिन कार्योंके करनेसे मनुष्यका परलोक अच्छा हो सकता है उन धर्मकायाँको कथन करते हैं ॥ २९ ॥ परलोकैषणामें कर्त्तव्य कर्म ।
तद्यथागुरुशुश्रूषायामध्ययनेत्रतचर्य्यायांदारक्रियायामपत्यो
त्पादनेभृत्यभरणेऽतिथिपूजायां दानेनाभिध्यायांतपस्यनसूया - यांदेहवाङ्मनसेकर्म्मण्यविष्ठेदेहेन्द्रियमनोऽर्थ बुद्ध्यात्मपरीक्षायांमनः समाधाविति । यानिचान्यान्यप्येवंविधानिकर्म्माणिसतामविगर्हितानि स्वर्ग्याणिवृत्ति पुष्टिकराणिविद्यात्तान्यारकर्तुम् । तथा कुर्वन्निहचैवयशोलभते प्रेत्यचस्वर्गमिति । तृतीया परलोकैषणाव्याख्याताभवति ॥ ३० ॥
वह परलोकको उत्तम बनानेवाले कर्म इस प्रकार हैं गुरुशुश्रूषा, अध्ययन, और व्रत करना शास्त्रोक्त रीतिले विवाहकर धर्मसे सन्तान पैदा करना, भृत्योंकापालन, अतिथिपूजन, और दान करना, परांये द्रव्यमें लोभ न करना, तप, करना, अनसूया (किसीकी निन्दा न करना ), शरीर, मन, वाणीसे, कोई अशुभ काम न करना, आलस्य न करना, और देह इंद्रिय, मनके विषय, बुद्धि, और आत्मा इनकी. परीक्षा में विषयोंसे मनको रोकनमें तत्पर रहना । तथा और भी जो २ इसप्रकारके सत्कार्य स्वर्गदायक हों और जो श्रेष्ठपुरुषोंसे आनंदित कार्य जीविकाकी वृद्धि करनेवाले समझे उनको भी किया करे। ऐसा करनेसे इस लोकमें यशकी प्राप्ति और परलोकमें स्वर्गकी प्राप्ति होती है। यह तीसरी परलोक एषणा कही गई है ॥ ३० ॥
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हैं. १२४) चरकसंहिता--भा० टी०।
....... . . . . . . : उपस्तम्भादि त्रिक। । . . .. अथखलुत्रयउपस्तम्भाः, त्रिविधवलम्, त्रण्यिायतनानि,
, योरोगाः, त्रयोरोगमार्गाः; त्रिविधाभिषजः, त्रिविधमौषध-.... - मिति ॥३१॥. — यहां-तीन उपस्तंभ अर्थात् खम्भे हैं । तीन प्रकारका. वल है तीन आयतन हैं तीन रोग हैं । तीन रोगमार्ग हैं। तीन प्रकारके वैद्य हैं। तीन प्रकारको औषधि हैं ॥ ३१ ॥
उपस्तंभोंका वर्णन। . त्रयउपस्तम्भाइत्याहारःस्वप्नोब्रह्मचर्यमितिएभिस्त्रिभिर्युक्तियुक्तैरुपस्तब्धमुपस्तम्भैःशरीरंबलवर्णोपचयोपचितमनुवर्त- . ते यावदायुषःसंस्कारात् ॥ ३२॥ (३ उपस्तंभ ) आहार, निद्रा, ब्रह्मचर्य, यह तीन शरीरके उपस्तंभ-खम्भ हैं। इन तीनों युक्तियुक्त स्तंभोंके ठीक सेवनसे शरीरमें बल और वर्णकी वृद्धि । होती रहेगी और आयुकी वृद्धि होगी। इसी प्रकार इनके अनुचित व्यवहारसे आयुकी हानि करनेवाले रोग होते हैं उनका इसी अध्यायमें कथन करेंगे.॥ ३२ ॥
तीनप्रकारका वल। संस्कारमहितमनुपसेवमानस्य यइहैवोपदेक्ष्यते । त्रिविधबलमितिसहजकालजयुक्तिकृतञ्चसहजंयच्छरीरसत्त्वयोःशाकतम् । कालकृतमृतुविभागजंवयःकृतञ्च । युक्तिकृतंपुनस्तदा
हारचेष्टायोगजम् ॥ ३३ .... " (३ प्रकारका बल) सहजबल, कालकृतबल, युक्तिकृतबल, यह तीन प्रकारका बल होताहै। इनमें शरीर और मनका जो स्वाभाविक बल है उसको सहजबल . कहतेहैं। और ऋतुविशेष या अवस्थाजन्य जो बल हैं उसको कालकृतवल कहतेहैं । एवं आहार, कसरत, अथवा किसी औषध आदि योग या अभ्याससे प्राप्त किये हुए बलको युक्तिकृत बल कहतेहैं ॥ ३३ ॥...
... तीन आयतनोंका वर्णन । ... ' त्रीण्यायतनानीतिअर्थानांकर्मणः कालस्यचातियोगायोगा.भियोगाः । तत्रातिप्रभाक्तांदृश्यानामतिमात्रंदर्शनमतियोगः
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सूत्रस्थान - अ० ११. ..
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सर्वशोऽदर्शनमयोगः । अतिसूक्ष्मातिविप्रकृष्टरौद्र भैरवाद्भुतद्विष्टबीभत्सविकृतादिरूपदर्शनं मिथ्यायोगः ॥ ३४ ॥
(३ आयतन) इंद्रियार्थ, कर्म, काल, इन तीनोंका अतियोग, अयोग,. - मिथ्यायोग, तीन प्रकारके आयतन अर्थात् रोगों के पैदा करनेवाले कारण कहे जाते हैं । उनमें अत्यंत कांतिवाले पदार्थको बहुत गौरसे अधिक देर देखना यह. अतियोग है । और एकदम सवतरह से देखना बंद करदेना. अयोग कहाता है । इसी प्रकार बहुत बारीक, अत्यंत समीप, तथा बहुत दूर, अतिभयंकर, अद्भुत, बुरा लग.. नेवाला, जिसके देखनेसे ग्लानि हो, तथा विकृत आदि वस्तुओं के देखनेको मिथ्यायोग कहते हैं (यह दर्शनेंन्द्रियका अतियोग, अयोग, मिथ्यायोग हुआ ॥ ३४ ॥ शब्दातियोगादिका वर्णन । तथातिमात्रस्तनितोपहतकुष्टादीनां शब्दानामतिमात्रश्रवणमतियोगः । सर्वशोऽश्रवणमयोगः । पुरुषेष्टविनाशोपघातप्रधर्षणभीषणादिशब्दश्रवणंमिथ्यायोगः ॥ ३५ ॥
इसी प्रकार, वज्रपातके शब्दको सुनना, नगारे आदिका अथवा किसी वस्तुपर अन्यवस्तुके लगने के तीक्ष्ण शब्दका सुनना, अत्यंत तीक्ष्ण अनुक्रोश आदि शब्दका सुनना अथवा किसी शब्दका बहुत देर तक सुनना श्रवणेन्द्रियका अतियोग होता है कुछ भी न सुनना अयोग कहाता है । ऐसे ही - कठोरवाक्य, प्यारी वस्तुका नाश. वज्रघात, रोमांचकारक शब्द, भयकारक शब्द, ऐसे २ शब्द सुननेको श्रवणेंद्रियका मिथ्यायोग कहा जाता है । यह श्रवणका अतियोग, अयोग, मिथ्यायोग हुआ ॥ ३५ ॥ गन्धातियो गादिवर्णन | तथातितीक्ष्णाग्राभिष्यन्दिनगन्धानामतिमात्रंप्राणमतियोगः सर्वशोऽप्राणमयोगः । पूतिर्द्विष्टामेध्यक्लिन्न विषपवनकुणपगन्धादिघ्राणंमिथ्यायोगः ॥ ३६ ॥
अतितीक्ष्ण अतिउंग्र, और अभिष्यंदि आदि गन्ध अत्यंत सूधना अतियोग कहा जाता है । कुछ भी न सूघना अयोग और दुर्गंधित, द्वेषयुक्त गंधवाला, अपवित्र: भीगा हुआ विषयुक्त पवन, मुर्देकी गंध, इनके सूंघनेको मिथ्यायोग कहते हैं । यह प्राणका - अतियोग, अयोग, मिथ्यायोग हुआ ॥ ३६ ॥
रसातियोगादिका वर्णन ।
तथारसानामत्यादानमतियोगः । अनादानमयोगः । मिथ्या-: योगोराशिव ज्येष्वाहारविधिविशेषायतनेषूपादेक्ष्यते ॥ ३७ ॥
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( १२६ )
चरकसंहिता - भा० टी० 1
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इसके अधिक सेवन करनेको अतियोग, कुछ भी न खानेको अयोग, और आहारके मिथ्यासेवनको मिथ्यायोग कहते हैं । मिथ्यायोगको अपरिमित भोजनके वर्णनमें विशेषरूपसे कहेंगे ॥ ३७ ॥
स्पर्शातियोगादिका वर्णन । तथातिशीतोष्णानां स्पृश्यानांस्नानाभ्यङ्गात्सादनादीनाञ्चात्युपसेवनमतियोगः । सर्वशोऽनुपसेवनमयोगः । विपमस्थानाभिघाताशुचिभूतसंस्पर्शादयश्चेतिमिथ्यायोगः ॥ ३८ ॥
अत्यंत शीतल और अतिउष्ण जलसे देर तक स्नान करना, मालिश, उद्वर्तन आदिका अतिसेवन अतियोग कहाता है । एकदम किसी स्पर्शकारक वस्तुका सेवन न करना अयोग है । ऐसे ही विषमस्थानमें फिरना, बैठना, सोना, चोट लगना · तथा अपवित्र वस्तुके स्पर्शआदिको मिथ्यायोग कहते हैं । यह स्पर्शके अतियो-गादि हुए ॥ ३८ ॥
स्पर्शनेन्द्रियको सर्वव्यापकता ।
तत्रैकंस्पर्शनेन्द्रियमिन्द्रियाणामिन्द्रियव्यापकंतत: समवायि
स्पशनव्या तेर्व्यापकमपिचचेतस्तस्मात्सर्वेन्द्रियाणांव्यापकः स्पर्शकृतोयोभावविशेषः सोऽयमनुपशयात्पञ्चविधस्त्रिविधविकल्पोभवत्यसात्म्येन्द्रियार्थसंयोगः ।
सात्म्यार्थीद्युपश
यार्थः ॥ ३९ ॥
तब इंद्रियामं एक स्पर्शनेंद्रिय ही नेत्र, कर्ण, रसन, आदिमं व्यापक है क्योंकि राव इंद्रियांम स्पशद्रिय विद्यमान है । और सब इंद्रियं अपने विषय में संयोग स्पर्श द्वारा ही क्रिया करसकती है (जैसे शब्द के परमाणु, जब कर्णेन्द्रियसे स्पर्श करतेह तब कर्णेन्द्रिय शब्दको जान सकती है ऐसे ही सबमें जानो) इन्द्रिय और इन्द्रियके विषयके स्पर्शम मन व्यापक है । इसलिये स्पर्श होनेवाली वायु (स्पर्शशक्ति) सबम प्रधान है। सो स्पर्शजन्य भाव पांच इंद्रियमि व्यापक होनेसे पांच प्रकारका होता है। वह पांच प्रकारका इंद्रिय और विषयका संयोग अतियोग, अयोग, मिथ्यायोग, इन तीन प्रकारका है और यह तीनप्रकारका योग असात्म्य अर्थात् आत्माकं मतिकूल होता है, और ययोचित संयोग आत्माके अनुकूल होताहे ॥ ३९ ॥ कर्मकृत आयतनका वर्णन । कर्म्मवाङ्मनः शरीरप्रवृत्तिः । तत्रवाङ्मनःशरीरातिप्रवृत्तिरतियोगः सर्वशोऽप्रवृत्तिरये गः ॥४०॥
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- सूत्रस्थान-०.११. .. (.१२७) वाणी, मन, और शरीरकी प्रवृत्तिको कर्म कहतेहैं । मन, वाणी, शरीर, इनकी __ अत्यंत प्रवृत्तिको अतियोग कहतेहैं और सर्वथा अप्रवृत्तिको अयोग कहते हैं ॥४०॥
वाणीके मिथ्यायोगका वर्णन । सूचकानृताकालकलहाप्रियाबद्धानुपचारपरुष
वचनादिवामिथ्यायोगः ॥ ४१ ॥ इनमें-निंदा करना, झूठा बोलना, विनासमय कहना, कलह करना, अप्रिय बोलना, अंट संट बकना, असंगत अश्रद्धेय वाक्य कहना और दुखदाई वाक्य कहना वाणीका मिथ्यायोग है ॥ ४१ ।।
_मानस मिथ्यायोग। ' भयशोकक्रोधलोभमोहमानेयामिथ्यादर्शनादिर्मानसोमिथ्या'. योगः ॥४२॥
भय, शोक, क्रोध, लोभ, मोह, अभिमान, ईर्ष्या, मिथ्यादर्शन(कुछका कुछ मानलेना.) आदि मनका मिथ्यायोग है ॥ ४२॥
- शारीरिक मिथ्यायोग। वेगधारणोदीरणविषमस्खलनपतनाङ्गप्रणिधानाङ्गप्रदूषणप्रहारमर्दनप्राणोपरोधसंक्लेशनादिःशारीरोमिथ्यायोगः॥४३॥ मलमूत्रादिकोंके वेगको रोकना,एवं बिना वेग त्यागना विषमतासे वैठना सोना आदि, गिरना, फिसलना, अंगोंको दूषित करना, शरीरमें चोट आदि लगाना, शरीरको बेहिसाब मलना,बेहिसाब श्वासका रोकना और शरीरको पीडा देना। यह शरीरका मिथ्यायोग है ॥ ४३ ॥
- . कर्मके मिथ्याभोगका संक्षिप्त वर्णन । ...संग्रहेणचातियोगायोगवर्जकर्मवाङ्मनःशरीरजमहितमनुपदिष्टंयत्तच्च मिथ्यायोगविद्यादिति । त्रिविधविकल्पंत्रिविधमेवकर्मप्रज्ञापराध इतिव्यवस्येत् ॥४४॥ .. . यह संक्षेपसे कहागयाहै इनसे अन्य, और भी अतियोग और अयोगसे भिन्न जो वाणी, मन, शरीर, इनके अहित कर्म हैं उनको भी मिथ्यायोग कहतेहैं । यह जो वाणी, मन, शरीर, इन तीनोंके कर्मोका तीन प्रकारका अतियोगादि विकल्प कहाहै यह बुद्धिके दोषसे ही होताहै ॥ ४४॥.. . . ..
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चरकसंहिता - भा० टी० ।
कालातियोगादिका वर्णन | शीतोष्णवर्षालक्षणाःपुनर्हेमन्तग्रीष्मवर्षा संवत्सरः सकालः । तत्रातिमात्रस्वलक्षणःकालः कालातियोगः । हीनस्वलक्षणः कालयोगः । यथा स्वलक्षणविपरीत लक्षणस्तुकालोमिथ्यायोगः कालः पुनः परिणाम उच्यते ॥ ४५ ॥
( १२८ )
जाड़ा, गर्मी, वर्षात, इन तीनोंमें क्रमसे शीत होना गमपडना, वर्षावरसना इन तीनका लक्षण है, इन तीन कालोंके समुदायको संवत्सर ( वर्ष ) कहते हैं इसीका नाम काल है । सो इस कालमें अपने २ समयपर सर्दी, गर्मी, वर्षा, का अत्यंत होना कालका अतियोग कहाजाताहै । न होना अयोग कहाता है । एवं अपने २ समय से आगे पीछे होने को और समय के विपरीत लक्षणों को कालका मिथ्यायोग कहते हैं कालको ही परिणाम भी कहते हैं ॥ ४५ ॥
इत्यसात्म्येन्द्रियार्थसंयोगः प्रज्ञापराधः परिणामश्चेति ॥ ४६ ॥
इस प्रकार असात्म्य (आत्माके प्रतिकूल ) इंद्रिय तथा विषयों का संयोग, बुद्धिक दोष और कालका वर्णन किया गया है ॥ ४६ ॥
रोगोंके कारण । त्रयस्त्रिविधविकल्पाः कारणंविकाराणाम् । समयोगयुक्तास्तुप्रकृतिहेतवोभवन्ति ॥ ४७ ॥
इंद्रियार्थसंयोग, बुद्धि और कालका अतियोग, अयोग, और मिथ्यायोग यह तीन प्रकारका विकल्प - रोगों के उत्पन्न होनेका कारण हैं और इन तीनोंका ही सुप्रयोग होना आरोग्यताका कारण है ॥ ४७ ॥
सर्वपामेवभावानां भावाभावौनान्तरेणयोगायोगातियोगामध्यायोगात्समुपलभ्यते । यथासंयुक्तत्यापेक्षिणौहिभावाभाव ४८॥ संपूर्ण वस्तुओंका अभाव और सद्भाव यह दोनों मनुष्य के शरीर में किया करदें | वह क्रिया सम्यक् यांग अयोग, अतियोग मिथ्यायोग, इन भेदासे अलग २हैं | यह भाव और प्रभाव योगमं युक्तकी अपेक्षा करते हैं अर्थात् मन, वाणी, शरीर इनका युक्ति पूर्वक योग सुखका हेतु और अयुक्ति योग दुखका हेतु होता ॥ ४८ ॥
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तीनमकारके रोग |
त्रयोरोगाइ तिनि जागन्तुमानसाः तत्रनिजः शरीरदोषसमुत्थः ।
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- सूत्रस्थान-अ० ११. (१९) आगन्तुर्भूतविषवाय्वग्निसम्प्रहारादिसमुत्थः । मानसःपुनरिष्टस्यालामाल्लाभाच्चानिष्टस्योपजायते ॥ १९॥" निज अर्थात् शारीरिक, आगंतुक, मानसिक, इन भेदोंसे रोग तीन प्रकारके होतेहैं । उनमें शरीरस्थ वात, पित्त, कफके कारणसे जो व्याधि उत्पन्न हो उसको निज अर्थात् शारीरिक व्याधि कहतेहैं । भूत, विष, वाहरसे आकर लगनेवाला वायु और अग्निप्रहार आदिसे होनेवाली व्याधिको आगंतुक कहतेहैं । इसी प्रकार मनको प्रिय अर्थात् इच्छितपदार्थके न मिलनेसे अप्रिय वस्तुके मिलनेसे जो मनमें, . शोकादिक होतेहैं। उनको मानसिक रोग कहतेहैं ॥ ४९॥
. हितकर्तव्य । तत्रबुद्धिमतामानसव्याधिविपरीतेनापिसताबुद्धयाहिताहि..
तमवेक्ष्यावेक्ष्यधर्मार्थकामानामहितानामनुपसेवनेहिताना: . चोपसेवनेप्रयतितव्यम् ॥१०॥ . मानसिक व्याधिमें अथवा मानसिक व्याधिके विना भी बुद्धिमान्को उचित हैं कि, अपने हित और अहितका विचार कर अहितकारक धर्म अर्थ कामका त्याग और हितकारक धर्म अर्थ कामका सेवन करनेमें यलवान होना चाहिये ॥ ५० ॥ नह्यन्तरेणलोकेत्रयमेतन्मानसंकिञ्चिन्निष्पद्यतेसुखंवादुःखंवा तस्मादेतच्चानुष्ठेयम् । तद्विद्यावृद्धानाञ्चोपसेवनेप्रयतित
व्यम् । आत्मदेशकालवलशक्तिज्ञानेयथावच्चेति ॥५१॥ । क्योंकि इस लोकमें धर्म अर्थ कामके विना कोई भी मानसिक दुःख,सुख नहीं होसकता इसलिये हितकारक धर्म अर्थ कामका सेवन करें। उस धर्मादि विविध पुरुषार्थको हितकर बनानेके लिये योग्य बुद्धिमानों और वृद्धजनोंका सेवन तथा सत्संग करना चाहिये । और आत्मा, देश, काल, वल, शक्ति, इनके यथावत् ज्ञानमें तत्पर रहे अर्थात् इनसे विरुद्ध आचरण न करे ॥ ५१॥ ' भवतिचात्र । मानसंप्रतिभैषज्यंत्रिवर्गस्यान्ववेक्षणम्। तद्वि
द्यसेवाविज्ञानमात्मादीनाञ्चसर्वशइति ॥ ५२ ॥ यहां पर श्लोक है कि-धर्म अर्थ काम इस त्रिवर्गको यथोचित जानकर सेवन करना, और इस त्रिवर्गके ज्ञाता वृद्धजनोंकी सेवा यथा आत्म आदिकके ज्ञानमें तत्पर रहना यह मानसिक व्याधिकी औषधि है ॥ १२ ॥
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चरकसंहिता - भा० टी० ।
रोगांके तीन मार्ग | त्रयोरोगमार्गइति । शाखामर्मास्थिसन्धयः कोष्ठञ्च । तत्रशाखारक्तादयोधातवस्त्वक्चवाह्योरोगमार्गः । मर्माणिपुनर्वस्तिहृदयमूर्द्धादीन्यस्थिसन्धयोऽस्थिसंयोगास्तत्रोपनिवद्धाश्चस्त्रा' युकण्डरासमध्यमो रोग मार्गः । कोष्ठपुनरुच्यते महास्रोत: शरीरमध्ये महानिम्नमामपक्वाशयश्चेतिपर्य्यायशब्दैः सरोगमार्ग आभ्यन्तरः ॥ ५३ ॥
रोगमार्ग तीन प्रकारके हैं। वह इस प्रकार हैं १ शाखा, २ मर्म अस्थिसंधि, ३ कोष्ट इनमें शाखा शव्द से रक्तादिधातुएं और त्वचा लेना इनको वाह्यमार्ग कहते हैं । और बस्ति, हृदय, मूर्द्धा आदिक मर्मस्थान, अस्थिसन्धि और अस्थिसंयोग ~ स्थान, एवं उन २ स्थानाम बंधी हुई स्नायु और कंडरा, इनको मध्य रोग मार्ग कहतेहैं । कोष्टशब्दसे कोष्ठके अन्य पर्याय जैसे महास्रोत, शरीरमध्य, महानिम्न, आमाशय, पक्वाशय, इनको आभ्यंतर रोगमार्ग कहते हैं ॥ ५३ ॥
(१०)
बहिर्मार्गज रोगांके नाम ।
तत्रगण्डः पीडकालज्यपचीचर्मकीलाधि मांसालसककुष्टव्यङ्गादयोविकारावहिर्मार्गजाः ॥ ५४ ॥
इनमें गंड ( गलगंड ) पीडका, अलजी, अपची, चर्मकील, अर्बुद, अधिमांस, अस (पावका रोग ), कुष्ठ, और व्यंग आदि रोग बाह्य रोगमार्गसे पैदा होते हैं ॥ ५४ ॥
शाखानुसारीरोग |
वीसर्पश्वयथुगुल्माशविद्रध्यादयः शाखानुसारिणोभवन्ति रोगाः ॥ ५५ ॥
वीसर्प, शोथ, गुल्म, बवासीर, विद्रधि आदि गेग शाखानुसारी कहे जाते हैं५॥ मध्यममार्गानुसारी रोग ।
पक्षवग्रहापतान कार्दितशोपराजयक्ष्मास्थिसंधिशूलगुदभ्रंशादयः शिरोदृद्वस्तिरोगादयश्च मध्यममार्गानुसारिणाभवन्ति रोगाः ॥ ५६ ॥
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"सूत्रस्थान-अ०.११.
(१३१) पक्षवध ( पक्षाघात, अर्धाग), ग्रह ( अंगग्रह, किसी अंगका रहजाना) अपतानक, अर्दित, सोजा, राजयक्ष्मा, अस्थिशूल, संधिशूल, गुदभ्रंश,. और शिरोगत रोग, हृदयगत रोग, एवं वस्तिगत रोग, मध्यममार्गानुसारी कहेजातेहैं ॥ ५६ ॥
___ कोष्टांनुसारी रोग। ज्वरातीसारछZलसकविचिकाश्वासहिकानाहोदरप्पीहादयोऽन्तर्मार्गजाश्च । विसर्पश्वयथुगुलमाशोंविद्रध्यादयःकोष्ठमार्गानुसारिणोभवन्तिरोगाः ॥ ५७ ॥ ज्वर, आतिसार, वमन, अलसक ( अजीर्णका भेद ), विसूचिका, श्वास, कास, हिचकी, अफरा, उदररोग, प्लीहरोग,यह आभ्यंतरमार्गजन्य रोग है। वीसर्प, शोथ, गुल्म, अर्श, तथा विधिआदि कोष्ठमार्गानुसारी रोग होते हैं ।। ५७ ॥
तीनप्रकारके वैद्य। . • त्रिविधाभिषजइति । भिषकुछ चराःसन्तिसन्त्येकेसिद्धसा-: .
धिताः । सन्तिवैद्यागुणैर्युक्तास्त्रिविधाभिषजोभुवि ॥ ५८ ॥ ..
तीन प्रकारके वैध हैं । छनचर वैद्य १, सिद्धसाधित वैद्य २, वैद्यगुणसम्पन्न वैद्य ३॥५८॥
भिषक्छनचरके लक्षण । वैद्यभाण्डौषधैःपस्तैःपल्लवैरवलोकनैः। . . ..
लभन्तेयेभिषकूशब्दमज्ञास्तेप्रतिरूपकाः ॥ ५९॥ .. इनमें दूसरे वैद्योंके पात्र, औषध, पुस्तक, पत्रं आदि देखकर आपभी उनकी समान रूप बनाकर वैद्य कहलानेवाले प्रतिरूपक या छद्मचर वैद्य कहातेहैं ॥ ५९॥
सिद्धसाधितवैद्यके लक्षण ।। श्रीयशोज्ञानसिद्धानांव्यपदेशादतद्विधाः।
वैद्यशब्दलभन्तेयेज्ञेयास्तेसिद्धसाधिताः॥६०॥ . जो वैद्य वैद्यगुणसम्पन्न तो नहीं परन्तु धनवान् यशवाले ज्ञानवान् और सिद्ध. लोगोंने उनकी प्रशंसा फैलादी हो उनको सिद्धसाधित वैद्य कहतेहैं ॥६०॥
. .. वैद्यगुणयुक्तके लक्षण! . . . .. . : प्रयोगज्ञानविज्ञानसिद्धिसिद्धाःसुखप्रदा......
जीविताभिसरास्तेस्युर्वैधत्वतेष्ववस्थितमितिः॥६१।।
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(१३२) चरकसंहिता-भा० टी०।
जो वैद्य औषधप्रयोग आदिमें कुशल हैं तथा हेतु, रोग, चिकित्साके ज्ञान विज्ञानमें सिद्धिसम्पन्न हैं, वह मुखके और जीवनके देनेवाले सदैव वैद्यगुणसम्पन्न वैद्य होते हैं इनहीम वैद्य शब्दकी स्थिति है ॥ ६१ ॥
औषधियों के भेद । त्रिविधीपमिति । देवव्यपाश्रयंयुक्तिव्यपाश्रयंसत्त्वावजयश्च। तत्रदेवव्यपाश्रयमन्त्रौषधिमणिमङ्गलनियमप्रायश्चित्तोपवासस्वस्त्ययनप्रणिपाततीथेंगमनादि । युक्तिव्यपाश्रयंपुनराहारौषधद्रव्याणांयोजना । सत्त्वावजयःपुनरहितेभ्योऽथेभ्यो मनोनिग्रहः ॥६२ ॥ तीन प्रकारका औषध होती हैं । दैवव्यपाश्रय १ युक्तिव्यपाश्रय २, सत्त्वावजय ३ इनमें मन्त्र, मंगल,औषधी, रल इनका धारण, मंगलाचरण, बलि, पूजन, होम, नियम,प्रायश्चित्त, उपवास, स्वस्तिवाचन, प्रणाम, तीर्थगमन आदिको दैवव्यपाश्रय औषध कहतेहैं । युक्तिपूर्वक आहार और औषधक सेवनको युक्तिव्यपाश्रय कहते हैं । अहित अर्थोसे मनको रोकनेका नाम सत्वावजय औषध है ॥ ६२
शारीरिक रोगोंम औषधभेद।। शरीरदोपप्रकोपेखलुशरीरमेवाश्रित्यप्रायशस्त्रिविधमौपधमिच्छ. न्ति । अन्तःपरिमार्जनंवहिःपरिमार्जनंशास्त्रप्रणिधानञ्चति । तन्त्रान्तःपरिमार्जनंयदन्तःशरीरमनुप्रविश्यौषधमाहारजातव्याधीनप्रतिमार्टि। यत्पुनर्वहिःस्पर्शमाश्रित्याभ्यङ्गस्वेदप्रदेहपरिपेकोन्मर्दनायेरामयान्प्रमार्जितहहिःपरिमार्जनम्॥६॥ शस्त्रप्रणिधानंपुनश्छेदनभेदनव्यधनदारणलेखनोत्पाटनप्रच्छन्नसीवनपणक्षारजलोकाश्चति ॥ ६४ ॥ प्राज्ञोरोगेसमुत्पन्ने वाधनाभ्यन्तरणवा । कर्मणालभतेशर्मशस्त्रोपक्रमणेनवा६
शारीरक दोषाक कोपको शान्त करने के लिये बहुत करके तीन प्रकारकी औपघका अपांग किया जाताहीवह तीन प्रकारके औषध यह है-अंतःपरिमार्जन.वहि:परिमार्जन और शखमणिधान । इनमें जो मोषध शरीरके भीतर जाकर मिथ्या आहागादिए गंगको नष्ट करे उसको अंतःपरिमार्जन कहते हैं। जो औपच वाहिवं. आश्रयस अर्यात् मालिश, पसीना, प्रलेप, पारंपक उद्धर्तन आदिकं संयोगले
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सूत्रस्थान-अ० ११. (१३३) रोगको नष्ट करे उसको बहि परिमार्जन कहतेहैं। शस्त्रद्वारा-छेदन, भेदन, व्यधन, विदारण, लेखन, उत्पाटन, पृच्छन, सीवन, एषण तथा क्षारकर्म और जलौका
आदिक प्रयोगको शस्त्रप्रणिधान कहतेहैं ॥ ६३ ॥ ६४ ॥ बुद्धिमान् मनुष्य उत्पन्न हुए रोगकी शांतिके लिये अंतःपरिमार्जन अथवा वाह्यपरिमार्जन या शस्त्रप्रणिधान, इन तीन उपायोंको करनेसे ही सुखको प्राप्त होसकताहै ॥ ६५ ॥
__ वालकोंकी अज्ञानताका फल ।। बालस्तुखलुमोहाद्वाप्रमादाद्वानबुध्यते । उत्पद्यमानंप्रथम रोगं शत्रुमिवाबुधः ॥ ६६ ॥ अग्राहिप्रथमभूत्वारोगःपश्चाद्विवर्द्धते । सजातमूलोमुष्णातिवलमायुश्चदुर्मतेः ॥ ६७ ॥ नमोलभतेश्रद्धांतावद्यावन्नपीड्यते । पीडितस्तुमतिपश्चात् कुरुतेव्याधिनिग्रहे ॥ ६८॥ अथपुत्रांश्चदारांश्चजातींश्चाहूय भाषते । सर्वस्वेनापिमेकश्चिद्भिषगानीयतामिति ॥ ६९ ॥ तथाविधश्चकःशक्तोदुर्वलंव्याधिपीडितम् । कृशक्षीणेन्द्रियं दीनंपरित्रातुंगतायुषम् ॥ ७० ॥सत्रातारमनासाद्यवालस्त्यजतिजीवितम्। गोधालांगूलबद्धवाकृष्यमाणाबलीयसा ॥७१ ॥ वालक अर्थात् अज्ञानी मनुष्य पहले तो उत्पन्न होते हुए रोगको मोह अथवा प्रमादवश तुच्छ मानताहै । जैसे मूर्खपुरुष अपने शत्रुको तुच्छ समझताहै ॥६६॥ परन्तु जब पहले उत्पन्न होते ही रोगका यत्न नहीं किया जाता फिर वह रोग वृद्धिको प्राप्त होकर जड पकड जाताहै और पहले ही यत्न न करनेवाले मूर्खके बलको तथा आयुको नष्ट करदेताहै ॥ ६७ ॥ जब तक मूर्खमनुष्यको रोग अत्यंत पीडित नहीं करदेता तब तक उस रोगको यत्न करनेके लिये उसकी श्रद्धा नहीं होती। जब रोगसे व्याकुल होजाताहै फिर यत्न करानेके लिये प्रयलवान होताहै । और अपने पुत्र स्त्री तथा बांधवोंको बुलाकर कहताहै कि चाहे.सर्वस्व भी खर्च होजाय परंतु किसी योग्य वैद्यको बुलाकर मेरी चिकित्सा करो ॥ ६८।। ॥ ६९ ॥ फिर वैसे दुर्बल, असाध्य व्याधिसे पीडित हुए, कृश, तथा क्षीण इंद्रिय होनेपर दीन, और गतायुकी रक्षा करनेको कौन समर्थ होसकताहै अर्थात् कोई नहीं। फिर जब उसकी कोई चिकित्सा नहीं करसकता तब वह मूर्ख अपनी आयुको त्याग देता है अर्थात् रोगवश होकर मृत्युको प्राप्त होताहै जैसे गोहकी पूंछको कोई
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( १३४ )
चरकसंहिता - भा० टी० ।
वलवान् जानवर पकडकर खींचता है तब वह आगेको वलपूर्वक भागती हुई अपने जीवनको त्याग देती है ऐसे ही रोगांसे खींचा हुआ मनुष्य भी अपने जीवनको त्यागदेवाह ॥ ७० ॥ ७१ ॥
मनुष्यका कर्तव्य | तस्मात्प्रागेव रांगेभ्योरोगेषुतरुणेषुवा । भेषजैः प्रतिकुव्वतयइच्छेत्सुखमात्मनः ॥ ७२ ॥
इसलिये रोग होने से पहले ही अथवा रोगके बलवान् होनेस पहलेही औषधा द्वारा अपने सुख के लिये यत्न करे ॥ ७२ ॥
अध्यायका उपसंहार |
तत्रश्लोको एषणाःसमुपस्तम्भावलकारणमामयाः । तित्रैपणीयेमागीश्चभिपजोभेपजानिच ॥ ७३ ॥ त्रित्वेनाष्टौसम्द्दिष्टाः कृष्णात्रेयेण धीमता । भावाभावेपुशक्तेनयेषुसर्वंप्रतिष्ठितम् । इति ॥ ७४ ॥
अग्नीत्यादि || एकादशस्ति स्त्रेपणीयाध्यायः समाप्तः ।
यहां इस अध्यायकी पूर्तिमं दो श्लोक हैं, कि इस तिलेषणीयाध्यायमें वैराग्यवान् बुद्धिसंपन्न कृष्णात्रेयजीने एषण, उपस्तंव, वल, कारण, रोग, रोगमार्ग,. वैद्य, औषध इन आठोके तीन २ भेद कथन किये हैं । और सबके भावाभाव कहेह । जिसमें समस्त प्रतिष्ठित हैं अर्थात् जिसके आधार पर समस्त वैद्यक है || ७३ ॥ ७२॥ इति श्रीमहर्षिचरकप्रणीतायुर्वेदीयसंहितायां पटियालाराज्यांतर्गत टकसाल निवासिवेद्यपंचानन वैद्यरत्न पं० रामप्रसाद वैद्योपाध्यायविरचितप्रसादन्याख्यभापाटीकायां तिम्रैपणीयो नामैकादशोध्यायः ॥ ११ ॥
द्वादशोऽध्यायः ।
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अथातोवातकलाकलीयमध्यायं व्याख्यास्याम इतिहस्माहभ
गवानात्रेयः ।
वायुंके विषयम ऋषियोंका प्रश्न | बातकलाकलाज्ञानमधिकृत्य परस्परंभता निजिज्ञासमानाः समुपविश्य महर्षयः पप्रच्छुरन्योन्यकिं गुणांवायुः किमस्यप्रकोप
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( १३५)
सूत्रस्थान - अ० १२.
नमुपशमनानिवास्यकानि । कथञ्चैनमसङ्घातमनवस्थितमनासाद्य प्रकोपनप्रशमनानिप्रकोपयन्तिप्रशमयन्तिवा कानि चास्यकुपिताकुपितस्यशरीराशरीरचरस्यशरीरेषु चरतः कर्माणि बहिः शरीरेभ्योवेति ॥ १ ॥
1
अब हम वातकलाकलीय अध्यायका कथन करते हैं ऐसा भगवान् आत्रेयजी कहने लगे महर्षिलोग एक स्थानमें एकत्रित होकर बैठेहुए वातकलाकलीय अर्थात् वायुको सूक्ष्मविचार करनेका उद्देश्य रखकर परस्पर जानने की इच्छा करते हुए आपसमें इस प्रकार आंदोलन करने लगे कि वायुके क्या गुण हैं इसके प्रकोपका कारण क्या है, और इसकी शांति किस प्रकार होती है । और किस प्रकार इस असंहत और अनवस्थित वायुको प्रकोपकारक द्रव्य प्राप्त होकर प्रकुपित करते हैं । और कैसे शमनकारक शमन करते हैं । जब यह वायु कुपित होकर, अथवा विना शुद्ध हुएही शरीर के भीतर या बाहर विचरती है तब इसकी क्या क्रिया होती है । और शरीर के भीतर रहकर किन कर्मों को करती है तथा शरीरके बाहर रहकर किन कमको करती है ॥ १ ॥
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सांकृत्यायनकुशका मत ।
अत्रोवाच कुशः सांकृत्यायनः । रूक्षलघुशीतदारुणखरविषदाः षडिमेवात गुणाभवन्ति ॥ २ ॥
उन ऋषियोंमें कुश - सांकृत्यायन ऋषि कहनलगे कि वायुमें: रूक्ष, लघु, शीतल, दारुण, खर, विशद, यह छः गुण हैं ॥ २ ॥
भरद्वाजका मत ।
तच्छ्रुत्वा वाक्यंकुमार शिराभरद्वाजउवाच एवमेतद्यथा भगवानाहएतएववातगुणाभवन्ति । सत्वेवंगुणैरेवंद्रव्यैरेवंप्रभावैश्वकर्म्मभिरभ्यस्यमानैवायुःप्रकोपमापद्यते समानगुणाभ्यासो
हिधातूनांवृद्धिकारणमिति ॥ ३ ॥
यह सुनकर " कुमारशिरा भरद्वाज " कहनेलगे जैसे आपने कहा है ठीक वायुमें यही गुण होते हैं वह वायु वैसे ही रूक्षादि गुणयुक्त द्रव्योंसे तथा वैसे ही रूक्षादि प्रभाववाले कर्मों के अभ्याससे कुपित होती है । क्योंकि समानगुणोंवाले द्रव्यों तथा कमका अभ्यास ही धातुओंकी वृद्धिका कारण होता है जैसे 'सर्वदा सर्वभावानां' यह पहले अध्यायमें कहचुके हैं ॥ ३ ॥
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- (१३६) चरकसंहिता-भा० टो।
. . . वाह्नीकका मत। तच्छ्रुत्वावाक्यंकाङ्क्षायनोवाहीकभिषगुवाच । एवमेतद्यथा भगवानाह । एतान्येववातप्रकोपनानिभवन्ति। अतोविपरीतानिखल्वस्यप्रशमनानिभवन्ति । प्रकोपनविपर्ययोहिधाननांप्रशमकारणमिति ॥४॥ यह वाक्य सुनकर “कांक्षायन-बालीक वैद्य" कहनेलगे जैसे आपने कहाहै वैसे ही है। यही रूक्षादिगुणयुक्त द्रव्यादि वातके कोप करनेमें कारण होतेहैं । इससे विपरीत स्निग्धादिगुण प्रभाव युक्त द्रव्यों या काँसे वातकी शान्ति होतीहै क्योंकि प्रकोपके कारणस विपरीनगुणोंवाले द्रव्यादिकोंका सेवन ही धातुओं (वातादिकोंसे. हो यहां धातुशब्दका लक्षण है) को शांत करनेके कारण होतेहैं ॥ ४॥
.. बडिशधामार्गवका मत। तच्छ्रुत्वावाक्यंबडिशोधामार्गवउवाच । एवमेतद्यथाभगवानाह । एतान्येववातप्रकोपप्रशमनानिभवन्ति । यथा नमसंघातमवस्थितमनासाद्यप्रकोपनप्रशमनानिप्रकोपयन्तिप्रशमयन्तिवा । तथानुव्याख्यास्यामः। वातप्रकोपनानिखलुरूक्षलघुशीतदारुणखरविषदशुषिरकराणिशरीराणांतथाविधेषुशरीरेषुवायुराश्रयंगत्वाआप्याथ्यमानःप्रकोपमापद्यते।वातप्रशमनानिपुनःस्निग्धगुरूष्णलक्ष्णमृदुंपिच्छिलघनकराणिशरीराणांतथाविधेषुशरीरेषुवायुरासज्यमानश्चरन्प्रशान्तिमापद्यते ५ यह सुनकर "वडिश धामार्गव बोले, जैसे आपने कहा है ठीक ऐसे ही है । यह ही वायुके प्रकोप और शांतिके कारण होतेहैं । जिस प्रकार इस सूक्ष्म और चल वायुको प्राप्त हो कोपकारक और शांतिकारक द्रव्य प्रकुपित और शमनको प्राप्त होतेहैं उनका वर्णन भी करतेहैं । वह ऐसेहैं वातको प्रकुपित करनेवाले पदार्थ अपने रूक्ष, लघु, शीतल, दारुण, खर, विशद और शुषिर करनेवाले गुणोंसे वातस्वभाववाले शरीरोंमें वायुके आश्रय होकर वायुके कोपको प्राप्त होतेहैं अर्थात् रूक्षादि गुणोंवाले पदार्थ वातप्रधान शरीरमें अपने रूक्षादि गुणोंसे वायुको बढ़ाकर कुपित करदेतेहैं । (तात्पर्य यह हुआ कि अपने रूक्षादि गुणोंको प्राप्त हो वायु बढ़कर कुपित होजाताहै )। ऐसे ही वातको शान्त करनेवाले द्रव्य शरीरोंमें-चिकनाई गुरुता उष्णता श्लक्ष्णता, कोमलता पिच्छिलता और घनताको करतेहैं । फिर
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सूत्रस्थान-अ० १२- ;
(१३७) स्निग्धादि गुणयुक्त शरीरमें विचरता हुआ वायु स्निग्धादिगुणोंसे मिलकर शान्तिको प्राप्त होताहै । अर्थात् वातसे विपरीत चिकने आदि गुणयुक्त पदार्थोंसे स्निग्धता आदि गुण प्राप्त होनेपर रूक्षता आदि गुण त्यागताहुआ शांत होजाताहै ॥६॥
वायोविदका मत । तच्छ्रुत्वाबडिशवचनमवितथमृषिगणैरनुमतमुवाचवायोंविदो राजर्षिः। एवमेतत्सर्वमनपवादंयथाभगवानाह । यानितुखलुवायोःकुपिताकुपितस्यशरीराशरीरचरस्यशरीरेषुचरतःकाणिबहि-शरीरेभ्योवाभवन्तितेषामवयवान्प्रत्यक्षानुमानोपमानः साधयित्वानमस्कत्यवायवेयथाशक्तिप्रवक्ष्यामः॥६॥ इस प्रकार कहेहुए यथार्थ, और ऋषियोंके बहुमत अर्थात् मानेहुए बडिशके वाक्यको सुनकर राजर्षि वार्योंविद कहनलेगे कि आपने जैसे कहाहै यह निर्विवाद है अर्थात् सबको मंतव्य और यथार्थ है । अब शरीरसे वाहिर विचरतेहुए कुपित अथवा शान्तिको प्राप्त हुए वायुके जो २ कार्य शरीरके भीतर और वाहर होतेहैं अर्थात् कुपित या विना कुपितवायु शरीरमें अथवा बाहिर जो २ कार्य करताहै उनसवको प्रत्यक्ष अनुमान और आप्तोपदेश द्वारा सिद्ध करतेहुए वायुको नमस्कार करके यथाशक्ति वर्णन करताहूं ॥६॥
वायुके भेद और कर्म । वायुस्तन्त्रयन्त्रधरःप्राणोदानसमानव्यानापानात्माप्रवर्तकश्चेष्टानामुच्चावचानांनियन्ताप्रणेताचमनसः । सर्वेन्द्रियाणाम
योतकः । सर्वेन्द्रियार्थानामभिवोढासर्वशरीरंधातुव्यूहाकरः सन्धानकरःशररिस्यप्रवर्तकोवाचःप्रकृतिःस्पर्शशब्दयोःश्रोत्रस्पर्शनयोर्मूलहर्षोत्साहयोयोनिःसमीरणोऽग्नेर्दोषसंशोषणः । क्षेताबहिमलानांस्थलाणुस्रोतसांभेत्ताक गर्भाकृतीनामायु- . षोऽनुवृत्तिप्रत्ययभूतोभवत्यकुपितः॥ ७॥ इस शरीरतंत्र और शरीररूपी यंत्रके धारण करनेवाला वायु-प्राण, उदान, समान, व्यान, अपान, इन भेदोंसे पांच प्रकारका है । यह चलना फिरना आदि शरीरकी चेष्टाका प्रवर्तक है, और ऊंची नीची क्रियाका नियंता है। मनका प्रणेता, सब इंद्रियोंमें उद्योग करनेवाला, सब इंद्रियोंको चलानेवाला, सब शरीरकी धातु ओंका वाहक, शरीरका संधान करनेवाला, वाणीको प्रवृत्त करनेवाला, शब्द और
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(१६८)
चरकसंहिता-भान्टी। स्पर्श स्वभाववाला शब्द और स्पर्शके वोधका कारण,हर्ष और उत्साहका कारण, अग्निको प्रेरण करनेवाला, दोषोंका शोषण करनेवाला, मलाको निकालकर वाहिर फेंकनेवाला, स्थूल और सूक्ष्म स्रोताको भेदन करनेवाला, गर्भकी आकृति बनानेवाला, और आयुका आधारभूत है । यह कर्म प्रकृतिस्थ अर्थात् कोपको विना . प्राप्त हुए वायके है ॥ ७॥
कुपितरायुके कर्म। कुपितस्तुखलुशरीरेशरीरंनानाविधैविकारैरुपतपतिवलवर्णसुखायुपामुपघातायमनोव्याहर्षयतिसर्वेद्रियाण्यपहन्ति । विहन्तिगर्भानविकतिमापादयत्यतिकालंधारयति । भयशोकमोहदैन्यातिप्रलापाञ्जनयतिप्राणांश्चोपरुणद्धि। प्रतिभूतस्यखल्वस्यलोकेचरतःकर्माणीमानिभवन्ति ॥८॥ शरीरस्य वायु कुपित होनेपर शररिको अनेक प्रकारके रोगास पीडित करताहै । तथा बल, वर्ण, सुख और आयुको नष्ट करताहै। और गर्भको नष्ट अथवा विकारगुक्त करदेताह या प्रसवमें अतिकाल अर्थात् विलम्ब करदेतीहै । भय, शोक, मोह, बकवाद,दीनता, इनको उत्पन्न करदेताहै। तथा प्राणांकी गतिको रोकदेताहै यह शरीरम कुपित हुए वायुके कार्य हुए ॥ ८॥
वाह्य वायुके कर्म । तद्यथा।धरणीधारणंज्वलनोज्ज्वालनम् । आदित्यचन्द्रनक्षऋग्रहगणानांसन्तानगतिविधानसृष्टिश्चमेधानाम् । अपाञ्च विसर्गःप्रवर्तनंस्रोतसांपुप्पफलानाञ्चाभिनिवर्त्तनमुद्भेदनश्चीनिदानामृतनांप्रविभागः । विभागोधातनांधातुमानसंस्थानव्याक्तिः । वीजाभिसंस्कारःशस्याभिवर्द्धनंविरूदोपशोषणमवकारिकविकारश्चेति ॥ ९ ॥ यायवायु-प्रकृतिस्थ यर्थात् अपने उचित स्वभावम रहनेसे संसारमें विचरता हुआ इन फांको करताह ।।
जस-पृथ्वीका धारण, अग्निका ज्वालन, सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र, और ग्रहगणाका अपने कामपूर्वक गतिने घुमाना तया भेव आदिको उत्पन्न करना, आकाशसे जलका पाटन करना,घांता (सोतो) अर्थात् झरनामसे जलको प्रवर्तन करना, पुष्प, प.ल. आदिम का अपने समय में उत्पन्न होना, वृक्षादि उद्भिज साष्टिका
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सूत्रस्थान- अ० १२. -
८१३९१ ठीक उत्पन्न होना, ६ ऋतुओंका ठीक होना, संपूर्ण पार्थिव धातुओंका विभागे तथा घनता और आकृतिका ठीक होना, बीजामेंसे अंकुरादि निकलना, खेती तथा घासका वढना, क्लेदका हग्ना, विकारयुक्त वस्तुको विकाररहित बनादेना। ऐसे ऐसे शुभ कार्यों को प्रकृतिस्थ बाह्य वायु करताहै ॥ ९ ॥ कुपित बाह्य वायुके कर्म ।
प्रकुपितस्यखल्वस्य लोकेषुचरतः कर्माणीमानि भवन्ति ॥ १०॥ प्रकुपित हुए बाह्यवायुके यह कर्म ( आगे कहे हुए ) होते हैं ॥ १० ॥ तद्यथा । उत्पीडनं सागराणामुद्वर्त्तनंसरसां प्रतिसरणमापगानामाकम्पनञ्चभूमेराधमनमम्बुदानां शिखरिशिखरावमथनमुन्मथन मनोकहानांनिहारनिर्ह्रादपांशुसिकतामत्स्यभे कोरगक्षाररुधिराश्माशनिविसर्गोव्यादनञ्चषण्णामृतूनांशस्यानामसंघातो भूतानाञ्चोपसगभावानाञ्चाभावकरणम् । चतुर्युगान्तकराणांमेघसूर्थ्यानलानांविसर्गः, सहिभगवान्प्रभवश्श्राव्ययश्च भूतानां भावानामभावाकरः ॥ ११ ॥
वह ऐसे हैं समुद्रोंको डगमगा देना, तालाओंके जलोंका आलोडन करडालना नदियों को उलटा करदेना, भूकंप होना, मेघोंका इधर उधर चालन होना, पर्वतों के शिखरोंका टूटना, वृक्षोंका उखाडना नीहार ( पानी मिली हवा), गूंजदार शव्द, गरदा, रेत, मत्स्य, मेडक, सांप, खार, रुधिर, पत्थर, वज्र, इनका आकाशसे गिरना, छहों ऋतुओं में विकृति होना, खेतीका विगडना, भूत आदि गणोंकी बाधा होना, होनेयोग्य वस्तुओंका न होना, यह उपद्रव होतेहैं । चारों युगों के नष्टकर्ता अर्थात् प्रलयकारक मेघ, सूर्य, वायु और अग्निको फैलाना, यह वायु भगवान् ही भूत सृष्टिकी उत्पत्ति, स्थिति और नाशको करनेवाला है ॥ ११ ॥ वायुके साधारण धर्म | सुखासुखयोर्विधातामृत्युर्य मोनियन्ताप्रजापतिरदितिर्विश्वकर्माविश्वरूपःसर्वगःसर्वतन्त्राणां विधाता । भावानामपुर्वि - भुर्विष्णुःकान्तालोकानां वायुरेव भगवानिति ॥ १२ ॥
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यह वायु ही सुख दुःखको देनेवाला मृत्यु, यम, नियंता, प्रजापति, अदिती, विश्वकर्मा, विश्वरूप, सर्वगामी सर्वंतंत्रोंको रचनेवाला है । और सब भावोंमेंअणु, विभु, विष्णु, तीनों लोकोंमें व्यापक, और भगवान् है ॥ १२ ॥
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चरकसंहिता - भा० टी० ।
मारीचिका प्रश्न | तच्छ्रुत्वावाक्यविद्वचामारीचिरुवाच । यद्यप्येवमेतत्किमर्थस्यास्ववचनेविज्ञानेवासामर्थ्यमस्तिभिषग्विद्यायाम् । भिषग्विद्यांवाधिकृत्यकथाप्रवर्त्तते । वायविदउवाच । भिषक्पवनमतिबलमतिपरुपमतिशीघ्रकारिणमात्ययिकञ्चेन्नानुनिशम्येत् ॥ ॥ १३ ॥ सहसाप्रकुपितमतिप्रयतः कथमग्रेऽभिरक्षितमभिधास्यति । प्रागेवैनमत्ययभयादिति । वायोर्यथार्थास्तुतिरपिभवत्यारोग्यायवलवर्णवृद्धयेव चस्वित्वायोपचयायच । ज्ञानोपपतये परमायुःप्रकर्षायति ॥ १४ ॥
वायोंविद के इस वाक्यको सुनकर मरीचि ऋषि वोले । जैसा आप कहते हैं यदि चाय ऐसा ही है तो इस वायुके कहने और स्वरूप जाननेके लिये वैद्यकशास्त्रमें क्या प्रयोजन है अर्थात् वाह्यवायुका इस प्रकारका प्रस्ताव पदार्थविद्यामें होना चाहिये "वैद्यकका संबन्ध इस प्रस्तावसे नहीं क्योंकि इस समय आयुर्वेदको आश्रम करके ही इस कथा ( बात ज्ञान ) को प्रवृत्ति है । यह प्रश्न सुनकर वायविद बोले कि यहां पर इस कथनका यह प्रयोजन है कि वैद्यजन पवनको अतिवेगसे चलता हुआ, अतिकठोर, अतिशीघ्रकारी, और विकारोंको करनेवाला जानलेवें ॥ १३ ॥ फिर शीघ्र ही उसके कोप से होनेवाले अनिष्टांसे वचानेके यत्न में समर्थ हों यादे वैद्य पवनकी गतिसे उसके विकार आदिको न समझेगा तो होनेवाले भयसे पहले हो रक्षा किसप्रकार करसकेंगा | शुद्ध वायुका यथार्थ सेवन करनेसे आरोग्यताकी प्राप्ति, वल और वर्णकी वृद्धि होती है । तेजस्विता और पुष्टता प्राप्त हो और ज्ञानकी प्रतिपत्ति तथा युकी वृद्धि होती है ॥ १४ ॥
पिकी ऊष्माका वर्णन | मारीचिरुवाच । अग्निरेवशरीरेपित्तान्तर्गतः कुपिताकुपितःशुभाशुभानिकरोति ॥
1
₹ १४० )
तद्यथा ।
पक्तिम पक्तिदर्शनमदर्शनं मात्रामात्रत्वमृष्मणः प्रकृतिविकृतिवर्णोऽशौय्यं भर्वक्रोधंहर्षमाहंप्रसादमित्येवमादीनिचापराणि इन्हादीनीति ॥ १५ ॥
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सूत्रस्थान-अ० १२. ..
(१४१) मारीचि ऋषि कहनेलगे कि शरीरमें अग्नि ही पित्तमें रहकर अकुपित और कुपित होकर शुभ तथा अशुभको करती है । वह इसप्रकार है जैसे विपाक और अविपाक, दर्शन, अदर्शन, गर्मीको ठीक रखना या वेठीक रखना,प्रकृति या विकृति, वर्ण और अवर्ण, शूरता, अशूरता, ऐसे ही भय, क्रोध, हर्ष, मोह, प्रसन्नता आदि
और भी दो दो हिस्सेमें करता है अर्थात् कुपित आग्नि अशुभ और अकुपित शुभः कारक होता है ॥ १५ ॥
शरीरमें सोमकी प्रधानता । तच्छत्वामारीचिवचः काश्यपउवाच । सोमएक्शरीरेश्लेष्मान्तर्गतःकुपिताकुपितःशुभाशुभानिकरोति ।
तद्यथा। दाढ्यशैथिल्यमुपचयंकार्यमुत्साहमालस्यवृषताक्लीबतांज्ञानमज्ञानबुद्धिमोहमेवमादीनिचापराणिद्वन्द्वादीनीति ॥ १६ ॥ इस प्रकार मारीचिके वाक्यको सुनकर काश्यप बोले कि सोम ही शरीरके कफमें रहकर विना कुपित हुआ शुभ और कुपित हुआ अशुभ करताहै । जैसा दृढता, शिथिलता; पुष्टता, कृशता; उत्साह, आलस्य, पुरुषार्थता, क्लीवता; ज्ञान अज्ञान, बुद्धि, मोह आदि अन्य कार्य भी प्रकृतिस्थ होनेपर शुभ और कुपित्त होनेपर अशुभ करताहै ॥ १६ ॥
पुनर्वसुका सिद्धांत । तच्छत्वाकाश्यपवचोभगवानपुनर्वसुरात्रेयउवाच। सर्वएवभवन्तःसम्यगाहुरन्यत्रैकान्तिकवचनात् ॥ सर्वएवखलुवातपित्त श्लेष्मणःप्रकृतिभूताःपुरुषमव्यापन्नेन्द्रियंबलवर्णसुखोपपन्नमायुषामहतोपपादयन्ति । सम्यगेवाचरिताधर्मार्थकामानिश्रेयसेनमहतोपपादयंतिपुरुषमिहचामुष्मिश्चलोके । विकृतास्त्वेनंमहताविपर्ययेणोपपादयन्ति। ऋतवस्त्रयइवविकृतिमापन्नालोकमशुभेनोपघातकालेइत्येतदृषयः सर्वएवानुमोनिरे वचनमात्रेयस्यभगवतोऽभिननन्दुश्चेति ॥ १७॥ . . यह काश्यपका वचन सुनकर भगवान् पुनर्वस आत्रेयजी बोले कि आप सबने ही वात पित्त और कफके विषयमें ठीक कहा । यह तीनों ( वात पित्त कफ) ही
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(१४२) चरकसंहिता-भा० टी०॥ अपनी प्रकृति ( स्वभाव, ठीक प्रमाण ) में स्थित हुए पुरुषकी इंद्रियोंको वलवान फरते हैं और वल, वर्ण तथा सुखको उत्पन्न करते हैं । और दीर्घ आयुको देतेहैं । जिसके प्रभावसे मनुष्य(धर्म अर्य काम मोक्ष)इन पुरुषार्थोंका साधन करसकता है अर्थात् इस लोक और परलोकका सुख प्राप्त करसकता है। और विकारको प्राप्तहुए यह तीनों ऊपर कहे हुए गुणोंसे विपरीत ( दोषोंको ) करते हैं । जैसे जाडा गर्मी, वर्षा यह तीन ऋतुभी विकारको प्राप्त हुई संसारमें प्रलय कालमें अशुभ करती हैं ऐसे ही यह वात, पित्त, कफ, तीनों शरीरमें विकारको प्राप्त होनेसे अशुभ करहें । इस प्रकार भगवान आत्रेयके कहे वचनको सुनकर सव ऋषि आनन्दसे अनुमोदन करने लगे ॥ १७ ॥
भवतिचात्र । तदात्रेयवचःश्रुत्वासर्वएवानुमोनिरे । ऋषयोऽभिननन्दुश्चयथेन्द्रवचनंसुराः ॥१८॥ जैसे इन्द्रके वचनको सुन सव देवता अनुमोदन करनेलगे वैसे ही भगवान आत्रेयके वचनको सुनकर सब ऋपि ठीककहा २ कहकर आशंसा करनेलगे ॥१८॥
अध्यायका संक्षिप्त वर्णन । तत्रश्लोको । गुणाःषद्विविधोहेतुर्विविधंकर्मतत्पुनः। वायोश्चतुर्विधंकर्मपृथक्चकफपित्तयोः ॥ १९ ॥ महर्षीणांमतिर्यायापुनर्वसुमतिश्चया । कलाकलीयेवातस्यतत्सर्वसम्प्रकाशितम् ॥ इति ॥ २०॥
निर्देशचतुप्कम् । अग्नीत्यादिवातकलाकलीयोऽध्यायःसमाप्तः । अध्यायकी पूर्तिमं यह दो श्लोक है इस वातकलाकलीय नामके अध्यायमें वायुके
गुण, दोप्रकारकं हेतु और अनेक प्रकारके वायुके कर्म, कुपित अकुपित भेट्स पिन और काके दो कर्म, वात पित्त कफ के सम्बन्धमें ऋषियोंका मत, तथा पुनमुजीका मत वर्णन किया गया है ॥ ११ ॥ २०॥ वि भीमलमणीनायुर्वेदसंहितायां पटियालाराज्यान्वर्गदटकसालनिवासिवैद्य
गरन पं० रामप्रसादेवापान्यायविरचितप्रसादन्यायभाटीकायां
मामलारनीलो नाम द्वादशमोध्यायः ॥ १२॥
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सूत्रस्थान - अ० १३.
त्रयोदशोऽध्यायः ।
( १४३)
अथातः स्नेहाध्यायं व्याख्यास्याम इतिहस्माह भगवाना
त्रेयः ॥
ra हम स्नेहाध्यायी व्याख्या करते हैं. इस प्रकार भगवान् आत्रेयजी कहने लगे ।
अग्निवेशका प्रश्न |
सांख्यैःसंख्यातसंख्येयःसहासीनं पुनर्वसुम् । जगद्धितार्थपत्रच्छवह्निवेशः सुसंशयम् ॥ १॥ किंयानयः कतिस्नेहाः केच स्नेहगु'णाःपृथक् । कालानुपानेकेकस्यकतिकाश्चविचारणाः ॥ २ ॥ कतिमात्राः कथंमानाकाच केषूपदिश्यते । कश्च के भ्योहितः स्नेहः प्रकर्षः स्नेहनेचकः ॥३॥ स्नेह्याः केकेचनस्निग्धाः स्निग्धातिस्निग्धलक्षणम् । किंपानात्प्रथमपीते जीर्णेकिञ्च हिताहितम् ४ ॥ केमृदुक्रूरकोष्टाः काव्यापदः सिद्धयश्चकाः। अच्छे संशाधनेचैवस्नेहेकावृत्तिरिष्यते ॥ ५ ॥ विचारणाः केषुयोज्याविधिनाकेनतत् प्रभो । स्नेहस्यामितविज्ञानज्ञानामिच्छामि वेदितुम् ॥ ६ ॥
सांख्य शास्त्र के विख्यात और प्रसिद्ध २ ऋषियों में विराजमान पुनर्वसुजसे संसार के हित के लिये अग्निवेश अपने संशयको पूछनेलगे ॥ १ ॥ हे प्रभो ! स्नेहके कारण कौन २ द्रव्य हैं । स्नेह कितने प्रकार के हैं स्नेहोंके अलग २ कौनसे गुण हैं किस समय कानसे स्नेहको पान करना चाहिये और उनके अनुपान क्या हैं। स्नेह कितने प्रकारके हैं विचारणा कितनी और कौन हैं। कितनी मात्रा से सेवन करना, इसका मान कैसा है । कैसा किसके लिये कहा है | कौन स्नेह किसको हितकारक हैं सब स्नेहों में उत्तम स्नेह कौनसा है किसको स्नेहन करना चाहिये किसको नहीं करना । स्निग्ध और अतिस्निग्धके क्या २ लक्षण हैं। स्नेह पीनसे पहले और स्नेह पीने से पीछे तथा स्नेहके जीर्ण होनेपर कौन क्रिया हित है और कौन अहित है मृदु कोष्ठ और क्रूर कोष्ठ कौन होतेहैं । स्नेहपानके अयोगसे क्या खराबी होती है और उसका यत्म क्या है अच्छस्नेह और संशोधन स्नेहमें क्या बर्ताव करना चाहिये ।
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६ १४४) चरकसंहिता-भा० टी०। विचारणा स्नेह किस विधिसे किनको देना । हे अमितज्ञान : स्नेहनके प्रकारोंको जाननेकी मेरी इच्छा है इसलिये कृपया स्नेहशास्त्रका विधान कीजिये ॥२-६॥
पुनर्वसुका उत्तर। अथतत्संशयच्छेत्ताप्रत्युवाचपुनर्वसुः। स्नेहानांद्विविधाचासौ योनिःस्थावरजङ्गमा॥ ७ ॥ तिलापियालाभिषुकौविभीतकश्चिनाभयरण्डमधूकसर्पपाः।कुसुम्भविल्वारुकमूलकातसीनिकांचकाक्षोडकरञ्जशिकाः॥॥ स्नेहाश्रयाःस्थावरसंज्ञितास्तथास्युर्जाङ्गमामत्स्यमगाःसपक्षिणोतेषांदधिक्षीरघृतामिपं वसास्नेहपुमज्जाचतथोपदिश्यते ॥ १ ॥
अग्निवेशके इस प्रश्नको सुनकर इस संशयके दूर करनेवाले पुनर्वसुजी कहनेलगे। हे सौम्प ! स्नेहांकी योनि (कारण) स्थावर और जंगम इन दो भेदासे दो प्रका. रकी है ॥ ७ ॥ उनमें तिल, चिरौंजी, पहाडोंपर होनेवाले फलोंकी मींग, बहेडे, चित्रा ( जमालगोटा या पहाडी एरंड), हरड, महुवा, सर्षप, कसंभेके वीज. ' विल्व, मिलावा, मूलीके वीज, अलसी, निकोटक, अखरोट, कंजेके बीज, सुहां . जनक वीज, यह सव स्थावर स्नेहोंके योनि है अर्थात् इनमेसे जो तैलादि निकलते हैं वह स्थावर स्नेह हैं । ऐसे ही गौ, भैंस, बकरी आदि तथा मछली,मृग, पशु. पक्षियोंको जंगम स्नहकी योनि कहते हैं इनके दही, दूध, घी,जथामछली आदिके मांस, चरबी, और मजा जंगमस्नेह कहे जाते हैं ।। ८॥९॥
रोग विशेषाम तेलांकी उत्कृष्टता। सर्वपांतैलजातानांतिलतैलंविशिष्यते । वलार्थेस्नेहनेचारन्यमरण्डन्तुविरेचने ॥ १० ॥ सर्पिस्तैलंवसामज्जासर्वलेहोत्तमामताः । एभ्यश्चैवोत्तमंसर्पिःसंस्कारस्यानुवर्तनात् ॥११॥ चिकनाईके लिये मर्दन आदिसे वल बढानेको सब प्रकारके तेलॉम तिलोंका तेल उत्तम होताह । और जुलाव कराने के लिये एरंडतेल उत्तम होताह ॥ १० ॥ मन प्रमाके स्नहाम-घी, तेल, चरखी, मज्जा यह उत्तम होते हैं । इन सबमें घी यान उत्तम है क्योंकि इसको यदि औषधियांसे सिद्ध कियाजाय तो यह उन आषधियोंके गुणका भी करताह और अपना गुण भी करताह ॥ ११ ॥
घृतकेगुण । घृतंपित्तानिलहररसमोजसांहितम् । निर्वापणंमृदकरस्वरवर्णप्रसादनम् ॥ १२ ॥ .
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सूत्रस्थान - अ०. १३.
(389)
घृत-वात और पित्तको नष्ट करता है । रस, शुक्र, बल, इनको बढाता है, अग्निकों मंदकरनेवाला, शरीरको मृदुकारक, स्वर तथा वर्णको प्रसन्न अर्थात् उज्ज्वलकरनेवाला है ॥ १२ ॥
. तैलके गुण ।
मारुतनंनचश्लेष्मवर्द्धनं बलवर्द्धनम् ।
त्वच्य मुष्णंस्थिर करंतैलयोनिविशोधनम् ॥ १३ ॥
तैल - वातनाशक है, कफको बढाता नहीं, बलको वढानेवाला, और त्वचाको उत्तम बनानेवाला, उष्ण, दृढकारक, और योनिको शुद्ध करताहै ॥ १३ ॥ बसाके गुण | विद्वभग्नाहतभ्रष्टयोनिकर्णशिरोरुजि । .
पौरुषोपचये स्नेहे व्यायामचेष्यतेवसा ॥ १४ ॥
चरवी - छिदेहुए और कटेहुए में हित करती है । योनिभ्रंश, कानका शूल, शिरपीडा, इनको दूर करती है । तथा पुरुषार्थकी वृद्धिकारक, चिकना करनेवालों, कसरतमें हितकारी है ॥ १४ ॥
मज्जाकें गुण !
वलशुक्र रसश्लेष्ममेदोमज्जाविवर्द्धनः ।
मज्जाविशेषतोऽस्थनाञ्चबलकृत्स्नेहनेहितः ॥ १५ ॥
मज्जा - चल, वीर्य, रस, कफ, मेद, मज्जा, इनको बढाती है और विशेषतासे हड्डियोंमें वल देती है और चिकनाई करनेमें हित है ॥ १९ ॥
हपानका समय 1
सर्पिश्शरदिपातव्यं वसामजाचमाधवे । तैलप्रावृषिनात्युष्णं शीतेस्नेहपिबेन्नरः ॥ १६ ॥ वातपित्ताधिकेरात्रावुष्णेचापिपिबेन्नरः । - इलेष्माधिकेो देवाशीतेपिबेच्चामलभास्करे ॥ १७ ॥ धीका शरद ऋतु, चरबी और मज्जाका वसंतमें, तेलका वर्षामें उपयोग करें। और जिस कालमें अधिक गर्मी तथा अधिक सर्दों न हों उस समय स्नेह पीवे ॥ १६ ॥ वात और पित्तकी अधिकतामें तथा गर्म ऋतुमें रात्रिके समय स्नेहपान करे। कफ की अधिकतामें और शीतकालमें निर्मल आकाश होनेपर दिनमें स्नेहपान करे ॥ १७ ॥
१०
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(१६) चरकसंहिता-भा० टी०।
अत्युष्णेवादिवापीतेवातपित्ताधिकेनच। मूछौंपिपासामुन्मादकामलांवासमीरयेत् ॥ १८॥ वात पित्तकी अधिकताम अतिगर्मीके समयमें दिनमें स्नेह पान करनसे मूर्छा, पास, उन्माद और कामलारोग होतेहैं ॥ १८॥
शीतेरात्रौपिवेत्स्नेहनरः श्लेष्माधिकोअपवा।
आनाहमाचं शूलंपाण्डुतावासमृच्छति ॥ १९॥ कफकी अधिकताम और शीतकालमें रात्रिके समय स्नेहपान करनेसे अफारा, अरुचि, शूल, पांडुरोग यह रोग होतेहैं ॥ १९ ॥
स्नेहपर अनुपान । जलमुष्णघृतेपेयंयूषस्तैलेऽनुशस्यते ।
वसासनोऽस्तुमण्डःस्यात्सर्वेषूष्णमथाम्बुवा ॥२०॥ घृतपान करके ऊपरसे गर्म जल पीना चाहिये । और तैल पीकर ऊपरसे मांसरस पीना चाहिये । वसा और मज्जाके पीछे मांड पीना चाहिये। अथवा सन स्नेहोंके पीछे गर्म जल पीवै ॥ २०॥
स्नेहकी विचारणा। ओदनश्चविलेपीचरसोमांसंपयोदधि । यवागःसूपशाकौचयूषः काम्बालकःखडः ॥२१॥ सक्तवस्तिपिष्टश्चमद्यलेहास्तथैवच । भक्ष्यमभ्यञ्जनंवस्तिस्तथाचोत्तरवस्तयः ॥ २२ ॥गण्डपःकर्णतेलञ्चनस्तःकर्णाक्षितर्पणम् । चतुर्विंशतिरित्यता: स्नेहस्यप्रविचारणाः ॥ २३॥
भांत आदि अन्न, गोइ, मांसरस, मांस, दूध, दही, यवागू, सूप, साग,कांवलिफष, पवृष, सत्तू, तिलपिष्टक, सुरा, अवलेह, सब प्रकारके भोजन, मालिश,
स्ति, उत्तम्वस्ति, गंटूप, कानकी औषधी डालना, नस्य कर्म, कानका तर्पण,नेत्रतण, इन भदास सहकी चौबीस प्रकारकी विचारणा है ॥ २१ ॥ २२ ॥ २३ ॥
असंयुक्तम्रहका वर्णन । अच्छपेयेस्तुर्यःस्नेहोनंतमाहुर्विचारणाम् । स्नेहस्यसभिपग्दृष्टःकल्पःप्राथमकल्पिकः ॥ २४॥
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सूत्रस्थान -० १३.
( १४७ ) जी स्नेह किसी अन्य द्रव्यसे न मिला हो उसको विचारणा नहीं कहते उसका नाम अच्छस्नेह है । और किसी अन्य द्रव्यके योगसे स्नेहको विचारणा कहते हैं अच्छस्नेह अर्थात् स्वच्छस्नेहको वैद्य लोग स्नेहका प्रथम कल्प मानतेर्हे ॥ २४ ॥ स्नेहकी चौंसठ विचारणा ।
रसैश्चोपहतःस्नेहः समासव्यासयोगिभिः । षड्भिस्त्रिषष्टिधासंख्याः प्राप्नोत्येकश्चकेवलः ॥ २५ ॥ एवमेषाचतुःषष्टिः स्नेहानां प्रविचारणा । सात्म्यर्तुव्याधिपुरुषान्प्रयोज्याजानताभवेत् ॥ २६ ॥
मधुर, अम्ल, लवण, कटु, तिक्त, कषाय, इन छः रसोंके मिलाप, विकल्प और अंशयोगसे रेस ६३ प्रकारके होते हैं इन तिरसठोंके संयोग भेदसे स्नेह भी ६३ प्रकारके होते हैं । और एक अच्छस्नेह (केवल स्नेहमात्र ) है इस प्रकार रस संयोगभेदसे ६३ और बिना किसी संयोगसे केवल एक यह सब मिलाकर स्नेहकी ६४ प्रकारकी विचारणा हुई, स्नेहके प्रकरण और प्रयोगको जाननेवाला वैद्य शरीरका सात्म्य, ऋतु भेद, व्याधि, मनुष्यका बलावल - विचारकर स्नेहका प्रयोग करे ॥ २९ ॥ २६ ॥
मात्राओंका वर्णन ।
अहोरात्रमहः कृत्स्नमर्द्धाहञ्च प्रतीक्ष्यते। प्रधानामध्यमाह्रस्वास्तेहमात्राजरांप्रतेि ॥ २७ ॥ इतितिस्रः समुद्दिष्टामात्राः स्नेहस्य मानतः । तासां प्रयोगान्वक्ष्यामि पुरुषं पुरुषंप्रति ॥ २८ ॥
प्रधानमात्रा मध्यम मात्रा हस्वमात्रा इन भेदोंसे स्नेहोंकी मात्रा (खुराक) तीनप्रकारकी होती है । जो मात्रा एकदिन रातेंम परिपाकको प्राप्त हो उसको प्रधान मात्रा कहतें हैं । जो केवल दिन में ही पाचन होजाय उसको मध्यम मात्रा कहते हैं । जो आधे दिनमें हो पाचन होजाय उसको ह्रस्वमात्रा कहते हैं । अब उन स्नेहकी मात्राओंको पुरुषभेदस कथन करतेहैं ॥ २७ ॥ २८ ॥
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उत्तममात्राके योग्य पुरुष ।
प्रभूतस्नेहनित्यायेक्षुत्पिपासासहानराः । पावकश्चोत्तमबलो - येषां चोत्तमाबले ॥२९॥ गुल्मिनः सर्पदष्टाश्चविसर्पोपहताश्चये । उन्मत्ताःकृच्छ्रमूत्राश्चगाढवर्चसएवच ॥ ३० ॥
(१) सुश्रुत के उत्तर तंत्रके ६३ वे अध्यायमें ।
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(१४८) । चरकसंहिता-भा० टी० ।
जो मनुष्य स्नेहानेके अभ्यासवाले हों, जो भूख प्यासके सहन करनेकी शक्ति वाले हों, जिसकी जठराग्नि उत्तम बलवान् हो, जो शरीरम बलिष्ठ हो,गुल्मरोगवाला सांपका काटाहुआ, विसर्परोगवाला, उन्मत्त, मूत्रकृच्छ्युक्त, और जिसका मल कठोर हो, इन उपरोक्त मनुष्योंको स्नेहकी प्रधान मात्रा देनी उचित है २९॥३०॥
प्रधानमात्राके गुण। पिवेयुरुत्तमामात्रांतस्याःपानेगुणाञ्छृणु। विकाराशमयत्येषा शीघसम्यक्प्रयोजिता ॥३१॥दोपानुकार्पणीमात्रासर्वसार्गानुसारिणी । वल्यापुनर्नवकरीशरीरेन्द्रियचेतसाम् ॥ ३२ ॥ इन मनुष्याको प्रधान मात्रासे स्नेह पान करानेसे जो गुण होतेहैं सो सुनो। इस प्रधानमात्राका विधिसे प्रयोग किया हुआ सब विकारोंको शीघ्र नष्ट करताहै।वढेहुए. दोषाको खींचकर निकालदताहै । शरीरके सब छिद्रांम स्नेहका प्रवेश होजाताहै, शरीरका वल वढता है और शरीर, मन, इंद्रियं इनमें नवीनता आजातीहै ३१॥३२॥
मध्यममात्राक योग्य पुरुष । अरुकस्फोटपिडकाकण्डुपामाभिरर्दिताः । कुष्टिनश्चप्रमूढाश्च । वातशोणितकाश्चये ॥३३॥ नातिवहाशिनश्चैवमृदुकोष्टास्तथैवच । पिवेयुर्मध्यमांमात्रांमध्यमाश्चापियेवले ॥ ३४ ॥ मात्रैपामन्दविभ्रंशानचातिवलहारिणी। सुखेनचस्नेहयतिशो. धनायचयुज्यते ॥ ३५॥
और पिडिका, विस्फोटक, अरुषिका, खाज, पामा, कुष्ठ, प्रमेह, वातरक्त, इन रोगांसे पीडितांको तथा सामान्य आहार करनेवालोको, मृदुकोष्टयुक्तांको और साधारण वलवालोंको स्नेहकी मध्यम मात्रा देनी चाहिये, क्योंकि मध्यम मात्रा. न तो अधिक विरेचन करताह और न शरीरमें अधिक शिथिलता लाती है। यह मावा विना किसी तकलीफके स्नेहन करनेवाली है और शोधनके लिये प्रयुक्त कीजातीहै ॥ ३३ ॥ ३४ ॥ ३५ ॥
हस्वमात्राके योग्य पुरुष । यतवृन्दावालाश्चसुकुमाराःसुखोचिताः । रिक्तकोष्टत्वमहितं चेपांमन्दानयश्चये ॥ ३६ ॥ ज्वरातीसारकासश्चयपांचिरसमुस्थितः । स्नेहमात्रांपिवयुस्तेह्रस्वायंचावरावले ॥३७ ॥
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सूत्रस्थान-अ०१३ :- परिहारेसुखाचैषामात्रास्नेहनबृहणी । वृष्यावल्यानिराबाधा - "चिरश्चाप्यनुवर्तते ॥ ३८ ॥ - इसीप्रकार अतिवृद्ध, बालक, सुकुमार, सुखमें रहनेवाले, जिनका कोष्ठ आर्हितकारी विरेचनसे खाली हो, मंदाग्निवाले, ज्वर, अतिसार, खांसी, यह जिनको बहुत दिनोंसे हों, जो बलहीन हैं, इन सबको स्नेहकी हस्वमात्रा पिलानी चाहिये। यह मात्रा इन मनुष्योंको सुख देनेवाली है,अंतमें कष्ट नहीं देती शरीरको चिकना करतीहै । वीर्य और बलको बढातीहै । बहुत काल सेवन करनेसे भी कोई कष्ट नहीं देती (इस समय इस्वमात्रा ही बहुतसे लोगोंको हितकर होतीहै ) ॥ ३६ ।। ॥३७॥ ३८॥
घृतपानके योग्य व्यक्ति । वातपित्तप्रकृतयोवातपित्तविकारिणः । चक्षुःकामाःक्षताः
क्षीणावृद्धाबालास्तथाबलाः ॥३९॥ आयुःप्रकर्षकामाश्चबल... वर्णस्वरार्थिनः । पुष्टिकामा प्रजाकामा:सौकुमार्थिनश्चये
॥४०॥ दीप्त्योजःस्मृतिमेधाग्निबुद्धीन्द्रियबलार्थिनः।पिबेयुःसर्पिराश्चिदाहशस्त्रविषाग्निभिः ॥ ४१ ॥ वाते और पित्तकी प्रकृतिवालेको, वात पित्तके विकारियोंको, दृष्टिकी शक्तिकी इच्छावालेको, क्षत और क्षीणको, वृद्धको, बालकको, दुर्बलको, दीर्घायुकी इच्छावालेको, बल, वर्ण और स्वरके उत्तम करनेको, पुष्टताकी इच्छावालेको, संतत्रिकी कामनावालेको, सुकुमारताकी इच्छावालेको, कांति, ओज, स्मरणशक्ति, मेधा, आग्ने, बुद्धि और इंद्रियोंके बलकी इच्छावालेको, दाह शस्त्र, विष, आग्ने, इनसे पीडितको घृतपान करना बहुत उत्तम है ॥ ३९ ॥ ४० ॥४१॥
- तैलपानके योग्य व्यक्ति। प्रवृद्धश्लेष्ममेदरकाश्चलस्थूलगलोदराः। वातव्याधिभिराविष्टावातप्रकृतयश्चये ॥ ४२ ॥ बलंतनुत्वलघुतांदृढतांस्थिरगात्रताम् । स्निग्धश्लक्ष्णतनुत्वतायेचकांक्षन्तिदेहिनः॥४३॥
कामकोष्ठा करकोष्ठास्तथानाडीभिर्दिताः । पिबेयुःशीतले . कालेतैलंतैलोचिताश्चये ४४ ॥
कफ और चरवी जिनकी बढीहुई हो जिनका गला और पैट स्थूल हो तथा __ हिलता हो, जो वातव्याधिसे पीडित हों, वातके स्वभाववाले हों तथा वल, तनुता
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( १५० )
चरकसंहिता - भा० टी०
हलकापन, दृढता, अंगों की मजबूती चिकनाहट, श्लक्ष्णतायुक्त शरीर और त्वचाको करना चाहते हो, और जिनके कोष्ठमें कृमि हो तथा कठिन कोठवाले, नासूर तथा नाडीरोग से पीडित, और भी जो तैलयोग्य मनुष्य हो अथवा तैलपान या तैलमर्द - नके अभ्यासवाले हाँ उनको शीतकालमें उचित मात्रासे तैलपान करना हितकारी ६ ॥ ४१ ॥ ४३ ॥ ४४ ॥
वसापान के योग्यपुरुष ।
वातातपसहायेच रूक्षाभाराध्वकार्पिताः । संशुष्करेतोरुधिर । निष्फीतकफमेदसः ॥ ४५॥ अस्थिसन्धिशिरास्नायुमर्मकोटमहारुजः । बलवान्मारुतोयेषां खानिचावृत्य तिष्ठति ॥४६॥ महच्चाग्निवलयेपांवसासात्म्याश्चयेनराः । तेषांस्नेहयितव्यानां वसापानं विधीयते ॥ ४७ ॥
जो मनुष्य वायु और धूप सहसकते हों, रूक्ष शरीरखाले, भार उठाने तथा रास्ता चलनेस कृश हुए हों, जिनका वीर्य और रक्त क्षीण होगयाहो, जिनके शरीरमसे कफ और मेद नष्ट हो चुका हो, जिनके अस्थि, संधि, शिरा, स्नायु, मर्भस्थान तथा कोष्ठ.. पीडायुक्त हों । जिनके शरीरके छिद्रांको वढे हुए वायुने व्यावृत करलियाहो, जिनका अग्नि और वल उत्तम हो तथा जो चरवी पीनेके अभ्यासवाले हो । उन स्नेह योग्य मनुष्यों को बसापान करना चाहिये ॥ ४५ ॥ ४६ ॥ ४७ ॥ मज्जापान के योग्य पुरुष । दीप्ताग्नयःक्लेश सहाघस्मराः स्नेहसेविनः ।
वातार्त्ताः क्रूरकोष्टाश्चस्नेह्यामजानमाप्नुयुः ॥ ४८ ॥
जिनकी अग्नि बलवान् हो, जो क्लेश सहसकते हां, बहुत खाते हां, स्नेहक अभ्यास वाले हों, वातसे पीडित हो, कार्टन कोटवाले हों, स्नेहन योग्य हां ऐसे मनुष्यको मला का प्रयोग करावे ॥ ४८ ॥
पान की अवधि |
वेभ्योयेभ्योहितोयायः स्नेहः सपरिकीर्तितः । स्नेहनस्यप्रकपनुसतरात्रात्रिरात्रको ॥ ४९ ॥
जिन मनुष्यों को जो जो नेह हितकारी ही उनका कथन कियागया है। स्नेहक स्नेहकी अधिकता होनेसे या न्यूनता होनेसे सात दिन या तीन दिनके अंतर से इनहेपान करावे ॥ ४९ ॥
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सूत्रस्थीन-अ० १३.. (६) • स्नेहकर्मके योग्य पुरुष। . . . स्वेद्या शोधयितव्याश्चरूक्षवातविकारिणः। . . . .
व्यायाममद्यस्त्रीनित्याःस्नेह्याम्स्युर्येचचिन्तकाः ॥ ५ ॥ सूक्ष मनुष्य, वायुकी अधिकतावाला जिनको स्वेदन तथा शोधन कराना हो एवं कसरत करनेवाले, मद्यपान करनेवाले, नित्य स्त्रीगमन करनेवाले, और जिनको शोचने विचारनेका काम अधिक रहता हो वह मनुष्य स्नेहन करने योग्य हैं ॥५०॥
स्नेहकर्मके अयोग्य व्यक्ति । संशोधनाहतेयेषांरूक्षणसंप्रवक्ष्यते । नतेषांस्नेहनंशस्तमुत्सनकफमेदसाम्॥५१॥अभिष्यन्दाननगुदानित्यमन्दाग्नयश्चये। तृषामूपिरीताश्चंगार्भण्यस्तालुशोषिणः ॥ ५२ ॥ अन्नद्वि
षश्छर्दयन्तोजठरामगरार्दिताः । दुर्बलाश्चप्रतान्ताश्चस्नेह... ग्लानामदातुराः॥५३॥ नस्नेह्यावर्त्तमानषुननस्तावस्तिक
र्मसु । स्नेहपानात्प्रजायन्तेतेषांरोगासुदारुणाः ॥ ५४॥ जिन मनुष्यों को संशोधन नहीं करना और रूक्षण करना है अर्थात् जो मनुष्य रूक्षण करनेके योग्य हैं उनको स्नेहपान कराना हितकर नहीं है। कफप्रकृतिवालेको
और मेवालेको भी स्नेहन नहीं करना । एवं जिनके मुखसे और गुदासे वाव होताहै, जो मंदाग्निवाले हों, तृष्णा तथा मूळयुक्त हों,जो गर्भवती हों उनको तथा तालुशोषमें, अरुचिमें, वमनमें, उदररोगमें, आमदोष तथा गरदोषमेंदुर्बल, बहुत कृश, स्नेहपानसे ग्लानि माननेवालेको, मदात्ययवालेको, नस्यकर्म कियेहुएको, बस्तिकर्म कियेहुएको स्नेहपान करना उचित नहीं । याद इनको स्नेहपान करावे तो दारुण रोग उत्पन्न होजातेहैं ॥ ११॥ ५२ ॥ ५३ ॥ ५४॥
. अस्निग्धके लक्षण। पुरीषंग्रथितंरूकंवायुरप्रगणोमृदुः।
पक्ताखरत्वंरौक्ष्यश्चगात्रस्यास्निग्धलक्षणम् ॥ ५५॥ स्नहन न होनेके यह लक्षण होतेहैं। जैसे-मलकागांठदार और रूक्ष होना,वायुका विलोम होना, आग्निका मंद होना, पाचक, देह कठोर और रूक्ष होना ॥ १६॥
सम्यक् स्निग्धके लक्षण। वातानुलोम्यंदीप्तोनिर्वास्निग्धमसंहतम्। माईवस्निग्धताचाङ्गेस्निग्धानामुपजायते ॥ ५६ ॥
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चरकसंहिता-भा० टी०। टीक स्नेहन हुए मनुप्यके वायुका ठीक अनुलोमन होना, अनि चैतन्य होना, मल गांटरहित स्निग्ध होना, शरीरमें नम्रता तथा चिकनाहट होना यह लक्षण होतेहैं ।। ५६ ॥
___ अतिस्निग्धके लक्षण । पाण्डुतागौरवंजाड्यंपुरीपस्याविपक्वता ।
तन्द्राह्यरुचिरुलेशःस्यादतिस्निग्धलक्षणम् ॥ ५७ ॥ अत्यंत स्नेहन होनेसे-पांड, गुरुता,जडता, मलका, कच्चा गिरना, तंद्रा,अरुचि,. जी मचलाना, यह लक्षण होतेहैं ।। ५७ ॥
स्नेहपानके पूर्व कर्तव्य कर्म । द्रवोष्णमनभिष्यन्दिभोज्यमन्नंप्रमाणतः।
नातिस्निग्धमसंकीर्णश्वःस्नेहपातुमिच्छता ॥ ५८॥ स्नेहपान करनेसे पहले दिन पतला, उष्ण, हलका, थोडीसी चिकनाईयुक्त,खिचडी आदि प्रमाणसे भोजन करे ।। ५८॥
स्नेहपानके पश्चात्कर्म । पिवेत्संशमनंस्नेहमन्नकालेप्रकांक्षितः।
शुद्धयर्थपुनराहारनैशेजीणेपिवेन्नरः॥ ५९॥ संशमन स्नेह अर्थात् वातकी शांतिके लिये भोजनके समय पान करे । जब रातका किया भोजन पचचुकाहो उस समय ( प्रातःकाल ) संशोधन स्नेहपान करे ॥५९ ॥
पीतनेहव्यक्तिके कर्तव्य कम । उष्णोदकोपचारीस्याब्रह्मचारीक्षपाशयः शकुन्मूत्रानिलोदारानुदीर्णाश्चनधारयेत्॥६०॥ व्यायाममुच्चैर्वचनंक्रोधशोकोहिसातपो । वर्जयेदप्रवातञ्चसेवेतशयनासनम् ॥ ६१ ॥ नेहपान करके गरम पानी पीना चाहिये । और इंद्रियोंको वशमें रक्खें । दिनमें नसावे । मल,मूत्र, और डकारके वेगको न रोके । व्यायाम, उंचा वोलना, क्रोध, शोक. दिम, धूप, इनको त्यागदेवे जिस स्थानमें अधिक पवन न लगतीहो उसम बेटे ओरायन को ॥६०॥६१ ॥
अधिक न्नेहपानके दोप। लहंपीत्वानरःन्नेहंप्रतिभुञ्जानएव च । सहमिथ्योपचाराडिजायन्तेदारुणागदाः ॥६२॥
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सूत्रस्थान-अ० १३. जब तक पहला स्नेहपान कियाहुमा जीर्ण न होलेवे उसके उपर फिर वह नहीं __ पीना चाहिये । यदि उसके ऊपर फिर स्नेहपान करे तो इस मिथ्या उपचारसे अनेक दारुण रोग उत्पन्न होते हैं ॥ १२॥
कोष्ठानुसार स्नेहपानविधि । मृदुकोष्ठस्त्रिरात्रेणस्निह्यत्यच्छोपसेवया।
स्निह्यतिक्रूरकोष्ठस्तुसप्तरात्रेणमानवः ॥१३॥ - जिस मनुष्यका कोष्ठ नरम होताहै वह तीन दिन अच्छा स्नेहपान करनेसे स्निग्ध होजाता है। और क्रूर कोष्ठवाला सात दिन स्नेहपान करनेसे निग्ध होता है ॥ ६३ ॥
मृदुकोष्ठव्यक्तिके विरेचन द्रव्य । गुडमिक्षुरसंमस्तुक्षीरमुल्लोडितंदधि । पायसंकसरंसर्पिः काश्मयंत्रिफलारसम् ॥ ६४ ॥ द्राक्षारसंपीलुरसंजलमुष्णमथापिवा । मद्यवातरुणंपीत्वामृदुकोष्ठोविरिच्यते ॥६५॥ विरेचयन्तिनैतानिक्रूरकोष्ठकदाचन । भवतिक्रूरकोष्ठस्यग्रहण्यत्युल्वणानिला ॥६६॥ गुड, इक्षुरस, दहीका पानी, दूध, अधबिलोया दही, खीर, कृसरा, घी, काश्मरीके फलोंका काथ, त्रिफलेका काथ, मुनक्काका काथ, पीलूका काथ, अथवां गर्म जल, इनके पीनेसे ही मृदुकोठेवालेको विरेचन होजाताहै । परन्तु क्रूर कोठेवालेको इन वस्तुओंसे विरेचन नहीं होता क्योंकि क्रूर कोष्ठवालेकी ग्रहणीकला वातप्रधान होती है इसीलिये कोष्ठमें क्रूरता और वातजन्य रूक्षता होनेसे विरेचन नहीं होता ॥ ६४ ॥६५॥६६॥ .
मृदुकोष्ठके लक्षण। उदीर्णपित्ताल्पकफाग्रहणीमन्दमारुता। . मृदुकोष्ठस्यतस्मात्ससुविरेच्योनरःस्मृतः॥६७॥ जिसकी ग्रहणीकलामें पित्त प्रधान है और कफ अल्प तथा वायु मंद है उसका कोष्ठ मृदु ( नरम )होताहै । इसलिये उसको सहजमें ही विरेचन होसकताहै॥६॥
स्नेहयुक्त अग्निका तीव्रत्व। . उदीपित्ताग्रहणीयस्यचाग्निबलंमहत् । भस्मीभवतितस्याश लेहःपीतोऽग्नितेजसा॥६८॥सजग्ध्वास्नेहमात्रांतामोजःप्रक्षा
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( १५४ )
चरकसंहिता - भा० टी०
लयन्बली । स्नेहा ग्निरुत्तमांतृष्णांसोपसर्गामुदीरयेत् ॥ ६९ ॥ वालंस्नेहसमृद्धस्यशमायान्नं सुगुर्वपि । सचेत सुशीतं सलिलं ना - ' सादयतिदह्यते॥७०॥ यथैवाशीविषःकक्षमध्यगः स्वविषाग्निना ७१ जिस मनुष्यकी ग्रहणकिला में पित्त वहुत वढाहुआ है और अनिका वल अधिक हैं वह मनुष्य यदि स्नेह पीवे तो अग्निके वलसे वह स्नेह भस्म होजाता है । फिर वह ढहुआ अनि स्नेहको जलाकर शरीर के आजतेजको दहन करने लगता है और घोर प्यासको प्रगट करता है, उस समय स्नेहसे वढे हुए अग्नि में भारी अन्न भी बहुत नहीं होता अर्थात् उस भस्मकानि में यदि भारी भोजन और शीतल जल न दिया जाय तो वह शरीरकी धातुओंको ऐसे दहन करदेता है जैसे कक्षामं स्थित आशीविष अपने विषरूप से दहन करदेता है ॥ ६८ ॥ ६९ ॥ ७० ॥ ७१ ॥ अजीर्ण स्नेहपान में उपाय ।
अजीर्णेयदितुस्नेहेतृपास्याच्छ्र्द्दयेद्भिषक् ॥ शतिदेिकंपुनःपीत्वाभुक्त्वारुक्षान्नमुल्लिखेत् ॥ ७२ ॥ नसर्पिः केवलेपित्ते पेयं सामेविशेषतः ॥ सर्वानुचरेद्देहहत्वासंज्ञाञ्च मारयेत् ॥ ७३ ॥ जब तक स्नेह जीर्ण न हुआ हो और तृषा आदि उपद्रव न वढगये हों तब तक शीघ्र छर्दन करादेव और शीतल जल पिलावे । तथा रूक्ष भोजन कराके फिर छर्दन करावे ॥७२॥ केवल पित्तमं और आमसहित पित्तमं विशेष करके घृतपान न करे, क्योंकि वह स्नेह सर्वशरीरमें व्याप्त होकर संज्ञाको नष्ट करदेता है और मृत्यु तक करदेताहै ॥ ७३ ॥
स्नेहभ्रमके उपद्रव ।
॥
तन्द्रासोत्क्लेश आना होज्वरः स्तम्भोविसंज्ञता कोष्ठानि कण्डुः पाण्डुत्वंशो फाशस्य रुचिस्तृपा । जठरंग्रहणीदोषः स्तमित्यंवाक्यनिग्रहः ॥७२॥ शूलमामप्रदोषाश्चजायन्तेस्नेहविभ्रमात् । तत्राप्युलेखनं शस्तंस्वेदः कालप्रतीक्षणम् ॥ ७५ प्रतिपत्तिर्व्याधिवलंबुद्धाचंसनमेवच । तकारिष्टप्रयोगश्चरूक्षपानान्नसेवनम् ॥ मुत्राणांत्रिफलायाश्च स्नेहव्यापत्तिभेषजम्॥ ॥ ७६ ॥ अकालेचाहितश्चैवमात्रयानचयोजितः ॥ ७७ ॥
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सूत्रस्थान - अ० १३.
. (१५६ )
स्नेहपान में कुपथ्य होनेसे - तन्द्रा, उत्क्लेश, अफारा, ज्वर, स्तंभ, बेहोशी, कुष्ठ, खुजली, शोथ, अर्श, अरुचि, प्यास, उदररोग, ग्रहणीदोष, देहमें गीलापनसा, वाणीका स्तंभन दोना, शूल, आमदोष यह उपद्रव होते हैं। यहां पर भी वमन कराना अथवा स्वेद स्नेह होय तो जीर्ण होनेकी प्रतीक्षा करना और व्याधिका बलावल विचारकर दोषोंको निकालो तथा तक्र, अरिष्ट, रूक्ष अन्न पान तथा गोमूत्र, वा त्रिफलाका सेवन करना हितकारी है विना समय अथवा अहितकारी या अतिमात्रा से स्नेहपान करनेसे अथवा स्नेहपान के मिथ्यायोग होनेसे स्नेहव्यापात्ते ( स्नेहसे प्रगट रोग ) होतेहैं ॥ ७४-७७ ॥
स्नेहपान में विरेचनाविधे ।
स्नेहोमिथ्योपचाराच्चव्यापद्येतातिसोवितः । स्नेहात्प्रस्कन्दनोजन्तुस्त्रिरात्रोपरतःपिबेत् ॥ ७८ ॥ स्नेहञ्चद्रवमुष्णञ्चत्र्यहं भुक्त्वारसौदनम्। एकाहो परतस्तद्वमुक्त्वाप्रच्छर्द्दनं पिबेत्॥७९॥
विना विधि स्नेहपानसे यदि रोगादि होय तो तीन दिन स्नेहको त्यागदेवे और मांसरस तथा अन्न भोजन करे फिर चौथे दिन बहुतसे स्नेहको द्रव और गर्म पदार्थों • में मिलाकर पीवे । अथवा वमन करादेवे और एक दिन ठहर कर फिर स्नेह पीवे !: संशोधन स्नेह पीकर जैसे विरेचन के दिन गर्म जल आदि पीते हैं वैसा उपचारकरे ॥ ७८ ॥ ७९ ॥
स्यात्तुसंशोधनार्थायवृत्तिःस्नेहेविरिक्तिवत्। स्नेहद्विषः स्नेहनित्यामृदुकोष्ठाश्चयेनराः ॥ क्लेशासहामद्यनित्यास्तेषामिष्टा विचारणा ॥ ८० ॥ लावतैत्तिरिमायूर हंसवाराहकौश्कुटाः || ॥ ८१ ॥ गव्यजोरभ्रमात्स्याश्चरसाः स्वेस्नेहनेहिताः ॥ ८२ ॥ जिसको स्नेहपानसे द्वेष हो, जो सदैव स्नेह पीता हो, जो मृदुकोष्ठवाला हो, जो क्लेशको सहन करनेवाला हो, जो नित्य मद्य पीता हो, इनको विचारणा स्नेह( किसी रस आदि योगसे ) पान करना चाहिये । ऐसे मौके पर गौके दूध अथवा लवा तीतर, मोर, सूकर, मुरगा, बकरी, मेढा, मछली इनके मांसरसके संयोगसे स्नेहपान करावे ॥ ८० ॥ ८१ ॥ ८२ ॥
स्नेहमें मिलानेयोग्य यूष । और यूषके द्रव्य । यवकोलकुलत्थाश्चस्नेहाः सगुडशर्कराः ॥ दाडिमंदधिसव्योषंरस संयोगसंग्रहः । स्नेहयन्तितिलाः पूर्वजग्धाः सस्नेहफाणिताः ॥ ८३ ॥
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(१५६) चरकसंहिता-भा० टी०॥
और जो, बेर, कुलथी इनके यूष, गुड, खांड, अनारका रस, दही, और त्रिकुटा इनके योगसे स्नेहपान करावे, इस प्रकार स्नेहके योगका संग्रह कहा है। तिल,स्नेह,फाणित,इनका भिलाकर भोजनसे पहले.सेवन करे तो शरीरको चिकना करते हैं ॥ ८३॥
. . . . . . . . कृशराश्चबहुस्नेहास्तिलकाम्बलिकास्तथा । फाणितंशृङ्गावरश्चतैलञ्चसरयासह ॥८४ ॥ पिबेद्रक्षोघतैमासमणेऽश्नीयाच भोजनम् । तैलंसुरायामण्डेनवसांमज्जानमेववा ॥ ८५ ॥ पिबेत्सफाणितक्षीरनरःस्नियतिवातिकः॥धारोष्णस्नेहसंयु
क्तपीत्वासशर्करपयः॥ ८६॥ . . खिचडी तिल कांबलिक बहुतसे स्नेहको साथ सेवन करनेसे शरीर चिकना होताहै एवं फाणित. सोंठ, तैल, सुरा,इनको मिलाकर पीवे,जीर्ण होनेपर घृतऔर मांसरससे भोजन करे तो रूक्ष शरीर भी स्निग्ध होय । वातप्रधान मनुष्य वारुणमिंडके । साथ तैल मिलाक पीवे अथवा केवल वसा और मज्जाको पानकरे।।८४॥८॥अथवा फाणितके साथ दूध पीनेसे वातप्रधान मनुष्यका शरीर चिकना होताहै । अथवा . धारोष्णदूध, घृत और खांड मिलाके पीवे ॥ ८६ ॥ . . . . . .
स्निग्धकरना। . .. नरःस्निह्यतिपीत्वावासरंदनःसफाणितम्। पाञ्चप्रसूतिकीपेया पायसोमाषमिश्रकः ॥ ८७ ॥ क्षीरसिद्धोबहुस्नेहःस्नेहयेदचिरान्नरम् । सर्पिस्तैलवसामज्जातण्डुलप्रसृतैः कृता॥८८ ॥ पाञ्चप्रसृतिकीपेयापेयास्नेहनमिच्छता । ग्राम्यानूपोदकमांसं गुडंदधिपयस्तिलान् ॥८९॥ कुष्ठीशोषीप्रमेहीचस्नेहनेनप्रयोजयेत् । स्नेहैर्यथाखंतान्सिद्धैःस्नेहयेदविकारिभिः ॥९०॥ अथवा दहीको मलाई और फाणितके पीनेसे मनुष्य स्निग्ध होजाताहै ।अथवा आगे कहीहुई पांचप्रसूतिपेया या दूधमें सिद्ध कीहुईं उडदोंकी खीर अत्यंत चिकनी होनेसे मनुष्यको शीघ्र स्निग्ध करदेतीहै । घी, तेल, वसा,मज्जा और चावलोंको दोरछटांक लेकर इकटेकर पकाये इसको पांचप्रसृतिकी पेया कहतेहैं अपने शरीरको चिकना करेनकी इच्छा करनेवाला इस पेयाको पीवे । कोढी,शोथवाला, प्रमहरोगी स्नेहनके लिये ग्राम्य और अनूप संचारी जीवोंके मांसरस तथा जलसंचारी मांस
तपेया या
घी, तेल,
कहतेहैं अपने दगी
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सूत्रस्थान - - अ०.१३....
( १५७) अथवा गुड, दही, दूध, और तिलोंका प्रयोग न करे क्योंकि यह इनके रोगोंको: बढाते हैं एवं विकाररहित मनुष्योंको विकाररहित अनुकूल उचित द्रव्योंसे सिद्ध कर स्नेहपान करावे ॥ ८७ ॥ ८८ ॥ ८९ ॥ ९० ॥
पिप्पलीभिर्हरीतक्यासिद्धेस्त्रिफलयापिवा । द्राक्षामलकयूषाभ्यांदनाचाम्लेनसाधयत् ॥ ९९ ॥
उनको - पीपल हरड, और त्रिफला के साथ सिद्ध कर अथवा आँवले और द्राक्षाके रस या कांजी के साथ सिद्ध कर त्रिकुटा बुरकाकर स्नेहपान करावे तो. मनुष्य स्निग्ध हो ॥ ९१ ॥
व्योषगर्भभिषकस्नेहपीत्वास्निह्यतितन्नरः।यवकोलकुलत्थानां रसाः क्षीरंसुरादधि ॥९२॥ क्षीरः सर्पिश्च तत्सिद्धं स्नेहनीयं घृतोतमम् । तेलमज्जावसासर्पिर्बदरत्रिफलारसैः ॥ ९३ ॥ योनिशुक्रप्रदोषेषुसाधयित्वाप्रयोजयेत् । गृह्णात्यम्बुयथावस्रंप्रत्रवत्यधिकंयथा ॥९४॥ यथाग्निर्जीर्य्यति स्नेहस्तथास्रवतिचाधिकः । यथावाक्लेद्यमृत्पिण्डमासिक्तंत्वरयाजलम्। स्रवतिस्रंसते स्नेहस्तथात्वरित सेवितः ॥ ९५ ॥
जो, बेर और कुलयीका यूष, दूध, मद्य, दही, एवं दूधका निकाला घृत इनसे सिद्ध किया वृत सव उत्तम स्नेहन है । तैल, मज्जा, वसा, घी, बेर, और त्रिफलाको क्वायसे सिद्ध स्नेह योनि और शुक्र के दोषोंमें प्रयुक्त करे । जैसे वस्त्र परिमाणकेroat ग्रहण करके अधिकको छोड देता है, ऐसे ही मनुष्यकी जठराग्नि परिमाणका स्नेह ग्रहण कर वाकीको मलद्वारसे निकालदेती है । जैसी मट्टीके डलेमें अधिक पानी पडनेसे उसको भिगोकर अधिक पानी बाहर चला जाता है। ऐसे ही मनुष्यकेशरीर में अधिक स्नेह जीर्ण न होकर झट बाहर निकल जाता है ९२ ॥ ९३ ॥ ९४ ॥ ९५ ॥ लवणोपहिताःस्नेहाःस्नैहयन्त्यचिरान्नरम्। तद्ध्यभिष्यन्द्यरूक्षञ्चसूक्ष्ममुष्णंव्यवायिच॥९६॥ स्नेहमयेप्रयुञ्जीत ततः स्वेदमनन्तरम् ॥ स्नेहस्वेदोपपन्नस्यसंशोधन मथेतरमिति ॥ ९७ ॥ लवणके संयोगसे स्नेहपान किया हुआ मनुष्यको शीघ्र स्नेहन कर देता है । वह अभिष्यन्दि, सूक्ष्म, उष्ण, और शीघ्र व्यापक होजाता है । पहले स्नेहन, फिर स्वेदन, . फिर वमन, तदनंतर विरेचन, सबसे पीछे नस्य कर्म आदिसे शिरोविरेचन करे । ( परंतु स्नेहन वातरोग में ही हित है । सन्निपातादिकमें रूक्ष स्वेदन करे ) ॥ ९६ ॥ ९७ ॥
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(१५८)
चरकसंहिता--भा० टी०। अध्यायका संक्षिप्त वर्णन ।
तत्रश्लोकः॥ नेहःस्नेहविधिःकृत्स्नव्यापत्सिद्धिःसभेषजा। यथाप्रश्नंभगवताव्याहृतंचान्द्रभागिना ॥ ९८॥
स्नेहाध्यायः समाप्तः। इस स्नेहाध्यायम-स्नेहके प्रकार, स्नेहविधि, स्नेहके मिथ्यायोगसे रोगोंका होना उनकी औषधि जैसे अग्निवेशने पूछा तदनुसार उनके उत्तर भगवान् आत्रेयजीन कथन किये ॥ ९८॥ इति श्रीमहर्षिचरकरणातायुर्वेदीयसंहितायां पटियालाराज्यांतर्गतटकसालग्रामनिवासिवैद्यपंचानन वैद्यरत्न पं०रामप्रसादवद्योपाध्यायविरचितप्रसादन्याख्यभापाटीकायां
नेहाध्यायो नाम त्रयोदशोध्यायः ॥ १३ ॥
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चतुर्दशोऽध्यायः।
अथातःस्वेदाध्यायं व्याख्यास्यामः।
इति हस्माह भगवानात्रेयः। अब हम वेदाध्यायका कथन करतेहैं । ऐसा भगवान् आत्रेयनी कहने लगे।
स्वेदनकर्मका यत्न । अतःस्वेदाःप्रवक्ष्यन्तेयैर्यथावत्प्रयोजितैः ।
स्वेदसाध्याःप्रशाम्यन्तिगदावातकफात्मकाः ॥ १॥ अयम स्वेदोंका कयन फरतेहैं जिन स्वेदोंके टीक २ प्रयोग करनेसे स्वेदसाध्य चातकफात्मक रोग शीघ्र शांत होतह ॥ १ ॥
स्वेदनसे रोगशान्तिम दृष्टान्त । स्नेहपूर्वप्रयुक्तेनस्वेदेनावर्जितेनिले।
परीपत्रेतांसिनसन्जन्तिकथञ्चन ॥२॥ प्रथम रन का यदि वंदन करदिया जाताद तो उससे शरीरका वायु शांत जातहि माटि मल, मूत्र, शुक्र, यह विना श्रम निकल जातह ॥ २॥
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सूत्रस्थान - अ० १४.
शुष्काण्यपिहि काष्ठानि स्नेहस्वेदोपपादनैः । नमयन्तियथान्यायंकिंपुनर्जीवतोनरान् ॥ ३ ॥
सूखी लकडीभी चिकनाईका योग देकर स्वेदन करनेसे नमजाती है, यदि जीवित मनुष्य स्नेहन स्वेदन द्वारा नम्र होजाय तो आश्चर्य ही क्या है ॥ ३ ॥ स्वेदनसे कार्यसिद्धि | रोगव्याधितापेक्षोनात्युष्णोऽतिमुदुर्नच ।
द्रव्यवान्कल्पितोदेशेस्वेदः कार्य्यकरोमतः ॥ ४ ॥
जैसा रोग और ऋतु हो अथवा अन्य कोई भी व्याधि हो उसमें उस रोगके लिये जैसा स्वेद उचित हो वैसा विचारकर करे । विना विचारे अत्यन्त तेज या अत्यन्तै मन्द स्वेद न देवे । देश काल औषधि विचारकर उचित स्थानमें स्वेद दिया हुआ गुणकारी होता है ॥ ४ ॥
(198)
स्वेदनके भेद | व्याधौशीतशरीरेच महानूस्वदो महाबले । दुर्वलेदुर्बलः स्वेदोमध्यमे मध्यमोहितः ॥ ५ ॥
जब रोगसे शरीर शीतल पडजाय उसमें गर्मी रोममार्गसे न आती हो अथवा शीत आदिसे शरीर जडजाय तो अवश्य स्वेदन करना चाहिये । यदि व्याधि बलवती हो तो स्वेद भी वैसा ही अधिक बलवाला देना चाहिये । दुर्बल रोगों में दुर्बल स्वेद करना और मध्यवल रोगमें स्वेद भी मध्यम ही करना चाहिये ॥ ५ ॥ रोगानुसार स्वेदनविधि ! वातश्लेष्मजिवातेवाक फेवास्वेदइष्यते ।
स्निग्धरूक्षस्तथास्निग्धोऽरूक्षश्चाप्युपकल्पितः ॥ ६ ॥
बात कफ की व्याधिमें स्निग्ध, रूक्ष, स्वेद करना चाहिये वातव्याधिमें स्निग्ध स्वेद करना चाहिये | और कफकी व्याधिमें रूक्ष स्वेद करना चाहिये ॥ ६ ॥
आमाशयगतेवातेकफे पक्काशयाश्रिते ।
रूक्षपूर्वोहितःस्वेदःस्नेहपूर्वस्तथैवच ॥ ७ ॥
वात आमाशय में प्राप्त हो तो पहले रूक्ष फिर स्निग्ध स्वेद करे क्योंकि आमायं कफका स्थान होता है । इसी प्रकार याद कफ पक्काशय में हो तो पहले स्निग्ध स्वेद करके फिर रूक्ष स्वेद करे ॥ ७ ॥
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चरकसंहिता - भा० टी० ।
स्वेदनके अयोग्य अंग ।
वृपणौहृदयंदृष्टीस्वेदयेन्मृदुनैववा । मध्यमं वंक्षणौशेषमङ्गावयवमिष्टतः ॥ ८ ॥
अंडकोश, हृदय, और नेत्रांमं स्वेदन करना उचित नहीं, यादे किसी कारण से मावश्यकता भी हो तो मृदु स्वेद करे । और वंक्षणमें स्वेद करना हो तो मध्यम स्वेद करे | किन्तु अन्य अंगाम जैसा उचित हो वैसा स्वेदन करे ॥ ८ ॥ नेत्र स्वेदन विधि | सुशुद्धैर्नक्तकैः पिण्ड्या गोधूमानामथापिवा । पद्मोत्पलपलाशैर्वास्वेद्यः संवृत्यचक्षुषी ॥ ९ ॥
शुद्ध स्वच्छ नरम वस्त्रसे या गेहके मैदे के पिंडसे अथवा कमलके पत्रसे या अन्य कमलविशेषके पत्रसे नेत्रांको ढककर शिर आदिमं स्वेद करना चाहिये । तात्पर्य यह हूँ कि नेत्राम स्वेदन करने की गर्मी न पहुँचनी चाहिये ॥ ९ ॥ मुक्तावलीभिः शीताभिः शीतलैर्भाजनैरपि ।
₹ १६० )
जलार्द्रैर्जलजैर्हस्तैः स्विद्यतो हृदयंस्पृशेत् ॥ १० ॥
मोतियांकी माला, शीतल पात्र, पानीमें भिगोया हुआ कमलविशेष, अथवा, शीतल हाय स्वेदन योग्य मनुष्य के हृदय पर रखना चाहिये ॥ १० ॥
शीतशृलव्युपरमे स्तम्भगौरवनिग्रहे ।
सञ्जतेमा देवस्वेदेस्वेदनाद्विरतिर्मतां ॥ ११ ॥
शीत, शूल, जडता, भारोपन, यह नष्ट होकर जब देहमें नरमी आजाय तो पसीना देना बंद करदेना चाहिये ॥ ११ ॥
पित्तप्रकोपोमूर्च्छाचशरीरसदनंतृषा ।
दाहस्वेदाङ्गदौर्बल्यमतिस्विन्नस्यलक्षणम् ॥ १२ ॥
अधिक पसीना देनेसे पित्तका कोप, मूछी, शरीरमं शिथिलता, प्यास, दाह, पीना, और अंगाम दुर्बलता यह लक्षण होते ॥ १२ ॥
उक्तस्तस्वाशितीये यांयैप्मिकः सर्वशोविधिः । सोऽतिस्त्रिन्नस्यकर्तव्योमधुरः स्निग्धशीतलः ॥ १३ ॥
ऐसा होनेपर तस्याशितीय (छठे अध्यायमें जो ग्रीष्मकालकी विधि कहीं है वही विधि अतिविक करे और मधुर, स्निग्ध, शीतल क्रिया करे ।। १३ ।।
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( १६१ )
सूत्रस्थान - अ० १४.
स्वेदनकर्मके अयोग्य रोगी । कषायमद्यनित्यानांगर्भिण्यारक्तापीत्तनाम् । पित्तिनांसातिसाराणां रूक्षाणां मधुमेहिनाम् ॥ १४ ॥ विदग्धभ्रष्टनाडीनां विषमद्यविकारिणाम् । श्रान्तानांनष्टसंज्ञानांस्थूलानांपित्तमे - हिनाम् ॥ १५ ॥ तृष्यतांक्षाधितानाञ्चक्रुद्धानांशोचतामपि । कामल्युदारणाञ्चैव क्षतानामाढयरोगिणाम् ॥ १६ ॥ दुर्बलातिविशुष्काणामुपक्षीणौजसांतथा । भिषक्तैमिरिकाणाञ्च नस्वेदमवतारयेत् ॥ १७ ॥
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नित्य कषाय या मद्य पान करनेवालेको, गर्भवती, रक्तपित्तवाला, पित्तप्रधान पित्तके अतिसारखाला, रूक्ष, मधुमही, अग्निदग्ध, भ्रष्टांग, बदका रोगवाला, विष तथा मद्यके विकारवालेको, कायलीयुक्तको, मूर्छित, स्थूल, पित्तमेहयुक्त, प्यासयुक्त भूखा, क्रोधी, शोकयुक्त, कामलारोगी, उदररोगी, क्षतरोगी, यकृत प्लीहाकें रोगवालेको, दुर्बल, अतिसुखाहुवा और जिसका ओज क्षीण होगयाहो, तथा तिमि . ररोगवाला इनको कभी स्वेदन न करे ॥ १४ ॥ १५ ॥ १६ ॥ १७ ॥ स्वेदनके योग्य रोग ।
प्रतिश्याये चकासेचहिक्काश्वासेष्वलाघवे । कर्णमण्यांशिरःशूले स्वरभेदेगलग्रहे ॥ १८ ॥ अर्दितैकाङ्गसर्वाङ्गपक्षाघातविनामके । कोष्ठानाहविबन्धेषु शुक्राघाते विजृम्भके ॥ १९ ॥ पार्श्वपृष्ठकटीकुक्षिसंग्रहेगृध्रसीषुच । मूत्रकृच्छ्रे महत्त्वचमुष्कयारेङ्गमर्दके ॥ २० ॥ पादोरुजानुज द्वार्तिसंग्रहे श्वयथावपि । खल्लीब्वामेषुशीतेचवेपथौवातकण्टके ॥ २१ ॥ संकोचायामशूलेषु स्तम्भगौरवसुतिषु । सर्वाङ्गेषुविकारेषु स्वेदनहितमुच्यते ॥ २२ ॥ प्रतिश्याय, खांसी, हिचकी, श्वास, गुरुता, कर्णशूल, मन्यास्तंभ, शिरःशूल स्वरभंग, गलग्रह, अर्दितवात, एकांगगतवात, सर्वांगगतवात, पक्षाघात, विनाम ( शरीरका या किसी अंगका नमजाना कुवडा आदि), कोष्ठरोग, अनाह, विबंध, शुक्राघात, विशेष जंभाई आना, पसलशूल, पृष्ठशूल, कटिशूल, कुक्षिशूल, गृध्रसी, मूत्रकृच्छ्र, अडवाद्ध, अंगमर्द, उरुस्तंभ, जानु और जंघाकी पीडा, सूजन, खल्ली, आमरोग, शीत, कंप, वातकंटक, संकोच, आयाम, शूल, अंगोंकी गौरवता, और
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( १६२
चरकसंहिता - भा० टी०
अंगोंका सूजना, इन सव विकारोंमें स्वेदन करना परम हितकारक है ॥ १८ ॥ १९॥
॥ २० ॥ २१ ॥ २२ ॥
पिण्डस्वेदका वर्णन | तिलमापकुलत्थाम्लघृततैलाभिपौदनैः ।
पायसैःकृसरैर्मासैःपिण्डस्वेदंप्रयोजयेत् ॥ २३ ॥
तिल, उडद, कुलथी, कांजी, घृत, तेल, मांस, भात, खीर, तिलोंकी खिचडी, अथवा मांस, इन सबका अथवा इनमेंसे किसी एक दो का पिंडसा बनाकर उससे जो स्वेद कियाजाय उसको पिण्डस्वेद कहतेहैं ॥ २३ ॥ कफरोगियोंको स्वेदनविधि |
गोखरोष्ट्रवराहाश्वशकृद्भिः सतुषैर्यवैः । सिकतापांशुपाषाणकरीपाय सपूटकैः ||२४|| इलेष्मिकान्स्वेदयेत्पूर्वैर्वातिकान्समुपाचरेत् । द्रव्याण्येतानिशस्यन्तेयथास्वप्रस्तरेष्वपि ॥ २५ ॥ गौ, गधा, ऊंट, सूकर, घोडा, इनकी विष्ठाको गर्म करके अथवा तुष, जौ, इनके चूर्णसे, या वालूरेत, पत्थरका चूरा, सूखे गोवरका चूर्ण, लोहचूर्ण इनको गरम करके कफप्रधान रोग स्वेदन करे । और पहले कहाहुआ पिंडस्वेद वातप्रधानव्याधिम' करे । प्रस्तरस्वेदके लिये भी इन ही द्रव्योंको दोषानुसार प्रयुक्त करे ॥ २४॥२५॥ स्वेदनका सहज उपाय ।
भूगृहे पुचजेन्ताकेषष्णगर्भगृहेषुच ।
विधूमाङ्गारतप्तेष्वभ्यक्तः स्विद्यतिनासुखम् ॥ २६ ॥
भूमिके भीतरके घर में, जंताकमें, गरम घरमें प्रथम, तेलकी मालिस कर धूमरहित अंगारोंकी गर्मी से ही विना परिश्रम पसीने आजाते हैं || २६ || नाडीस्वेदन की विधि |
ग्राम्यानूपोदकंमांसंपयो वस्तशिरस्तथा । वराहमध्यपित्तासक् स्नेहवत्तिलतण्डुलान् ॥२७॥ इत्येतानिसमुत्क्वाथ्यनाडीस्वेदंप्रयोजयेत् । देशकालविभागज्ञोयुक्त्यपेक्षोभिपक्तमः ॥२८॥ वारणाघृत करेण्डशिशुमलकसपेपैः । वासावंशकरआर्कपत्रैरइमन्तकस्यच ॥२९॥ शोभाञ्जनकशैरीय मालतीसुरसार्जकैः । पत्रे सत्त्वाभ्यसलिलनाडीस्वेदंप्रयोजयेत् ॥ ३० ॥
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सूत्रस्थान - अ० १४.
( १६३ ) ग्राम्य, आनूप, और जलसंचारी जीवोंका मांस, दूध, बकरीका शिर, मूअरकी अंतडी, पित्ता, रुधिर, घी, तेल, तिल, चावल, इन सबको एक बडे वर्तनमें पकाकर एक नली द्वारा इसकी भांफ शरीरमें दीजाय इसको नाडीस्वेद कहते हैं । देश, काल, व्याधि स्वभाव, युक्तिआदि जाननेवाला वैद्य परीक्षा करके वरना, गिलोय, एरंड, लाल सुहांजना, मूली, सरसों, अडूसा, बास, करंज, आँकके पत्र, अश्मन्तकके पत्र, सिरस, मालती, तुलसी, वनतुलसी, इन सबके पत्रोंका क्वाथ करके नाडीस्वेद करे ॥ २७ ॥ २८ ॥ २९ ॥ ३० ॥
भूतीकपञ्चमूलाभ्यां सुरयादधिमस्तुना । मूत्रैरम्लैश्च सस्ते है नीडी स्वेदंप्रयोजयेत् ॥ ३१ ॥
अथवा अजवायन, वृहत्पञ्चमूल, मद्यं, दहीका पानी, गोमूत्र, कांजी, इनमें घृत तेल आदि मिला तथा क्वाथ करके नाडीस्वेद करे ॥ ३१ ॥ एतएवचनिर्यूहाः प्रयोज्याजालकोष्ठके ।
स्वेदनार्थं घृतक्षीरतैलकोष्ठांश्चकारयेत् ॥ ३२ ॥
इन उपरोक्त क्वाथोंको एक वडे पात्र में भरकर उस सहते २ क्वाथमें रोगीको बिठानेसे स्वेद क्रिया होती है । ऐसेही घृत तैलादिकोंमें भी स्वेदन के रोगी को बिठाया जाताहै ॥ ३२ ॥
गोधूमशक लैश्चूर्णैर्यवानामम्लसंयुतैः ।
सस्नेहकिण्वलवणैरुपनाहः प्रशस्यते ॥ ३३ ॥
गेहूं और जौवोंके चूर्ण में - कांजी, स्नेह, मदिराको किट, सेंधानमक, इनको मिलाकर गर्म २ लेप करनेसे भी उत्तम स्वेदन होता है ॥ ३३ ॥ गन्धैः सुरायाः किण्वेन जीवन्त्याशतपुष्पया । उमयाकुष्ठतैलाभ्यांयुक्तयाचोपनाहयेत् ॥ ३४ ॥
गन्धद्रव्य, मदिरा की किट्टी, जीवती, सौंफ, बावची, कूठ, तेल, इनको मिलाकर कुछ गर्म लेप करनेसे स्वेदन होता है ॥ ॥ ३४ ॥
लेपपर पट्टी बांधनेका सामान । - चर्मभिश्चापनद्धव्यः सलोमभिरपूतिभिः । उष्णवीय्यैरला भेतुकौशेयाविकशाटकैः ॥ ३५ ॥
लेप करके ऊपर से कोमल और दुर्गंधरहित उष्णवीर्य चमडा बांधे, यदि ऐसा चमडा न मिले तो रेशमी वस्त्र या भेडकी उनसे बनाहुआ वस्त्र लपेटे ॥ ३५ ॥
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(१६४)
चरकसंहिता-भा० टी०।
लेपबन्धनका समय। रात्रौवद्धदिवामुञ्चेन्मुञ्चेद्रात्रौदिवाकृतम् ।
विदाहपरिहारार्थस्यात्प्रकर्षस्तुशीतले ॥३६॥ रातका कियाहुआ लेप दिनमें उतारदेवे और दिनका किया रातको उतारदे । और दाह आदिकी निवृत्ति के लिये कियाहुआ लेप ठंडा होने पर भी देर तक रहे तो कोई हानि नहीं॥ ३६ ॥
स्वेदके तेरह भेद। शंकरःप्रस्तरोनाडीपरिषेकोऽवगाहनम्। जेन्ताकोश्मघनःकयुकुटीभूःकुम्भिकैवच ॥ ३७॥ कूपोहोलाकइत्येतेस्वेदयन्तित्रयोदश। तानयथावत्प्रवक्ष्यामिसर्वानेवानुपर्वशः इति ॥३८॥
शंकर, प्रस्तर, नाडी, परिषेक, अवगाहन, जैताक, अश्मघन, कर्ण, कुटी, भू, कुम्भी, कूप, होलाक, इन भेदोंसे स्वेद तेरह प्रकारके हैं उनको क्रमपूर्वक ठीक २ कयन करतेह ॥ ३७ ॥ ३८॥ .
शंकरस्वेदका लक्षण । तत्रवस्त्रान्तरितैरवस्त्रान्तरितैर्वापिण्डैर्यथोक्तैरुपस्वेदनशङरस्वेदइतिविद्यात् ॥ ३९॥ उनमें गर्म कीहुई औषधिको कपडेम लपेटकर उससे स्वेदन करे, अथवा गीली औषधियांका पिंडसा बनाकर उसको गर्म करके उससे स्वेदन कियाजाय उसको शंकर स्वेद कहतह ॥ ३९ ॥
प्रस्तरस्वेदका लक्षण । शुकशमीधान्यपुलाकानांवेशवारायसकृशरोत्कारिकादीनांवा प्रस्तरेकोशेयाविकोत्तरप्रच्छदेपञ्चाङ्गुलोरुबुकार्कपत्रप्रच्छदेवा स्वभ्यक्तसर्वगात्रस्यशयानस्योपरिस्वेदनप्रस्तरस्वेदइतिविद्यात्४०
पहले नहीं रोगीका सव शरीर चिकना करे । फिर शूकधान्य, शमीधान्य और फलकवान्यको खिचडीकी समान पकाकर अथवा वेशवार, खीर, खिचडी उडदाकी गटीसी आदि जो उचित हो बनाकर रोगीका शरीर जिस पर आसके उतनी भूमिम बिठाये उसके ऊपर रेशमी या उनका वस्त्र अथवा एरंडके पत्र विछाकर उस उ.पर गेगीको मुलाया जाये उसको प्रस्तरस्वद कहते हैं (परंतु नीचे विछा. गाणु द्रव्य गर्भ होना चाहिये) ॥ ४०॥
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सूत्रस्थान-अ० १४.
(१६५७ नाडीस्वेदका लक्षण। स्वेदनद्रव्याणांपुनर्मूलफलपत्रशुङ्गादीनां मृगशकुनापिशिताशरम्पादादीनामुष्णस्वभावानांकायथाहमम्ललवणस्नेहोपसंहितानांमूत्रक्षीरादीनांवाकुम्भ्यांबाष्पमनुद्वमत्यामुत्कथितानांनाड्याशिरेषीकावंशदलकरञ्जार्कपत्रान्यतमरुतयागजाग्रहस्तसंस्थानयाव्यामदीर्घयाव्यामार्द्धदीर्घयावाव्यामचतुर्भागाष्टभागमूलाग्रपरिणाहस्रोतसासर्वतोवातहरपत्रसंवृत्ताच्छिद्रयाद्विस्त्रिाविनामितयावातहरसिद्धस्नेहाभ्यक्तगात्रोबाष्पमपहरेत् । बाष्पोनूद्धगामीविहलचण्डवेगस्त्वचमविदहनुसुखंस्वेदयतीतिनाडीवेदः॥४१॥ स्वेदनके द्रव्योंके-जड; पत्र, फल, शुंग, आदि लेकर और उष्णस्वभाववाले मृग, पक्षी आदिकोंके मांस. शिर, पाद आदि लेकर और यथोचित अम्ल,लवण, - स्नेह, मिलाकर तथा मूत्र, दूध, जल आदि किसी पात्रमें डालकर उसीमें उपरोक्त
औषधियें डालकर पकांव और उस पात्रका मुख बंद करके उसमें एक नाल लगावें उसमेंसे जो भाफ आवे उससे रोगी स्वेदन करे । इस नालको सरपते, नरसल,बांस, करंज; आँक इनमेंसे किसीके पत्रोंसे या अन्य उचित द्रव्यसे बनावे । यह हाथीकी सूंडके अग्रभागके समान मोटी और दोनों बाहोंको फैलानेसे जितना लंबा होताहै उतनी लंबी होनी चाहिये । या एक गज लंबी हो और पात्रके मुखपरसे आधिक खुला और आगेसे छोटा ऐसाउस नालमें छिद्र होना चाहिये । वातनाशक पत्रोंसे नालके सब स्रोत बंद होने चाहिये जिससे भाफ बाहर न निकले । इस नालको दो तीन जगहसे नवाकर भाफ देनी चाहिये । भाफ देनेसे पहले ही वातनाशक तेलोंकी मालिशसे रोगीका शरीर नम्र रखना चाहिये । भाफको रोगीके शरीरमें छोडते समय नालका मुख तिरछा रक्खे जिससे भाफ रोगीकी छालको दहन न करे क्योंकि सीधी भाफ अत्यंत गर्म लगतीहै । इसको नाडी स्वेद कहतेहैं ॥४१॥
परिषेकका लक्षण । .. वातिकोत्तरवातिकानांपुनर्मूलादीनामुत्वाथैःसुखोष्णैःकुम्भी
वाघुलिका प्रनाडीर्वापूरयित्वायथाहसिद्धस्नेहाभ्यक्तगात्रंव- .. ..स्त्रावच्छन्नंपरिषेचयेदितिपरिषेकः ॥ ४२ ॥
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(१६६) चरकसंहिता-भा० टी०।
रोगीको वातनाशक तेलादिकांसे स्निग्धकर ऊपर वस्त्र देकर फिर वातनाशक द्रव्यांक मूल, फल. शुगादिकोंके मुखोप्ण काथको किसी तूतनीदार लोटेमें भरकर वस्त्रबेष्टित स्निग्धगात्र रोगी पर सींच देना । इसको परिषेक स्वेद कहते हैं ॥४२॥
अवगाहका लक्षण । वातहरोत्वाथक्षीरतलघृतपिशितरसोष्णसलिलकोष्ठकावनाहस्तुयथोक्तएवावगाहः ॥४३॥ एक खुले पात्रमें वातनाशक औषधियांका काथ या दूध, तेल, घी, मांसरस, अथवा गर्म जल भरकर उसमें बैठना । उसको अवगाहन स्वेद कहते हैं ॥४३॥
जेन्ताकस्वेदके लिये भूमिपरीक्षा। अथजेन्ताकंचिकीर्षुभूमिपरीक्षेत । तत्रपूर्वस्यादिश्युत्तरस्यांवा गुणवतिप्रशस्तभूमिभागेकृष्णमत्तिकेसुवर्णमृत्तिकेवापरीवापपुष्करिण्यादीनांजलाशयानामन्यतमस्यकूलेदक्षिणेपश्चिमेवा सूपतीर्थसमसुविभक्तभूमिभागेसप्ताष्टौवाअरत्नीमुपक्रम्योदकाप्राङ्मुखमुदङ्मुखंवाभिमुखतीर्थकूटागारंकारयेत् ॥४४॥ जैताकस्वेद करनेकी इच्छावाला मनुष्य पहले भूमिकी परीक्षा करे । रोगीके - स्थानसे पूर्व अथवा उत्तर दिशाम गुणयुक्त पवित्र भूमि देखकर जहां काली या पीली, मधुर, उत्तम मिट्टी हो और जिस भूमिके समीप ही नदी, वापी, पुष्करणी आदि कोई जलाशय हो उस जलाशयके दक्षिण या पश्चिमके किनारे दूसरा तीर्थ हो वहां पवित्र सीधी उत्तम भूमिमें जलाशयसे सात आठ हाथ पर एक मकान ऐसा बनावे जिसका मुख जलाशयकी ओर हो ॥ ४४ ॥
उत्सेधविस्तारतःपरमरत्नीहिपोडशसमन्तात्सुवृत्तंमृत्कर्मसम्पन्नमनेकवातायनमाअस्यकटागारस्यान्तःसमन्ततोभित्तिमरत्नीविस्तारोत्सेधांपिंडिकांकारयेत्कपाटवर्जम् ।मध्येचास्यकटागारस्यचतुष्किकुमात्रपुरुपप्रमाणं मृण्मयंकन्दुसंस्थानंवहुसक्ष्मच्छिद्रमङ्गारकोप्टकान्तंसपिधानंकारयेत् ॥ ४५॥
और वह मकान लंबा चीडा ऊंचा परिमाणसे चारों ओर सोलह हाथ होना चाहिये यह घर मृत्तिकाले वनाहुआ और जिसमें हवा आनेको कई जगह खिडकी रखीहुई हा इस मकान भीतर चागं ओर दीवाग्म एक २ हाथकी भीत वनावे और उनमें किवाटे न लगाये। फिर मकान टीक बीचमं एक चार हायका चौडा और सात हाय लंबा भाट सा बनाले उसके उपर वारीक २ छिद्रायुक्त ढकना रवखे ॥१५॥
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सूत्रस्थान-अ० १४.
(१६७, तञ्चखादिराणामाश्वकर्णादीनांवाकाष्ठानांपूरयित्वाप्रदीपयेत्। सयदाजानीयात्साधुदग्धानिकाष्ठानिगतधूमानिअवतप्तश्चकेवलमनिनातदग्निगृहस्वेदयोग्येनचोष्मणायुक्तमिति ॥ ४६ ॥ तत्रैनंपुरुषवातहराभ्यक्तंगात्रवस्त्रावच्छन्नंप्रवेशयेत्प्रवेशयंश्चैनमनुशिष्यात् । सौम्यप्रविशकल्याणायारोग्यायचेति । प्रवि. श्यचैनांपिण्डिकामधिरुह्यपाश्वापरपावाभ्यांयथासुखंशयीथाः नचत्वयास्वेदमूर्छापरीतेनापिसतापिण्डिकैषाविमोक्तव्यात्मा आप्राणोच्छासात्। भ्रश्यमानोह्यतः पिण्डिकावकाशाद्वारमनधिगच्छन्स्वेदमूच्छापरीततयासद्यः प्राणाञ्जह्याः ॥४७॥ इसके भीतर खैर या शालविशेषकी लकडीके 'अंगार रक्खे जव धूम निकललेवे और भीवरका स्थान तपगयाहो और स्वेदनयोग्य गर्मी से भरजाय । फिर रोगीको वातनाशक तेलोंसे स्निग्धगात्र कर कपडा लपेटकर इस गर्म घरमें प्रविष्ट करावे,
और कहे हे सौम्य ! अपनी आरोग्यता और कल्याणके लिये इस घरमें प्रवेश कर। इस बीचमें बनीहुई पिंडका पर चढकर जिस करवटसे तुझे सुभीता हो उस करखट सोजा । तुमको इस पर लेटनेसे पसीने आवेंगे उस समय यदि तुमको मूर्छा भी आवे तो वहाँसे नहीं उठना, जब तक तुम्हारे प्राण चलतेरहें तव तक उसको मत त्यागो । याद तुम डरकर उसके ऊपरंसे एकदम भागआओगे तो द्वारमें आते ही पसीने और मूर्छासे प्राण निकल जायंगे ॥ ४६ ॥ ४७ ॥
तस्मापिण्डिकामेनांनकथञ्चनमुञ्चेथाःत्वंयदाजानीयाः वि. गताभिष्यन्दमात्मानंसम्यक्प्रसुतस्वेदपिच्छंसर्वस्रोतोविमुक्तं लघुभूतमपगतविबन्धस्तम्भमुतिवेदनागौरवमिति । ततस्तां पिण्डिकामनुसरन्द्वारंप्रपद्येथाः। निष्क्रम्यचनसहसाचक्षुषोः परिपालनार्थशीतोदकमुपस्पृशेथाः अपगतसन्तापक्लमस्तुमुहूर्तात्सुखोष्णेनवारिणायथान्यायपरिषिक्तोऽश्नीयाइति जेन्ताकस्वेदः॥४८॥ इसलिये उस पिंडिकाको मत छोडना, जव तुम्हारा शरीर बिलकुल कफ रहित होजाय और पसीनका वाव सब होचुके, शरीरके सब छिद्र खुल जाय, और शरीर
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(१६८ )
चरकसंहिता - भा० टी० ।
हलका होजाय । तथा शरीरका विबंधस्तंभ, सुप्ति, पीडा, गुरुता यह सब दूर होकर शरीर हलका होजाय तब उस पिंडिका के सहारेसे उसको धीरे २ छोडकर सहजसे हारकी ओर आना | फिर बाहर आते ही नेत्रोंके आरामके लिये शीत जल स्पर्श न करना। जब सन्ताप और क्लम दूर होजाय तब एक मुहूर्त से सुखोष्ण जलसे स्नान करके पथ्य भोजन करना इसको जैताकस्वेद कहते हैं ॥ ४८ ॥
अश्मघनस्वेदका लक्षण ।
शयानस्यप्रमाणेन घनामश्ममयशिलाम् । तापयित्वामारुतनैर्दारुभिः संप्रदीपितैः ॥ ४९ ॥ व्यपोह्य सर्वानङ्गारान्प्रोक्ष्यचेवोष्णवारिणा । तांशिलामथ कुर्वीत कौशेयाविक संस्तराम् ॥ ॥ ५० ॥ तस्यां स्वभ्यक्तसर्वाङ्गः शयानः स्विद्यते सुखम् । रौरवाजिनकौशेय प्रावाराद्यैस्सुसंवृतः ॥ ५१ ॥ इत्युक्तोऽश्मघनस्वेदः कर्पूस्वेदः प्रवक्ष्यते ॥ ५२ ॥
रोगीके सोनेके प्रमाण योग्य एक शिलाको वातनाशक लकडियोंकी आगसें गरम करे | फिर सब अंगार हटाकर गरम पानीसे धो देवे । फिर उस धुली हुई गरम शिलापर रेशमी वस्त्र या कंवले विछावे । उसपर वातनाशक तेलोंसे अभ्यक्त रोगको सुलावे तो सुखपूर्वक पसीने आवें । रुरु मृगके चर्मसे या रेशमी कपडेसे अथवा अन्य वस्त्रसे आच्छादित हो रोगी इस शिलापर लेटे । इसको अश्मधन स्वेद कहतेहैं ॥ ४९ ॥ ५० ॥ ५१ ॥ ५२ ॥ खानयेच्छयनस्याधः कर्पूस्थानविभागवित् । दीप्तैरधूमैरङ्गारेस्तांकäपूरयेत्ततः । तस्यामुपरिशय्यायां स्वपन् स्विद्यतिना सुखम् ॥ ५३ ॥
बुद्धिमान् वैद्य रोगीको शय्याके नीचे एक भीतर से खुले मुखवाला छोटा गढा बनाकर निर्धूम प्रदीप्त अंगारा उसको भरदे । उसके ऊपर बिछी हुई शय्या पर पडा रोगी सुखपूर्वक पसीना लेताहं इसको कपुंस्वेद कहतेहै ॥ ५३ ॥ कुटी स्वेदका वर्णन | अनत्युत्सेधविस्तारांवृत्ताकारामलोचनाम् । घनभित्तिंकुरुत्वाकुष्टाः सम्प्रलेपयेत् ॥ ५४ ॥ कुटीमध्यो भपक्शय्यांस्वातीर्णा चपकल्पयेत्। प्रावाराजिन कोशेय कुत्थकम्बलगोलकैः
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विधिभूमौसपदिश्यते ॥ पत्थरकी शिला
सूत्रस्थान-अ० १४. . (१६९) ॥ ५५॥ सहडिकाभिरङ्गारपूर्णाभिस्ताञ्चसर्वशः। परिवार्य्यान्तरारोहेदभ्यक्तः स्विद्यतेसुखम् ॥ ५६ ॥ " न बहुत ऊंची न लंबी और न चौडी एक उचित गोल, छिद्ररहित कडी भीत वाली कुटिया बनावे उसको कूठ आदि आषधियोंसे लेपन करे । फिर वैद्य उस कुटीमें आकर, मृगछाला, कौशेयवस्त्र, गुदडी कंबल, गोनक आदि बिछाकर शय्या वनावे और इस कुटीके चारों ओर भीतकी जडमें अंगारोंसे भरकर हांडिये रखदे फिर स्निग्धगात्र रोगीको इसमें सुलावे तो सुखपूर्वक स्वेदन होगा । इसको कुटीस्वेद कहतेहैं ॥ ५४॥ ५५ ॥ ५६ ॥
भूस्वेदका वर्णन । यएवाश्मघनखेदविधिभूमौसएवतु ।। - प्रशस्तायांनिवातायांसमायामुपदिश्यते ॥ ५७ ॥ अश्मघन स्वेदकी समान ही भूस्वेद होताहै अश्मघन स्वेदमें पत्थरकी शिला तपाई जातीहै और भूस्वेदमें निर्वातस्थानमें पवित्र आर सीधी भूमि तपाकर भूस्वेद होतोह ॥ ५७॥
.. कुम्भीस्वेदका वर्णन । . कम्भीवातहरक्वार्थपर्णाभूमौनिखातयेत्। अर्द्धभागंत्रिभाग वाशयनंतत्रचोपरि ॥ ५८॥ स्थापयेदासनवापिनातिसान्द्रपरिच्छदम् । अथकुम्भ्यांसुसन्तप्तान्प्रक्षिपेदयसोगुडान् ॥ ॥ ५९॥ पाषाणान्वोष्मणातेनतत्स्थः स्विद्यतिनासुखम् । सुसंवृताङ्गस्वस्यङ्गः स्नेहैरनिलनाशनः ॥६॥ पहले वातनाशक काथोंसे घडेको आधा या तीन भाग भरकर जमीनमें गाडदे उसके ऊपर रोगीकी शय्या या बैठनेयोग्य’ कोई वस्तु रखकर ऊपर बारीक वस्त्र विछाद उस पर तैलादिसे स्निग्धहुए रोगीको कंबल आदि वस्त्र लपेटकर विठा या लेटा देवे और पत्थर या लोहेके टुकडे आगमें लालंकरके नीचे के घडेमें डाले उससे भाफ निकलकर जो रोगीको पसीना आवे उसको कुम्भीस्वेद कहतेहैं५८॥१९॥६॥
कूपस्वेदका वर्णन । कूपंशयनविस्तारंद्विगुणञ्चापिवेधतः । देशनिवातेशस्तेच कुर्य्यादन्तः सुमार्जितम् ॥ ६१ ॥ हस्त्यश्वगोखरोष्ट्राणांक
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(१७०) चरकसंहिता-भा० टी०।
रीपर्दग्धपरिते । स्ववच्छन्नः ससंस्तीर्णेऽभ्यक्तस्विद्यतिना सुखम् ॥ ६२॥ पहले निर्वात और सीधी भूमिमें सोनेयोग्य लंबा चौडा और उससे दुगुना गहरा कूप वनावे और अंदर साफ करदे। फिर उसमें हाथी, घोडा,गौ,गर्दभ,ऊंट इनकी सूखीहुई लीद भरकर भाग लगादेवे । जव धूम निकललेवे तो उसपर शय्या विछा. कर रोगीके शरीरपर तेल मलकर उस शय्यापर सुलावे इससे सुखपूर्वक स्वेदन होग इसको कूपस्वेद कहते हैं ॥ ६१॥६२ ॥
होलाकस्वेदका वर्णन । धीतिकान्तुकरीपाणांयथोक्तानांप्रदीपयेत् । शयनान्तःप्रमा
नशय्यामुपरितत्रच ॥६३ ॥ सुदग्धायांविधमायांयथोक्तामुपकल्पयेत् । स्ववच्छन्नः स्वपस्तत्राभ्यक्तः स्विद्यतिनाखम् ॥६४ ॥ होलाकस्वेदइत्येषसुखः प्रोक्तोमहर्षिणा । इतित्रयोदशविधः स्वेदोऽग्निगुणसंश्रयः॥६५॥ हार्था आदिकी सूखी लीदकी शयन प्रमाण ढेरी लगाकर जलावे जब जलकर धूम निकलजाय फिर उसपर ऊंची सी चारपाई विछावे । फिर वातनाशक तेलोस स्निग्ध कर रजाई आदि वस्त्र लेकर उस शय्यापर रोगी सोवे तो सुखपूर्वक पसीना आवे इसको होलाक स्वेद कहतेहैं । इस प्रकार अग्निके योगसे १३ प्रकारके स्वेद होतेह ।। ६३ ॥६४ ॥ ६५ ॥
विना अग्नि स्वेदनविधान ।। व्यायामउष्णसदगुरुप्रावरणंक्षुधा । वहुपानभयक्रोधावुपनाहाहवातपाः॥ ६६ ॥ स्वेदयन्तिदशैतानिनरमग्निगुणादृते । इत्युक्तोद्विविधः स्वेदः संयुक्तोऽग्निगुणैर्नच ॥६७॥ व्यायाम करनेसे, गरम घरमें रहनेसे, भारी वस्त्र धारण करनेसे, भूखे रहनेसे,. बहुत मद्य पीनेसे, भयम, क्रोधसे, उपनाहसे,युद्धसे, धूप लगनेसे, इन दश कारसे अनिके बिना ही पसीने होजातह। इस प्रकार अमिके योगसे और विना अग्निसे दो प्रकारमे पसीने आतेह ॥ ६६ ॥ ६७ ।।
एकाहसीलगतः स्निग्धोरूक्षस्तथैवच । इत्येतत्रिविधंदन्दस्वंदमुद्दिश्यकीर्तितम् ॥६८॥ स्निग्धास्वेदैरुपकम्यः स्विन्नः
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सूत्रस्थान - अ० १४. .
( १७१ ),
पथ्याशनोभवेत् । तदहः स्विन्नगात्रस्तुव्यायामं वर्जयेन्नरइति ॥ ६९ ॥
इसी प्रकार एकांगगत और सर्वागगत इन भेदोंसे स्वेद दो प्रकारके हैं। आर रूक्षस्वेद तथा स्निग्धस्वेद इन भेदोंसे दो प्रकारके हैं यह तीन द्वन्द्व स्वेदके कहे हैं । स्नेहन स्वेदन के अनन्तर रोगी पथ्यपूर्वक रहे। जिस दिन पसीना लियाहों सब कामको छोडकर वैद्यकी आज्ञाका पालन करे ॥ ६८ ॥ ६९ ॥
अध्यायका संक्षिप्त वर्णन | तत्र श्लोकाः ।
स्वेदोयथाकार्यकरोहितोयेभ्यश्चयद्विधः । यत्रदेशे यथायोग्यो देशोरक्ष्यश्चयायथा ॥ ७० ॥ स्विन्नातिस्विन्नरूपाणितथातिस्विन्नभेषजम् | अस्वेद्याः स्वेदयोग्याश्च स्वेदद्रव्याणि कल्पना ॥ ७१ ॥ त्रयोदशविधः स्वेदोविनादशविधोऽग्निना । संग्रहणचषट्स्वेदाः स्वेदाध्यायेनिदर्शिताः ॥ ७२ ॥
अब अध्यायका उपसंहार करते हैं, कि इस स्वेदाध्यायमें जो २ स्वेदसे लाभ होते हैं । जिसतरहका स्वेद जिसके लिये हित और अहित है । जिस देशमें जैसे जो स्वेद योग्य है । उत्तम स्वेद और अतिस्वेदके लक्षण | अतिस्वेदितकी औषधि जिनको स्वेदन नहीं करना जो स्वेदनयोग्य हैं। स्वेदन के द्रव्य और उनकी कल्पना तेरह प्रकार के स्वेद | अग्निसे विना दश प्रकारके स्वेद छः वेदोंका संग्रह। ये वर्णन कियेहैं ॥ ७० ॥ ७१ ॥ ७२ ॥
स्वेदाधिकारेयद्वाच्यमुक्तमेतन्महर्षिणा । शिष्यैस्तुप्रातपत्तव्यमुपदेष्टापुनर्वसुरिति ॥ ७३ ॥
इस प्रकार इस अध्याय में पुनर्वसुजीने कथन किया जो कुछ भी स्वेदाधिकारमें कहना था वह सव महर्षिजीने कथन करादया । शिष्यगणोंको इस कथनका पालन करना चाहिये ॥ ७३ ॥
इति श्रीमहर्षिचरक० पं० रामप्रसाद० भाषाटीकायां स्नेहाऽध्यायश्चतुदशः ॥ १४ ॥
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(१७२ )
चरकसंहिता-भा० टी०। पञ्चदशोऽध्यायः।
-CHHOअथातउपकल्पनीयमध्यायव्याख्यास्याम इतिहस्माहभगवानात्रेयः। अब हम उपकल्पनीय अध्यायकी व्याख्या करतेहैं । ऐसा भगवान् आत्रेयजी कहनेलगे।
इहखलुराजानंराजमात्रमन्यवाविपुलद्रव्यंसंभृतसम्भारंवमनविरेचनवापाययितुकामेनभिपजाप्रागेवौषधपानात्सम्भाराउपकल्पनीयाभवन्ति सम्यक्चैवहिगच्छत्यौपधेप्रतिभोगाथाः व्यापन्नेचौषधेव्यापदः परिसंख्यायप्रतीकारार्थाः । नहिसन्निकटेकालेप्रादुर्भतायामापदिसत्यपिक्रयाक्रयेसुकरमाशुसम्भरणमौपधानांयथावदित्येवंवादिनभगवन्तमात्रेयमानिवेश उवाच ॥१॥
जब राजा अथवा राजाके समान अन्य धनाढ्य पुरुष हो जिसके यहां बहुतसा द्रव्य, धन,संपत्ति, साधन, सामग्री हो उसको वमन या विरेचनकी औषधिका पान कराना हो तो वैद्यको उचित है कि औषध पिलानेसे प्रथम सव प्रकारकी आवश्यक वस्तुएं अपने समीप रखले । क्योंकि वमन विरेचनके समय और वमन विरेचन हो लेनेके अनंतर जिन २ वस्तुओंकी आवश्यकता पडतीहै वह उसी समय तैयार मिल. नेसे रोगीको आराम मिलताहै और उसके वमनादि कार्यमें कोई हानि नहीं होती ऐसा होनेसे रोगीका उपकार होताहै। यदि वमन विरेचनमें कोई उपद्रव भी होजाय तो ऑपध तैयार पास होनेसे झट उपद्रव शांत होसकते हैं। ऐसा न करने पर यदि, वमन विरेचनके समय कोई उपद्रव होनेलगे तो औषध वेचनेकी दूकान समीप होने पर भी यथोचित औषध तैयार करके देनेम समय लगजाताहे उस समय बडी फटिनता पडती । इसप्रकार कथन करतेहुए भगवान् आत्रेयजीसे अग्निवेश कहने। लगे।॥ १॥
ननभगवन्नादाववज्ञानवतातथाप्रतिविधातव्यंयथाप्रतिविहितसिद्धयेदेवोपधमेकान्तेन । सम्यकप्रयोगनिमित्ताहिसर्वकर्मगांसिन्दिरिष्टाव्यापञ्चासम्यकप्रयोगनिमित्ता । अथसम्यगस
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सूत्रस्थान-अ० १५ (१७३ ) न्यक्चसमारब्धंकर्मसिद्धयतिव्यापद्यतेवानियमेन ! तुल्यंभ. वतिज्ञानमज्ञानेनेति ॥ २॥
हे भगवन् ! इनमें कोई संशय नहीं कि सब सामग्री समीप रहनेसे आपत्तिकै समय आपत्ति दूर करनेमें काम आती है।परंतु ज्ञानवान् वैद्यको पहलेसे ही इस प्रकार विचारकर कार्य करना चाहिये जिस प्रकार कार्य करनेसे विना विघ्नके औषधि प्रयोगका फल सिद्ध होसके,अर्थात् पहले ही विचारकर ऐसी रीतिसे वमन विरेचनकी औषधि प्रयुक्त करनी चाहिये जिससे बीच में कोई उपद्रव ही न हो और ठीक वमन विरेचन होजाय क्योंकि समझकर भलेप्रकार प्रयोग करनेसे सब कार्य. ठीक सिद्ध होजाते हैं । विना विचारे अनुचित रीतिसे प्रयोग कियाजाय तो उसमें उपद्रवरूप विपत्ति अवश्य होतीहै । बस, इससे यह नियम सिद्ध है कि सम्यक प्रयोगसे कर्मकी सिद्धि होतीहै। और असम्यक् प्रयोगसे कर्ममें विपत्ति अर्थात् विघ्न. होताहै । यदि ऐसा न हो तो फिर जानकारी और अनजानपनेमें फरक ही क्या रहा अर्थात् चिकित्साका जानना और न जानना दोनों बराबर है ॥ २॥
तमुवाचभगवानात्रेयः । शक्यंतथाप्रतिविधातुमस्माभिरस्मद्विधर्वाप्यग्निवेशयथाप्रतिविहितेसिद्धयेदेवौषधमेकान्तेनतच प्रयोगसौष्ठवमुपदेष्टुंयथावन्नहिकश्चिदस्ति ।यएतदेवमुपदिष्टमुपधारयितुमुत्सहेत ॥३॥ यह सुनकर आत्रयं भगवान् कहनेलगे कि हे अग्निवेश ! जैसा तुम कहतहोऐसा, विचारकर कार्य हम लोग और हमारे समान अन्य वैद्य भी करसकतेहैं । जिस प्रकार प्रयोग करनेसे वमनादि किसी कार्यमें कोई विघ्न न हो। और उसी प्रकारके. प्रयोगोंकी सुंदरताका उपदेश भी किया जा सकता है । परंतु इस प्रकारके उपदे. शको सब कोई धारण नहीं करसकते ॥ ३ ॥
उपधार्यवा तथाप्रतिपत्तुप्रयोक्तुं वा। सूक्ष्माणिहिदोषभेषजदेशकालबलशरीराहारसात्म्यसत्त्वप्रकृतिवयसामवस्थान्तराणि ॥ ४ ॥ यान्यनुचिन्त्यमानानिविमलविपुलबुद्धेरपिबुद्धिमाकुलीकुर्यु:किंपुनरल्पबुद्धः ॥ ५ ॥ यदि कोई समझही लेवे अर्थात् उस प्रयोगविधिको धारण भी करले तो उन प्रयोगोंको यथोचित करलेना कठिन है। क्योंके दोष, औषध, देश, काल, वल, गरीर, आहार, सात्म्य, सत्त्व, प्रकृति,अवस्था, इनका यथोचित विचार बहुत सूक्ष्म
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(१७४)
चरकसंहिता-भा० टी०। अथात् वारीक है । इनके सूक्ष्म विचार करनमें वडे २ निर्मल और विपुल बुद्धिचालेकी बुद्धि भी व्याकुल होजाती है।फिर विचारे अल्पबुद्धिवालोंका तो कहना ही क्या है ॥ ४ ॥५॥
तस्मादुभयमेतद्यथावदुपदेक्ष्यामः । सम्यक्प्रयोगञ्चौषधानां व्यापन्नानाञ्चव्यापत्साधनानिसिदिषूत्तरकालम्। इदानींताव
संभाराविविधानपिसमासेनोपदेक्ष्यामः॥६॥ इसलिये हम दोनों प्रकारोंको अर्थात् जिस प्रयोगसे उपद्रव न हों उनका कथन करेंगे और यदि किसी कारणले कहीं कोई उपद्रव होजाय उनका शमनोपाय भी कथन करेंगे । औषधोंका.उत्तम प्रयोग, और वमनादिमें कोई विकार हो तो उसका शमनोपाय, इन दोनोंको हम उत्तरकालमै सिद्धिस्थानमें कहेंगे । और वमन विरे. चन विषयक सामग्रियोंको और उनके प्रकारोंको यहां संक्षेपसे कथन करतेहैं॥६॥
निवासस्थानका वर्णन । तद्यथा । दृढनिवातंप्रवातैकदेशंसुखप्रविचारमनुपत्यकंधूमातपरजसामनभिगमनीयमनिष्टानाञ्चशब्दस्पर्शरसरूपगन्धानां सोपानोदूखलमुसलवर्चःस्थानस्नानभूमिमहानसोपेतवास्तुविद्याकुशल प्रशस्तगृहमेवतावत्पूर्वमुपकल्पयेत् ॥७॥
पहले घरके रवनमें कुशल वैद्य एक ऐसा घर वनवावे जिसमें दीवारें आदि सब मजबूत हों, एक भागमें हवा आतीहै । और एक भागमें विल्कुल हवा न लग, जिसमें इधर उधर फिरनेको सीधी और खुली जगह हो, तथा इधर उधरके मका. नासे रुकाहुआ न हो, जिसमें धूम,धूप,धूल. न आतेहों, और बुरे लगनेवाले शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध, न हाय, कुंडी सोटा आदि दवाई कूटनेका सामान रखाहुआ हो, और पीडसाल (सीडी), पाखाना, स्नान करनका स्थान, औषध, भोजन आदि बनानेका स्थान विधिवत् ययास्थान बनेहुए हों ।। ७॥ ततःशीलशौचाचारानुरागदाक्ष्यप्रादक्षिण्योपपन्नानुपचारकुशलान्सर्वकर्मसुपर्य्यवदातानसपोदनपाचकस्नापकसंवाहकोत्थापकसंवेशकोपपेपकांचपरिचारकान्सर्वकर्मस्वप्रतिक. लांस्तथागीतवादित्रोल्लापकश्लोकगाथाख्यायिकेतिहासपुराणकुशलानभिप्रायज्ञाननुमतांश्चदेशकालविदःपरिपद्यांश्च । तथालायकपिञ्जलशशहरिणेणकालपुच्छकमृगमातृकोरभ्रान्॥८॥
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सूत्रस्थान-अ० १५. फिर उस घरमें सुशील, शुद्ध आचारवाले, स्वामीके भक्त, चतुर, सेवाकरनमें कुशल, सव कामोंमें निपुण, भोजन बनानेमें चतुर, स्नान करानेवाले, सुलानेवाले, हाथ पकडकर चलनेवाले, उठाने बिठानेवाले, औषध पीसनेवाले, अन्य सब काम करनेमें योग्य, परिचारकोंको रक्खे । तथा गाने बजाने,आलाप करनेवाले, श्लोक, कहानिये, कथा, इतिहास, पुराण, इनमें कुशल और अभिप्राय तथा मनकी इच्छाके समझनेवाले, देशकालके अनुसार बात चीत करके चित्तको प्रसन्न रखनेवाले सभा. सदोंको नियुक्त करै । और लवा, तीतर, शशा, हिरन, काला हिरन, कालपुच्छक, मृगविशेष, मेढा, इन सवको उस घरमें स्थापन करे ॥ ८॥
गांदोग्धींशीलवतीमनातुरांजीवद्वत्सांसुप्रतिविहिततृणशरणपानीयाम् । पाण्याचमनीयोदकोष्ठमाणकघटपिठरपर्योगकुम्भीकुम्भकुण्डशरावदींकटोदश्चनपरिपचनमन्थानचमचेलसूत्रकार्पासोर्णादीनिचशयनासनादीनचोपन्यस्तभृङ्गारप्रतिगृहाणिसुप्रयुक्तास्तरणोत्तरप्रच्छदोपधानानिस्वापाश्रयाणि संवेशनस्नेहस्वेदाभ्यङ्गप्रदेहपरिषेकानुलेपनवमनविरेचनास्थापनानुवासनशिरोविरेचनमूत्रोच्चारकर्मणामुपचारसुखानि सुप्रक्षालितोपधानाश्च सुश्लक्ष्णखरमध्यमा दृषदः शस्त्राणि चोपकरणार्थानि । धूमनेत्रबस्तिनेत्रश्चोत्तरबस्तिकञ्च । कुशहस्तकञ्चनूलाञ्चमानभाण्डञ्चघृततैलवसामज्जक्षौद्रफाणितलचणेन्धनोदकमधुसीधुसुरासौवीरकतुषोदकमैरेयमेदकदधिदधिमण्डोदस्विद्धान्याम्लमूत्राणिच ॥९॥
और दूध देनेवाली, सुशीला, नीरोग, जिसका बछडा जीताहो ऐसी गौको रक्ख और उस गौको यथेच्छ घास, जल तथा उत्तम स्थान मिलना चाहिये आर जल तथा आचमन आदिके लिये पात्र जलकी कोठी, पतीला, कलशा, घडा, माट, झारी, शराव, कछली, पाक बनानेके पात्र, थाली, कटोरे, गिलास,आदि मथानी कपडे, सूत, कपास, ऊन आदिकसे बनीहुई सोनकी शय्या, आसन आदि आरा. मके सामान स्थापन करे । और शय्या आसनके समीप ही जलकी झज्झर और थूकने आदिके लिये पीकदान आदि स्थापन करें। सुंदर बिछौना; ओढना, तकिया, पलंगके पडावे , बैठने लेटनेमें सुखदायक सामान रहना चाहिये तथा स्नेह, स्वेद,
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( १७६)
चरकसंहिता-भा० टी०। मालेश, प्रलेप, परिषेक, अनुलेपन, वमन, विरेचन, शिरोविरेचन, आस्थापन, अनुवासन, इन सवकी यथायोग्य साधनसामग्री होनी चाहिये और मलमूत्र त्याग: नेका पात्र, और वमनके पात्र धोकर साफ रखने चाहिये, अन्य उपधान, शिला, इलक्षण और शुद्ध होनी चाहिये । तथा वस्त्रशस्त्रआदि अन्य उपकरण भी रक्खे । धूमपानकी नली, वस्तिकर्मके लिये पिचकारी, और उत्तरवास्तिका सामान, कृशः हस्त, तराजूकांटा आदि, मापनेका पात्र, घृत, तेल, चरवी, मज्जा,शहद, फाणित, लवण, काष्ठ, जल, सहदकी वनी सुरा,सीधु, सौवीर, तुषोदक, मैरेय, मेदक, दही, दधिमंड, उदस्वित्, धान्याम्ल, और गोमूत्र आदिक सामान रखने चाहिये ॥९॥
तथाशालीषष्टिकमुद्माषयवतिलकुलत्थवदरमृद्विकाश्मर्यपरूषाभयामलकविभीतकानिनानाविधानिचस्नेहस्वेदोपकरणानिद्रव्याणितथैवो हरानुलोमिकोभयभाञ्जिसंग्रहणीयदीपनीयपाचनीयोपशमनीयवातहराणिसमाख्यातानिचौषधानि यच्चान्यदपिकिञ्चिद्वयापदःपारसंख्यायोपकरणंविद्यात् । यच्च प्रतिभोगार्थतत्तदुपकल्पयेत् ॥ १०॥ तथा शालीचावल, साठी, मूंग, उडद, जौ, तिल, कुलथी, उन्नाभ, मुनका, फालसा, हरड, बहेडा, आमला, और अनेक स्नेह तथा स्वेदनकी सामग्री और ऊपरफा दोष निकालनेवाली, अनुलोमन, ऊपर नीचका शोधन करनेवाली, स्तंभ. नकर्ता, दीपनीय, पाचनीय, उपशमनीय, और वायुनाशक औषधिये तथा अन्यान्य
औषधिय जो वमन विरेचनमें किसी कारणसे हुए उपद्रवों में काम देनेवाली हाँ ऐसी औषाधियं पास रक्खे । तथा जिन अन्य द्रव्योंसे रोगीको सुख प्राप्त होसके. उनको भी संग्रह करे ॥ १० ॥
ततस्तंपुरु¥यथोक्ताभ्यांस्नेहस्वेदाभ्यांयथार्हमुपपादयेत् । तञ्चेदस्मिन्नन्तरेमानसःशारीरोवाव्याधिःकश्चित्तीव्रतरःसहसाम्यागच्छेत्तमेवतावदस्योपावर्तयितुंयतेत । ततस्तमुपावय॑तावन्तमेवैनंकालंतथाविधेनैवकर्मणोपाचरेताततस्तंपुरुषस्नेहस्त्रेदोपपन्नमनुपहतमानसमाभिसमीक्ष्यसुखोपितंप्रजीर्णभक्तं शिरःस्नातमनुलिप्तगात्रंस्रग्विणमनुपहतवस्त्रसंवर्तिदेवताग्निद्विजगुरुवृद्धवेद्यानचितवन्तामप्टनक्षत्रोतथिकरणमुहकारवि
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सूत्रस्थान - अ० १५. त्वाब्राह्मणान्स्वस्तिवाचनंप्रयुक्ताभिराशीर्भिरभिमन्त्रितांमधुमधुकसैन्धवफाणितोपहितांमदनफलकषायमात्रांपाययेत्
॥११॥
इसके उपरान्त जिसको वमन विरेचन कराना हो उसको यथोचित स्नेहन और स्वेदन द्वारा नम्र बनालेवे । यदि उसको इस अवसर में कोई मानसिक या शारीरिक तीव्र व्यथा शीघ्र उपस्थित हुई हो तो पहले उसका यत्न करले । फिर विकार शांत होनेपर कुछ काल ठहरकर स्नेहन, स्वेदन करे | जब वह स्नेह स्वेद द्वारा मृदु होजाय और स्वस्थचित्त हो तथा भोजन कियाहुआ अच्छीतरह पाचन होचुकाहो तब उसका शिर धुलावे और सुगंधित द्रव्यों से शरीरको सुगंधित करे तथा माला आदि धारण करा और शुद्ध वस्त्र पहनाकर देवता, अग्नि, ब्राह्मण, गुरु, वृद्ध, और वैद्य आदिकोंका पूजन करावे । फिर शुभ नक्षत्र, तिथि, करण, मुहूर्तमें ब्राह्मणोंके आशीर्वाद के मंत्रोंद्वारा अभिमंत्रित कियाहुआ मधु मुलहटी, सेंधानमक, फाणित; यह यथोचित मैनफलके क्कायमें मिलाकर पीवे ॥ ११ ॥ मदनफलकी मात्राका प्रमाण ।
(१७७)
मदनफलकषायमात्राप्रमाणन्तुखलु सर्वसंशोधनमात्राप्रमाणानिच प्रतिपुरुषमपेक्षितव्यानि भवन्ति । यावद्वियस्य संशोधनंपतिवैकारिकदोषहरणायोपपद्यते ॥१२॥ नचातियोगायो -
गाय तावदस्यमात्राप्रमाणंवेदितव्यं भवति ॥ १३ ॥
मैनफलके क्वाथकी मात्राका प्रमाण तथा अन्य संशोधन द्रव्योंकी मात्राका प्रमाण मनुष्य के बलावल के अनुसार है । जितनी मात्रासे पान कीहुई औषधि यथोचित शोधन कर दे और विकारोंकी शांति करे उसके लिये उतनी ही मात्र. afe हैं | औषधका अतियोग और अयोग न होना ही औषधकी मात्राका प्रमाण जानना चाहिये ॥ १२ ॥ १३ ॥
पीतवन्तन्तुखल्वेनं मुहूर्तमनुकांक्षेत् । तस्ययदाजानीयात्स्वेदप्रादुर्भावेणदोषप्रविलयनमापद्यमानंलोमहर्षेणचस्थानेभ्यः प्र
चलितं कुक्षिसमाध्मानेन चकुक्षिमनुगतंहृल्लासास्यश्रवणाभ्यामपचितोर्द्धमुखीभूतमथास्मैजानुसममसम्बाधं सुप्रयुक्तास्तरणोत्तरप्रच्छदोपधानं स्वापाश्रयमासनमुपवेष्टुंप्रयच्छेत् ॥ १४ ॥ औषध पीकर मनुष्य थोड़ी देर तक चित्तको टिकाकर वमनकी प्रतीक्षा करे फिर जब पसीने आने लगें तो समझले कि अब वातादिदोष लीन होगयेहैं। अथवा
१२
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(१७८) चरकसंहिता-भा० टी० जव रोमांच होनेलगे तो जाने कि दोष अपने स्थानसे चलायमान होगये और जब कुक्षिम अफारासा होकर दोष कृख तक फैलकर दिल मचलाने लगे तथा मुखसे पानी गिरनेलगे तो समझे कि अब दोष ऊर्ध्वमुख होगहें। फिर इसको सुखपूर्वक घुटनांक वल गद्दाआदि विछीहुई आश्रययुक्त चौकी आदि पर विठावे ॥ १४ ॥
प्रतिग्रहांश्चोपचारयेत् । ललाटप्रतिग्रहपाश्वोपग्रहणेनाभिप्र. पीडनेपृष्टोन्मर्दनेचअव्युपक्रमणीयाःसुहृदोऽनुमताःप्रवर्तेरन्। अथैनमनुशिष्यात् ।विवृतोष्ठतालुकण्ठोनातिमहताव्यायामेनवेगानुदीर्णानुदीरयनकिञ्चिदवनम्यग्रीवामूर्द्धशरीरमुपवेगमप्रवृत्तान्प्रवर्तयन्सूपलिखितनखाभ्यामगुलीभ्यामुत्पलकुमुदसौगन्धिकनालैाकण्ठमनभिस्पृशन्सुखंप्रवर्तयस्वेति॥१५॥
और इसके आगे छदि करनेका पात्र हाथ पोंछनेका साफा जल आदि रक्ख। फिर वैद्य या परिचारक अपने दोनों हाथोंसे पमनकर्ताके ललाटकी दोनों पसीलयांको पकडे । और नाभि तथा पीठको उसके मित्र या परिचारक धीरे २ मसले जिससे सुखपूर्वक वमन हो । और इस रोगीको भी ऐसी शिक्षा देवे कि तू होंठ। तालु कंट खोलकर जिस तरह अधिक श्रम न हो वैसे वमनके वेगको निकाल दे।
और गरदन मस्तक शरीरको कुछेक आगेको झुकाले । यदि वमनका वेग न आता हो तो उसके लानेको साफ किये हुए नखांवाली उंगलियोंसे अथवा कमल, कुमो. दनी, कहार आदिकी नरम डंडीसे हृदयको स्पर्श करे जिससे सुखपूर्वक वमन हो॥ १५ ॥
रमन होनेपर वैद्यका कर्तव्य । सतथाविधंकुर्यात्ततोऽस्यवेगान्प्रतिग्रहगतानवेक्षतावहितः वेगविशेषदर्शनाद्धिकुशलोयोगायोगातियोगविशेपानुपलभेत वेगविशेपदीपुनःकृत्यंयथार्हमदबुद्धयेतलक्षणेन । तस्माद्वेगानवेक्षतावहितः ॥ १६ ॥
रोगीको इसी प्रकार करना चाहिये । फिर कुशल वैद्य सावधानतासे देखें कि चमन टीक होगये या नहीं वमनके वेगोंको देखकर कुशल वैद्य वमनके योग, अतियोग अयोगको परीक्षा करे । यदि कुछ अतियोग आदि दिखाईदेवे तो उस समय करनेयोग्य कृत्योंको विचार ले । इसलिये सावधान होकर वेगों को देखे ॥ १६ ॥
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सूत्रस्थान-अ० १५.
(१४९) . वमनके योगायोगादि लक्षण। तत्रअमून्ययोगयोगातियोगविशेषज्ञानानिभवन्ति । तद्यथा अपवृत्तिःकुतश्चित् केवलस्यवाप्यौषधस्यविनंशोविबन्धोवेगानामयोगलक्षणानिभवन्ति ॥ १७॥ उसमें वमनके अयोग, सम्यक् योग, अतियोगके यह लक्षण होतेहैं । वमनका न होना या जो औषध वमनके लिये पीगई हो केवल वह निकलजाय आर वमन न होय । यह वमनके अयोगके लक्षण हैं ॥ १७॥
कालेप्रवृत्तिरनतिमहतीवयथास्वंदोषहरणस्वयञ्चावस्थानमितियोगलक्षणानिभवंतिायोगेनतुदोषप्रमाणविशेषेणतीक्ष्णमूदुमध्यविभागोज्ञेयः। योगाधिक्येनतुफेनिलरक्तचन्द्रिकोपगमनमित्यतियोगलक्षणानिभवन्ति । तत्रातियोगायोगनिमितानिमानुपद्रवान्विद्यात् । आध्मानंपरिकर्तिकापारिस्रावोह. दयोपशरणमङ्गग्रहोजीवादानंविभ्रंशःस्तंभक्लमउपद्रव इति॥१८॥ ठीक समयपर वमन होय अति अधिक वमन न होय, वमनकर्ताको अधिक कष्ट न होय पहले दोषोंको निकालकर फिर औषध निकले । यह वमनके ठीक योगके लक्षण हैं । ठीक योगमें भी तीक्ष्ण, मृदु,मध्य, यह तीन भेद हैं वमनको आतियोग होनेसे छर्दमें झाग, रुधिर, चमक, आदि होतेहैं और वमनके वेग बहुत ज्यादा आतेहैं यह वमनके अतियोगके लक्षण हैं । उनमें प्रयोग और अतियोग होनेसे यह उपद्रव होते हैं जैसे-अफारा,पेटमें काटयुक्त पीडा, रुधिरका निकलना, हृदयकी रुकावट, अंगोंकी शिथिलता, जीवसंज्ञक रक्तका निकलना अथवा जीवनका क्षय होना, जमिका निकलआना, शरीरका स्तंभ, और कायली होना,. यह लक्षण होतेहैं ॥ १८॥
योगेनतुखल्वेनंछतिवन्तमभिसमक्ष्यिसुप्रक्षालितपाणिपा-. दास्यंमुहूर्तमाश्वास्यस्नैहिकवरेचनिकोपशमनीयानांधूमानामन्यतमसामर्थ्यतःपाययित्वापुनरेवोदकमुपस्पर्शयेत्।उपस्पृ. ष्टोदकञ्चैनंनिवातमगारमनुप्रवेश्यसंवेश्यचा शिष्यात् ॥१९॥ . उच्चैर्भाष्यमत्यासनमतिस्थानमतिचंक्रमणक्रोधशोकहिमात-. ..
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( १८०) चरकसंहिता-भा० टी०॥ पावश्यायातिप्रवातान् यानयानंग्राम्यधर्ममस्वपनंनिशिदिवास्वप्नमाविरुद्धाजीर्णासात्म्याकालाप्रमितामितातिहीनगुरुविपमभोजनवेगसन्धारणोदीरणमितिभावानेतान्मनसाप्यसेवमानःसर्वमाहारमयादिति । सतथाकुर्यात् ॥ २० ॥ यदि उत्तम प्रकारसे वमन होलेवे तो उस वमनक के हाथ, पांव,मुख,धुलाकर आराम करने दे फिर दोघडी पश्चात् उसको स्नौहिक धूम या विरेचक धूम अथवा शमन धूम वा यथासाध्य अन्य धूम पान करावाफिर हाथ पाँव नेत्र मुख धुलाकर वात रहित स्थानमं सुखोचित शय्या पर सुलावे और कहे कि ऊंचे स्वरसे बोलना, अधिक वैठना, अत्यंत आराममही पडरहना, अति फिरना, क्रोध, शोक, हिम, धूप, शीत, अत्यंत वायु, सवारी, स्त्रीसंग, जागरण, दिनमें सोना, विरुद्ध भोजन, अजीर्णकर्ता तथा असात्म्य भोजन, असमय भोजन, अल्प भोजन, अतिभोजन, हीन तथा भारी और विषम भोजन, मलमूत्रादिका वेग रोकना, विना वेग मलादि त्यागना, इन कामोंको मनसे भी न करना । और मद्य आदि भी सेवन न करना वमनकर्ताको भी वैद्यके कथनानुसार ही करना चाहिये ॥ १९ ॥ २० ॥
रात्रिक भोजनका क्रम । अथेनंसायाहूपरेवाह्निसुखोदकपारीषिक्तंपुराणानांलोहितशालि. तण्डुलानांस्ववक्लिन्नानांमण्डपूर्वांसुखोष्णांयवागूपाययेदग्निवलमभिसमीक्ष्यचैवंद्वितीयेतृतीयेचान्नकाले चतुर्थे वन्नकाले तथाविधानामेवशालितण्डुलानामुस्विन्नांविलेपीमुष्णोदकद्वितीयामस्नेहलवणामल्पस्नेहलवणांवाभोजयेत् । एवंपञ्चमेषष्टे चान्नकालेसप्तमत्वन्नकालेतथाविधानामेवशालीनांद्विप्रसृतंसुस्विन्नमोदनमुष्णोदकानुपानंतनुमातनुस्नेहलवणोपपन्ननसुद्गयूपेणभोजयेत् ।एवमष्टमेनवमेचान्नकालेदशमत्वन्नकालेलावकपिञ्जलादीनामन्यतमस्यमांसरसेनौदकलावणिकेनापिसारबताभाजयवाउपणोदकानुपानमेवमेकादशेद्वादशेचान्नकाले ॥२१॥ इनके अनंतन उस मनुप्यतः ग्याकाल या दूसरे दिन प्रातःकाल सुखोष्णजलसे स्लान म पुगने नाठी चाल यादिकांका यवागृ बनाकर सुखोष्ण पिलावे ।
दतरे तीसरे नमानी गुलोण नरम २ माटी चावले आदिकी पेया वना.
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सूत्रस्थान - अ० १५..
( १८१ ) कर देवे | चौथे समय साठीके चावलोंको बहुत नरम और गाढेसे बनाकर देवे अथवा उन चावलोंकी विलपीमें थोडी सी चिकनाई और सेंधानमक मिलाकर देवे। और गर्म जल पनिको देवे । ऐसे ही पांचों, छठे भोजनके समय भी करे । सातवे समय साठी या शालीचावलौका नरम बनाहुआ आधसेर भात और थोडेसे नमक और चिकनाई युक्त मूंगका यूष देवे और गर्म जल पिलावे । आठवें, नवमें अन्नकालमें भी ऐसा ही करे । दशव समय लवा, तीतर आदिक किसी पवित्र पक्षीके मांसरससे यथेच्छ स्नेह लवण मिलाकर अन्न खावे और गरम जल पीवे । ऐसे ही ग्यारहवें, बारहवें समय भी करे ॥ २१ ॥
अतऊर्द्धमन्नगुणानुक्रमेणोपभुञ्जनः सप्तरात्रेणप्रकृतिभोजन
मागच्छेत् ॥ २२ ॥
इसके उपरांत सात दिन तक सात्म्य और पथ्य भोजन करताहुआ अपने स्वाभा विक भोजन पर आजाय ॥ २२ ॥
विरेचनविध | अथैनंपुनरेवस्नेहस्वेदाभ्यामुपवाद्यानुपहतमनसमभिसमीक्ष्य सुखोषितं सुप्रजीर्ण भक्तं कृ तहामवलीमङ्गलजप्यप्रायश्चित्तमिष्टतिथिनक्षत्रकरणमुहूर्ते ब्राह्मणानुस्वस्तिवाचयित्वात्रिवृतकल्कमक्षमात्रांयथार्हालोडनप्रतिविनीतंपाययेत् ॥ २३ ॥
अव फिर स्नेहन स्वेदन करके सर्वदुः खरहित सुखपूर्वक बैठे हुए इसको पहले दिनका अन्न जीर्ण होनेपर होम, बलिदान, मंगलाचरण, जप, प्रायश्चित्त आदि कराके शुभ तिथि, नक्षत्र, करण, मुहूर्त में ब्राह्मणों द्वारा स्वस्तिवाचन और पुण्या. हवाचन कराके एक वहेडेके समान ( अथवा जितना उचित हो ) निशोथका कल्क लेकर पानी में घोलकर पिलादेवे ॥ २३ ॥
प्रसमीक्ष्य दोष भेषजदेशकालबलशरीराहारासात्म्य सत्त्वप्रकृतिवयसामवस्थान्तराणिविकारांश्च सम्यक् विरिक्तञ्चैनंवमनाक्तेन धूमवर्जेन विधिनोपपादयेदाबलवर्णमतिलाभात् ॥ २४ ॥
फिर-दोष, औषध, देश, काल, बल, शरीर, आहार, सात्म्य, सत्व, प्रकृति, वय, तथा अन्य व्यवस्था, और रोगोंको विचारकर तथा रोगीको उत्तम विरेचन होचुका - यह विचारकर जबतक बल वर्ण ठीक न होजाय तब तक वमनमें कही विधिके वर्ताव करता है | परंतु वमन में कहेहुए धूमपानको न करे ॥ २४ ॥
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( १८२)
चरकसंहिता-भाट बलवणापपन्नञ्चनमनुपहतमनसमभिसमीक्ष्यसुखोषितसुप्रजीर्णभक्तशिरःस्नातमनुलिप्तगात्रंस्रग्विणमनुपहतवस्त्रसंवीतमनुरूपालंकारालंकृतंसुहृदांदयित्वाज्ञातीनांदायेदथै नकामेष्वेवसृजेत् ॥ २५॥ जब वह मनुष्य बलवर्ण युक्त होजाय, और मन प्रसन्न हो तब पहले दिनका अन्न जीर्ण होनेपर सुखपूर्वक विठाकर शिरसे स्नान करावे। और शरीरमें चंदनादि सुगंधित लेप कर-फूलमाला,शुद्ध हलके वस्त्र और यथायोग्य वस्त्र आदिसे शोभा. यमान कर इसके मित्र और बांधवोंके दर्शन करावे । फिर इसको इसकी इच्छानु. सार वर्तावकी आज्ञा देवे ॥ २५ ॥
भवंतिचात्र । अनेनविधिनाराजाराजमात्रोऽथवापुनः । यस्य वाविपुलंद्रव्यससंशोधनमर्हति ॥ २६॥ दरिद्रस्त्वापदंप्राप्य प्राप्तकालविरेचनम् । पिवेत्काममसंभव्यसम्भारानपिदुर्लभान् ॥ २७ ॥ यहां कहते कि, इस विधिसे राजा अथवा राजाओंकी समान धनिक पुरुष जिसके यहां बहुत द्रव्य हो उसको शोधन करना चाहिये ॥ २६ ॥ और दरिद्रीके पास सव सामान हो नहीं सकता इसलिये जब उसको कोई वमन विरेचन साध्य. रोग होय उसी समय यथासंभव योग्य औषध देकर आरोग्य करे ।। २७ ॥
नहिसर्वमनुष्याणांसन्तिसर्वपरिच्छदाः । नचरोगानवाधन्ते दरिद्रानपिदारुणाः ।। २८ ॥ यद्यच्छक्यमनुप्यणकर्त्तमौपधमापदि । तत्तत्सेव्ययथाशक्तिवमनान्यशनानिच ॥ २९ ॥ क्योंकि सब मनुष्यों के यहां सब साधन नहीं होसकते और रोग तो दरिदियोंको भी वसाही दारुण कष्ट देते हैं। इसलिये जिससे जिस प्रकार यल हो जैसी, औषध आदि होसकती हो उसको रोग होनेपर वैसे ही ययाशक्ति शोधन और भोजनादि करने चाहिय ॥ २८ ॥ २९ ॥
मलापहरोगहरंवलवर्णप्रसादनम् । पित्वासंशोधनंसम्यगायुपायुज्यतचिरम् ॥ ३०॥ उत्तम प्रकार संशोधन करने दुष्ट मल और रोग नष्ट होते हैं । तया वल और वर्ण उत्तम होते हैं और आयु दीर्य होती हैं ॥३०॥
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सूत्रस्थान-अ० १६.
(१८३) अध्यायका संक्षिप्तवर्णन । तत्रश्लोकाः । ईश्वराणांवसुमतांवमनंसविरेचनम् । सम्भारा ये यदर्थश्च समानीयप्रयोजयेत् ॥ ३१॥ यथाप्रयोज्यंयामात्रा यदयोगस्यलक्षणम् । योगातियोगयोर्यचदोषायेचाप्युपद्रवाः ॥३२॥ यदसेव्यविशुद्धेनयश्चसंसर्जनक्रमः । तत्सर्वंकल्पनाध्यायेव्याजहार पुनर्वसुः ॥ ३३ ॥
इतिकल्पनाचतुष्केउपकल्पनीयोऽध्यायः। अध्यायके उपसंहारमें यह श्लोक है कि इस कल्पनीयाध्यायमें राजाओं और धनिक पुरुषोंको वमन विरेचनका क्रम और उनके साधनकी सामग्री, तथा वमन विरेचनको मात्रा अयोगके लक्षण तथा सम्यक् योग और अतियोगके लक्षण अतियोगके उपद्रव, संशोधित मनुष्यके सेवनका क्रम और उसको छुट्टी देनेकी विधि यह सब भगवान् पुनर्वसुजीने कथन कियाहै ॥ ३१॥ ३२॥ ३३ ॥ इति श्रीमहर्पिचरकप्रणीतायुर्वेदीयसंहितायां पटियालाराज्यांतर्गतटकसालनिवासिवैद्यपंचानन वैद्यरत्न पं० रामप्रसादवैद्योपाध्यायविरचितप्रसादन्याख्यभाषाटीकाया
मुपकल्पनीयो नाम पंचदशोध्यायः ।। १५ ।।
षोडशोऽध्यायः।
अथातश्चिकित्साप्राभृतीयमध्यायव्याख्यास्याम इति हस्माहभगवानात्रेयः । अब हम चिकित्सामाभृतीय अध्यायका कथन करते हैं । ऐसा भगवान् आत्रेयजी कहनेलगे।
. सदसद्वैद्यके कर्मका फल । चिकित्साप्राभृतोविद्वान शास्त्रवान् कर्मतत्परः। नरविरेचयतियंसयोगात्सुखमश्नुते ॥१॥ चिकित्सामें निपुण, शास्त्रको जाननेवाला, अपने चिकित्साकर्ममें तत्पर वैद्य जिस मनुष्यको विरेचन कराता है वह मनुष्य रोगमुक्त होकर परम मुखकों भोगता है ॥१॥
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(१८४)
चरकसंहिता-भा० टी०। यवैद्यमानीत्ववुधोविरेचयतिवानवम् ।
सोऽतियोगादयोगाचमानवोदुःखमश्नुते ॥२॥ और अपने आप वैद्य कहलानेवाला मूर्ख जिसको विरेचन देता है वह अतियोग अथवा अयोगके होनेसे दुःखको भोगताहै ॥२॥
अच्छे विरेचनके लक्षण। दोवल्यंलाघवंग्लानिया॑धीनामणुतारूचिः। हृद्वर्णशुदिक्षत्तष्णाकालेवेगप्रवर्त्तनम् ॥ ३ ॥वुद्धीन्द्रियमनःशुद्धिर्मारुतस्थानुलोमता । सम्यग्विरिक्तलिङ्गानिकायानेश्चानुवर्तनम् ॥ ४ ॥ देहमें दुर्वलता, हलकापन, ग्लानि,रोगका हास, रुचि,हृदय और वर्णकी शुद्धि, क्षुधा, पाका ठीक होना, समयपर मलमूत्रका होना, बुद्धि, इन्द्रिय, और मनका शुद्ध होना, वायुका अनुलोम होना, जठराग्निका वलवान होना यह. लक्षण उत्तम विरेचन होनेके हैं ॥३॥ ४ ॥
दुष्टविरेचनके लक्षण । ष्टीवनंहृदयाशद्धिरुत्क्लेशःश्लेष्मापित्तयोः । आध्मानमरुचि. च्छार्दरदीर्वल्यमलाघवम् ॥ ५॥ जंघोरुसादनंतन्द्रास्तमित्यं पीनसागमः । लक्षणान्यावरिक्तानांमारुतस्यचनिग्रहः॥६॥ मुखसे पानी गिरना, हृदयका भारी होना, कफपित्तके निकलनेकी सी शंका रहना, अफारा, अरुचि, छर्दि, देहमें पुष्टता सी और भारीपन, टांगाम और घुट. नाम शिथिलता, तन्द्रा, देहमें गीलापन, प्रतिश्याय, अधोवायुका ठीक न निक लना यह लक्षण ठीक विरेचन न होनेस होतेहे ॥ ५॥६॥
अतिविरचितके लक्षण। विपित्तश्लेप्मवातानामागतानांयथाक्रमम् । परस्रवतियद्र
मदोमांसोदकोपमम् ॥७॥ निःश्लेष्मपित्तमुदकंशोणितंकृप्णमेववा । तप्यतोमारुतातस्यसोतियोगप्रमुह्यतः ॥ ८॥ पाले विष्ठा, पित्त,बलगम, वात यह यथाक्रम निकलकर फिर मेद और मांसके घोचनको समान रक्त निकलनेलगे और कफपित्त रहित पानीका निकलना अथवा
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सूत्रस्थान-अ० १६.
(१८५) काले रंगका रुधिर गिरना । और बेहोशी, प्यासकी अधिकता तथा वायुका कोप होना यह विरेचनके अतियोगके लक्षण हैं ॥ ७॥८॥ .
वमनातिकृतलिंगान्येतान्येवभवन्तिहि ।
ऊर्द्धगावातरोगाश्चवाग्ग्रहश्चाधिकोपमः॥९॥ . वमनके अतियोग होनेसे भी यही लक्षण होतेहैं परंतु ऊर्ध्वजत्रुगत वायुके रोग और वाणीका रुकना यह विरेचनके अतियोगसे वमनके अतियोगमें अधिक होतेहैं ॥९॥
चिकित्साप्राभृतंतस्मादुपेयात्कारणनरः।
युञ्ज्याद्यएनमत्यन्तमायुषाचसुखेनच ॥ १०॥ इसीलिये चिकित्साके जाननेवाले सुज्ञ वैद्यको शरणमें ही मनुष्यको स्वेदन, वमन विरेचनादि लेने चाहिये क्योंकि योग्य वैद्य ही इसकी आयु और मुखकी रक्षा करताहै ॥ १०॥
संशोधनीय रोग। अविपाकोऽरुचिःस्थौल्यंपाण्डुतागौरवंक्लमः।पित्तकाकोठकण्डूनांसम्भवोऽरतिरेवच ॥११॥ आलस्यं श्रमदौर्बल्यंदोर्गन्ध्यमवमादकः । श्लेष्मपित्तसमुत्क्लेशोनिद्रानाशोऽतिनिद्रता॥१२॥ तन्द्राक्कैव्यमबुद्धित्वमशस्तस्वप्नदर्शनम् । बलवर्णप्रणाशश्चतृप्यतोव्हणैरपि ॥ १३ ॥ बहुदोषस्यलिङ्गानितस्मैसंशोधन हितम् । अर्द्धश्चैवानुलोमञ्चयथादोषंयथावलम् ॥ १४ ॥
अन्नका परिपाक न होना, असाचे, स्थूलता, पांडु, गुरुता, क्लम, फोडे, कोठ, जिल्दपर चकत्तेसे होना, खाज, इन सबका अधिकतासे होना, आलस्य, दुर्बलता, श्रम, देहसे दुर्गंध आना, अंगोंका अवसाद, श्लेष्मा और पित्तकी अधिकता, दिलमचलाना, निद्राका नाश, अथवा अतिनिद्रा, नपुंसकता, तन्द्रा, बुद्धिनाश, खराब स्वप्न दीखना, बल और वर्णका नाश होना, यह लक्षण बृंहणद्वारा अत्यन्त संतर्पित होनेसे होतेहैं ॥ ११ ॥ १२॥ १३ ॥ और यही लक्षण जिसके शरीरमें बहुत दोष वढेहुए हों उसके भी होतेहैं । ऐसे समय संशोधन करना परम हितकारक होताहै । वह शोधन दोषादि विचारकर ऊर्वशोधन या अधाशोधन अथवा वमन विरेचन द्वारा दोनों तर्फसे शोधन करना चाहिये ॥१४॥
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( १८६) चरकसंहिता-भा० टी०
संशोधनका फल । एवंविशुद्धकोष्ठस्यकायाग्निराभिवईते । व्याधयश्चोपशाम्य. न्तिप्रकृतिश्चानुवर्तते ॥१५॥ इन्द्रियाणिमनोबुद्धिवर्णश्चास्यप्रसीदति । वलंपुष्टिरपत्यञ्चवृषताचास्यजायते ॥ १६ ॥ जरांरुच्छेणलभतोचिरंजीवत्यनामयः । तस्मात्संशोधनंकाले युक्तियुक्तंपिवेन्नरः ॥ १७ ॥ इस प्रकार शुद्ध कोष्ठवाले मनुष्यके जठराग्निकी वृद्धि होतीहै । सब रोग शांत होजातहैं । सब स्वाभाविक गुण ठीक होजातहैं । इंद्रिये, मन, बुद्धि, वर्ण, यह प्रसन्न होय । वल, पुष्टि, सन्तान, पुरुषपना,यह उत्पन्न होय। बुढापा जल्दी नहीं आता, नीरोग रहकर वडी आयुवाला होय । इसलिये युक्तियुक्त वमन विरेचनसे शरीरको उचित कालम शुद्ध करना चाहिये ।। १५ ॥ १६ ॥ १७ ॥
संशोधनकी उत्कृष्टता। दोषाःकदाचित्कुप्यन्तिजितालंघनपाचनैः जिताःसंशोधनयें । तुनतेपांपुनरुद्भवः ॥ १८ ॥ दोषाणाञ्चद्रुमाणाञ्चसूलेऽनुपहते सति । रोगाणांप्रत्रवाणाञ्चगतानामागतिधूवा ॥ १९॥ यदि लंघन और पाचनद्वारा दोष जीतेजाय तो वह कभी फिर भी कुपितः होसकतह । परंतु संशोधनद्वारा जीतेहुए दोप फिर प्रगट नहीं होसकते । दोषोंको और वृक्षांको यदि बिल्कुल जडसे न निकालदिया जाय तो उन दवेहुएं दोपासे काल पाकर रोग और रहीहुई वृक्षकी जडसे फिर अंकुरादि पैदा होना अवश्यंभावी है इसलिये इनको जडसे निकालदेना ही अच्छा है ॥ १८ ॥ १९ ॥
औषधक्षीणके लिये पथ्य । भेषजक्षपितेपथ्यमाहारैरेवव्रहणम् । घृतमांसरसक्षीरहृययूपापसाधितैः ॥ २० ॥ अभ्यङ्गोत्सादनैःस्नाननिरूहैःसानुवा. सनः । तथासलभतेशर्मयुज्यतेचायुपाचिरम् ॥ २१ ॥ यदि वमन विरेचनकी आँपधिक अधिक सेवनसे मनुष्य क्षीण होजाय तो उसको पथ्य आहातले पुष्ट करना चाहिये । तया घृत, मांसरस, दूध हृद्य ( हृदयका प्रिय) पदार्थ, वृपआदि देकर पुष्ट करे । और तेल की मालिश, उवटना, स्नान, निरहण और अनुवासन पस्ति करे ऐसा करनेसे उसका कल्याण होता है भार आय बढी ॥ २० ॥ २१ ॥
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( १८७)
सूत्रस्थान - अ० १६.
वमन विरेचनातियोग में चिकित्सा । अतियोगानुबद्धानां सर्पिःपानंप्रशस्यते । तैलंमधुकरैः सिद्धमथ वाप्यनुवासनम् ॥ २२ ॥ यस्यत्वयोगस्तंसिद्धं पुनः संशोधयेन्नरम् । मात्राकालबलापेक्षीस्मरन पूर्वमितिक्रमम् ॥ २३ ॥ यादे वमन विरेचनका अतियोग होगयाहो तो उसको योग्य औषधियोंसे सिद्ध किया हुआ घृत पिलावे । अथवा मधुक आदि गणसे सिद्ध किएहुए तैलकी मालिश करे अथवा ऐसे ही तेलसे अनुवासक्रिया करे ॥ २२ ॥ जिस मनुष्यको वमन, विरेचनका अयोग हुआ हो उसको फिर स्नेहन, स्वेदन करके संशोधन करे । और मात्रा, समय, वल, इनका ध्यान रखना चाहिये, तथा प्रथम कहेहुए वमन विरे - चनके क्रम और पेयादि पान करानेको याद रक्खे ॥ २३ ॥ स्नेहनेस्वेदने शुद्धौरोगाः संसर्जनेचये । जायन्तेऽमार्गविहितेतेषांसिद्धिषुसाधनम् ॥ २४ ॥
स्नेहन, स्वेदन, संशोधन आदि किसी क्रमके वेगडनस जो रोग होते हैं उनका यत्न सिद्धिस्थानमें कहाजायगा ॥ २४ ॥ जायन्ते हेतुवैषम्याद्विषमा देहधातवः । हेतुसाम्यात्समास्तेषां स्वभावोपरमः सदा ॥ २५ ॥ प्रवृत्तिहेतुर्भावानांननिरोधेऽस्तिकारणम् । केचित्वत्रापिमन्यन्ते हेतुहेतोरवर्त्तनम् ॥ २६ ॥
आहार विहार आदि किसी कारणकी विषमता से शारीरिक धातुवोंमें विषमता होती है और इसी प्रकार हेतु (कारण) की समतासे देहधारी धातुओं में भी समता रहती है अर्थात् हेतुवैषम्य से विषमता और हेतुसाम्यसे समता होना यह देहधारक धातुओं में जो विषमता आदि अर्थात् कम और ज्यादा होना है इसका उपराम (नाश ) हो सकता है। परंतु धातुओंका नाश कभी नहीं होता । धातुओंको बढाने में कारणों की प्रवृत्ति होसकती है अर्थात् अपने कारणों के प्रवृत्त होनेसे देहधारी धातु वढ तो सकते हैं परंतु नाशको प्राप्त नहीं होसकते कोई कहते हैं कि बढानेवाले कारणोंकी अप्रवृत्ति (अभाव) से वह बढते नहीं अर्थात् कम होजाते हैं ॥ २५ ॥ २६॥ अग्निवेशका प्रश्न ।. एवमुक्तार्थमाचार्य्यमग्निवेशोऽभ्यभाषत । स्वभावोपरमं कर्म चिकित्साप्राभृतस्यकिम् ॥ २७ ॥ भेषजैर्विषमान्धातून्कान्समीकुरुतेभिषक् । कावाचिकित्सा भगवन् किमर्थंवाप्रयुज्यते ॥ २८॥
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(१८८)
चरकसंहिता-भा० टी० इस प्रकार कहेहुए आचार्यके वचनको सुन अग्निवेश कहनेलगे कि हे भगवन्! उन रसादिक देहधारी धातुओंके स्वभावका उपराम होने पर चिकित्सामें नियुक्त वैद्यका क्या कार्य है । और किन २ विषम धातुओंको वैद्य औषधिद्वारा साम्य करताहै । और वह चिकित्सा क्या है । तया किस कार्यके लिये उस चिकित्साका प्रयोग कियाजाताहै ।। २७ ॥ २८ ॥
पुनर्वसुका उत्तर । तच्छिष्यवचनं श्रुत्वाव्याजहारपुनर्वसुः । श्रूयतामत्रयासौम्य युक्तिदृष्टामहर्षिभिः ॥ २९ ॥ ननाशकारणाभावाद्भावानां नाशकारणम् ।ज्ञायतेनित्यगस्येवकालस्यात्ययकारणम्॥३०॥ शीघगत्वाद्यथाभूतस्तथाभावोविपद्यतेविरोधकारणंतस्यनास्तिनवान्यथाक्रिया ॥ ३१ ॥ ऐसा शिष्यका कहाहुआ वचन सुनकर पुनर्वसुजी कहनेलगे कि हे सौम्य : इस विषयमें महर्षियाने जिस युक्तिका कथन किया है वह मुन जैसे नित्य कालके नाशका कारण नहीं प्रतीत होता अथवा यों कहिये कि जैसे भूतकाल का शीघ्रगामी होनसे भी नाशका कारण प्रतीत नहीं होता ऐसे ही नाशके कारणके अभावसे भावांका नाश नहीं जाना जाता अर्थात् अभावको जो नाशका कारण मानते हैं वह नहीं हो सकता क्योंकि भूत अवस्थासे जव द्रव्य विकृत हुआ तब वर्तमान अवस्थाम भी वही भूत अवस्या आई और भूत अवस्थाको ही सब लोग नाश कहते हे दर असलमें वह नाशको प्राप्त नहीं हुआ इसलिये चिकित्साका करना भी अन्यथा नहीं हैं ॥ २९ ॥ ३० ॥ ३१ ॥
याभिःक्रियाभिर्जायन्तेशरीरेधातवःसमाः साचिकित्साविकाराणांफर्मतद्भिपास्मृतम् ॥ ३२ ॥ कथशरीरेधातूनांवैपम्यन भवेदिति ।समानाञ्चानुवन्धःस्यादित्यर्थंकुरुतेक्रियाः॥ ३३ ॥ जिस क्रियाके करनेसे शरीरकी धातुगं साम्यावस्था प्राप्त होजायें उस क्रियाको विकारों की चिकित्सा कहते हैं । और चिकित्सा करने में जो कर्म होता है वह वैद्योंका कर्म है ।। ३२ ॥ जिस प्रकार करने मे शरीरकी धातुएं विषम न होने पायें और जोतिम हो वह साम्यावस्याम आजाएँ तथा धातुआंकी समता बनी रहंइस पार लिये चिकित्साका प्रयोग किया जाता है ।। ३३ ।।
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बिलाच ही आयु और मय धातुओंमें समता महसुखायुषाम्॥
सूत्रस्थान-अ० १६. (१८९) त्यागाद्विषमहेतूनांसमानाञ्चोपसेवनात् । विषमानानुबध्नन्ति जायन्तेधातवःसमाः ॥ ३४ ॥ धातुओंको विषम करनेवाले जो हेतु हैं उनको त्यागनेसे और साम्यावस्था में रखनेवाले हेतुओंके सेवनसे धातुओंमें विषमता नहीं आती और समता प्राप्त. रहती है ॥ ३४॥
समैस्तुहेतुभिर्यस्माद्धातन्सअनयेत्समान । चिकित्साप्राभृतस्तस्मादातादेहसुखायुषाम्॥३५॥धर्मस्यार्थस्यकामस्यत्रिलोकस्याभयस्यचादातासम्पद्यतेवैद्योदानादेहसुखायुषाम्॥ ३६ सम हेतुओंसें जिसलिये धातुओंमें समता प्राप्त करताहै इसीलिये चिकित्सासपन्न वैद्य ही आयु और मुखका दाता मानना चाहिये । धर्म, अर्थ, काम, और त्रिलोकोक सुखका कारण आरोग्यताको प्राप्त करनेवाला होनेसे वैद्यही देहसुख और आयुका दाता कहाजासकता है ।। ३५ ॥ ३६ ॥
अध्यायका संक्षिप्त वर्णन ।
तत्रश्लोकाः॥ चिकित्साप्राभृतगुणोदोषोयश्चेतराश्रयः। योगायोगातियोगानांलक्षणंशुद्धिसंश्रयम्॥ ३७॥ बहुदोषस्थलिङ्गानिसंशोधनगुणाश्चये। चिकित्सासत्रमात्रश्चसिद्धिव्यापत्तिसंश्रयम्॥३८॥. याचयुक्तिश्चिकित्सायांयंचार्थकुरुतेभिषक्॥चिकित्साप्रामृतेऽध्यायेतत्सर्वमवदन्मनिः ॥ ३९ ॥ इति अग्निवेशकतेतन्त्रेचरकप्रतिसंस्कृतेकल्पनाचतुष्कचि
कित्साप्राभृतीयोनामषोडशोऽध्यायःसमाप्तः ॥१६॥ अध्यायपूर्तिमें यह श्लोक हैं कि इस चिकित्साप्रामृत अध्यायमें चिकित्साप्राभूत वैद्यके गुण और मूर्ख वैद्यके दोषसंशोधन, विषके योग, अयोग, अतियोग, इनके. लक्षण, बहुत दोषके चित्र, और संशोधनके गुण, सिद्धि और व्यापचिके आश्रः यीभूत चिकित्साका सूत्रमात्र, चिकित्साके सम्बन्धमें युक्ति, जिसकार्य के लिये वैद्य चिकित्सा करताहै यह सर्व मुनिजीने वर्णन कियाहै ॥ ३७ ॥ ३८ ॥ ३९ ॥ : इति श्रीमहर्षिचरक०५० रामप्रसाद. प्रसादन्याख्यभाषाकायां चिकित्सा
प्रामृतीयोनाम.षोडशोऽध्यायः ॥ १६ ॥ . : . : .. ..--.
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( १९० )
चरकसंहिता - मा० टी० ।
सप्तदशोऽध्यायः ।
40-
अथातः कियन्तः शिरसीयमध्यायं व्याख्यास्याम इतिहस्माह
भगवानात्रेयः ।
अब हम कियंतःशिरनीय अध्यायका कथन करते हैं । ऐसा आत्रेय भगवान् कहने लगे ।
रोगोंपर अग्निवेशका प्रश्न |
कियन्तः शिरसिप्रोक्तारोगाहृदिचदेहिनाम् ॥ १॥ कतिचाप्यनिलादीनां गामानविकल्पजाः । क्षयाः कतिसमाख्याताः पिडकाः कतिचानघ ॥ २ ॥ गतिः कतिविधाचेोक्ता दोषाणां दोपलदन । हुताशवेशस्यवचस्तच्छ्रुत्वागुरुरब्रवीत् ॥ ३ ॥
अनिवेश पूछने लगे हे अन ! मनुष्योंके शिरमें कितने रोग होते हैं, हृदयम कितने रोग होते हैं तथा वात, पित्त, कफ के भेदसे और इनके विकल्प तया अंशादिभेदांसे रोग कितने प्रकार के होते हैं, क्षय कितने प्रकारके होते हैं, पिडिका कितने प्रकारकी हैं । हे दोषोंके दूरकरनेवाले गुरो ! दोषों की गति कितने प्रकार की है । निवेश इस वचनको सुनकर गुरु कहने लगे ॥ १ ॥ २ ॥ ३ ॥
गुरुका उत्तर ।
पृष्टवानसि यत्सौम्य तन्मेशृणुसुविस्तरम् । दृष्टाःपञ्चशिरोरोगाः पञ्चैव हृदयामयाः ॥ ४ ॥ व्याधीनांद्वयाधिकापष्टिदोंपमानविकल्पजा । दशाष्टौचक्षयाः सप्तपिडकामधुमेहिकाः ॥५ ॥ दोपाणांत्रिविधाचोक्तागतिर्विस्तरतः शृणु ॥ ६ ॥
हे सौम्य ! जो तुमने मुझसे पूछाहे उसको विस्तारपूर्वक श्रवण करो । शिरमें दोनेवाले रोग पांच प्रकारके देखने में आतेंदें । हृदयके रोग भी पांच प्रकारके ही होते हैं । वातादि दोषोंकी अंशादिभेदकल्पनासे ६२ बासठ प्रकारके रोग होते हैं । क्षय २८ प्रकारके होते | मधुमेहसे सात प्रकारकी पिडका होताहैं । दोषोंकी गति तीन प्रकारकी है। इन सबको अव विस्तारसे सुनो ॥ ४ ॥ ५ ॥ ६ ॥
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सूत्रस्थान अ०१७.
शिरोरोगोंके कारण। सन्धारणादिवास्वप्नाद्रात्रौजागरणान्मदात् । उच्चैर्भाष्यादवश्यायात्प्राग्वातादतिमैथुनात् । गन्धादसात्म्यादाघाताद्रजोधूमहिमातपात् ॥७॥ गुर्वम्लहरितादानादतिशीताम्बुसेवनात् । शिरोऽभितापादृष्टामाद्रोदनाद्वाष्पनिग्रहात् ॥ ८॥ मेघागमान्मनस्तापादेशकालविपर्ययात् । वातादयःप्रकुप्यन्तिशिरस्यसंप्रदुष्यति ॥९॥ ततःशिरसिजायन्तेरोगाविविधलक्षणाः ॥१०॥ मलमूत्रका वेग रोकनेसे, दिनमें सोनेसे, रात्रि में जागनेसे, मदसे, बहुत ऊंचे भाषणसे, सरदीसे, पूर्वकी पवनसे, आतिमैथुनसे, असात्म्य गंध लेनेसे, रज, धूम, वायु, धूप इनके सेवनसे, गुरु, अम्ल. शाक, सब्जी भादिक खानेसे अत्यंत . प्रीतल जल पीनेसे, शिरमें चोट आदि लगनेसे, आमक दोषसे, रोनेसे, आंसुओंके
कनसे अथवा भाफके निग्रहसे, बादलोंके होनेसे, मनके संतापसे, देश और हालकी विकृतिसे ऐसे २ कारणोंसे वातादि दोष कुपित होकर शिरके रक्तको दूषित करदेतेहैं तब शिरमें अनेक प्रकारके लक्षणोंवाले रोग उत्पन्न होतेहैं ॥ ७ ॥८॥९॥१०॥
शिरका लक्षण । प्राणाप्राणभृतांयत्रश्रिताःसर्वेन्द्रियाणिच ।
यदुत्तमाङ्गमङ्गानांशिरस्तदभिधीयते ॥ ११ ॥ जिस जगह प्राणधारियोंके प्राण हैं और सब इंद्रिये आश्रित हैं तथा जो सब अंगोंमें उत्तम अंग है उसको "शिर" कहतेहैं ॥ ११ ॥
वातादिजन्य शिरोरोग। अर्हावभेदकोवास्यात्सर्ववारज्यतेशिरः। प्रतिश्यामुखनासाक्षिकर्णरोगाःशिरोभ्रमाः। आतंशिरसःकम्पोगलमन्याहनुग्रहः ॥ १२ ॥ विविधाश्चापरेरोगावातादिक्रिमिसम्भवाः । पृथग्दृष्टास्तुयेपञ्चसंग्रहेपरमर्षिणा । शिरोगदास्तानशृणुमे यथास्वैर्हेतुलक्षणैः ॥ १३॥
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(१९२)
चरकसंहिवा-भा० टी०। आधे शिरम पीडा होना वा संपूर्ण शिरम पीडा होना, प्रतिश्याय, मुखरोग, नासागेग.अक्षिरोग,कणरोग,शिरका भ्रमणा,लकवा,शिरकंप,गलेका अकडजाना, मन्यास्तंभ, नुस्तंभ तथा अन्य भी अनेक प्रकारके रोग दातादिभेदसे और कृमिजन्य रोग शिरमें होते हैं। इनसे अलग जो पांच प्रकारके रोग महर्षियोंने संग्रहमें कहेहें उन शिरके नोगांको, जिन २ अपने कारणोंसे वह होतेहैं और उनके लक्षणोंको सुनी ।। १२ ॥ १३ ॥
वातन रोगांके कारण । उच प्यातिभाष्याभ्यांतीक्ष्णपानात्प्रजागरात् । शीतमारुतसंस्पर्शाद्वयवायाद्वेगनिग्रहात् । उपवासाचाभिघाताद्विरेकादमनादपि ॥ १४ ॥ वाष्पशोकपरित्रासाद्भारमार्गातिकर्षणात् । शिरोगतःशिरावृद्धोवायुराविश्यकुप्यति ॥१५॥ ततःशूलंमहत्तस्यवातात्समुपजायते । निस्तुद्यतेभृशंशंखौघाटासम्भिद्यतेतथा ॥ १६ ॥ भ्रुवोर्मध्यललाटंचतपतीवातिवेदनम्। वाध्येतेस्वनतःश्रोत्रनिष्कृष्येतइवाक्षिणी ॥१७ ॥ पूर्णतीव शिरःसर्वसन्धिभ्यइवमुच्यते । स्फुरत्यतिशिराजालंतुद्यतेच शिरांधरा ॥१८॥
बहुत ऊंचे और अधिक बोलनेसे, तीक्ष्ण मद्यादि पीनेसे, रात्रिम जागनेसे,शीत पवनके लगनेंस, अति कसरतसे, मलादिवेगोंको रोकनेसे, उपवास करनेसे, अभि. घातसे. विरेचन और वमनजन्य विकारसे, रोनेसे, शोकसे, भयसे, त्रासस, वोझ उठानसे. अति मार्ग चलनेसे, अत्यंत दुःखसे,मस्तकगत वायु शिरकी नसोम प्रवेश कर कुपित होजाताह तब उस वायुसे भारी गूल उत्पन्न होताहै । और दोनों कनपटियाम पीडा होना, गरदन पांडा, भावाके मध्यम पाडा, मस्तकका तपना और पीडायुक्त होना, कानाम शब्दसा होना, नेत्राम खिंचावट, शिरका घूमना और शिकी संधियोंका खुलसा जाना, शिरकी नसोका फडकना, शिरके धारण करनेवाली नसीम पीडा होना. यह लक्षण वातजन्य शिरोरोगमः होना ॥ ४॥ १५ ॥ १६ ॥ १७॥ १८ ॥ निग्धाप्णमुपसंवेतशिरीरोगनिलात्मके ॥ १९ ॥ नाप निमेगेगम स्निग्ध और उष्णक्रियाका सेवन करे ॥ १९ ॥
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सूत्रस्थान-अ०:१७. - ....... पिचज शिरोरोगोंके कारण । . . .. . 'कटुम्ललवणक्षारमद्यक्रोधातपानलैः । पितशिरसिसन्दुष्टं शिरोरोगायकल्पते ॥२०॥ दह्यतेरुज्यतेतेनशिरःशीतेनशूयते। दह्यतेचक्षुषीतृष्णाभ्रमःस्वेदश्चजायते ॥ २१॥ चपरे, खट्टे, नमकीन और खारे पदार्थोंके सेवनस, मद्य पीनेसे, क्रोधसे, धूप और अग्निके परितापसे, मस्तकका पित्त कुपित होकर मस्तकमें पित्तकी पीडा करताहै । तब मस्तकमें दाहयुक्त तोद (पीडा) होताहै वह तोद शीतल पदार्थोंके सेवनसे शान्त होताहै । जब पित्तजन्य मस्तकपीडा होतीहै तो नेत्रोंमें दाह प्यास भ्रम, पसीना आना, यह उपद्रव होतेहैं ॥ २०॥ २१ ॥
____कफज शिरोरोगके लक्षण । आस्यासुखैःस्वप्नसुखैर्गुरुलिग्धातिभोजनः । श्लेष्माशिरसि सन्दुष्टःशिरोरोगायकल्पते ॥ २२ ॥ शिरोमन्दरुजतेन सुप्तिस्तिमितभारिकम् । भवत्युत्पद्यतेतन्द्रातथालस्यमरोंचकः ॥ २३॥ . बहुत बैठारहनसे, बहुत सोनेसे, भारी और चिकने पदार्थों के अधिक सेवनसे, शिरमें रहनेवाला कफ दूषित होकर कफजन्य मस्तक पीडा करताहै | उससे शिरमें मंद २ पीडा होना, निद्रा आईहुईसी रहना, मस्तक गीलासा प्रतीत होना और बोझल होना, तंद्रा, आलस्य, और अरुचिका होना यह लक्षण कफजन्य मस्तक. पीडाके होतेहैं ॥ २२॥ २३॥
. .त्रिदोषज शिरोरोगके लक्षण । - वाताच्छूलंभ्रमःकम्पापित्तादाहोमदस्तृषा।
... कफादरुत्वंतन्द्राचशिरोरोगेत्रिदोषजे ॥ २४ ॥ .. त्रिदोषसे उत्पन्नहुए शिरोरोगमें वायुसे शूल और भ्रम, पित्तसे दाह, मद,तृषा कफसे भारीपन और तंद्रा, यह लक्षण होतेहै ॥ २४ ॥ . . . . . . .
कृमिज शिरोरोगका लक्षण। तिलक्षीरगुडाजीर्णपूतिसंकीर्णभोजनात् । क्लेदोऽसृक्कफमांसानांदोषश्चास्योपजायते ॥ २५ ॥ ततःशिरसिसंक्लेदाक्तिमयः पापकर्मणः । जनयन्तिशिरारोगंजातबीभत्सलक्षणम् ॥१६॥
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होनापथ्य पर चलना कफ और मांसदा, दुर्गधित और
चरकसंहिता-भा० टी०। व्यवच्छेदरुजाकण्डूशोफदौर्गन्ध्यदुःखितम् । क्रिमिरोगातुरं विद्यारिक्रमीणांलक्षणेनच ॥ २७ ॥ तिल, दूध, गुड, अजीर्णकर्ता पदार्थ, दुर्गेधित और वासी विरुद्ध भोजनके सेवनसे मस्तकके रक्त, कफ और मांसमें दोषयुक्त क्लेद (गीलापन )होजाताहै । इस कुपथ्य पर चलनेवाले मनुष्यके शिरमें उस दूषित क्लेदसे कृमि उत्पन्न होजातेहैं। जो भयानक लक्षणोंवाले शिरोरोग उत्पन्न करतेहैं तब शिरमें वेधने
और छेदनेकी सी पीडा. खाज, सूजन, दुर्गधसे दुःखित होना, कृमियोंके अन्य लक्षण होना यह कृमिजन्य मस्तकपीडामें होतेहैं ॥ २५ ॥ २६ ॥ २७ ॥
वातजन्य हृदयरोग। शोकोपवासव्यायामशुष्करक्षाल्पभोजनःशवायुराविश्यहृदयं जनयत्युत्तमांरुजम् ॥२८॥ वेपथुर्वेष्टनस्तम्भःप्रमोहःशून्यता द्रवः । हृदिवातातुरेरूपंजीणेंचात्यर्थवेदना ॥ २९ ॥ शोक, उपवास और व्यायाम, शुष्क, रूक्ष और अल्प भोजनके करनेसे वायु हृदयम प्रवेश कर अत्यंत पीडाको पैदा करताहै। तव हृत्कंप, लपेटनेकी सी पीडा, स्तंभ, मोह, शून्यता, हौलदिली यह वातके हृदयरोगमें होतेहैं और अन्न जीर्ण होनेपर विशेषतासे पीडा होतीहै ॥ २८ ॥ २९ ॥
पित्तज हृदयरोग । उप्णाम्ललवणक्षारकटकाजीर्णभोजनैः । मद्यक्रोधातपैश्चाशु हृदिपित्तंप्रकुप्यति॥ ३० ॥हृद्दाहस्तिक्ततावक्रेलमाःपित्ताम्लकोद्गरः । तृष्णामूच्छाभ्रमःस्वेदापित्तहृद्रोगलक्षणम् ॥ ३१ ॥
गरम, खट्टे, नमकीन, खारे, चरपरे और अजीर्णकर्ता पदार्थोके खानेसे, मद्य पीनेसे, क्रोधसे, धूपके लगनसे. हृदयमें पिच कुपित होताहै । तव हृदयमें दाह होताह, मुखमें कडुवापन, खट्टी, कईई डकारोंका थाना, फायली, तृषा, मूर्ग, भ्रमदाह, यह लक्षण पित्तसे उत्पन्न हुए हृद्रोगमें होते हैं।॥ ३० ॥ ३१ ॥
___कफन हृद्रोगके लक्षण । अत्यादानंगुरुस्निग्धमचिन्तनमचेष्टनम् । निद्रासुखंचाभ्यधिकंकफहृद्रोगलक्षणम्॥३२॥हृदयंकफहृद्रोगेसुप्तस्तिमितभारिकम् । तन्द्रारुचिपरीतस्यभवत्यश्मावतंयथा ॥ ३३ ॥
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सूत्रस्थान-१०.१७.
(१९९) अत्यंत भोजनसे,भारी और चिकने पदार्थों के खानेसे,बेफिकरी और आलस्यसे, अधिक सोनेसे,कफजन्य हृद्रोग उत्पन्न होताहै ।कफके हृद्रोग हृदय सोयाहुआसा, गीला और भारी प्रतीत होताहै । तथा तन्द्रा, अरुचि और हृदयंका पत्थरोंसे दवा हुआसा प्रवीत होना यह लक्षण कफजन्य हृद्रोगमें होतेहे ॥ ३२ ॥ ३३ ॥
सानिपातिक हृद्रोग वर्णन । हेतुलक्षणसंसर्गादुच्यतेसान्निपातिकः । त्रिदोषजेतुहृद्रोगेयो . दुरात्मानिषेवतोतिलक्षारगुडादीनियन्थिस्तस्योपजायते ॥३४॥ मर्मैकदेशेसंक्लेदरसश्चास्योपगच्छति । संक्लेदारिक्रमयश्चास्यभवन्त्युपहतात्मनः ॥३५॥ममैकदेशेतेजाताःसर्पन्तोभक्षयन्तिच । तुद्यमानंस्वहृदयंसूचीभीरिवमन्यते ॥३६॥ छिद्यमानंयथाशस्त्रैर्जातकण्डूमहारुजम् हृद्रोगक्रिमिजंत्वेतैलिङ्गबुद्धासुदारुणम् । त्वरेतजेतुंतविद्वान्विकारंशघिकारिणम् ३७ तीनों दोषोंके हेतुओंसे त्रिदोषके लक्षणोंवाला हृद्रोग होताहै । जो अजितात्मा मनुष्य त्रिदोषके हृद्रोगमें तिल, दूध, गुड, आदि पदार्थोंको खाताहै उसके हृदयमें अंथि उत्पन्न होजातीहै । तब मर्मके किसी एक स्थानमें रस संक्लेदित होजाताहै, उन्लेदसे कृमि होजातेहैं वह किसी एक स्थानमें पैदाहुए कृमि इधर उधर घूमतें
और खाते फिरतेहैं । उस समय इस मनुष्यको. अपने हृदयमें सूई चुभनेकीसी पीडा प्रतीत होतीहै । और जैसे शस्त्रसे कोई काटताहो ऐसा प्रतीत होताहै खुजली और भारी शूल भी कृमिजन्य हृद्रोगके लक्षण हैं । ऐसे घोर लक्षणोंवाले हृदूरी. गको बुद्धिमान् वैद्य त्यागदेवे (या शीघ्र उपायकरे) क्योंकि यह रोग मनुष्यकों शीघ्र मार डालताहै ॥ ३४ ॥ ३५ ॥ ३६ ॥ ३७॥
सन्निपातके १३ भेद। द्वयुल्वर्णकोल्वणैःषट्रस्युहीनमध्याधिकैश्चषट् ।
समैश्चैकेविकारास्तेसन्निपातेत्रयोदश ॥ ३८॥ .. दो दो दोषोंकी प्रबलतासे ३ एक २ दोषकी प्रबलतासे ३ मिलकर छ. हुए जैसे चातपित्तोल्वण, वातकफोल्वण, कफपित्तोल्वण, वातोल्वण, पित्तोल्वण कफोल्वण यह ६ हुए ऐसे ही वात पित्त कफ इनके हीन मध्य अधिकके भेदोंसे छ। हुए और एक तीनोंकी समतासे, ऐसे सब मिलकर सन्निपात १३ प्रकारके. हुए॥३८॥
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(.१९६ )
चरकसंहिता-भा० टी०॥
दोषोंकी वृद्धिसे २५ भेद । संसर्गेणचषट्तेभ्यएकवृद्ध्यासमेस्त्रयः ।
पृथक्त्रयश्चतैवृद्धाधयःपञ्चविंशतिः ॥ ३९ ॥ एक दोषको वृद्धिसे छः भेद और दोनोंकी समतासे तीन भेद इस प्रकार दिदोपज व्याधि ९ प्रकारकी होती है । और अलग २ एक रदोषके बढनेसे एकदोपज रोग तीन प्रकारके हैं । इस प्रकार दोषोंकी वृद्धि आदिके भेदसे २५ प्रकारको व्याधियां होतीहैं ॥ ३९ ॥
दोषोंकी क्षीणतासे २५ भेद। यथावृद्धस्तथाक्षीणैर्दोषैःस्युःपञ्चविंशतिः ।
वृद्धिक्षयकृतश्चान्योविकल्पउपदेक्ष्यते ॥ ४०॥ . दोषोंकी वृद्धिके अनुसार दोषोंकी क्षीणतासे भी २५ प्रकारकी व्याधियां होती है। ऐसे ही दोषोंकी वृद्धि और क्षीणताके विकल्पसे व्याधियें होती हैं ॥ ४० ॥
वृद्धिरेंकस्यसमताचैकैकस्यचसंक्षयः ।
द्वन्द्ववृत्तिःक्षयश्चैकस्यैकावृद्धिईयोःक्षयः ॥४१॥ एक दोपकी वृद्धि, दूसरेकी समता तीसरेका क्षय इस प्रकार ६ भेद हुए। दोनोंकी वृद्धि एकका क्षय और एककी वृद्धि दोनोंका क्षय इस प्रकारसे छः भेद होसकते हैं उनको ही आगे कहते हैं ॥ ४१ ॥
दोषोंकी क्षय वृद्धिका क्रम व लक्षण । प्रकृतिस्थ्यदापितमारुतःश्लेष्मणःक्षये । स्थानादादायगात्रे. पुतत्रतत्रविसर्पति॥ ४२ ॥ तदाभेदश्चदाहश्चतत्रतत्रानवस्थि
ताः। गात्रदेशेभवेत्तस्यश्रमोदविल्यमेवच ॥४३॥ जब कफक्षय होजाताहै तो प्रकृतिस्थ पित्तको उसके स्थानसे लेकर वायु इयर उधर शरीरके अंगाम भ्रमण करताहै । वह वायु इधर उधर फिरताहुआ जिस २ अंगमें वृमताह उसी २ स्थानमं भेदनकी सी पीडा, दाह, भ्रम और दुर्वलताको करताह ॥ ४२ ॥ १३ ॥
साम्येस्थितंकफंवायुःक्षीणेपित्तेयदावली।
कत्कुर्यातदाशलंसशैत्यस्तम्भगौरवम् ॥ ४ ॥ जब पित्त क्षीण होजाताहै तो प्रकृतिस्य कफको बलवान् वायु जिस २ स्थानम लेजाताई उस २ अनमंशल, शीतता, स्तंभ, और भारीपनको करताहै ॥ ४४ ॥
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सूत्रस्थान-अ० १७.
(१९७) ... यदानिलंप्रकृतिगंपित्तकफपरिक्षये। : . . .
संरुणद्धितदादाहःशूलंचास्योपजायते ॥४५॥ ... ' कफके क्षय होनेसे प्रकृतिस्थ वायुके सूक्ष्म मार्गोंको जब पित्त रोकदेताहै तो इस 'मनुष्यके शरीरमें दाह और शूल होतेहैं ॥ ४२ ॥
__ श्लेष्माणहिसमंपियदावातपरिक्षये ॥
निपीडयेत्तदाकुर्यात्सतन्द्रागौरवंज्वरम् ॥ ४६ ॥ वायुके क्षय होनेपर प्रकृतिस्थ कफकी गतिको जव रोकदेताहै तब तन्द्रा, भारी: पन और ज्वर इनको उत्पन्न करताहै ॥ ४६ ॥
प्रवृद्धोहियदाश्लेष्मापित्तेक्षीणेसमीरणम् ।
रुन्ध्याचदाप्रकुर्वीतशीतकंगौरवंज्वरम् ॥ ४७॥ पित्तकी क्षीणतामें प्रकृतिस्थ वायुको जब कफ रोकदेताहै तब शीत लगना गौरव और ज्वर यह होतेहैं ।। ४७ ॥
समीरणेपरिक्षीणेकफपित्तंसमत्वगम् । कुर्वीतसन्निरुन्धानो: .
मृदाग्नित्वंशिरोग्रहम् ॥४८॥ निद्रांतन्द्रांप्रलापञ्चहृद्रोगंगात्र. गौरवम् । नखादीनाञ्चपीतत्वंष्ठीवनंकफपित्तयोः ॥४९॥
वायुके क्षय होनेपर यदि प्रकृतिस्थ पित्तको कफ रोकदेवे तो मंदाग्नि, शिरमें . पीडा, निद्रा, तन्द्रा, वकवाद, हृद्रोग, गौरव, नख नेत्र मूत्रमें पीलापन कफ और पित्तका मुखस थूकना यह लक्षण होतेहैं ॥४८॥ ४९ ॥
हीनवातस्यतकफपित्तेनसहितश्चरन् । करोत्यरोचकापाकौसदनंगौरवंतथा ॥५०॥ हृल्लासमास्यस्त्रवणयनंपाण्डुतांमदम् । विरेकस्यहिवैषम्यवैषम्यमनलस्यच ॥ ५१ ॥
जिस मनुष्यके शरीरमें वायुकी क्षीणता हो उसके शरीरमें कफ पित्तसे मिलकर '' विचरती हुई अरुचि, अंपाक, देहका रहनाना, गुरुता, हृल्लास, मुखस्राव, पांडु, वेदना, मद, मलकी विषमता और जठराग्निकी विषमताको करतीहै ॥ ५० ॥५१॥
क्षीणपित्तस्यतुश्लेष्मामारुतेनोपसंहितः। स्तम्भशैत्यंचतोदञ्चजनयत्यनवस्थितम् ॥ ५२॥ गौरवंमृदुतामग्नेभक्ताश्रद्धां प्रवेपनम् । नखादीनाञ्चशुक्लत्वंगात्रपारुष्यमेवच ॥ ५३ ॥
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(१९८)
चरकसंहिता-भा० टी । पित्तके क्षय होनेपर फफ-वायुसे मिलकर विचरताहुया स्तंभ, शीतता, तोद, गुरुता, मंदाग्नि, अन्नसे द्वेष, कंप, नखादिकोंमें श्वेतता तथा देहमें कठोरता करताहै ॥ १२ ॥५३॥
हीनेकफेमारुतस्तुपित्तंतुकुपितंद्वयम्। करोतियानिलिङ्गानिशणुतानिसमासतः ॥५४॥भ्रममुद्वेष्टनन्तोदंदाहंस्फोटनवेपनम् । अङ्गमर्दपरीशोषहृदयेधूपनंतथा ॥५५॥ . कफके क्षय होनेपर वायु और पित्तोंके मिलकर जो चिह्न होते हैं उनको भी संक्षे. बसें सनो । वह यह हैं-भ्रम, उद्वेष्टन, तोद, दाह,हड्डियोंका स्फोटन,कंपन,अंगमर्द, देहका शोष, हृदयमें धूवांसा उठना ॥५४ ॥५५॥
वातपित्तक्षयेश्लेष्मास्त्रोतांस्यभिधशम् ।
चेष्टाप्रणाशंमूछीञ्चवाक्सगचकरोतिहि ॥ ५६ ॥ वात पित्तके क्षय होनेपर कफ स्रोतोंको अच्छीतरहसे रोककर चेष्टांका नाश, मूळ, और वाणीका अवरोध करताहै ॥ ५६ ॥
श्लेग्मवातक्षयेपित्तंदेहौजःस्रंसयेद्यदा।
ग्लानिमिन्द्रियदौर्बल्यंतृष्णांमच्छक्रियाक्षयम् ॥ ५७ ॥ वात और कफके क्षय होने पर पित्त देहके ओजको विगाडकर ग्लानि, इंद्रिः । योंकी दुर्वलता, तृषा, मुर्छा और देहकी क्रियाका नाश करताहै ॥ १७ ॥
पित्तश्लेष्मक्षयवायुर्मर्माण्यातीनपीडयन् ।
प्रणाशयतिसंज्ञांचवेपयत्यथवानरम् ॥ ५८॥ जब पित्त और कफ क्षीण होजाते हैं तो वायु मर्मस्थानोंको पीडित करता हुआ संज्ञाका नाश करताहै अथवा कंप पैदा करताहै ॥ ५८ ॥
दोपाःप्रवृद्धाःस्वंलिड्दर्शयन्तियथावलम् ।
क्षीणाजहतिलिस्वंसमाःसङ्कमकुर्वते ॥ ५९॥ जब दोप वढ जातेहैं तो अपने २ लक्षणांको दिखातेहें। ऐसे ही क्षीण हुए दोष अपने चिदाको त्यागदेतेहैं । और साम्यावस्थाम स्थितंहुए दोष अपने योग्य कार्य करतेहैं ॥ ५९॥
वातादीनांरसादीनांमलानामोजसस्तथा ॥ क्षयस्तत्रानिलादीनामुक्तंसंक्षीणलक्षणम् ॥ ६॥
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• सूत्रस्थान - अ० १७..
( १९९ वातादि तीन दोष, रसादि सात धातु, मलसमूह और ओज इन सबका क्षय होता है । इनमें वातादि तीन दोषोंके क्षयके लक्षण कहे जाचुके हैं (अब रसादिकोंके कहते हैं ) ॥ ६० ॥
रसक्षयके लक्षण ।
घट्टतेसह ते शब्दनोच्चैद्रवतिदूयते । हृदयंताम्यतिस्वल्पचेष्टस्यापिरसक्षये ॥ ६१ ॥ परुषास्फुटिताम्लानात्वग्रक्षारक्तसंक्षये । मांसक्षयविशेषेणास्फग्ग्रीवोदरशुष्कता ॥ ६२ ॥
रसके क्षय होनेसे हडबडी, ऊंचा शब्द न सहाजाना, खड़े होनेकी ताकत न रहना, हौल होना, हृदयका धक २ करना, अल्प परिश्रम करनेसे भी मनकी व्याकुलता, नेत्रों के आगे अंधकार सा आजाना यह लक्षण होते हैं ॥ ६१ ॥ रक्त के क्षय होनेसे त्वचा कठोर फटीसी और रूखी हो जाती है । मांसके क्षय होनेसे कमर, गर्दन और उदर यह विशेषतासे सूख जावें ॥ ६२ ॥
भेदक्षीणके लक्षण |
सन्धीनां स्फुटनंग्लानिरक्ष्णोरायासएवच । लक्षणमेदसिक्षीणेतनुत्वंचोदरत्वचः ॥ ६३ ॥
मेदके क्षय होनेसे -संधियोंका स्फोटन, ग्लानि, नेत्रोंका निकलसा पडना, थकावट, और उदर तथा त्वचाका कुश होना यह लक्षण होतेहैं ॥ ६३ ॥
अस्थिक्षयके लक्षण |
केशलोमनखश्मश्रुद्विजप्रपतनंश्रमः ।
ज्ञेयमस्थिक्षये रूपसन्धिशैथिल्यमेवच ॥ ६४ ॥
अस्थियोंमें क्षीणता होनेसे केश, लोम, नख, डाढीमूछ और दांतोंका गिरना: और भ्रम तथा संधियोंमें शिथिलता, यह लक्षणं होते हैं ॥ ६४ ॥
मज्जाक्षीणके लक्षण |
शीर्य्यन्तइव चास्थीनि दुर्बलानिलघूनिच ।
प्रततवातरोगीचक्षीणमज्जनिदेहिनाम् ॥ ६५ ॥
मज्जा के क्षय होनेसे हड्डियों का गिरपडना सा प्रतीत होना और दुर्बल तथा हलकी हो जाना, और सदैव शरीरमें वातव्याधिका रहना यह लक्षण होते हैं ॥ ६५ ॥
क्षीणशुक्र के लक्षण | दौर्बल्यंमुखशोषश्च पाण्डुत्वंसदनंक्लमः । क्लैव्यं शुक्रा विसर्गश्चक्षीणशुक्रस्यलक्षणम् ॥ ६६ ॥
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(२००)
चरकसंहिता-भा. टी. वीर्य क्षय होनेसे दुर्वलता, मुखका सुखना, शरीरका पीला पडजाना,अंगोंका रहनाना, क्लम, नपुंसकता, और वीर्यका न आना यह लक्षण होतेहैं ॥ ६६ ॥
विष्टाक्षयके लक्षण । क्षीणेशकृतिचान्त्राणिपीडयन्निवमारुतः।
रूक्षस्योन्नमयन्कुक्षितिर्यगूर्द्धश्चगच्छति ॥६७॥ मलके क्षय होनेसे वायु आतोंको पीडन करताहै ऐसा प्रतीत होताहै । और इसी कारण उस रूक्ष मनुष्यके शरीरमें वायु कूखको ऊंची तिरछी करता हुआ उपरको गमन करताहै ॥ ६७ ॥
मूवक्षीणका लक्षण । मूत्रक्षयेमूत्रकृच्छ्रमूत्रवैवर्ण्यमेवच ।
पिपासावाधतेचास्यमुखञ्चपरिशुष्यति ॥ ६८ ॥ मूत्रके क्षय होनेसे मूत्रकृच्छ्, मूत्रकी विवर्णता, प्यास, मुखशोष, यह लक्षण होतेहैं ॥ ६८॥
मलक्षीणके लक्षण । मलायनानिचान्यानिशन्यानिचलघूनिच ।
विशुष्काणिचलक्ष्यन्तेयथास्वंमलसंक्षये ॥ ६९ ॥ अन्यरमलमागोंके मलहीन होनेसे वह मार्ग शून्यतायुक्त तथा हलके और सूखेसे प्रतीत होतेहैं ॥ ६ ॥
क्षीण ओजका लक्षण । विभेतिदुर्वलोऽभीक्ष्णंध्यायतिव्यथितेन्द्रियः ।
दुच्छायोदुर्मनारूक्षःक्षामश्चैवौजसःक्षये ॥ ७०॥ ओजके क्षय होनेसे मनुष्य भयभीत, दुर्वल, निरंतर चिंतायुक्त, विकलेंद्रिय, कांतिगहत, रूक्ष और कृश होजातोह ॥ ७० ॥
__ ओजलक्षण । हदितिष्टतियच्छुद्धरतमीपत्सपतिकम् ।
ओजःशरीरसंख्यातंतनाशान्नाविनश्यति ॥ ७१ ॥ जो शुद्ध रक्त किंचित् पीतता लिये हृदयमें रहताहै शरीरम उसको ओज कह तर, उस ओजक नाश होने से मनुष्य भी नाशको प्राप्त होताहै ॥ ७१॥
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सूत्रस्थान-अ० १७.
(२०१) - क्षयके कारण। . व्यायामोऽनशनचिन्तारूक्षाल्पप्रमिताशनम् । . वातातपौभयंशोकोरूक्षपानप्रजागरः॥७२॥ कफशोणितशुक्राणांमलानांचातिवर्तनम् ।
कासोभतोपघातश्चज्ञातव्या:क्षयहेतवः॥ ७३ ॥ अतिव्यायाम, भूखे रहना, चिंता, रूक्ष और थोडा भोजन करना, वायु और धूपका सहना, भय, शोक, रूक्ष वस्तुओंका सेवन, बहुत जागना कफ और रक्त तथा वीर्यका अत्यंत निकलना, या निकालना, खाँसी और भूतवाधा यह सब क्षय होनेके कारण हैं ।। ७२ ॥ ७३ ॥
मधुमेहके कारण। गुरुस्निग्धाम्ललवणभजतामातमात्रशः। नवमन्नंचपानंचनिद्रामास्यासुखानिच ॥७४ ॥ त्यक्तव्यायामचिन्तानांसंशोधनमकुर्वताम् । श्लेष्मापित्तश्चमेदश्चमांसंचातिप्रवर्द्धते ॥७५ ॥ . . तैरावृतःप्रसादहिगृहीत्वायातिमारुतः। यदाबस्तितदाकृच्छो मधुमेहःप्रवर्त्तते ॥ ७६ ॥ भारी,चिकने,खट्टे,और नमकीन पदार्थोंके अधिक सेवनसे, नवीन अन्नके खानेसे, वहुत जल अथवा मद्यके पीनेसे, बहुत सानेसे,बहुत सुखपूर्वक बैठे रहनेसे, कसरतके न करनेसे, बेफिकर रहनेसे, संशोधन कम करनेसे कफ, पित्त,मेद और मांस बहुत वढजातेहैं । फिर वायु उनसे आवृत हो ओज (सबधातुओंके परम प्रसाद लेकर जब वस्तिस्थानमें प्राप्त होताहै तब दुःसाध्य मधुमेह उत्पन्न होजाताहै ॥७४।७५॥७६॥
समारुतस्यपित्तस्यकफस्यचमुहुर्मुहुः ।
दर्शयत्यारुतिरुत्वाक्षयमाप्याय्यतेपुनः ॥७७॥ वह मधुमेह पहले वात पित्त और कफके लक्षणोंको वारंवार दिखाताहै फिर क्षयको उत्पन्न करदेताहै ॥ ७७॥
प्रमेहपिडिकाओंका वर्णन । उपेक्षयास्यजायन्तोपडकाःसप्तदारुणामांसलेष्ववकाशेषुममस्वपिचसन्धिषु ॥ ७८ ॥ शराधिकाकच्छपिकाजालिनी सर्पपीतथा । अलजीविनताख्याचविद्रधीचेतिसप्तमी॥ ७९ ॥
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(२०२)
चरकसंहिता-मा० टी०। मधुमेहकी उपक्षासे सात प्रकारको दारुण पिढका मांसवाले स्थानोंमें, मर्मस्था: नमें, संधिस्थानमं, उत्पन्न होतीहैं। उनक-शराविका, कच्छपिका, जालनी, सर्षपी, अलजी, विनता, विद्रधि, यह सात नाम हैं ॥ ८ ॥७९॥
शराविका लक्षण । अन्तोन्नतामध्यनिम्नाश्यावाक्लेदरुजान्विता। शराविकास्यात्पिडकाशरावाकृतिसंस्थिता ॥८॥ जो पिडका ऊंचे किनारोंवाली हो मध्यमेंसे नीची हो स्राव केद और पीडा युक्त हो तथा शरावके आकारकी हो उसको शराविका कहतेहैं ॥ ८०॥
कच्छपिका लक्षण । अवगाढातिनिस्तोदामहावास्तुपारग्रहा।।
श्लक्ष्णाकच्छपपृष्ठाभापिडकाकच्छपीमता॥ ८१ ॥ जिसमें कडापन हो, भेदनकी सी पीडा होतीहो, गंभीर हो,जो अनेक स्थानोंमें व्यापक हो, जिसका ऊपरका भाग चिकना और कछुवेकी पीठके समान हो उसको कच्छपिका कहतेहे ॥ ८१॥
जालनी लक्षण । स्तब्धाशिराजालवतीस्निग्धस्त्रावामहाशया।
रुजानिस्तोदवहुलासूक्ष्मच्छिद्राचजालिनी ॥ ८२॥ जो पिडकः चौडीसी हो, उसपर नसोंका जालसा दिखाई देताहो, उसमेंसे चिकना २साव होताहो, अधिक दूर तक व्याप्त हो जिसमें अत्यंत पीडा हो, भेदनकी सी पीडा हो, छोटे २ बहुतसे छिद्र हों उसको जालनी कहतेहे ॥ ८२ ।।
सर्पपिका लक्षण। पिडकानातिमहतीक्षिप्रपाकामहारुजा।
सर्पपीतर्षपाभाभिःपिडकाभिश्चिताभवेत् ॥ ८३॥ जो पिडका बडी न हो, और शीघ्र पकजावे, उसमें पीडा बहुत हो, ससोंके. समान हो, खुजलीयुक्त हो उसको सर्वपिका कहतेहैं ।। ८३ ॥
अलजी लक्षण। दहतित्वमुत्यानेतृष्णामोहज्वरप्रदा। विसर्पत्यनिशंदुःखादहत्यग्निरिवालजी॥ ८ ॥
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सूत्रस्थान - अ० १७.
( २०३ )
जो उत्पन्न होते ही में दाहकरे प्यास, मोह और ज्वर करे, निरंतर अनिके समान दाद करती हुई फैले उसको अलजी कहते हैं ॥ ८४ ॥ ..
विनता लक्षण |
अवगाढरुजाक्लेदा पृष्ठेवाप्युदरेपिवा । महतीविनतार्नाला पिडकाविनतामता ॥ ८५ ॥ विद्रधिद्विविधामा हुर्बाह्यामाभ्यंन्तरीतथा ॥ बाह्यात्व स्नायुमांसोत्थाकण्डरा भामहारुजाः ॥ ८६ ॥ जिस पिडकामें करडापन हो, पीडा अधिक हो, क्लेद अधिक हो, पीठ अथवा पेट पर प्रगट हुईहो, जो बडी हो, दबानेमें नरम हो, नीले रंगकी हो उसको विनता कहते हैं ॥ ८५ ॥ विद्रधी दो प्रकारकी होती है एक बाहरी दूसरी भीतरी । वाह्य विद्रधि- त्वचा, स्नायु और मांसमें प्रगट होती है यह देखने में मोटी नसके समान होती है और इसमें पीड़ा अधिक होती है ॥ ८६ ॥ विद्रधिके लक्षण |
शीतकान्नविदाद्युष्णरूक्षशुष्कातिभाजनात् । विरुद्वाजर्णिसंक्लिष्टविषमासात्म्य भोजनात्। व्यापन्नवहुमद्यत्वाद्वेगसंन्धारणाच्छ्रमात् ॥ ८७॥ जिह्मव्यायामशयनादतिभाराध्वमैथुनात् । अन्तःशरीरे मांसासूगांविशन्तियदामलाः ॥८८॥ तदासञ्जायते ग्रन्थिर्गम्भीरस्थः सुदारुणः । हृदयेक्लोम्नियकृतिप्लीह्निकुक्षौ चवृक्कयोः ॥८९॥ नाभ्यांवंक्षणयोर्वापिवस्तवातत्रिवेदनः । दुष्टरक्तातिमात्रत्वात्सवैशधिंविदह्यते ॥ ९० ॥ ततः शीघ्रविदाहित्वाद्विद्रधीत्यभिधीयते ॥ ९१ ॥
शीतल अन्न, विदाही, रूक्ष, सूखे पदार्थों के खानेसे, अत्यंत भोजन करनेसे, विरुद्ध भोजन, अजीर्णकर्ता पदार्थ, सडे वासे पदार्थ, विषम भोजन, असात्म्य भोजन, तथा दूषित भोजनके सेवनसे, अधिक मद्य पीनेसे, वेगोंको रोकनेसे, श्रमसे, शरीरको विषमता से रखने से, व्यायामकी अधिकतासे, अतिसोनेसे, भार उठानेसे, अति मार्ग. चलने और अति मैथुनते दूषित मल जब शरीरके भीतर मांस और रक्तमें प्रवेश करते हैं तो शरीर के भीतर गंभीर और दारुण ग्रंथिको पैदा करदेते हैं । वह ग्रंथि (गांठ) - हृदय, क्रोम, यकृत, प्लीहा, कुक्षि, दोनों वृक्क, नाभी, वंक्षण अथवा वस्तिमें तीव्र वेदनायुक्त होती है । वह गांठ दुष्टरुधिरकी अधिकता के कारण दाह:
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दहन कियाजायत्त पीडा होती है तो यह कफकी विद्वाना), अरुचि, स्तम
(२०४)
चरकसंहिता-भा० टी०। पूर्वक शीघ्र पाकको प्राप्त होती है । इसलिये वही विदाही होनेसे विद्रधि कही जातीहै ॥ ८७-९१॥
व्यवच्छेदभ्रमानाहशब्दस्फुरणसर्पणः । वातिकीपत्तिकी तृष्णादाहमोहमदज्वरैः । जुम्भोक्लेशारुचिस्तम्भशीतकैः श्लैष्मिकीविदुः ॥ ९२ ॥ सर्वात्वासुमहच्छूलंविद्रधीषूपजायते । ततःशस्वैर्यथामथ्येतोल्मुकरिवदह्यते । विद्रधीव्यम्लतांयातावृश्चिकैरिवदश्यते ॥ ९३ ॥ वेधने और छेदनेकी सी पीडा, भ्रम, अफारा, शब्द, फडकना, सरसराहट, यह लक्षण वातकी विद्रधिमें होते हैं । प्यास, दाह, मोह, मद, तथा ज्वर यह पित्तकी विद्रधिम होतेहैं । जंभाई, उत्क्लेश (वमनको जी चाहना), अरुचि, स्तंभ, इनका होना तया विद्रधिका शीतल होना यह कफकी विद्रधिमें होतेहैं। इन सब प्रकारकी विद्रधियाम अत्यंत पीडा होतीहै । जैसे तपेहुए शस्त्रसे मथाजाय अथवा अंगारसे दहन कियाजाय ऐसा प्रतीत होताहै । जब विद्राधे परिपाकको प्राप्त होती है तो विच्छूके काटनेकी सी पीडा होताहै ॥ ९२ ॥ ९३ ॥
तनुरूक्षारुणस्रावफेनिलंवातविद्रधी । तिलमापकुलत्थोदसनिभपित्तविद्रधी ॥ ९४ ॥ श्लैष्मिकीस्रवतिश्वेतंवहुलंपिच्छिलंबहु । लक्षणंसर्वमेवैतद्भजतेसान्निपातिकी ॥९५ ॥ वातकी विद्रधि अल्प, रूखा, लाल, झागदार स्राव होताहै । पित्तकी विद्र धिमें तिल, उडद, अथवा कुलथीके काथकी समान स्राव होता है । कफकी विद्रधिमं-त, पिच्छिल,बहुत और गाढा स्राव होताहै । सन्निपातकी विद्रधिम तीनों दोपीके लक्षण होतेहैं ।। ९४ ॥ ९५ ॥
स्थानभेदसे विद्रधिलक्षण । अथासांविद्रधीनांसाध्यासाध्यविशेषज्ञानार्थस्थानकतंलिङ्गादिशेपमुपदेक्ष्यामः। तत्रप्रधानमर्मजायांविद्रध्याहृनतमकप्रमोहकासालोमजायांपिपासामुखशोपगलग्रहाः । यकृजायां श्वासः । प्लीहजायामुच्छासोपरोधः।कुक्षिजायांकुक्षिपार्थान्तरांसगुलम् । वृकजायांपाश्वपृष्टकटिग्रहः नाभिजायांहिका वंक्षणजायां सक्थिसादावस्तिजायांकृच्छूमत्रपतिवर्चस्त्वंचेति९६
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कीसी दुर्गन्धलाई । वस्तिस्थान में किन होने से हडियोंमें पाडापाडा होतीहै । नाभि
. . सूत्रस्थान-अ० १७. (२०६) अब हम इ विद्रधियोंके साध्यासाध्य विशेष ज्ञानके लिये स्थानभेदसे लक्षणोंको कहतेहैं । इनमें प्रधान मर्म (हृदय) में विद्रधि हो तो हृदयका घबडाना, तमकश्वास, बेहोशी, खांसी, यह उपद्रव होतेहैं । लोमस्थानमें विद्रधि हो तो-प्यास लगना, मुखका सूखना, गलेका रुकना, यह लक्षण होतेहैं । यकृतमें विद्रधि हो तो श्वास होताहै । प्लीहामें विद्रधि होनेसे श्वास रुक जाताहै । कुक्षिमें विद्रधि हो तो कूख, पसवाडा, और पीठका वांस तथा इनके भीतरी अंशमें पीडा होती है। वृक्त स्थानमें विद्रधि होनेसे पसवाडा, पीठ और कमरमें पीडा होतीहै । नाभिमें होनेसे हिचकी होती हैं । वंक्षणस्थानमें होनेसे हड्डियोंमें पीडा और टांगोंका रहजाना यह लक्षण होतेहैं । वस्तिस्थानमें विद्राधि होनेसे मूत्रकृच्छू, और मलमूत्रका राधकीसी दुर्गन्धयुक्त आना यह लक्षण होतेहैं ॥ ९६॥
पक्कामभिन्नासुऊर्द्धजासुमुखालावःस्रवति ।
अधोजासुगुदात्,उभयतस्तुनाभिजायाम् ॥ ९७ ॥ नाभिसे ऊपरके स्थानोंमें हुई अन्तर्विद्रधि जव पककर फूटती है तो मुखद्वारा नाक. निकलताहै । नाभिसे नीचेके भागोंमें अन्तर्विद्रधि पककर फूटे तो गुदाद्वारा स्राव होताहै । नाभिमें हुई अंतर्विद्रधि फूटे तो मुख और गुदा दोनों द्वारा स्राव होताहै ॥ ९७ ॥
तासांहृन्नाभिबस्तिजाः परिपक्काः सान्निपातिकीचमरणाय । अवशिष्टाःपुनः कुशलमाशुप्रतिकारिणचिकित्सकमासाद्योपशाम्यन्ति । तस्मादचिरोत्थितांविद्रधींशस्त्रसर्पविद्युदग्नितुल्यां स्नेहस्वदविरेचनश्चोपकामेत् । सर्वशोगुल्मवचति ॥९८॥ इन सव स्थानोंकी विद्रधियोंमें हृदय, नाभि, और वस्तिस्थानकी विद्रधि तथा सन्निपातकी विद्रधि मनुष्यकी मृत्युको करनेवाली होती है और अन्य विद्रधियां शीघ्र यत्न करनेवाले कुशल वैद्यसे शीघ्र यत्न करानेसे शांत होसकतीहै । इसलिये शस्त्र, साँप, विद्युत, अग्निके, समान, प्राण हरनेवाली विद्रधिका, विद्रधि होते ही स्नेहन, स्वेदन, विरेचन द्वारा शीघ्र यत्न करे । संपूर्ण अंतविधियों में गुल्मरोगकी समान चिकित्सा करे ।। ९८ ॥ .
प्रमेहके विना भी इन पीडिकाओंकी उत्पत्ति । . भवंतिचात्र । विनाप्रमेहमप्येताजायन्तेदुष्टमेदसः । तावच्चैतानलक्ष्यन्तेयावद्वस्तुपरिग्रहः ॥ ९९ ॥ : .. .
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(२०६)
चरकसंहिता-भा० टी। और यहां यह भी कहा जाताहै कि प्रमेहके बिना भी मेदके दूषित होनेसे यह विद्रधिय उत्पन्न होजाती है। जब तक यह विद्रधियां जड नहीं वांधलेती अर्थात् अपना नमाव नहीं करलेती तब तक पहिचानी नहीं जासकतीं ॥ ९९ ॥
शराविकाकच्छपिकाजालिनीचेतिदुसहाः। .
जायन्तेताह्यतिवला:प्रभूतश्लेष्ममदसाम् ॥ १० ॥ शरांविका, कच्छपिका और जालनी, यह तीन प्रकारको पिडका अतिनुःसह होतीहैं और कफप्रकृति तथा मेदस्वी शरीरमें यह पिडका अतिवलपूर्वक होतीहैं१००
सर्पपीचालजीचैवविनताविद्रधीचयाः।
सद्यःपित्तोल्वगास्ताहिसम्भवन्त्यल्पमेदसाम् ॥ १०१ ॥ सर्षपी, अलनी, और विनता, तथा बाह्य विद्रधि यह पिडका पित्तप्रधान होती हैं और साध्य हैं, तथा अल्पमेदवाले शरीरमें होतीहैं ॥ १०१ ॥
इनकी साध्यासाध्यता। मर्मस्वंसेगुदेपाल्योःस्तनेसन्धिषुपादयोः । जायन्तेयस्यपि. डकाःसप्रमेहीनजीवति॥१०२॥तथान्याःपिडकाःसन्तिरक्तपीतासितारुणाः। पाण्डुराःपाण्डुवर्णाश्चभस्माभामेचकप्रभाः १०३॥ - मृदयश्चकठिनाश्चान्या:स्थूलाःसूक्ष्मास्तथापराः। मन्दवेगामहावगाःस्वल्पशूलामहारुजाः ॥ १०४ ॥ जिस प्रमेहपीडित मनुष्पके मर्मस्थान, कंधा, गुदा, पाली, स्तन, संधि और पैरामें पिडका होनावे उसकी अवश्य मृत्यु होती है ॥ १०२ ॥ इनके सिवाय अन्य पिडका (फोडे) भी अनेक प्रकारकी होतीहैं । वह पिडका-पीली, लाल, सफेद, किंचित् लाल, भूरी, पाण्डुरङ्गकी, भस्मके रङ्गकी, मेचकके रंगकी, कोई नरम, कोई कठोर, कोई छोटी, कोई वडी, कोई मंदवेगवाली, कोई शीघ्र वेगवाली, कोई अल्प पीडावाली, कोई महापीडावाली होती है ।। १०३ ॥ १०४ ॥
ताबुद्धामारुतादीनांयथाखेहतुलक्षणैः ॥
बृयादुपाचरेच्चाशुप्रागुपद्रवदर्शनात् ॥ १०५॥ उन पिरकायाको वातादिकांके हेतु लक्षगांद्वारा जानकर वातज, पित्तज, कफज, सन्निपातन, जो हो सो करें और उत्पन्न होते ही उपद्रव वढनेसे पहले यत्न करे ॥ १०५॥
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सूत्रस्थान - अ० १७.
पिडिकाओंके उपद्रव |
तृश्वास मांससंकोथमोहहिकामदज्वराः । वीसर्पमन्दसंरोधाः पिडकानामुपद्रवाः ॥ १०६ ॥
प्यास, श्वास, मांसका पचना, मोह, हिचकी, मद, ज्वर, विसर्प, हृदयका रुकासा होना, यह पिडकाओं के उपद्रव होते हैं ।। १०६ ॥
दोषोंकी त्रिविध गति ।
क्षयः स्थानंच वृद्धिश्च दोषाणांत्रिविधागतिः । ऊर्ध्वञ्चाषश्चतिक्चविज्ञेयात्रिविधापरा ॥ १०७ ॥ त्रिविधाचापराकोष्ठशाखामर्मास्थिसन्धिषु । इत्युक्ताविधिभेदेन दोषाणां त्रिविधा गतिः ॥ १०८ ॥
क्षीण होजाना, साम्यावस्थामें रहना, और बढजाना, दोषों ( वातपित्तकफ ) की यह तीन प्रकारकी गति होती हैं । ऐसे ही ऊर्ध्वगमन, अधोगमन, तिर्यक् गमन, एक यह गति हैं । इनसे सिवाय कोष्ठगति, शाखा ( रक्तादि ) गति, और मर्म, अस्थि, संधिमें गति, यह अन्य तीन प्रकारकी गति हैं । इस प्रकार वातादि दोषोंकी विधिभेदसे तीन प्रकारकी तीन गतियां हैं ॥ १०७ ॥ १०८ ॥ दोष का चयकोपोपशम । चयप्रकोपप्रशमाः पित्तादिनिांयथाक्रमम् । भवन्त्येकैकशः षट्सु कालेष्वागमादिषु ॥ १०९ ॥
वर्षा आदि छः ऋतुओंमें क्रमपूर्वक पित्त, कफ और वात इनमें एक २ के संचय प्रकोप और उपशम होते हैं । अर्थात् वर्षांमें पित्तका संचय, शरदमें कोप, हेमंतमें शमन, शिशिर में कफका संचय, वसन्तमें कोप, ग्रीष्म में शांति, एवं ग्रीष्ममें वायुका संचय, वर्षांमें कोप, और शरदमें उपशम होता है ॥ १०९ ॥ गतिः कालकृताचैषाचयाद्यापुनरुच्यते ।
गतिश्चद्विविषादृष्टाप्राकृतावैकृताचया ॥ ११० ॥
यह वय आदि गति अर्थात दोषों का संचय, प्रकोप, उपशम यह त्रिविध गति कालकृत कही जाती है । वह कालकृत गति भी प्राकृत और बैकृत भेदसे दो प्रकारकी है ॥ ११० ॥
पित्ताढपूष्मोष्मणः पक्तिर्नराणामुपजायते । तच्चपित्तंप्रकुपितंविकारान्कुरुते बहून् ॥ १११ ॥
( २०७ ):
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( २०८. )
चरकसंहिता - भा० टी० ।
प्राकृत अर्थात् प्रकृतिस्थ पित्तकी गर्मी से मनुष्य के अन्नका यथोचित परिपाक होता है, और विकारको प्राप्तहुआ पित्त अनेक रोगोंको उत्पन्न करता है ॥ १११ ॥ प्राकृतस्तुवलंश्लेष्माविकृतोमलउच्यते ।
सचैवौजःस्मृतः कायेसचपाप्मोपदिश्यते ॥ ११२ ॥
प्रकृतिस्थ अर्थात् ठीक स्वभावमें स्थित हुआ कफ शरीरमें वल और भोज कहा जाता । और वही कफ विकृत होनेसे मल (दोष) और पाप कहा जाता है ११२ ॥ सर्वाहिचेष्टात्रातेनसप्राणः प्राणिनांस्मृतः ।
तेनैव रोगाजायन्ते तेन चैवापरुध्यते ॥ ११३ ॥
प्रकृतिस्थ वायुसे ही शरीरियोंके शरीरकी सब प्रकारकी चेष्टा होती हैं और यह वायु ही प्राणियोंका प्राण कहा जाता है । यदि यह वायु विकृत होजाय तो इसीसे अनेक रोग उत्पन्न होते हैं और यही प्राणोंका अवरोध करता है ॥ ११३ ॥
नित्यं सन्निहितामित्रसमीक्ष्यात्मानमात्मवान् । नित्यंयुक्तःपरिचरेद्विच्छिन्नायुरभित्वरम् ॥ ११४ ॥
क्योंकि रोगरूपी शत्रु सदैव मनुष्योंके निकट रहते हैं इसलिये बुद्धिमान् मनुष्य उचितानुचितको देखता हुआ आयुकी रक्षामें नित्य यत्नवान् रहे ॥ ११४ ॥ अध्यायका संक्षिप्त वर्णन । तत्र श्लोक |
शिरोरोगाः सहृद्रोगारोगामानविकल्पजाः । क्षयाः सपिडकाश्रोक्तादापाणां गतिरेवच ॥ ११५ ॥ कियन्तः शिरसीयेऽस्मिन्नध्यायेतत्त्वदर्शिना। ज्ञानार्थभिषजाञ्चैवप्रजानाञ्च हितैषिणा॥ ११६ ॥ इति रोगचतुष्के कियन्तः शिरसीयोनाम सप्तदशोऽध्यायः समाप्तः ।
यहां अध्यायको समाप्तिमें श्लोकहें कि इस 'कियन्तः शिरसोय' अध्यायमं- शिरोरोग. हृद्रोग, रोगोंका मानभेद, क्षयांक प्रकार, पिडकाओंके भेद, दोषांकी गति यह नव वैद्यलोगोंके ज्ञानके लिये और प्रजाके हितके लिये भगवान् आत्रेयजीन वर्णन किया ॥ ११५ ॥ ११६ ॥
इति श्रीमहर्षिचरक मंत्ररामप्रसाद भाषाटीकायां कियन्तः शिरसीया नाम दशोऽध्यायः ॥ १७ ॥
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(२०९)
सूत्रस्थान-अ०.१८ अष्टादशोऽध्यायः।
अथातस्त्रिशोफीयमध्यायंव्याख्यास्यामइतिहस्माहभगवानात्रेयः। अब हम त्रिशोफीय अध्यायकी व्याख्या करतहैं ऐसा भगवान् आत्रेयजी कहनेलगे।
सूजनोंके भेद तथा वातादिजन्य लक्षण । त्रयःशोथाभवन्ति । वातपित्तश्लेष्मनिमित्ताः।
तेपुनर्द्विविधाः निजागन्तुभेदेन। शोथ (सूजन) तीन प्रकारका होताहै । एक वातका, दूसरा पित्तका, तीसरा कफका । वह भी फिर दो प्रकारका होताहै एक निज, दूसरा आगंतुक ।
आंगतुज शोथके हेतु लक्षण। तत्रागन्तवा छेदनभेदनक्षणनभञ्जनपिच्छनोत्पेषणप्रहारवधबन्धनवेष्टनव्यधनपीडनादिभिर्वा। भल्लातकपुष्पफलरसात्मगुप्ताशूकक्रिमिशूकाहितपत्रलतागुल्मसंस्पर्शनेवास्वेदनपरिसर्पणावमूत्रणेविषिणाम् । सविषाविषप्राणिदंष्ट्रादन्तविषाणनखनिपातैर्वा । सगरविषवातहिमदहनसस्पर्शनैर्वाशोथा: समुपजायन्ते। तेयथास्वहेतुजैर्व्यञ्जनैरादावुपलभ्यन्ते। निजव्यञ्जनैकदेशविपरीतैः व्रणबन्धमन्त्रागदप्रलेपप्रवातनिर्वापणादिभिश्चोपक्रमैरुपक्रम्यमाणाःप्रशान्तिमापंद्यन्ते ॥१॥ उनमें आगंतुक शोथ-छेदन, भेदन, क्षणन (घसीट लगना), भजन, पिच्छन (दवना), उत्पेषण, प्रहार, वध, बंधन, वेष्टन, व्यधन और पीडन आदिसे उत्पन्न होताहै । अथवा भिलावेके फूल, फल, रस, कौंचको फली, शुकविशेष, कृमियोंसे वा अन्य विषैले पत्र, लवा, गुल्म आदिके स्पर्श, स्वेद, परिसर्पण, वामूत्र आदिसे अथवा विषवाले वा विना विषवाले प्राणियोंके दांत, सींग, नख, आदि लगनेसे अथवा गर, विष, पवन, हिम और अमिके लगनेसे जो शोथ ( सूजन ) होताहै उसको आगंतुक शोथ कहतेहैं । वह आगंतुक शोथ अपने कारण और लक्षणोंसे प्रथम ही जाना जासकता है, क्योंकि यह शोथ निज कारणोंसे विपरीत अर्थात् बाहरी कारणोंसे प्रगट होताहै । व्रणबंधन, मंत्र, अगद, प्रलेप, सेक और निर्वापण आदि चिकित्सा द्वारा आगंतुज शोथ शांत होजाताहै ॥ १॥
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(२१०) चरकसंहिता-भा० टी०।
निजशोथ लक्षण। निजास्तुपुनः स्नेहस्वेदनवमनविरेचनास्थापनानुवासनशिरोविरेचनानामयथावत्प्रयोगान्मिथ्यासंसर्जनाद्वा । छर्यलसक. विसूचिकाश्वासकासातीसारशोषपाण्डुरोगज्वरोदरप्रदरभगन्दराशेविकारातिकर्षणैर्वा । कुष्ठकण्डूपिडकादिभिर्वाछर्दिक्षवथद्वारशुक्रवातमूत्रपुरीपवेगधारणैर्वाचर्मरोगोपवासकर्षितस्यवा। सहसातिगुर्वम्ललवणपिष्टानफलशाकरागदधिहरीतकमद्यमन्दकविरूढयावशूकशमीधान्यानूपौदकपिशितोपयोगान्मृत्पंकलोष्ट्रभक्षणाल्लवणातिभक्षणाद्वागर्भसम्पीडनादामगर्भप्रपतनात्प्रजातानाञ्चमिथ्योपचारादुदीर्णदोषत्वाच्छोथाःप्रादुर्भवन्ति । इत्युक्तःसामान्यो हेतुः ॥२॥ निज शोथ, वमन, विरेचन,आस्थापन,अनुवासन और शिरोविरेचनके अनुचित प्रयोगसे अथवा इनमें कुपथ्यादि होनेसे उत्पन्न होताहै । ऐसे हीः वमन, अलसक, विसूचिका, श्वास, खांसी, अतिसार, शोष, पांड, उदररोग, प्रदर, भगंदर, अर्श, इनके कारणसे क्षीणहुए पुरुषों के भी शोथ उत्पन्न होजाताहै। एवं कुष्ठ,खाज, पिडका आदिने अथवा वमन, छींक, डकार, शुक्र,अधोवात,मल और मूत्रके वेगके धारणसे और चर्मरोग तथा उपवाससे कृश हुए मनुष्पके भी शोय उत्पन्न होजाताहै । और एकाएकी बहुत भारी, खट्टे, नमकीन, पिष्टपदार्थ, फल, शाक, राग, दही, हरित, मद्य, मंदक, अंकुर आयेहुए धान्प,शुकधान्य, शमीधान्य, अनूपसंचारी और जलचाग जीवोंके बहुत मांस खानसे । मट्टी, कीच और रोडके खानेस। अधिक नमक बानो । गर्भके पीडन या पात होनेसे अथवा प्रसूतकालमें मिथ्या उपचार होनेसे। या उखडे हुए दोषीको रोक लेनेसे शोय उत्पन्न होताहै । यह शोथके सामान्य कारण कहे गयेहे ॥२॥
__ वातजशोथ। अयंत्वत्र विशेषः । शीतरुक्षलघुविपदश्रमोपवासातिकर्पणक्षेपणादिभियुःप्रकुपितःत्वङ्मांसशोगितादीन्यभिभूयशोथअनयति । लक्षिप्रोत्थापनप्रशमोभवति । श्यावारुणवर्णः प्रकृतिवांवाचलास्पन्दनःखरपरुपभिन्नत्वग्लोमाच्छिद्यतइव
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सूत्रस्थान अ० १४... (२११) भिद्यतइवपीड्यतइवसूचीभिरिवतुद्यतेपिपीलिकाभिरिवसंसप्यतेसर्षपकल्कालिप्तइवचिमिचिमायतेसंकुच्यतेआयम्यतेइतिवातशोथः ॥३॥
. शोथके विशेष कारण यह हैं कि शीतल, रूक्ष, हलके, और विशद पदार्थके अधिक सेवनसे,परिश्रम और उपवासके कारण कृश होनेसे और आक्षेपण आदिसे वायु कुपित होकर त्वचा, मांस, रक्तादिकमें प्राप्त हो शोथको उत्पन्न करदेताहै। वह वातजन्य शोथ शीघ्र प्रगट और शीघ्र ही शांत होजाताहै । वह काला, लाल तथा रूक्षवर्ण होताहै,इधर उधर चलनेवाला होताहै और फडकताहै। इसमें त्वचा,लोम: कडे खरदरे तथा फटेसे होतेहैं । और छेदने, भेदने,पीडन करने तथा सई चुभोनेके समान पीडा होतीहै । इस शोथमें कीडियोंके चलनेके समान प्रतीत होताहै और सर्षप पीसकर लेपकरनेसे जैसी चरचराहट लगतीहै यह शोथ कभी कम होजातीहै कभी फैलजातीहै । यह सव लक्षण वातके सूजनके हैं ॥ ३ ॥ .
पित्तनशोथ। . : उष्णतीक्ष्णकटुकक्षारलवणाम्लाकीर्णभोजनैरग्यातपप्रतापैश्च.
पित्तंप्रकुपितंत्वङ्मांसशोणितान्यभिभूयशोथञ्जनयति ।साक्ष- . प्रोत्थानप्रशमोभवति । कृष्णपीतनीलताम्रकावभासउष्णो , मृदुःकपिलताम्रलोमाउष्यतेयतेधूप्यतेऊष्मायतस्विद्यतक्लि- : यतेनचस्पर्शमुष्णंवासुष्यतेइंतिपित्तशोथः ॥ ४॥ . उष्ण, तीक्ष्ण, कटु, क्षार, नमकीन और अजीर्णकारक पदार्थोके खानेसे,अनि, धूप और संतापके सहनेसे पित्त कुपित होकर त्वचा,मांस,रक्त आदिको विमाडकर सूजन प्रगट करताहै । यह शीघ्र ही उत्पन्न होजाता और शांत होजाताहै। और यह काले,पीले,नीले और तामेके वर्णका होताहै । तथा स्पर्शमें उष्ण और नम्र होताहै। लोम भूरे और ताम्रवर्णके प्रतीत होतेहैं । इसमें दाह और पीडा अधिक होतीहै, धूआंसा उठताहै अग्निके समान गर्म मालूम हो, पसीना आवे, क्लेद निकलांगरम वस्तु छू ही न जाय । यह पित्तशोथके लक्षण हैं ॥ ४॥ .
कफजशोथ । . . . गुरुमधुरशीतस्निग्धैरतिस्वप्नव्यायामादिभिश्चश्लेष्माप्रकुपितः त्वङ्मांसशोणितादीन्यभिभूयशोथञ्जनयति । स कच्छ्रोत्था
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( २१२ )
चरकसंहिता - भा० टी० ।
,
नप्रशमोभवति। पाण्डुःश्वेतावभासः स्निग्धः श्लक्ष्णः गुरुः स्थिरः स्त्यानः शुक्लायरोमा स्पर्शोष्णसहश्चति श्लेष्मशोथः ॥ ५ ॥ भारी, मीठे, शीतल, चिकने पदार्थों के सेवन से अधिक सोनेसे, परिश्रम न करने से कफ कुपित होकर त्वचा, मांस, रुधिर आदिकोंमें प्रवेश कर शोथको उत्पन्न करता है । वह शोथ देरमं प्रगट होता है और देरमें ही शांत होता है । और पांडु या सफेद वर्णका होता है, तथा चिकना, गाढा, भारी, कठोर, गीला सा होताहै, लोमोंका अग्रभाग सफेद सा होजाता है और इस शोथ पर गरम स्पर्श प्रिय मालूम होता है । यह कफके सूजनके लक्षण हैं ॥ ५ ॥
द्विदोषजादिभेद । यथास्वकारणाकृतिसंसर्गाद्दिदोषजास्त्रयः शोथाः भवन्ति तथास्वकारणाकृतिसन्निपातात्सान्निपातिकएकः । एवंसप्तवि
1
धोभेदः! प्रकृतिभिस्ताभिर्भिद्यमानोद्विविधस्त्रिविधश्चतुर्विधः सप्तविधश्चशोथउपलभ्यते । पुनश्चैकएवोत्सेधसामान्यादिति ॥६॥ दो दो दोषोंके कारण और लक्षणों के सम्बन्धसे वातपित्तज, वातकफज, पित्तकफज इन भेदासे तीन प्रकारका सृजन होता है। ऐसे ही तीनों दोषोंके कारण और लक्षण मिलने से सन्निपातका १ सृजन होता है । इस प्रकार निज सूजनके सात भेद हुए । प्रथम स्वभावभेदसे निज और आंगतुज सूजन दो प्रकारका है । फिर वात, पित्त, कफ इन भेदासे तीन प्रकारका होता है । और वातपित्तज, वातकफज, पित्तकफज, सत्रिपातज इन भेद से चार प्रकारका हुआ, वातादिकों के भेदोंसे सन्निपातपर्यंत सात प्रकारका हुआ । सामान्य शोथ धर्मसे देखाजाय तो शोथ एक ही प्रकाका है ॥ ६ ॥
वातजशोय के लक्षण |
भवतिचात्र । शूयन्तेयस्यगात्राणिस्वपन्तीवरुजन्तिच । निपीडितान्पुन्नमन्तिवातशोथन्तमादिशेत् ॥ ७ ॥ यश्चाप्यरुणवर्णाभिः शोथोन क्तंप्रणश्यति । स्नेहोष्णमर्दनाभ्याञ्च प्रणश्येत्सवातिकः ॥ ८ ॥
औरभी कहा कि जिस सृजन के अंग सोण्डुएसे प्रतीत हों और पीडा होती हो तथा अंगुली दबाने पर दबजाय और अंगुली टटानेसे फिर ऊपर उठआवे उसको वातका सृजन जानना | और जो शोय लाल वर्णका हो, रात्रिमें कुछ शांत होजाय
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सूत्रस्थान-अ० १८. .
(२१३) तथा स्नेहन करनेसे और गरम-वस्तुओंके लेप या मर्दनसे शांत होजाय वह वायुका सूजन जानना ॥ ७॥८॥
- पित्तजशोथ लक्षण । यापिपासाज्वरातस्यद्वयतेऽथविदह्यते । स्विद्यतेक्लिद्यतेगन्धी सपित्तश्वयथुः स्मृतः॥ ९॥ यःपीतनेत्रवक्रत्वपूर्वमध्या
प्रसूयते । तनुत्वक्चातिसारीचपित्तशोथःसउच्यते ॥ १०॥ जिस शोथमें-प्यास, ज्वर, पीडा, दाह, हों और पसीना आताहो तथा वेद, दुर्गन्ध, आतेहों वह पित्तका सूजन कहाहै । और जिसमें रोगीके मुख, नेत्र, त्वचा पीले होगयेहों, पहले शरीरके मध्य भागसे उत्पन्न हो, शोथके ऊपर त्वचा पतली सी प्रतीत हो, और रोगीको दस्त आतेहों तो वह पित्तकी सूजन कही जातीहै ॥९॥ १०॥
कफजशोथ लक्षण । यःशीतलःसक्तगतिःकण्डूमान्पाण्डुरेवच । निपीडितोनोन्नमातिश्वयथुःस कफात्मकः ॥ ११ ॥ यस्यशस्त्रकुशच्छेदाच्छोणितेनप्रवर्तते । कच्छेणपिच्छान्स्रवतिसचापिकफस
म्भवः ॥ १२॥ - जो शोथ स्पर्शमें शीतल हो, स्थिर रहे, खुजलीयुक्त हो, पांडुवर्णका हो, दबानेसे न दवे वह सूजन कफात्मक होताहै । जिस सूजनमें कुशा, शस्त्र, आदिसे छेदन करनेपर भी रक्त न निकले, और कठिनतासे थोडा गाढा स्त्राव हो उस सूजनको कफसे उत्पन्नहुआ जानना ॥ ११ ॥ १२॥
निदानातिसंसर्गाच्छ्यथुःस्याविदोषजः।
सर्वाकविःसन्निपाताच्छोथोव्यामिश्रहेतुजः॥ १३ ॥ दो दोषोंके निदान और लक्षण मिलनेस द्विदोषज शोथ जानना । जिसमें तीनों दोषोंके हेतु, लक्षण मिलते हों वह सन्निपातका सूजन जानना ॥ १३ ॥ ___ यस्तुपादाभिनिवृत्तःशाथःसर्वाङ्गगोभवेत् ।
जन्तोःसचसुकष्टःस्यात्प्रसृतः स्त्रीमुखाच्चयः॥ १४ ॥ , जो सोज पुरुषके पावोंसे उत्पन्न होकर सब अंगोंमें व्यापक होजाय और स्त्रीक मुखसे उठकर सब अंगोंमें प्राप्त होजाय वह सूजन कष्टसाध्य होताहै ॥ १४ ॥
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(२१४)
चरकसंहिता-भा० टी०। यश्चापिगुह्यप्रभवःस्त्रियोवापुरुषस्यवा।
सचकष्टतमोज्ञेयोयस्यचस्युरुपद्रवाः ॥१५॥ जो शोय बीके अथवा पुरुषके गुह्यस्थानमें प्रगट हुआ हो वह कष्टसाध्य होताहै यदि उसमें अन्य उपद्रव भी हों तो बहुत ही कष्टसाध्य होजाताहै ॥ १९ ॥
छर्दिःश्वासोऽरुचिस्तृष्णाज्वरोऽतीसारएवच ।
सप्तकोऽयंसदौर्बल्यःशोथोपद्रवसंग्रहः॥ १६ ॥ . छर्दि, श्वास, अरुचि, प्यास, ज्वर, अतिसार, दुर्वलता, यह सात शोथरोगकें उपद्रव होतेहे ॥ १६ ॥
उपजिविकाकारण । यस्यश्लेप्माप्रकुपितःजिह्वामूलेऽवतिष्ठते ।
आशुसंजनयेच्छोथंजायतेऽस्योपजिबिका ॥ १७॥ जिस मनुष्यके कफ कुपित होकर जीभकी जडमें स्थित होजाताहै उसके उपः जिंहिका नामका सूजन प्रगट करताहै ॥ १७ ॥
__गलशुंडिका कारण। यस्यश्लेष्माप्रकुपितःकाकलेव्यवतिष्ठते ।
आशुसजनयञ्छोथंकरोतिगलशुण्डिकाम् ॥ १८॥ जिसके कफ कुपित होकर काकलकी जडमें सूजन प्रगट करे उस सूजनको गल: शुडिका कहतेहै ॥ १८॥
गलगंड लक्षण । यस्यश्लेप्माप्रकुपितस्तिष्टत्यन्तर्गलस्थितः।
आशुसअनयञ्छोथंगलगण्डोऽस्यजायते ॥ १९ ॥ जिसके कफ कुपित होकर गलेकी नसाम प्रवेश कर वाहरको सूजन प्रगट कर उस गलेक बाहरी झोयको गलगंड कहतेहे ॥ १९ ॥
गलग्रह लक्षण । यस्यश्लेप्माप्रकुपितोगलवाह्येवतिष्ठते ।।
शन:सअनयन्लोथंजायतेऽस्यगलग्रहः ॥ २०॥ जिसके कर कुपित हो गलेके भीतर शोयको प्रगट करे उस शोथको गलग्रह
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सूत्रस्थान-अ० १८.
(२१५) विसर्पका कारण ॥ यस्यापित्तंप्रकुपितंसरक्तत्वचिसर्पति ।. . शोथंसरागंजनयन्विसर्पस्तस्यजायते ॥ २१॥ :
जिसके पित्त कुपित होकर रुधिरके साथ मिलकर त्वचा में विचरता हुआ लाल रंगका शोथ प्रगट करे उस शोथको विसर्प कहतेहैं ॥ २१॥
यस्यपित्तंप्रकुपितंत्वचिरक्तेऽवतिष्ठते ।
रागंसशोथञ्जनयपिडकातस्यजायते ॥२२॥ जिसके पित्त कुपित होकर त्वचाके रक्तमें स्थित होकर लाल रंगकी फुनसी सी प्रगट करे उस सूजनको पिडका कहतेहैं ॥ २२॥
तिल झाई नीलक लक्षण । यस्थपित्तंप्रकुपितंशोणितं प्राप्यशुष्यति ।
तिलकापिप्लवोव्यंगो नीलिकाचास्यजायते ॥ २३॥ कुपितहुआ पित्त जिसके रक्तमें प्रवेश करके सूखजाय उसके शरीरमें तिल,छाई लहसन नीलका आदि क्षुद्ररोगोंको प्रगट करताहै ॥ २३॥
शंखकके लक्षण । यस्यपित्तंप्रकुपितंशंखयारेवतिष्ठते। . . • श्वयथुःशंखकोनामदारुणस्तस्यजायते ॥२४॥ जिसके कुपित हुआ पित्त शंखें, (शिरकी हड्डियों) में प्राप्त हो शोथ करें एस शोथको 'शंखक' नामक दारुणशोथ कहतेहैं ॥ २४॥ .
कर्णमूलका कारण। यस्यपित्तंप्रकुपितंकर्णमूलेऽवतिष्ठते । ।
ज्वरान्तेदुर्जयोऽन्तायशोथस्तस्योपजायते ॥ २५॥ जिसके पित्त कुपित होकर कानकी जडमें शोथ प्रगटकरे तो यह कर्णमूल शोथ दुर्जय होताहै यदि यह शोथ ज्वरके अंतमें प्रकट होय तो मनुष्यका भी अंत करदेताहै ॥ २५ ॥ .
. प्लीहाका कारण । वातःपीहानमुद्धयकुपितोयस्यतिष्ठति । शूलै परितुदन्पाइवप्लीहातस्याभिवर्द्धते ॥ २६ ॥
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(२१६)
चरकसंहिता-भाटी। . जिसके वायु कुपित होकर प्लीहा (तिल्ली) में प्रवेश कर उसको ऊंची करदेवें वह प्लीहा धीरे २ पीडाके साथ वढजाती है (यह प्लीहशोथ कहाजाताहै ) ॥२६ ।।
गुल्मका कारण ॥ यस्यवायुःप्रकुपितोगुल्मस्थानेचतिष्ठति।
शोथंसशूलञ्जनयन्गुल्मस्तस्योपजायते ॥ २७॥ कुपित वायु जिसके गुल्मस्थानमें प्रवेश करताहै उसके पीडाके साथ गुल्मरूपी शोयको पैदा करदेताहै ॥ २७ ॥
ब्रनका कारण। यस्यवायुःप्रकुपितःशोथशूलकरश्चरन् ।
वक्षणावृषणोयातिव्रतस्योपजायते ॥ २८॥ जिसके वायु कुपित होकर पीडायुक्त शोथवंक्षण(जंघाके मूल) में पेडसे अंडकोशकी ओरको उत्पन्न करे उस शोथको न कहतहे ॥ २८ ॥
उदरका लक्षण । यस्यवातःप्रकुपितस्त्वङ्मासान्तरमाश्रितः।
शोथसञ्जनयन्कुक्षावदरंतस्यजायते ॥ २९॥ कुपित वायु जिसके कुक्षिस्यानकी त्वचा और मांसमं मिल पेटको मजा देताहै उस शोथको शोथोदर कहतेहे ॥ २९ ॥
अनाहका कारण। यस्यवातःप्रकुपितःकुक्षिमाश्रित्यतिष्ठति ।
नाधोनजतिनाप्यूद्धञ्चानाहस्तस्यजायते ॥ ३०॥ शुद्ध वायु जिसकी कुक्षिम स्थित होकर न नीचे गमन करे न ऊपर जावे इस चायुके अवगेधको अफारा कहतेह ॥ ३०॥
रोगाश्चोत्सेधसामान्यादधिमांसाव॑दादयः ।
विशिष्टानामरूपाभ्यांनिर्देश्याःशोथसंग्रह ॥३१॥ अधिमांस और अबुंदादिक नाम रूप करके शोथसे अलग होनेपर भी उटन: वाटे. सामान्पधर्भसे शोयाम ही गणना करने चाहिये ॥ ३१॥
रोहिणीका कारण । वातपित्तकफायस्ययुगपत्कुपितास्त्रयः। जिह्वामूलेऽवतिष्टन्तविदहन्तःसमुच्छ्रिताः ॥ ३२ ॥
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भणवापुनः ॥
नहान चिकित्सा किये जाकारके दारुण
. . सूत्रस्थान-अ० १८.
(२१७) जनयन्तिभृशंशोथंवेदनाश्चपृथग्विधाः। तशीघ्रकारिणरोगरोहिणीकेतिनिर्दिशेत् ॥३३॥ त्रिरात्रपरमंतस्यजन्तार्भवतिजीवितम् । कुशलेनत्वनुप्राप्तःक्षिप्रंसम्पद्यतेमुखी ॥३४॥
जिस मनुष्यके वात पित्त कफ यह तीनों ही एककालमें कुपित होकर जीभकी 'जडमें स्थित होजाते हैं उसकी जीभकी जड दाहयुक्त ऊंचा सा शोथ प्रगट कर देतहें इस शोथमें नाना प्रकारको पीडा उत्पन्न होतीहै इस शीघ्रमारक रोगको रोहिणिका, कहतेहैं इसके होनेसे मनुष्य तीन दिनसे अधिक नहीं जीसकता । इस लिये यदि कुशल चिकित्सकसे शीघ्र यल करायाजोव तो मनुष्य वचसकताहै ॥ ३२-३४॥
सन्तिह्येवंविधारोगाःसाध्यादारुणसम्मताः।
येहन्युरनुपक्रान्तामिथ्यारम्भेणवापुनः ॥३५॥ अन्य भी जो इस प्रकारके दारुण रोगहैं वह युक्तिपूर्वक शीघ्र कुशल वैद्य द्वारा चिकित्सा किये जानसे साध्य होतेहैं । और वही रोग उचित यलोंके शीघ्र न होनेसे अथवा अनुचित यत्नोंके होनेसे शीघ्र मारडालतेहैं ॥ ३५ ॥
व्याधिके साध्यासाध्य भेद।। साध्याश्चाप्यपरेसन्तिव्याधयोमृदुसम्मताःयत्नायनकृतयेषु कर्मसिध्यत्यसंशयम् ॥ ३६ ॥ असाध्याश्चापरेसन्तिव्याधयो याप्यसंज्ञिताः। सुसाध्येऽपिकतंयेषुकर्मयाप्यकरभवेत् ॥३७॥ सन्तिचाप्यपरेरोगाःकर्मयेषुनसिध्यति । आपयत्नरुतवैद्यैर्न तान्विद्वानुपाचरेत् ॥ ३८॥ बहुतसे ऐसे मृदु रोग हैं जो शीघ्र यत्न करनेसे तो साध्य हैं ही परन्तु विना चिकित्साके भी साध्य होजातेहैं ॥ ३६ ॥ और बहुतसे रोग असाध्य हैं । वहुतसे याप्य होतेहैं। जिन असाध्य और याप्य रोगोंमें योग्य चिकित्सा होनेपर भी वह रोग नाशकारक ही रहते हैं। और ऐसे २ अन्य भी बहुतसे रोग हैं जो सुयोग्य वैद्योंद्वारा चिकित्सा किये जाने पर भी साध्य नहीं होसकते विद्वान् वैद्यको उचित है जो रोग यत्नद्वारा साध्य न होसके उसकी चिकित्सा न करे ॥ ३७ ॥ ३८ ॥
साध्याश्चैवाप्यसाध्यांश्चव्याधयोद्विविधाःस्मृतासमृदुदारुणभेदेनतेभवन्तिचतार्वधाः ॥३९॥तएवापरिसंख्येयाभिद्यमाना
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( २१८ )
चरकसंहिता - भा० टी० ।
भवन्तिहि । निदानवेदनावर्णास्थान संस्थाननामभिः ॥ ॥ ४० ॥ व्यवस्थाकारणंलेपांयथास्थूलेषुसंग्रहः । तथाप्रकृतिसामान्यंविकारेषूपदिश्यते ॥ ४१ ॥
व्याधियां साध्य और व्यसाध्य भेदसे दो प्रकारको होती हैं । वह दोनों भी मृदु और दारुण भेदसे चार प्रकारकी होजाती हैं ।। ३९ ।। फिर वह व्याधियां- पीडा वर्ण, कारण, स्थान, आकृति, इन भेदोंसे अलग २ होती हुई असंख्य होजाती हैं | उनकी व्यवस्था करने के लिये उनमेंसे मुख्य २ व्याधियोंका संग्रह किया गया है । विकारोंका स्वभाव और तुल्यता देखकर उनको जिस दोषजन्य देखे वैसा उपदेश करना चाहिये ॥ ४० ॥ ४१ ॥
व्याधियोंके नाम रखने का क्रम ।
विकारनामा कुशलोनजिहीयात्कदाचन । नहिसर्वविकाराणां नामतोऽस्तिध्रुवागतिः ॥ ४२ ॥ सएवकुपितो दोषः समुत्थानविशेषतः । स्थानान्तरगतश्चैवजनयत्यामयान्बहून् ॥ ४३ ॥ तस्माद्विकारप्रकृतीरधिष्ठानान्तराणिच । समुत्थान विशेषांश्रबुद्ध्वाकर्मसमाचरेत् ॥ ४४ ॥
इसीलिये याद किसी रोगका नाम न मिलसके सो वैद्यको लज्जित नहीं होना चाहिये, क्योंकि संपूर्ण रोगोंका नाम नहीं कहा जासकता (हां उन रोगांको प्रकृति और तुल्यतासे वातादिदोषजन्य जानकर यत्न करे ) ॥ ४२ ॥ क्योंकि एक दोष ही कुपित होकर भिन्न २ कारणों से अलग २ स्थानांमें जाकर अनेक रोगोंको उत्पन्न करताँएँ इसलिये ऐसे रोगांकी प्रकृति और स्थानभेद तथा कारणविशेषको जानकर चिकित्साकर्म करे ॥ ४३ ॥ ४४ ॥
।
योह्येतत्रिविधंज्ञात्वाकर्माण्यारभतेभिपक् ज्ञानपूर्वयथान्यार्थसकर्म सुन मुह्यति ॥ ४५ ॥
जो वैद्य - साध्य, असाध्य, याप्य, इन तीन भेदाको समझकर चिकित्सा आरंभ करता है वह मोहको प्राप्त नहीं होता है ॥ ४५ ॥
दोषांका नित्यत्व | नित्याः प्राणभृतांदेहेवातपित्तकफास्त्रयः ।
धिकृताःप्रकृतिस्थावादान्बुभुत्सेतपण्डितः ॥ १६ ॥
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सूत्रस्थान-अ० १८ः
(२१९) वात, पित्त, कफ यह तीन प्राणधारियोंके शरीरमें नित्य रहतेहैं । परन्तु यह साम्यावस्थामें हैं अथवा विकृत ( विगडी) अवस्थामें हैं यह बुद्धिमानकों परीक्षा करलेना चाहिये ॥ ४६ ॥
विकाररहित शुद्धवायु दोषोंके कर्म । उत्साहोच्छासनिःश्वासचेष्टाधातुगतिःसमा।
समोमोक्षोगतिमतांवायोःकर्माविकारजम् ॥४७॥ शरीरमें प्रकृतिस्थ वायु रहनेसे-उत्साह, सांसका आना जाना, चेष्टा, धातु ओंकी अवस्था यह समान रहती हैं और मलमूत्रादिकी गति ठीक रहती है । यहः विकारको नहीं प्राप्त हुए वायुके कर्म हैं ॥ ४७॥
दर्शनपक्तिरुष्माचक्षुत्तृष्णादेहमार्दवम् ।
प्रभाप्रसादोमेधाचपित्तकम्माविकारजम् ॥४८॥ दीखना, अन्नका परिपाक, शरीरमें गरमाई, भूख, प्यास, देहमें नरमी, कांति 'प्रसन्नता, मेघा, इनका उत्तम होना यह प्रकृतिस्थ अर्थात् विकाररहित पित्तका कर्म है ।। ४८॥
स्नेहोवद्धःस्थिरत्वञ्चगौरवंवृषतावलम्। क्षमाधुतिरलोभश्चकफकर्माविकारजम् ॥४९॥
कफके प्रकृतिस्थ रहनेसे शरीरमें स्निग्धता, गठनता, दृढता, गुरुता, वृष्यता,. बल, क्षमा, धृति, निलोभता, यह होते हैं ॥ १९ ॥
वातपित्तकफैश्चैवन्यनेलक्षणमुच्यते ।
कर्मणांप्रकतेहानिर्वृद्धिपिविरोधिनाम् ॥ ५० ॥ वात, पित्त, और कफके क्षीण होनेसे ऊपर कहेहुए स्वाभाविक गुणोंकी हानि होती है और विपरीत कर्मोंकी वृद्धि होती है ॥ ५० ॥
दोषप्रकृतिवशेष्यनियतंवृद्धिलक्षणम् ।
दोषाणांप्रकृतिहानिर्वृद्धिापिपरीक्ष्यतेइति ॥५१॥ दोषोंको स्वभावोंका विशेष प्रतीत होना दोष वृद्धिके लक्षण हैं, इसलियों __ दोषोंकी साम्यावस्था, क्षीणता, और वृद्धिकी परीक्षा करना चाहिये ।। ५१ ॥
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(२२०) चरकसंहिता-मा० टी०।
अध्यायका संक्षिप्तवर्णन ।
तत्रश्लोको। संख्यानिमित्तरूपाणिशोथानांसाध्यतानच । तेपांतेषांविकाराणांत्रिविधंवोध्यसंग्रहम् ॥ विधिभेदविकाराणांत्रिविधं दोषसंग्रहम् ॥ १२ ॥ प्राकृतंकर्मदोषाणांलक्षणंहानिवृद्धिषु। वीतमोहरजोदोषमोहमानमदस्पृहः ।
व्याख्यातवांस्त्रिशोफीयेरोगाध्यायेपुनर्वसुः ॥ ५३॥ इति रोगचतुष्केत्रिशोफीयोऽष्टादशोऽध्यायःसमाप्तः ॥१८॥ इस त्रिशोथीय अध्यायमें शोयोंके कारण, शोथ, शोथजविकार और उनकी संख्या उनके रूप तथा साध्यासाध्यता, दोषज और आगंतुज शोथ,शोथके विकाराके भेद, तीन प्रकारका दोषसंग्रह, प्रकृतिस्थ दोषोंके कर्म, दोषोंकी क्षीणता
और वृद्धि के लक्षण, यह सव मोह, रजोदोष, लोभ, मान, मद और स्पृहाराहत पुनर्वसुजीने कथन किया है ॥ ५२ ॥ ५३॥ इति श्रीमहर्पिचरकप्रणीतायुर्वेदीयसंहितायां पटियालाराज्यान्तर्गतटकसालनिवासिवैद्यपजानन वारल पं० रामप्रसावंद्योपाध्यायविरचितप्रसादन्याख्यभापाटीकायां
त्रिशोफीयो नामाष्टादशोऽध्यायः ॥ १८॥
एकोनविंशोऽध्यायः।
अथातोऽदरीयमध्यायंव्याख्यास्यामइतिहस्माहभगवानात्रेयः। अब हम अष्टोदरीय अध्यायकी व्याख्या करेंगे ऐसा भगवान् आत्रेयजी कहनेलगे।
रागांकी संख्या । इहवल्वष्टावुदराणिअष्टोमबाघाताःअष्टोक्षीरदोपाअष्टौरेतोदोपाःसप्तकुष्टानिसप्तपिडकाःसप्तवीसाःपडतीसाराःपडुदावर्ताः पागुल्माःपञ्चप्लीहदोपाःपञ्चकासाः पञ्चश्वासाःपञ्चहिकाः
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सूत्रस्थान-अ० १९ (२२१) पञ्चतृष्णाःपञ्चछर्दयःपञ्चभक्तस्यानशनस्थानानिपञ्चशिरोरो. गाःपञ्चहृद्रोगाःपञ्चपाण्डुरोगाःपञ्चोन्मादाचत्वारोऽपस्माराः चत्वारोऽक्षिरोगाःचत्वारःकर्णरोगाःचत्वारःप्रतिश्यायाःचत्वारोमुखरोगाःचत्वारोग्रहणीदोषाः चत्वारोमदाःचत्वारोमूर्छाः चत्वारः शोषाचत्वारिक्लैब्यानित्रय शोथाःत्रीणिकिलासानित्रिविधंलोहितपित्तंद्वौज्वरौद्वौत्रणौद्वावायामौद्वेगृध्रस्योद्वेकामलेद्विविधमामंद्विविधंवातरक्तद्विविधान्यशासिएकः ऊरुस्तम्भःएकःसन्यासः एकोमहागदाविंशतिःक्रिमिजातयःविंशतिःप्रमेहाःविंशतियोंनिव्यापदः । इत्यष्टाचत्वारिंशद्रोगाधिकरणान्यस्मिन्संग्रहेभवन्ति । उद्दिष्टानिएतानियथोदेशमभिनिर्देक्ष्यामः ॥१॥ .
इस संग्रहमें ८ प्रकारके उदररोग हैं । ८ मूत्राघात हैं। ८ प्रकारके स्तन्य दोष - हैं।८ प्र० शुक्रदोष हैं। ७ प्र० कुष्ठ हैं । ७ प्रकारकी पिडका । ७ प्र० विसर्प ।६ प्र० अतिसार । ६ प्रकारके उदावत । ५ प्रकारके गुल्म । ५ प्रकारके प्लीहदोष । ५ प्र० खांसी । ५ प्र० श्वास ।५ प्रकारकी हिचकी । ५ प्रकारकी प्यास । ५ प्रकारकी छार्दै । ५० अरुचि । ५ प्र० शिरोरोग । ५५० हृद्रोग । ५ प्र० पांडुरोग । ५ प्र० उन्माद । ४ प्र० मृगी । ४ प्र० नेत्ररोग । ४ प्र० कर्णरोग ।४ प्र० प्रतिश्याय । ४ प्र० मुखरोग । ४ प्र० ग्रहणीदोष । ४ प्र० मदात्यय । ४ प्र० मूर्छा। ४ प्र० शेष । ४ प्र० नपुंसकता । ३ प्र० शोथ । ३ प्र० किलास । ३५० रक्तपित्त । २५० ज्वर । २ प्र० व्रण।२ प्र० आयाम । २५० गृध्रसी । २० कामला ।२ प्र० आमदोष । २ प्र० वातरक्त । २ प्र० अर्श ।१ प्र० ऊरुस्तंभ । १ प्र० संन्यास । १ प्र० महाव्याधि । २० प्र० कृमिरोग । २० प्र० प्रमेह । २० प्र० योनिव्यापकरोग, इस प्रकार इस संग्रहमें ४८ रोग है । अब इन सबको यथाउद्देश आगे वर्णन करतेहैं ॥१॥
रोगोंके वातादि भेद। अष्टावुदराणीतिवातपित्तकफसन्निपातप्लीहबद्धच्छिद्रोदकोदराणांति।अष्टौमूत्राघाताइतिवातपित्तकफसन्निपाताश्मरीशर्कराशुक्रशोणितजाः॥ अष्टौक्षीरदोषाइतिवैवयंवैगन्ध्यवैरस्यं
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(२२२) चरकसंहिता-भा० टी०। पैच्छिल्यंफेनसंघातरोक्ष्यंगौरवमतिस्नेहश्चति। अष्टौरेतोदोषा इतितनुशुष्कंफेनिलमश्वेतपतिपिच्छिलमन्यधातूपाहतमवसादिचेति।सप्तकुटानीतिकपालोडम्बरमण्डलय॑जिह्वपुण्डरीकसिध्मकाकणकानि ॥ सप्तपिडकाइतिशराविकाकच्छपिकाजा. लिनीसर्पप्यलजीविनताविद्रधीच ॥ सप्तवीसाइतिवातपित्तकफाग्निकर्दमग्रन्थिसान्निपाताख्याः॥ षडतीसाराख्याइतिवातपित्तकफसन्निपातभयशोकजाः॥ पडुदाव इतिवातमूत्रपूरीपशुक्रच्छर्दिक्षवथुजाः॥ पञ्चगुल्माइतिवातपित्तकफसन्निपातरक्तजाः ॥ पञ्चप्लीहदोपाइतिगुल्मैयाख्याताः ॥ पञ्चकासा इतिवातपित्तकफक्षतक्षयजाः॥ पञ्चश्वासाइतिमहोर्द्धच्छिन्नतमकक्षुद्राः ॥ पञ्चहिकाइतिमहतीगम्भीराव्यपेताक्षुद्राचान्नजाच ॥ पञ्चतृष्णाइतिवातपित्तामक्षयोपसात्मिकाः॥पञ्चछईयइतिद्विष्टान्नसंयोगजावातपित्तकफसन्निपातोद्रेकात्मिकाश्च॥ पञ्चभक्तस्यानशनस्थानानीतिवातपित्तकफद्वैपायासाः॥ पञ्चशिरोरोगाइतिपूर्वोदेशमाभिसमस्यवातपित्तकफसन्निपातक्रिमिजाः ॥ पञ्चहृद्रोगाइतिशिरोरोगैाख्याताः॥ पञ्चपाण्डुरोगाइतियातपित्तकफसन्निपातमृद्भक्षणजाः॥पञ्चोन्मादा . इतिवातपित्तकफसन्निपातागन्तुनिमित्ताः ॥ चत्वारोऽपस्मारा इतिवातपिनकफसन्निपातनिमित्तजाः ॥ चत्वारोक्षिरोगाः
चत्वारः कर्णरोगाः चत्वारः प्रतिश्यायाः चत्वारोमुखरोगाः • चत्वारोग्रहणीदोपाः चत्वारोमदाः चत्वारोमहॊइति अप
स्मारेाग्याताः ॥ चत्वारःशोपाइतिसाहससन्धारणक्षयविपमाशनजाः॥चत्वारिकव्यानातिवीजोपघाताद्धजभङ्गाजरायाःशुक्रक्षयाच ॥ त्रयःशोथाचतिवातपित्तइलेप्मनिमित्ताः।। त्रीणिकिलासानीतिरक्तताम्रशकानिः॥त्रिविधंलोहितपित्ताम
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सूत्रस्थान-अ. १९: .. (२२३.) : त्यूर्द्धभागमधोभागमुभयभागञ्चाद्वौज्वरौ शीतसमुत्थश्चशी
ताभिप्रायश्चोष्णसमुत्थ इति उष्णाभिप्रायः ॥द्वौत्रणौइतिनिजश्चागन्तुजश्च ॥ द्वावायामावितिबाह्यश्चाभ्यन्तरश्चद्वेिगृध्रस्थावितिवाताद्वातकफाच॥ देकामलेइतिकोष्ठाश्रयाशाखाश्रयाच ॥ द्विविधमाममित्यलसकोविसूचिकाचति ॥द्विविधवातरक्तमितिगम्भीरमुत्तानञ्च । द्विविधान्यासीतिआणिशुकाणिच ॥ एकऊरुष्कंभइतिआमत्रिदोषसमुत्थानः ॥ एकः संन्यासइति ॥ त्रिदोषात्मकोमनःशरीराधिष्ठानसमुत्थः ।। एकोमहागदइतिअवत्त्वाभिनिवेशः ॥ २॥ वातज, पित्तज, कफज, सन्निपातज, प्लीहोदर, बद्धोदर, छिद्रोदर, जलोदर, इन भेदोंसे ८ प्रकारके उदररोग हैं वातज, पित्तज, कफज, सन्निपातज, अश्मरीजन्य, शर्कराजन्य,शुक्रदोषज,और रक्तजन्य, यह, आठ प्रकारके मूत्राघात हैं । विवर्णता, 'विकृतिगंधि, वैरस्य, पिच्छिलता, फेनयुक्तता, रूक्षता, भारपिन,यह आठ स्तनोंके, दूधके विकार हैं। पतलापन,मूखापन,फेनयुक्त, सफेदी न होना, दुर्गंधित,पिच्छिल, अन्यधातुमिश्रित, अवसादयुक्त यह आठ वीर्यके दोष होते हैं। कुष्ठके सात भेद हैं । जैसे-कपाल, उदुंबर, मंडल, ऋष्याजित, पुंडरीक, सिध्म, और काकण । शराविका, कच्छपिका, जालनी, सर्षपी, अलजी, विनता, विद्रधि, इन भेदोंसे पिडका ७ प्रकारकी है । वातन, पित्तज, कफज, सन्निपातन, अग्निीवसर्प, कर्दमविसर्प, ग्रंथिविसर्प इन भेदोंसे विसर्प ७ प्रकारका है । वातज, पित्तज, कफज, सन्निपातज, भयज, शोकज इन भेदोंसे अतिसार, ६ प्रकारके हैं, अधोवात, मूत्र,पुरीष, शुक्र, छर्दिछीक,इन छहोंका वेग रोकनेसे छ प्रकारके उदावत होतेहैं।वातज,पित्तज, कफज, सन्निपातज, रक्तज, इन भेदोंसे गुल्म पांच प्रकारके है । गुल्मके समान ही पांच प्रकारके प्लीहाके विकार होते हैं । वात, पित्त, कफ, क्षत, क्षय इन से पांच प्रकारकी खांसी होतीहै । ऐसे ही वातज, पित्तज, कफज, क्षतज, क्षयज, इन भेदोंसे श्वास पांच प्रकारका है । महती, गंभीरा, व्यपेता, क्षुद्रा, अनजा इन भेदोंसे पांच. प्रकारकी हिचकी है। वातज, पित्तज, आमज, क्षयज, उपसर्गज इन भेदोंसे तृषा पांच प्रकारकी होती है। द्वेषजनक अन्नसे, वात, पित्त, कफ, और सन्निपातसे छर्दि पांच प्रकारकी है । वातज, पित्तज, कफज, देषज, अमज इन भेदोंसे अरुचि पांच प्रकारकी है। सामान्य संग्रहके उद्देशसे वातज,
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( २२४ )
चरकसंहिता - भा० टी० ।
पित्तज, कफज, सन्निपातज, कृमिजन्य, इन भेदास शिरोरोग पांच प्रकारका है । शिरोगवाले भेदोंसे ही पांच प्रकारका हृद्रोग है । वात, पित्त, कफ, सन्निपात, और मृद्भक्षणसे पांच प्रकारका पांडुरोग होता है । वातज, पित्तज, कफज, सन्नि - पातज, और आगंतुज इन भेदोंसे उन्मादरोग पांच प्रकारका है । वात, पित्त, कफ और सन्निपातसे चार प्रकारका अपस्मार (मृगी ) रोग होता है । अपस्मा• रके समान ही वातादि चार २ भेद-नेत्ररोग, कर्णरोग, प्रतिश्याच, मुखरोग, ग्रहणीदोष, मदरोग, मूर्च्छारोग इन सबके भी कहे हैं । साहसजन्य, वेगावरोधजन्य, क्षयजन्य और विषमा शनजन्यः इन भेदोंसे शोषरोग चार प्रकारका है । वात, पित्त, कफजनित तीन प्रकारकी सुजन होती है । रक्तवर्ण, ताम्रवर्ण, और श्वेत, इन तीन प्रकारका किलासरोग होता है । ऊध्वर्ग, अधोगामी, उभयगामी, इन तीन प्रकारका रक्तपित्त होता है। ज्वर दो प्रकारके हैं । एक ठंढेसे, जिसमें शीतकी अधिकता होती है । दूसरा गरमीसे प्रगट होकर गरमीकी अधिकतावाला होता है । निज और आगंतुज भेदसे व्रण दो प्रकारके होते हैं। आयाम दो प्रकारका. है एक अंतरायाम दूसरा वाह्यायाम । गृध्रसी दो प्रकारका है- एक वातंज, दूसरा वातकफज | कोष्ठाश्रय और शाखाश्रयके भेदसे कामला दो प्रकारका है। अलसक ओर विसूचिका भेदसे आमरोग दो प्रकारका है । वातरक्त दो प्रकारका है गंभीर और उत्तान | बवासीर दो प्रकारकी है एक आर्द्र दूसरी शुष्क । आमयुक्त त्रिदोषसे उत्पन्न हुआ ऊरुस्तंभ एक प्रकारका है । त्रिदोषसे उत्पन्नहुआ संन्यास एकप्रकारका हैं इसका अधिष्ठान मन और शरीर है । तत्त्वज्ञानमें मनका योग न होना ही एक महाव्याधि है ॥ २ ॥
विंशतिः किमिजातयइतियूकाः पिपीलिकाचेतिद्विविधावहिर्मलजाः केशादालोमादालो मद्वपाः सौरसाऔदुम्बराजन्तुमातरश्चेतिपट्शोणितजाः अन्त्रादाउदराहृदयचराः चुरवोदर्भपुप्पाः सौगन्धिका महागुदाश्चेतिसप्तकफजाः ककेरुकाम केरुका लेलिहाः सशृटकाः सौसुरादाश्चेतिपञ्चपुरीपजाइति विंशतिः क्रिभिजातयः ॥ ३ ॥
यस प्रकारको कृमियोंको जातिय है। उनमें यूका और पिप्पलीक यह दो प्रकार के कामे बाहर के मलसे होते हैं । और केशाद, लोमाद, लोमद्विप, सौरस, उदुंबर, जंतुमातर यह छः कारके कामे रक्तसे प्रकट होते हैं | अंत्राद, उदराद, हृदयचर,
•
च्ख दर्भपुष्प, सांगधिक, महागुद यह सात प्रकारके कृमि कफस प्रकट होते हैं ।
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. . सूत्रस्थान-अ०-१९.. (२२५) ककेरुक, मकेरुक, लेलिह, सशूलक और सौसुराद यह पांच प्रकारके पुरीषज कृामै होतेहैं । इस प्रकार सब मिलकर २० प्रकारकी कृमिजाति है। इन पीसोसे ही शरीरको कष्ट होताहै इसलिये बीस प्रकारका कृमिरोग मानाहै ॥ ३ ॥ विंशतिःप्रमेहाइतिउदकमेहश्चेक्षुमेहश्चरसमेहश्चसान्द्रमेहश्च सान्द्रप्रसादमेहश्चशुक्लमेहश्चशुक्रमेहश्चशीतमहश्चशनमैहश्च : सिकतामेहश्चलालामहश्चतिदशश्लेष्मनिमित्तानक्षारमेहश्चकालमेहश्चनीलमेहश्चलोहितमेहश्चमञ्जिष्ठामेहश्चहरिद्रामेहश्चेति षट् पित्तनिमित्ताः । वसामेहश्चमजमेहश्चहस्तिमेहश्चमधुमेह-. श्वेतिचत्वारोवातनिमित्ताइतिविंशतिःप्रमेहाः॥४॥ . बीस प्रकारके प्रमेह हैं। उनमें-उदकमेह, इक्षुमेह रसमेह, सांद्रमेह, सान्द्रप्रसाद मेह, शुक्लमेह शुक्रमेह, शीतमेह, शनैमह सिकतामेह, लालामेह यह १० प्रकारके प्रमेह कफसे होतेहैं । क्षारमेह, कालमेह, नीलमेह, लोहितमेह, मंजिष्ठामेह, हरिद्रामेह ..यह छः प्रमेह पित्तसे होतेहैं । वसामेह, प्रजामह, हस्तिमेह, मधुमेह, यह ४ प्रमेह वातसे.होतेहै । इस प्रकार सब मिलकर बीस प्रकारके प्रमेह हुए ॥ ४॥ . विशतियोनिव्यापदइतिवातिकीपैत्तिकोश्लैष्मिकांसान्निपातिकीचेतिचतस्त्रः दोषजाः । दूष्यसंसर्गप्रकृतिनिर्देशैरवशिष्टाःषोडशनिर्दिश्यन्ते । तद्यथा-रक्तयोनिश्चारजस्काचाचरणाचातिचरणाचप्राक्चरणाचोपप्लुताचोदावर्तिनीचकणिनीचपु-. . वघ्नीचान्तर्मुखीचसूचीमुखीचशुष्काचवामिनीचषण्डयोनिश्च. महायोनिश्चेतिविंशतियोनिव्यापदः केवलश्चायमुद्देशः । यथो-. देशमभिनिर्दिष्टइति ॥ ५॥ बीस प्रकारके योनिव्यापत् रोग हैं । उनमें बात, पित्त, कफ, सन्निपात इनसे चार प्रकारके हुए । दोष, दूष्य, संसर्ग और स्वभावके निदेशसे १६ प्रकारके और . • होतेहैं । वह इस प्रकार हैं जैसे-रक्तयोनि, अरजस्का, अचरणा, अतिचरणा, प्राक्
चरणा, उपप्लुता, उदावर्तनी, कर्णिनी, पुत्रप्नी, अंतर्मुखी, सूचीमुखी, शुष्का,.. वामिनी षडयोनि और महायोनि इस प्रकार सब मिलकर २० योनिरोग हुए। यह . पर पूर्वसंग्रहके उद्देशसे संख्यामात्र कथन कीगई है ॥ ५॥
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(२२६) चरकसंहिता-भा० टी०।
अध्यायका उपसंहार। सर्वएवनिजविकारानान्यत्रवातपित्तकफेभ्योनिवर्तन्ते । यथा शकनिःसर्वादिशमपिपरिपतन्स्वांछायांनातिवर्ततेतथास्वधातुवैपम्यनिमित्ताः सर्वविकारावातपित्तकफान्नातिवर्तन्ते । वातपित्तश्लेष्मणांपुनःसमुत्थानस्थानसंस्थानप्रकृतिविशेषानभिसमीक्ष्यतदात्मकानपिचसर्वविकारांस्तानेवोपदिशन्तिबुद्धिमन्त इति ॥६॥ सब प्रकारके निज रोग-वात, पित्त, कफसे विना नहीं होसकते । जैसे पक्षी उडता २ किसी भी दिशामें घूमताहुआ अपनी छायासे अलग नहीं होसकता इसी प्रकार अपनी २ धातुकी विपमतासे उत्पन्न हुए भी रोग वात, पित्त, कफसे अलग नहीं होसकते । इसी लिये बुद्धिमान्को उचित है कि वात, पित्त, कफ इन तीन दोषोंके कारण, स्थान, लक्षण और प्रकृतिको विचारकर संपूर्ण रोगोंको वात,पित्त, कफ इन दोषोंके अंतर्गत ही माने, क्योंकि संपूर्ण धात्वादि इन तीनोंके ही अधीन हैं ।। ६ ।।
भवतिचात्र । स्वधातुवैषम्यनिमित्तजायेविकारसंघावहवःशरीरे। नतेपृथपित्तकफानिलेभ्यआगन्तवस्त्वेवततोविशिष्टाः ॥७॥ आगन्तुरन्वेतिनिजविकारंनिजस्तथागंतुरतिप्रवृद्धः। तत्रानुवन्धं प्रतिचसम्यक्ज्ञात्वाततः कर्मसमारभेत ॥८॥ आगरम होनेवाले संपूर्ण विकार अपने २ धातुकी विषमतासे अनेक प्रकारके होतेहुए भी वह वात, पित्त, कफसे अलग नहीं होसकते । और आगंतुज विकार भी शरीरमें होकर पीछेसे निज (शारीरिक)रोगोंके समान ही वातादिदोषात्मक होजातहः । ऐसे ही निज रोग भी आगंतुओंके समान लक्षणों को धारण करतेहैं इस लिपे कारणानुबंध और प्रकृतिको भली प्रकार समझकर चिकित्सा आरंभ करनी चाहिये ॥ ७॥ ८॥
अध्यायका संक्षिप्त वर्णन।
तत्रश्लोको। विंशकावेककाश्चवत्रिकाचोक्तात्रयस्त्रयः। द्विकाश्चाप्टोचतुष्काश्वदशवादशपञ्चकाः। चत्वारश्चाष्टकावर्गाःपदकोदोसप्तकास्त्र
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सूत्रस्थान-अ० २०.
(२२७) यः । अष्टोदरीयेरोगाणामध्यायेसम्प्रकाशिताः॥९॥१०॥ इति अग्निवेशकृतेतन्त्रेचरकप्रतिसंस्कृतेरोगचतुष्के अष्टो
दरीयोनामोनविंशोऽध्यायः ॥ १९ ॥ .' यहां अध्यायकी पूर्तिमें दो श्लोक हैं कि इस अष्टोदरीय अध्यायमें-बीस २ प्रकारके तीन रोग । एक २ प्रकारके तीनरोग । तीन २ प्रकारके तीन रोग। दो दो प्रकारके आठ रोग । चार २ प्रकारके १० रोग । पांच २ प्रकारके १२ रोग। आठ २ प्रकारके चार रोग । छ २ प्रकारके दो रोग । सात २ प्रकारके तीन रोग इस प्रकार रोगसंग्रहका कथन किया है ॥९॥१०॥ इति श्रीमहर्षिचरकप्र० पं० रामप्रसाद. भाषाटीकायामष्टोदरीयो नामैकोनविंशोऽध्यायः ॥१९॥
विशोऽध्यायः।
अथातो महारोगाध्यायंव्याख्यास्याम इति हस्माहभगवानात्रेयः। . : अब हम महारोगाध्यायकी व्याख्या करतेहैं ऐसा आत्रेय भगवान् कहनेलगे। :
रोगोंके भेद। चत्वारोरोगाभवन्तिआगन्तुवातपित्तश्लेष्मनिमित्ताः तेषांचतुर्णामपिरोगाणांरोगत्वमेकविधरुक्सामान्यात् । द्विविधापुनः प्रकृतिरेषामागन्तुनिजविभागाद्विविधंवेषामधिष्ठानमनःशरीरविशेषात् । विकाराःपुनरेषामपरिसंख्येया:प्रकृत्यधिष्ठानलि
हायतनविकल्पविशेषाणामपरिसंख्येयत्वात् ॥१॥ | रोग चार प्रकारके होते हैं । वातज, पित्तज, श्लेष्मज और आंगतुज । परन्तु उन चारोंके ही दुःखदाई होनेसे सामान्यतासे एक प्रकारका ही रोग माना है। वह फिर निज और आगंतुन भेदसे दो प्रकारके स्वभाववाले होते हैं । इन विविध रोगोंका अधिष्ठान भी मन और शरीर दो प्रकारका है ॥ फिर रोगोंके, स्वभाव, अधिष्ठान, लक्षण, निदान, विकल्प, इनमें अंशादि असंख्यता होनेसे रोग भी असंख्य होते हैं ॥१॥ रोगोंका निज आगन्तुकादि भेदोंसे सकारण वर्णन और रोगकल्पना क्रम । मुखानितुखल्वागन्तो नखदशनपतनाभिचाराभिशापाभिषण- .
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( २२८ )
चरकसंहिता - भा० टी० ।
व्यधवन्धपडिन रज्जु दहनमन्त्राशनि भूतोपसर्गादीनि ॥ २ ॥ निजस्यतुमुखंवातपित्तश्लेष्मणांवैषम्यम् ॥ ३ ॥
आगतुज रोगांके कारण यह होते हैं । जैसे-नख दंतादिका लगना, गिरना, अभिचार, अभिशाप, अभिपंग, वेधन, बंधन, पीडन, रस्सी आदिका बंधन, दहन, मंत्र, वज्रपात और किसी जानवर आदिके उपसर्गसे आगंतुज रोग होते हैं ॥ २ ॥ और वात, पित्त, कफकी विषमतासे निज ( शारीरिक ) रोग होते हैं ॥ ३ ॥ द्वयोस्तुखलुआगन्तुनिजयोः प्रेरणसात्म्येन्द्रियार्थसंयोगः प्रज्ञापराधः परिणामश्चेति । सर्वेपितुखल्वेतेऽभिप्रवृद्धाश्चत्वारोरोगाः परस्परमनुबध्नन्ति न चान्योन्यसन्देहमापद्यन्ते ॥ ४ ॥
आगंतुज और निज इन दोनों रोगोंको प्रेरण करके लानेका कारण असात्म्य पदार्थों का संभोग होना ही है और बुद्धिके अपराधका परिणाम भी कारण है क्योंकि सब वस्तुओंका अयोग, अतियोग, मिथ्यायोग होनेसे ही दोनों प्रकार के रोगों की उत्पत्ति होती हैं । यह वातज, पित्तज, कफज, आगंतुज, चारों रोग बहुत वृद्धिको प्राप्त होनेसे परस्पर लक्षणों को प्रकाशित करते हैं । परंतु इनके एकके लक्षणांम दूसरेका संदेह नहीं होता ॥ ४ ॥
आगन्तुर्हिव्यथापूर्व समुत्पन्नोजघन्यं वातपित्तश्लेष्मणांवैषम्यमापादयति । निजतुवातपित्तश्लेष्माणः पूर्ववैषम्यमापद्यन्ते जघन्यंव्यथामभिनिर्वर्त्तयन्ति । तेषांत्रयाणामपिदोषाणां शरीरस्थान विभागउपदेक्ष्यते ॥ ५ ॥
निज और आगंतुज रोगोंमें भेद केवल इतना ही है कि आगंतुज रोग पहले प्रगट होकर पीछे वात, पित्त, कफकी विषमताको धारण करता है । और निज रोगों पहले वात, पित्त, कफकी विषमता होकर पीछे रोगको उत्पन्न करते हैं । अब उन वात, पित्त, कफके स्थान विभागको कहते हैं ॥ ५ ॥
तद्यथावस्तिः पुरीपाधानंकटिः सक्थिनी पादावस्थीनिवातस्थानानि । तत्रापिपक्वाशयोविशेपेणवातस्थानम् ॥६॥ स्वेदोरसोलसीकारुधिरमामाशयश्चपित्तस्थानानितत्रापिआमाशयोविशेपेण पित्तस्थानम्॥७॥उरः शिरोग्रीवा पर्वाण्या माशयो मेदश्चश्लेमणः स्थानानि तत्रापिडरोविशेषेण श्लेप्मणः स्थानम् ॥ ८ ॥
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सूत्रस्थान-अ०२०
(२२९) वस्ति, मलस्थान, कमर, नितंब, दोनों पांव, हड्डी यह वायुके स्थान हैं । इनमें भी पक्षाशय विशेषतासे वातका स्थान है ॥ ६ ॥ स्वेद,रस, लसीका, रक्त और आमाशय यह पित्तके स्थान हैं । इनमें भी आमाशय, विशेषतासे पित्तका स्थान है। इस जगह आमाशय शब्दसे आमाशयांशभूत ग्रहणी समझना ॥७॥ उरास्थल मस्तक, गर्दन, पर्व, आमाशय, और मेद यह कफके स्थान हैं। इनमें भी उरस्थल (छाती) विशेषतासे कफका स्थान है ॥ ८॥
सर्वशरीरचारास्तुवातपितश्लेष्माणोहिसर्वस्मिन्छरीरकुपिताकुपिताःशुभाशुभानिकुर्वन्ति। प्रकृतिभूताःशुभानि, उपचयबलवर्णप्रसादादीनि । अशुभानिपुनःविकृतिमापन्नानिविकारसंज्ञकानि । तत्रविकाराःसामान्यजानानात्मजाश्चतत्रसामान्यजाःपूर्वमष्टोदरीयेव्याख्याताः। नानात्मजास्त्विहाध्यायेऽनुव्याख्यास्यामः ॥९॥ संपूर्ण शरीरमें वात,पित्त, कफ, यह तीनों विचरतेहैं और कुपित या अकुपित हुए सर्वशरीरमें शुभ तथा अशुभको करतेहैं । यदि यह वातादि प्रकृतिस्थ हों तो शरीरमें पुष्टि, बल, वर्ण, प्रसन्नता आदि शुभलक्षणोंको करतेहैं और विकृत होनसे अनेक प्रकारके विकारोंको करतेहैं । इन दोषोंका विकृत होना ही विकार कहाजाताहै । वह विकार सामान्यज और नानात्मज इन भेदोंसे दो प्रकारके हैं । सामान्यज विकार अष्टोदरीय अध्यायमें कह चुके हैं और नानात्मज विकारोंको इस अध्यायमें कथन करतेहैं ॥९॥
तद्यथा-अशीतिर्वातविकाराःचत्वारिंशत्पित्तविकाराविंशतिः श्लेष्मविकाराः ॥१०॥ वह इस प्रकार हैं जैसे ८० प्रकारके वातविकार हैं । ४० प्रकारके पित्तविकार हैं और बीस २० प्रकारके कफके विकार होतेहैं ॥ १० ॥
तत्रादौवावविकाराननुव्याख्यास्यामः । तद्यथा-नखभेदश्च, विपादिकाच, पादशूलञ्च, पादनंशश्च, सुप्तपादताच, वातखुडताच, गुल्फग्रहश्च,पिण्डिकाद्वेष्टनञ्च, गृध्रसीच,जानुभेदश्च, जानुविश्लषश्च, ऊरुस्तम्भश्च, ऊरुसादश्च, पागुल्यञ्च,गुदभ्रंशश्च, गुदार्तिश्च, वृषणोत्क्षेपश्च, शेफस्तम्भश्च, वंक्षणाना
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(२३०) चरकसंहिता-भा० टी०। हश्च, श्रोणिभेदश्च, विड्भेदश्च, उदावर्तश्च, खञ्जत्वञ्च,कुब्जत्वञ्च, वामनत्वञ्च, त्रिकग्रहश्च, पृष्टग्रहश्च, पाविमर्दश्च, उदरवेष्टश्च, हृन्मोहश्च, हृद्वश्च, वक्ष-उपरोधश्च, वक्षउद्धर्पश्च, वाहुशोपश्च, ग्रीवास्तम्भश्च, मन्यास्तम्भश्च,कण्ठोद्रंसश्च हनुस्तम्भश्च, ओष्ठभेदश्च, दन्तभेदश्च दन्तशैथिल्यञ्च, मूकत्वञ्च, वाक्सङ्गश्च, कषायास्यताच,मुखशोषश्च, अरसज्ञताच, घाणनाशश्च, कर्णशूलञ्च, अशब्दश्रवणञ्च, उच्चैःश्रुतिश्च वाधिय॑श्च वर्त्मस्तम्भश्च, वर्मसंकोचश्च, तिमिरञ्च, आक्षशूलञ्च, आक्षिव्युदासश्च, भ्रूव्यदासश्च,शंखभेदश्च, ललाटभेदश्च,शिरोरुक्च, केशभूमिस्फुटनञ्च, अर्दितञ्च, एकाङ्गरोगश्च, सर्वाङ्गरोगश्च, पक्षवधश्च, आक्षेपकश्च, दण्डकश्च, श्रमश्च, भ्रमश्च वेपथुश्चं, जृम्भाच,विषादश्चातिप्रलापश्च,ग्लानिश्च,रौक्ष्यञ्च,पारुण्यश्च,श्यावारुणावभासताच, अस्वप्नश्च,अनवस्थितत्वचेत्यशीतिर्वातविकाराः ॥११॥ उनमें पहले वातविकारोंको कहतेहैं । नखभद, विपादिका, पादशूल, पादभ्रंश, पादसप्ति, वातवुद्धता, गुल्फग्रह, पिंडिकादेष्टन,गृध्रसी, जानुभेद, जानुविश्लेष,उरु: स्तम,उरुसाद, पांगुल्य, गुदभ्रंश, गुदाति,वृषणोत्क्षेप,शेफस्तंभ,वेक्षणानाह,श्रोणी; भद,विभेद,उदावर्त,वंजता,कुबडापन,वामनत्व.त्रिकशूल, पृष्ठशूल, पार्श्वशूल,उदरखें: ट,हन्मोह, हद्दव, वक्षोपरोध, वक्षोदर्ष, वाहुशोष, ग्रीवास्तंभ, मन्यास्तंभ, कंठोद्धस, हनुस्तंभ, ओष्टभेद,दंतभेद, दंतशिथिलता, मूकता,वाण्यवरोध,कपायास्यता,मुखशोष, रसामान, प्राणनाश,कर्णशूल, कर्णनाद,उच्चैःश्रवण,वाधिर्य वर्मस्तंभ, वर्त्मसंकोच, तिमिर आभिगल,अक्षिघुदास,भूव्युदास,शंखभेद,ललाटभेद, शिरःशूल, केशभूमिस्फुटन, अति.एकांगरोग,सर्वांगरोग,पक्षावात,आक्षेपक. दंडक, श्रमबोध,भ्रम,कंप, अभा, विपाद, अतिमलाप, ग्लानि, रूक्षता पासप्प, श्याम या अरुणावभास, अनिद्रा, चलचित्तता, यह अस्ती रोग वातसे होतहे ॥ ११ ॥
वातविकाराणामपरिसंख्येयानामाविष्कृततमाव्याख्याताःलवयपिखल्वतेपुवातविकारेपअन्येपुचानुकेपुवायोरिदमात्मरू
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सूत्रस्थान-अ० २०.
(२३१) पमपरिणामिकर्मणश्चस्वलक्षणंयदुपलभ्यतदवयवाविमुक्तसन्देहावातविकारमेवाध्यवस्यन्तिकुशलाः ॥ १२ ॥ वातरोग असंख्य होते, परंतु यहां पर उन असंख्य विकारोंमें जो मुख्य २ हैं उनका कथन करदियाहै इन वातविकारोंमें तथा इनसे अन्य जो यहां पर नहीं कहेगये उनमें भी वायुके विकृत और अविकृत अवस्थाके कर्म, लक्षण तया अंशादि विचार कर संदेहरहित कुशल वैद्य वातविकारोंको जाने क्योंकि विकृत वायु अपनी अवस्था छोडदेनेसे जिस स्थानमें प्रवेश करताहै उसी स्थानमें अनेक विकारोंको उत्पन्न कर देताहै, इसलिये वातके स्वभाव, लक्षणों को समझलेना बुद्धिमान् वैद्यका कर्म है ॥ १२ ॥
तद्यथा। रौक्ष्यलाघववैषद्यं शैत्यंगतिरमृर्तत्वञ्चोतवायोरात्मरूपाणि । एवंविधत्वाच्चकर्मणश्चस्वलक्षणमिदमस्यभवति तंतंशरीरावयवमाविशतःस्त्रंसग्रंशव्यासाङ्गभेदसादहर्ष-तर्षावर्त-मर्दकम्पचालतोदव्यधवेष्टभङ्गास्तथाखरपरुषविषदसुषिरतारुणकषायविरसता-शोषशलसुप्तिसंकुचनस्तम्भनानिवायोःकर्माणितैरन्वितंवातविकारमेवाध्यवस्येत् ॥ १३ ॥
अब उन वायुके धर्मोको कहतेहैं।जस-क्षता,लघुता,विशदता,शीतता,गमनशीलता, सूक्ष्मता, यह वायुके आत्मरूप हैं। इन ही धर्मोंवाले वायुके कर्म और लक्षण होतेहैं । जब यह शरीरस्थ विकृत वायु शरीरके जिस २ अंगमें प्रवेश करताहै उसी २ अंगमें वायुके कार्य और लक्षण दिखाईदेतेहैं जैसे संस, भ्रंश, प्रसार, अंगभेद, विषाद, हर्ष, तर्ष, आवर्तन, मर्द, कंप, चालन, तोद,व्यव,वेष्ट, भंगता, कर्कशता, परुषता,विशदता, सुषिरता, अरुणवर्णता, क्षायता, रसाज्ञान, शोष, शूल,सुप्ति, संकोचन,स्तंभन यह वायुके कम हैं।इन लक्षणोंवाले विकारोंको वातविकार मान१३॥
वातरोगों में सामान्यचिकित्साक्रम । तमधुरामललवणस्निग्धाष्णैरुपक्रमैरुपक्रमेत । स्वेदस्नेहास्थापनानुवासननस्तःकर्मभोजनाभ्यङ्गोत्सादनपरिपेकादिभिर्वातहरैर्मात्रांकालश्च प्रमाणीकृत्यास्थापनानुवासनन्तुसर्वथोपक्रमेभ्योवातेप्रधानतमंमन्यन्तेभिपजः ॥१४॥
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(२३२)
घरकसंहिता-भा० टी०। वैद्यको उचित है कि मधुर, अम्ल, लवण, निग्ध और उष्ण द्रव्य द्वारा वातकी चिकित्सा करे । वातनाशक स्वेदन, स्नेहन, आस्थापन, अनुवासन, नस्यकर्म, - उष्णस्निग्धभोजन, अभ्यंग, उत्सादन और परिषेक आदिसे मात्रा और काल विचारकर वायुको जोते । वातनाशक सब क्रियाओंमें वैद्य लोग आस्थापन और अनुवासन वस्तिकर्मको ही मुख्य मानतेहे ॥ १४ ॥ तयादितएवपक्वाशयमनुप्रविश्यकेवलंवैकारिकंवातमूलंछिनत्ति । तत्रावजितवातेऽपिशरीरान्तर्गतावातविकाराःप्रशान्तिमापद्यन्ते । यथावनस्पते लेछिन्नस्कन्धशाखावरोहकुसुमफलपलाशादीनांनियतोविनाशस्तद्वत् ॥१५॥ (क्योंकि) आस्थापन और अनुवासन कर्म पक्काशयमें प्रवेश करके विकार करनेवाले वायुको जडसे ही नष्ट कर देताहै । जब पक्काशयस्थ वैकारिक वायु नष्ट होजाता है फिर वातजन्य विकार स्वयं शांतिको प्राप्त होजातेहैं । जैसे वृक्षकी जड काटदेनेसे उसके टहने, टहनियां,अवरोह,फूल, फल,पत्ते आदि सव स्वयं विनाशको प्राप्त होजाते हैं। ऐसे ही पक्वाशयस्थ वायुके उच्छेदसे सब वातविकार शांत होजा. तेहैं ।। १५॥
पित्तके ४० रोग। पित्तविकाराश्चत्वारिंशदतऊर्द्धव्याख्यास्यन्ते।तद्यथा-ओषश्च, प्लोषश्च, दाहश्च, दवथुश्च, धूमकश्च, अम्लकश्च, विदाहश्च, अन्तर्दाहश्च,अंसदाहश्च,ऊपमाधिक्यञ्च,अतिस्वेदश्चाङ्गगन्धश्च, अङ्गावयवदरणञ्च, शोणितक्लेदश्च, मांसक्लेदश्च, त्वग्दाहश्च, मांसदाहश्च, त्वङ्मांसदरणञ्च, चर्मदरणञ्च, रक्तकोठाश्च, रक्तविस्फोटाश्च, रक्तपित्तञ्च, रक्तमंडलानिच, हरितत्वञ्च, हारिद्रत्वञ्च, नीलिकाच, कक्षाच, कामलाच, तिक्तास्यताच, पतिमुखताच, तृष्णायाआधिक्यञ्च, अतृप्तिश्च,आस्यपाकश्च, गलपाकश्च, आक्षिपाकश्च, गुदपाकश्च,मेट्रपाकश्च, जीवादानञ्च,तमःप्रवेशश्च, हरितहारिद्रमृत्रनेत्रवर्चस्त्वञ्चेतिचत्वारिंयात्पित्तविकाराः। पित्तविकाराणामपरिसंख्येयानामाविष्ठततमात्याख्याताभवन्ति ॥ १६ ॥
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सूत्रस्थान - अ० २०.
( २३३ ) ' अब इसके उपरांत चालसि प्रकारके पित्तविकारोंका कथन करते हैं । अनिके तापके समान ताप, जलन, दाह, हृदयमें धकर आगसी जलना, धूवांसा निकलना, खट्टी डकार, विदाह, अंतर्दाह, अंशदाह, गर्मीको अधिकता, अतिस्वेद, अंगगंध, अंग और अवयवोंका फटना, शोणितक्केद, मांसक्केद, त्वग्दाह, मांसदाह, त्वचा और मांसका फटना, चर्मदरण रक्तके चकत्ते पड़ना, लाल रंगके फोडे, रक्तपित्त, रक्तमंडल, हरा वर्ण होजाना, हलदीका सा रंग होना, नीलिका, कछराली, कामला, मुखमें कडुवापन, मुखदुर्गंध, तृष्णाकी अधिकता, अतृप्ति, मुखपाक, गलपाक, नेत्रपाक, गुदपाक, शिश्नपाक, जविसंज्ञक रक्तका क्षय, अंधकार प्रतीत होना, हरे तथा हलदीके वर्णके समान नेत्र, मूत्र, पुरीष, त्वचाका वर्णहोजाना, यह चालीस पित्त के विकार हैं। पित्तके विकार असंख्य होते हैं । परंतु उन असंख्योंमें जो मुख्य हैं उन ४० विकारोंका यहां कथन किया गया है ॥ १६ ॥
सर्वेष्वपिखल्वेतेषुपित्तविकारेष्वन्येषुचानुक्तेषुपित्तस्येदमात्मरूपमपरिणामिकर्मणश्चस्वलक्षणयत्तदुपलभ्यतदवयवंवावि
मुक्तसन्देहाः पित्तविकारमेवाध्यवस्यन्तिकुशलाः ॥ १७ ॥
इन सब पित्तविकारों में तथा जो यहां नहीं भी कहे उन अन्य पित्तविकारोंमें - पित्तके आत्मिक स्वभाव और परिणामोंको तथा पित्तके कर्म और लक्षणों द्वारा पित्तके अंशविकारादि देखकर चतुरलोग निस्सन्देह उस रोगको पित्तजन्य 'मानते हैं ॥ १७ ॥
.
तद्यथा ।
औष्ण्यंतैक्ष्ण्यंलाघवमनतिस्नेहवर्णश्चशुक्लारुणवजगन्धश्च विस्रोरसौचकटुकाम्लपित्तस्यात्मरूपाणि । एवंविधत्वाञ्चकर्मणः स्वलक्षणमिदमस्यभवति । तंतंशरीरावयवमाविशतोदाहोष्मपाकस्वेदक्लेदकोथस्राव रागाः यथास्वञ्चगन्धवर्णरसादिभिनिर्वर्त्तनंपित्तस्य कर्माणितैरन्वितपित्तविकारमेवाध्यवस्येत् ॥ १८॥ अब पित्तके कर्म और लक्षणोंको कहते हैं जैसे उष्णता, तीक्ष्णता, लघुता, किंचित्स्नग्धता, शुक्ल और अरुणवर्णसे भिन्न वर्णवाला, दुर्गंधित, पूति, कटु, खट्टा, यह सब पित्तके आत्मधर्म हैं इस ही प्रकारके इसके कर्म और लक्षण होते हैं। - जब यह कुपित होकर जिस २ अंगमें जाता है उसी २ अंगमें दाह, गर्मी, पाक, स्वेद, क्लेद, कोथ, स्राव, लाली यह लक्षण होतेहैं और पित्तके धर्मवाले ही गंध,
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( २३४ )
चरकसंहिता - भा० टी० ।
वर्णं. मुखका स्वाद आदि होते हैं ऐसे २ पित्तात्मक लक्षणों के होनेसे पित्तविकारकों निश्चय करे ॥ १८ ॥
पित्तविकारों में चिकित्साक्रम ।
तंमधुरतिक्तकपायशीतैरुपक्रमैरुपक्रमेत स्नेहविरेकप्रदेहपरिषेकाभ्यङ्गावगाहादिभिः पित्तहरैर्मात्रांकालञ्चप्रमाणीकृत्य । विरेचनन्तु सर्वोपक्रमेभ्यः पित्ते प्रधानतममन्यन्तेोभिषजः ॥ १९ ॥ पित्तकी चिकित्सा मीठे, कडुवे कषैले और शीतल द्रव्योंद्वारा करे | तथा पित्तकों शान्त करनेवाले स्नेहन, विरेचन, प्रलेप, परिषेक, अभ्यंग, अवगाह द्वारा मात्रा काल विचारकर चिकित्सा करे। पित्तनाशक संपूर्ण चिकित्साओं में विरेचन कराना वैद्यजन सबसे उत्तम चिकित्सा मानते हैं ॥ १९ ॥
तद्ध्यादित एवामाशयमनुप्रविश्य केवलं वैकारिकंपित्तसूलञ्चापकर्पतितत्रावजितेपित्तेऽपिशरीरान्तर्गताः पित्तविकाराः प्रशान्तिमापद्यन्ते । यथाग्नौव्यपोढे केवलमग्निगृहञ्चशीतं भवतितद्वत्॥२०॥
क्या के विरेचनकारक औषधि आमाशय में प्रवेश करके विकारकारक पित्तकों जडसे उखाडकर विरेचन द्वारा निकालदेती है आमाशय में बढे हुए पित्तको जीतले - नेसे शरीरान्तर्गत पित्तविकार स्वयं शांत होजाते हैं जैसे अनिके नष्ट होनेसे अग्निका स्थान भी स्वयं शीतल होजाता है उसीके समान पित्तविकार स्वयं शांत होजाते हैं २० कफके २० रोग |
श्लेष्मविकाराश्चविंशतिरतऊर्द्धं व्याख्यास्यन्ते । तद्यथा-तृतिश्च तन्द्राच, निद्राधिक्यञ्च, स्तौमित्यञ्च, गुरुगात्रताच, आलस्यञ्च, मुखमाधुर्यञ्च, मुखस्रावश्च, उद्द्वारश्च; लेप्मोहरणञ्च, मलस्याधिक्यञ्च, कण्ठोपलेपश्च, वलाशश्च हृदयोपलेपश्च, धमनीप्रतिचयश्च, गलगण्डश्च, अतिस्थौल्यञ्च, शीताग्निताच, उदर्दश्च श्वेतावभासताच, श्वेतमूत्रनेत्र वर्चस्वश्रेतिविंशतिःइलेप्मविकाराः ॥ २१ ॥
अपयोग प्रकार के कफर्क विकारों को कहते हैं। वह इसप्रकार हैं। तृप्ति (अरुचि), तन्द्रा, निवासी अधिकता, स्तमित्य, अंगों का भारीपन, आलस्य, मुखमं मीठापन, लावदना, उहार, चारचार कफका भूकना, मलकी अधिकता, कंटमें कफका लिपा
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सूत्रस्थान-अ०.२०.
(२३६) रहना, वलास, हृदयका लिहसा सा रहना, धमनियों में स्थूलता, गलगंड, आतिस्थू. लता, मंदाग्नि, उदर्द, सफेद वर्ण होना, मूत्र, नेत्र और पुरीषका सफेद होना, यह बीसप्रकारके कफके विकार हैं ॥ २१ ॥ श्लेष्मविकाराणामपरिसंख्येयानाभाविष्कृततमाख्याताल
वपितुखल्वेतेषुश्लेष्मविकारेष्वन्येषुचानुक्तेषुश्लेष्मणइदमा- . त्मरूपमपरिणामिकर्मणश्चस्वलक्षणयदुपलभ्यतदवयववावि
मुक्तसन्देहाश्लेष्मविकारमध्यवस्यन्तिकुशलाः ॥ २२॥ . यद्यपि कफसे विकार असंख्य होसकेतहैं परंतु उनमें जो मुख्य बीस विकार हैं यहां उनका कथन कियाहै । इन सब विकारों में जो यहां कथन कियेहैं और जो कथन नहीं किये गये इन सबमें कफके धर्म और लक्षणोंको और कफकी विकृतावस्थाके कर्मोंको विचारकर कुशल वैद्य कफके विकारोंका निश्चय करे ॥२२॥
तद्यथा-श्वैत्यशैत्यगौरवमाधुर्यमात्सर्याणिश्लेष्मणआत्मरूपाण्येवंविधत्वाच्चकर्मणःस्वलक्षणमिदमस्यभवति । तंतंशरीरावयवमाविशतः श्वैत्यशैत्यकंडूस्थैर्यगौरवस्नेहस्तम्भसुप्तिक्लेदोपदेहबन्धमाधुर्यचिरकारिवानिश्लेष्मणःकर्माणितै
रान्वितश्लेष्मविकारमेवाध्यवस्येत् ॥ २३ ॥ वह कफात्मक धर्म इसप्रकार है । जैसे वैत्य शैत्य, गौख, माधुर्य,मात्सर्य, यह. कफके आत्मरूप हैं । और इस ही प्रकारके इसके कर्म और लक्षण होतेहैं । यह जब जिसरशरीरके अवयवमें प्रवेश करताहै उसमें श्वेतता, शीतता, खाज, स्थिरता, भारीपन, स्निग्धता, स्तंभ, सुप्ति, क्लम, क्लेद, उपलेप, बंध,माधुर्य, चिरकारीपन इन अपने कर्म लक्षणोंको दिखाताहै । इन लक्षणोंयुक्त विकारोंको कफके विकार जाने ॥ २३ ॥
श्लेष्मविकारकी चिकित्सा। तंकटुकतिक्तकषायतीक्ष्णोष्णरूक्षरुपक्रमैरुपक्रमेतस्वेदनवमनशिरोविरेचनव्यायामादिभिःश्लेष्महरैर्मात्रांकालञ्चप्रमाणी
कृत्य । वमनन्तुसवोपक्रमेभ्यःश्लेष्मणिप्रधानतमंमन्यन्तेभि...षजः ॥ २४॥ तद्धयादितएवामाशयमनुप्रविश्यकेवलंवैकारकंश्लेष्ममूलमपकर्षति । तत्रावजितेश्लेष्मण्यपिशरीरान्तर्ग
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(२३६) चरकसंहिता-भा० टी०। ताः श्लेप्मविकाराःप्रशान्तिमापद्यन्ते । यथाभिन्नेकेदारसेतो शालियवपष्टिकादीन्यभिष्यन्द्यमानानि, अम्भसाप्रशोषमापद्यन्तेतद्वदिति ॥ २५॥ उस कफको कटु, तिक्त, कषाय, तीक्ष्ण और उष्ण तथा रूक्ष उपायों द्वारा जीते । एवं स्वेदन, वमन, शिरोविरेचन, व्यायाम आदिक कफनाशक उपायों द्वारा मात्रा और काल विचारकर चिकित्सा करे । कफनाशक सव उपायों में वैद्यजन वमन कराना सबसे उत्तम मानतेहैं, क्योंकि वामक औषधि प्रथम ही आमाशयमें प्रवेश कर वैकारिक कफको जडसे आकर्षण करके निकालदेती है । फिर उस वैकारिक कफके जीते जानेसे शरीरान्तर्गत सव कफके विकार स्वयं शान्त होजातेहैं । जैसे पानीके भरे खेतकी डौल तोडदेनेसे खेतका सव पानी बाहर निकल जाताहै और उस खेतके अदरके सव धान सूखजातेहैं ऐसे ही कफविकार भी सब शांत होजातह ॥ २४ ॥ २५ ॥
भवान्तचात्र ।
अध्यायका उपसंहार। रोगमादोपरीक्षेतततोऽनन्तरमौषधम्।
ततःकर्मभिपक्पश्चाज्ज्ञानपूर्वसमाचरेत् ॥ २६ ॥ यहां कहा कि पहले रोगकी परीक्षा करे फिर औषधिकी परीक्षा करे, इन दानोंका ययोचित निश्चय करके फिर ज्ञानपूर्वक चिकित्साकर्मका आरंभ करे २६॥
यस्तुरोगमविज्ञायकर्माण्यारभतेभिषक् । । अप्यौपधविधानजस्तस्यसिद्धिर्यदृच्छया ॥२७॥
जो वेद्य रोगको यथोचित समझे विना ही चिकित्साका आरंभ करदेताहै वह यदि श्रीपचतानमें कुगल भी हो फिर भी उसकी सिद्धि देवाधिन है अर्थात् अन्दाज लगगया तो लगगया नहीं तो नुकसान भी होजाताहै ॥ २७ ॥
यस्तुरोगविशेषज्ञःसर्व पज्यकोविदः।
देशकालप्रमाणजस्तस्यसिद्विरसंशयम् ॥ २८ ॥ जोवर गेगको भले प्रकार समझलेताह तया सब प्रकारसे औषधक्रियाम भी गिल और देश काल विचारकर चिकित्सा करताह उसकी सिद्धि अवश्य ही होती ॥ २८॥
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सूत्रस्थान - अ० २१. अध्यायका संक्षिप्तवर्णन | तत्रश्लोकाः | संग्रहः प्रकृतिर्देशोविकारमुखमीरणम् । असन्देहोऽनुबन्धश्चरोगाणां सम्प्रकाशितः ॥ २९ ॥ दोषस्थानानिरोगाणांगणानानात्मजाश्चये । रूपंपृथक्त्वाद्दोषाणां कर्मचापरिणामियत् ॥ ३० ॥ पृथक्त्वेन च दोषाणांनिर्दिष्टाः समुपक्रमाः । सम्यङ्महतिरोगाणामध्यायेतत्त्वदर्शिना ॥ ३१ ॥
इत्यग्निवेशकृतेतन्त्रेचरकप्रतिसंस्कृते रोगचतुष्के महारोगाध्यायोनामविंशोऽध्यायः समाप्तः ॥ २० ॥
अव यह अध्यायके उपसंहारमें श्लोक हैं कि इस महारोगाध्याय में रोगों का संग्रह प्रकृति, देश, काल, विकार, कारण, वातादिभेदसे अलग अलग कारण स्वभाव रोगोंका निश्चय, रोगों का अनुबन्ध, दोषोंके स्थान, रोगोंके गण, विकारोंकी अनेकता, दोषोंके अलग अलग धर्म, और उनके परिणामि कर्म, तथा वातादि • दोषोंकी अलग अलग चिकित्सा यह सव तत्त्ववेत्ता महात्मा पुनर्वसुजीने कथन किया है ॥ २९ ॥ ३० ॥ ३१ ॥
इति श्रीमहर्षिचरक ० पं० रामप्रसादवैद्य० भाषाटीकायां महारोगाध्यायो नाम विंशोऽध्यायः ॥ २० ॥
एकविंशोऽध्यायः ।
(२३७)
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अथातोऽष्टौनिन्दितीयमध्यायं व्याख्यास्यामइतिहस्माहभग
वानात्रेयः ।
अब हम अष्टौनिंदितीय नामके अध्यायकी व्याख्या करते हैं ऐसा आत्रेय भगवान् कहने लगे ।
आठप्रकारके निन्दनीय पुरुष । इहखशरीरमधिकृत्याष्टौपुरुषानिन्दिताभवन्ति । तद्यथा-अतिदीर्घश्चातिह्रस्वश्चातिलोमा चालोमाचातिकृष्णश्चातिगौरश्चातिस्थूलश्चातिकृशश्चेति ॥ १ ॥
इस शास्त्रमें आठ प्रकारके शरीरोंवाले पुरुष निन्दनीय कहेजातें हैं । वह आठ इस प्रकार हैं जैसे- बहुत लंबा बहुत छोटा, बहुत बालोंवाला, जिसके शरी
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(२३८) चरकसंहिता-भा० टी०। रपर रोम विलकुल न हों, अत्यंत काला, बहुत गोरा, और अतिस्थूल, एवं अति कृश, यह आठ प्रकारके शरीर निंदाके योग्य हैं ॥ १ ॥
आतिस्थूलमें आठ अवगुण । तत्रातिस्थूलकृशयोर्भूयएवापरेनिन्दितविशेषाभवान्त । अति. स्थूलस्यतावदायुपोह्रासःजरोपरोधःकृच्छ्रव्यवायतादौर्बल्यदौर्ग
न्ध्यस्वेदावाधःक्षुदतिमात्रपिपासातियोगश्चेतिभवन्त्यष्टौदोषाः२ इन आठोम, अधिकमोटा,एवं अधिककृश,विशष निंदाके योग्य होतेहैं,क्योंकि अधिक मोटा हानस आयुका हास होताहै और बुढापा शीघ्र ही आजाताहै तथा शरीरके सूक्ष्म छिद्र रुक जाते हैं । एवं स्त्रीसंगमें कष्ट, दुर्वलता, शरीरमें दुर्गन्धि, पसीना, अधिक क्षुधा, अधिक प्यास यह आठ दोष होतेहैं । इसलिये बहुत मोटा शरीर निंदनीय होताहै ॥ २॥
___आत स्थूलताका कारण। तदतिस्थौल्यमतिसंपूरणाद्गुरुमधुरशीतस्निग्धोपयोगादव्यायामादव्यवायादिवास्वप्नाद्धर्षनित्यत्वादचिन्तनाहीजस्वभावाचोपजायते ॥३॥ वह अतिस्थूलपना अधिक तृप्तिकारक, भारी, मीठे, शीतल, चिकने पदार्थोंके खानेसे, कसरत न करनेसे, स्त्री संग न करनेसे, दिनमें सोनेसे, सदा प्रसन्न रहनेसे,चिन्ता न करनेसे और माता पिताके मुटाईके कारणसे होताहै .॥ ३.॥
तस्यातिमात्रंमेदस्विनोमेदएवोपचीयतेनेतरेधातवस्तस्मादस्यायुपोहासः, शैथिल्यात्सौकुमार्याद्गुरुत्वाच्चमेदसोजरोपरोधः, शुक्राबहुत्वान्मेदसावृतमार्गत्वाकच्छ्रव्यवायतादौर्बल्वमसमत्वाद्वातनां दार्गन्ध्यमेदोदोपान्मेदसःस्वभावत्वात्स्वेदलत्वा. चमेदसः, श्लेमसंसर्गाद्विष्यन्दित्वाचवहत्वाव्यायामासहत्वास्वेदावाधः, तीक्ष्णाग्नित्वात्प्रभृतकोप्टवायुवाच्चक्षुदतिमात्रं पिपासायोगश्चेति ॥४॥ उस यति स्थल पुपके शरीरमें केवल चव मात्र बढती जाती हैं और सव धारा वरनंगे बन्द होनातह तथा क्षीण होने लगजातहै इस लिये मेदस्वी पुरुषकी आयुका
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सूत्रस्थान-अ० २१..
(२३९). हास होना आरंभ होजाताहै तथा शररिमें शिथिलता, सुकुमारता और भारीपनसे बुढापा और छिद्रोंका रुकजाना, वीर्यकी अल्पता, तथा मेदसे शरीरके मार्गोंका रुकनाना, स्त्रीसंगम अधिक कष्ट होना, धातुओंकी सामान्यावस्था न रहनसे दुर्बलता होना, चाके बढनेसे, चीक दोषसे और चर्बीक स्वभावसे एवं पसीनेके आनेसे शरीरमें दुर्वलता बढजाती है तथा कफका संसर्ग, स्थूलता, व्यायामकी असह्यताके कारण पसीने आधिक आने लगतेहैं । एवं अग्निकी क्षीणता, और कोष्ठ वायुकी अधिकताके कारण क्षुधा आर प्यास बहुत बढजातीहै ॥ ४॥
भवान्तिचात्र । मेदसावृतमार्गत्वाद्वायुःकोष्ठेविशेषतः । चरन्सन्धुक्षयत्यग्निमाहारंशोषयत्यपि ॥ ५ ॥ तस्मात्सशीघंजनयत्याहारञ्चावकांक्षति । विकारांश्चाश्नुतेघोराकिञ्चित्कालव्यतिक्रमात् ॥६॥ एतावपद्रवकरौविशेषादग्निमारुतौ । एतौहिदहतःस्थलं वनदावोवनयथा ॥ ७ ॥ यहां पर कहतेहैं कि, मेदद्वारा सूक्ष्म मार्गोंके बंद होजानेसे वायु कोठेमें विशेपतासे विचरण करताहै तथा जठरामिको प्रज्वलित करके आहारको सुखादेताहै। यही कारण है कि मेदस्त्री पुरुषका आहार शीघ्र पचजाताहै एवं भोजन करनेकी वारवार इच्छा होने लगतीहै, यदि मेदस्वी मनुष्यको भोजन मिलनेमें किंचित देरे होतीहै तोवह घोरतर दुःखोंको प्राप्त होताहै । मेदस्वी पुरुषके शरीरमें आनं
और वायु इस प्रकार विशेष उपद्रव करतेहैं जैसे दावानल वनको भस्मकर डालताहै ऐसे ही मेदके शिवाय अन्य धातुओंको भी यह नाश करडालतेहैं ॥५॥६॥७॥
मेदके बहुत बढजानेके दोष । मेदस्यतीवसंवृद्धसहसैवानिलादयः । विकारान्दारुणान्कृत्वा नाशयन्त्याशुजीवितम् ॥ ८॥ मेदोमांसातिवृद्धत्वाञ्चलस्फिगुदरस्तनः। अयथोपचयोत्साहोनरोऽतिस्थलउच्यते ॥ ९ ॥ इतिमेदस्विनादोषाहेतवोरूपमेवच । निर्दिष्टवक्ष्यतेवाच्यमतिकाश्यऽप्यतःपरम् ॥ १०॥
शरीरमें मेद वृद्धिको प्राप्त होकर वात, पित्त, कफके अनेक प्रकारके रोगोंको प्रगट करके जीवनको नष्ट करदेताहै ॥ ८ ॥ मेद और मांसके अत्यन्त वढनेसे नितंब उदर एवं स्तन थलथल करने लगजातेहैं । इस प्रकार वृथा मोटापन होनेसे
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(२४०)
चरकसंहिता-भा० टी०॥ उस मनुष्यको अतिस्थूल कहतेहैं ॥९॥ इस प्रकार मेदस्वी मनुष्यके दोष और हेतु तया रूपाका कथन किया गयाहै । अव अत्यन्त कृश शरीरंवालोंके हेतु.और. लक्षणांको कहतेहैं ॥ १०॥
अतिकृशताके कारण और लक्षण । सेवारूक्षान्नपानानांलंघनप्रमिताशनम् । क्रियातियोगःशोकचवेगनिद्राविनिग्रहः ॥ ११ ॥ रूक्षस्योद्वर्तनस्तानस्याभ्यासः प्रकृतिर्जरा । विकारानुशयःक्रोधःकुर्वन्त्यतिकशनरम् ॥१२॥ रूक्ष अन्न पानके अधिक सेवन करनेसे, लंघन करनेसे, अल्पभोजन करनेसे,अतिशोधन अथवा परिश्रम करनेसे,शोकसे, मलमूत्रादि वेगोंको रोकनेसे,रात्रि में जाग. नेसे, रुखे द्रव्योंके उद्वर्तन करनेसे, स्नानका अभ्यास न रखनसे, कृशताकारक आहार विहारके सेवनसे, एवं बुढापेसे,तथा सदैव रोगी और क्रोधी रहने से मनुष्य दुर्वल अर्थात् कृश होतेहैं ॥ ११ ॥ १२ ॥
व्यायाममतिसौहित्यक्षुत्पिपासामोषधम्। कशोनसहततद्वदतिशीतोष्णमेथुनम् ॥ १३॥ प्लीहाकासःक्षयःश्वासोगुल्माशास्युदराणिच । कशंप्रायोऽभिधावन्तिरोगाश्चग्रहणीगताः ॥ १४ ॥ कृशशरीरवाला मनुष्य परिश्रम नहीं कर सकता, एवं पेट भरकर भोजन भूख, प्यास, अधिक औषधि सेवन, बहुत सर्दी, बहुत गर्मी अधिक मैथुन इन सबको सम्हार नहीं सकता। एवं इस दुर्वल शरीरवाले मनुष्यको-तिल्ली,खांसी,क्षय,श्वास, गोला, अर्श और उदररोग आकर घेर लेते हैं तथा कृश मनुष्यको ग्रहणी रोग भी होजाताहे ॥ १३ ॥ १४ ॥
शुप्कस्फिगुदरग्रीवोधमनीजालसन्ततः। स्वगास्थिशोपोऽतिकृशःस्थलपर्वानरोमतः ॥१५॥ सततव्यापितावेतावतिस्थूलरुशानरों । सततंचोपचोहिकर्पगैहणैरपि ॥ १६ ॥ काम मनुष्पक-नितंब, उदर,और ग्रीवा सूखजाती हैं तथा शरीर नसोंके जालसे व्यानया दिखाई देने लगताह त्वचा और हडिएं सखजाती हैं और गांठाके स्थान मोटे मोटे दिखाई देने लगतः ॥ १५ ॥ क्योंकि स्थूल और कृश यह दोनों ही सर्पदा भेगमस्त होते हैं इसलिये इनको ययाक्रम लंघन और बृहणसे सदेव उपचार पाना योग्य ॥ १६ ॥
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सूत्रस्थान-अ० २१. (२४१) स्थौल्यकाश्येवरंकायंसमोपकरणौहितौ ।
याभोव्याधिरागच्छेत्स्थूलमेवातिपीडयेत् ॥ १७ ॥ अधिक स्थूल और अधिक कृश इन दोनोंमें स्थूलकी अपेक्षा कृश फिर भी अच्छा माना जाता है क्योंकि दोनों के उपकरण समान होनेपर भीस्थूल मनुष्यको रोगग्रस्त होनेपर अधिक कष्ट सहना पडताहै ॥ १७ ॥
समके लक्षण। सममांसप्रमाणस्तुसमसंहननोनरः ।दृढेन्द्रियत्वायाधीनांन बलेनाभिभूयते ॥ १८॥ क्षुत्पिपासातपसह शीतव्यायामसं
सहः । समपक्तासमजरःसममांसचयोमतः ॥ १९॥ - जिस मनुष्यके शरीरमें मांसका परिमाण ठीक होताहै और देह सुडौल और सौम्प होताहै उसके सव इंद्रिय दृढ और बलवान् रहतेहैं । इसीलिये व्याधि उस मनुष्य पर अपना बल नहीं पासकती ॥ १८॥ वह सुडौल शरीरवाला मनुष्य क्षुधा. प्यासं, धूप तथा सर्दी और परिश्रम सह सकताहै । एवं उसकी पाचनशक्तिः विषम नहीं होती उसे छोटी उमरमें बुढापा भी नहीं आता,ऐसा मनुष्य सम और उत्तम कहा जाताहै, इस मनुष्यको अतिकृशता और अति स्थूलता नहीं होती ॥ १९ ॥
• अतिस्थूल और अंतिकृशका चिकित्साक्रम । गुरुचातर्पणंचेष्टंस्थूलानाकर्षणप्रति ।
कृशानांबृहणार्थचलघुसन्तर्पणञ्चयत् ॥ २०॥ स्थूल मनुष्यको याद कृश करनाहो तो कठोर और लंघन द्रव्य सेवन करानचाहिये । एवं कृशको पुष्ट करनेके लिये लघुसंतर्पण द्रव्य सेवन करना चाहिये ॥२०॥
स्थूलव्यक्तिकी चिकित्सा। वातघ्नान्यन्नपानानिश्लेष्ममेदोहराणिचा रूक्षोष्णावस्तयस्तीक्ष्णारूक्षाण्युद्वर्तनानिच॥२१॥गुड़चीभद्रमुस्तानांप्रयोगस्त्रफलस्तथा । तकरिष्टप्रयोगस्तुप्रयोगोमाक्षिकस्थच ॥२२॥ विडङ्गनागरक्षारःकाललोहरजोमधु।यवामलकचूर्णञ्चप्रयोगः श्रेष्ठउच्यते ॥ २३ ॥
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( १४२) वरकसंहिता-भा० टी०। ।
अवस्थूल मनुष्यकी चिकित्साका वर्णन करतेहैं । वात और कफनाशक तथा मेदके हरनेवाले अन्न पानोंका सेवन करावे और रूक्ष, गरम, तीक्ष्ण, वस्ति करे। रुक्ष उद्धर्तनांका प्रयोग करावे ॥२१ ॥ तथा गिलोय और भद्रमुस्तकका काय, विफलेका काथ, छाँछ, अरिष्ट, शहद, वायविडंग, सोंठ, जवाखार, शहदके संग उत्तम लोहभस्म, जव, आमलेका चूर्ण इन सवका प्रयोग करना मेदरोगके नए करनेके लिये उत्तम मानहि ॥ २२ ॥ २३ ॥ विल्वादिपञ्चमूलस्यप्रयोगःक्षौद्रसंयुतः। शिलाजतुप्रयोगस्तु सानिमन्थरसाशिला ॥२४॥ प्रसातिकाप्रियंगुश्चश्यामाकायवकायवाः । जूर्णाह्वाःकोद्रवामुद्गाकुलत्थाश्चक्रमर्दकाः ॥२५॥ आटकीनाञ्चवीजानिपटोलामलकैःसह । भोजनार्थप्रयोज्यानिपानञ्चानुमधदकम् ॥ २६॥ अरिष्टांश्चानुपानार्थेमेदोमांसकफापहान् । अतिस्थौल्यविनाशायसंविभज्यप्रयोजयेत् ॥२७॥ .
एवं-विल्वादि पंचमूलके काथमें शहद मिलाकर पिलाना उत्तम मानाहै। अथवा शिलाजीतका प्रयोग करे। अथवा आनिमंथका रस एवं मनशिलका प्रयोग भी परम उत्तम ॥ २४ ॥ अणुव्रीहि नामक धान्य, प्रियंगु (कांगनी धान्य), श्यामाकधान्य, क्षुधान्य जवार, जव, कोद्रव, मूंग, कुलथी, पनवाड (चक्रमर्द), अरहर, पटोल और आंग्लेका यूप यह सव खानेके लिये देना चाहिये । और मधु तथा मल या समयानुसार दोनों मिलाकर अनुगनके लिये देना चाहिये ॥ २५ ॥२६॥
और पीने के लिये या औषधिके पीछे अनुपानके लिये मेदनाशक तथा स्थूलताके नट करनेवाले एवं कफनाशक अरिष्ट देना चाहिये ॥ २७॥
प्रजागरंव्यवायञ्चव्यायामंचिन्तनानच ।
स्थौल्यामिच्छन्परित्यक्तुंक्रमणाभिप्रवर्द्धयेत् ॥ २८ ॥ निस मनुष्यको अपने शरीरकी स्थूलता दूर करनकी इच्छा हो वह रात्रिको जागरण, नोसेवन, व्यायाम, एवं चिन्ता इनका यथाक्रम सेवन करता जावे और धीरे धीरे इनके सेवनको बढाता जावे ॥ २८ ॥
कृशतानाशक प्रयोग। स्वामोहर्षःसुखाशय्यामनसोनिर्वृतिःशमः।चिन्ताम्यवायव्यायामविराम:प्रियदर्शनम् ॥ २९ ॥ नवान्नानिनवंमाग्राम्या
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सूत्रस्थान-अ० २१.
(२४३) पोदकारसाः। संस्कृतानिचमांसानिदधिसर्पिःपयांसिच ॥ ॥ ३० ॥ इक्षवःशालयोमांसागोधूमागुडवैकृतम् । वस्तयः स्निग्धमधुरास्तैलाभ्यङ्गश्चसर्वदा ॥ ३१ ॥ स्निग्धमुद्वर्तनं स्नानंगन्धमाल्यनिषेत्रणम् । शुक्लोवासोयथाकालंदोषाणामवसेचनम् ॥ ३२ ॥ रसायनानांवृष्याणांयोगानामुपसेवनम् । हत्त्वातिकार्यमादत्तेतृणामुपचयंपरम् ॥ ३३॥ अब कृशताके नाश करनेवाले यत्नोंको कहतहैं । जैसे इच्छापूर्वक सोना, हर्ष, सुन्दर नरम शय्या, संतोष, शांति, चिन्ता न करना, स्त्री संग न करना,व्यायाम न करना, इष्टवस्तुको प्राप्त होना, नवीन अन्न, नवीन मद्य, ग्रामसंचारी जीव, अनूप संचारी जीव, जलचर जीव, इनका मांसरस, उत्तम बनाया हुआ मांस, दधि,घृत, दूध, ईख, शालीचावल, उडद, गेंहू, मिठाई, चिकने और मीठे पदार्थोंकी वस्ति, नित्यतैलमर्दन, चिकने उद्वर्तन, स्नान, चन्दनका लेपन, सुगंधित फूलमाला, स्वच्छ वस्त्र धारण करना, समय पर शरीरका शोधन करना,रसायन तथा वृष्य योगोंका सेवन करना इन सब द्रव्योंका उपयोग मनुष्यकी कृशता (दुबलापन) को दूर करके परमपुष्टिको देनेवाला है ।। २९ ॥ ३० ॥ ३१ ॥ ३२॥ ३३ ॥
अचिन्तनाच्चकार्याणांध्रुवसन्तर्पणेनच । स्वप्नप्रसङ्गाच्चनरो . वराहइदपुष्यति ॥३४॥ एवं किसी कार्यकी भी चिन्ता न करनेसे तथा सदैव सतर्पण द्रव्योंके सेवन करसे और मस्त पडे रहनेसे मनुष्यका शरीर सूकरके समान पुष्ट होजाताहै ॥३४॥
निद्राका कारण और उसके उचितानुचित प्रकार । यदातुमनलिक्लान्तेकमात्मानःकुमान्विताविषयेभ्योनिवर्तन्तदास्वपितिमानवः ॥३५॥ निद्रायत्तंसुखंदुःखंपुष्टिःकाश्यवलावलम् । वृषताक्लीवताज्ञानमज्ञानंजीवितंनच ॥३६॥
अकालेऽतिप्रसङ्गाच्चनचनिद्रानिषेविता । सुखायुषीपराकुर्य्या. कालरात्रिारीवापरा ॥ ३७ ॥ सैवयुक्तापुनर्युकेनिद्रादेहंसु
खायुषा । पुरुषंयोगिनंसियासत्याबुद्धिरिवागता ॥ ३८॥. .जब मनुष्यके मनमें क्लांति आजातीहै और कर्मेंद्रिये थककर अपने विषयोंते निवृत्त होजातीहैं तब इस मनुष्यको निद्रा आतीहै अर्थात् सो जाताहै ॥३५॥ सुख
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(२४४) चरकसंहिता-भा० टी० और दुःख, पुष्टता और कृशता, वल तथा निर्बलता, वृषता तथा क्लीवता, ज्ञान और अज्ञान एवं जीवन और मरण यह सब निद्राके अधीन है ॥ ३६ ॥वे समय सोनेसे बहुत ज्यादा सोनेसे,एवं एकसाथ ही निद्राका त्याग देनसे. मनुष्योंका सुख और आयु रात्रिके प्रातःकालके समान किंचित् शेष रहजाताहै, तात्पर्य यह कि जैसे दो घडी रात वाकी रहनेपर रात्रि नष्टप्राय ही होतीहै ऐसेही निद्राकी विपरीततासे मनुष्यका सुख और आयु भी नष्टप्राय समझना चाहिये ॥ ३७ ॥ और वही निद्रा याद युक्तिपूर्वक ठीक सेवन कीजावे तो जैसे योगी पुरुष सिद्धिको प्राप्त होकर सत्यबुद्धिका लाभ करलेताहै उसी प्रकार रचित रीतिसे निद्रासेवन करनेवाला मनुष्य सुख और दीर्वायुको प्राप्त होताहै ॥ ३८ ॥
गीताध्ययनमद्यस्त्रीकर्मभारावकर्षिताः। अजीणिनःक्षताः क्षीणावृद्धावालास्तथाबलाः॥ ३९ ॥ तृष्णातीसारशूलार्ताः श्वासिनःशूलिनःशशाः । पतिताभिहतोन्मत्ताःक्लान्तायानप्रजागरैः ॥४०॥ क्रोधशोकभयक्लान्तादिवास्वप्नोचिताश्चये। सर्वएतेदिवास्वप्नंसेवेरन्सार्वकालिकम् ॥ ४१ ॥ जो मनुष्य गायन, अध्ययन, मद्यपान, स्त्रीसंग, कर्म,भार और मार्गसे यकगये हैं एवं-अजीर्णरोगी, उरक्षतवाला, क्षीण, वृद्ध, बालक, दुर्वल तथा प्यास, अतिसार, शूलसे पीडित, वासरोगी, हिचकीसे ग्रसाहुआ और कृश तथा गिरपडा हुआ एवं जिनके चोट लगीहो,बावला और सवारीसे थकाहुआ,जो रात्रिमें जागाहो, क्रोधी, शोकाकुल, भयातुर, दिनमें सोनेके अभ्यासवाला इन सब मनुष्योंको सव ऋतुओंमें दिनमें भी सोना अनुचित नहीं (इनसे सिवाय अन्य मनुष्योंको दिनमें सोना नहीं चाहिये ) ॥ ३९ ॥ ४० ॥४१॥ . धातुसाम्यात्तथाह्येषांबलञ्चाप्युपजायते ॥ श्लेष्मापुष्यतिचागानिस्थैर्यभवतिचायुषः॥४२॥ श्लेष्माचादानरूक्षाणांवर्द्ध- . मानेचमारुते । रात्रीणांचातिसंक्षेपादिवास्वप्नःप्रशस्यते ॥४३॥ ऊपर कहेहुए मनुष्योंके दिनमें सोनेसे सब धातु साम्यावस्थामें आकर बलकी वृद्धिको प्राप्त होते हैं और श्लेष्मा इनके अंगोंको पुष्ट करताहै जिससे इनके आयुर्मे स्थिरता प्राप्त होती है ॥ ४२ ॥ ग्रीष्मऋतुमें मनुष्योंके शरीर आदानकालके आकर्षणसे रूक्ष होते हैं और वायुका संचय होता है तथा रात्रि बहुत छोटी होती है इसलिये गर्मियोंमें दिनका सोना भी उत्तम कहाहै ॥ ४३ ॥
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(२४६
सूत्रस्थान - अ० २१. दिवानिद्राका निषेध | ग्रीष्मवर्ज्येषु कालेषुदिवास्वप्नात् प्रकुप्यतः । श्लेष्मपित्तेदिवास्वप्नस्तस्मात्तेषुनशस्यते ॥ ४४ ॥ मेदस्विनः स्नेहनित्याः इलेष्मलाः श्लेष्म रोगिणः । दूषीविषार्त्तावदिवानशयी रन्कदा
चन ॥ ४५ ॥
गर्मियोंके सिवाय अन्यऋतुओं में दिनके सोनेसे कफ और पित्त कुपित होते हैं इस लिये अन्यऋतुओं में दिनका सोना अनुचित कहाँ है ॥ ४४ ॥ जो मनुष्य अधिक मेदवाले हैं अथवा स्नेहको सेवन करनेवाले एवं कफप्रधान और कफके रोगवाले तथा दृषीविषसे पीडित हों उन मनुष्योंको किसी कालमें भी दिनमें सोना नहीं चाहिये ॥ ४५ ॥
दिवानिद्राके उपद्रव ।
हलीमकः शिरःशूलस्तैमित्यं गुरुगात्रता । अङ्गमर्दोऽग्निनाशश्च प्रलेपोहृदयस्यच ॥ ४६ ॥ शोथारोचकहृल्लासपीनसार्द्धावभेदकाः । कोठाश्चपिडकाः कंस्तन्द्राका सोगलामयाः ॥४७॥ स्मृतिबुद्धिप्रमोहाश्च संरोधः स्रोतसांज्वरः । इन्द्रियाणामसाम
विषवेगप्रवर्तनम् ॥ ४८ ॥ भवेन्नृणांदिवास्वप्नस्याहितस्य निषेवणात्। तस्माद्विताहितं खप्नं बुद्धा खप्यात्सुखंबुधः ॥ ४९ ॥ वे समय अथवा बहुत सोनेसे मनुष्योंके शरीर में हलीमक, मस्तकपीडा, स्तैमित्य, भारीपन, अंगमर्द, मंदाग्नि, हृदयका लिपासा होना, शोथ, अरुचि, हल्लास, पीनस, अर्धावभेदक, कोठरोग, पिडका, खुजली, तंद्रा, कास, गलरोग, स्मृति और बुद्धिका नाश, स्रोतोंका अवरोध, ज्वर, इंद्रियोंमें निर्बलता, यदि दूषित विष हो तो उसके वेगको प्रवृत्ति इतने उपद्रव होते हैं इसलिये बुद्धिमान मनुष्यको उचित है कि वह सोने ( निद्रा ) के विषय में उचितानुचित एवं हिताहित विचारकर शयन करे ॥ ४६ ॥ ४७ ॥ ४८ ॥ ४९ ॥
रात्रौजागरणरूक्षस्निग्धमस्वपनंदिवा |
अरुक्षमनभिष्यन्दि त्वासीनप्रचलायितम् ॥ ५० ॥
रात्रि को जागनेसे रूक्षता उत्पन्न होती है, दिनमें सोनेसे स्निग्धता उत्पन्न होती है एवं आसनपर बैठे बैठे ऊंघनेसे न तो रूक्षता ही होती है और न स्निग्धता प्रकट होती है ( परन्तु उदर वढ जाता है ) ॥ ५० ॥
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(२४६ )
चरकसंहिता-भा० टी०॥
निद्राजनक योग। देहवृत्तौयथाहारःतथास्वप्नःसुखोमतः । स्वाप्नाहारसमुत्थेच स्थौल्यकाश्यविशेषतः ॥ ५१ ॥ अभ्यङ्गोत्सादनंस्नानंग्राम्यानूपौदकारसाः । शाल्यनंसदधिक्षीरस्नेहोमद्यमनःसुखम्म् ॥ ५२ ॥ मनसोऽनुगुणागन्धाःशब्दाःसंवाहनानिच । चक्षुपस्तर्पणलेपः शिरसोवदनस्यच ॥ ५३ ॥ स्वास्तीर्णशयनंवे. श्मसुखंकालस्तथोचितः । आनयन्त्यचिरान्निद्रांप्रनष्टायानि- .. मित्ततः ॥ ५४॥
शरीरवृत्तिके निर्वाहके लिये जैसे आहार उपयोगीहै वैसे ही निद्रा भी परम उपयोगी है इस लिये प्रायः स्थूलता और कृशता यह दोनों निद्रा और आहारके अधीनही है ॥ ०१॥ यदि किसी कारणसे मनुष्यकी निद्राका नाश होगया हो तो अभ्यंग, उद्धर्तन, स्नान और ग्राम्य तथा जलचारी जीवोंके मांसका रस, शालि चावल, दही, दूध, स्नेह, मद्य और मनको सुख देनेवाले कर्म और मनको हरनेवाली सुगंधि तथा प्यारे प्यारे शब्द और देहका मसलना तथा दवाना, नेत्रोंका सन्तर्पण और मस्तक पर सुगंधित लेप तथा शिरके ऊपर पानीकी धारा देना सुखकारक शय्या, समयोचित घरका सुख यह सव शीघ्र निद्राके लानेवाले हैं॥ ५२ ॥ ५३॥५४॥
निद्रा न आनेके हेतु । कायस्यशिरसश्चैवविरेकश्छर्दनंभयम् । चिंताक्रोधस्तथाधूमो व्यायामो रक्तमोक्षणम् ॥ ५५॥ उपवासोसुखाशय्यासत्त्वौदाय्यतमोजयःनिद्राप्रसङ्गमहितवारयन्तिसमुत्थितम्॥५६॥ पतएवचविज्ञयानिद्रानाशस्यहेतवः । कार्यकालोविकारश्च प्रकतिर्वायुरेवच ॥१७॥ झिरका और शारीरफा विरंचन, सर्दी, भय, चिन्ता. क्रोध, धूम,परिश्रम,रक्तमा अण, उपवास, खगव दशव्या, सत्वगुणकी अधिकता तमोगुणकी क्षीणता इन सवत प्रान र निद्रा भी नष्ट होजातहि ॥ ५५ ॥ १६ ॥ कार्य, काल, रोग,स्वभाव पार गाय या पांच ही मुक्ष्म रूपसे तया स्थल रूपसे भी निद्रानाशक कारण
।।. ॥
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सूत्रस्थान-अ० २१.
(२४७) अध्यायका उपसंहार। तमोभवाश्लेष्मसमुद्भवाचमनःशरीरश्रमसम्भवाच । आगन्तुकीव्याध्यनुवर्तिनीचरात्रिस्वभावप्रभवाचनिद्रा॥ ५८ ॥ रात्रिस्वभावप्रभवामतायातांभूतधात्रींप्रवदान्तनिद्राम्। तमोभवामाहुरघस्यमूलंशेषपुनर्व्याधिषुनिर्दिशन्ति ॥ ५९॥ निद्रा तमोगुणसे उत्पन्न होतीहै तथा कफसे उत्पन्न होतीहै एवं मन और शरीरके परिश्रमसे निद्रा आतीहै तथा विष आदि सेवनसे अथवा भूतादि आवेशसे आगन्तुक निद्रा उत्पन्न होतीहै और किसी किसी रागमें भी निद्रा उत्पन्न होताहै तथा रात्रिमें स्वाभाविक निद्रा उत्पन्न होतीहै, निद्राको भूतधात्री भी कहतेहैं, तमोभव निद्रा पापका मूल है और बाकी निद्राको व्याधिके प्रति निदर्शन कहतेहैं अर्थात् स्वाभाविक निद्रा तो मनुष्यों के लिये प्राणरक्षक है और तमोभव पापका कारण है, अन्य निद्रा रोगरूप है ॥ ५८॥५९॥
तत्र श्लोकाः। निन्दिताःपुरुषास्तेषांयौविशेषेणनिन्दितौ । वक्ष्यामिकारणंदोपास्तयोनिन्दितभेषजम् ॥ ६० ॥ येभ्योयदाहितानिद्रायेायश्चाप्यहितायदा। अतिनिद्रानिद्रयोश्चभेषजयद्भवाचसा ॥१॥ यायायथाप्रभावाचनिद्रातत्सर्वमत्रिजः। अष्टौनिन्दितसंख्यातेव्याजहारपुनर्वसुः ॥ ६२ ॥
इति योजनाचतुष्कष्टौनिन्दितीयोनामैकविंशोऽध्यायः। अव अध्यायके उपसंहारमें यह श्लोक हैं इस अष्टौनिन्दितीय अध्यायमें आठ. प्रकारके पुरुष निंदनीय और दो प्रकारके विशेष निंदनीय और निंदित होनेका कारण-स्थूल और कृशके दोष तथा औषधि, निद्रा हिताहित और जिसको जिस. समय हितकर है, अतिनिद्रा,अनिद्रा, निद्राके उत्पन्न होनेके कारण, जो जो निद्रा जिस जिस स्वभावको है यह सब भगवान् पुनर्वसुजीने कथन किया है ।। ६० ।। ॥ ६१ ॥ ६२ ॥ इति श्रीमहर्षिचरक० पं० रामप्रसादवैद्य भाषाटीकायामष्टौनिन्दितीयो .
नामकविशोऽध्यायः ॥ २१ ॥
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(२४८)
चरकसंहिता-मा० टी०।
द्वाविंशोऽध्यायः।
अथातोलंघनवृहणीयमध्यायव्याख्यास्याम इतिहस्माहभग वानात्रेयः। अव हम लंघनवृहणीय नामक अध्यायकी व्याख्या करतेहैं । ऐसा भगवान् आत्रेयजी कहनेलगे। तपस्वाध्यायनिरतानात्रेयःशिष्यसत्तमान् । षडग्निवेशप्रमुखानुक्तवान्पारचोदयन् ॥ १॥ लंघनवृंहणंकालेरूक्षणस्नेहनंतथा । स्वेदनस्तम्भनञ्चैवजानीतेयःसवैभिषक् ॥ २॥ तप और स्वाध्यायपरायण अग्निवेश आदि अपने ६ शिष्यों को सम्बोधन करके महात्मा आत्रेयजी कहने लगे कि जो वैद्य समयानुसार लंघन, बृहण, रूक्षण, स्नेहन, स्वेदन एवं स्तम्भन इन छहाँका प्रयोग करना जानताहै उसको ही यथार्थ वैद्य कहतेहैं, अन्य वैद्य नहीं कहाजाता ॥ १ ॥२॥
अग्निवेशका प्रश्न । इतितमेवमुक्तवन्तंभगवन्तमात्रेयमग्निवेशउवाच । भगवल्लंधनंकिंस्विल्लंघनीयाश्चकीदृशाः। बृहणं बृहणीयाश्चरूक्षणीयाश्चरूक्षणम् ॥ ३॥ स्नेहनंस्नेहनीयाश्चस्वेदाःस्वेद्याश्चकमताः। स्तम्भनस्तम्भनीयाश्चवक्तुमर्हसितद्गुरो ॥ ४ ॥ लंघनप्रभृतीनाञ्चपण्णामेपांसमासतः । रुताकृतातिवृत्तानांलक्षणं वक्तुमर्हसि ॥ ५॥ इस प्रकार कहते हुए भगवान् आत्रेयजीसे महात्मा अग्निवेश कहने लगे कि हे भगवन ! लंघन किसको कहतेहैं और वह लंघन कैसे मनुष्योंको कराया जाता है। बृहण किसको कहतेहैं और वह कैसे मनुष्यांको कराया जाता है । रूक्षण क्या वस्तु है और कान २ मनुप्य रूक्षणके योग्य है एवम् स्नेहन किसको कहतहें और किन मनुप्पोको कराना चाहिये । हे गुरो ! स्तम्भन क्या है और किनको कगना चाहिये। इनायक विषयमें कृपया कयन कीजिये तथा संक्षेपसे लंघन आदि व्हांका योग, अयोग, अतिपोगके लक्षणांका भी वर्णन कभिये ॥ ३ ॥४॥५
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सूत्रस्थान-१० २२. .
(२४९)
गुरुरुवाच । यत्किञ्चिल्लाघवकरंदेहेतल्लङ्घनस्मृतम् । बृहत्वंयच्छरिस्यजनयेत्तच्चव्हणम् ॥६॥ रोक्ष्यंखरत्ववैषधेयत्कुर्यात्तद्धिरूक्षणम् । स्नेहनस्नेहनिःष्यन्दमार्दवक्लेदकारकम् ॥७॥ स्तम्भगौरवशीतनंस्वेदनस्वेदकारकम् । स्तम्भनंस्तम्भयंतियद्दतिमन्तंचलंध्रुवम् ॥८॥ इस प्रकार अग्निवेशके कहेहुए वाक्यको सुनकर आत्रेय भगवान् इस प्रकार कथन करने लगे । जो शरीरमें.लघुताका करनेवाला है उसको लंघन कहतेहैं । जो शरीरको पुष्ट करनेवाला है उसको बृहण कहतेहैं एवम् जो शरीरमें रूक्षता, खरत्व विशदता उत्पन्न करे उसको रूक्षण कहतेहैं । चिकनाई, अभिष्यंद, मृदुता, छेद उत्पन्न करनेवाली क्रियाको स्नेहन कहतेहैं । स्तम्भ, गुरुता, शीतता नष्ट करके 'पसीना लानेवालेको स्वेदन कहतेहैं, जो पदार्थ चलनेवाले पतले द्रव्यको रोकदेवे उसको स्तम्भन कहतेहैं ॥ ६ ॥ ७॥ ८ ॥
लंधन द्रव्य। लघूष्णतीक्ष्णाविषदंरूक्षसूक्ष्मखरंसरम् । ' कठिनश्चैवयद्रव्यंप्रायस्तल्लङ्घनस्मृतम् ॥ ९॥ जो द्रव्य लघु, उष्ण, तीक्ष्ण, विषद, रूक्ष, सूक्ष्म, खर, सर और कठिन हो वह प्रायः लंघन कहाजाताहै, एवं निरशनको भी लंघन कहतेहैं ॥ ९ ॥
बृहण द्रव्य । गुरुशीतमृदुस्निग्धंबहुलंसूक्ष्मपिच्छिलम् ।
प्रायोमन्दस्थिरंसूक्ष्मंद्रव्यंबृंहणमुच्यते ॥ १०॥ जो भारी, शीतल, मृदु, स्निग्ध, धन, सूक्ष्मपिच्छिल, मन्द, स्थिर और सूक्ष्म ___ हो वह द्रव्य प्रायः बृहण कहाजाता है ॥१०॥
रूक्षण द्रव्य । रूक्षलघुखरंतीक्ष्णमुष्णंस्थिरमपिच्छिलम् ।
प्रायशःकठिनश्चैवयद्व्यंतद्धिरूक्षणम् ॥११॥ जो द्रव्य रूक्ष, लघु, खर, तीक्ष्ण, उष्ण, स्थिर अपिच्छिल तथा कठिन हो वह प्रायः रूक्षण होताहै ॥ ११ ॥
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( २५० )
चरकसंहिता - भा० टी० ।
स्नेहन द्रव्यके गुण |
द्रवंसूक्ष्मंसरंस्निग्धंपिच्छिलंगुरुशीतलम् । प्रायोमन्दंमृदुचयद्रव्यं तत्स्नेहनंमतम् ॥ १२ ॥
जो द्रव्य द्रव, सूक्ष्म, सर, स्निग्ध, पिच्छिल, गुरु, शीतल और मन्द तथा मृदु हो वह स्नेहन कहा जाता है ॥ १२ ॥
स्वेदन द्रव्य | उष्णतीक्ष्णंसरंस्निग्धंरूक्षंसूक्ष्मंद्रवंस्थिरम् द्रव्यंगुरुचयत्प्रायःतद्धिस्वेदनमुच्यते ॥ १३ ॥
।
जो द्रव्य उष्ण, तीक्ष्ण, सर, स्निग्ध, रूक्ष, सूक्ष्म, द्रव, स्थिर और गुरु हो उसको प्रायः स्वेदन कहते हैं ॥ १३ ॥
स्तम्भन द्रव्यके गुण ।
शीतंमन्दंमृदुश्लक्ष्णरूक्षंसूक्ष्मंद्रवंसरम् ।
यद्द्रव्यं लघुचोद्दिष्टंप्रायस्तत्स्तम्भनंस्मृतम् ॥ १४ ॥
जो द्रव्य शीतल, मन्द, मुटु, श्लक्ष्ण, रूक्ष, सूक्ष्म, द्रव, सर और लघु हो. उसको प्रायः स्तम्भन कहतेहै ॥ १४ ॥
लंघन ।
चतुष्प्रकारासंशुद्धिः पिपासा मारुतातपौ ।
पाचनान्युपवासश्च व्यायामश्चेतिलंघनम् ॥ १५ ॥
चार प्रकार की संशुद्धि होती है अर्थात् संशोधन होता है और प्यास, पवनक सेवन, धूप, पाचन, उपवास एवम् परिश्रम यह लंघन कहे जातेहैं ॥ १५ ॥ लंघनयोग्य प्राणी |
प्रभूतश्लेप्मपित्तास्रमलाः संदुष्टमारुताः । बृहच्छरीरावलिनोलंघनीयाविशुद्धिभिः ॥ १६ ॥
जिनके शरीर उलेष्म, पित्त, रुधिर और मल वढेहुए हों तथा पवन दूषित होगया हो एवम जो स्थूल और वलवान् होनेसे संशोधनके योग्य हैं वह मनुष्य लंघनीय है ॥ १६ ॥
येषांमध्यवलारोगाः कफपित्तसमुत्थिताः । वम्यतीसारहृद्रोगविसृच्यलसकज्वराः ॥ १७ ॥ विबन्धगौरवोद्गारहल्लासारोचकादयः । पाचनस्तानभिषक् प्राज्ञः प्रायेणादावपाचरेत् ॥१८॥
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सूत्रस्थान - अ० २२.
(२५१) जिनके शरीर में कफ, पित्त से उत्पन्न हुए रोग मन्दवल हैं उनको तथा जिनकों वमन, अतिसार, हृदयरोग, विषूचिका, अलसक, ज्वर, विबंध, गुरुता, उद्गार, अरोचक आदि रोग हो उन पाचनयोग्य मनुष्योंको लंघन कराना चाहिये ॥ १७ ॥ १८ ॥
अतएवयथोद्दिष्टायेषामल्पबलागदाः । पिपासानिग्रहैस्तषामुपवासैश्चताञ्जयेत् ॥ १९॥रोगाञ्जयेन्मध्यबलानुव्यायामातपमारुतैः । वलिनांकिंपुनर्येषां रोगाणामवरंवलम् ॥ २० ॥
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उपरोक्त रोग तथा अन्य भी अल्पवल जो रोग हैं वह सव प्यासके रोकने से संयमसे तथा उपवाससे जीतने योग्य हैं ॥ १९ ॥ मध्यबली रोग व्यायाम, धूप और वायुसे लंघन करने योग्य हैं। लंघन द्वारा वडे २ बलवान् रोग भी जीते जो सकते हैं और अल्पवल रोगांका तो कहना ही क्या है ॥ २० ॥
त्वग्दोषणांप्रमीढानांस्निग्धाभिष्यन्दिबृंहिणाम् । शिशिरेलंघनंशस्तमपिवातविकारिणाम् ॥ २१ ॥
त्वकरोगी, प्रमेहवाला, स्निग्ध, अभिष्यंदयुक्त, स्थूल, और वातरोगीको भी शिशिर ऋतु लंघन करना पथ्य है ॥ २१ ॥
वृंहणका वर्णन । अदिग्धविद्धमाक्लष्टवयःस्थंसात्म्यचारिणाम् मृगमत्स्याविहङ्गानांमांसंबृंहणमुच्यते ॥ २२ ॥
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जो दुर्बल, किसीका माराहुआ और कठोर, जीर्ण न हों, स्वस्थहों ऐसे सब प्रकाके मृगांका मांस और मछलियों तथा पक्षियों का मांस बृंहण कहा जाता है २२ ॥ क्षीणाःक्षताः कृशावृद्धा दुर्बलानित्यमध्वगाः ।
स्त्री मद्यनित्या ग्रीष्मे चबृंहणीयानराः स्मृताः ॥ २३ ॥
जो मनुष्य क्षीण, क्षत, कृश, वृद्ध, दुर्बल तथा रास्ता चलनेसे थका हुआ हो तथा स्त्रीसंग और मद्यका सेवन करनेवाला हो, ग्रीष्मऋतुमें वह बृंहण करनेकें : योग्य है ॥ २३ ॥
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(२५२.) चरकसंहिता-भा० टी० ।
शोषा ग्रहणीदोषैयाधिभिःकर्शिताश्चये।
तेषांक्रव्यादमांसानांबृहणालघवोरसाः ॥ २४ ॥ जो मनुष्य शोष, अर्श, ग्रहणी आदि रोगोंसे क्षीण होगये हों उनको मांस भक्षण करनेवाले जीवोंका मांसरस बृहण कर्ता तथा लघु कहा गया है ॥ २४ ॥
स्नानसुत्सादनंस्वप्नोमधुराःस्नेहवस्तयः ।
शर्कराक्षीरसपीषिसर्वेषांविद्धिवृंहणम् ॥ २५॥ स्नान, उत्सादन, निद्रा, मधुर पदार्थ, स्नेहवस्ती, शर्करा, दूध और घी ये सब मनुष्यों के लिये बृहण ( पुष्ट ) करनेवाले हैं ॥ २५ ॥
रूक्षण । कटातिक्तकषायाणांसेवनं स्त्रीष्वसंयमः।
खलीपिण्याकतक्राणांमध्वादीनांचरूक्षणम् ॥ २६॥ कडवे, कषैले, चपरे रसोंका सेवन, स्त्रियोंका अत्यन्त सेवन, खल, तिलकल्क, छाछ और मधु आदि रूखे पदार्थ सव मनुष्योंको रूक्षणकर्ता कहे जाते हैं॥२६॥
अभिष्यन्दामहादोषामर्मस्थाव्याधयश्चये।
ऊरुस्तम्भप्रभृतयोरूक्षणीयानिदर्शिताः ॥ २७॥ . जिनके शरीरमें अधिक मोटा होनेके कारण अथवा दोषोंकी वृद्धिके कारण गिलगिलाहट उत्पन्न होगई हो और कफ वढाहुआ हो वे तथा मर्मस्थानमें बढे हुए दोष एवम् ऊरुस्तम्भ आदि रोग रूक्षण करनेके योग्य हैं ॥ २७ ॥
स्नेह्यस्वेद्य। स्नेहाःस्नेहयितव्याश्चस्वेदाःवद्याश्चयेनराः।
स्नेहाध्यायेमयोक्तास्तेस्वेदाख्येचसविस्तराः॥ २८॥ सब प्रकारके स्नेह और स्नेहनके योग्य मनुष्य तथा सव प्रकारके स्वेद और स्वेदनयोग्य मनुष्य हम स्नेह स्वेदाध्यायमें विस्तारपूर्वक वर्णन कर चुके हैं ॥२८॥ .
स्तंभनके योग्य।. . .... द्रवंतनुसरयावच्छीतीकरणमौषधम् । .
स्वादुतिक्तंकषायञ्चस्तम्भनंसर्वमेवतत् ॥ २९ ॥ द्रव, तनु, सर, शीतल, स्वादु, तिक्त और कषाय द्रव्य स्तम्भन कहेजातेहैं २९॥
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सूत्रस्थान-अ० २२.. (२५३) पित्तक्षारामिदग्धायेवम्यतीसारपीडिताः।
विषस्वेदातियोगातःस्तम्भनीयास्तथापराः ॥३०॥ जो मनुष्य पित्त, क्षार तथा अग्निसे दग्ध हुए हों और वमन तथा अतिसारसें पीडित हों अथवा विष और स्वेदके अतियोगसे क्लेशित:हों, वह सव स्तम्भन करने योग्य हैं ॥ ३० ॥
सम्यक्लंघनके लक्षण। वातमूत्रपुरीषाणांविसर्गेगात्रलाघवे । हृदयोद्गारकण्ठास्यशुद्धौतन्द्राक्लमेगते ॥३१॥ स्वेदेजातेरुचौचैवरात्पपासासहो; दये। कृतलंघनमादेश्यनिय॑थेचान्तरात्मनि ॥ ३२ ॥ जब रोगकि वात,मूत्र और मलका त्याग होने लगे, शरीर हलका पडजाय,हृदय शुद्ध होय,डकार शुद्ध आने लगे,कण्ठ और मुख स्वच्छ प्रतीत होने लगे,तंद्रा और कुम दूर होजाय, शुद्ध पसीना आने लगे, रुचि प्रकट हो, भूख और प्यास लगने लगे, अपना शरीर शुद्ध, हलका और व्यथाहीन प्रतीत होवे तो समझना चाहिये कि उत्तम लंघन होगया ॥ ३१ ॥ ३२॥
अति लंघनके दोष । पर्वभेदोऽङ्गमर्दश्चकासःशोषोमुखस्यच ।क्षुत्प्रणाशोऽरुचिस्तुष्णादौवल्यंश्रोत्रनेत्रयोः ॥३३॥ मनसःसम्भ्रमोऽभीक्ष्णमूर्द्ध वायुस्तमोहृदि । देहाग्निवलनाशश्चलंघनेतिकृतभवेत्॥३४॥ पर्वभेद, अंगमर्द, खांसी, मुख सूखना, क्षुधा बंद होना, अरुचि, प्यास, श्रोत्र और नेत्रोंमें दुर्बलता, मनमें व्याकुलता, सांस फूलना, भ्रम, मोह,हृदयमें व्याकु. लता, मंदाग्नि ये सब लक्षण आतलंघनके होते हैं ॥ ३३ ॥ ३४ ॥
सम्यक् बृहणके लक्षण । बलंपुष्टयुपलम्भश्चकार्यदोषविवर्जितम् । लक्षणंबंहितेस्थील्यमतिचात्यर्थबृहिते ॥३५॥ कृताकृतस्याचह्नयल्लंधिततद्धि रूक्षिते । स्तम्भितःस्याइलेलब्धेयथोक्तैश्चामौर्जितैः ॥३६॥ श्यावतास्तब्धगात्रत्वमुद्वेगोहनुसंग्रहः । हृद्वोंनिग्रहश्चस्यादतिस्तम्भितलक्षणम् ॥३७॥
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(२५४)
चरकसंहिता-भा० टी०। वल, पुष्टि,दृढता, अकृशता ये सव लक्षण बृंहणके होतेहैं । अत्यन्त बृहण होनेसे शरीरम स्यूलता बढनातीहै ।। ३५॥ जैसे लंघनके योग और अयोगसे लक्षण होते, सेही रूक्षणके योग और मिथ्यायोगसे भी जानने । यथोक्त रोगोंके उपद्रवोंको स्तम्भन दारा जीतकर शरीरमें वल प्राप्त होय तो उत्तम स्तम्भन हुआ जानो॥३६॥ यति स्तम्भन होनेसे शरीरका रंग काला पडजाताहै और गात्रस्तम्भ, उदेग और हनुस्तम्भ, हृदयका उपरोध एवम् मलबद्धता उत्पन्न होजातीहै ॥ ३७॥
लक्षणंचकृतानांस्यात्पण्णामेषांसमासतः । तदोषधीनांव्या- . धीनामशमोवृद्धिरेववा ॥ ३८ ॥ इतिषसर्वरोगाणांप्रोकाः सम्यगुपक्रमाः । साध्यानांसाधनेसिद्धामानाकालानुरोधिन इति ॥ ३९ ॥ इस प्रकार लंबनादिप्रकारके उपयोग होनेसे जो लक्षण होतेहैं उनकी औषधि और धातुओंकी अशान्ति और वृद्धि यह सब कह चुके हैं। इस ६ प्रकारकी चिकिसा द्वारा मनुष्य सव रोगोंको जीत सकता है, परन्तु यह सब मात्रा, काल आदि विचारकर प्रयोग करनेसे सव साध्यरोगोंको नष्ट कर देतेहैं ॥ ३८ ॥ ३९ ॥
भवति चात्र। दोपाणांवहुसंसर्गात्संकीर्य्यन्तेापक्रमाः। षट्वंतुनातिवर्तन्तेत्रित्वंवातादयोयथा ॥४०॥ इत्यस्मिल्लंघनाध्यायेव्याख्याताःपडुपक्रमाः । यथाप्रश्नंभगवताचिकित्सायैःप्रवर्तिता॥४१॥ इति योजनाचतुष्कलंघनवृहणीयो नाम द्वाविं
शोऽध्यायः समाप्तः। पात, पित्त, कफके बहुत से प्रकार मिश्रित चिकित्सासे नष्ट करनेयोग्य हैं । जैसे वात, पिच, कफ इन तीन दोपोंके सिवाय और कोई दूषित करनेवाला नहीं है ऐसे ही लंबन प्रभृति ६चिकित्सा भी इन वातादिको मिश्रित और पृथक दोषोंको दूर फरने में परमोपयोगी इस प्रकार भगगन पुनसजीने अनिवेशके प्रश्नोंका उत्तर देते इस लंघनंबृहणीयाध्याय ६ प्रकारकी चिकित्साका वर्णन कियाहै॥१०॥४॥ मरिचरफ० पं० रामप्रमादयभापाटीमा योजन चतुप्फे लंपनवाणीयो
नाम शादिऽध्यायः॥२२॥
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(२१५)
सूत्रस्थान-अ०२३. त्रयोविंशोऽध्यायः।
.
अथातः सन्तर्पणीयमध्यायंव्याख्यास्याम इतिहस्साह भगवानात्रेयः।
अब हम संतर्पणीय नामके अध्यायको व्याख्या करतेहैं।ऐसा भगवान् आत्रेय एहनेलगे।
सन्तर्पणसे होनेवाले रोगोंके सकारण नाम । सन्तर्पयतियःस्निग्धैर्मधुरैर्गुरुपिच्छिलेः। नवान्नैर्नवमर्चेश्चमांसैश्चानूपवारिजैः॥१॥ गोरसैगौडिकैश्चान्नैःपिष्टकैश्चातिमात्रशः । चेष्टाद्वेषीदिवास्वप्नशय्यासनसुखेरतः ॥२॥ रोगास्तस्योपजायन्तेसन्तर्पणनिमित्तजाः । प्रमेहकण्डूपिडकाः 'कोठपाण्डामयज्वराः ३॥ कुष्ठान्यामप्रदोषाश्चमूत्रकृच्छमरोचकम् । तन्द्राक्लेव्यमतिस्थौल्यमालस्यंगुरुगात्रता॥४॥ इन्द्रियेस्रोतसांराधोबुद्धेमोहःप्रमीलकः। शोफाश्चैवंविधाश्चान्येशीघ्रमप्रतिकुर्वतः ॥ ५॥ जिस प्रकार चिकने, मीठे, भारी और पिच्छिल द्रव्य तथा नवीन अन्न मद्य, अनूपसंचारी जीवोंका मांस, जलचर जीवोंका मांस दूध और मिठाई, पुष्ट पदार्थ तृप्तिपूर्वक भोजन करनेसे संतर्पण होताहै । उसी प्रकार व्यायाम न करना, दिनमें सोना, सोने वैठनेके सुखमें आरामसे रहना इनसे प्रमेह, खुजली,पिडका,कोष्ठरोग, पाण्डुरोग, ज्वर, कुष्ठ, आमदोष, मूत्रकृच्छू, अरुचि, तन्द्रा, नपुंसकता, मेदरोम, आलस्य, भारीपन, इन्द्रियों के स्रोतोंका अवरोध, बुद्धिनाश, प्रमीलक, सूजन आदि अनेक प्रकारके रोग उत्पन्न होतेहैं ॥ १ ॥२॥ ३ ॥४॥५॥ • सतर्पणसे उत्पन्नहुए रोगोंमें चिकित्सा क्रम । शतमुल्लेखनंतेषांविरेकोरक्तमोक्षणम् । व्यायामश्चोपवालश्चधूमाश्चस्वेदनानिच ॥६॥ सक्षौद्रश्चाभयाप्रासःप्रायोरुक्षान्न सेवनम् ।चूर्णप्रदेहायेचोक्ताःकण्डूकोठविनाशनाः ॥ ७ ॥
अधिक संतपर्णसे उत्पन्न हुए रोगोंमें वमन कराना, विरेचन, रक्तमोक्षण, व्यायार, उपास, धूम्रपान, स्वेदन मधुके साथ हर्डका खाना और रूक्ष अन्नपानका
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चरकसंहिता-भा० टी.। सेवन तथा खाज और कुष्ठके नाश करनेवाले. चूर्ण तथा प्रदेह आदिकोंका सेवन करना चाहिये ॥ ६ ॥७॥
संतपणजनित रोगनाशक काथ। त्रिफलारग्वधंपाठांसप्तपर्णसवत्सकम्। मुस्तनिम्बसमदनंजलेनोत्कथितंपिवेत् ।। ८॥ तेनमोहादयोयान्तिनाशमभ्यस्यतांध्रुवम्। मात्राकालप्रयुक्तेनसन्तर्पणसमुत्थिताः ॥ ९ ॥ त्रिफला, अमलतास, पाटला, सतवन, कुडाकी छाल, नागरमोथा, नीमका छिलका और मैनफल इन सबका काथ ( काढा) बनाकर मात्रा और कालको विचारकर सेवन करनेसे संतर्पणसे उत्पन्नहुए मोह (बेहोसी ) आदि रोग नष्ट होत ॥ ८॥९॥
मुस्तमारग्वधः पाठात्रिफलादेवदारुच। श्वदंष्ट्राखदिरोनिम्बो । हरिद्रात्वक्चवत्सकात् ॥ १० ॥ रसमेषांयथादोपंप्रातःप्रातः पिबेन्नरः। सन्तर्पणकतैःसर्वाधिभिर्विप्रमुच्यते ॥ ११ ॥
नागरमोथा, अमलतास, पाठा, त्रिफला, देवदारु गोखरू, कत्था, नीमका छिलका, हल्दी, कुडाकी छाल इन सबका काथ ( काढा ) नित्य प्रातःकाल । पीनेसे संतर्पणसे उत्पन्न हुई सब प्रकारकी व्याधियां नष्ट होतीहै ॥ १०.॥ ११B.
एभिश्चोद्वर्तनोद्धर्षस्नानयोगोपयोजितैः। .
त्वग्दोषाःप्रशमंयान्तितथास्नेहोपसंहितैः ॥ १२॥ . इन ऊपर कहीं हुई औषधियोंके तैलसे अथवा इन सबका उबटन बना मालिक करनेसे किंवा इनके क्वाथमें स्नान करनेसे संतर्पणसे उत्पन्नहुए त्वचाके रोगह दूर होतेहैं ।। १२ ॥
___ संतपणजनित मूत्रदोषोंपर क्वाथ। कुष्ठंगोमेदकंहिशुक्रौञ्चास्थित्र्यूषणंवचाम् । वृषकैलेश्वदंष्ट्रांच खराहाञ्चाश्मभेदिकम् ॥१३॥ तऋणदधिमण्डेनवदाम्लरसेनवा । सूत्रकृच्छंप्रमेहञ्चपीतमेतद्दयपोहति ॥ १४॥ कडुआ कूट, गोमेदक नामका पत्थर, हींग, कमलगट्टेकी गिरू, सोंठ पीपल मिर्च, वच, अडूसा, इलायची,गोखरू,अजमोद, पाषाणभेद इन सब औषधियोंके चूर्णको छाछ अथवा दहीका जल या बेरके क्वाथके साथ पनिसे संतपण जनित भूत्रकृच्छ्र और प्रमेह दूर होतेहैं ॥ १३ ॥ १४ ॥ ..
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सूत्रस्थान - अ० २३...
संतर्पणज प्रमेहादिपर काय ।
तक्राभयाप्रयोगश्वत्रिफलायास्तथैवच । अरिष्टानांप्रयोगैश्चयान्तिमेहादयः शमम् ॥ १५ ॥
तक्र, हरड, त्रिफला और ऐसे ही अरिष्टोंके प्रयोग करनेसे: प्रमेह आदि रोग नाशको प्राप्त होतेहैं ॥ १५ ॥
( २५७ )
त्र्यूषणंत्रिफलाक्षौद्रंक्रिमिघ्नंसाजमोदकम् ।
मन्थोऽयं सक्तवः सर्पिर्हितो लोहोद काप्लुतः ॥ १६ ॥
सोंठ, मिर्च, पीपल, त्रिफला, शहद, विडंग, अजमोद इन सबके चूर्ण में अगर का जल और सत्तू तथा घी इनका मंथ बनाकर पीवे तो संतर्पणसे उत्पन्न हुए सव रोग नष्ट होते हैं ॥ १६ ॥
संतर्पणजनितरोगोंकी चिकित्सा । व्योषविडङ्गशिग्रणित्रिफलाकटुरोहिणी । बृहत्यौद्वेहरिद्रेद्वेपा - ठासातिविषास्थिरा । हिङ्गुकेबुकमूलानियवानीधान्यचित्र - कम् ॥ १७ ॥ सौवर्चलमजाजीञ्चह वषांचेतिचूर्णयेत् । चूर्णते'लघतक्षौद्रभागाः स्युर्मानतः समाः ॥ १८ ॥ सक्तूनांषोडशगुणो भागः सन्तर्पणंपिवेत् । प्रयोगादस्यशाम्यन्तिरोगाः सन्तर्पणोत्थिताः ॥ १९ ॥ प्रमेहामूढ वातांश्चकुष्ठान्यशसिकामलाः । पुहिापाण्ड्वामयःशोफोमूत्रकृच्छमरोचकः ॥ २० ॥ हृद्रो-गोराजयक्ष्माचकासः श्वासोगलग्रहः । क्रिमयोग्रहणीदोषाः श्वैत्र्यंस्थौल्यमतीवच । नराणांदीध्यतेचाग्निःस्मृतिर्बुद्धिश्च वर्द्धते ॥ २१ ॥
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सोंठ, मिर्च, पीपल, सोहाञ्जनके बीज, हरड, बहेडा, आमला, कुटकी, दोनों कटेली, हलदी, दारुहलदी, पाठा, अतीश, शालपर्णी, हींग, केवूककी जड, अजवा यन, धनियां, चित्रक, संचरनमक, कालाजीरा, हाऊवेर इन सबका चूर्ण करके चूर्णके समान तैल, घी और शहद मिलावे तथा १६ गुना सत्तू मिलावे । इस औष धिके सेवन से संतर्पणसे उत्पन्न हुआ प्रमेह और ऊर्ध्ववात कुष्ठ, अर्श, कामला, प्लीहा, ' पांडु, सूजन, मूत्रकृच्छ्र, अरुाचे, हृद्रोग, यक्ष्मा, कास, श्वास, गलग्रह, कृमि, ग्रहणी,
१७
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(२५८)
चरकसंहिता-भा० टी०। स्थूलता चित्र ये सब नष्ट होतेहे और आग्ने चैतन्य होती हैं तथा स्मृति और बुद्धिकी वृद्धि होती है ॥१७॥ १८ ॥१९ ॥ २० ॥२१॥
व्यायामनित्योजीर्णाशीयवगोधूमभोजनः ।
सन्तर्पणकृतैदोषैर्मक्वास्थौल्याद्विमुच्यते ॥ २२ ॥ नित्य व्यायाम करनेवाला तथा उचित रीति पर भोजन करनेवाला मनुष्य जौ, गेहूँ भोजन करते हुए भी संतपणसे उत्पन्न हुए रोगोंसे तथा स्थूलतासे छूट जाताहै ॥ २२ ॥
उक्तसन्तर्पणोत्थानामपतर्पणमौषधम् ।
वक्ष्यन्तेसौषधाश्चोर्ध्वमपतर्पणजागदाः ॥ २३॥ इस प्रकार संतर्पणसे उत्पन्न हुए रोगोंकी औषधियां वर्णन करचुके हैं अवलंघ. नसे उत्पन्न हुए रोगोंकी औषधियां कहतेहैं ॥ २३ ॥ .
__ अतर्पणजन्य रोगोंके नाम और चिकित्सा । देहोग्निवलवर्णीजःशुक्रमांसवलक्षयः।ज्वरःकासानुबन्धश्चपावशलमरोचकः॥ २४ ॥ श्रोत्रदौर्बल्यमुन्मादः प्रलापोहृदय व्यथा । विमूत्रसंग्रहःशूलंजघोरुत्रिकसंश्रयम् ॥ २५ ॥ पर्वास्थिसन्धिभेदश्चयेचान्येवातजागदाः । ऊववातादयः सर्वे जायन्तेतेऽपतर्पणात् ॥ २६ ॥ अत्यन्त लंघन करनेसे अथवा अनुचित रीति पर लंघन करनेसे शरीर,जठराग्नि वल, वर्ण, ओज, शुक्र, मांस और वलका क्षय होताह और ज्वर, खांसी इनका अनुबंध पार्थशूल, असाचे और श्रवणशक्तिकी दुर्वलता, उन्माद,चकवाद, हृदयमें पीडा, मल मूत्रका विंबंध, जंघा और ऊरु तथा त्रिकस्थानमें पीडा और पर्व, अस्थि, सन्धि इनमें भेदनकीसी पीडा, ऊर्ध्ववात आदिक वहुतसे रोग उत्पन्न होते हैं ॥ २४ ॥ २९ ॥ २६ ॥
तेपांसन्तर्पणंतज्ज्ञैः पुनराख्यातमौषधम् यत्तदात्वेसमर्थस्यादभ्यासेवातदिप्यते ॥ २७ ॥ सद्यःक्षीणोहिसयोवैतर्पणेनोपचीयता नसन्तर्पणाभ्यासाच्चिरक्षीणस्तुपुष्यति ॥ २८॥ देहाग्निदोपभैषज्यमात्राकालानुवर्तिना । कार्य्यमत्वरमाणेन भेषजंचिरदुर्घले ॥२९ ॥ हितामांसरसास्तस्मैपयांसिचघृता
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सूत्रस्थान-अ० २३. (२९९) निच । स्नानानिवस्तयोऽभ्यङ्गास्तर्पणास्तर्पणाश्चये ॥ ३०॥ ज्वरकासप्रसक्तानांकशानांमूत्रकृच्छ्रिणाम् । तृष्यतामूर्द्धवातानांहितंवक्ष्यामितर्पणम् ॥३१॥ इन लंघनसे उत्पन्न हुए रोगोंमें सतर्पणके जाननेवाले वैद्योंको उचित रीतिपर हलके सतर्पणसे अभ्यास कगकर सामर्थ्यानुसार संतर्पणकी मात्राको बढाना चाहिये । जो मनुष्य अवतर्पण ( लंबन ) से शीघ्र क्षीण हुआहो वह सतर्पणके सेवनसे शीध्रही पुष्ट होजाताहै और जो मनुष्य बहुत दिनका क्षीण है वह कुछ काल पर्यन्त सतर्पणका अभ्यास करने विना पुष्ट नहीं होसकता ॥२७॥२८॥ जो मनुष्य बहुत दिनसे क्षीण होरहा हो उसके देह, अग्नि, वल और दोषको विचारकर तथा औषध, मात्रा, और कालका विचार करते हुए अल्प २ ( थोडी २) मात्रासे संतर्पणका अभ्यास करना चाहिये ॥ २९ ॥ बहुत रोजसे क्षीण हुएं मनुष्यके लिये मांसरस, दूध, घृत, स्नान, वस्तिकर्म और अभ्यंग एवम् अनेक प्रकारके तर्पण योग्य रीति पर उपयोग करना चाहिये ॥ ३० ॥ जो मनुष्य ज्वर
और खांसीसे पीडित हो, कृश हो, मूत्रकृच्छ्र रोगवाला, तृषायुक्त एवम् ऊई. वातवाला हो ऐसे रोगियोंके लिये हितकारी संतर्पणोंका कथन करतहैं ॥ ३१ ॥
पुष्टिकर्ता मन्थ । शर्करापिप्पलीतलघवक्षौद्रसमांशकैः।
सक्तुद्विगुणितोवृष्यस्तेषांमन्थःप्रशस्यते ॥ ३२ ॥ ___ खांड, पपिल, तैल, घृत, मधु इनको समान भाग लेकर इनमें उनके दूने सत्तू मिलावे यह मंथ सब प्रकारके क्षीण मनुष्योंके लिये परम हितकारी है ॥ ३२॥
विण्मूत्रानुलोमी तर्पण। सरुवोमदिराक्षौद्रंशर्कराचेतितर्पणम् ।
पिवेन्मारुतविण्मूत्रकफपित्तानुलोमनम् ॥३३॥ __ सत्तू, मद्य, शहद, खांड इनका तर्पण सेवन करनेसे वायु, मल, मूत्र और कफ जया पित्तका अनुलोमन होताहै ॥ ३३॥
मूत्रकृच्छ्रादिनाशक तर्पण । - फाणितंसक्तवःसर्पिर्दधिमण्डोऽम्लकाञ्जिकम्।
तर्पणमूत्रकृच्छ्न मुदावर्त्तहरंपिबेत् ॥ ३४ ॥ .फाणित, सत्तू, घृत, दही,मंड, खट्टी कांजी इनका तर्पण पीनेसे मूत्रकृच्छू और उदावर्तका नाश होताहै ॥ ३४ ॥
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(२६०) चरकसंहिता:भा० टी०॥
मन्थःखर्जूरमृद्वीकावृक्षाम्लाम्लीकदाडिमैः ।।
पुरूप सामलकैर्युक्तोमद्यविकारनुत् ॥ ३५॥ छुहाडा, मुनका, तंतडीक, इमली, अनारदाना, फालसा, आँवले इन सवका बनाया मंथ मद्य पीनेसे हुए विकारोंको नष्ट करताहै ॥ ३५ ॥
वलवर्णदायक सन्तर्पण । स्वादुरम्लोजलकृतःसस्नेहोरक्षएववा।
सद्यःसन्तर्पणोमन्थास्थैर्यवर्णवलप्रदः ॥३६ ।। मीठे और खट्टे पदार्थों को लेकर जलके संयोगसे मंथ वनावे अथवा मीठे खट्टे पदार्योंका स्वरस स्नेहनके साथ या रूखा ही पानसे शरीरमें स्थिरता होती है और. बल तया वर्णकी वृद्धि होताहै ॥ ३६ ॥
तत्रश्लोकः। सन्तर्पणोत्थायरागारोगायेचापतर्पणात् । सन्तर्पणीयेतेऽध्यायेसौषधाःपरिकीर्तिताः ॥ ३७॥
इतिसन्तर्पणीयोऽध्यायःसमाप्तः। इस संवर्पणीय नामक अध्यायमें सतर्पणसे उत्पन्न हुए रोगोंका और लंघनसे उत्पन्न हुए रोगोंका वर्णन तथा उनकी चिकित्साका वर्णन किया गयाहै ॥ ३७॥ इति श्रीमहर्पिचरक० पं०रामप्रसाद०भापाटीकायां सन्तर्पणीयो नाम
त्रयोविंशोऽध्यायः ॥ २३ ॥ चतुविशोऽध्यायः।
अथातोविधिशोणितीयमध्यायव्याख्यास्याम इतिहस्माह भगवानात्रेयः। अब हम विधिशोणितीय नामके अध्यायकी व्याख्या करतेहैं, ऐसा आये भगवान् कहने लगे।
शुद्ध रक्तके गुण । विधिनाशोणितंजातंशुद्धभवतिदेहिनाम् । देशकालौकसाभ्यानांविधियःसंप्रदर्शितः ॥? ॥ तद्विशुद्धहिरुधिरंवलवर्ण
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• सूत्रस्थान-भ० २४. ६२६१) सुखायुषा । युनक्तिप्राणिनंप्राणःशोणितंझनुवर्तते ॥२॥
देश, काल विचारकर आत्माके अनुकूल व्यवहार करनेवाले मनुष्योंके शरीरमें 'जिस प्रकार शुद्ध रक्त रहे वह विधि हम प्रकाशित करते हैं, क्योंकि शरीरमें शुद्ध रक्तकें रहनेसे बल, वर्ण, सुख और आयुकी वृद्धि होती है कारण कि मनुष्योंके शरीरों में प्राण रुधिरके अनुवर्ती होते हैं ॥ १ ॥२॥
प्रदुष्टबहुतीक्ष्णोष्णैर्मधेरन्यैश्चतद्विधैः तथातिलवणक्षारैरम्लः' कटुभिरेवच॥३॥ कुलत्थमाषनिष्पावतिलतैलनिषेवणैः ।पिण्डालुमूलकादीनांहरितानाञ्चसर्वशः॥४ाजलजानूपबैलानांप्र सहानांचसेवनात् । दध्यम्लमस्तुसक्तूनांसुरासौवीरकस्यच॥ ॥५॥ विरुद्धानामुपक्लिन्नपूतीनांभक्षणेनच । भुक्त्वादिवाप्रस्वपतांद्रवस्निग्धगुरूणिच ॥ ६ ॥अत्यादानंतथाक्रोधभजतां चावपानलौ । छर्दिवेगप्रतीघातात्कालेचानवसेचनात् ॥७॥ श्रमाभिघातसन्तापैरजीर्णाध्यशनैस्तथा। शरत्कालस्वभावाचशोगितसंप्रदुष्यति ॥८॥
अव रुधिरके दूषित करनेवाले कारणोंको कहते हैं । खराब हुए बहुतसे वीक्ष्ण, गर्म पदार्थोंके सेवनसे मादक द्रव्य, लवण, क्षार, खटाई, चपरे पदार्थ, कुलथी, उडद, सेम, तिल, तैल, पिंडालु, मूली, सज्जी तथा जलसंचारी और अनूपसंचारी एवम् विलेशयं और प्रसह आदि जीवोंके मांस खानेसे, दही, कांजी, दहीका तोड, . 'सत्तू, सुरा, सौवीर इनके सेवनसे एवम् अपनी आत्माके विरुद्ध आहार करनेसे तथा क्लिन्न, सडाबुसा आहार बहुत सेवन करनेसे शरीरमेंका रक्त दूषित होताहै । इसी प्रकार पतले, चिकने और भारी भोजन करनेसे, दिनमें सोनेसे, मात्रासे अधिक भोजन करनेसे और क्रोध, धूप, आनि इनके सेवन करनेसे, वमनका वेग रोकनेसे, समयोचित रक्तमोक्षण न करानेसेभी रक्त दूषित होताहै। तथा परिश्रम,चोट लगना, अजीर्ण होना, विना पचे भोजन करना इत्यादि कारणोंसे भी रक्त दूषित होताहै एवम् शरद ऋतु स्वभावसे ही रक्तके दूषित होनेका समयह॥३॥४॥५॥६॥७॥८॥
दूषितरक्तके उपद्रव । ततःशोणितजारोगा प्रजायन्तेपृथग्विधाः। मुखपाकोऽक्षिरो. गश्चपतिघाणास्यगन्धता ॥९॥ गुल्मोपदंशवीसर्परक्तपित्त
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(२६२) चरकसंहिता-भा० टी०। प्रमीलकाः । विद्रधीरक्तमेहश्चप्रदरोवातशोणितम् ॥ १० ॥ वेवर्ण्यमग्निनाशश्चपिपासागुरुगात्रतासन्तापश्चातिदावल्यम रुचिःशिरसश्चरुक् ॥ ११ ॥ विदाहश्चान्नपानस्यतिक्ताम्लोद्रणंक्लमः। क्रोधप्रचुरतावुद्धेःसंमोहोलवणास्यता ॥ १२ ॥ स्वेदःशरीरदौर्गन्ध्यंमदःकम्पःस्वरक्षयातन्द्रानिद्रातियोगश्चतमसश्चातिदर्शनम् ॥ १३ ॥ कण्डूरुकोठपिडकाः कुष्ठचर्मदलादयः। विकाराःसर्वएवैतेविज्ञेयाःशोणिताश्रयाः॥ १४ ॥ फिर वह दुष्ट हुआ रक्त अनेक प्रकारके रोगोंको उत्पन्न करताहै।उन रोगोंका यहां वर्णन करतेहैं मुखरोग तथा मुख, नाक और नेत्रोंका परिपाक होना, नाकसे आर मुखसे दुर्गन्ध आना, गुल्म, उपदंश, विसर्प, रक्तपित्त, प्रमालक, विद्रधि, रक्तमूत्र (पेशावमं रक्तका आना),प्रदर, वातरक्त,शरीरकी विवर्णता,मंदाग्नि,प्यास,भारीपन, संताप, अति दुर्बलता,अरोचक, मस्तकपीडा, अन्नपानका विदाही परिपाक होना, खट्टे तथा कडुए डकार आना,क्लम,क्रोधकी अधिकता, बुद्धिका नाश,मुखका,नमफीन स्वाद, दुर्गंधित स्वेद, शरीरमें दुर्गध, मस्ती, कम्प, स्वरभंग, तन्द्रा, अत्यन्त निद्रा, अंधकार, खाज, पीडा, कोष्ठरोग, पिडका, कुष्ठ चर्मदल ऐसे२ रोग रक्तके दृषित होनेसे उत्पन्न होते हैं ॥९॥ १० ॥ ११ ॥ १२ ॥ १३ ॥ १४ ॥
शीतोष्णस्निग्धरूक्षायैरुपक्रान्ताश्चयेगदाः।
सम्यक्साध्यानसिध्यन्तिरक्तजास्ताविभावयेत् ॥१५॥ इसी प्रकार जो रोग साध्य प्रतीत होने पर भी शीतल, उष्ण तथा रूक्ष आदि निया करनेपर भी शांत नहीं होते उनको भी रक्तके विकारसे उत्पन्न हुआ जानना ॥ १५ ॥
दूपितरक्तम कर्तव्य कर्म। कुर्याच्छोणितरोगेपुरक्तपित्तहरी नियाम् ।
विरेकमुपवासंवास्रावणंशोणितस्यवा ॥ १६ ॥ रतके विकाराम रक्तपित्तनाशक क्रिया, विरेचन, उपवास एवम् रक्तका निकालना मेले २ उपायांसे करे । रक्तमोक्षण ( फस्त खुलाना) के समय देश, काल, पल और दीप एवम् शुद्धरतका प्रमाण जानकर तथा शागीरक स्थान परीक्षा करके ही राम निकालना चाहिये ।। १६ ॥
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सूत्रस्थान अ० २४.
वातादिदोषोंसे दूषित रक्तके लक्षण । बलदोषप्रमाणाद्वाविशुद्धयारुधिरस्यवा'। रुधिरंस्त्रावयजन्तोराशयंप्रसमीक्ष्यवा ॥ १७ ॥ अरुणाभंभवेद्वातात्पिच्छिलफनिलंतनु । पित्तात्पीतासितंरक्सौष्ण्यात्यायातिवैचिरात् ।। ॥ १८॥ ईषत्पाण्डुकफाददुष्टंपिच्छिलंतन्तुमद्धनम् । द्विदोषलिङ्गसंसर्गात्रिलिङ्गंसान्निपातिकम् ॥ १९ ॥ वायुसे दूषितहुआ रक्त-लाल,झागदार, पिच्छिल और पतला होताहै ।पित्तसे दूषित हुआ रक्त-पीला, काला, लाल, गर्म और देरमें जमनेवाला होताहै ॥ १७॥ इसी प्रकार कफसे दूषितहुआ रक्त-कुछ २पांडुवर्णका, पिच्छिल, तारयुक्त,गाढा होताहै । दो दोषोंके लक्षणोंवाला दो दोषोंसे दूषित जानना एवम् त्रिदोषके लक्षण मिलनेसे तीनों दोषोंसे दूषित समझना चाहिये ॥ १८ ॥ १९ ॥
शुद्धरक्तके लक्षण । तपनीयेन्द्रगोपाभपद्मालतकसान्निभम् । गुञ्जाफलसवर्णञ्च विशुद्धंविदिशोणितम् ॥२०॥
जो रक्त सुवर्णके समान तथा वीरबहूटीके समान लाल वर्णका हो एवम् पद्मराग माणके समान प्रकाशवाला हो अथवा रक्तक (चिरमटी, घुघची) के वर्णसमान लाल रंगका होताहै वह शुद्ध रक्त जानना ॥२०॥
रक्तमोक्षणानन्तर कर्तव्य । नात्युष्णशीतलघुदीपनीयंरक्तेऽपनीतेहितमन्नपानम् । तदाशरीरंह्यनवस्थितासमनिर्विशेषेणचरक्षितव्यम् ॥ २१॥ रक्त निकलवानेके अनन्तर जो अधिक गर्म तथा आधिक शीतल न हो ऐसा. हलका और अग्निको उद्दीपन करनेवाला अन्नपान सेवन करना चाहिये क्योंकि. रक्तकी ताकतसे ही अन्नका परिपाक होताहै सो रुधिर निकल जाने पर शरीरमें रक्तकी स्थिरता नहीं रहती इसलिये ऐसे समय पाचन करनेवाली आगिकी विधिपूर्व र्वक रक्षा करनी चाहिये ॥२१॥
प्रसन्नवणेन्द्रियामिन्द्रियार्थानिच्छन्तमव्याहतपक्तृवेगम् । सुखान्वितंमुष्टिबलोपपन्नंविशुद्धरक्तंपुरुषवदान्त ॥ २२ ॥ . मनुष्यके शरीरमें रक्तके शुद्ध होजानेसे वर्ण और इन्द्रियोंकी प्रसन्नता होतीहै तथा भोगकी इच्छा, पाचनशक्ति, सुख, पुष्टि और बलकी वृद्धि होतीहै ॥ २२॥
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चरकसंहिता - भा० टी० ।
मदमूर्छादिके हेतु । यदातुरक्तवाहीनिरससंज्ञावहीनिच । पृथक्पृथक्समस्तावा स्रोतांसिकुपितामलाः ॥ २३ ॥ मलिनाहारशीलस्यरजोमोहावृतात्मनः । प्रतिहत्यावतिष्ठन्तेयाजन्ते व्याधयस्तदा ॥ २४ ॥ मदमूर्च्छाय संन्यासास्तेषां विद्याद्विचक्षणः । यथोत्तरंबलाधिक्यं हेतुलिङ्गो शान्तिषु ॥ २५ ॥
( २६४ )
जो मनुष्य सडेसे दूषित भोजनको करता है उसके शरीर में वात आदि दोष कुपित होकर अलग २ अथवा मिलकर रक्तवाहिनी नसोंको दूषित करके उनमें रहते हैं ॥ २३ ॥ तब उस दूषित आहारके करनेवाले मनुष्यके शरीरमें अनेक प्रकार के रोग उत्पन्न होते हैं ॥ २४ ॥ जैसे-उन्माद, मूर्छा, संन्यास ( बेहोशी ) इत्यादि इस लिये बुद्धिमान वैद्यको हेतु, लक्षण, उपशय इनको विचारकर चिकित्सा करना चाहिये । रक्तमें दोषके वलवान् होनेसे मद, मूर्च्छा, संन्यास यह तीनों प्रथमकी अपेक्षा दूसरा, दूसरेकी अपेक्षा तीसरा घोरतर होता है । दूसरी बात यह है कि बढे - हुए दोषांसे दूषित हुए रक्तविकारोंको कारण और लक्षणोंसे उपशम अर्थात् उपाय द्वारा शान्त करना भारी वात है ॥ २५ ॥
दुर्वलञ्चेतसः स्थानंयदावायुः प्रपद्यते । मनोविक्षोभयञ्जन्तोः संज्ञां संमोहयेत्तदा ॥ २६ ॥ पित्तमेवं कफश्चैवं मनोविक्षोभयनृणाम् । संज्ञांनयत्याकुलतांविशेषश्चात्रवक्ष्यते ॥ २७ ॥
जब मनुष्यके दुर्वल चित्तमें कुपित होकर वायु प्रवेश करता है उस समय उस मनुष्य के मनको चञ्चल करके ज्ञानको विगाड देता है || २६ || इसी प्रकार कुपित हुआ पित्त और कफ मनुष्यों के मनको चञ्चल करता हुआ ज्ञानको नष्ट कर देता है । उसीको विशेष रूप से वर्णन करतेहैं ॥ २७ ॥
वातादिकृत उन्मादका लक्षण |
सक्तानल्वद्रुताभापंचलस्खलित चेष्टितम् । विद्याद्वातमदाविष्टंरूक्षश्यावारुणाकृतिम् ॥ २८ ॥
वातजनित मदरोग में मनुष्य जल्दी २ और अधिक बकवाद करताहै । उसका स्वभाव चंचल होजाता एवम् चेष्टा स्खलित होजाती हैं तथा आकृति रूखी, काली और उसी होती है | ऐसे मनुष्यको वायुके मदसे दूषित जानना ॥ २८ ॥
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. .सरस्थान-अ० २४.
(२६५) सकोधपरुषाभाषसंप्रहारकलिप्रियम् ।
विद्यात्पित्तमदाविष्टरक्तपीतसिताकृतिम् ॥ २९॥ पित्तणनित मदमें मनुष्य कोपयुक्त और माह भाषण करनेवाला तथा मारनेको दौरनेवाला और फलाए मारनेवाला होता है । उसका वर्ण लाल, पीला और काले रंगका होता ॥२९॥
स्वल्पसम्बन्धवचनंतन्द्रालस्यसमन्वितम्।
विद्यारकफमदाविष्टंपाण्डेप्रध्यानतत्परम् ॥ ३०॥ कफगानित मदरोगमें भंटसंट पकना, संसा, मालस्य इन लक्षणोंवाला होता और उसका पर्ण पांडुरंगका होता है तथा यह फूत्कार करने में तत्पर रहा॥३०॥ सर्वाण्येतानिरूपाणिसन्निपातकतेमदे। जायन्तेशाम्यतित्वाशुमदोमयमदारुतिः ॥ ३१ ॥ यश्चमप्यमदःप्रोक्तोविषजो
रौधिरशयः । सर्वएतेमदानवातपित्तकफाश्रयात् ॥ ३२॥ . सीन दोषोंगो लक्षण मिलनसे विदोषण गदरोग जानना । गपपागसे उत्पन हुमा मदरोग शीघ्र ही प्रगट होजाताद और शीघ्र ही नाशको प्राप्त होता है । अन्य भी जितने मकारके मदरोग जैसे मदानित, विषजनिरा, रतणनिरा यह सब पारा पित्त, कफ आश्रय होकर ही होते ॥ ३१॥ ३२ ॥
वातादिनितराचाफा लक्षण । नीलवायदिवारुष्णमाकाशमथवारणम् पश्यस्तमःप्रविशति शीपश्यप्रतिबुध्यते ॥ ३३ ॥ वेपथुश्चाङ्गमर्दशप्रपीडाहृदयस्य च । कायश्यावारुणाछायाम_येवातसम्भवे ॥ ३४ ॥ जो मनुष्य भागाशको नीला, काला, लाल देखसाभा शाट अपने शापको अन्धकारमें प्रवेश होता मालूम करे, शीघ्र ही होशमें भाजाय तथा निराके शरीरंगें कम्प, अंगमर्थ, सस्पीडा, शता,श्यामसा तथा अरुणता प्रतीत हो उसको वाता नित मूली जानना चाहिये ॥ ३३ ॥ ३४ ॥
रक्तहरितवर्णवावियत्पीतमथापिवा । पश्यंस्तमःप्रविशतिस: स्वेदशप्रयुध्यते ॥ ३५॥ सपिपासःससन्तापोरक्तपित्ताकुले
क्षणः । संभिन्नवर्चा:पीताभोमायेपित्तसम्भवे ॥ ३६॥ पित्तकी भूगि भालाश लाल,हरित,पीला दिखाई देकर शट अंधकारमें प्रवेश
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(२६६)
चरकसंहिता-भा० टी०। होना प्रतीत होता और अत्यन्त पसीना आकर फिर होशमें आजाताहै फिर उसको प्यास, संताप लाल पीले नेत्र, दस्त, देहका वर्ण पीला ये लक्षण होतेहैं।॥३५॥३६॥
मेघसङ्काशमाकाशमावृतंवातमाघनैः । पश्यंस्तमःप्रविशति चिराच्चप्रतिबुध्यते ॥ ३७ ॥ गुरुभिःप्रावृतैरङ्गैर्यथैवाणच
र्मणा । सप्रसेकःसहृल्लासोमूर्छायेकफसम्भवे ॥३८॥ कककी मृच्छामें मनुष्य आकाशको वादलोंसे ढकाहुआ और अंधेरी छाई हुई देखते २ अंधकारमें प्रवेश करताहै बहुत देरमें होश आने पर अपने शरीरको गीले वस्त्रसे ठकासा प्रतीत करताहै । मुखसे पानीका बहना, और हल्लास ( जमिच; लाना ) यह लक्षण होतेहैं ॥ ३७॥ ३८॥
सर्वाकांतःसन्निपातादपस्मारइवागतः।
सजन्तुंपातयत्याशुविनावीभत्सचोष्टितैः ॥ ३९ ॥ सन्निपातकी मूमि अपस्मार (मृगी)रोगके समान लक्षण होतेहैं अन्तर केवल इतनाही होताहे कि अपस्मारमं वीभत्स (भयानक) चेष्टा नहीं होती और सन्निपा तको मृच्छमि होतीहै ।। ३९ ।।
दोपपुमदमूच्छायाःहृतवेगेपुदेहिनाम् ।
स्वयमेवोपशाम्यन्तिसन्यासोनौपधविना ॥ ४०॥ मदसे उत्पन्नहुई भूमि दोषांका वेग शान्त होनेपर मूर्छा भी स्वयम् शान्त होना; तीहै । परन्तु संन्यासरोग विना औषधिके कदापि शान्त नहीं होता ॥ ४० ॥
संन्यास रोगका लक्षण । वाग्देहमनसांचेष्टामाक्षिप्यातिबलामलाः। संन्यस्यन्त्यवलं जन्तुप्राणायतनसंश्रिताः ॥४१॥ सनासंन्याससंन्यस्तःकाष्ठभृतोमृतोपमः । प्राणवियुज्यतेशीघ्रमुक्त्वासद्यःफलांकियाम् ॥४२॥ वात, पित्त, कफ अत्यन्त कुपित होनेसे प्राणोंका आश्रय लेते हुए जब देह, मन और वाणीकी क्रियाको नट कर देते तव मनुष्य पृथ्वी पर गिरकर वेहोश पडा हताह । इस गंगको संन्यास रोग कहते हैं । संन्यासरोगमें मनुष्य गिरकर लकडीके समान मगाभा मा पहा रहताह । उस समय यादि शीत्र फल देनेवाली चिकि: रगान की जाय तो यह मनुष्य मृत्युको प्राप्त होजाताह ॥ ११ ॥ ४२ ॥
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सूत्रस्थान-अ० २४.
(२६७) - संन्यासरोगकी चिकित्सामें शीघ्रता । दुर्गेऽम्भसियथामजद्भाजनन्वरयाबुधः।
गृह्णीयात्तलमप्राप्तथासंन्यासपीडितम् ॥४३॥ जैसे अथाह जलमें डूबते हुए पात्रको डूबजानेसे पहिले ही निकाल लिया जाय तब वह हाथ लग सकताहै नहीं तो फिर उसका हाथ आना कठिन होता है । इसी प्रकार संन्यासरोगीका रोग भी जबतक जड न पकडलेवे तबतक उसकी चिकित्सा करनसे वह अच्छा हो सकता है । नहीं तो उसका बचना भी कठिन है ॥ ४३ ॥
संन्यासरोगमें चिकित्सा ।। अञ्जनान्यवपीडाश्चधूमःप्रधमनानिच । सूचीभिस्तोदनशस्त्रैहिःपीडानखान्तरे॥४४॥ लुञ्चनंकेशलोम्नांचदन्तैर्दशनमेवच । आत्मगुप्तावघर्षाश्चहतास्तस्यावबोधने ॥४५॥ अब सन्यासरोगकी चिकित्सा कहतेहैं । संन्यास रोगमें होश लानेके लिये अंजन और पीडन, नस्य, धूम्रप्रयोग, प्रधमन, नस्य, सूई चुभाना, शस्त्रसे दाग: देना, नखोंका पीडन करना, बालोंको खींचना, दांतोंसे काटना, कौंचकी फली लगाना आदि उपाय करने चाहिये। ऐसा करनेसे संन्यास छूटकर चैतन्यता लाभ होसकती है ॥ ४४ ॥ ४५ ॥
संमूर्छितानितीक्ष्णानिमद्यानिविविधानिच । प्रभूतकटुतिक्तानितस्यास्येगालयेन्मुहुः॥ ४६ ॥ मातुलुङ्गरसंतद्वन्महौष. धसमायुतम् । तद्वत्सौवीरकंदद्याद्युक्तमयाम्लकाजिकैः॥४७॥ हिङ्गुषणसमायुक्तयावत्संज्ञाप्रबोधनात्। प्रबुद्धसंज्ञमन्नैश्चलघुभिस्तमुपाचरेत् ॥ ४८॥ विस्मापनःस्मारणैश्चप्रियश्रुतिभिरेवच । पटुभिर्गीतवादित्रशब्दैश्चित्रैश्चदर्शनैः॥ ४९ ॥ प्रेस नोल्लेखनैधूमैरञ्जनैःकवलग्रहैः। शोणितस्यावसेकैश्चव्यायामोद्धर्षणैस्तथा ॥ ५॥ बेहोश मनुष्यको जब तक होश न आवे तब तक उसके मुख पर अनेक तरहके. समूच्छित और तीक्ष्ण मद्य तथा अत्यन्त चरपरे रसयुक्त पतले पदार्थोके छोटे देने चाहिये ॥ ४६॥ विजौरेके रसमें सोंठका चूर्ण और काला नमक मिलाकर अथवा संचर नमक मिलाकर मद्य एवम् खट्टी कांजी, हींग और मिर्चका चूर्ण मिलाकर
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(२६८ )
चरकसंहिता - भा० टी० 1
। नवतक ४७ ॥ ४८ ॥ प्रिय लगे ऐसे
व्यथवा हींग और मिर्चका चूर्ण ही होश आनेके लिये देना चाहिये रोगीको होश आये उसको हलका अन्न भोजन कराना चाहिये ॥ कोतृहुलजनक उपाय और होशके लानेवाली बातोंको एवम् जो मीठे वचन ओर गीत, वाजा यह उसको सुनाव । एवम् विचित्र शब्द और नये २ वस्तुयें दिखावे ॥ ४९ ॥ बुद्धिमान् वैद्यको उचित है कि होश लानेके लिये युक्तिपूर्वक मलको निकाले तथा वमन, धूम्रपान, अंजन, कुले, परिश्रम, रक्त मोक्षण, उद्धर्पण आदि कमों द्वारा चिकित्सा करे ॥ ५० ॥
प्रवृद्धसंज्ञमतिमाननुवद्धमुपाचरेत् ।
तस्यसंरक्षितव्यंहिमनःप्रलयहेतुतः ॥ ५१ ॥
होश आनेके अनन्तर भी विधिपूर्वक यत्न करते रहना चाहिये और जिस प्रकार उसका मन खराव न हो तथा अन्य रोग अपना अधिकार न करनेपावें वैसा यत्न करता रहे ॥ ५१ ॥
स्नेहस्वेदोपपन्नानांयथादोपंयथावलम् । पञ्चकर्माणि कुर्वीतमूर्च्छायेषुमदषुच ॥ ५२ ॥
मृच्छी और मदरोगं मनुष्यका दोष और वल विचारकर फिर स्नेहन और ' स्वेदन करक विधिपूर्वक वमन विरेचनादि पंचकर्म द्वारा दोष हरना चाहिये ॥ ५२ ॥ अष्टाविंशत्योपधस्याथवातिक्तस्य सर्पिषः । प्रयोगः शस्यतेतद्वन्महतःपट्पलस्यवा ॥ ५३ ॥ त्रिफलायाः प्रयोगोवासघृतक्षोत्रशर्करः । शिलाजतुप्रयोगोवाप्रयोगः पयसेोऽपिवा ॥ ५४ ॥ पिप्पलीनां प्रयोगोवाप्रयोगश्चित्रकस्यवा । रसायनानां कौम्भस्वसर्पिपोवाप्रशस्यते ॥ ५५ ॥
सूच्छ और मदात्ययकी निवृत्तिके लिये अहाईस औषधियोंसे सिद्ध किया हुआ कल्याणवृत, तिक्तकवृत, महापटपलवृत, अथवा त्रिफलाधृत वा वांसेका घृत या घी और शहद तथा खांडके साथ त्रिफलेका प्रयोग अथवा शीलाजीत, दूध, पीपलका प्रयोग अथवा चित्रकका प्रयोग तथा रसायन प्रयोग और पुराना वृत इन सबका प्रयोग करना चाहिये ॥ ५३ ॥ ५४ ॥ ५५ ॥
रक्तावसेकाच्छात्राणां सतां सत्त्ववतामपि । सेवनान्मदमूच्र्छायाः प्रशाम्यन्तिशरीरिणाम्, इति ॥५६॥
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सूत्रस्थान-अ० २५. रक्तका निकालना, अच्छे शास्त्रोंका सुनना श्रेष्ठमहात्माओंका सेवन करना इनसे भी मनुष्योंके मद और मूरोिगकी शान्ति होतीहै ॥ ५६ ॥ . .
तत्रश्लोको। विशुद्धञ्चाविशुद्धंचशोणितंतस्यहेतवः। रक्तप्रदोषजारोगास्ते-. . पुरोगेषुचौषधम् ॥ ५७ ॥ मदमूछीयसंन्यासहेतुलक्षणभेषजम् । विधिशोणितकेऽध्यायेसर्वमेतत्प्रकाशितम् ॥ ५८ ॥
इति योजनाचतुष्केविधिशोणिताध्यायः समाप्तः। . इस प्रकार इस शोणितीयाध्यापमें शुद्ध और अशुद्ध रक्तके लक्षण और उनके कारण तथा रक्तजन्य रोग और उनके उपाय एवम् मद, मूर्छा, संन्यासके हेतु, और लक्षण तया चिकित्सा भगवान् पुनर्वसुजीने वर्णन की है ॥ ५७ ॥ ५८॥ इति श्रीमहर्षिचरक० पं० रामप्रसादवैद्य० भाषाटकिायां योजनाचतुष्के
विधिशोणिताभ्यायश्चताशः ॥ २४ ॥
औरण तथा रक्तजन्यशोणितीयाध्याय शोणिताच्या
पंचविंशोऽध्यायः।
अथातोयजःपुरुषीयमध्यायंव्याख्यास्यामः इतिहरमाहभग: वानात्रेयः। अब हम यजापुरुषीयनामक अध्यायकी व्याख्या करतेहैं । ऐसा भगवान आत्रेयजी कहनेलगे।
ऋषियोंका आन्दोलन । पुराप्रत्यक्षवणिंभगवन्तंपुनर्वसुम् । समेतानांमहर्षीणांप्रा. दुरासीदियंकथा ॥१॥ आत्मेन्द्रियमनोऽर्थानायोऽयंपुरुषसंज्ञकः ।राशिरस्यामयानाञ्चप्रागुत्पत्तिविनिश्चये ॥२॥ पहिले एक समय भूत, भविष्य, वर्तमानके जाननेवाले भगवान् पुनर्वसंजीके पास बैठेहुए महर्षि लोग इस प्रकारका आन्दोलन करनेलगे कि आत्मा, मन, इन्द्रिय और इन्द्रियोंके विषय इन सवका. समुदायरूप यह पुरुष है सों इस शरीरमें पहिले किस प्रकार रोगोंकी उत्पत्ति होतीहै इस विषयमें कुछ निश्चय करना चाहिये ॥१॥२॥..
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चरकसंहिता - भा० टी० ।
फाशीनरेशवामकका वाक्य । अथकाशिपतिर्वाक्यंवा मकोऽर्थवदन्तरा ! व्याजहारर्षिसमितिमभिसृत्याभिवाद्यच ॥ ३॥ किन्नुस्यात्पुरुषोयज्जस्तज्जास्तस्यामयाःस्मृताः । नवेत्युक्तेनरेन्द्रेणप्रोवाचर्षीन्पुनर्वसुः ॥ ४ ॥ सर्वएवामितज्ञानविज्ञानच्छिन्नसंशयाः । भवन्तश्छेत्तुमर्हन्ति काशिराजस्यसंशयम् ॥ ५ ॥
उनमेंसे वामक नामके ऋषि उस सभामें बैठे हुए ऋषियोंमें अग्रणी होकर कहनें लगे कि हे भगवन् ! जिससे यह पंचभूतात्मा पुरुष उत्पन्न हुआ है क्या रोग भी उसीसे प्रगट हुए हैं ? वामकके इस प्रश्नको सुनकर भगवान् पुनर्वसुजी सब ऋषियांको सम्बोधन कर कहने लगे कि आप सब अपार ज्ञानवाले और विज्ञानबलसे संशयरहित हो इसलिये आपही सब लोग काशीराज महर्षि वामकके संदेहको दूर कीजिये ॥ ३ ॥ ४ ॥ ५॥
(२७०)
मौका मत |
पारीक्षिस्तत्परीक्ष्याग्रे मौद्गल्योवाक्यमब्रवीत् । आत्मजः पुरुषोरोगाश्चात्मजाःकारणंहिसः ॥ ६ ॥ सचिनोत्युपभुङ्क्ते चकर्म्म कर्म्मफलानिच । नहघृतेचेतनाधातोः प्रवृत्तिः सुखदुःखयोः ॥७॥ यह सुनकर परीक्षीके पुत्र महर्षि मौहल वोले कि आत्मासे पुरुष और सब रोग प्रगट हुएहैं इसलिये आत्माही इस जगह कारण है क्योंकि आत्मा कर्मसंचय और कर्मका फल भोगने वाला है उस चैतन्य आत्मा बिना किसी प्रकार भी सुख ओर दुःखकी प्रवृत्ति नहीं हो सकंती ॥ ६ ॥ ७ ॥ शरलोमाका मत । शरलोमातुनेत्याहनह्यात्मात्मानमात्मना।योजयेद्वद्याधिभिर्दुःखेर्दुःखद्वेषी कदाचन ॥ ८ ॥ रजस्तमाभ्यांतुमनःपरीतंसत्त्वसंज्ञकम् । शरीरस्यसमुत्पत्तौ विकाराणाञ्चकारणम् ॥ ९ ॥ यह सुनकर शरलोमा ऋषि कहनेलगे कि यह आपका कहना ठीक नहीं है क्यों कि आत्मा तो स्वभाव से ही दुःखका द्वेषी हैं, वह तो कभी भी अपनेको व्याधियोंके दुःखमें दुःखित होना नहीं चाहता । हमारी समझमें रज और तमके अधीन होकर यह सतन मन जो है यही शरीर और रोगोंको उत्पन्न करनेका कारण है ॥ ८ ॥ ९ ॥
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(२७१)
सूत्रस्थान-अ० २९..
वार्योंषिदका मत । चार्योंविदस्तुनेत्याहन कंकारणंमनः । ननॆशरीरंशारीरारोगा नमनसःस्थितिः ॥ १० ॥ रसजानितुभूतानिव्याधयश्चपृथविधाः । आपोहिव्याधिवत्यस्तास्मृतानिवृतिहेतवः ॥ ११ ॥ यह सुनकर महर्षि वार्योंविद कहने लगे कि ऐसा नहीं हो सकता । अकेला मन पुरुषकी उत्पत्ति और रोगोंका कारण नहीं होताहै । क्योंकि शरीरके विना शरीरमें होनेशले रोग और मनकी स्थिति यह दोनों नहीं हो सकते इसलिये ऐसा कहना चाहिये कि समस्त प्राणी और अनेक प्रकारके रोग यह सब रससे उत्पन्न होतेहै और वह रसंही इनकी उत्पत्तिका कारण है ॥ १० ॥ ११ ॥
हिरण्याक्षका मत । हिरण्याक्षस्तुनेत्याहनह्यात्मारसजःस्मृतः । नातीन्द्रियंमनः सन्तिरोगाःशब्दादिजास्तथा ॥ १२ ॥ षड्धातुजस्तुपुरुषो
रोगाःषड्धातुजास्तथा। राशिःषड्धातुजोह्येषसांख्यैरायःपपरीक्षितः॥ १३ ॥
यह सुनकर हिरण्याक्ष ऋषि कहनेलगे कि आत्मा भी कभी रससे उत्पन्न हों सकताहै और मन अतीन्द्रिय है वह रससे कैसे उत्पन्न हुआ तथा रोग जो है वह शब्द सुनने मात्रसे भी उत्पन्न होसकते हैं इसलिये पृथ्वी, आप, तेज, वायु,आकाश और आत्मा इन ६ पदार्थोसे पुरुष और रोगोंकी उत्पत्ति माननी चाहिये । इस बातको पहिले सांख्यके कर्ता भगवान् कपिलजीन भी कथन कियौहै और परीक्षा की है ॥ १२ ॥ १३ ॥
शौनकका मत। तथाब्रुवाणंकुशिकमाहतन्नेतिशौनकः। कस्मान्मातापितृभ्यां - हिविनाषड्धातुजोभवेत् ॥ १४ ॥ पुरुषःपुरुषागौगोरश्वादश्वः
प्रजायते । पैत्र्यामेहादयश्चोक्तारोगास्ताएवकारणम् ॥ १५ ॥ इस तरह कुशिक हिरण्याक्ष ऋषिके प्रस्तावको सुनकर शौनक ऋषि कहने लगे कि भला यह जो आपने ६ धातुओंसे पुरुषकी उत्पत्ति मानी है यह ६धातु माता .'पिता विना पुरुषको कैसे उत्पन्न कर सकते हैं। हम देखतेहैं जैसे पुरुषसे पुरुष गौसें गौ, घोडेसे घोडा, उत्पन्न होतेहैं वैसे ही मेह आदि विकार भी पितासे ही उत्पन्न
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( २७२ )
चरकसंहिता - भा०टी० ।
दोतह इसलिये पुरुषको उत्पत्तिमें और रोगकी उत्पत्ति में भी माता पिताही कों कारण मानना चाहिये ॥ १४ ॥ १५ ॥
भद्रकाप्यका मत ।
भद्रकाप्यस्तुनेत्याहन ह्यन्धोऽन्धात्प्रजायते । मातापित्रोश्चतेपूर्वमुत्पत्तिनोपपद्यते ॥ १६ ॥ कर्म्मजस्तुम तो जन्तुः कर्म जास्तस्यचामयाः । नचृतेकर्मणोजन्मरोगाणां पुरुषस्यच ॥ १७ ॥ यह सुनकर भद्रकाप्य कहने लगे कि ऐसा नहीं होता । हम देखते हैं के अंधेकों सन्तान कभी अंधी नहीं होती इसलिये माता पिता पुरुष और रोगकी उत्पत्तिकें कारण हैं यह नहीं हो सकता । सो हमारे मतमें तो पुरुष और व्याधियां कर्मसें उत्पन्न होती हैं । कर्मके विना पुरुषका जन्म एवम् रोगोंकी उत्पत्ति होही नहीं सकती ॥ १६ ॥ १७ ॥
भरद्वाजका मत ।
भरद्वाजस्तुनेत्याहकर्ता पूर्वहिकर्मणः । दृष्टंनचाकृतं कर्मयस्य स्यात्पुरुषःफलम् ॥ १८॥ भावेहेतुः स्वभावस्तुव्याधीनां पुरु स्यच । खरद्रवचलोष्णत्वं तेजोऽन्तानां यथैवहि ॥ १९ ॥
इसके उपरान्त भरद्वाज कहने लगे इस तरह नहीं होता क्योंकि कर्म विचारा स्वयम् उत्पन्न होनेकी ताकत ही नहीं रखता, वह कर्त्ता के अधीन है | जब कर्म किया ही नहीं गया तो वह पुरुषकी उत्पत्ति और रोगका उत्पत्तिरूपी फल कैसे दे सकता है इसलिये कर्म पुरुष और रोगोंका कारण कभी नहीं होसकता । पुरुष और रोगों की उत्पत्तिका कारण तो स्वभावको ही मानना चाहिये। जैसे- पंच महाभूतांका खरत्व, द्रवत्व, चरत्व, उष्णव, प्रकाशत्व, यह धर्म स्वभावसे हीं उत्पन्न होताहै इसी प्रकार पुरुषका जन्म और रोगकी उत्पत्ति भी स्वाभाविक धर्म है ॥ १८ ॥ १९ ॥
कांकायनका मत ।
काङ्कायनस्तुनेत्याहनह्यारम्भेफलं भवेत् । भवेत्स्वभावाद्भावानामसिद्धिःसिद्धिरेवत्रा ॥ २० ॥ स्रष्टात्वमतिसंकल्पोब्रह्मापत्यं प्रजापतिः । चेतनाचेतनास्यास्यजगतः सुखदुःखयोः ॥ २१ ॥ यह सुनकर कांकायन ऋषि कहने लगे यह भी नहीं होसकता क्योंकि फल आरं भके बिना नहीं हो सकता। हम देखते कर्मका फल कर्म नहीं होता । यदि आप.
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सूत्रस्थान-अ० २५.
(२७३) कहें कि स्वभावसे ही जन्मादिकोंकी सिद्धि होती है या असिद्धि होतीहै यह हम नहीं देखते । क्योंकि रचनेवाला संकल्पविशिष्ट प्रजापतिही पुरुष और उसके सुख दुःखका कारण है। यदि ऐसा न होता तो विना किसीको कर्जा माने स्वभावाधीन जगत् नियमबद्ध नहीं होता । जगत् में नियम है, नियम नियंताके अधीन होताहै सो वह नियंता प्रजापति जगत्का कर्ता ही पुरुषके जन्म और सुख दुःखोंका कारण है ॥ २० ॥ २१ ॥
भिक्षुआत्रेयका मत।। तथतिभिक्षुरात्रेयोनह्यपत्यंप्रजापतिः । प्रजाहितैषीसततंदुःखैर्युज्यानसाधुवत् ॥२२॥ कालज्ञस्त्वेवपुरुषःकालजास्तस्य चामयाः। जगत्कालवशंसर्वकालःसर्वत्रकारणम् ॥ २३ ॥ यह सुनकर भिक्षु आत्रेय कहने लगे कि ऐसा नहीं होता क्योंकि प्रजाका हित चाहनेवाला और उत्पन्न करनेवाला प्रजापति ऐसा द्वेषी नहीं होसकता जो अपनी रचीहुई प्रजाको दुःखित करे इसलिये यह कहना चाहिये कि पुरुष कालसें उत्पन्न
होताहै एवम् व्याधियां भी कालहीसे उत्पन्न होती हैं । और सम्पूर्ण जगत् कालके ' ही अधीन है सो हमारे मतसे काल ही सवका कारण है ॥ २२ ॥ २३ ॥
पुनर्वसुका वचन । तथर्षीणांविवदतामुवाचेदंपुनर्वसुः । मैवंवोचततत्त्वंहिदुष्प्रापंपक्षसंश्रयात् ॥ २४ ॥ वादासप्रतिवादान्हवदन्तोनिश्चितानिच। पक्षान्तनैवगच्छन्तितिलपीडकवद्गतौ ॥२५॥मुक्त्वैनंवादसंघट्टमध्यात्ममनुचिन्त्यताम् । नाविधतेतमःस्कन्धे ज्ञेयेज्ञानप्रवर्त्तते ॥ २६ ॥ येषामेवहिभावानांसम्पत्सञ्जनयेनरम् । तेषामेवविपद्वयाधीन्विविधान्समुदीरयेत् ॥ २७ ॥ इस प्रकार ऋषियों के विवादको सुनकर पुनर्वसु आत्रेयनी कहनेलगे,इस प्रकार झगडा क्यों करतेहो ? क्योंकि पक्षपात करनेसे तत्वका निश्चय नहीं होसकता।जब एक प्रश्न करताहै दूसरा उत्तर देताहै तीसरा अपना और ही पक्ष लेलेताहै ऐसा होनेसे वाद प्रतिवाद वढता चला जाताहै और जैसे तैलके कोल्हूकी लकडी चारों तरफ घूमघामकर अपनी सीमासे बाहर नहीं जासकती ऐसे ही पक्षपातपूर्वक झगडोंसे भी यथार्थका निश्चय नहीं होता जब तक अंधकार दूर नहीं होता तब तक जाननेयोग्य पदार्थ पर दृष्टि नहीं पहुंचसकती । यथार्थ बात तो यह है कि जिन भावोंसे
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(२७१) चरकसंहिता-भा० टी०। मनुष्योंका यथोचित संयोग होनेसे सुख संपत्ति उत्पन्न होतीहै उन्हीके अनुचित व्यवहारसे अनेक प्रकारके रोगोंकी उत्पत्ति होतीहै ॥ २४ ॥२५ ॥ २६ ॥ २७॥
वामकका प्रश्न और आत्रेयका उत्तर । अथात्रेयस्यभगवतोवचनमनुनिशम्यपुनरेववामकःकाशिपतिरुवाचभगवन्तमात्रेयम् । भगवन्सम्पानिमित्तजस्यपुरुषस्यविपन्निमित्तजानांचरोगाणांकिमाभिवृद्धिकारणामीत । तमुवाच भगवानात्रेयोहिताहारोपयोगःएकएवपुरुषस्यभिवृद्धिकरो भवतिअहिताहारोपयोगःपुनाधीनांनिमित्तमिति ॥२८॥ इस प्रकार भगवान आत्रेयके कथनको सुनकर काशीपति वामकनामा ऋषि कहने लगे कि हे भगवन् ! शुभ भावोंके संयोगसे पुरुषकी उत्पत्ति और अशुभ भावांके संयोगसे व्याधिकी उत्पत्ति होनेका कारण क्या है ? यह सुनकर आत्रेय भगवान् कहनेलगे कि हितकर आहार विहारके सेवनसे पुरुषोंके सुखकी वृद्धि होती हैं इसी प्रकार अहितकारक आहारादिकके सेवनसे रोग उत्पन्न होतेहैं ॥ २८ ॥
अग्निवेशका प्रश्न । एवंवादिनभगवन्तमात्रेयमग्निवेश उवाच । कथमिहभगवन्! हिताहितानामाहारजातानांलक्षणमनपवादमभिजानीयाहितसमाख्यातानांचैवाहारजातानामहितसमाख्यातानाञ्चमात्राकालक्रियाभूमिदेहदोपपुरुपावस्थान्तरेषविपरीतकारित्वमुपलभामहे इति ॥ २९॥ इस प्रकार कथन करतेहुए आत्रेय भगवान्के प्रति अग्निवेश बोले कि हे भगवन्! हितकर और अहितकर आहारादिकांका स्पष्ट लक्षम किस प्रकार जानना चाहिये। दित करनेवाले आहारों और अहित करनेवाले आहारांकी मात्रा, काल,क्रिया, देश, द, दोष थोर पुरुपकी अवस्था यार पुरुषके लिये विपरीतकारी पक्षार्थीको हम किस प्रकार जान सकतेहै मो आप कृपा कर कहिये ॥ २९ ॥
आत्रेयका उत्तर । तमुवाचभगवानात्रेयः । यदाहारजातमाग्नवेश । समांश्चैवशरीरधातनप्रकृतास्थापयतिविपमांश्चसमीकरोतिइत्येतद्धितविसिविपरीतमहितमितिएतद्धिताहितलक्षणमनपवादभवति॥३०
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सूत्रस्थान-अ० २६
(६ २७६) यह सुनकर आत्रेयंजी कहनेलगे कि, हे.अग्निवेश ! जो आहार शरीरके सात्म्य (अनुकूल ) होनेसे शारीरिक धातुओंको यथार्थ रखतेहैं । और विषम हुए धातुओंको भी समान अवस्थामें कर देता है । उसको हितकारी जानना चाहिये तात्पर्य यह हुआ कि जिस आहारके सेवनसे शरीरके सब धातु ठीक रहें उसको हितकारक आहार जानना, इससे विपरीत अहितकारी समझना चाहिये । वस हितकर और अहितकर आहारके यह निर्विवाद लक्षण समझो ॥ ३०॥ .
अग्निवेशका प्रश्न । , एवंवादिनञ्चभगवन्तमात्रेयमग्निवेशउवाच ।भगवन् ! नन्वे
तदेवमुपदिष्टंभूयिष्ठकल्पाःसर्वभिषजोविज्ञास्यन्ति ॥३१॥ ' आग्निवेश फिर आत्रेय भगवान्से कहने लगे कि संक्षेपसे कहे हुए आपके इस उपदेशको सब वैद्य नहीं समझ सकते इसलिये कृपया विस्तारपूर्वक कथन कीजिये ॥३१॥
आत्रेयका उत्तर । तमुवाचभगवानात्रयः । येषांविदितमाहारतत्त्वमग्निवेश ! गुणतोद्रव्यतः कर्मतः सर्वावयवतोमात्रादयोभावास्तएतद्देवमुपदिष्टंविज्ञातुमुत्सहन्तीयथातुखल्वेतदुपदिष्टभूयिष्ठकल्पाः सर्वभिषजोविज्ञास्यन्तितथैतदुपदेक्ष्यामः । मात्रादीन्भावानु- . दाहरन्तःतेषांहिबहुविधविकल्पाभवन्ति । आहारविधिविशेषांस्तुखलुलक्षणतश्चावयवतश्चानुव्याख्यास्यामः ॥ ३२॥ तब आत्रेय भगवान् अग्निवेशसे कहने लगे कि गुणसे,द्रव्यसे,कर्मसे और संपूर्ण अवयवोंसे मात्रादि भावके भेदसें आहार तत्त्वको जो वैद्य जानताहै उसके लिये यह संक्षपसे दियाहुआ उपदेश बोधगम्य होसकताहै अर्थात् समझमें आसकताहै किन्तु साधारण बुद्धिके मनुष्य इस विचारको नहीं समझ सकते इसलिये साधारण वैद्योंको बोध होनेके लिये मात्रांदिकोंका उपदेश करतेहैं । मात्रादि भावोंकी अनेक प्रकारसे कल्पना है उनमें जो विशेष २ आहार विधिके लक्षण और विभाग हैं उनका कथन करतेहैं सो श्रवण करो ॥३२॥
. आहारों के भेदवर्णन । आहारत्वम् । आहारस्यैकविधमर्थाभेदात्सपुनर्द्वियोनिःस्थावरजङ्गमात्मकत्वात् । द्विविधाप्रभावोहिताहितोदकविशेषांच्च
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(२७६)
चरकसंहिता-भा० टी०॥ तुर्विधोपयोगःपानाशनभक्ष्यलेह्योपयोगात्।षडास्वादोरसभे दतःपविधत्वाविंशतिगुणोगुरुलघुशीतोष्णस्निग्धरूक्षमन्दतीक्ष्णस्थिरसरमृदुकठिनविशदपिच्छिलश्लक्ष्णखरसक्ष्मस्थूलसान्द्रद्रवानुगमनात् ॥ ३३॥ वह ऐसा है कि अर्थमात्रमें भेद न होनेसे सब प्रकारके आहारोंमें ही आहारत्व है । स्थावर और जंगम भेदसे माहारकी उत्पत्ति दो प्रकारकी है । हितकर और अहितकर इन दो भेदोंसे आहार दो प्रकारका है । पान, भोजन, चर्वण और लेहन इन भेदांसे आहारका सेवन चार प्रकारका है । रसभेदसे आहारका स्वाद ६ प्रकारका है । गुरु, लघु, शीतल, उष्ण, चिकना, रूक्ष, मंद, तीक्ष्ण, स्थिर, सर, मृदु, काटन, विषद, पिच्छिल, श्लक्ष्ण, खर, सूक्ष्म, स्थूल, घन और द्रव इन भेदोसे. आहारके गुण वीस प्रकारके हैं ॥ ३३ ॥
अपरिसंख्येयविकल्पोद्रव्यसंयोगकरणवाहुल्यात्तस्यययेविकारावयवाभायष्टमुपयुज्यन्तोभूयिष्ठकल्पनाश्चमनुष्याणांप्रकृत्यैवहिततमाश्चाहिततमाश्चतांस्तान्यथावदनुव्याख्यास्यामः ॥३४॥ द्रव्यांके संयोगवशसे आहारकी कल्पना असंख्य प्रकारकी है । मनुष्योंके वह आहार असंख्य प्रकारके होते हुए हितकर और अहितकर दो प्रकारोंमें विभक्त हैं। उनका अव वर्णन करतह ॥ ३४ ॥
श्रेष्ठहितकारी द्रव्यांका वर्णन । तद्यथालोहितशालय शूकधान्यानांपथ्यतमत्वेश्रेष्टतमाः । मु. द्वादशमीधान्यानाम्, आन्तरीक्ष्यमुदकानां, सैन्धवंलवणानां, जीवन्तीशाकंशाकानाम् । ऐणेयंमृगमांसानां, लावःपक्षिणां, गोधारिलेशयानां, रोहितोमत्स्यानां, गव्यंलार्पःसार्पपां; गोक्षीरक्षीराणां, तिलतैलंस्थावरजातानांस्नेहानां, वराहवसाअनृपमृगवसानां,चुलुकीवसामत्स्यवसानां,हंसवसाजलचरविहगवलानां, कुकुटवसाविष्किरशकुनिवसानामाजमेदः शाखादमंदसा, शुगवरंकन्दानां, मृद्वीकाफलानां, शर्कराइक्षुविकाराणाम् । इतिप्रत्यवाहिततमानामाहारविकाराणां प्राधान्यतोद्रव्याणिव्याख्यातानि ॥ ३५॥
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सूत्रस्थान-अ० २५.
(२७७) । वह इस प्रकार हैं लाल शालिचावल सव शूक धान्योंमें सर्वश्रेष्ठ पथ्य :गिर्ने जाते हैं इसीप्रकार सव प्रकारके शमीधान्योंमें मूंग सर्वश्रेष्ठ है। जलों में शुद्ध आकाशका जल सर्वश्रेष्ठ है । नमकोंमें सेंधा नमक श्रेष्ठ है सागोंमें जीवन्तीका साग श्रेष्ठ है। मृगमांसोंमें काले हिरणका मांस श्रेष्ठ है। पक्षियोंमें लवा, विलेशयोंमें गोह, मछ: लियोंमें रोहित, घृतोंमें गोघृत, दूधोंमें गोदूध, स्थावर स्नेहोंमें तिलतैल, अनूपसंचारी जीवोंकी चर्बीमें सूअरकी चर्वी, मछलियोंकी चर्बीमें चुलुकीनामक मछलीकी चर्वी, जलसंचारी पक्षियोंकी चर्चा में हंस या वत्तककी चर्वी सर्वोत्तम मानी जाती है। विष्किर पक्षियोंकी चर्चा में मुर्गेकी चौं,शाखापत्र .खानेवालोंमें बकरेकी चर्वी उत्तम है । मूलों में अदरक, फलोंमें मुनक्का,ईखके विकारोंमें मिश्री सर्वोत्तम कही जातीहै । इस प्रकार स्वभावसे ही हितकारी प्रधान २ आहारोंका वर्णन कियागया ॥ ३९॥
सामान्यतःसे अहित द्रव्य । अहिततमानामप्युपदेक्ष्यामःायवकाशूकधान्यानामपथ्यत्वेप्रकृष्टतमाभवन्ति । माषाःशमीधान्यानां,वर्षानादेयमुदकानामौषरंलवणानां, सर्षपशाकंशाकानां, गोमांसंमृगमांसानां, कालकपोतःपक्षिणां,भेकविलेशयानां,चिलिचिमोमत्स्यानामाविकंसर्पिः सर्पिषामाविक्षारक्षीराणां, कुसुम्भस्नेहालेहानां स्थावराणां,महिषवसाआनूपमृगवसानां, कुम्भीरवसामत्स्य वसानां, काकमद्वसाजलचरविहंगवसानां, मूलकंकन्दानां, चाटकवसाविष्किरशकुनिवसानां, हस्तिमेदः शाखादमे'दसां, लिकुचंफलानां, फाणितमिाविकाराणासितिप्रकृत्यैवअहिततमानामाहारविकाराणांनिकृष्टतमानिद्रव्याणिव्याख्यातानि ॥३६॥ अब अहितकारक द्रव्योंका वर्णन करतेहैं । शूकधान्योंमें जव, शमीधान्यमि उडद, जलों में वर्सातकी नदीका जल, नमकोंमें खारी नमक, सागोंमें सरसोंका साग अहितकर और कुपथ्य होताहै । पशुओंके मांसोंमें गोमांस, पक्षियोंमें कालकपोत, विलेशियोंमें मेंढक, मछलियोंमें चिलचिम मछली, घृतोंमें भेडका घृत, दूधोंमें भेडका दूध,स्थावर स्नेहोंमें करडका तैल अहितकारी होताहै ।अनूपसंचारी जीवोंकी चर्बी में भैंसेकी चर्वी,मछलियोंकी चर्बी में कुम्भीरकी चर्वी,जलचर जीवोंमें
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(२७८) चरकसंहिता-भा० टी०। जलकीआकी चर्वी अहितकारी होतीहै । विष्किर पक्षियोंमें चिडियाकी चर्बी, शाखा पत्र खानेवाले जानवरोम हाथीकी चर्वी निंदनीय होतीहै । कंदोंमें पकीहुई मूली, फलाम कटहर, ईखके पदाथाम खांडित अहितकारी होताहै। इस प्रकार स्वभावसे ही अहितकारी द्रव्योंका वर्णन किया गया है ॥ ३६ ॥
हिताहित द्रव्योंमें प्रधानांका वर्णन ।। हिताहितावयवानामाहारविकाराणाम्, अतोभूयःकौषधानां प्राधान्यतः ॥ सानुवन्धानिद्रव्याणिअनुव्याख्यास्यामः । तद्यथा- अन्नवृत्तिकराणांश्रेष्ठम् । उदकमाश्वासकराणां,सुरा श्रमहराणां, क्षीरंजीवनीयानां,मांसंबृहणीयानां,रसस्तर्पणीयानां, लवणमन्नद्रव्यरुचिकराणामम्लंहृद्यानां, कुक्कुटोवल्यानां, नकरतोवृष्याणां मधुश्लेष्मपित्तप्रशमनानां, सर्पितिपित्तशमनानां, तैलंवातश्लेष्मप्रशमनानां वमनंश्लेष्महराणां विरेचनंपित्तहराणां,वस्तिर्वातहराणां,स्वेदोमार्दवकराणां, व्यायामःस्थैर्यकराणां, क्षारःपुंस्त्वोपघातिनां, तिन्दुकमन्नद्रव्यरुचिकराणामामकपित्थमकंठयानामाविकंसर्पिरहृद्यानासजाक्षीरंशोपन्नस्तन्यसात्म्यरक्तसांग्राहिकरक्तपित्तप्रशमनानामविक्षीरंश्लेप्मपित्तोपचयकराणां,महिषीक्षीरस्वनजननानां, मन्दकंदध्याभिष्यन्दकराणांगवेधकान्नकर्षणीयानामुद्दालकानविलक्षणीयानामिक्षुर्मूत्रजननानां,यवाःपुरीपजननानां,जाम्बवंवातजननानां, शकुल्याश्लेप्मपित्तजननानां, कुलत्थाअम्लपित्तजननानां,मापाःश्लेप्मपित्तजननानां, मदनफलंवमनास्थापनानुवासनोपयोगिनां, निवृत्सुखविरेचनानांचतुरङ्गलंमृदुविरेचनानां,स्नुक्पयस्तीक्ष्णविरेचनानां, प्रत्यवपुप्पीशिरोविरंचनानां,विडझंक्रिमिन्नानां,शिरीपोविपनानां, रखदिरःकुटनानां, राम्नावातहराणामामलकंवयःस्थापनानां, हरीतकीपथ्यानामेरण्डमूलंग्यवातहराणां,पिप्पलीमूलंदीपनी
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सूत्रस्थान-अ०२५. । २७९) यपाचनीयानाहप्रशमनानां,चित्रकमूलंदीपनीयगुदशूलशोथहराणां,पुष्करमूलंहिकाश्वासकासपार्श्वशूलहराणां,मुस्तसंग्राहकदीपनीयपाचनीयानामुदीच्यनिर्वापणीयदीपनीयच्छर्यतीसा. रहंराणां,कट्वङ्गसंग्राहकदीपनीयपाचनीयानाम्।अनन्तासंग्राहिकदीपनीयरक्तपित्तप्रशमनानाममृतासंग्राहिकवातहरदीप- . नीयश्लेष्मशोणितविबन्धप्रशमनांनां, बिल्वंसंग्राहिकदीपनीयवातकफशमनानामतिविषादीपनीयपाचनीयसंग्राहिकसर्व दोषहराणामुत्पलकुमुदपद्मकिलल्काःसंग्राहकरक्तपित्तप्रशमनानां, दुरालभापित्तश्लेष्मोपशोषणानां,गन्धप्रियङ्गुः शोणितपित्तातियोगप्रशमनानाम् ॥ ३७॥ अव हितकर और अहितकर आहारका वर्णन करतेहुए वस्ति आदि कर्म और औषधोंमें उत्तम तथा निकृष्ट आदि द्रव्योंका वर्णन करतेहैं, जीवन रखनेवाले पदार्थोंमें अन्न, वृषानाशक पदार्थोंमें जल,परिश्रम हरनेवाले पदार्थोंमें मद्य, जीवनदायक पदार्थोंमें दूध, पुष्ट करनेवाले पदार्थोम मांस, रुचिकारक, पदार्थों में नमक, हृदयको प्रिय पदार्थों में खट्टा सर्वश्रेष्ठ है । वलकारी पदार्थों में मुर्गेका मांस, वीर्यव. ईक पदार्थों में कुम्भीर ( मगरमच्छ ) का वीर्य, कफ पित्त नाशकोंमें शहद, वात: पित्तहरोंमें घृत, वात कफ नाशकोंमें तैल, कफनाशक कर्मोंमें वमन, पित्तनाशक कमाम विरेचन, वातनाशक कमोंमें वस्तिकर्म, शरीरको नन करनेवालोंमें स्वेद, दृढ करनेवालोंमें कसरत, पुरुषत्व नष्ट करनेवालोंमें क्षार, अन्न पर अरुचि करनेवालोंमें तिन्दुकफल सर्वप्रधान माने जाते हैं । स्वर विगाडनेवालोंमें कैथके कच्चे फल, हृदयको अप्रिय द्रव्योंमें भेडका घृत प्रधान माना जाता है। शोकके हरनेवाले,. स्तनों में दूध वढा वाले, रक्तविकार और रक्त पित्तके नाशकोंमें बकरीका दूधः सर्वश्रेष्ठ है । पित्त-कफ-वर्तकोंमें भेडका दूध, निद्राजनक द्रव्योंमें भैसका दूध,. अभिस्यदकारी द्रव्योंमें मंदक दही, कृशताकारक द्रव्योंमें गवेधुक धान्य, रूक्षकारक द्रव्योंमें उद्दालक धान्य, मूत्रवर्द्धक पदार्थोंमें गन्ना, मलवर्द्धक पदार्थोंमें जव, वायु वर्द्धक पदार्थोंमें जामुन, कफ पिच वर्द्धक पदार्थोंमें तिलोंकी खल. अम्लपित्तकारक पदार्थों में कुल्थी, पित्त-कफ-कारकोंमें उडद एवम् वमन,. आस्थापन और अनुवासन कर्ममें मैनफल प्रधान माना जाता है ! उत्तम विरेचन करनेवालोंमें निशोथकी जड, मृदु विरेचकोंमें एरंडतैल, तीक्ष्ण विरेचकोंमें थोहरका दूध, शिरोविरेचन करनेवालोंमें अपामार्गके वीज,कृमिनष्ट करनेवालोंमें वायविडंग,
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(२८०) चरकसहिता-भा० टी०। विपनाशको सिरसके वीज, कुष्टके नाश करनेवालोंमें कत्था,वातनाशकोंमें रासना, आयुफे स्थापन करनेवालाम आंवला, सब प्रकारके पथ्योंमें हरड, वृष्यकर्ता और वायुके हरनेवालाम एरंडकी जड, दीपन, पाचन कर्ताओम तथा आनाह-रोगनाशकाम पिपलामूल, दीपनीय और गुदाके शूल तथा शोथनाशकोंम चित्तेकी छाल, संग्राहक और दीपन तथा पाचन द्रव्यों में नागरमोथा, हिचकी, श्वास, खांसी तथा पार्श्वभूलनाशक द्रव्यांमें पोहकर मूल, भस्मकनिवारक, दीपनीय,पाचन और वमनके हरनेवाले एवम् अतिसारके नष्ट करनेवालों में अनन्तमूल,संग्राहक वातनाशक दीपन कफनाशक कफरक्तनाशक विवंधनाशक द्रव्योंमें गिलोय (गुरुच), संग्राहक दीपन वातकफनाशक द्रव्योंमें फच्चा वेलफल, दीपनीय पाचनीय संग्राहक सर्वदोपहारक द्रव्योम अतीस, संग्राहक रक्तपित्तनाशक द्रव्योंमें कमलगट्टा नीलोफर और कमलकेशर सर्वोत्तम मानी जाती है । पित्तकफनाशकोंमें जवासा सर्वश्रेष्ठ है । रक्तपित्तके शमनकरनेवालों में दुरालभा (वसा) पित्त और कफके उपशोपण करनेवालाम गंधप्रियंगु सर्वश्रेष्ठ माना जाताहै ॥ ३७॥
कुटजत्वक्श्लेष्मपित्तरकसंग्राहकोपशोषणानां, काश्मर्यफलंरक्तसंग्राहकरक्तपित्तप्रशमनानां, पृश्निपीसंग्राहकवातह- . रदीपनीयवृष्याणां, विदारिगन्धावृष्यसर्वदोषहराणां, बला संग्राहकवल्यवातहराणां, गोक्षुरकोमूत्रकृच्छ्रानिलहराणां, हिङ्गुनि-सम्छेदनीयदीपनीयभेदनीयानुलोमिकवातकफ- - प्रशमनानामम्लवेतसोभेदनीयदीपनीयानुलोमिकवातश्लेष्मप्रशमनानां, यावशकःस्रंसनीयपाचनीयाशीनानां, तक्राभ्यासोग्रहणीदोपाशीघृतव्यापत्प्रशमनानां, क्रव्यादमांसाभ्यासोग्रहणीदोपशोपाशीनानां, घृतक्षीराभ्यासोरसायनानां, समघृतसक्तुकाभ्यासोवृप्योदावर्त्तहराणां, तैलगण्डपाभ्यासो दन्तवलरुचिकराणां,चन्दनोडम्बरंदाहनिर्वापणानां,रास्नागुमणीशीतापनयनप्रलेपनाननलामन्जकोशीरेदाहत्वग्दोपस्वेदापनयनप्रलेपनानां, कुष्टंवातहराभ्यंगोपनाहयोगिनां,मधुक चक्षुष्यवृपयकश्यकण्ठ्यवर्ण्यवल्यविरजनीयरोपणीयानां,वायु: प्राणसंज्ञाप्रधानहेतनामनिरामस्तम्भशीतगृलोद्वेपनप्रशमनानाम ॥ ३८॥
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सूत्रस्थान-अ०२५,
(२८१) कफ पित्त और रक्तको सग्रहण तथा उपशोषण करनेवाले द्रव्याम कुशकी छाल, संग्राहक और रक्तपिचनाशक द्रव्योंमें काश्मरीके फल, संग्राहक वातनाशक और वृष्योंमें पृष्ठपर्णी, वृष्य और दोषनाशक द्रव्योंमें विदारीकंद, संग्राही बलकारक
और वातनाशक द्रव्योंमें खरैटी, मूत्रकृच्छ्र और वातनाशक द्रव्योंमें गोखरू, छेदः नीय दीपनीय अनुलोमकर्ता एवम् वातकफनाशक द्रव्योंमें हांग, भेदन-अनुलोमन-और दीपन-कर्ता एवम् वात कफ हरणकर्ता द्रव्योंमें अमलवेत, स्प्रेसनकर्ता पाचनकर्ता अहिती द्रव्योंमें जवाखार, ग्रहणाविकारनाशक अशोऽघ्न अतिघृतपानजन्य विकार नाशक द्रव्योंमें तक्र, ग्रहणीदोष शोष और अर्शनाशक मांसोंमें मांसभक्षी जीवोंका मांस, रसायन पदार्थोंमें दूध और घीका अभ्यास, वृष्य तथा उदावर्तनाशक द्रव्योंमें परिमाणसे घृत और सत्तुओंका सेवन, दांतोंको वलदेनेवालोंमें और रुचिकारक पदार्थों में तैलको मुखमें धारणकर कुल्ले करना, दाहनाशक लेपोंमें चंदनका लेप तथा गूलर, शीतनाशक लेपनोंमें रासना और अगर, दाह त्वग्दोष और स्वेदके हरनेवाले लेपोमें खस, वातनाशक अभ्यंगों और प्रलेपोंमें कूठ, नेत्रोंको हितकारी वीर्यवर्द्धक केश कण्ठ वर्ण इनको हितकर्ता एवम् विरजनीय और रोपणकर्ता द्रव्योंमें मुलैठी, बल और प्राणों में चैतन्यता प्राप्त करनेवाले पदार्थोमै उत्तम वायु, आम, स्तम्भ शीतता शूल, कम्पनाशक द्रव्योंमें अग्नि सर्वश्रेष्ठ तथा सोंमें प्रधान माना जाताहै ॥ ३८ ॥
जलस्तम्भनायानां, मृद्धृष्टलोष्टनिर्वापितमुदकंतृष्णातियोगप्रशमनानामतिमात्राशनमामप्रदोषहेतूनां,यथाग्न्यभ्यवहरणोऽग्निसन्धुक्षणानां, यथासात्म्यंचेष्टाभ्यवहारःसेव्यानां, कालभोजनमारोग्यकराणां, वेगसन्धारणमनारोग्यकराणां, तृप्तिराहारगुणानां, मद्यसौमनस्यजननानां,मद्याक्षेपोधीधृतिस्मृतिहराणां, गुरुभोजनंदुर्विपाकानामेकाशनभोजनंसुखपरिणामकराणां,स्त्रीषुअतिप्रसङ्गःशोषकराणां,शुक्रवेगनिग्रहाषापढयकराणां,परायतनमन्नमश्रद्धाजननानामनंशनमायुषोहासकराणां प्रमिताशनकर्षणीयानासजीर्णाध्यशनंग्रहणीदृषणानां विषमाशनमग्निवैषम्यकराणां, विरुद्धवीाशनंनिन्दितव्याधिकराणां प्रशमःपथ्यानामायासःसर्वापथ्यानां, मिथ्या
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(२८२) चरकसंहिता-भा० टी०।
योगोव्याधिसुखाना, रजस्वलाभिगमनमलक्ष्मीकाणां, ब्रह्मचर्यमायुण्यकराणां, सङ्कल्पोवृष्याणां, दौर्मनस्यमवृष्याणामयथावलप्रारम्भःप्राणोपरोधिनां, विपादोरोगवर्द्धनानाम्॥३९॥ स्तम्भनीय द्रव्योम जल, यति प्यासनाशक द्रव्यामें तप्त मट्टीके ढेलेसे वुझाया जल. आमदोपकारक पदार्थोंमें बहुत भोजन, अग्निवद्ध आहारोंमें याग्निभोजन, सेवनयोग्य कालोम अभ्यासके अनुरूप कार्य, आरोग्यकर्ता उपायोंमें यथोचित भोजन, व्याधिकारकामें मलमूत्रादिकोंका वेग रोकना, आहारके गुणोंमें ताप्ति, मस्त करने में मद्य, बुद्धि धारणशक्ति स्मृति इनके नष्टकरनेवालोंमें मद्यका विकार, कठिनताले पचनेवालोम गुरु भोजन, भलीप्रकार पचनेवालोंमें एकसमय भोजन; राजय क्ष्माकारकाम मैथुन, नपुंसककत्ताओम शुक्रके वेगो रोकना, अन्नसे घृणा करानेवालोम सडा बुसा भोजन, आयु घटानेवालों में उपवास, कृशता करनेवालोंमें यथासमय भोजन न मिलना, ग्रहणीरोगकर्ता पदार्थोम अजीर्णमें भोजनअग्निविषमकर्ताओंम विषमभोजन, कुष्ठ आदिक निंदित व्याधि करनेवालोंमें मछली दूध आदि विरुद्ध द्रव्यांका एकसमय सेवन करना, हितकर्ता पदार्थों शान्ति, सब प्रकारके कुपोंमें शक्तिसे अधिक परिश्रम, रोगकारकोंमें आहार विहारका अनुचित योग, अलक्ष्मीकारकामें रजस्वलागमन, आयुवर्द्धकोंमें ब्रह्मचर्यपालन. पुरुषार्थकारकाम दृढसंकल्प, अवृष्यमें मनकी स्फूर्ति न होना, प्राण हग्नेवालाम सामर्थ्य से अधिक कार्यका करना, रोग बढानेवालोंमें विषाद प्रधान माना जाता है ॥ ३९ ॥
नानंश्रमहराणां, हर्षःप्राणनानां, शोकःशोषणानां; निर्वृतिः गुष्टिकराणामतिस्वप्नस्तन्द्राकराणां, सर्वरसाभ्यासोवलकराणासकरसाभ्यासोदौवंल्यकराणां, गर्भशल्यमनाहार्याणामजीर्णमुदाऱ्याणां, वालोमृदुभेपजीयानां, वृन्दायाप्यानां, गर्भिणीतीक्ष्णोपधव्यायामवर्जनीयानां, सौमनस्यगर्भधारकाणां, सन्निपातोदुश्चिकित्स्यानामामविपमचिकित्स्यानां, अरारोगाणां, कष्टंदीर्घरोगाणां, राजयक्ष्मारोगसमूहानां, प्रमेहोऽनुपाङ्गिणाम् ॥ १० ॥ परिश्रम दन्नवालामं स्नान. पोति बढानेवालामहर्ष, शोषणकर्ताओम पत्र शाक, सुष्मिताभआम साप, निद्राकारकाम पुरता, तंद्राकारकाम निद्रा, वलकारकॉम
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सूत्रस्थान-अ० २५. ( २८३) रसोंका अभ्यास, दुर्वलकर्ता पदार्थोंमें एकही रसका सेवन, अनाकर्षायोंमें गर्भशल्य, वमनके योग्योंमें अजीर्ण, मृदु औषधोंसे चिकित्सा करनेयोग्योंमें वालक, याप्यसाध्योंमें वृद्धपुरुषोंके रोग, तीक्ष्ण औषधिमें व्यायाम,पुरुष संसर्गमें इन सवसें वर्जनीयोंमें गर्भवती स्त्री, गर्भधारणमें मनकी प्रसन्नता, दुश्चिकित्स्योंमें सन्निपात, विरुद्ध चिकित्सामें आमचिकित्सा, रोगोंमें ज्वर, दीर्घरोगोंमें कुष्ठ, रोगसमूहोंमें राजयक्ष्मा, अनुषंगी रोगोंमें राजयक्ष्मा प्रधान मानेजातेहैं ॥ ४० ॥
जलौकसोऽनुशस्त्राणां,वस्तिस्तन्त्राणां,हिमवानौषधिभूमीनां, मरुभूगरोग्यदेशानामनूपमहितदेशानां,निर्देशकारित्वमातुरगुणानां,भिषक्चिकित्साङ्गानां, नास्तिकोवानांलौल्यंक्लेशकराणामनिर्देशकारित्वमरिष्टानामनिर्वेदआर्जलक्षणानां, योगोवैद्यगुणानां,विज्ञानमौषधीनां, शास्त्रसहितस्तक साधनानां सम्प्रतिपत्तिः कालज्ञानप्रयोजनानामनुद्योगोव्यवसायकालातिपत्तिहेतूनां दृष्टकर्मतानिःसंशयकराणामसमर्थताभयकराणां, तद्विद्यसम्भाषावाद्धिवर्द्धनानामाचार्य शास्त्राधिगमहेतूनामायुर्वेदोऽमृतानां, सद्वचनमनुष्ठेयानामसम्बद्धवचन संग्रहणंसर्वाहितानां, सर्वसंन्यासःसुखानामिति ॥ ४१ ॥ उपशस्तोंमें जलौका, पंचकर्मों में वस्ति, औषधियोंके योग्य भूमिमें हिमालय पर्वत, आरोग्यदेशोंमें मरुभूमि, औषधियोंमें सोमलता, अहितकारी देशोंमें अनूपदेश, रोगीके गुणोंमें वैद्यकी आज्ञाका पालन, चिकित्साके चार पादोंमें वैद्य, वर्ज नीयोंमें नास्तिक, क्लेशकाओंमें-लोभ, मृत्युके लक्षणों में रोगीकी अवाध्यता, आर्त्तके लक्षणोंमें-अस्थिरता, वैद्यके गुणोंमें उचित रीतिपर प्रयोग करना, निःसं. शयकर्ताओंमें-वैद्यसमूह, औषधियोंमें विज्ञान, साधनोंमें शास्त्रविहित युक्ति, · कालज्ञानके प्रयोजनोंमें-उत्तमज्ञान, समयनाशक हेतुओंमें आलस्य, निःसंदेहकार
कोंमें दृष्टकर्मता (जानकारी) भयकारकोंमें असमर्थता, बुद्धिविवर्द्धकोंमें स्वाध्या:: थियोंसे शास्त्रार्थ करना, शास्त्रजाननेके हेतुओंमें आचार्य, अमृतोंमें आयुर्वेद,करनयोग्य कार्यों में सत्यवचन बोलना, सब तरहसे अहित करनेवालोंमें विना विचारे बकवाद करना, परमानन्ददायकोंमें सर्वत्याग प्रधान माना है ॥ ४१ ॥
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(२८१ )
चरकसंहिता-भा० टी०।
भवन्तिचात्र । अग्र्याणांशतमुद्दिष्टंयहिपञ्चाशदुत्तरम् । अलमेतद्विकाराणां विघातायोपदिश्यते ॥ ४२ ॥ समानकारणायेऽर्थास्तेषांश्रेष्ठस्यलक्षणम्ाज्यायस्त्वंकार्यकारित्वेऽवरत्वंचाप्युदाहृतम् ॥४३॥ इस प्रकार १५२ प्रधान २ वार्ताओंका कथन किया गया है सो रोगशान्तिके लिये इन एकसौ बावन प्रधान वातोंका जानना ही बहुत है । इनमें समान कार्यकर्ता द्रव्याम श्रेष्ठके लक्षण और प्रधानता तथा कार्यकारिता और निकृष्टता कथन कर दीगई है ॥ ४२ ॥४३ ॥
उपरोक्त उपदेशोंका तत्व । वातपित्तकफेभ्यश्चयद्यत्प्रशमनेहितमा प्राधान्यतश्चनिर्दिष्टय.
याधिहरमुत्तमम् ॥४४॥ एतन्निशम्यनिपुणंचिकित्सांसम्प्रयोजयेत् । एवंकुर्वन्सदावैद्योधर्मकामौसमश्नुते ॥४५॥ पथ्यंयथानपेतंयद्यच्चोक्तमनसःप्रियम् । यच्चाप्रियमपश्यञ्चनियतंतत्रलक्षयेत् ॥४६॥ वात, पित्त, कफर्की शान्ति करनेवालोंमे हितकारी और प्रधान तथा रोगानवारक द्रव्यांका वर्णन किया गया है बुद्धिमान् वैद्यको यह सव विषय स्मरण रखकर चिकित्सा करना चाहिये । इस प्रकार करनेसे वैद्य धर्म, अर्थ और कामको भली प्रकार प्राप्त होता है। जो पदार्थ पुरुषके लिये सात्म्य ( उपयोगी ) और मनको हितभरी कहे गये हैं। उनको पथ्य समझना चाहिये । जो असात्म्य और कुपथ्य हैं उनकी ओर ध्यान भी देना नहीं चाहिये ॥ ४४ ॥ ४५ ॥ ४६ ।।
मात्राकालक्रियासमिदेहदोपगुणान्तरम् । प्राप्यतत्ताद्धदृश्यन्तततोभावास्तथातथा ॥ १७॥ तस्मात्स्वभावोनिर्दिष्टस्तयामानादिराश्रयः तदपेक्ष्योभयंकर्मप्रयोज्यंसिद्धिमिच्छता ॥४८॥ मात्रा, काल, क्रिया, देश, देह, दोप और गुण यादिकोंके अन्तर होनेसे महिनार पथ्य पार हितकर कुपथ्य होजातेह । इस लिये सब द्रव्यांका स्वभाव माना आदि विधाका उपयोग करना चाहिये । सिद्धिलाम करनेवाले वैद्याको नगर याताको विचारका ही चिकित्सा करनी चाहिये ।। ४७ ॥ ४८ ॥
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. सूत्रस्थान-अ० २५..
(२८६) अग्निवेशका आसवविषयक प्रश्न । तदात्रेयस्यभगवतोवचनमनुनिशम्यपुनरपिभगवन्तमात्रेयमनिवेशउवाच । यथोदेशमभिनिर्दिष्टः केवलोऽयमोंभगवता श्रुतस्त्वस्माभिः । आसवद्रव्याणामिदानींलक्षणमनतिसंक्षेपेणोपदिश्यमानंशुश्रूषामहेइति ॥ १९॥
आत्रेय भगवान्का यह सम्पूर्ण उपदेश सुनकर आग्निवेश कहने लगे कि हे भगवन् ! जिस २ वातकी जाननेकी हमने इच्छा की वह सब आपने कृपापूर्वक निर्देश करदिया है । अव हम आसवद्रव्योंकी प्रकृति और लक्षण विस्तारपूर्वक सुनना चाहतेहैं, कृपाकर उनका भी विस्तारपूर्वक कथन कीजिये ॥ ४९ ॥
आत्रेयजीका उत्तर (आसवोंका वर्णन ।) तमुवाचभगवानात्रेयः । धान्यफलसारपुष्पकाण्डपत्रत्वचोभवन्त्यासवयोनयः अग्निवेश ! संग्रहेणाष्टौशर्करानवमास्तासुद्रव्यसंयोगकरणतोऽपरिसंख्येयासुयथापथ्यतमानासवानांचतु. रशीतिनिबोधसुरासौवीरतूषोदकमैरेयमेदकधान्याम्लषड्धान्यावासवाः । मृद्वीकाखजूरकाश्मर्यधन्वनराजादनतृणशू. ल्यपरूषाभयामलकमृगलण्डिकाजाम्बवकपित्थ-बकुल-बदरकर्कन्धुपालुपियालपनसन्यग्रोधाश्वत्थप्लक्षकपीतनोदुम्बराजमोदशृङ्गाटकशंखिनीतिफलासवाःषड्विंशतिः । विदारंगन्धाश्वगन्धाकृष्णगन्धाशतावरीश्यामात्रिवृदन्तीद्रवन्तीबिल्वोरुमुकचित्रमूलैरेकादशमूलासवाः। शालप्रियकाश्वकर्णचन्दनस्यन्दनखदिरकदरसप्तपर्णार्जुनासनारिमेदतिन्दुकाकणिहीशमीशुक्तिर्शिशपाशिरीषवञ्जुलधन्वनमधूकसारासवा विंशतिः ॥ ५० ॥
यह सुन आत्रेय भगवान् कहनेलगे कि हे अग्निवेश ! धान्य, फल, मूल, सार, फूल, डंडी, पत्र, छाल इन आठ वस्तुओंसे आसव वनताहै और नवम पदार्थ आसक बनानेका खांड है। इन द्रव्योंके परस्पर संयोग विशेषसे असंख्य आसव बन सक, तेहैं उनमें चौरासी ८४ प्रकारके आसव उत्तम और पथ्य माने जाते हैं। इन आस
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( २८६ )
चरकसंहिता - भा० टी० ।
सुरा, सौवीर, तुपोदक, मैरेय, मेदक, धान्याम्र यह छः प्रकारके आसव धान्य उत्पन्न होते हैं । मुनक्का, खजूर, काश्मरोक फल, धामन, खिरनी, केतकी फल, फालसा, हरडे, आमले, बहेडे, जामुन कैथ, मौलसरी, वेर, जंगलीवेर, अखराट, मियाल, कटहर, वडके फल, पीपलके फल, पिलखनेके फल, अमाडा, गूलर, अजमोद, सिंघाडा, शाखिनी यह २६ छब्बीस प्रकारके आसव फलोंसे प्रगट होते हैं । शालपर्णी, असगंध, सुहांजना, शतावर काला निशोथ, लाल निशोथ, दंती, द्रवंती, विल्व, एरंड, चित्रक, इनके मूलोंसे ११ ग्यारह प्रकारके आसव बनते हैं । शालवृक्ष, प्रियंगु, अश्वकर्णशाल, रक्तचंदन, तिनस, खैर, श्वेतखैर, सप्तपर्ण, अर्जुन, विजयसार, अरिमेद, तिन्दुक, किरवण, शमीवृक्ष, वेरी, शीशम, सिरस, अशोक, धन्वन, महुआ, इन वीस प्रकारके वृक्षोंके सारसे २० वीस प्रकार के आसव बनते हैं ॥ ५० ॥
पद्मोत्पलनलिन कुमुद सौगन्धिकपुण्डरीकशतपत्रमधूकप्रियङ्गुधातकीपुष्पैर्दशमाःपुष्पासवाः । इक्षुकाण्डेक्षुइक्षुबालिकापुंडूकचतुर्थाः काण्डासवाः । पटोलताडपत्रासवौद्दभवतः । तिलकलोभैलवालुकक्रमुकचतुर्थास्त्वगासवाभवन्ति । शर्क - रासवएकएव । इत्येषामासवानामासुतत्त्वादासवसंज्ञाएवमेपामासवानांचतुरशीतिः परस्परेणासंस्पृष्टानामासवद्रव्याणासुपनिर्दिष्टाः । द्रव्यसंयोगविभागस्त्वेषां वहुविकल्पसंस्कारश्च यथास्त्रयोनिसंस्कारसंस्कृताश्वासवाः स्वकर्म कुर्वन्तिसंयोगसंस्कारदेशकालमात्रादयश्चभावास्तेषां तेषामासवान तेते समुपदिश्यन्ते तत्तत्कार्यमभिसमीक्ष्येति ॥ ५१ ॥
:
कमल, उत्पल, नलिन, कुमुद, कहार, पुण्डरीक, शतपत्र, महुएका फूल, प्रियंगुके फूल, धावे के फूल इनसे १० दस प्रकारके फूलोक आसव बनते हैं । पटोलपत्र और देवदालीके पत्रों से २ प्रकारके आसव बनते हैं । ईख, कांडेल,
वालिका, पुण्यक, ये चार प्रकार के आसव डांडरों से बनते हैं । तिल्वक लोथ, एट्याक, सुपारी इन चार वृक्षांकी छालसे चार प्रकारके नाव बनते । शर्करा शर्करा एक १ प्रकारका बनताहे । इन आपकी उन २ पदाय में व्याप्त रहने और दबाकर निकाले जानेसे आसव संज्ञा, इस प्रकार चांगली प्रकारके आसवका उपदेश किया गया है ।
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(२८७)
। सूत्रस्थान-अ० २६. द्रव्य विशेषके संयोग, विभाग, कल्पना, और संस्कारविशेषसे - आसर अपने २ कारणोंके अनुसार अनेक प्रकारके गुण करतेहैं । संयोग, संस्कार, देश, काल, मात्रा आदिका विचार करके ही आसवोंका उपयोग करना चाहिये । इस प्रकार जो २ आसव जिस २ प्रकार जिस २ पदार्थ से बनताहै उसका यथोचित वर्णन किया गया है ॥ ५१॥
भवंतिचात्र ।
उपसंहार। मनःशरीराग्निवलप्रदानामस्वप्नशोकारुचिनाशनानामासंहर्षणानांप्रवरासवानामशीतिरुक्ताचतुरुत्तरेषा ॥ ५२॥ शरीरयोगप्रकृतौमतानितत्त्वेनचाहारविनिश्चयोयः। उवाचयजःपुरु. पादिकेऽस्मिन्मुनिस्तथाय्याणिवरासवांश्चइति ॥५३॥
इत्यन्नपानचतुष्केयजःपुरुषीयोध्यायःसमाप्तः। . इस यज्जापुरुषीय अध्यायमें मन, शरीर, अग्नि और बल बढानेवाले और अनिद्रा, शोक तथा अरुचिको नष्ट करनेवाले हर्षके उत्पन्न करनेवाले ८४ चौरासी आसवॉका वर्णन किया गया है तथा शरीरकी रक्षाके लिये सव प्रकारके आहार और उपाय यथोचित रीति पर महर्षि आत्रेयजीने वर्णन कियेहैं ॥ ५२॥ ५३॥ i इति श्रीमहर्षिचरक० पं० रामप्रसादवैद्य० भापाटीकायां यजापुरुपीयो
नाम पञ्चविंशोऽध्यायः ॥ २५ ॥
पतिशोऽध्यायः।
अथातआत्रेयभद्रकाप्यीयमध्यायं व्याख्यास्याम इतिहस्माह भगवानात्रेयः। अब हम आत्रेयभद्रकाप्यीय नामके अध्यायकी व्याख्या करतेहैं ऐसा. आत्रेय भगवान् कहने लगे।
ऋषियोंका रसविषयक आन्दोलन ।। आत्रेयोभद्रकाप्यश्चशाकुन्तेयस्तथैवच । पूर्णाख्यश्चैवमौद्गल्यो हिरण्याक्षश्चकाशिक: ॥१॥ यःकुंमारंशिरानामभरद्वाजःसचा' नघः । श्रीमान्वायोंविदश्चैवराजामंतिमतांवरः ॥ २ ॥
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(२८८) चरकसंहिता-मा० टी०। निमिश्चराजावैदेहोबडिशश्चमहामतिः । काङ्कायनश्चबाह्रीको बाह्रीकभिषजांवरः ॥३॥ एतेश्रुतवयोवृद्धाजितात्मानोमहर्षयः। वनेचैत्ररथेरम्येसमीयुर्विजिहीर्षवः ॥ ४ ॥तेषांतत्रोपविष्टानामियमर्थवतीकथा । बभूवार्थविदांसम्यक्रसाहारविनिश्चये॥५॥ एक समय आत्रेय भद्रकाप्य शाकुन्तेय, पूर्णाक्ष, मौद्गल्प, हिरण्याक्ष, कौशिक,
मागल्य, हरण्या महात्मा कुमारशिरा भरद्वाज, बुद्धिमानोंमें श्रेष्ठ श्रीमान् राजर्षि वार्योंविद, निमि. राजर्षि वैदेह, विशालबुद्धि बडिश, कांकायन, वाह्नीक ( वैद्योंमें श्रेष्ठ ) यह सम्पूर्ण विद्यामें और आयुमें वृद्ध, जितेन्द्रिय, महात्मालोग,रमणकरनेयोग्य चैत्र. रथ प्रभृति स्थानों में विचरण करते हुए एक स्थानमें एकत्रित हुए। उस समय इन ऋपियोंकी सभामें रसाहारसम्बन्धी सिद्धान्त निश्चय करनेके लिये आन्दोलन आरंभ हुआ ॥१॥२॥ ३ ॥ ४॥५॥ . .,
एकएवरसइत्युवाचभद्रकाप्योयंपञ्चानामिन्द्रियार्थानामन्यतमं जिह्वावैषयिकंभावमाचक्षतेकुशलाः।सपुनरुदकादनन्य इति॥६॥
प्रथम भद्रकाप्य बोले कि रस १ एक प्रकारका होताहै । और यह रस सब प्रकारके इन्द्रियार्थोंमें जिह्वाग्राह्य है और जिह्वेन्द्रिय जलीय है इसलिये रस जलके सिवाय और कोई वस्तु नहीं ॥ ६ ॥
द्वौरसावितिशाकुन्तेयोब्राह्मणश्छेदनीयश्चोपशमनायश्चति॥७॥ यह सुनकर शाकुन्तेय ब्राह्मण कहनेलगे कि रस दो प्रकारका होताहै। १ छेदनकर्ता २ उपशमनकर्ता ॥ ७॥
त्रयोरसाइतिपूर्णाक्षःमौद्गल्यश्छेदनीयोपशमनीयो
साधारणश्च ॥८॥ पूर्णाक्ष मौद्गल्य कहनेलगे कि रस तीन प्रकारका होताहै. १ छेदन-( शोधन ) कर्ता २ शमनकर्ता ३ साधारण ॥ ८॥
चत्वारोरसाइतिहिरण्याक्षःकौशिकः स्वादुर्हितश्चस्वादुरहितश्चअस्वादुरहितश्चास्वादुर्हितश्चेति ॥ ९ ॥ हिरण्यकौशिक कहनेलगे कि हितकर स्वादु, अहितकर स्वादु, अहितकर अस्वादु और हितकर अस्वादु इन भेदोंसे ४ प्रकारका रस है ॥९॥
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सूत्रस्थान-अ० २६...' (२८९) पञ्चरसाइतिकुमाराशराभरद्वाजोभौमोदकाग्नेयवायवीयान्तरिक्षाः॥ १०॥
कुमारशिरा भरद्वाज कहनेलेग कि भौम, औदक, आग्नेय, वायव्य, आन्तरिक्ष इन भेदोंसे ५ पांच प्रकारका रस होताहै ॥ १०॥ .
षडसाइतिवायोंविदोराजर्षिःगुरुलघुशीतोष्णस्निग्धरूक्षाः॥११॥
राजर्षि वार्योंविद कहनेलगे कि, गुरु, लघु, शीत, उष्ण, स्निग्ध,रूक्ष इनभेदोंसे रस ६ छः प्रकारका होताहै ॥ ११ ॥
सप्तरसाइतिनिमिवैदेहोमधुरामललवणकटुकतिक्तकषायक्षाराः॥ १२ ॥ निमि वैदेह कहनेलगे कि रस ७ सात प्रकारके होतेहैं। जैसे-मधुर, अम्ल,लवण, कटु, तिक्त, कषाय, क्षार ॥ १२ ॥
अष्टौरसाइतिबडिशोधामागवोमधुराम्ललवणकटुतिक्तकषाय- :
क्षाराव्यक्ताः॥ १३॥ - वडिश धामार्गवं कहतेहैं कि, मधुर, अम्ल, लवण, तिक्त, कटु, कषाय, क्षार
और व्यक्त इन भेदोंसे रस आठ प्रकारके हैं ॥ १३ ॥ . अपरिसंख्येयारसाइतिकाङ्कायनोबाह्रींकभिषगाश्रयगुणकर्म
संस्कारविशेषाणामपरिमेयत्वात् ॥ १४ ॥ कांकायन कहनेलगे कि रस अपरिसंख्येय हैं क्योंकि आयुर्वेदाश्रित गुण, कर्म संस्कार विशेषोंसे असंख्य कल्पना होसकतीहै ।। १४ ।।
रसविषयक सिद्धान्त । षडेवरसाइत्युवाचभगवानात्रेयःपुनर्वसुःमधुरामललवणकटुतिक्तकषायाः। तेषांषण्णांरसानांयोनिरुदकम् । छेदनोपशमनेद्वेकर्मणी ।तयोमिश्रीभावात्साधारणत्वंस्वाद्वस्वादुताभक्तिः। द्वौहिताहितोप्रभावौ । पञ्चमहाभूतविकारास्त्वाश्रयाः॥१५॥ इस पर भगवान् पुनर्वसु आत्रेयने कहा कि नहीं रस छही प्रकारके होतेहैं । जैसेमधुर, अम्ल, लवण, कटु, तिक्त, कषाय और इन छहों रसोंका कारण जल है। छेदन और उपशमन यह रसोंके दो कर्म हैं। इन सब रसोंके मिलजुलकर साधारणतासे दो स्वाद माने गये हैं। १स्वादु और २ अस्वादु । हितकर और अहितकर
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(२९०)
चरकसंहिता-भा० टी०। यह दो प्रकारके रसोंके प्रभाव होतेहैं । और पांच महाभूतोंके विकार रसके आश्रय माने जाते हैं ॥ १५ ॥
प्रकृतिविकृतिविचारदेशकालवशास्तेपुआश्रयेषुद्रव्यसंज्ञकेषु गुणागुरुलघुशीतोष्णस्निग्धरूक्षाद्याः ॥ १६ ॥ वह आश्रय-प्रकृति, विकृति, विकार, देश, कालके वश माने जाते हैं । फिर वह द्रव्यनामक आश्रय गुरु, लघु, शीत, उष्ण, रूक्ष आदि गुणोंके आश्रयीभूत हैं ॥ १६ ॥
क्षरणाक्षारोनासौरसोद्रव्यंतदनेकरससमुत्पन्नमनेकरसंकटु. कलवणभूयिष्ठमनेकेन्द्रियार्थसमन्वितंकरणाभिानिवृत्तम्॥१७॥ क्षरण होनेसे क्षार कहा जाता है इसालये यह रस नहीं द्रव्य है क्योंकि वह अनेक प्रकारके रसोंसे प्रकट होताहै। इसीलिये अनेक रसयुक्त है किन्तु क्षारमें/कटु और लवण रस अधिकतासे प्रतीत होता है ।क्षार रस अनेक विषयोंसे युक्त और करणसे उत्पन्न होताहै ॥ १७ ॥
अव्यक्तीभावस्तुखलुरसानांप्ररुतावनुरसेअनुरससमन्वितेवा . द्रव्ये ॥ १८॥अपरिसंख्येयत्वंपुनरेतेपामाश्रयादीनभावानां विशेषान्नाश्रीयतेनचतस्मादन्यत्वमुपपद्यते ॥ १९॥ रस अपनी प्रकृतिम तथा अनुरसद्रव्यों में मिलाहुआ रहताहै इससे मालुम नहीं होताह ॥१८॥ इन रमोंके आश्रित असंख्य द्रव्य है इसीलिये आश्रयके भेदसे रस भी असंख्य प्रकारके होसकतेहैं । परन्तु रस रसही रहताहै अन्यत्वको प्राप्त नहीं होता ॥ १९ ॥
परस्परंसंसृष्टभूयिष्टत्वान्नचैपामनिवृत्तिर्गुणप्रकृतीनामपरिसंख्येयत्वंभवति । तस्मान्नसंसृष्टानांरसानांकर्मोपदिशन्ति०- , द्विमन्तः ॥ २०॥ इस प्रकार परस्पर विशेष संयोग होनेसे औरअसंख्य द्रव्याश्रित होनेसे रस असंख्य होता भी गुण, प्रकृति, स्वभावसे ६छः प्रकारके ही होतेहैं । इसलिये बुद्धिमानान गुण, प्रकृति के संयोगसे असंख्य होने पर भी रसांके कर्म अधिक नहीं कहे।॥२०॥
तञ्चबकारणमपेक्षमाणाःपण्णांरसानांपरस्परेणासंसृष्टानांलक्षणपृथकत्वमुपदेक्ष्यामः । अग्रेतवावव्यभंदमभिप्रेत्यकि
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सूत्रस्थान - अ० २६. ञ्चिदभिधास्यामः । सर्वद्रव्यं पाञ्चभौतिकमस्मिन्नेवार्थेतच्चेतनावदचेतनंञ्च । तस्यगुणाः शब्दादयोगुर्वादयश्चद्रवान्ताः । कर्मपञ्चविधमुक्तंवमनादि ॥ २१ ॥
इसी लिये कारणोंकी अपेक्षा करतेहुए ६ छहों रसोंके द्रव्यादिकोंकी सहकारितासे अलग रलक्षणोंको कहते हैं । एवम् द्रव्यभेदका आश्रय लेकर रसोंके गुणोंको कहते हैं । सम्पूर्ण द्रव्य पांचभौतिक हैं फिर इनके चेतन और अचेतन भेदसे दो प्रकार हैं। फिर उनके गुण शब्दादिक और गुरु आदिक द्रवपर्यन्त होतेहैं । एवम् पांच प्रकारका वमनादिक कर्म है ॥ २१ ॥
पार्थिवद्रव्यों के गुणकर्म | तत्रद्रव्याणिगुरुखरकठिनमन्दस्थिरविषदसान्द्रस्थूलगन्धगु
( २९१ )
५
. णबहुलानि पार्थिवानितान्युपचयसङ्घातगौरवस्थैर्य्यक राणि२२॥ उन द्रव्यों में गुरु, खर, कठिन, मंद, स्थिर, विषद, सान्द, स्थूल और गंध ये गुण पार्थिव (पृथ्वीसम्बन्धी ) होते हैं । पार्थिव द्रव्य शरीरको पुष्ट, कठिन, गुरुता और स्थिरताके करनेवाले होते हैं ॥ २२ ॥
जलीय द्रव्य | द्रवस्निग्धशीतमन्दमृदु पिच्छिल रसगुणबहुलान्याप्या नितान्युत्क्केदस्नेहबन्धविष्यन्दप्रह्लादकराणि ॥ २३ ॥
जो द्रव्य द्रव, स्नग्ध, शीत, मन्द, मृड, पिच्छिल, सर तथा रसगुणप्रधान होते हैं उनको जलीयद्रव्य जानना । जलीयद्रव्य क्वेद, स्निग्धता, बंध, विष्यंद और आह्लादता करनेवाले हैं ॥ २३ ॥
आग्नेय द्रव्य | उष्णतीक्ष्णसूक्ष्मलघुरूक्षविषद रूपगुणबहुलानि आग्नेयानितानिदाहपाकप्रभा प्रकाशवर्णकराणि ॥ २४ ॥
जो द्रव्य उष्ण, तीक्ष्ण, सूक्ष्म, लघु, रूक्ष, विषद, एवम् रूप-गुण- प्रधान होते हैं उनको आग्नेय जानना । आग्नेय द्रव्य - शरीरमें दाह, पाक, प्रभा, प्रकाश और वर्णको करते हैं ॥ २४ ॥
वायवीय द्रव्य 1.
लघुशीत रूक्षखरविषद् सूक्ष्म स्पर्शगुण बहुलानिवायव्यानितानिरौक्ष्यग्लानिविचारवैषद्यलाघवकराणि ॥ २५ ॥
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( २९२ )
चरकसंहिता - भा०टी०
जो द्रव्य लघु, शीत, रूक्ष, खर, विषद, सूक्ष्म और स्पर्शगुणप्रधान होते हैं उनको वायवीय जानना । वायवीयद्रव्य - रूक्षता, ग्लानि, विचार, विषदता तथा लघुताको करते हैं ॥ २५ ॥
आकाशीय द्रव्य ।
मृदुलघुसूक्ष्म श्लक्ष्णशब्दगुणबहुलान्याकाशात्मकानि तानि मार्दवसौपिर्य्यलाघवकराणि ॥ २६ ॥
जो द्रव्य मृदु, लघु, सूक्ष्म, श्लक्ष्ण और शब्दगुणप्रधान होते हैं वह आकाशीय हैं। आकाशीय द्रव्य मृदुता, पित्त तथा लघुताको करते हैं ॥
२६ ॥
द्रव्यविषयक सिद्धान्त | अनेनोपदेशेननानौपधिभतं जगतिकिञ्चिद्द्द्रव्यमुपलभ्यते ।
तांयुक्तिमर्थञ्चतंतमभिप्रेत्यनचगुणप्रभावादेवकार्मुकाणिभव
fa 11 2011
इस नियमसे यह सिद्ध है कि संसार यत्किचित् वस्तु हैं उन सबमें ही औष'धत्व होता है । सम्पूर्ण द्रव्य उक्त गुण प्रभावसे ही कार्यकर्ता नहीं होते किन्तु युक्ति,. अर्य, योगविशेषकी अपेक्षासे ही कार्यकर्ता होते हैं ॥ २७ ॥
द्रव्याणिहिद्रव्यप्रभावाद्गुणप्रभावाच्चतस्मिंस्तस्मिन्कालेतत्तदधिष्ठानमासाद्यतां ताञ्च युक्तियत्कुर्वन्ति तत्कर्मयेन कुर्वन्तित - द्वीय्यं, यत्रकुर्वन्तितदधिकरणंयदाकुर्वन्तिसकालो यथाकुर्वन्ति सउपायोयत्साधयन्तितत्फलम् ॥ २८ ॥
.
सम्पूर्ण द्रव्य द्रव्यके प्रभावसे, गुणके प्रभावसे और द्रव्यगुण के प्रभावसे यथासमय ययोचित रीति पर प्रयोग करनेसे जो कार्य करतेहैं, उसको कर्म कहते हैं, तथा जिसके द्वारा करते हैं उसको वीर्य कहते हैं और जिस समय करते हैं उसको काल कहते है एवम् जिस प्रकार करतेहैं उसको उपाय कहते हैं और कर्मद्वारा जो सिद्ध होता उसको फल कहते हैं ॥ २८ ॥
रसा के विकल्पकी संख्या ।
भेदश्रेषां त्रिपष्टिविधिविकल्पोद्रव्य देशकालप्रभावात्तदुपदे
क्ष्यामः ॥ २९ ॥
इनके देश, काल, और प्रभावविशेषसे ६३ तिरसट प्रकार होते हैं उनका आगे वर्णन करते है || २९ ॥
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सूत्रस्थान - अ० २६.
( २९६ )
स्वादुरम्लादिभिर्योगंशेषैरम्लादयः पृथक् ।यानिपञ्चदशैतानि द्रव्याणिहिरसानितु ॥ ३० ॥ पृथगम्लादियुक्तस्ययोगः शेषः पृथग्भवेत् । मधुरस्यतथाम्लस्यलवणस्यकटोस्तथा ॥ ३१ ॥ त्रिरसानियथासंख्यं द्रव्याण्युक्तानिविंशतिः । वक्ष्यन्तेतुचतु"केणद्रव्याणिदशपञ्चच ॥ ३२ ॥ स्वाद्वम्लौसहितौयोगंलवणाद्यैः पृथग्गतौ । योगंशेषैः पृथग्यातः चतुष्कं रससंख्यया ॥३३॥ सहितौ स्वादुलवणौ तद्वत्कटादिभिः पृथक् । युक्तौशेषैः पृथग्योगं यातः स्वादूषणौयथा ॥ ३४ ॥ कट्ठाद्यैरम्ललवणौसंयुक्त सहितौपृथक् । यातःशेषैः पृथग्योगंशेषैरम्लकटूतथा ॥ ३५ ॥ युज्यते तुकषायेणसतिक्तौलवणोषणौ । षट्तुपच्चरसान्याहुरेकैकस्यापवर्जनात् ॥ ३६ ॥ षट्चैवैकरसानि स्युरेकंषड्रसमेवतु । इतित्रिषष्टिर्द्रव्याणां निर्दिष्टारससंख्यया ॥ ३७ ॥ त्रिषष्टिः स्यात्वसंख्येयारसानुरस कम्पनात् । रसास्तरतमाभ्यां तां संख्यामभिपतन्तिहि ॥ ३८ ॥
मधुर आदिक जो छः रस हैं उनमेंसे स्वादुरसका अम्ल आदिके संग दो दोका संयोग करनेसे पांच प्रकार होतें हैं । जैसे मधुराम्ल, मधुरलवण, मधुरतिक्त, मधुरकटु, मधुरकषाय । एवम् अम्लरसका दो दोसे संयोग कियाजाय तो चार प्रकार होते हैं जैसे अम्ललवण, अम्लतिक्त, अम्लकटु, अम्लकषाय यह चार प्रकार हुए, क्योंकि अम्लमधुर पहिले पांच प्रकारोंमें आचुका है इसलिये छः रसोंमेंसे एक रसके दूसरें दूसरेके साथ मिलानेसे जिस रसका मिलान किया जायगा वह कम होनेसे पांच प्रकारके होते हैं । दूसरे रसका मिलान करनेसे चार प्रकार रह जाते हैं । इसी प्रकार लवणरसका मिलान करनेसे तीन प्रकार होते हैं । तिक्तरसका मिलान करनेसे दो प्रकार होते हैं तथा कटुरस केवल एक प्रकारका रहजाता है । इस प्रकार सब मिला १५ प्रकारके हुए। तीन तीनके मिलानेसे मधुर रस १० प्रकारका अम्लरस ६ प्रकारका, लवणरस ३ प्रकारका होता है एवम् तिक्तरस १ प्रकारका हुआ । कुल मिल कर २० प्रकार हुए । चार चारके संयोग से मधुर रस १० प्रकारका, अम्ल रस ४ प्रकारका, लवण रस १ प्रकारका इस सबको जोडदेनेसे १५ होते हैं । पांच पांचके - मिलाने से मधुर ५ प्रकारका, अम्ल १ प्रकारका, दोनोंको मिलानेसे ६ प्रकार हुए।
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(२९४)
चरकसंहिवा-भा० टी०। और ६ रसांको ही एकत्रित करनेसे १ प्रकार हुआ, एवम् मधुर आदि मुख्य रसोंको अलग २ रखनेसे ६ प्रकार हुए। सबका मिलान करनेसे ६३ प्रकारके रस भेद हुए । इन ६३ तिरेसठ ही प्रकारामें रस और अनुरस ये अंशांश कल्पना करनेसें अत्यंत संख्या वढजाती है॥३०॥३१॥३२॥३३॥३४॥३५॥ ३६ ॥ ३७ ॥ ३८॥ संयोगाःसप्तपञ्चाशकल्पनातुत्रिषष्टिधाारसानांतत्रयोग्यत्वाकल्पितारसचिन्तकैः ॥३९॥ क्वचिदेकोरसःकल्प्यःसंयुक्ताश्वरसाःक्वचित् । दोपौपधादीन्सञ्चिन्त्यभिषजासिद्धिमिच्छता ॥४०॥ द्रव्याणिद्विरसादीनिसंयुक्तांश्चरसान्बुधः । रसानेकैकशश्चैवकल्पयन्तिगदान्प्रति ॥४१॥ इस प्रकार संयोगसे ५७ सत्तावन और कल्पनाविशेषसे ६३ तिरसठ रसाके प्रकार होते हैं । रसचिंतकोनें रसतन्त्रमें इस प्रकार कल्पना की है । सिद्धिकी इच्छा करनेवाले वैद्यको कहीं एक कहीं बहुत रसोंसे युक्त औषधियोंको और दोषोंकों विचारलेना चाहिये । वुद्धिमान् वैद्यको चाहिये कि द्रव्य और द्रव्योंके रस तथा रससंयोग आदि विचारकर रोगामें प्रयोग करें ॥ ३९॥४०॥४१॥
रसविकल्पज्ञ वैद्यकी प्रशंसा। यःस्याद्रसविकल्पज्ञःस्याचदोपविकल्पवित् ।।
नसमुह्योदिकाराणां हेतुलिङ्गोपशान्तिषु ॥ ४२ ॥ जो वैद्य रसांके विकल्पको जानताहै तथा दोषोंकेः विकल्पको भली प्रकार जानताहे वह पैद्य रोगके निदान, लक्षण और उपाय करने में मोहको प्राप्त नहीं होता ॥ १२॥
व्यक्तःशुक्तस्यचादौचरसोद्रव्यस्यलक्ष्यते।
विपर्ययेणानुरसोरसोनास्तिहिसप्तमः॥४३॥ सम्पूर्ण द्रव्याम रस दो प्रकारका देखनेम आताह । १ व्यक्त रस, २ अनुरस । सो वा गीले द्रव्यको मुखमें रखने से जो रस प्रतीत होताहि वह व्यक्तरस होताह परम जो ग्स पीछेसे प्रतीत हो उसको अनुरस कइतह सो वह व्यक्तरस और अनु। सकसीमही हैं। अनुरस उहाँसे अलग कोई सातवां रस नहीं है ॥ ४३ ॥
पगदि १० गुणों के नाम और लक्षण । परापरत्वयुक्तिश्वसंख्यासंयोगएव च । विभागश्चपृथक्त्वञ्चप
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सूत्रस्थान - अ० २६.
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रिमाणमथापिच ॥ ४४ ॥ संस्कारोऽभ्यासइत्येते गुणाज्ञेयाः परादयः । सिद्धयुपायश्चिकित्सायालक्षणैस्तान्प्रवक्ष्यते ॥४५॥
परत्व, अपरत्व, युक्ति, संख्या, संयोग, विभाग, पृथक्त्व, परिमाण, संस्कार और अभ्यास इन सबका यथोचित ज्ञान होने विना चिकित्साकी सिद्धि नहीं होती इसलिये अब इनके लक्षणोंको कहते हैं ॥ ४४ ॥ ४५ ॥
।
देशकालवयोमानपाकवीर्य्यरसादिषु परापरत्वेयुक्तिस्तुयोजनायाचयुज्यते ॥ ४६ ॥
देश, काल, अवस्था, मान, पात्र, वीर्य, रस आदिकोंमें प्रधानको परत्व और अप्रधानको अपरत्व समझना चाहिये। इन देश, कालादिकोंका परत्वापरत्व विचार जो प्रयोग किया जाता है उसको युक्ति कहते हैं ॥ ४६ ॥
संख्यास्याद्गुणितंयोगः सहसंयोग उच्यते । . • द्रव्याणांद्वन्द्वसर्वैककर्मजेोनित्यएवच ॥ ४७ ॥
द्रव्यकी गणनाको संख्या कहते हैं उसके विधिपूर्वक मिलानको संयोग कहते हैं । वह संयोग तीन प्रकारका होता है । १ द्वन्द्वकर्मज, २ सर्वकर्मज ३ एककर्मज । वह संयोग अनित्य होता है ॥ ४७ ॥
विभागस्तुविभक्तिस्तुवियेागो भागशोग्रहः ।
पृथक्त्वंस्यादसंयोगोवैलक्षण्यमनेकता ॥ ४८ ॥
विभागशब्दका अर्थ हिस्से करना अर्थात् भागपूर्वक वियोग करना है पृथक्त्व. एक से दूसरे में पृथक्ता प्रतिपादन करना है । जैसे- गौसे भैंस पृथक होती है । घटसे पट पृथक होता है । इस प्रकार एक जगह संयोग होनेपर भी जो गुणविशेषसे अलगही प्रतीत हो उसको पृथक्त्व कहते हैं ॥ ४८ ॥
परिमाणंपुनर्मान संस्कारः करणंमतम् ।
भावाभ्यसनमभ्यासःशीलनं सततक्रिया ॥ ४९ ॥
परिमाण - मान ( तोल) के विधानका नाम है । द्रव्यादिकों का संयोग करनेसे जो विशेष रूप प्रगट होता है उसको संस्कार कहतेहैं । सत्क्रियाका निरन्तर सेवन करना अभ्यास कहा जाता है ॥ ४९ ॥
१ परत्वं प्रधानत्वम्, अपरत्वम् - अप्रधानत्वमिति चक्रपाणिः ।
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(२९६)
चरकसंहिता-भा० टी०॥ इतिस्वलक्षणेरुक्तागुणाःसर्वेपरादयः।
चिकित्सायेरविदितनयथावत्प्रवर्तते ॥ ५०॥ इस प्रकार परत्व आदिकोंके लक्षणों का वर्णन कियागयाहै इनके यथोचित ज्ञान विना यथार्थ चिकित्सा नहीं होती ॥५०॥
__रसगुणविषयक सिद्धान्त । गुणागुणाश्रयानोक्तास्तस्माद्रसगुणाभिषक् । विद्याद्रव्यगुणान्कर्तुरभिप्रायाःपृथग्विधाः ॥ ५१ ॥ अतश्चप्रतिबुद्धादेशकालान्तराणिच ।
तन्त्रक रभिप्रायानुपायांश्चार्थमादिशेत् ॥ ५२ ॥ गुण गुणांके आश्रित नहीं होते किन्तु द्रव्य गुणके आश्रय कहे गये हैं। इसलिये वैद्य रसके गुणोंको द्रव्यके गुणामें समझे क्योंकि रसका गुण अन्य होनेपर भी द्रव्यमें अन्य गुण पाया जाता है । जैसे-कुल्थीका कपाय रसमें कसैला होनेपर भी वावको उत्पन्न नहीं करता बल्कि नाश करता है ॥५१॥ इसलिये तंत्रकर्ताका अभिप्राय और देश काल आदिकोंको यथोचित विचारकर उपाय आदि करना , चाहिये ॥५२॥
रसोंकी उत्पत्ति । परञ्चातःप्रवक्ष्यन्तेरसानांपड्विभक्तयः ।
पट्पञ्चभूतप्रभवाःसंख्याताश्चयथारसाः॥ ५३॥ अव फिर रसांके ६ विभाग तथा इन छाहोंकी पांच महाभूतोंसे उत्पत्तिको कथन फरतेहै । जैसे-६ प्रकारके रस पांच महाभूतोंसे उत्पन्न हुएहैं ।। ५३ ॥
सौम्याःखल्वापोऽन्तरिक्षप्रभवाःप्रकृतिशीतालव्यश्चअव्यक्तरसाश्चतास्त्वन्तरिक्षाद्मश्यमानाभ्रष्टाश्चपञ्चमहाभूतविकारगुणसमन्विताजङ्गमस्थावराणांभूतानांमूर्तीरभित्रीणयन्तितासमर्तिपुपड्भिर्मूर्च्छन्तिरसाः ॥ ५४॥ अन्तरिक्षका गल प्रायः सौम्य (सोमगुणप्रधान ) होताह इसीलिये स्वभावसे ही गतिल भीर हल्का होताह । यह अव्यक्त रस होवहिं । आकाशसे गिरकर पंचमहामृता गुणाने युक्त होता और जंगम तथा स्थावरीको प्रीणनकर्ता होताहै वहीन्याग ६ प्रकारको रमाको प्रगट करताहे ॥ ५ ॥
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सूत्रस्थान - अ० २६. तेषां षण्णांरसानां सोमगुणातिरेकान्मधुरोरसः, पृथिव्याग्निभूयिष्ठत्वादम्लःसलिलाग्निभूयिष्ठत्वालवणोवाय्वग्निभूयिष्ठत्वात्क"
टुकोवाय्वाकाशातिरेकात्तिक्तःपवन पृथिव्यतिरेकात्कषायः । एवमेषांरसानांषट्त्वमुत्पन्नम् ॥ ५५ ॥
उन छः रसोंमें मधुर रस सोमगुणविशिष्ट होता है। पृथ्वी और तेज गुण विशिष्ट अम्लरस होता है । जल और अग्निगुणविशिष्ट लवण रस होता है । वायु और अग्निगुणविशिष्ट कटु रस होता है । वायु और आकाशगुण विशिष्ट कषाय रस होता है । इस प्रकार पंचमहाभूतात्मक ६ रस होते हैं ॥ ५५ ॥ पंचमहाभूतोंके न्यूनाधिक्यका फल | न्यूनातिरेकविशेषान्महाभूतानामिवजङ्गमस्थावराणांनानावर्णाकृतिविशेषाः षऋतुकत्वाच्चकालस्य उत्पन्नोमहाभूतानांन्यूनातिरेकविशेषः ॥ ५६ ॥
इन पंच महाभूतों के ही न्यूनाधिक भावसे सम्पूर्ण स्थावर जंगम जगत् के वर्ण और आकृतिमें भेद होता है । एवम् छः ऋतुओंके भेदसे कालजनित करणोंसे महा मूतोंके गुणोंमें न्यूनाधिकता होती है ॥ ५६ ॥
अग्निमारुतात्मक रसोंके कर्म । तत्राग्निमारुतात्मकारसाः प्रायेणोर्द्ध भाजोलाघवात्पूवकत्वाच्च वायोरूर्द्धज्वलनत्वाच्चवह्नेःसलिल पृथिव्यात्मकास्तुप्रायेणा
धोभाजः पृथिव्यागुरुत्वान्निम्नगत्वाच्चोदकस्यव्यामिश्रात्मकास्तुपुनरुभयतोभागभाजः ॥ ५७ ॥
इन द्रव्यों में अग्नि और वायुआत्मक रस प्रधान कटुद्रव्य चरगति और लघुता आदि वायु गुण होनेसे और ऊर्द्धगति आदि अग्निके गुण होनेसे शरीर के ऊपरके भाग अपने गुणोंको दिखाते हैं । जल और पृथ्वीप्रधान रस जलकी गति नीचे गमन करनेवाली और पृथ्वीके गुण गुरुत्व होनेसे शरीर के नीचे के भागमें अपनी क्रियाको करते हैं ऊपर के भाग में क्रिया करनेवाले और नचिके भागमें क्रिया करनेवाले सब प्रकार के रसोंको मिलानेसे उभयतः क्रिया करते हैं ॥ ५७ ॥
मधुरादि ६ रसों के गुणागुण ।
तेषां षण्णांरसानामेकैकस्य यथाद्रव्यगुणकर्माण्यनुव्याख्यास्या -
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( २९८ )
चरकसंहिता - भा० टी० ।
मः । तत्रमधुरोरसः शरीरसात्म्याद्रसरुधिरमांसमेदोऽस्थिमजौजः शुक्राभिवर्द्धन आयुष्यः षडिन्द्रियप्रसादनोवलवर्णकरःपित्तविषमारुतन्नस्तृष्णाप्रशमनस्त्वच्यः केश्यः कण्ठ्यः प्रीणनो
जीवनस्तर्पणःस्नेहनःस्थैर्य्यकरःक्षीणक्षतसन्धानकरोघ्राणसुखकण्ठौष्ठतालुप्रह्लादनादाहमूर्च्छाप्रशमनः षट्पदपिपीलिकानामिष्टतमः स्निग्धः शीतोगुरुश्च ॥ ५८ ॥
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अव उन ६ रसोंमें एक एक द्रव्यमें पृथक २ होनेसे जो गुण, कर्म होते हैं उनका वर्णन करते हैं । मधुर रस शरीर के सात्म्य होनेसे रस, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा, ओज, शुक्र इन धातुओंकी वृद्धि करता है तथा आयुको बढाता है । पंचेन्द्रिय और एक अतीन्द्रिय (मनको ) प्रसन्नता देता है, बल तथा वर्णको उत्तम बनाता है । पित्त, विष, वायु, और तृषाको नष्ट करता है। त्वचा, केश, और कण्ठको उत्तम करता है तथा प्रीणन (शरीरको पुष्ट करना) जीवन, तर्पण, स्नेहन करता है तथा आयुको स्थिर करता है । क्षीण, क्षतपीडित मनुष्योंको सन्धान करता है नाक, मुख, कण्ठ, ओष्ठ, और ताउको प्रसादन करना है । दाह, तथा मूर्च्छाको शान्त करता है । भ्रमर, चींटी आदिकों को अत्यन्त प्रिय है । तथा स्निग्ध, शतिल और भारी गुणयुक्त है ॥ ५८ ॥
स एवं गुणोऽप्येकएवात्यर्थमुपयुज्यमानः स्थौल्यं मार्दवमालस्यमतिस्वप्नं गौरवजनन्नाभिलाषमग्नदौर्बल्यमास्यकण्ठमांसाभिवृद्धिं श्वासकासप्रतिश्यायालसकशीतज्वरानाहास्वमाधुर्यवमथु संज्ञा स्वरप्रणाशगण्डमालाश्लीपदगलशो फबस्तिधमनी - गुदोपलेपाक्ष्यामयानमभिष्यन्दमित्येवंप्रभतीन्कफजान्विका
रानुपजनयति ॥ ५९ ॥
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इस प्रकार गुणयुक्त होनेपर भी मधुररसको सदैव और निरंतर सेवन करने से मनुष्योंके शरीर में मोटापन, नम्रता, आलस्य, निद्राधिक्य, गौरवता, मंदाग्नि, अरुचि, मुख तथा कण्ठके मांसकी वृद्धि, श्वास, खांसी, प्रतिश्याय, अलसक, शीतज्वर, अफारा, मुखमें मीठापन, छर्दि संज्ञा और स्वरका नाश, गलगण्ड, गण्डमाला, श्लीपद, गलशोथ आदि रोगोंको करता है तथा वस्ति, धमनी और मलद्वारमें दोषका उपलेपसा करता है । एवम् नेत्रों के अभिष्यन्द आदि रोगोंको तथा' फके विकारोंको उत्पन्न करता है ॥ ५९ ॥
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सूत्रस्थान अ० २६. (२९९) अम्लोरसोभक्तंरोचयति, आग्निंदपियति, देहव्यति, जर्जरयति, मनोबोधयति, इन्द्रियाणिदृढीकरोति, बलंवर्द्धयति, वातमनुलोमयति, हृदयंतर्पयति, आस्यंसंस्रावयति, भुक्तमपकर्षयति, केदंजनयति, प्रीणयतिलघुरुष्णःस्निग्धश्च॥६०॥ खट्टा रस अन्नमें रुचि, अग्निको दीपन, देहमें पुष्टि करताहै। नीर्णकारी है, मनकों वोधन करताहै, इन्द्रियोंको दृढ करताहै, बलकी वृद्धि करताहै, वायुको अनुलोमन करताहै, हृदयको तृप्त करताहै, मुखको स्रावण करताहै, आहारको नीचेकी ओर खींचताहै, क्लेदको उत्पन्न करताहै, प्रीणन करताहै एवम् लघु उष्ण तथा तीक्ष्ण गुणयुक्त है ॥ ६॥
सएवंगुणोऽप्येकएवात्यर्थमुपयुज्यमानोदन्तान्हर्षयतितर्पयति, समीलयतिआक्षणी, संवीजयतिलोमानि, कफविलापयति, पित्तमभिवर्द्धयति, रक्तंदूषयति, मांसंविदहति, काशिथिलीकरोति, क्षीणक्षतकृशदुर्बलानांश्वयथुमापादयति । अपि चक्षताभिहतदष्टभग्नशूलिच्युतावमृदितपरिसर्पितमार्दतच्छिनविद्धोस्पिष्टादानिपाचयत्याग्नयस्वभावात्पारदहातिकण्ठमुरो हृदयश्च ॥ ६१॥ इस प्रकारके गुणवाला अम्लरस अत्यन्त और निरंतर सेवन करनेसे दंतहर्ष रोग करताहै । भोजनमें अनिच्छा, नेत्रसंमीलन और रोमहर्षको उत्पन्न करताहै । अपने स्वभावमें स्थित कफको पतला करताहै, पित्तको बढाताहै, रक्तको दूषित करताहै, मांसको विदग्ध करताहै, शरीरको शिथिल करताहै । क्षीण, क्षत, कृश, तथा दुर्वल मनुष्योंके शरीरमें सूजन उत्पन्न करताहै । यह रस आग्नेय गुण प्रधान होनेसे क्षत, आहत, दष्ट, दग्ध, भग्न, शूलाहत, प्रच्युत, मृदित, परिसर्पित, मर्दित, छिन्न, विद्ध, उत्पिष्ट स्थानोंमें पाकको उत्पन्न करताहै तथा अपने स्वभावसे कण्ठ, छाती एवम् हृदयमें दाहको उत्पन्न करताहै ॥ ६१ ।।
लवणोरसःपाचनःकेदनोदीपनश्च्यावनश्छेदनोभेदनस्तीक्ष्णः सरोविकास्यधावस्यवकाशकरोवातहर स्तम्मबन्धसंघातविधमनःसर्वरसप्रत्यनीकभूतआस्यविस्त्रावयति, कफविष्यन्दय
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(३००) चरकसंहिता-भा० टी०॥ ति, मार्गाञ्चोधयति, सर्वशरीरावयवान्मृदूकरोति, रोचयत्याहारमाहारयोगीचात्यर्थगुरुः स्निग्धउष्णश्च ॥ १२ ॥ लवण रस-पाचन है, क्लेदन है; दीपन है, च्यावन है, छेदन है, तीक्ष्ण है, सर है, विकाशी है, संसन है भ्रंसन है, वातनाशक है, स्तम्भनाशक है,विवंधके संघातको नष्ट करताहै, सवरसोंसे विपरीत है, मुखको त्रावण करताहै, कफको पतला करताहै, छिद्राको शोधन करताहै शरीरके संपूर्ण अवयाको नम्र करताहै, आहा. रमें रुचि प्रगट करताह तथा भोजनका अत्यंत उपयोगी है एवम् गुरु, स्निग्ध और उष्ण गुणमधान है ॥ ६२ ॥
सएवंगुणोऽप्येकएवात्यर्थमुपयुज्यमानः पित्तंकोपयति, रक्तंवर्द्धयति, तर्पयति, मूर्च्छयति, तापयति, दाहयति, कुष्णाति मांसानि, प्रगालयतिकुष्ठानि, विषवर्द्धयति, शोफान्स्फोटयति, दन्ताञ्छ्यावयति, पुंस्त्वंमुपहन्ति, इन्द्रियाण्युपरुणद्धि, वलीपलितखालित्यमापादयतिच, लोहितपित्ताम्लपित्तवीसपंवातरक्तविचार्चकेन्द्रलुप्तप्रभृतीन्विकारानुपजनयति ॥ ६३ ॥ इन गुणांवाला होनेपर भी लवण रस अधिक सेवन करनेसे पित्तको कुपित करताह. रक्तविकारको बढाताहै, और तुषा, मूछी, ताप, दाह, मांसमें खुजली इनको उत्पन्न करताह । कुष्टोको प्रगलित करताहै, विषके वेगको बढाताहै, सूजनोंको फटीहुईसी बनाताहै, दांतांको काला करताहै, पुरुषार्थको नष्ट करता है,इन्द्रियांका उपरोध करता है, शरीरमें सलवट, केशोंका सफेद होना, शिरमें गंजापन इन रोगोंको उत्पन्न करताहै तथा रक्तपित्त, अम्लपित्त, विसर्प, वातरक्त, विचचिंका, और इन्द्र: गुप्त रोगोंको प्रगट करताहै ॥ ६३ ।।
कटुकारोरसोवत्रंशोधयति, आनंदीपयति, भुक्तंशोपयति, प्राणमात्रावयति, चक्षुविरेचयति, स्फुटिकरोतीन्द्रियाणि, अलसकश्वयथूपचयोदर्दाभिष्यन्दस्नेहस्वेदलेदमलानुपहन्ति, रोचयत्यशनं. कण्डविनाशयति, व्रणानवसादयति, क्रिमीहिनस्ति, मांसंविलिखति, शोणितसंघातभिनत्ति, वन्धांकिननि, मार्गाविवृणोति, श्लेप्लाणंशमयति, लघुरुष्णो रुनश्च ॥ ६ ॥
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सूत्रस्थान - अ० २६.
(३०१ ) चरपरा रस - मुखको शुद्ध करता है | अग्निको दीप्त करता है । भोजनको शोषण. करता है | नासिकाका स्त्राव करता है। आंखोंसे पानी निकालता है । इन्द्रियोंको स्फुट करताहै। अलसक, शोथ, उदर्द, अभिष्यंद, स्नेह, स्वेद्, क्लेद और मल इन सबकों नष्ट करता है । अन्न रुचि प्रगट करता है । खाज, व्रण और कृमियोंका नाश करता है | मांसको लेखन करता है । रुधिरके जमावको नष्ट करता है । विबन्धका छेदन करता है । स्रोतोंको खोलता है । कफको नष्ट करता है एवम् लघु, उष्ण और रूक्ष गुणसे युक्त है ॥ ६४ ॥
सएवंगुणोऽप्येकएवात्यर्थमुपयुज्यमानाविपाकप्रभावात् पौंस्त्वमुपहन्ति, रसवीर्य्यप्रभावान्मोहयतिग्लापयतिसादयति कर्षयति, मूर्च्छयतिनमयतितमयतिभ्रमयतिकण्ठंपरिदहतिशरीरता - पमुपजनयतिबलं क्षिणोतितृष्णांजनयतिवाय्वग्निबाहुल्यादूममददवथुकम्पतोदभेदैश्चरणभुजपार्श्वपृष्ठप्रभृतिषुमारुतजा - न्विकारानुपजनयति ॥ ६५ ॥
इन गुणोंवाला होनेपर भी चरपरे रसको अधिक सेवन करने से तीक्ष्ण रसका तीक्ष्ण विपाक होनेसे पुरुषत्व नष्ट होताहै । रस और वीर्यके प्रभावसे मोह करता है, ग्लानि करता है, अवसाद करता है, कृशतां करता है, मूर्च्छा करता है, शरीरको नमन करता है, अन्धकारको प्रकट करता है, भ्रम, कण्ठमें जलन, शरीरमें गर्मी उत्पन्न करता है । बलको क्षय करता है। तृषाको प्रकट करता है एवम् वायु और अभि-गुण विशिष्ट होनेसे भ्रम, मद, अतिदाह, कम्प· तोदको और भेदको उत्पन्न करता है । भुजा, पार्श्व और पीठ आदि स्थानोंमें वायुके विकारोंको उत्पन्न करता है ॥ ६५ ॥
तिक्तोरसः स्वयमरोचिष्णुररोच कन्नो विषघ्नः कृमिघ्नोमूर्च्छादाहकण्डूकुष्ठतृष्णाप्रशमनस्त्वङ्मांसयोः स्थिरीकरणोज्वरन्नादीपनः पाचनः स्तन्यशोधनालेखनःक्के दमेदोवसामज्जा लसिकापूयस्वेदमूत्रपुरीषपित्तश्लष्मोपशोषणोरुक्षशीतोलघुश्च ॥ ६६ ॥
तिक्तरस - स्वयम् रुचिके योग्य नहीं है परन्तु इसके सेवन करनेके उपरान्त अन्नपर रुचि बढती है। यह रस कृमियोंको नष्ट करता है, विषको नष्ट करता है । मूर्च्छा, दाह, कण्डु, कुष्ट और तृषाको शान्त करता है। त्वचा और मांसको स्थिर करता है, ज्वरको नष्ट करता है, दीपन है, पाचन है, स्तनोंके दूधकों शुद्ध करता है,
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(३०२) चरकसंहिता-भा० टी०। लेखन है, एवम् क्लेद, मेद, वसा, मजा, लसिका, राध, पसीना, मूत्र, मल,पित्त और कफको सुखाताहै तथा रूक्ष शीत और लघु गुण वाला है ॥ ६६ ॥. सएवंगुणोऽप्येकएवात्यर्थमुपयुज्यमानाक्ष्यिात्खरविषदस्वभावाच्चरसरुधिरमांसमेदोऽस्थिमज्जशुक्राण्युच्छोषयतिस्रोतसांखरत्वमुपपादयतिवलमादत्तेकर्षयतिमोहयतिवदनमुपशोपयति, अपरांश्चवातविकारानुपजनयति ॥ ६७॥ इन गुणांवाला होनेपर भी तिक्त रस अत्यन्त सेवन कियाहुआ रूक्ष, खर और विपद होनेसे, रस, रुधिर, मांस मेद, अस्थि, मज्जा, और शुक्रको सुखाताहै । रोममााँको खदरा करताहै, वलको हरताहै, शरीरको कृश करताहै, मोहको उत्पन्न करता है, मुखको सुखादेताहै, एवम् विकारोंको उत्पन्न करताहै ॥ ६७ ॥
कपायोरसःसंशमनःसंग्राहीसन्धारणःपीडनोरोपणःशोषणः स्तम्भनाश्लेष्मरक्तपित्तप्रशमनःशरीरक्लेदस्योपयोक्ता रूक्षः शीतोगुरुश्च ॥ ६८॥ कपाय रस-संशमन है, संग्राही है, संधारण है तथा पडिन, रोपण, शोषर और स्तम्भन करताहै । कफ तथा रक्तपित्तको शान्त करताहै, शरीरके क्लेदवा हरताह एवम् रूक्ष शीतल और गुरु है ॥ ६८॥
सएवंगुणोऽप्येकएवात्यर्थमुपयुज्यमानआस्यशोषयति, हृदयं पीडयति; उदरमाध्मापयति,वाचंनिगृह्णाति, स्रोतांस्यववनाति, श्यावत्वमापादयति,पौंस्त्वमुपहन्ति, विष्टब्धजरांगच्छति वातमूत्रपुरीपाण्यवगृह्णाति, कर्पयति, ग्लापयति, तर्पयति, स्तम्भयति, खरविषदरूक्षत्वात्पक्षवधग्रहापतानकातिप्रभतीश्चवातविकारानुपजनयतीति ॥६९॥ इन गुणवाला होनेपर भी कषायरस अत्यन्त व्यवहार किये जानेसे मुखको मुखानहि, हृदयको पाडन फरताहे, पदमें अफारा करताहै, वाणीको जकडताहे, स्रोताको बन्द करताह, शरीरको काला बनाताह, पुरुषत्वको नष्ट करताह, बुढापेको शीघ्र लाताद, वात, मूत्र और मलको वांधता है,शरीरको कृश करताहै ग्लानि तथा तपाको उत्पन्न करता है एवंम सर विषद तथा रूक्ष स्वभाववाला होनेसे पक्षाघात, मनुस्तम्भ, नापतानक और अदिति आदि वायके रोगांको उत्पन्न करता
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. सूत्रस्थान अ० २६.
(३०३) एवमेतेषड्रसाःपृथक्त्वेनवामात्रशःसम्यगुपयुज्यमानांउपकारकराअध्यात्मलोकस्यापकारकराःपुनरुतोऽन्यथोपयुज्यमानांस्तानविद्वानुपकारार्थमेवमात्रशःसम्यगुपयोजयेदिति ॥७० ॥ इस प्रकार यह छारस पृथक् २ यथोचित मात्रासे उचित रीतिपर सेवन कियेहुए शरीरका उपकार करतेहैं । नहीं तो विकारोंको उत्पन्न करनेवाले होतेहैं अतएव विद्वान् मनुष्य इस लोक और परलोकके हितकी इच्छा करता हुआ रसोंको विधिवत् उचित मात्रासे सेवन करे ॥ ७॥
द्रव्योंके वीर्यका वर्णन । भवन्तिचात्र । शीतवीर्येणयद्व्यंमधुररसपाकयोः। तयोरम्लंयदुष्णचयच्चोष्णकटुकंतयोः॥ ७१॥
अव यहां पर कहा जाताहै कि उष्ण और शीत भेदसे द्रव्योंके २ प्रकारके वीर्य होतेहैं। जो द्रव्य रस और विपाकमें मधुर हो वह शीतवीर्य होताहै एवम् जिस । ट्रॅव्यका रस और विपाक दोनों अम्ल हों वह उष्णवीर्य होताहै एवम् जिस द्रव्यका 'त और विपाक कटु हो वह भी उष्णवीर्य होताहै ॥ ७१ ॥
तेषांरसोपदेशेननिर्देश्योगुणसंग्रहः ।
वीर्य्यतोविपरीतानांपाकतश्चोपदेक्ष्यते ॥ ७२॥ • " इस प्रकार द्रव्योंके रसके उपदेशसे रसोंके गुणका संग्रह किया गयाहै । अब वीर्य तथा पाकसे विपरीत नियमोंका कथन करते हैं । ७२ ॥
यथापयोयथासर्पिर्यथावाचव्यचित्रको। एवमादीनिचान्यानि निर्दिशेद्रसतोभिषक् ॥ ७३ ॥ मधुरंकिश्चिदुष्णंस्यात्कषायं तिक्तमेव च । यथामहत्पञ्चमूलंयथाचानुपमामिषम् ॥ ७॥
वैद्यको दूध, घृत, चव्य, चित्रक आदि द्रव्योंका रसानुसार वीर्य और विपाक जानना चाहिये । कोई २ मधुर द्रव्यं तथा कोई कषाय द्रव्य भी उष्णवीर्य होतेहैं। जैसे-वृहत्पंचमूलका क्वाथ तिक्त होनेपर भी उष्णवीर्य है । और अनूपसंचारी जीवोंका मांस मधुर होनेपर भी उष्णवीर्य होता है ॥ ७३ ॥ ७४ ॥ - लवणसैन्धवंनोष्णसम्ललामलकंतथा। ..
अर्कागुरुगुडूचीनांतिक्तानामुष्णमुच्यते ॥ ७५॥ ऐसे ही सेंधानमक लवणरस होनेपर भी और आमला अम्लरस होनेपरः भी
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(३०४) चरकसंहिता-भा० टी० ॥ उष्णवीर्य नहीं किन्तु शीतवीर्य होताहै। और आक, अगर, गिलोय तिक्तरस होने पर भी उष्णवीर्य कहे जाते हैं ॥ ७ ॥
रसोंमें प्रधानता। किञ्चिदम्लंहिसंग्राहिकिञ्चिदम्लभिनत्तिच । यथाकपित्थंसंग्राहिभेदिचामलकंतथा। पिप्पलीनागरंवृष्यंकटुचावृष्यमुच्यते ॥ ७६ ॥ कषायःस्तम्भनःशीतःसोऽभयात्वन्यथामता । तस्माद्रसोपदेशेननसक्द्रव्यमादिशेत् ॥ ७७ ॥दृष्टेतुल्यरसे - प्येवंद्रव्येद्रव्येगुणान्तरम् । रौक्ष्यात्कषायोरुक्षाणामुत्तमोमध्यमः कटुः ॥७८ ॥ तिक्तोऽवरस्तथोष्णानामुष्णत्वाल्लवणः परः। मध्योऽम्लःकटुकश्चान्त्यःस्निग्धानांमधुरःपरः। मध्योऽम्लोलवणश्चान्त्यारस स्नेहान्निरुच्यते ॥ ७९ ॥ कोई अम्लरस संग्राही अर्थात् मलको बांधनेवाला होता है और कोई अम्लरस मलको भेदन करनेवाला ( दस्त लानेवाला) होता है जैसे कपित्यका फल संग्राही अर्थात् मलको बांधनेवाला है और आमलाका फल भेदनकर्ता होताहै । कटुरसप्रायः वृष्य नहीं होता परन्तु पीपल, सोंठ आदि कटु होनेपर भी वृष्य होते हैं । इसी प्रकार कषायरस मलको रोकनेवाला और शीतल होताहै परन्तु हरड कषायरस होनेपर भी दस्तावर और उष्ण है । इसीलिये रसमात्रके गुणसे ही द्रव्योंका गुण नहीं करना चाहिये क्योंकि एकसे रसवाले द्रव्योंमें भी दो प्रकारके गुण पायें जाते हैं। कषायरस सब प्रकारके रूक्ष रसोंमें प्रधान होता है । कटुरस मध्यम है और तिक्तरस रूक्षतामें कनिष्ठ होताहै एवम् सव प्रकारके उष्णतामें लवण रस प्रधान है । अम्ल रस मध्यम है । कटु रस कनिष्ठ है । स्निग्धविशिष्ट रसोम मधुर रस प्रधान है ।अम्ल रस मध्यम है।लवण रस कनिष्ठ होताहै।।७६॥७७॥७८॥७९॥
मध्यःकृष्टावराःशैत्यात्कषायस्वादुतिक्तकाःतिक्तात्कषायोमधुरःशीताच्छीततरःपरः । स्वादुर्गुरुत्वादधिक कषायाल्लवणोऽवरः॥ ८०॥ . इसी प्रकार शीतलतामें मीठा रस प्रधान है और कषाय रस मध्यम है तथा कषाय और तिक्त रस कनिष्ठ है जैसे तिक्तसे कषायसे मधुर शीतलताके गुणमें श्रेष्ठ, माने जाते हैं। और गुरुतामें मधुररस प्रधान है, कषाय मध्यम है और लवण रस. कोनष्ठ होता है ॥८०॥ . . . . . . . . . . . . . . . . . . . ' '
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सूत्रस्थान - अ० २६.
( ३०५ )
अम्लात्कदुस्ततस्तिक्तोलघुत्वादुत्तमो मतः । केचिल्लघूनामवर - मिच्छंतिळवणंरसम् ॥ ८१ ॥ गौरवेलाघवेचैव सोऽवरस्तुभयोरपि । परञ्चातोविपाकानांलक्षणंसम्प्रवक्ष्यते ॥ ८२ ॥
अम्लरस से कटु और कटुसे तिक्त लघुतामें प्रधान होते हैं। कोई कहते हैं कि लवणरस लघुताके विषय में सबसे निकृष्ट होता है तथा अम्ल और लवण रसोंमें लवण रसकी गुरुतामें प्रधान है और लघुतामें कनिष्ठ है । अब इसके उपरान्त विपाकों के लक्षणों का वर्णन करते हैं ॥ ८१ ॥ ८२ ॥
विपाकका वर्णन | कटुतिक्तकषायाणां विपाकः प्रायशः कटुः ।
अम्लोऽम्लं पच्यते स्वादुमधुरं लवणस्तथा ॥ ८३ ॥
कटु, तिक्त और कषाय रसका प्रायः कटु विपाक होता है । अम्लरसका प्रायः अम्ल विपाक होताहै । मीठे और लवणरसका प्रायः मधुर विपाक होता है | इस प्रकार कटु, अम्ल और मधुर यह ३ प्रकारका द्रव्योंका विपाक होता है ॥ ८३ ॥ मधुरोलवणाम्लौ चस्निग्धभावास्त्रयोरसाः ।
वातमूत्रपुरीषाणां प्रायो मोक्षेसुखामताः ॥ ८४ ॥
मधुर, लवण और अम्ल यह तीनों रस स्निग्ध होनेसे वायु, मूत्र और मल इनको सुखपूर्वक निकालते हैं ॥ ८४ ॥
कटुतिक्तकषायास्तुरूक्षभावास्त्रयोरसाः ।
दुःखाविमोक्षेदृश्यन्तेवाताविण्मूत्ररेतसाम् ॥ ८५ ॥
कटु, तिक्त और कषाय यह तीन रस रूक्ष होनेसे वात, मूत्र, मल और शुक्रको सुखपूर्वक नहीं निकलने देते अर्थात् इनके निकलने में रुकावट डालते हैं ॥ ८५ ॥ शुक्रहाबद्धविण्मूत्रोविपाकोवातलः कटुः ।
मधुरःसृष्टविण्मूत्रोविपाकेकफशुक्रलः ॥ ८६ ॥
कटुरस - विपाक होने पर शुक्रको हरता है । मल मूत्रको वद्ध करता है । वायुकों उत्पन्न करता है । मधुररस - विपाक होने पर मल, मूत्रको निकालता है, कफ तथा वीर्यको उत्पन्न करता है ॥ ८६ ॥
पित्तकृत्सृष्टविण्मूत्रःपाकेऽम्लः शुक्रनाशनः ।
तेषां गुरुः स्यान्मधुरः कटुका लावतोऽन्यथा ॥ ८७ ॥
२०
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चरकसंहिता-भा० टी० ॥ अम्लरस-विपाक होने पर पित्तको करताहै, मल, मूत्र निकालताहै, वीर्यको नष्ट करताहै । उपर कहेहुए मधुर अम्ल और कटु इन विपाकोंमें मधुर विपाक गुरु हैं, अम्ल मध्यम है और कटु कनिष्ठ है ॥ ८७॥
'विपाकलक्षणस्याल्पमध्यभूयस्त्वमेवच ।।
द्रव्याणांगुणवैशेष्यात्तत्रतत्रोपलक्षयेत् ॥ ८८॥ वैद्यको उचित है कि विपाक लक्षणोंकी अल्पता, मध्यता, अधिकता विचारकर द्रव्यमात्रके गुणकी विशेषता आदिको जाने ॥ ८८ ॥
वीर्यका वर्णन । तीक्ष्णरूक्षंमृदुस्निग्धंलघूष्णंगुरुशीतलम् ।वीर्यमष्टविधकेचिस्केचिद्विविवमास्थिताः ॥ ८९॥ शीतोष्णमितिवीर्यन्तुक्रियतेयेनयाक्रियानावीयंकुरुतकिंचित्सर्वावीर्यकताक्रिया ॥९॥ किसीके मतसे तीक्ष्ण, रूक्ष, मृदु, स्निग्ध, लघु, उष्ण, गुरु और शीतल इन भेदोंसे द्रव्योंका वीर्य आठ प्रकारका होताहै । कोई शीतल और उष्ण इन दो भेदोंसे २ प्रकारका ही मानते हैं । जिस शक्तिद्वारा शरीरमें क्रिया होतीहै उसको. वीर्य कहते हैं । जितने द्रव्य है विना वीर्यके वह कुछ नहीं करसकते क्योंकि संपूर्ण , क्रिया वीर्यके ही अधीन है। इसी लिये वीर्य नष्टहुआ द्रव्य किसी कामका नहीं होता ॥ ८९ ॥ ९॥
- रसविपाक वीर्यके लक्षण । रसोनिपातेद्रव्याणांविपाकःकर्मनिष्ठया।
वीर्ययावदधीवासान्निपाताच्चोपलभ्यते ॥९१ ॥ १ उष्णशीतगुणोत्कर्षावुधैर्यि द्विधा स्मृतम् । यत्सर्वमनिषोमीयं दृश्यते भुवनत्रयम् ॥ २ रसादीनामेकद्रव्यनिविष्टांनां भेदज्ञानार्य लक्षणमाह-रसो निपात श्त्यादि । निणत इति रसना योगे, कर्मनिष्ठयेति कर्मणो · निष्ठा निष्पत्तिः कर्मनिष्ठा क्रियापरिसमाप्तिः ॥ रसो योगे. सति योन्त्याहारपरिणामकृतः कर्मविशेषः कफशुक्राभिवृद्धयादिलक्षणः तेन विपाको निश्चीयते अधिवासः सहावस्थानं, यावदधिवासादिति यावच्छरीरनिवासात्, एतच्च पाकात् पूर्व निपाताचोर्दू शेयम्, निपाताचति शरीरसंयोगमात्रात् तेन किंचिद्वीर्यमधीवासादुपलभ्यते यथा आनूग्मांसादेरुष्णत्वम् 'किञ्चिच्च निगतादेव लभ्यते यथा मरीचादानां दीपनीयादीनामेव । एतेन रसः प्रत्येक्षणैव विपाकन्तु नित्यपरोक्षस्तत्कार्येणानुमीयते: । वीर्यन्तु किंचिदनुमानेन यथा सैंधवगतं शत्यं आनूपमांसगतं वा औष्ण्यम् । किंचिच्च वीर्य प्रत्यक्षेणैव यथा राजिकागतं तक्ष्ण्यं प्राणेन पिच्छिलीवशदस्निग्धरूक्षादयः चक्षुःस्पर्शनाम्यां निश्चीयन्ते इति वाक्यार्थः । एतच्च वीर्य सहजं कृत्रिमं च ज्ञेयम् । तत्राद्यं माषाणां गौरवं, मुगानां लाघवमित्यादि । कृत्रिमन्तु लाजादीनां लघुत्वादि एतच्च यथासम्भवं गुरुलध्वादिषु वीर्येषु लक्षण ज्ञेयमुपयुज्यमानंद्रव्याणाम् । एतच वीर्यलक्षणं पारिभाषिकमेव ।
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सूत्रस्थान-अ० २६. (३०७) किसी पदार्थको मुखमें लेनेसे जो आस्वादन होताहै उसको रस कहतेहैं वह रसनांग्राह्य होनेसे भी रस कहा जाता है । जठराग्निसे परिपक्क होने पर जो प्रथम रसका परिणामभूत अन्य रस बनता है उसको परिपाक कहते हैं रसका परिपाक होनेपर जो कुछ वनताहै उसको वीर्य कहतेहैं ॥ ९१ ॥
प्रभावका लक्षण । रसवीर्यविपाकानांसामान्ययस्यलक्ष्यते।
विशेषःकर्मणाश्चैवप्रभावस्तस्यचस्मृतः ॥ ९२॥ जिस द्रव्यके रसबीर्य, विपाकमें कोई विशेषता प्रतीत न हो किन्तु कर्ममें विशेषरूपसे विशेषता पाई जाय उसको प्रभाव कहतेहैं ।। ९२ ॥
कटुकःकटुकःपाकेवीर्योष्णश्चित्रकोमतः ।
तद्वदन्तीप्रभावात्तुविरेचयतिमानवम् ॥ ९३ ॥ जैसे चित्रक, रसमें कटु और पाकमें भी कटु तथा वीर्यमें भी उष्णवीर्य है ऐसे ही दंती (जमालगोटेकी जड) भी स्वाद, विपाक वीर्यमें उसके समान होतेहुए भी विरेचनका प्रभाव चित्रकसे अधिक रखतीहै ॥ ९३ ।। _ विषंविषघ्नमुक्तंयत्प्रभावस्तत्रकारणम् ।
ऊर्ध्वानुलोमनंयच्चतत्प्रभावप्रभावितम् ॥ ९४ ॥ विषको विष ही नष्ट करताहै यह जो कहावत है इसमें भी प्रभाव ही कारण होताहै । कुछ द्रव्य जिस प्रकार खायेजानेसे वमनादि अर्धविरेचन करतेहैं उसी प्रकार दूसरे द्रव्योंमें अधोविरेचनका प्रभाव देखने में आताहै ॥ ९४ ॥
मणीनांधारणीयानांकर्मयाद्विविधात्मकम् ।
तत्प्रभावकतंतेषांप्रभावोऽचिन्त्यइप्यते ॥९५ ।। माणे आदि धारण करनेके जो द्रव्य हैं उनमें भी अच्छे और बुरे दो प्रकारके प्रभाव पाये जातेहे । सो उनमें वह प्रभाव अचिंत्य है ॥ ९५ ॥
रसीयर्यादिका सिद्धान्त। किञ्चिद्रसेनकुरुतेकर्मवीर्येणचापरम् । द्रव्यंगुणेनपाकेनप्रभावेणचकिञ्चन ॥ ९६ ॥ रसविपाकस्तौवीयंप्रभावस्तानपोहति । गुणसाम्येरसादीनामितिनैसर्गिकंबलम् ॥ ९७ ॥ सम्यग्त्रिपाकवीर्याणिप्रभावश्चाप्युदाहृतः॥ ९८॥ .
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चरकसंहिता-भा० टी०। • कोई द्रव्य रससे, कोई वीर्यसे, कोई गुणसे, कोई विपाकसे एवम् कोई प्रभाव अपनी क्रियाको करतेहैं ॥ ९६॥ इन रस आदिकोंकी साम्यतामें विपाकक्रिया करः . नेमें रससे बलवान है ।वर्यि-रस, विपाक इन दोनोंसे बलवान् है एवम् प्रभाव रस, वीर्य, विपाक इन तीनोंसे बलवान् है ।इस प्रकार रसादिकोंमें पहिलेसे दूसरी त्रिया करनेमें गुणकी अधिकता रखताहै।९७ ॥ इस प्रकार विपाक वीर्य और प्रभावका वर्णन किया गया है ॥ ९८॥
मधुरादि ६ रसोंके स्वरूप । षण्णांरसानांविज्ञानमुपदेक्ष्याम्यतःपरम्। स्नेहनप्रीणनाह्लाद-: मार्दवैरुपलभ्यते ॥ ९९ ॥ मुखस्थोमधुरश्चास्यव्याप्नुवल्लिम्प- । तीवच । दन्तहर्षान्मुखस्रावात्स्वेदनान्मुखबोधनात् । विदाहा
च्चास्यकंठस्यप्राश्य वाम्लंरसंवदेत् ॥ १०० ॥ . अब आगे.६ प्रकारके रसोंके विज्ञानका वर्णन करतेहैं । जैसे मधुर रस स्नेहन प्रीणन, आह्लादन, मधुर यह गुण मधुर पदार्थके मुखमें रखते ही प्रतीत होने लगा तेहैं और ऐसा प्रतीत होताहै कि मुखमें मधुर रस, मानो लिपसा गया । इन लक्ष णोंसे मधुर रसका ज्ञान होताहै अम्लरस-मुखमें धारण करते ही दंतहर्ष होना,मुखंस स्राव होना, पसीने आना, मुखका उद्धोधन होना, खाते ही कण्ठमेंसे दाह सा निक: लना इन लक्षणोंसे खट्टे रसका विज्ञान होताहै ॥ ९९ ॥ १०० ॥ . प्रलीयनक्लेदविष्यन्दलाघवंकुरुतेमुखे। .
. यःशीघ्रलवणोज्ञेयःसविदाहान्मुखस्यच ॥१०१॥ जो मुखमें देते ही झट लीन होजाय और गीलापन होकर लार बहनेलगे; शीघ्र लाघवताको करे, तथा मुखमें दाहको करें उसको लवणरस कहतेहैं ॥ १०१ ॥
संवेजयेद्योरसानांनिपातेतुदतीवच ।
विदहन्मुखनासाक्षिसंस्त्रावीसकटुःस्मृतः ॥ १०२ ॥ जो रस मुखमें डालते ही घबराहट सी पैदा करे, जीभमें सूईसी चुभे,मुखमें दाह औरै चरचराहट उत्पन्न करे एवम् मुख, नासिका और नेत्रमेंसे पानीका: स्राव करे उसको कटु रस कहतेहैं ॥ १०२ ॥ .: प्रतिहन्तिनिपातेयोरसनस्वदतेनच ।
सतिक्तोमुखऋषयशोषप्रह्लादकारकः ॥ १०३ ॥ . . .
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सूत्रस्थान - अ० २६.
. (३०९)
जो रस जीभ पर गिरते ही जीभको बिगाडे और स्वाद बुरा प्रतीत हो और जीभको तथा मुखको विषद और शोषण करे एवम् मुखको कडुआ बनादे उसको तिक्तरस कहते हैं ॥ १०३ ॥
: वैषद्यस्तम्भजाड्यैर्योरसनंयोजयेद्रसः । बन्नातीवचयः कंठकः षायः सविकास्यति ॥ १०४ ॥
जो रस जीभको विषद, स्तम्भ, जडतायुक्त करे वाणी और कण्ठको जकडसा देवे एवम् विकाशी हो उसको कषाय ( कसैला ) रस कहते हैं ॥ १०४ ॥ विरुद्धाहारविषयक अग्निवेशका प्रश्न |
एवंवादिनंभगवन्तमात्रेयमग्निवेश उवाच । भगवन् श्रुतमेतदवितथमर्थसम्पद्युक्तं भगवतोयथावद्द्रव्यकर्माधिकारेवचः : परन्त्वाहारविकाराणां वैरोधिकानांलक्षणमनतिसंक्षेपेणोपदिश्यमानंशुश्रूषामहेति ॥ १०५ ॥
इस प्रकार कहते हुए भगवान् आत्रेयजीसे अग्निवेश कहने लगे कि हे भगवन्! द्रव्यकर्माधिकारमें आपने जो कुछ उपदेश किया है यह यथार्थ और श्रेष्ठ एवम् सर्वगुणसम्पन्न उपदेश श्रवण कलिया है । अब कृपा कर आहारके विषयमें विकार - कारक तथा विरुद्ध रसोंका विस्तारपूर्वक वर्णन कीजिये । इस विषय में आपके उपदेश किये लक्षण श्रवण करने की इच्छा है ॥ १०५ ॥
आत्रेयका उत्तर ।
तमुवाच भगवानात्रेयः । देहधातुप्रत्यनीकभूतानिद्रव्याणिदेहधातुविरोधमापाद्यन्ते परस्परविरुद्धानिकानिचित्संयोगात्सं
●
स्कारादपराणिदेशकालमात्रादिभिश्चापराणितथास्वभावाद
पराणि ॥ १०६ ॥
यह सुनकर आत्रेय भगवान् अग्निवेशसे कहने लगे कि देह और धातुओंसे प्रति• कूल जितने ही द्रव्य हैं वह सब देह और धातुओंसे विरोधको उत्पन्न करते हैं । बहुतसे द्रव्य ऐसे भी हैं जो आपस में संयोग विरोधी होनेसे देहधातुओं में विकारको उत्पन्न करते हैं एवम् कोई गुणविरुद्ध होनेसे, कोई संयोगविरुद्ध होनेसे, कोई संस्का रविरुद्ध होनेसे रोगोत्पादक होते हैं, तथा देश, काल, मात्रा आदिके विरुद्ध होनेसे भी द्रव्य शरीर और धातुओंसे विरोधी होता है । कोई ऐसे द्रव्य भी हैं जो स्वभावसे ही विरुद्ध होतेहैं ॥ १०६ ॥
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चरकसंहिता - भा० टी० । · विरुद्ध आहारोंका वर्णन | तत्रयान्याहारमधिकृत्यभूयिष्ठमुपयुज्यन्तेतषामेकदेशेवैरोधिक
मधिकृत्योपदेक्ष्यामः ॥ १०७ ॥
उनमें जो द्रव्य सदैव आहारमें भोजन के उपयोगमें लिये जाते हैं उनके एकांशमें विरोधकारक होने का वर्णन करते हैं ॥ १०७ ॥
नमत्स्यान्पयसा सहाभ्यवहरेदुभयं तन्मधुरं मधुरविपाकान्महाभिष्यन्दिशीतोष्णत्वाद्विरुद्धवीय्यविरुद्धवीर्य्यत्वाच्छोणितप्रदूषणाय महाभिष्यन्दित्वान्मार्गोपरोधायच ॥ १०८ ॥
मछलियों को दूध के संयोगसे सेवन करनेसे विरोध आजाता है, क्योंकि यह दोनों मधुर हैं और मधुरविपाकवाले होनेसे महा अभिष्यंदी हैं । परंतु शीत और उष्णवीर्य होनेसे विरोधीभावको प्राप्त हो रक्तको दूषित करते हैं और महाअभिष्यंदी होनेसे मार्गों को रोक देते हैं । इसीलिये रस में आवरुद्ध होते हुए भी वीर्य गुण विरुद्ध होने से रक्तको दूषित कर कुष्ठ आदि रोगों को उत्पन्न करते हैं ॥ १०८ ॥
तदनन्तरमात्रेयवचनमनुनिशम्य भद्रकाप्योऽग्निवेशमुवाच ।। सर्वानेवमत्स्यान्पयसासहाभ्यवहरेत्, अन्यत्रैकस्माच्चिलिचिमात् । सपुनःशकली सर्वतो लोहित राजिः रोहितप्रकारः प्रायो भूमौचरतितञ्चेत्पयसासहाभ्यवहरेन्निःसंशयंशोणितजानांवि
( ३१०)
बन्धजानांवाव्याधीनामन्यतममथवा मरणंप्राप्नुयादिति ॥ १०९ ॥
इसके उपरान्त आत्रेय भगवानके इस उपदेशको सुनकर भद्रकाप्य ऋषि अग्निवैशसे कहने लगे कि चिलचिमनामक मछलीके सिवाय और मछलियोंको दूधकें संयोगसे चाहे खाया भी जाय परंतु चिलचिम मछलीको कभी न खाना चाहिये । चिलचिम मछली के शरीर में कांटे और लालवर्णकी रेखा होती हैं तथा लोहित मछलीके आकार की होती है और कीचड पर फिरा करती है यदि उसको दूधके साथ सेवन कियाजाय तो निश्रय ही रक्तजन्य तथा विबंधजनित रोग उत्पन्न होकर खानेवाला मृत्युको प्राप्त होजाय ॥ १०९ ॥
!
नेतिभगवानात्रेयः । सर्वानेव मत्स्यान्नपयसाभ्यवहरेद्विशेषतस्तुचिलिचिमंसहिमहाभिष्यन्दितमत्वास्थूललक्षणतरानेता
न्व्याधीनुपजनयत्यामविषमुदीरयति च ॥ ११० ॥
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सूत्रस्थान-अ० २६. (३११) भगवान् आत्रेय कहने लगे कि किसी भी मछलीको दूध के साथ नहीं खाना चाहिये और चिलचिम मछलीको कभी भूलकर भी दूधके संयोगसे नहीं खाना चाहिये क्योंकि अभिष्यंदी होनेसे महाव्याधियोंको उत्पन्न करती है तथा शरीरमें आमविषका संचार करतीहै ॥ ११० ॥ ग्राम्यानूपौदकपिशितानिमधुतिलगुडपयोमाषमूलकविसैविरूढधान्यैश्चनैकधाअद्यात् । तन्मूलञ्चबाधिUन्ध्यवेपथुजाडयविकलमूकतामैन्मिण्यमथवासरणमाप्नोति ॥ १११ ॥ ग्राम्य जीवोंका मांस, अनूपसंचारी जीवोंका मांस, जलचर जीवोंका मांस, शहद, तिल, गुड, दूध, उडद, मूली, विस, विरूढधान्य इन सबको मिलाकर एक समय भक्षण नहीं करना चाहिये । ऐसा करनेसे मनुष्य बहरापन, अंधता, कम्प, 'जडता, विकलता, मूकता, मिनमिनता अथवा मृत्युको प्राप्त होताहै ॥ १११ ॥
नपौष्कारोहिणीकंवाशाकंनकपातान्सार्षपतैलभृष्टान्मधुपयोभ्यांसहाभ्यवहरेत् । तन्मूलंहिशोणिताभिष्यन्दधमनीप्रतिचयापस्मारशंखकगलगण्डरोहिणीकानामन्यतमंप्राप्नोत्यथवामरणमिति ॥ ११२ ॥
शहद और दूध के साथ पुष्करपत्र और रोहिणीका साग नहीं खाना चाहिये। सरसोंके तेल में भूना कपोतका मांस दूध और शहदके साथ नहीं खाना चाहिये । ऐसा करनेसे मनुष्यके शरीरमें रक्तका क्लेद, धमनियोंका फडकना, अपस्मार, कनपटीके रोग, गलगण्ड और रोहिणी आदि रोग उत्पन्न होतेहैं अथवा मृत्युको प्राप्त होताहै ।। ११२ ।।
नमूलकलशुनकृष्णगन्धाजंकसुमुखसुरसादीनिभक्षयित्वापयः सेव्यंकुष्ठाबाधभयात् ॥ ११३ ॥ मूली, लहसुन, काली तुलसी, श्वेत तुलसी, वनतुलसी आदि खाकर ऊपरसे दूध पीना कुष्ठरोगको उत्पन्न करताहै । इसलिये ऐसा न करे ॥ ११३ ॥ . .
नजातुशाकंनलिकुचंपकंमधुपयोभ्यांसहोपयोज्यम् । एतद्धि · .. मरणायाथवावलवर्णतेजोवीयोंपरोधायालघुव्याधयेषाण्ड्या.यच ॥ ११४॥ . सम्पूर्ण शाक कटहर तथा शहद इन सबको दूधके साथ मिलाकर नहीं खाना
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चरकसंहिता-भा० टी०॥ चाहिये ऐसा करनेसे मृत्यु होतीहै अथवा बल, वर्ण, तेज और वीर्य नष्ट होतेहैं और महारोग तथा नपुंसकता उत्पन्न होतीहै । कोई कहते हैं कि मूलमें जातूशाक जो लिखा है वह बांसकी कोंपलका वाचक है ॥ ११४॥ ..
तदेवालकुचपक्कंनमाषसूपगुडसर्भिःसहोपयोज्यवैरोधकत्वा. त्॥११५॥ तथाम्रातकमातुलुङ्गलिकुचकरमर्दमोचदन्तशठबदरकोशाम्रभव्यजाम्बवकापत्थातन्तिडीकपारावताक्षोटपनसनालिकेरदाडिमामलकान्येवम्प्रकाराणिचान्यानिसर्वचाम्लंद्रव्यमद्रवंचपयसासहविरुद्धम् ॥ ११६ ॥ इसी प्रकार पकेहुए कटहरको उडदकी दाल, गुड, और घीके संग नहीं खाना चाहिये क्योंकि यह भी विरोधकारक हैं ॥ ११५. ॥ अम्बाडा, विजौरा, कटहर, करौंदा, मोच (सहँजनेकी फली), जंभारी नबु, बेर, कोशाम्र, भव्यफल ( कमरख), जामुन, कैथ इमली, पारावत (लवलीफल) अखरोट, पीलू, वडहर, नारियल, अनार, आँवले एवम् जितने प्रकारके खटाई तथा खट्टे फल तथा कांजी आदि द्रवपदार्थ हैं उन्हें दूधके साथ नहीं खाना चाहिये ॥ ११६ ॥ कंगुवरकमकुष्ठककुलत्थमानिष्पावाःपयसासहविरुद्धाःपद्मोत्तारकाशाकंशाकरोमैरेयोमधुचसहोपयुक्तंविरुद्धंवातञ्चातिकोपयति ॥ ११७ ॥ हारिद्रकासर्षपतैलभृष्टोविरुद्धपित्तञ्चातिकोपयतिश्लेष्माणंचातिकापयति पायसोमन्थानुपानोविरुद्धः। उपोदिकातिलकल्कसिद्धाहेतुरतीसारस्य ॥ ११८ ॥ बलाकावारुण्याकुल्माषेपिविरुद्धा । सैक्शकरवसापरिभृष्टासद्यो व्यापादयति ॥ ११९ ॥ .. कंगुधान्य, वरक ( चीना) धान्य, मोठ, कुलथी, उडद, मटर इन सबको भी दूधके साथ मिलाकर नहीं खाना चाहिये । कसोंमाका साग, शर्करासे बने मद्य,
और शहद तथा मैरेय मद्य इन सबको एकसाथ मिलाकर खानेसे विरुद्ध भोजन होताहै तथा वायुका अत्यन्त कोपकारक है ॥ ११७ ॥ हारिद्रकको सरसोंके तेलमें भूनकर खाना विरुद्ध है और पित्तको कुपित करताहै जलमें मिलेहुए घी और सत्तू खाकर उपरसे खीर खाना अनुपान विरुद्ध है तथा कफको अत्यन्त कुपित करता है । तिलके कल्कमें सिद्ध किया हुआ पोईका साग अतिसारको उत्पन्न करताहै ॥ ॥ ११८ ॥ वारुणी मद्यके साथ एवम् कुल्माषके साथ वगुलेका मांस विरुद्ध है
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होताह । हरियलपक्षीकाल में एरंडकी लकडोय ॥ १२३ ॥
सूत्रस्थान-अ० २६. (३१३) याद वह बगुलेका मांस सूअरकी चर्बी में भूजकर खायाजाय तो शीघ्र प्राणोंको नष्ट करताहै ॥ ११९ ॥
मायूरमासमेरण्डसीसकासक्तमेरण्डाग्निप्लुष्टंसद्योव्यापादयति ॥ १२०॥ तदेवभस्मपांसुपरिध्वस्तंसक्षौद्रंमरणाय ॥१२१॥
हारीतकमांसंहारिद्राग्निप्लुष्टंसद्योव्यापादयति। मत्स्यतैलनि__ स्ताडनसिद्धाःपिप्पल्यस्तथाकाकमाचीमधुचमरणाय॥१२२॥
मधुचोष्णमुष्णातस्यचमधुमरणाय ॥ १२३ ॥ ... भोरका मांस एरंडतैलमें एरंडकी लकडीके आगसे भूजाहुआ शीघ्र प्राणोंको नष्ट करताहै । हरियलपक्षीका मांस कदम्बकी लकडीकी आगसे भूजा हुआ प्राणनाशक होताहै । एवम् हरियल पक्षीका मांस भस्म और धूल तथा शहदयुक्त होनेसे प्राणनाशक होताहै । मछलीके तेलवाले पात्रमें सिद्ध कीहुई पिपली तथा मकोह शहदके साथ खानेसे मृत्युकारक होतेहैं ॥१२० ॥ १२१ ॥ १२२ ॥ शहदको गर्मकर खाना अथवा गर्मी से पीडितको गर्मकर शहद देना मृत्युकारक होताहै ॥ १२३ ॥
मधुसर्पिषीतुल्येमधुवारिचान्तरिक्षसमधृतंमधुपुष्करबीजंमधु
पीत्वोष्णोदकंभल्लातकोष्णोदकम् ॥ १२४ ॥ . शहद और घी दोनों वरावर मिलाकर खाना, अथवा शहद और आकाशका जल या शहद और कमलगट्टे अथवा शहद पीकर गम जल पीना एवम् भेलावा खाकर गर्म जल पीना विषके समान होताहै ॥ १२४ ॥
तक्रसिद्धःकम्पिल्लकापर्युषिताकाकमाची,अङ्गारशूल्योभासइतिविरुद्धानीत्येतद्यथाप्रश्नमाभानिर्दिष्टम् ॥ १२५॥ कमीलेको छाछमें सिद्ध करके खाना, बासी मकोयकासाग और सींखचे(शूलमें तपाया मांस )ये विरुद्ध भोजन हैं । इस प्रकार जैसे तुमने पूंछा वैसा हमने यथोचित रीति पर विरुद्ध आहारका वर्णन करदियाहै ॥ १२५ ॥
. भवन्ति चात्र श्लोकाः। यत्किञ्चिद्दाषमासायननिहरतिकायतः ।
आहारजातंतत्सर्वमहितायोपपद्यते ॥ १२६ ॥ यहां श्लोक हैं:-कि जो आहार दोषोंको कुपित कर देहसे बाहर नहीं निकालता वह सब आहेतकर्ता जानना चाहिये ॥ १२६ ॥ .
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(३१४) चरकसंहिता-भा० टी०। .... यच्चापिदेशकालाग्निसात्म्यासात्म्यानिलादिभिः संस्कारतोवी
यंतश्चकोष्ठावस्थाकमैरपि ॥ १२७ ॥ परिहारोपचाराभ्यां पाकासंयोगतोऽपिच । विरुद्धंतच्चनहितंहृत्संपद्विधिभिश्च यत् ॥ १२८॥
जो द्रव्य देश, काल और अग्नि, सात्म्य, असात्म्य, इनसे विरुद्ध हो और वायु आदिको विगाडकर प्रतिकूल हो तथा संस्कारसे अथवा वीर्यसे अथवा परिपाकसे, परिहार अथवा उपचारसे, परिपाकसे अथवा संयोगसे अथवा हार्दिक सम्पत्तिसे विरुद्ध हो वह सब पदार्थ हानिकारक और रोगोत्पादक होते हैं १२७ ॥ १२८ ।।
विरुद्धंदेशतस्तावद्रूक्षतीक्ष्णादिधन्वनि।
आनूपेस्निग्धशीतादिभेषजयन्निषेव्यते ॥ १२९ ॥ . अब देशविरुद्धोंका वर्णन करतेहैं । रूक्ष और तीक्ष्ण पदार्थ मिलाकर सेवन करना धन्व ( जलरहित ) देशमें विरुद्ध है । स्निग्ध और शीत. आदि पदार्थ मिलाकर खाना अनूपढ़ेशमें विरुद्ध है ॥ १२९ ॥ . .. . कालतोऽपिविरुद्धंयच्छीतरुक्षादिसेवनम्।. . . . .
शीतेकालेतथोष्णेचकटुकोष्णादिसेवनम् ॥१३०॥ शीत और रूक्ष पदार्थोंको मिलाकर शीतकालमें सेवन करना कालविरुद्ध है तथा उष्ण, कटु पदार्थोंका उष्णकालमें सेवन करना कालविरुद्ध होताहै ॥१३०॥ विरुद्धमनलेतद्वन्नानुरूपंचतुर्विधे । मधुसर्पिःसमधृतमात्रया ताद्विरुध्यते ॥ १३१ ॥ कटुकोष्णादिसात्म्यस्यस्वादुशीतादिसेवनम् । यत्तत्सात्म्यविरुद्धन्तुविरुद्धंत्वनलादिभिः ॥ १३२ ॥
जा ४ प्रकारकी अग्निसे प्रतिकूल हो वह अग्निविरुद्ध होताहै । मधु और घृतकों. समान भागमें मिलाकर खाना मात्राविरुद्ध होताहै । उष्ण प्रकृति के मनुष्योंको चरपरा आदि उष्ण पदार्थ सात्म्य विरुद्ध है । एवम् शीतल और मधुर आदि सेवन असात्म्य विरुद्ध है। जो पदार्थ आग्नि आदिसे विरुद्ध होताहै वह सब ही सात्म्य. विरुद्ध जानना ॥ १३१ ॥ १३२॥ .
यासमानगुणाभ्यासविरुद्धान्नौषधक्रिया। संस्कारतोविरुद्धन्तद्यद्भोज्यविषवद्वजेत् ॥ १३३॥....:
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सूत्रस्थान-अ०.२६१ (३१५) जो द्रव्य गुणसे और अभ्याससे विरुद्ध हो वह औषध क्रियामें नहीं लेना चाहिये क्योंकि गुण, अभ्यास, संस्कार और प्रकृति से विरुद्ध पदार्थ विषके समान मनु ष्यको मारडालनेवाले होते हैं ॥ १३३ ॥
ऐरण्डसीसकासक्तंशिखिमांसंतथैवहि । विरुद्धवीर्य्यतोज्ञेयं वीर्य्यतःशीतलात्मकम्॥१३४॥ तत्संयोज्योष्णवीर्येणद्रव्ये
णसहसेव्यते ।रकोष्ठस्यचात्यल्पमंदवीर्यमभेदनम्॥१३५॥ • मृदुकोष्ठस्यगुरुचभेदनीयंतथाबहु । एतत्कोष्ठविरुद्धन्तुविरुद्धं स्यादवस्थया॥१३६ ॥ श्रमव्यवायव्यायामसक्तस्यानिलकोपनम् । निद्रालसस्यालसस्यभोजनंश्लेष्मकोपनम्॥ १३७ ॥ एरंडके तेलमें मिला हुआ-मारका मांस संस्कारविरुद्ध होताहै।उष्णवीर्य द्रव्यके साथ शीतवीर्य द्रव्यको मिलाकर देना वीर्यविरुद्ध कहा जाताहै। क्रूरकोष्ठवालेको मन्दवीर्य अभेदनकर्ता पदार्थ एवम् मृदुकोष्ठवालेको भारी और भेदनकर्ता पदार्थ तथा बहुतसा पदार्थ कोष्ठविरुद्ध कहा जाताहै । श्रम, मैथुन और व्यायामसे थकेहुए मनु ष्यको वातकारक पदार्थ निद्रा और आलसवालेको कफकारक भोजन अवस्थाविरुद्ध कहा जाताहै ॥ १३४ ॥ १३५ ॥ १३६ ॥ १३७ ॥
यच्चानुत्सृज्यविण्मूत्रभुंक्तेयश्चानुभुक्षितः।
वच्चकर्मविरुद्धंस्थाद्यच्चातिक्षुद्वशानुगः॥ १३८॥ जो मनुष्य मल, मूत्रके त्याग किये विना अथवा विना भूखके भोजन करताहै तथा अत्यन्त भूख लगने पर भोजन नहीं करताहै।उसको कर्मविरुद्ध कहतेहैं॥१३८॥
परहारविरुद्धन्तुवराहादीनिषेव्ययत् ।
सेवेतोष्णंघृतादींश्चपीत्वाशीतनिषेवते ॥ १३९॥ वाराह आदिका मांस खाकर गर्म पदार्थोंका सेवन करना और घृत आदि पदार्थोंको पीकर शीत पदार्थोंका सेवन करना भी आहारविरुद्ध कहा जाता है।॥ १३९॥
विरुद्धंपाकतश्चापिदुष्टदुर्दारुसाधितम् ।
अपक्वतण्डुलात्यर्थपक्कदग्धंचयद्भवेत् ॥ १४० ॥ · विषैली लकडियोंकी अग्निसे सिद्ध किया पदार्थ एवम् कच्चे, जले भुने चावल, आदिक पाकविरुद्ध कहे जातेहैं ॥ १४० ॥
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चरकसंहिता-भा० टी०। संयोगतोविरुद्धंतद्यथाम्लंपयसासह
अमनोरुचितंयच्चहृद्विरुदंतदुच्यते ॥ १४१॥ . ___ खट्टे पदार्थोंको दूधमें मिलाकर खाना संयोगविरुद होताहै । मनको बुरा लगनेबाला पदार्थ हृदयसे विरुद्ध कहा जाताहै ॥ १४१॥
सम्पद्विरुद्धंतद्विद्यादसञ्जातरसन्तुतत् । . अतिक्रान्तरसंवापिविपन्नरसमेववा॥ १४२॥ जिस पदार्थ में यथोचित परिपक्व होकर उचित रस न उत्पन्न हुआ हो उसको सम्पदविरुद्ध कहतेहैं । एवम् जिसका रस खराव होगयाहो अथवा नष्ट होगयाहो उसको भी सम्पद विरुद्ध कहते ॥ १४२॥
ज्ञेयंविधिविरुद्धन्तुभुज्यतेनिभृतेनयत् । .
तदेवंविधमन्नस्याविरुद्धमुपयोजितम् ॥ १४३ ॥ जो मनुष्य भोजन कियाहुआ होने पर फिर भोजन करे अथवा कच्चा भोजन करे था स्वेदन आदिसे नम्र होनेपर एकदम अंटसंट भोजन करजाय उसको विधिविरुद्ध कहतेहैं । इस प्रकार भोजनकी विरुद्धताका वर्णन कियागयाहै ॥ १४३ ॥ . .
सात्म्यतोऽल्पतयावापिदीताग्नेस्तरुणस्यच । . .
स्नेहव्यायामबलिनोविरुद्धवितथंभवेत् ॥ १४४॥ अपनी प्रकृतिसे किंचित् विरुद्ध पदार्थ और बलवान् अग्निवाले पुरुष तथा तरुण पुरुष एवम् स्नेह या व्यायाम आदिसे बलवान् पुरुषको भी प्रकृतिसे किंचित् विरुद्ध होनेपर भी हानिकारक होताहै ॥ १४४ ॥
विरुद्ध अन्न सेवन रोगोत्पत्ति ।। पांड्यान्ध्यवीसपदकादराणांविस्फोटकोन्मादभगन्दराणाम् । सूर्छामदाध्मानगलग्रहाणांपाण्डामयस्यामविषस्यचैव॥१४५॥ किलासकुष्ठग्रहणीगदानांशोषास्त्रपित्तज्वरपीनसानाम् । स- .. न्तानदोषस्यतथैवमृत्योविरुद्धमन्नंप्रवदन्तिहेतुम् ॥ १४६ ॥ ' विरुद्ध भोजन करनेसे-नपुंसकता, अंधापन, विसर्प, उदररोग, विस्फोटकरोग, उन्माद, भगंदर, मूर्छा, मद, आध्मान, गलग्रह, पांडु, विषैली आम, किलास, कुष्ठ, ग्रहणी, शोष, रक्तपित्त, ज्वर, अतिश्याय, त्रिदोष तथा, संतानदोष एवम् मरण होताहै ॥ १४५ ॥ १४६ ॥
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सूत्रस्थान-अ०.२६..
(३१७) विरुद्ध अन्नजन्य रोगोंके उपाय । एषाञ्चखलुपरेषाञ्चवैशोधकनिमित्तानांव्याधीनामिमेभावाःप्र. तिकाराः। यथावमनंविरेचनञ्चतद्विरोधिनाश्चद्रव्याणांसंशम , नार्थमुपयोगस्तथाविधैश्चद्रव्यैःपूर्वमभिसंस्कार शरीरस्येति१४७॥ भवतिचात्र-विरुद्धाशनजानोगान्प्रतिहन्तिविरेचनम् ।
वमनंशमनश्चैवपूर्ववाहितसेवनम् ॥ १४८॥ ऊपर कहेहुए सब रोगोंके तथा विरुद्ध भोजन करनेसे उत्पन्न हुए अन्यरोगोंके भी शान्तिकारक उपाय करनेसे वह सब रोग नष्ट होजातेहैं।वह उपाय यह हैं-चमन, विरेचन एवम् विरोधी भोजनको परिपाक करनेवाले तथा उनके दोषोंको शान्त करनेवाले संशमन हितकर होते हैं । जिस विरुद्ध भोजनका प्रथमसे ही अभ्यास होगयाहो वह विरुद्ध भोजन अधिक अनिष्टकारक नहीं होता । इसी लिये संक्षेपसे कहागयाहै कि विरुद्ध भोजनसे उत्पन्न हुए जो रोग हैं वह तो-वमन, विरेचन और शमन द्रव्योंद्वारा शान्त होसकते हैं अथवा पहलेसेही हित पदार्थोंका सेवन करना हितकारक होताहै और जिस विरुद्ध भोजनका शरीरको सदासे अभ्यास होगयाहाँ ... वह विशेष हानिकारक नहीं होता ॥ १४७॥ १४८॥
तत्रश्लोकाः। मतिरासीन्महर्षीणांयायारसविनिश्चये । द्रव्याणिगुणकर्मभ्यांद्रव्यसंख्यारसाश्रयाः॥१४९॥ कारणंरससंख्याचरसानुरसलक्षणम्।परादीनांगुणानाञ्चलक्षणानिपृथक्पृथक् ॥१५०॥ पश्चात्मकानांषट्वञ्चरसानांयेनहेतुना । ऊर्ध्वानुलोमभाजश्च यद्गुणातिशयाद्रसाः ॥ १५१ ॥षण्णांरसानांषट्चैवसुविभ. काविभक्तयः । उद्देशश्चापविद्धश्चद्रव्याणांगुणकर्माण ॥१५२॥ प्रवरावरमध्यत्वरसानांगौरवादिषु । पाकप्रभावयोर्लिङ्गवीर्यसंख्याविनिश्चयः ॥ १५३ ॥ षण्णामास्वाद्यमानानांरसानां यत्स्वलक्षणम् । यद्यद्विरुध्यतेतस्मायेनयत्कारचैवयत् ॥१५४॥ वैरोधिकनिमित्तानांव्याधीनामौषधश्चयत् । आत्रेयभद्रकाप्यी
येतत्सर्वमवदन्मुनिः॥१५५॥ इत्यन्नपानचतुष्कआत्रेयभद्रकाप्यीयोनामषड्विंशोऽध्यायःसमाप्त:२६
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(३१८) चरकसंहिता-भा० टी ।
अब अध्यायका उपसंहार करते हैं:-कि इस आत्रेय भद्रकाप्यीय अध्यायमें रसोंके विषयमें महर्षियोंके मत द्रव्योंके गुण, कर्म, द्रव्यसंख्या, रसका आश्रय, रसोंका कारण, रससंख्या, रस तथा अनुरसके लक्षण, पर,अपरादि-विशेष गुणोंका वर्णन, रसोंका पंचभूतात्मक होना और उनके ६ भेद तथा उनका कारण, भूतगुणविशिष्ट रसोंसे ऊCशोधन, और अनुलोमन ६ रसोंके यथोचित विभाग, द्रव्योंके गुण कर्मके सम्बन्धमें उद्देश और अपवाद, गौरव आदि गुणें में रसोंकी प्रधानता, मध्यता एवम् निकृष्टता, विपाक और प्रभावके लक्षण, वीर्य, संख्या आस्वादन द्वारा ६ रसोंके पृथक्पृथक् लक्षण, जो द्रव्य जिससे मिलाये जानेपर विरुद्ध होताहै
और जो द्रव्य विरुद्ध होनेपर जिस जिस प्रकार विकार करताहै एवम् विरुद्ध भोज. नसे उत्पन्न हुए रोगोंकी चिकित्सा यह सब भगवान् पुनर्वसुजीने वर्णन कियाहै ॥ १४९ ॥ १५० ॥ १५१॥ १५२ ॥ १५३ ॥ १५४ ॥ १५५ ॥ इति श्रीमहर्षिचरक० पं०रामप्रसादवैद्य भाषाटीकायामात्रयभद्रकाप्यीयो नाम
___षड्विंशोऽध्यायः ॥ २६ ॥
सप्तविंशोऽध्यायः।
-RSSISNOR- . अथातोऽन्नपानविधिमध्यायव्याख्यास्यामइतिहस्माहभगवानात्रेयः।
अब हम अन्नपानविधि नामके अध्यायकी व्याख्या करतेहैं ऐसा आत्रेय भगचान् कहने लगे।
अन्नपानकी उत्कृष्टता । . . इष्टवर्णगन्धरसस्पर्शविधिविहितमन्नानंप्राणिनांप्राणसंज्ञकानांशाणमाचक्षतेकुशलाः। प्रत्यक्षफलदर्शनात्तदिन्धनान्तराग्नेःस्थितिस्तदेवसत्त्वमूर्जयति । तच्छरीरधातुव्यूहबलवगेन्द्रियप्रसादकरंयथोक्तमुपसेव्यमानविपरीतमहितायसम्पद्यते ॥१॥ सुन्दर गंधवर्णवाले तथा सुसंपन्न रसवाले और पवित्र स्पर्शयुक्त एवम् यथाथरीति पर बनायेहुए अन्नपान प्राणियोंके प्राण मानेजाते, बुद्धिमानांका ऐसा कथन है। यथार्थ देखनेमें भी ऐसा ही आताहै कि उत्तम आहार ही अतराग्निके लिय .
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सूत्रस्थान-अ०.२७.. (३१९) इंधन स्वरूप है एवम् मनुष्योंके प्राणोंका धारण करनेका हेतु है। उचित रीति ‘पर सेवन किया हुआ अन्नपान धातुओंको बलवान् करताहै तथा वर्णकारक है ।
इन्द्रियोंको प्रसन्न करताहै और अनुचित रीतिपर सेवन किया हुआ हानिकारक - होताहै ॥१॥
तस्माद्धिताहितावबोधनार्थमन्नपानविधिमखिलेनोपदेश्यामोऽनिवेश ॥२॥ हे अग्निवेश ! अब हम अन्न पानका हित और अहित ज्ञान होनेके लिये संपूर्ण अन्नपान विधिका वर्णन करतहैं ॥२॥
: अन्नपानादिके स्वाभाविक कर्म । तत्स्वभावादुदकंक्लेदयति, लवणविष्यन्दयति, क्षारस्पाचयति, मधुसन्दधाति, सर्पिःस्नेहयति, क्षीरंजीवयति, मांसंबंयति, रसःप्रीणथति, सुराजर्जरीकरोति, शीधुअवधमयति, द्राक्षा. रसोदीपयति, फाणितमाचिनोति, दधिशोफंजनयति, पिण्याकशाकंग्लपयति, प्रभूतान्तर्मलोमाषसूपः, दृष्टिशुकन्नःक्षारः, प्रायःपित्तलमम्लमन्यत्रमधुनःपुराणाञ्चशालियवगोधूमान्,प्रायःसर्वतिक्तंवातलमवृष्यश्चान्यत्रवेत्राग्रपटोलात्, प्रायःकटुकं
चातलमवृष्यश्चान्यत्रपिप्पलीविश्वभेषजात् ॥ ३॥ । सो उस अन्नपानमें जल स्वभावसे ही क्लेदकारक होताहै । लवण विष्यंदकारक होताहै । क्षार पाचनकर्ता होताहै । शहद व्रणसंधानकारक होताहै । घृत नेहन है, दूध जीवन है । मांस बृहण है । रस प्रीणन है, मद्य जीर्णकारी है। सीधु अवधमनकारी है। दाख दीपनकर्ता है। फाणित दोषोंका संचय करताहै, । दही सूजन करता है । पिण्याक तथा शाक ग्लानिकारक होताहै । उडदोंका जूस मलको वढानेवाला है । क्षार दृष्टि तथा वीर्यका नाश करतीहै । खटाई पित्तको उत्पन्न करतीहै। शहद, पुराने शालिचावल, यव और गेहूके सिवाय सब प्रकारके मीठे द्रव्य कफोत्पादक होतेहैं । इसी प्रकार बेतकी कोंपल और पटोलके सिवाय सब कडुए द्रव्य वायुको बढानेवाले होतहैं । पीपल और सोंठके सिवाय सब प्रकारके चरपरे द्रव्य वीर्यनाशक, कृशकर्ता एवम् वातल होतेहैं ॥ ३॥ . ..
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(३२०) चरकसंहिता-भा० टी। परमतोवर्गसंग्रहेणाहारद्रव्याण्यनुव्याख्यास्यामः ॥४॥ अब हम आगे वर्गसंग्रहपूर्वक आहारद्रव्योंकी व्याख्या करतेहैं ॥ ४॥
वगाके नाम । शूकधान्यशमीधान्यमांसशाकफलाश्रयान् । वर्गान्हारतमद्याम्बुगोरसेक्षुविकारिकान् ॥५॥ दशौचपरौवर्गीकृतान्नाहाश्योगिनाम् । रसवीर्यविपाकैश्चप्रभावैश्चोपदेक्ष्यते॥६॥ जैसे शूकधान्यवर्ग, शमीधान्यवर्ग, मांसवर्ग, शाकवर्ग, फलवर्ग, हरितवर्ग, मद्य. वर्ग, जलवर्ग, गोरसवर्ग, इक्षुवर्ग यह अलग अलग दश वर्ग तथा कृतान्नवर्ग, तैलवर्ग और शुण्ठ्यादिवर्ग यह सब आहारके उपयोगी होनेसे रस, वीर्य, विपाक तथा प्रभावोंसहित वर्णन करतेहैं ॥५॥६॥
- अथ शूकधान्यवर्गः। ... .. रक्तशालिमहाशालि कलमःशकुनाहृतः। चूर्णकोदीर्घशूकश्च गौरःपाण्डुकलांगुलौ ॥ ७ ॥ सुगन्धिकालोहवाला:शालिवाख्या:प्रमोदकाः। पतङ्गास्तपनीयाश्चयेचान्येशालयःशुभाः॥ ॥८॥ शीतारसेविपाकेचमधुराःस्वल्पमारुताः । बद्धाल्पवर्च
सास्निग्धावृहणाः शुक्रमूत्रलाः ॥९॥ रक्तशालि, महाशालि, कलमशालि, शकुनाहृत, चूर्णक, दीर्घशूक, गौर, पाण्डुक, कांगुल, सुगंधिक, लोहवाल, शालिका, शालिव, प्रमोदक, तपनीय, पतंग इनके सिवाय और भी जो उत्तम २ चावलोंकी जातिये हैं वह सव शीतवीर्य, रस और पाकमें मधुर किंचित्वातकारक, मलको बांधनेवाले, अल्पमलकारक, चिकने, बृंहण, वीर्य तथा मूत्रको बढानेवाले होतेहैं । प्रायः यह उत्तम जातिके चावलोंके गुण हैं ॥ ७॥ ८ ॥९॥ .
शालिधान्योंके . । रक्तशालिवरस्तेषांतृष्णान्नस्त्रिमलापहः।
महांस्तस्यानुकलमस्तस्याप्यनुततःपरे ॥१०॥ लालरंगके शालिचावल इनमें श्रेष्ठमानेगयेहैं तथा तृषा और त्रिदोषको नष्ट करतेहैं। रक्तशाल चावलोंकी अपेक्षा मोटे शालिचावल और मोटे शालिचावलोंकी अपेक्षा कलमचावल हीनगुण होते हैं । इसी प्रकार पहिलेसे दूसरे हीनगुण जानने चाहिये॥१०॥
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सूत्रस्थान - अ० २७.
यवकादिका वर्णन |
भवकाहायनाः पांशुवाप्योनैषधकादयः । शालीनांशालयः कुर्वन्त्यनुकारंगुणागुणैः ॥ ११ ॥
( ३२१ )
यवकधान्य, हायनधान्य, पांशुधान्य, तालाबके धान्य, नैषधकधान्य, यह भी सब चावलोंकी जाति तथा गुणागुणकी अपेक्षासे उत्तरोत्तर हीनगुण जाननें चाहिये ॥ ११ ॥
साठीचावलों के गुण | शीतः स्निग्धो गुरुः स्वादुत्रिदोषघ्नः स्थिरात्मकः । षष्टिकः प्रवरोगौरःकृष्णगौरस्ततोऽनुच ॥ १२ ॥
षष्टिकधान्य- शीतल, चिकने, भारी, मधुर एवम् त्रिदोषनाशक, शररिको स्थिर करनेवाले होतेहैं । इनमें भी श्वेतवर्णके षष्टिक चावल उत्तम और कृष्णवर्णकेहीनगुण होते हैं ॥ १२ ॥
वरक आदिधान्य | वरकोद्दालकौ चीनशारदोज्ज्वलदर्दुराः ।
गंधलाः कुरुविन्दाश्चषष्टिकाल्पान्तरागुणैः ॥ १३ ॥
वरकधान्य, उद्दालक, चीना, शारद, उज्ज्वल, दर्दुर, गंधळ, कुविन्द आदिकधान्य षाष्टिक चावलों की अपेक्षा किंचित् हीनगुण होते हैं ॥ १३ ॥
व्रीहि और पाटलके गुण । मधुरश्चाम्लपाकश्च त्रीहिः पित्तकरो गुरुः । बहुमूत्रपुरीषोष्मात्रिदोषस्त्वेवपाटलः ॥ १४ ॥
व्रीहिधान्य- मधुर हैं, पाकमें अम्ल हैं, पित्तकारक तथा भारी होते हैं । पाटलधान्य -+अधिक मूत्र लानेवाले तथा मलको बढानेवाले एवम् गर्मी प्रकट करनेवाले तथा त्रिदोषको कुपित करनेवाले हैं ॥ १४ ॥
कोरदूष और श्यामाकके गुण । सकोरदूषःश्यामाकःकषायमधुरोलघुः ।
वातलः कफपित्तघ्नः शीतसंग्राहिशोषणः ॥ १५ ॥
कोद्रव और श्यामाक धान्य- कसैले, मधुर, हलके, वातकारक, कफपित्तनाशक 2 शीतल; संग्राही तथा शोषण करनेवाले हैं ॥ १५ ॥
२१
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(३२२) चरकसंहिता-भा० टी०।
हस्तिश्यामाकनीवारतोयपींगवेधुकाः। प्रशातिकाम्भःश्यामाकलौहित्याणुप्रियङ्गवः ॥ १६ ॥ मुकुन्दझिण्टिगट्टीचरुकावरकास्तथा । शिविरोत्कटजूर्णाह्वःश्यामाकसदृशा गुणैः॥ १७॥ हस्तिश्यामाक, नीवार, तोयपर्णी, गवेधुक, प्रशातिक,जलजश्यामाक, लौहित्यश्यामाक, अनुश्यामाक, कंगुनी, मुकुंद, झिंटी,गर्मुटी,चरुका,वरका,शिविर,उत्कट, जवार इन सबके गुण श्यामाक (सौंक) चावलके समान जानना ॥१६॥१७॥
यवके गुण। । रूक्षःशीतोगुरुःस्वादुःबहुवातशकद्यकः ।
स्थैर्यकत्सकषायस्तुवल्याश्लेष्मविकारनुत् ॥ १८॥ जब-रूखे, शीतल,गुरु,स्वादु, बहुत वायु और बलके करनेवाले, स्थिरताकारक, कषाय, वलकारक एवम् कफविकारनाशक हैं ।। १८ ॥
वेणुयवके गुण। रुक्षःकषायानुरसोमधुर कफपित्तहा । ___ मेदःक्रिमिविषघ्नश्चबल्योवेणुयवोमतः ॥१९॥
वेणुयव रूक्ष, कसैले, मधुर, कफपित्तनाशक, मेदको हरनेवाले, कृमि तथा विषको नाश करनेवाले एवम् वलकारक होतेहैं ॥ १९॥
गेहूंके गुण । सन्धानकद्वातहरोगोधूमः स्वादुशीतलः।
जीवनोबृंहणोवृष्यःस्निग्धःस्थैर्यकरोगुरुः ॥ २०॥ गोधूम (गेहूँ)-संधानकर्ता, वातहर,स्वादु, शीतल, जीवनकर्ता, पुष्टकर्ता,वीर्यवर्द्धक, स्निग्ध, दृढकारक एवम् भारी होताहै ॥ २० ॥
नान्दीमुख और मधूलीके गुण। नान्दीमुखीमधूलीचमधुरस्निग्धशीतले ।इत्ययंशूकधान्यानां पूर्वोवर्ग:समाप्यते ॥ २१॥ इतिशूकधान्यवर्गः।
नान्दीमुखी तथा मधूलिका (गेहूंका भेद )-मधुर स्निग्ध और शीतल होतेहैं । इस प्रकार यह शूकधान्याका वर्ग समाप्त हुआ ॥२१॥ ..
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सूत्रस्थान-अ० २७. (३२३) . अथशमीधान्यवर्गः।
मुंगके गुण। कषायमधुरोरुक्षःशीतःपाकेकटुर्लघुः ।
विषदःश्लेष्मपित्तनोमुद्गःसूप्योचमोमतः ॥ २२ ॥ सब प्रकारके शमीधान्योंमें मूगं उत्तम होताहै । मूंग-कषाय, मधुर, रूक्ष शीतल, पाकमें कटु, हलका, विषद और कफपित्तनाशक होताहै ॥ २२ ॥
राजमाषके गुण । रूक्षश्चैवकषायश्चवातलःश्लेष्मपित्तहा।
विष्टम्भीचाप्यवृष्यश्चराजमाषःप्रकीर्तितः ॥२३॥ राजमाष (लोबिया)-खर, रुचिकारक, कफ, शुक्र तथा अम्लपित्त करने. बाला है । एवम् स्वादु, वातकारक, रूक्ष, कषाय, विषद और गुरु होताहै ॥२३॥
उरदके गुण। वृष्यःपरंवातहर:स्निग्धोष्णमधुरोगुरुः।
बल्योबहुमलम्पुंस्त्वंमाषःशीघ्रददातिच ॥ २४ ॥ उडद-वृष्य, वायुनाशक, स्निग्ध, उष्ण, मधुर, गुरु, वल्प, बहुत मलको करनेवाला, शीघ्र पुरुषत्वको देनेवाला होताहै ॥ २४ ॥
कुलथीके गुण । उष्णाःकषायाःपाकेऽम्लाकफशुक्रानिलापहाः।
कुलत्थाग्राहिणःकासहिकाश्वासार्शसांहिताः ॥२५॥ कुल्थी-गर्म, कसैली, पाकमें अम्ल, कफ, शुक्र एवम् वायु इन तीनोंको नष्ट करनेवाली है। संग्राही है तथा कास; हिका, श्वास, एवम् अशरोगमें हितकारक होती है ॥ २५ ॥
मोठके गुण । मधुरामधुरा:पाकग्राहिणोरक्षशीतलाः।
मकुष्ठकाःप्रशस्यन्तेरक्तपित्तज्वरादिषु ॥ २६॥ . मोठ-रस और पाकमें मधुर, ग्राही, रूखा,शीतल, रक्तपिचनाशक एवम् ज्वरादिरोगोंमें हितकारक होता है ॥ २६ ॥
चनाके गुण । चणकाश्चमसूराश्चखण्डिकाःसहरेणकः । लघवशीतमधुराः
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(३२४) चरकसंहिता-भा० टी०।
सकषायाविरूक्षणाः ॥ २७ ॥ पित्तश्लेष्मणिशस्यन्तेसूपेष्वालेपनेषुच । तेषांमसूरःसंग्राहीकषायोवातलःपरम् ॥ २८॥ चना, मसुरी, दोनों प्रकारके मटर-यह लघु, शीतल, मधुर, कषाय, रूक्ष एवम् पित्तकफके विकारोंमें इनका यूष और आलेपन उत्तम कहाजाताहै । इनमें मसूरी संग्राही और कषाय तथा वातल होती है ॥ २७॥ २८ ॥
तिलके गुण ।। स्निग्धोष्णमधुरस्तीक्ष्णःकषायःकटुकस्तिलः। . .
त्वच्य केश्यश्चबल्यश्चवातनःकफपित्तकृत् ॥ २९ ॥ तिल-चिकने, उष्ण, मधुर, तीक्ष्ण, कषाय, कटु, त्वचाको सुन्दर बनानेवाले, केशोंको बढानेवाले,बलकारक,वातनाशक तथा कफपित्तको उत्पन्न करनेवाले हैं॥२९॥
शिम्बीके गुण। गुव्योऽथमधुरा शीतावलनारूक्षणात्मिकाः । सस्नेहाबलिभि. भोज्याविविधाशिम्बिजातयः ॥ ३०॥ शिम्बीरूक्षाकषाया च कोष्ठेवातप्रकोपनी ॥ न च वृष्या नचक्षुष्या विष्टभ्य च विपच्यते ॥३१॥ सब प्रकारकी शिम्बी (सेम)-भारी, मधुर,शीतल, बलन्न, रूक्षस्वभाववाली, स्नेहयुक्त, बलवान् पुरुषोंके खानेयोग्य होती है॥३०॥ सेम रूक्ष, कषाय,कोष्ठ में वायुको कुपित करनेवाली, शरीरको दुर्वल करनेवाली, विष्टम्भकारक, दुर्जर तथा. नेत्रोंकी हितकारी नहीं है ॥ ३१॥
अरहर आदके गुण । आढकीकफपित्तन्नीवातलाकफवातनुत् । अवल्गुजःसैडगजो निष्पावावातपित्तलाः ॥ ३२॥ कांकाण्डोलात्मगुप्तानांमाषवत्फलमादिशेत् । द्वितीयोऽयंशमीधान्यवर्ग:प्रोक्तोमहर्षिणा॥३३॥
. इतिशमीधान्यवर्गः। अरहर कफ और पित्तको नष्ट करनेवाली और वातकारक होती है। बावचीके बीज-वात और कफको नाश करते हैं । मनवाड (चक्रमर्द )के बीजमें भी यही गुण है । निष्पाव (सेमविशेष) वातपित्तको करनेवाला है। कोलासम्बी और कोंचके बीजोंमें भी उडदोंके समान गुण जानना । इस प्रकार, महार्ष आत्रेयजीने यह शमीधान्यवर्गनामक दूसरा वर्ग कथन किया ॥ ३२ ॥ ३३ ॥ १ कफवातनुदित्यवगुजेडगजयोजिस्य गुणः ।
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( ३.२५ )
सूत्रस्थान -अ० २७.
अथ मांसवर्गः । प्रसह पशु और पक्षियोंके नाम | गोखराश्वतरोष्ट्राश्वद्वीपिसिंहर्क्षवानराः । वृकोव्याघ्रस्तरक्षुश्च बभ्रुमार्जारमूषिकाः ॥ ३४॥ लोपाकोजम्बुकः श्येनोवान्तादश्चाषवायसौ । शराघ्नीमधुहाभासो गृधोलूककुलिङ्गकाः ॥३५॥ धूमीकाकुररश्चेतिप्रसहामृगपक्षिणः ॥ ३६ ॥
गाय, गदहा, घोडा, ऊंट और शार्दूल, सिंह, रीछ, वन्दर, भेडिया, बघेरा,
तरख, नेवला, विला, मूसा, लोपाक, गीदड़, शिकरा, कुत्ता, नीलकंठ, कौआ, वाज, उल्लू;
चिडा, झगर, टटेहरी इन जानवरोंको प्रसह कहाजाताहै ॥ ३४ ॥ ३५ ॥ ३६ ॥ भूमिशयके नाम । श्वेतःश्यामश्चित्रपृष्ठःकालकः काकुलीमृगः । कुचीकाचिल्लको भेको गोधाशल्लकगण्डकौ । कदलीनकुलः श्वाविदितिभूमिशयाः
स्मृताः ॥ ३७ ॥
सफेदपक्षी, श्याम, चित्रपृष्ठ, कालक ( सांपविशेष ), काकुली मृग, कुचीक, चौल, मेढक, गोह, सेह, गण्डक, कंदंली, नकुल श्वावित् इनको भूमिशय ( बिलेशय ) कहते हैं ॥ ३७ ॥
आनूपजीवोंके नाम ।
सृमरश्चमरःखङ्गोमहिषोगवयोगजः ।
न्यकुर्वराहश्चानूपामृगाःसर्वेरुरुस्तथा ॥ ३८ ॥
जंगली सूअर, चमरगऊ, गैंडा, भैंसा, रोझ, हाथी, हरिण, ग्रामशूकर, बारहसिंघा इन सबको अनूपसंचारी जीव कहते हैं ॥ ३८ ॥
जल में सोनेवाले व जलचर पक्षियोंके नाम |
कूर्मः कर्कटको मत्स्यः शिशुमारस्तिमिङ्गिलः । शुक्तिशंखोद्रकुम्भीरचुलकी मकरादयः ॥ ३९ ॥ इतिवारिशयाः प्रोक्तावक्ष्यन्ते वारिचारिणः । हंसः क्रौञ्चोब लाका चबकः कारण्डवःपुवः॥४०॥ शरारीपुष्कराह्वश्च केशरीमानतुण्डिकः । मृणालकण्ठोमद्गुश्च - कादम्बः काकतुण्डकः॥ ४१ ॥ उत्क्रोशः पुण्डरीकाक्षोमेघरावो
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( ३२६ )
चरकसंहिता - भा० टी० ।
म्बुकुक्कुटी । आरानन्दीमुखी वाटी सुमुखाः सहचारिणः॥४२॥ - रोहिणीकामकालीचसारसोरक्तशीर्षकः । चक्रवाकास्तथान्ये चखगाः सन्त्यम्बुचारिणः ॥ ४३ ॥
कूर्म, केंकडा, मत्स्य, सूस (सिनसुमार ), तिमिंगल मछली, सीप, शंख, उद्र, कुंभीर (घडियाल ), चिरुकी, मगर इन सबको जलेशय जीव कहते हैं। हंस, क्रौंच बलाका, काकबक, वगुला, कारण्डव, प्लव, शरारी, पुष्कर, केशरी, मानतुण्डिक, मृणालकंठ, मद्गु, कादम्ब, काकतुण्ड, उत्क्रोश, पुण्डरीक, मेघराव, जलकुक्कुट, आरा, नंदीमुखी, वाटी, सुमुखा, सहचारिण, रोहिणी, कामकाली, सारस, रक्तशीर्षक, चकवा यह सब जलचारी कहे जाते हैं तथा और भी जलमेंसे मछलिय पकडनेवाले पक्षीविशेष जलचारी कहाते हैं ॥ ३९ ॥ ४० ॥ ४१ ॥ ४२ ॥ ४३ ॥ जाङ्गल पशुओं के नाम ।
पृषतः शरभोवामः श्वदंष्ट्रा मृगमातृकाः । शशोरणौ कुरङ्गश्चगोकर्णः कोटकारकः ॥ ४४ ॥ चारुष्को हरिणैणौचशम्बरः कालपुच्छकः । ऋष्यश्चतर पोतश्च विज्ञेयाजाङ्गलामृगाः ॥ ४५ ॥ चित्रहरण, महाभृंग, हरिण, कस्तूरी मृग, श्वदंष्ट्रा, मृगमात्रिका, खरगोश, उरण कुरंग, गोकर्ण, कोटकारक, चारुष्क, हरिण, ताम्रवर्णका हरिण; सावर, कालपु च्छक, ऋष्य, तरपोत इन सबको जंगलके मृग कहते हैं ॥ ४४ ॥ ४५ ॥ विष्किर पक्षियों के नाम ।
लावोवतरकश्चैवार्तीकः सकपिञ्जलः । चकोरश्चोपचक्रश्चकुकुटोरक्तवर्त्तकः ॥ ४६ ॥ लावाद्याविष्किरास्त्वेते वक्ष्यन्ते वर्त्तकादयः । वर्त्तकोवर्त्तिकश्चैववहतित्तिरिकुक्कुटौ ॥ ४७ ॥ कङ्कसारपदेन्द्राभगोनर्द गिरिवर्त्तकाः । क्रकरोऽवकरचैववराहश्चेतिविष्किराः ॥ ४८ ॥
लवा, बटेर, वार्तीक, कपिंजल, चकोर, उपचक्र, कुक्कुट, लालवर्त्तक, वर्तिका, वहीं, तित्तरी, मुर्गा, कंक, सारपद, इन्द्राभ, सारस, गिरिवर्तक कुकर, अवकर, वराह इन सबको विष्किर कहते हैं ॥ ४६ ॥ ४७ ॥ ४८ ॥
प्रतुद पक्षियों के नाम । शतपत्रोभृङ्गराजः कोयष्टीजीवजीवकः । कैरातः कोकिलोऽत्यू -
१ वारटाश्चेति पाठान्तरम् ।
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सूत्रस्थान अ० २७.
" (३२७) होगोपापुत्रःप्रियात्मजः ॥ ४९ ॥ लट्वालदृषकोबभ्रुर्वटहाडिण्डिमानकः । जटीदुन्दुभिवाक्कावलोहपृष्ठकुलिङ्गकाः ॥५०॥ कपोतशुकसारङ्गाश्चिरिटीकंकुयष्टिकाः।सारिकाकलविङ्कश्चच-' टकोऽङ्गारचूडकः। पारावतःपाण्डविकइत्युक्ताःप्रतुदाद्विजाः॥५१॥ शतपत्र,भंगराज,कोयष्टी, जीवजीवक, कैरात, कोकिल, अत्यूह, गोपापुत्र,मिया त्मज, लट्वा, लट्टिषक, नकुल, वटहा, डिंडिमानक, जटी,दुंदुभीवाक्, अवलोह,पृष्ठः कुलिंगक, कपोत, शुक, सारंग, चिरटी, कंकुयष्टी, सारिका, कलविक, अंगारचूडक, पारावत, पाण्डवीक इन सब पक्षियोंको प्रतुद कहते हैं तथा द्विज भी कहते.
इनके लक्षण । प्रसह्यभक्षयन्तीतिप्रसहास्तेनसंज्ञिताः॥ ५२ ॥भशयाबिलवासत्वादानूपानूपसंश्रयाताजलेनिवासाजलजाजलचर्याजलेचराःस्थलजाजाङ्गलाःप्रोक्तामृगाजाङ्गलचारिणः॥ ५३ ।। विकीर्यविष्किराश्चेतिप्रतुद्यप्रतुदाःस्मताः । योनिरष्टविधा । त्वेषांमांसानांपरिकीर्तिता ॥ ५४ ॥
जो जीव बलपूर्वक अपने भोजनकी सामग्रीको ग्रहण करके खाते हैं उन सवको प्रसह कहते हैं । जो पृथ्वीमें विल बनाकर रहतेहैं उनको बिलेशय कहते हैं । जलके समीप वास करनेवाले अनूपसंचारी कहेजातेहैं । जलमें रहनेवालोंको जलेशय कहते हैं, जलमें विचरनेवालोंको जलचर कहतेहैं। स्थलचर जीवोंको.जो जंगलमें रहतेहैं उनको जांगल कहतेहैं । चोंचसे बखेरकर अथवा पंजोंसे बखेरकर खानेवालोंको. विष्किर कहतेहैं । कीटं आदिकोंको पंजेसे दबाकर चोंचके साथ खानेवालोंको प्रतुद कहतेहैं इसप्रकार मांसोंकी आठ प्रकारकी योनि वर्णन है ॥ ५२॥ ५३ ॥५४ ।।
प्रसहादिके मांसका गुण। प्रसहाभूशयानूपवारिजावारिचारिणः । गुरूष्णस्निग्धमधुरा बलोपचयवर्द्धनाः ॥ ५५॥ वृष्याःपरंवातहरा कफपित्ताभि.
वर्द्धिनः। हिताव्यायामनित्यानांनरादीप्तानयश्चये ॥ ५६ ॥ __ इनमें प्रसह, बिलेशय, अनूपसंचारी, जलेशय और जलसंचारी जीवोंका मांस
१जीवोंकी श्रेणीमात्र सामान्यतासे कथन करदीहै । सामान्यतासे प्रायः मांस मनुष्योंको हानिकारक होते हैं और बहुतसें तो विशेष हानिकारक होनेसे सर्वथा अभक्ष्य हैं।
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(३२८)
चरकसंहिता-भा० टी०। शुरु, उष्ण, स्निग्ध, मधुर, बलवर्द्धक, पुष्टिजनक, वीर्यवर्द्धक, परमवातनाशक, कफपित्तवर्द्धक होताहै।व्यायाम करनेवाले औरदप्तिाग्नि मनुष्योंको हितकारक है ॥ ५५ ॥ १६ ॥
प्रसहानांविशेषेणमांसमांसाशिनांभिषक् । जीपांशोंग्रहणी____ दोषशोषार्तानांप्रयोजयेत् ॥ २७॥
वैद्यको उचित है कि पुरानी बवासीर और संग्रहणी तथा शोषसे पीडित मनु'ग्याको प्रसहजीवोंका मांस उपयोग करे ॥ ५७ ॥
लावाद्योवैष्किरोवर्ग:प्रतुदाजागालामृगाः । लघवःशीतमधुराः । सकषायाहितानृणाम् ॥ ६८ ॥ पित्तोत्तरेवातमध्येसन्निपाते कफानुगे । विष्किरावर्त्तकाद्यास्तुप्रसहाल्पान्तरागुणैः ॥१९॥
लवासे लेकर विष्किरवर्ग तथा प्रतुद और जांगल जीवोंका मांस,हलका,शीतल, मधुर, कषाय होताहै । इन जीवोंके मांसका यूष पित्तप्रधान, वातमध्य, कफहीन सन्निपातम प्रयोग करना चाहिये । वर्तकसे आदि लेकर विष्किरपक्षियोंका मांस प्रसह जातियोंके पक्षियोंसे किंचित् अल्पगुणवाला होता है ।। ५८॥१९॥
बकरेके मांसका गुण ।। नातिशीतगुरुस्निग्धंमांसमाजमदोषलम् ।।
शरीरधातुसामान्यादनभिष्यन्दिबृहणम् ॥६०॥ बकरेका मांस न तो अधिक शीतल न अधिक भारी एवम् न अधिक स्निग्ध होता है अतएव दोषोंको कुपित नहीं करता । मनुष्योंके शरीर और धातुके अनुकूल होनेसे अनभिष्यन्दी तथा पुष्टकारी होता है ।। ६०॥
भेडेआदिके मांसके गुण। मांसंमधुरशीतत्वाद्गुरुवहणमाविकम् ।योनावजाविकेमिश्रेगोचरत्वादनिश्चिते ॥ ६१ ॥ सामान्येनोपदिष्टानांमांसानांस्वगुणैःपृथक् । केषाञ्चिद्गुणवैशेष्याद्विशेषउपदेक्ष्यते ॥ ६२ ॥ भेडका मांस मधुर शीतल होनेसे भारी तथा बृहण है । बकरा और मेढा यह देखनेमें मिलेजुलेसे होतेहैं और ग्राम्य तथा वन्य भेदसे कई प्रकारके होतेहैं। इस लिये इनके गुणोंको उपरोक्त भेदसे अलग अलग जानना किसी २ जीवोंके मांसमें गुण विशेष होनेसे विशेषरूपसे वर्णन करते हैं. ॥६१ ॥ ६२॥
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सूत्रस्थान-अ० २७०
(३२९). ... मोरके मांसका गुण । दर्शनश्रोत्रमेधाग्निवयोवर्णस्वरायुषाम् ।
'बहींहिततमोबल्योवातनामांसशकलः ॥ १३ ॥ मोरका मांस-दृष्टि, कान, बुद्धि, अग्नि,अवस्था, वर्ण, स्वर, और आयु इनको हितकारी है तथा बलकारक, वातनाशक, मांसवर्द्धक एवम् वीर्यजनक है ॥ ६३ ॥
हसके मांसका गुण । गुरूष्णास्निग्धमधुराःस्वरवणबलप्रदाः।
बृंहणाःशुक्रलाश्चोक्ताहंसामारुतनाशनाः॥६॥ हंसका मांस- भारी, गर्म, स्निग्ध, मधुर, स्वर और वर्णप्रद, बलकारक, बृंहण, शुक्रजनक, वातनाशक, होता है । ६४ ॥
मुगक मांसका गण । स्निग्धाश्चोष्णाश्चवृष्याश्चबृहणाःस्वरबोधनाः ।
बल्याःपरंवातहराःस्वेदनाश्चरणायुधाः ।। ६५ ॥ मुर्गेका मांस-स्निग्ध, उष्ण, वृष्य, बृहण, स्वरकारक, बलवर्द्धक, वातनाशक एवम् स्वेदकारक होताहै ॥ ६ ॥
धन्वानूप मांसके गण। गुरूष्णमधुरोनातिधन्वानूपनिषेवणात् ।
तितिरिःसञ्जयेच्छीमंत्रीन्दोषाननिलोल्वणान् ॥ ६६ ॥ अनूपसंचारी जीवोंका मांस तथा जंगलीजीवोंका मांस न अधिक भारी, न अधिक गर्म और न आधक मधुर होताहै । तीतरका मांस वातप्रधान सन्निपातको जीतनेवाला है ।। ६६॥
कपिलके मांसका गुण । पित्तश्लेष्मविकारेषुसरक्तेषुकपिञ्जलाः ।
मन्दवातेषुशस्यन्तेशैत्यमाधुर्यलाघवात् ।। ६७ ॥ कपिजलका मांस-थोडे वायुवाले पित्त कफ विकार तथा रक्तविकारोंको जीतनेवाला है। क्योंकि यह शीतल, मधुर और हलका होताहै ॥ ६७ ॥
लवाके मांसका गुण । लावा कषायमधुरालघवोऽग्निविवर्द्धनाः। सन्निपातप्रशमनाःकटुकाश्चविपाकतः ॥६॥
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( ३३० )
चरकसंहिता - भा० टी० ।
लवाका मांस - कषाय, मधुर, हलका, अग्निवर्द्धक होता है तथा सन्निपातको शान्त करता है एवम् विपाकमें कटु होता है ॥ ६८ ॥ कबूतरोंके मांसका गुण ।
कषायमधुराः शीतारक्तपित्तनिबर्हणाः । विपाके मधुराश्चैवकपोतागहवासिनः ॥ ६९ ॥ तेभ्योलघुतराः किञ्चित्कपोतावनवासिनः । शक्तिाः संग्राहिणश्चैवस्वल्पयूषाश्चतेमताः ॥ ७० ॥
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घर में रहनेवाले कबूतरका मांस - कषाय, मधुर, शीतल, रक्तपित्तनाशक तथा वनके रहनेवाले कबूतरों का मांस घर के कबूतरों की अपेक्षा हलका है, विपाकमें मधुर
हैं, शीतल है, संग्राही है, थोडा यूषवाला है ॥ ६९ ॥ ७० ॥
शुकमांस के गुण | शुकमांसं कषायाम्लविपाकेरूक्षशीतलम् । शोषकासक्षय हितसंग्राहिलघुदीपनम् ॥ ७१ ॥
तोतेका मांस--कसैला, विपाकमें अम्ल, रूक्ष तथा शीतल है । शोष, खांसी, क्षयमें अच्छा है, संग्राही, हल्का और अग्निवर्धक है ॥ ७१ ॥
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खरगोश के मांसका गुण ।
कषायविशदोरूक्षःशीतःपाकेकटुर्लघुः ।
शशः स्वादुः प्रशस्तश्चसन्निपातेऽनिलावरे ॥ ७२ ॥ खरगोशका मांस - कसैला, विषद, रूक्ष, शतिल, पाकमें कटु, हलका और मधुर होता है । इसका मांसरस, हीनवात सन्निपातमें हितकर होता है ॥ ७२ ॥ चिडियाके मांस के गुण ।
चटकामधुराः स्निग्धाबलशुक्रविवर्द्धनाः ।
सन्निपातप्रशमनाः शमनामारुतस्यच ॥ ७३ ॥
चिडियाका मांस मधुर, चिकना, बलवर्द्धक, शुक्रजनक, सन्निपातनाशक तथा वायुको शान्त करनेवाला होता है ॥ ७३ ॥
गदिडके मांस के गुण | मधुराः कटुकाः पाकेत्रिदोषशमनाः शिवाः । लघवोबद्धविपसूत्राः शीताश्चैणाः प्रकीर्त्तिताः ॥ ७४ ॥
गदिडका मांस-मधुर, पाकमें कटु और त्रिदोषको शान्त करनेवाला होता है !. काले हरिणका मांस हलका, मल, मूत्र विबंधक और शीतल होता है ॥ ७४ ॥
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सूत्रस्थान-अ० २७. गोधाविपाकेमधुरा कषायकटुकारसे।
वातपित्तप्रशमनावृहणीबलवाईनी ॥ ७५॥ गोहका मांस विपाकमें मीठा है, रसमें कषाय तथा कटु है, एवम् वातपित्त नाशक बृंहण तथा बलवर्धक होताहै ॥७॥
शल्लकोमधुराम्लस्तुविपाकेकटुकःस्मृतः।
वातपित्तकफनश्चकासश्वासहरस्तथा ॥ ७६ ॥ सेहका मांस-मधुर है, अम्ल है, विपाकमें कटु है तथा वात, पित्त, कफ इनको नष्ट करताहै एवम् कास, श्वासको हरताहै ।। ७६ ॥
रोहूमछलीके मांसके गुण । शैवलाहारभोजित्वात्स्वप्नस्यचविवर्जनात् ।
रोहितोदीपनीयश्चलघुपाकोमहाबलः ॥ ७७॥ रोहमछली-सिवार खाती है आर निद्रा रहित है इसलिये इसका मांस दपिन, लघुपाकी और अत्यन्त वलकारक है ॥ ७७ ॥
गुरूष्णमधुरावल्याबृंहणाःपवनापहाः।
मत्स्याःस्निग्धाश्चवृष्याश्चवहुदोषाःप्रकीर्तिताः ॥ ७॥ अन्य मछलियां-भारी, उष्ण, मधुर, वलकारक, वृंहण, वातनाशक, स्निग्ध, वीर्यवर्द्धक तथा बहुतेरे दोषोंको करनेवाली होती हैं ॥ ७८ ।।
- कछुएक मांसका गुण। वल्योवातहरोवृष्यश्चक्षुष्योबलवर्द्धनः ।
मेधास्मृतिकर पथ्यः शोषतः कर्मउच्यते ॥७९॥ कूर्मका मांस-बलकारक, वातनाशक, वीर्यवर्द्धक, नेत्रोंको हितकारी, मेधा और स्मृतिका बढानेवाला; पथ्य एवम् शोषनाशक होताह ॥ ७९ ॥
स्नेहनंबृहणंवृष्यंश्रमनमानलापहम् ।
वराहपिशितंवल्यंरोचनंस्वेदनंगुरु ॥ ८०॥ ' सूअरका मांस-स्नेहन, बृहण, वीर्यवर्धक,श्रमनाशक,वातहर,बलवर्धक,रुचिका: रक, स्वेदजनक एवम् भारी होताहै.॥ ८॥
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(३३२.
चरकसंहिता-भाल्टी।
गवयमांसका गुण । गवयंकेवलेवातेपीनसेविषमज्वरे।
शुष्ककासश्रमात्यग्निमांसक्षयहितश्चयत् ॥ ८१॥ गयंका मांस-जिस जगह केवल वात ही प्रधान हो और कफ तथा पित्त न हो एवम् प्रतिश्याय एवम् विषमज्वरमें सूखी खांसी,भ्रम, भस्मकाग्नि और यक्ष्मा 'हितकारी होताहै ॥ ८१ ॥
____ महिषमांसका गुण। स्निग्धोष्णमधुरवृष्यमाहिषगुरुतर्पणम् ।
दाढयवृहत्त्वमुत्साहस्वप्नाञ्चजनयत्यपि ॥ ८२॥ भैसेका मांस-चिकना, उष्ण, मधुर, वृष्य, बृहण, शरीरको दृढ करनेवाला एवम् बृहत्व, साहस, निद्रा इनको उत्पन्न करनेवाला होताहै ॥ ८२॥
अण्डोंके गुण । धार्तराष्ट्रचकोराणांदक्षाणांशिखिनामपि । चटकानाञ्चयानि स्युरण्डानिचहितानिच ॥ ८३ ॥ रेतःक्षीणेषुकासेषुहृद्रोगेषु क्षतेषु च । मधुराण्यवपाकीनिसद्योवलकराणिच ॥ ८४ ॥ हंस, चकोर, मुर्गा, मोर, चिडे इनके अंडे हृद्रोग और क्षतरोगमें हितकारी हैं तथा मधुर, अविपाकी, शीघ्र वलवर्द्धक होतेहैं ।। ८३ ॥ ८४ ॥
__ मांसकी उत्कृष्टता। शरीरबृंहणनान्यत्दाढ्यमांसाद्विशिष्यते । इतिवर्गस्तृतीयोऽयमांसानांपरिकीर्तितः ॥८५॥
इति मांसवर्गः। जितने प्रकारके पदार्थ शररिको पुष्ट करनेवाले हैं उनमें मांस प्रधान होताहै । इस प्रकार यह मांसवर्गनामक तीसरा वर्ग कथन किया गया ॥ ८५ ॥
अथ शाकवर्गः । पाठातुषाशठीशाकंवास्तुकंसुनिषण्णकम् ।
विद्यायाहित्रिदोषघ्नभिन्नवर्चस्तुवास्तुकम् ॥८६॥ . १-सूत्रस्थाने पच्चविंशेऽध्याय,षड्वंशतितमे सूत्रे अहिततमेषु गोमांसस्य गणना कृता अतः अहित) -तमः गव्यमासो विषमज्वरेप्यहिततम एव परं तथापि गव्यामिति पाठान्तरं दृष्टम् ।
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सूत्रस्थान-अ० २७. पाठा, ऊषा, साठी, सनिषण्ण (चौपतिया शाक) यह सब शाक ग्राही तथा त्रिदोषनाशक हैं और बथुवका शाक मलवेधक और त्रिदोषनाशक होताहै ॥८६॥
__मकोयके शाकका गुण। त्रिदोषशमनीवृष्याकाकमाचीरसायनी।
नात्युष्णशीतवीर्याचभेदनीकुष्ठनाशिनी॥ काकमाची (मकोय ) का शाक त्रिदोषको शान्त करनवाला, वायवद्ध क,रसायन, वीर्यमें न बहुत गर्म और न बहुत शीतल,मलवेधक एवम् कुष्ठनाशक होताहै८७.
राजक्षवकके गुण । राजक्षवकशाकन्तुत्रिदोषशमनलघु।
ग्राहिशस्तंविशेषेणग्रहण्यशोविकारिणाम् ॥ ८८॥ राजक्षवक, जीवक, सौं, दुग्धिकाका शाक त्रिदोषको शान्त करनेवाला हलका विशेषकर संग्रहणी और अर्शरोगमें हितकारी है ॥ ८८ ॥
कालशाक करालशाक। कालशाकन्तुकटुकंदीपनंगरशोफजित् ।
लघूष्णवातलंरक्षंकरालंशाकमुच्यते ॥ ८९॥ कालशाक (नाडीका शाक)--कटु, दीपन,विषविकार तथा सूजनको नष्ट करने वाला होताह । करालशाक ( काली तुलसीका शाक ) हलका, उष्ण, वातकारक. तथा रूक्ष होताहै ॥ ८९ ॥
चांगेरीके गुण । दीपनीचोष्णवीर्याचग्राहिणीकफमारुते।
प्रशस्यतेऽम्लचाङ्गेरीग्रहण्यशोहिताचसा ॥ ९०॥ अम्लचांगेरी (चूका) का शाक अग्निदीपन,उष्णवीर्य, ग्राही तथा कफ और वायुके रोगोंमें, ग्रहणीमें एवम् अर्शरोगमें हितकारी होताहै ॥९॥
पोईका शाक। मधुरामधुरापाकभेदनीश्लेष्मवर्द्धिनी।
वृष्यास्निग्धाचशीताचमदनीचाप्युपोदका ॥ ९१॥ उपोदकी (पोई ) का शाक मधुर, पाकमें भी मधुर, मलवेधक, कफवर्धक,. वृष्य, स्निग्ध, शीतल एवम् मदविनाशक होताहै ॥ ९१ ॥
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चरकसंहिता-भा० टी० । . चौलाईका शाक। रूक्षोमदविषनश्चप्रशस्तोरक्तपित्तनाम् ।
मधुरोमधुरःपाकेशीतलस्तण्डुलीयकः ॥ ९२॥ चौलाईका शाक रूक्ष, मदविकार तथा विषविकारनाशक, रक्तपित्तमें हितकारी, रस तथा पाकमें मधुर एवम् शीतल होताहै ॥ ९२॥
मण्डूकपर्यादिशाकोंके गुण । . मण्डूकपर्णीवेत्रागंकुचेलावनतिक्तकम् । कोटकावल्गुजको पटोलंशकुलादनी।वृषपुष्पाणिशाष्टिाकेवूकंसकटिल्लकम॥९३॥ नाडीकलायंगोजिह्वावा कंतिलपर्णिका । कुलकंकर्कशनिम्बं
शाकंपर्पटकञ्चयत् । कफपित्तहरांतिक्तंशीतंकटाविपच्यते॥१४॥ - मण् कपर्णी (ब्राह्मी ) वेतकी कोपल,कुचेला (विद्धकर्णी ), वनतिक्तक,ककोडाके फल, वल्गुज (बनमूल ), पटोल, शकुलादानी (कंचटशाक ), वृष ( अडूसा या ऋषभक) के फूल,शारैष्ठा (महाकरंज ), केबूक, करैला, नाडी, मटर, गोभी, वडीकटेरीके फल, तिलपर्णी, कुलक ( करैलीकी जाति),छोटा ककौडा, नीम, पर्पट ये सव कफपित्तनाशक, कडुए, शीतल एवम् पाकमें कटु होतेहैं ॥ ९३ ॥ ९४ ॥
सूप्य शाकोंके गुण । सर्वाणिसूप्यशाकानिफञ्जीचिल्लीकतुम्बुकः ॥ आलुकानिचसर्वाणिसपनाणिकटिञ्जरः । शणशाल्मलिपुष्पाणि कर्बुदारः सुवर्चला ॥ ९५ ॥निष्पावःकोविदारश्चपत्तुरश्चाखुपर्णिका । कुमारजीवोलोहाकपालङ्कयामारिषस्तथा ॥ ९६ ॥ कलम्बोनालिकाश्मयुःकुसुम्भवृकधूमको । लक्ष्मणश्चप्रपुन्नाडोनलिनीकाकुवेरकः ॥ ९७ ॥लोणिकायवशाकञ्चकूष्माण्डकमवल्गुजः। यातुकःशालकल्याणीत्रिपर्णीपीलुपर्णिका ॥ ॥९८ ॥ शाकंगुरुचरूक्षञ्चप्रायोविष्टभ्यजाति । मधुरंशीतवीर्यञ्चपुरीषस्यचभेदनम् ॥ ९९ ॥ । सब प्रकारके सूप्यशाक (मटर, सेम आदि ), फंजी, चिल्लिक, तुंवा, सब प्रकारके आलू तथा आलुओंके पत्र, कटिंजर, सण तथा सेमरके फूल, सफेद कचनारकी कली, सुवर्चला ( हुलहुल), सेमरके फूल, लालकचनार,पत्तूर, मूसाकर्णी,
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सूत्रस्थान-अ० २७, . जीवकशाक, नाडीशाक, पालक, रामदानेका शाक ( लालपत्तेवाला बडावाथु ), कलाचशाक, नालिकाशाक, स्मर्यु (कौंचकीफलीका शाक) काम, वृकधूमक, लक्ष्मणा, पंमार (पनवाड) कमलकी डण्डी, शहतूत, सलोनक, यवशाक, पेठा, बावची, श्वेत शालपर्णी, जीवन्ती, हंसपदी, पीलुपी इन सबके शाक.गुरु, रूक्ष, देरमें पचनेवाले,मीठे शीतवीर्य तथा मलवधक होतेहैं ॥ ९५-९९ ॥
शाकोंकी साधारण विधि।। स्विन्नंनिष्पीडितरसंस्नेहाढ्यंतत्प्रशस्यते । शणस्यकोविदारस्य कर्बुदारस्यशाल्मलेः ॥ १००॥ पुष्पंग्राहिप्रशस्तञ्चरक्तपित्तेविशेषतः॥१०१॥ सव सागोंको पहिले उबालकर निचोड देना चाहिये. फिर उसको घी आदिमें सिद्ध कर खाना उत्तम कहाहै । सणके फूल, दोनों प्रकारोंके कचनारोंके फूल, सेमलके फूल ये सब-संग्राही तथा रक्तपित्तमें विशेष हितकारी होतेहैं१००॥१०१॥
अन्य नानाविध शाकोंके गुण । न्यग्रोधोदुम्बराश्वत्थप्लक्षपद्मादिपल्लवाः कषायाःस्तम्भनाः शीताहिताःपित्तातिसारिणाम्॥ १०२ ॥ वायुंवत्सादनीहन्याकफंगण्डीरचित्रको।श्रेयसीबिल्वपर्णीचबिल्वपत्रन्तुवातनुत् । भाण्डीशतावरीशाकंबलाजीवन्तिजञ्चयत् ॥ १०३ ॥पर्वण्याः पर्वपुष्प्याश्चवातपित्तहरंस्मृतम्। लघुभिन्नशकृत्तिक्तंलागुलक्युरुवूकयोः॥ १०४ ॥ बड़, गूलर, पीपल, पिलखन और कमल आदिकोंके पत्र-कसैले, स्तम्भनकर्ता, शीतवीर्य तथा पित्तके अतिसारवालोंको हितकारक होतेहैं। गिलोयके पत्रोंका शाक वातनाशक होताहै। गण्डीर और चित्रकके पत्रोंका शाक कफनाशक होताहै। गजपीपल और बिल्वपर्णी तथा वेलके पत्र वातनाशक होतेहैं । भाण्डीशाक तथा शताचरीका शाक, बलाकाशाक, जीवन्तीका शाक, पर्वणीशाक, पपुष्प यह सब वात, पित्तनाशक होते हैं । लांगुलीके पत्र और एरंडके पत्र हल्के और मलवेधक होते हैं। (लांगुलीका कंद तक्षिण विष होता है) ॥ १०२॥ १०३ ॥ १०४ ॥
तिलवेतसशाकञ्चशाकंपञ्चांगुलस्यवा । वातलंकटुतिक्ताम्लमधोमार्गप्रवर्तकम् ॥ १०५ ॥ रूक्षामलमुष्णकौसुम्भकफनंपित्तवर्द्धनम् । त्रपुसैर्वारुकस्वादुगुरुविष्टम्भिशीतलम् ॥ १०६ ॥
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(३३६.) चरकसंहिता-भा० टी०। मुखप्रियश्चरूक्षञ्चमूत्रलंत्रपुसंस्वति । एवारुकञ्चसंपक्कंदाह- .. तृष्णाक्लमार्त्तिनुत् । वर्षोभेदीन्यलावूनिरूक्षशीतगुरूणि च॥ १०७॥ तिलशाक तथा बेतका शाक तथा क्षुद्र एरंडका शाक वातल,कटु, तिक्त,अम्ल और मलको निकालनेवाला है ॥ १०५ ॥ कुसुम्भेका शाक-रूक्ष, अम्ल, उष्ण, कफनाशक तथा पित्तवर्द्धक होताहै । खीरे और ककडीका शाक- मधुर, भारी, विष्टम्भकारक, शीतल, सुस्वादु और रूक्ष होताहै । इनमें खीरा बहुत मूत्रको लानेवाला और पकी हुई आर्या ककडी-दाह, तृषा और बलगमकी पीडाको शान्तः करती है । तुवेका शाक मलवेधक,रूक्ष और भारी होताहै ॥ १०६ ॥ १०७ ॥ चिभिटयारुकेतद्वद्वयॊभेदहितेतुत। कूष्माण्डमुक्तंसक्षारंमधुराम्लंतथालघु ॥ १०८ ॥ स्रष्टमूत्रपूरीषञ्चसर्वदोषनिबर्हणम् । केलूटश्चकदम्बञ्चनदीमाषकमैन्दुकम् ॥ विषदंगुरुशीतंचसमभिष्यन्दिचोच्यते ॥ १०९ ॥ चिरभिट (चचेंड) और त—जका शाक- मलको वेधन करनेवाला और हितकर्ता .. होताहै । कुंभडा (कोहडा और कद्दू) का शाक:मधुर, अम्ल, क्षार एवं हलका होताहै तथा मलमूत्रको निकालनेवाला और सर्वदोषोंको हरनेवाला होताहै । केलूट, कदम्ब, नदीमाष, ऐन्दुक ये सव--विशद, भारी, शीतल तथा अभिष्यन्दी हात. हैं॥ १०८ ॥ १०९॥
उत्पलानिकषायाणिपित्तरक्तहराणिच । तथातालप्रलम्बञ्च उरःक्षतरुजापहम् ॥११०॥ खजूरंतालशस्यश्चरक्तपित्तक्षयापहम् ॥ भरूटविसशालूकक्रौञ्चादनकशेरुकम् । शृङ्गाटकंकलोड्यञ्चगुरुविष्टम्भिशीतलम् ॥ १११ ॥ कुमुदोत्पलनालास्तु सपुष्पाःसफलाःस्मृताः। शीताःस्वादुकषायास्तुकफमारुतकोपनाः ॥ ११२॥
सब प्रकारके कमल- कसैले और रक्तपित्त नाशक होते हैं । तालजटा (ताडकी । कोमल जटा ) उरःक्षत विकारको शान्त करताह । खजूरकी कोंपल-रक्तपित्त और क्षयको नष्ट करती है ॥ ११०॥ कहारका कंद, भिस, शालूक, पद्मबीज, कसेरू, सिंघाडा; छोटा कमलकंद,ये सब भारी,विष्टंम्भकती और शीतल होते हैं॥११॥
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सूत्रस्थान-अ० २७... (३३७). कुमुद और उत्पलकी नाल और इनके फूल, फल शीतल, मधुर, कषाय तथा कफ वातको कुपित करनेवाले होते हैं ॥ ११२ ॥
‘कषायमीषाविष्टम्भिरक्तपित्तहरंस्मृतम्।
पौष्करन्तुभवेदीजमधुररसपाकयोः॥ ११३ ॥ पुष्करनामक कमलके बीज और फूल तथा नाल--विष्टम्भकर्ता, रक्तपित्तनाशक, रस तथा विपाकमें मधुर होते हैं ॥ ११३ ॥ . . • . बल्यःशीतोगुरुःस्निग्धस्तर्पणोबृंहणात्मकः। . . .
वातपित्तहर:स्वादुर्वृष्योमुजातकःस्मृतः॥ ११४ ॥" मुंजातक बलकारक, शीतल, गुरु,स्निग्ध, व्रहण,तर्पण, वातपित्तनाशक, स्वादु और वीर्यवर्द्धक होताहै ॥ ११४ ॥
. . विदारीकन्दके गुण जीवनोश्रृंहणोवृष्यःकण्ठयःशस्तोरसायने विदारीकन्दोबल्यश्वमूत्रलःस्वादुशीतलः । अम्लीकायाःस्मृतःकन्दोग्रहण्यशोंहितालघुः॥. ११५॥नात्युष्णःकफ़वांतनोग्राहीशस्तोमदात्यय। त्रिदोषंबद्धविण्मू–सार्षपशाकमुच्यते ॥ ११६ ॥ विदारीकंद जीवन, वृंहण,वीर्यवर्द्धक,स्वरकारक और रसायन में श्रेष्ठ, बलकारक, मुत्र लानेवाला, मधुर, शीतल, अम्लीका कन्द-ग्रहणों और अर्शमें हितकारी है, हल्का है, अधिक गर्म नहीं है, कफवातको हरताहै, संग्राही है, मदात्ययरोगमें. हितकारक है। सरसोंका शाक-तीनों दोषोंको कुपित करनेवाला,मलमूत्रको बांधः नेवाला होता है ॥ ११५ ॥ ११६.॥ .
तद्वत्पिण्डालुकविद्यात्कन्दत्वाच्चमुखप्रियमासर्पच्छत्रकवर्ध्यास्तुबह्वयोन्यच्छत्रजातयः ॥ ११७ ॥ शीता पीनसकय॑श्चमधुरागुऱ्याएवच । चतुर्थःशाकवोऽयंपत्रकन्दफलाश्रयः॥ ११८ ॥
इतिशाकवर्गः। पिंडआलूका शाक भी सरसोंके समान गुणवाला है. परंतु खानेमें इसका कंद मुखको प्रिय मालुम होताहै । सर्पछत्रकके सिवाय अन्य सब प्रकारके छत्रजाति. (बरसातमें लकड़ी तथा जमीनपर उत्पन्न होते हैं) शीतल, प्रतिश्याय कर्ता,मधुर तथा भारी होते हैं । इस प्रकार शाकवंर्गनामक पत्र, कन्द, फल. शांकाश्रित यह . चौथा वर्ग समाप्त हुआ ॥ ११७ ॥ ११ ॥
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(३३८). चरकसंहिता-मा० टी०।
अथफलवर्गः।
दाखके गुण । . . . तृष्णादाहज्वरश्वासरक्तपित्तक्षतक्षयान् । वातपित्तमुदावर्त स्वरभेदमदात्ययम् ॥११९॥ तिक्तास्यतामास्यशोषकाशञ्चाशव्यपोहति । मृद्वीकाव्हणीवृष्यामधुरस्निग्धशीतला ॥१२०॥ मुनक्का--तृषा, दाह,ज्वर, श्वास, रक्तपित्त, क्षत, क्षय, वातपित्त, उदावर्त, स्वरभेद, मदात्यय, सुखकी कडुआहट,शोष,खांसी इन सवको नष्ट करताहै तथा पुष्टिकारक, वीर्यवर्द्धक, मधुर, स्निग्ध और शीतल है॥ ११९ ॥ १२० ।।
खजूरके गुण। मधुरबृंहणंवृष्यंखर्जूरंगुरुशीतलम् ।
क्षयेऽभिघातेदाहेचवातपित्तेचतद्धितम् १२१ ॥ खजूरका फल--मधुर, पुष्टिकारक, वीर्यवर्द्धक, भारी, शीतल होताहै तथा क्षय, अभिघात, दाह और वातपित्तमें हितकारक होताहै ॥ १२१ ॥
_ फल्गु-फाल मा-महुआ। तर्पणबृहणफल्गुगुरुविष्टम्भिशतिलम् ।
परूषकमधूकञ्चवातपित्तेचशस्यते ॥ १२२॥ कठूमरका फल-तृप्तिकारक, बृहण, भारी,विष्टम्भी और शीतल होताहै।फालसा और महुआ वातपित्तमें हितकारी होते हैं ॥ १२२ ॥
. आंवडेके गुण । मधुरंबृहणंबल्यमाम्रातंतर्पणंगुरु।।
सस्नेहंश्लेष्मलंशीतंवृष्यंविष्टभ्यजीति ॥ १२३ ॥ पका हुआ आमडाका फल पुष्टिकारक, बलवर्द्धक, तर्पण, मीठा, कफकारक, शीतल, वृष्य और विष्टम्भ होकर पाचन होनेवाला है ॥ १२३ ॥
ताल-नारियल । तालशस्यानिसिद्धानिनारिकेलफलानिच ।
बृहणस्निग्धशीतानिबल्यानमधुराणिच ॥ १२४ ॥ सिद्ध किया ताडका फल.और नारियलका फल-पुष्टिकर्ता,चिकना,शीतल,बलकारक और मधुर होताहै ॥ १२४ ॥
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सूत्रस्थान-अ० २७.
(३३९)
भव्यके गुण । . मधुरामलकषायञ्चविष्टम्भिगुरुशीतलम्। .
पित्तश्लेष्महरंभव्यंग्राहिवक्त्रविशोधनम् ॥१२५॥ : भव्यफल-मीठा, खट्टा, कसैला, विष्टम्भकर्ता, शीतल, भारी, पिचकफनाशक, संग्राही और मुखका शोधनकर्ता है ॥ १२५ ॥
. कच्चे फलोंके गुण।। अम्लंपरूषकंद्राक्षाबदाण्यारुकाणिच ।
पित्तश्लेष्मप्रकोपीणिकर्कन्धुलकुचान्यपि॥१२६॥ खट्टे फालसा, दाख, बेर,आड ,वनवेर,वडहर- यह सब पित्त, कफको कुपित करनेवाले होते हैं ॥ १२६ ॥
पके आरुकके गुण । नात्युष्णंगुरुसम्पर्कस्वादुप्रायमुखप्रियम् ।
बृहणंजीयतिक्षिप्रंनातिदोषठमारकम् ॥ १२७ ॥ पकाहुआ मीठा आडू. अधिक गर्म नहीं है,मीठा है, मुखको प्रिय है,पुष्टिकारक है,शीघ्र पचनेवाला है तथा दोषोंको अधिक कुपित करनेवाला नहीं है ।। १२७ ॥
पालेक्तके गुण । द्विविधशीतमुष्णश्चमधुरञ्चाम्लमेवच।
गुरुपालेवतंज्ञेयमरुच्यत्यग्निनाशनम् ॥ १२८ ॥ पारावतफल-शीतल और उष्ण दो प्रकारका होताहै । जो मीठा होताहै वह शीतल है और खट्टा उष्ण होता है । यह दोनों प्रकारके अरुचि तथा भस्मका निको नष्ट करनेवाले हैं ।। १२८ ॥
खम्भारी-तूद। भव्यादल्पान्तरगुणकाश्मर्यफलमुच्यते ।
तथैवाल्पान्तरगुणन्तुदमम्लंपरूषकम् ॥ १२९॥ काश्मरी (कंभारी) फल-भव्यफलसे गुणोंमें किंचित् न्यून होताहै एवम् खटा शहतूत फालसेसे गुणोंमें न्यून होताहै ॥ १२९ ॥
टङ्कके गुण । . . कषायमधुरंटतवातलं गुरुशीतलम् । कपित्यविषकण्ठनमा- .
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(३४०) . चरकसंहिता-भा० टी० मंसंग्राहिवातलम्॥ १३० ॥ मधुराम्लंकषायत्वात्सौगन्ध्या
चरुचिप्रदम् । परिपक्कंसदोषघ्नविषघ्नंग्राहिगुर्वपि ॥ १३१ ॥ टंक ( नील कपित्य ) पहाडी कच्चा कैथका फल-कषाय, वातकारक, भारी और शीतल होताहै । कैथका फल-विषनाशक, स्वरको बिगाडनेवाला, संग्राही और वातकारक, होताहै । पकाहुआ कैथका फल-मधुर, अम्ल, कषाय, सुगंधयुक्त . होनेसे रुचिकारकत्रिदोषनाशक,विषनाशक,संग्राही औरभारी होताहै१३०॥१३॥
बिल्वके गुण ।। दुर्जरबिल्वसिद्धन्तुदोषलंपूतिमारुतम् ।
स्निग्धोष्णतीक्ष्णंतहालंदीपनंकफवातजित् ॥ १३२ ॥ पकाहुआ बिल्वफल-दुर्जर, दोषयुक्त, वायुमें गन्धका फैलानेवाला, चिकना : और गर्म और तीक्ष्ण होता है। कच्चा बिल्वफल-दीपन और कफ वातको जीतने वाला होता है ॥ १३२॥
आमके गुण। वातपित्तकरंबालमापूर्णपित्तवर्द्धनम् ।
पकमा जयेद्वायुमांसशुक्रबलप्रदम् ॥ १३३॥ बहुत छोटा आम्रका फल रक्तपित्तको करनेवाला होता है । कच्चा आमका फल पित्तको कुपित करताहै । पकाहुआ आमका फल वातनाशक, मांसवर्द्धक, शुक्रजनक तथा बलकारक होता है ॥ १३३ ॥
जामुनके गुण ।। कषायमधुरप्रायंगुरुविष्टम्भिशीतलम् ।
जाम्बवंकफपित्तनग्राहिवातकरपरम् ॥१३४॥ पकेहुए जामुन-कषाय, मधुर, भारी, विष्टम्भकारक, शीतल, कफपित्तनाशक, संग्राही और वायुको कुपित करते हैं ॥ १३४ ॥ .
बेरके गुण ।. मधुरंबदरंस्निग्धंभेदनंवातपित्तजित् । तच्छष्कंकफवातघ्नंपित्तेनचविरुध्यते । कषायमधुरशीतग्राहिसिञ्चितिकाफलम्॥१३५॥ पके हुए बैर-स्निग्ध, मधुर, भेदनकर्ता, वातपित्तनाशक होते हैं सूखेहुए बेर बात और कफको हरते हैं तथा पित्तके विरोधी नहीं हैं सिंचितिका फल-कषाय, मधुर, शीतल और संग्राही होताहै ॥ १३५॥
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सूत्रस्थान-अ० २७. 'गङ्गेरी-करील-विम्बी-तोदन-धन्वन । . : . गाङ्गेरुकीकरिश्चाबम्बीतोदनधन्वनम् ।
मधुरंसकषायञ्चशीतपित्तकफापहम्॥ १३६ ॥ . गांगेरुकी (नागबला) का फल और करीरके फल तथा कन्दूरी, तोदन, धन्वन-यह सब फल मधुर किंचित् कषाय, शीतल और पित्तकफको हरनेवाले हैं.॥ १३६ ॥
खिरनी:-पनस केला-चिरौंजी। क्षीरिकंपनसंमोचंराजादनफलानिच।
स्वादनिसकषायाणिस्निग्धशीतगुरूणिच ॥ १३७ ॥ खिरनी, पकाहुआ कटहर, केलेकी फली, चिरौंजी ये सव मीठे,कषाय, स्निग्ध शीतल और भारी होते हैं ॥ १३७ ॥
लवलीके गुण । कषायविषदत्वाचसौगन्ध्याचरुचिप्रदम् ।
अवदंशक्षमरुक्षवातलंलवलीफलम् ॥ १३८॥ लवलीके फल कषाय और विषद होनेसे तथा सुगंधयुक्त होनेसे रुचिकारक होतेहैं तथा चटनी आदिमें मिलाने योग्य, रूक्ष तथा वातकारक होतेहैं ॥ १३८॥
कदम्बादिके गुण । ' नीपंसभार्गकंपीलुतृणशून्यंविककृतम्।
प्राचीनामलकञ्चैवदोषनंगरहारिच ॥ १३९ ॥ कदम्ब, भांर्गीके फल, पीलूफल, केतकीफल, विकंकतके फल, प्राचीनाम्लके फल यह सब दोषनाशक तथा गरनाशक होतेहैं ॥१३१ ॥
गोंदीफलआदिका गुण । इंगुदंतिक्तमधुरंस्निग्धोष्णंकफवातजित् ।
तिन्दुककफपित्तनंकषायमधुरंलघु ॥१४० ॥ गोंदनीके फल कड्डए, मधुर, चिकने, गर्म एवम् कफ और वातको जीतनेवाले होतेहैं । तिंदुकफल ( तेंदु )कफपित्तनाशक,कषाय,मधुर और हलके होतेहैं।१४०॥
आंवलेका गुण । .. विद्यादामलकेसर्वानसान्लवणवर्जितान् ।
स्वेदमेदाकफोल्लेदपित्तरोगविनाशनम् ॥ ॥ १४१ ॥
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(३४२) चरकसंहिता-भा० टी०।
आँवलेमें लवणरसके विना, मीठा, खट्टा, कडुआ, कसैला,चरपरा ये पांच रस हैं। आँवला- कफके उत्क्लेशको और पित्तविकारोंको नष्ट करताहै। तथा मेदरोग और आधिक पसीना आना इनको भी दूर करताहै ॥ १४१॥
बहेडेके गुण। रूक्षस्वादुकषायाम्लंकफपित्तहरंपरम् ।
रसासृङमांसमेदोजान्दोषान्हन्तिविभीतकम् ॥ १४२ ॥ बहेडा-रूक्ष, स्वादु, कषाय, अम्ल एवम् कफ,पित्तको अत्यन्त नष्ट करनेवाला. तथा रस, रक्त, मांस और मेदके सम्पूर्ण दोषोंको नष्ट करताहै ॥ १४२ ॥ ·
अनारका गुण । अम्लंकषायमधुरंवातघ्नंग्राहिदीपनम् ।
स्निग्धोष्णंदाडिमंहृद्यंकफपित्ताविरोधिच ॥ १४३॥ अनार खट्टा, कषाय, मधुर, वातघ्न, ग्राही, दीपन, स्निग्ध, उष्ण,हृदयको प्रिया तथा कफ और पित्तसे विरोध नहीं करनेवाला होताहै ॥ १४३ ॥
रूक्षाम्लंदाडिमंयत्तुतत्पित्तानिलकोपनम्।
मधुरंपित्तनुत्तेषांतद्धिदाडिममुत्तमम् ॥ १४४ ॥ खट्टा अनार-रूक्ष, पित्तजनक और वातको कुपित करनेवाला होताहै । मठिग अनार-पित्तको नष्ट करताहै । इन दोनों प्रकारके अनारोंमें मीठा अनार उत्तमः होताहै ॥ १४४॥
__ वृक्षाम्लके गुण । • वृक्षाम्लंग्राहिरूक्षोष्णंवातश्लेष्मणिशस्यते ।
अम्लिकायाःफलंशुष्कंतस्मादल्पान्तरंगुणैः ॥ १४५॥ तितिडीक-संग्राही, रूक्ष, गर्म एवम् वात, कफको नाश करनेवाला है । पकाः दुआ इमलीका फल तितिडीकसे किंचित् हीनगुण होताहै ॥ १५ ॥
अमलवेत तथा बिजौरेके गुण । गुणैस्तैरेवसंयुक्तंभेदनन्त्वम्लवेतसम्। शूलेरुचौविबन्धेचमन्देनौमद्यविक्षये ॥ १४६ ॥ हिकाकासेचश्वासेचवम्यांवोंगदेषुच । वातश्लेष्मसमुत्थेषुसवतेषुदिश्यते ॥ १४७ ॥ केशरंमातुलुङ्गस्यलघुशीतमतोऽन्यथा । रोचनोदीपनोहृद्य:
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सूत्रस्थान-अ० २७.
(३४३) सुगन्धिस्त्वग्निवर्जितः । कचुरःकफवातनःश्वासहिकार्शसां हितः ॥ १४८॥
अम्लवेत-तितिडीकके समान गुणवाला तथा मलको भेदन करनेवाला होताहै विजौरेकी केशर-शूल, अरुचि, विबंध, मंदाग्नि, मदात्यय, हिचकी, श्वास,खांसी, वमन, मलरोग तथा वात और कफसे उत्पन्न भये संपूर्णरोग इन सबमें हितकारक. है तथा शीतल और हल्की होतीहै । बिजौरेकी केशरके सिवाय छिलका आदि अन्य २ अंगोंमें अन्य गुण होतेहैं। छिला हुआ कचूरका फल-शुचिकारक, अग्निदीपक हृदयको प्रिय, सुगंधित, कफ, वातको नष्ट करनेवाला, हिचकी और बवासीरमें हितकारक होताहै ॥ १४६ ॥ १४७ ॥ १४८॥
नारंगीके गुण । मधुरंकिञ्चिदम्लञ्चहृद्यंभक्तप्ररोचनम् ।
दुर्जरंवातशमनंनागरङ्गफलंगुरु ॥ १४९ ॥ नारंगीका फल-दुर्जर, वातनाशक, भारी, मीठा,किंचित् अम्ल, हृदयको प्रिय तथा भोजनमें रुचिका करनेवाला है ॥ १४९ ॥
वादामादिके गुण । वातामाभिषुकाोटमकूलकनिकोचकाः ।। १५० ॥ गुरूष्णस्निग्धमधुराःसोरुमाणाबलप्रदाः । वातनाव्हणावृष्याकफपित्ताभिवर्द्धनाः ॥ १५१ ॥ वादाम, पिस्ता, अखरोट, मकूलक (किसीके मतमें यह भी अखरोटकी जाति है) निकोचकर चिलगोजा), उरुमाणफल इन सब फलोंकी मज्जा गुरु, उष्ण, स्निग्ध,मधुर. बलवर्द्धक,वातनाशक, पुष्टिकारक, वीर्यवर्द्धक एवम् कफ और पित्तको. बढानेवाली होतीहै ॥ १५० ॥ १५१ ॥
- पियालके गुण । पियालमेषांसशविद्यादौष्णविनागुणैः ।
श्लेष्मलंमधुरंशीतश्लेष्मातकफलंगुरु ॥ १५२ ॥ चिरौंजी गुणोंमें उपरोक्त फलोंकी मज्जाके समान गुणवाली है परन्तु पित्तकों उत्पन्न नहीं करती। लसोढा-कफकारक, मधुर, शीतल और भारी होताहै (खुष्क खांसीको निकालनेवाला है) ॥ १५२ ॥
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.
(३४४)
चरकसंहिता-भा० टी०।
__ अंकोटके गुण। श्लेष्मलंगुरुविष्टम्भिचांकोटफलमनिजित् ।
गुरूष्णमधुररूक्षकेशनंचशमीफलम् ॥ १५३ ॥ . अंकोटफल- कफकारक, भारी, विष्टम्भी एवम् क्षुधानाशक होताहै । ( अंकोट नाम ढेराका है)। शमीफल-भादी, गर्म, मधुर, शीतल एवम् केशोंको नष्ट करने. वाला होताहै। (कोई शमीफलका अर्थ सेमलक फल करतेहैं परन्तु शमी नाम जंडके वृक्षका है ) ॥ १५३ ॥
कंजेके गुण । विष्टम्भयतिकारशंपित्तश्लेष्माविरोधिच । आम्रातकंदन्तशठमम्लंसकरमर्दकम् ॥ १५४ ॥ रक्तपित्तकरंविद्यादैरावतकमेव . च । वातनंदीपनश्चैववाकिंकटुतिक्तकम् ॥ १५५॥ करंजफल-विष्टम्भकर्ता और पित्त,कफसे अविरोधी होताहै। पहाडी अम्बाडा, जंभीरा, करौंदा, ये सव अम्ल, रक्तपित्तकारक होतेहैं एवम् पहाड़ी खट्टे नींबुओंमें भी यही गुण होतेहैं । वार्ताकफल-वातनाशक, दीपन, कटु और तिक्त होताहै । (वार्ताकनाम बैंगनका है परन्तु यह वार्ताक अन्नफल विशेष है ) ॥१५॥१५५॥
पित्तपापडाका गुण । वातलंकफपित्तनविद्यात्पर्पटकीफलम् ।
पित्तश्लेष्मन्नमम्लञ्चवातिकञ्चाक्षिकीफलम् ॥१५६ ॥ पाखरका फल -कफ, पित्तनाशक होताहै । अच्छूका फल (हीहर) पित्त,कफनाशक, खट्टा एवम् वातकारक होताहै ॥ १५६ ॥
मधुराण्यविपाकीनिवातपित्तहराणिच ।
अश्वत्थोदुम्बरप्लक्षन्यग्रोधानांफलानिच ॥१५७॥ . पीपर, गूलर, पिलखन, बड इनके फल मधुर, देरमें परिपक्क होनेवाले तथा वातपित्त हरनेवाले होते हैं । १५७ ॥
भिलावेकी गुठलीके गुण । भल्लातकास्थ्यग्निसमंत्वङ्मांसंस्वादुशीतलम् ॥ १५८ ॥ पञ्चमःफलवगोंऽयमुक्तःप्रायोपयोगिकः ॥१५९ ॥ .
. इति फलवर्गः।
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सूत्रस्थान-अ० २७. . (३४५) भिलावेके फलोंकी मज्जा अग्निके समान गर्म है तथा उसकी छाल और गुदा विपाकमें मधुर तथा शीतल होताहै । भिलावा विना युक्तिसे खाया त्वचा और मांसमें सूजन प्रगट करता है, दांतोंको गिरादेगहै तथा विषके समान है । यदि युक्तिपूर्वक सेवन कियाजाय तो अमृत के समान रसायन होताहै) इस प्रकार उपयोगी फलोंसे युक्त फलवर्ग नामक यह पञ्चमवर्ग कहागया ॥ १५८.॥ १५९५
__ अथ हरितवर्गः।
अदरख सोंठके गुण। रोचनंदीपनंवृष्यमाकंविश्वभेषजम् । ... वातश्लेष्मविबन्धषुरसस्तस्योपदिश्यते ॥ १६०॥
अदरक और सोंठ रुचिकारक, दीपन और वृष्य है । अदरखका रस-वात और कफके विबंधको फाड देताहै ॥ १६० ॥
जमीरीके गुण । रोचनोदीपनस्तीक्ष्णःसुगन्धिर्मुखबोधनः। .
. जम्बीरःकफवातघ्नःक्रिमिनोभुक्तपाचनः ॥ १६१ ॥ __जंभीरी नींबू-रुचिकारक, दीपन, तीक्ष्ण, सुगंधित, मुखको बोधन करनेवाला, कफ और वात तथा कृमियों को नष्ट करनेवाला और भोजन किये आहारको पचानेवाला होताहै ॥ १६१॥ . . .
मूलीके गुण । बालंदोषहरंवृद्धांत्रिदोषमारुतापहम् ।
स्निग्धसिद्धविशुष्कन्तुमूलकंकफवाताजत् ॥ १६२ ॥ कच्चीमूली-त्रिदोषको नष्ट करती है । पकीहुई मूली-त्रिदोषकारक होती है। चिकनाई युक्त सिद्ध किया मूलीका शाक वातनाशक होताहै । सूखी मूली-वात, कफको हरती है ॥ १६२ ॥
तुलसीके गुण । हिक्काकासविषश्वासपार्श्वशूलविनाशनः।
पित्तकृत्कफवातनःसुरसः पूतिगन्धनुत् ॥ १६३ ॥ तुलसीके पत्र-हिचकी, खांसी, विषविकार, श्वास तथा पार्श्वशूलको नष्ट करते हैं। पित्तकारक, कफ, वातनाशक एवम् दुर्गंधनाशक होते हैं । १९३॥
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( ३४६ )
चरकसंहिता - भा० टी० ।
अजवायन आदिके गुण ।
यवानीचार्जकश्चैवशिग्रुशालेयमृष्टकम्
॥
हृद्यान्यास्वादनीयानिपित्तमुत्क्लेशयन्तिच ॥ १६४ ॥
अजवायन, अर्जक (नाजवूं, तुलसीका भेद ) सुहांजनेकी फली, सौंफ, काली सिव- हृदयको प्रिय तथा अन्नमें स्वादके वढानेवाले होते हैं । परन्तु पित्तकों उक्लेशित करते हैं ॥ १६४ ॥
गण्डीरादिके गुण |
गण्डीरोजलपिप्पल्यस्तुम्बुरुःशृङ्गवेरिका ।
तीक्ष्णोष्णकटुरुक्षाणिकफवातहराणिच ॥ १६५ ॥
गण्डीर (सुठियासाग), जलपीपल, काला जीरा, शुंठी ये सब - तीक्ष्ण, उष्ण, कटु, रूक्ष तथा कफ, वातनाशक होते हैं ।॥ १६५ ॥
भूतृणके गुण | पुंस्त्वन्नः कटुरूक्षोष्णो भूतृणोवक्रशोधनः ॥ खराश्वाकफवातघ्नीबस्तिरोगरुजापहा ॥ १६६ ॥
भूतृण (शाक विशेष ) - पुंस्वनाशक, कटु, रूक्ष, उष्ण, और मुखशोधक होताहै । अजमोद कफ, वातनाशक, वस्तिके रोगोंको दूर करनेवाला है ॥ १६६ ॥ धनिये आदिके गुण | धान्यकंचाजगन्धाचसुमुखाश्चेतिरोचनाः ।
सुगंधानातिकटुकादोषानुक्लेशयन्ति ॥ १६७ ॥
धनिया, अजवायन, तुलसी यह सब - अत्यन्त रुचिकारक, सुगंधित, किंचित् कटु, एवम् त्रिदोषको उखाडनेवाले हैं ॥ १६७ ॥
गाजर के गुण । ग्राहीगृञ्जनकस्तीक्ष्णोवातश्लेष्मार्शसांहितः ॥ स्वेदनेऽभ्यवहाय्यैचयोजयेत्तमपित्तिनाम् ॥ १६८ ॥
गुंजन-संग्राही, तीक्ष्ण, वात, कफ एवम् अर्शरोग में हितकारक है । पसीना देनेके लिये और भोजन में इसका उपयोग करे । पित्तकी प्रकृतिवाले मनुष्यों को नहीं खाना चाहिये ॥ १६८ ॥
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सूत्रस्थान - अ० २७.
• प्याजके गुण ।
श्लेष्मलोमारुतन्नश्च पलाण्डुर्नचपित्तनुत् । आहारयोगी बल्यश्च गुरुर्वृष्योऽथरोचनः ॥ १६९ ॥
(३४७.
प्याज - कफकर्ता, वातनाशक, किंचित् पित्तकर्त्ता, आहारमें उपयोगी, बलकारक, भारी, पुष्टिकारक, और गुरु, वृष्य तथा रुचिकारक होता है ॥ १६९ ॥ लहसनके गुण | क्रिमिकुष्ठकिलासघ्नोवातघ्नोगुल्मनाशनः ।
स्निग्धश्चोष्णश्चवृष्यश्चलशुनः कटुकोगुरुः १७० ॥
लहसुन - काम, कुष्ठ, किलास तथा वात और गुल्मको नष्ट करता है एवम् स्निग्ध, उष्ण, वृष्य, कटु और भारी है ॥ १७० ॥
शष्काणिकफवातघ्नान्येतान्येषांफलानितु । हरितानामयं चैषां षष्ठोवर्गः समाप्यते ॥ १७१ ॥ इति हरित वर्गः ।
यह सूखे हुए तथा इनके बीज यह सब - कफ और वायुके नष्ट करनेवाले होते हैं इस प्रकार हरितवर्णनामक यह छठा वग समाप्त हुआ ॥ १७१ ॥
॥ इति हरित वर्गः ॥ अथमद्यवर्गः ।
प्रकृत्यामद्यमम्लोष्णमम्लं चोक्तं विपाकतः । सर्वसामान्यतस्तस्यविशेषउपदेक्ष्यते ॥ १७२ ॥
मद्य - प्रायः स्वभावसे ही खहा और उष्ण होता है और विपाकमें भी अम्ल हीं होता है । पहले सामान्यतासे मद्यके गुणों का वर्णन करचुकेहैं अब विशेषतासे कथन करते हैं ॥ १७२ ॥
सुराके गुण । कृशानांसक्तमूत्राणाग्रहण्यर्शोविकारिणाम् । सुराप्रशस्तावातघ्नस्तन्यरक्तक्षयेषुच ॥ १७३ ॥
"जो मनुष्य- कृश, मूत्ररोगी, अर्शपीडित हों उनको तथा क्षयरोगबालोंकों, एवम्
जिस स्त्रीके स्तनोंमें दूध सूख गया हो उसको, और रक्तक्षयवालेको सुरा (शराब)
पीना हितकारी है । सुरा- वातनाशक होती है ॥ १७३ ॥
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(३४८) चरकसंहिता-भा० टी०
मदिराके गुण । हिकाश्वासप्रतिश्यायकासव ग्रहारुचौ ।
वम्यानाहविबन्धेषुवातघ्नीमदिराहिता॥ १७४ ॥ मद्य-वातनाशक होनेसे हिक्का, श्वास, प्रतिश्याय, खांसी, मलग्रह (कब्जी), अरुचि, वमन, आनाह ( अफारा), विबंध इन रोगोंमें हितकारक होतीहै।१७४॥
जगलमयका गुण । शलप्रवाहिकाटोपकफवातार्शसाहितः।
जगलोयाहिरूक्षोष्णःशोफघ्नोभुक्तपाचनः ॥१७५॥ जगलनामक मद्य--शूल-प्रवाहिका, पेटका फूलना, कफ, वात और अर्शरोगमें हितकारक होतीहै तथा ग्राही, रूक्ष, उष्ण,शोथनाशक और भोजनको पचानेवाली है ॥ १७९॥
__ अरिष्टके गुण। शोफा ग्रहणीदोषपाण्डुरोगारुचिज्वरान् ।
हन्त्यारष्टःकफकृतान्रोगाोचनदीपनः ॥ १७६ ॥ अरिष्ट-- सूजन, अर्श, पांडुरोग, ग्रहणीरोग, अरुचि, ज्वर एवम् कष्टके रोगोंको नष्ट करताहै तथा रोचन, और दीपन है ॥ १७६ ॥
शर्करामद्यके गुण । मुखाप्रियःसुखमदः सुगन्धिर्बस्तिरोगनुत् ।
जरणीयःपरिणतोहृद्योवर्ण्यश्चशार्करः॥ १७७ ॥ खांडसे बना अरिष्ट--मुखप्रिय, सुखका देनेवाला, मदकारक, सुगंधित, वस्तिरोगनाशक,पाचनकर्ता यदि पुराना हो तो हृदयको प्रिय और वर्णकारक होताहै ॥ १७७ ॥.
पक्करसके गुण । रोचनोदीपनोहृद्यःशोषशोफार्शसांहितः ।
स्नेहश्लेष्मविकारघ्नोवय:पक्करसोमतः ॥ १७८॥ . . पक्करसनामक मद्य-रोचक, दीपन, हृद्य, शोषनाशक, सुजन तथा अर्शरोगमें हितकारी है एवम् स्नेहसे और कफसे उत्पन्न हुए रोगोंको नष्ट करताहै तथा वर्णकारक है ॥ १७८॥
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सूत्रस्थान-अ० २७. . (३४९)
शीतरसिकका गुण । जरणीयोविबन्धनःस्वरवर्णावशोधनः॥
लेखनःशीतरसिकोहितःशोफोदरार्शसाम् ॥ १७९ ॥ शतिरसकनामक मद्य-भोजनको जीर्ण करनेवाला,विबंधनाशक,स्वर और वर्णको उत्तम बनानवाला, लेखन,एवम् उदररोग तथा अर्शरोगवालेको हितकारी है१७९॥
गौडके गुण । मृष्टोभिन्नशकतातोगौडस्तर्पणदीपनः।
पाण्डुरोगंव्रणहितादीपनीचाक्षिकीमता ॥ १८० ॥ गुडसे बना मद्य-स्वच्छ, मल और अधोवायुको निकालनेवाला, तृप्तिकारक और दीपन होताहै । बहेडेके संयोगसे बना मद्य पांडुरोग तथा व्रणविकारमें हितः कारी होताहै एवम् अग्निको दीपन करताहै ॥ १८० ।।
सुरासबके गुण । सुरासवस्तीत्रमदोवातनोवदनप्रियः।
छेदीमध्वासंवस्तीक्ष्णोमेरयोमधुरोगुरुः।। १८१॥ सुरासे दोबारसे खींचाहुआ मद्य-तीव्रमदको करनेवाला, वातनाशक, और मुखप्रिय होताहै । मध्वासव अर्थात् शहदसे बनाहुआ मद्य-छेदन और तीक्ष्ण होताहै। मैरेयनामक.मद्य मधुर और भारी होताहै ॥ १८१॥
धातक्यासबके गुण । धातक्यभिषुतोहृद्योरूक्षोरोचनदीपनः।
माध्वीकवन्नचात्युष्णोमृद्वीकेक्षुरसासंवः॥ १८२ ॥ धावेके फूलोंके संयोगसे बना मद्य हृदयको प्रिय, रूक्ष, रुचिकारक और दीपन होताहै ।मुनका और ईखके रससे बना आसव मध्वासबके समान गुणवाला होता है किन्तु अधिक गर्म नहीं होता ॥ १८२ ॥
मधुके गुण । रोचनंदीपनंहृद्यंबल्यंपित्ताविरोधिच । ,
विवन्धनंकफन्नश्चमधुलध्वल्पमारुतम् ॥ १८३॥ मधुनामकमय रुचिकारक, अग्निदीपक, हृदयको प्रिय, बलकारक, पित्तको उत्पन्न करता, विवंधनाशक, कफनाशक, हल्का एवंम् किंचित् वायुकारक होताहै ॥ १८३ ॥
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(३५०)
चरकसंहिता-भा० टी०।
जौ गेहूं आदिका मद्य । सुरासमण्डारूक्षोष्णायवानांवातपित्तला।
गुर्वीजीयतिविष्टायश्लेष्मलस्तुमधूलकः ॥ १०४॥ जवोंसे बनाहुआ मद्य-तथा उसका मंड-रूक्ष, उष्ण,वातपिचकारक, भारी तथा देरमें जीर्ण होनेवाला होताहै । मधूलकनामक मद्य कफकारक होताहै ॥ १८४ ॥
सौवीर-तुषोदकके गुण । दीपनंजरणीयञ्चहृत्पाण्डुक्रिमिरोगनुत् ।
ग्रहण्यशोहितंभदिसौवीरकतुषोदकम् ॥ १८५॥ सौवीरक (कांजीका भेद ) और तुषोदक यह दोनों दीपन, पाचन, हृद्रोग, पांडुरोग एवम् कृमिरोगनाशक, मलवेधक तथा ग्रहणी और अर्शरोगमें हिवका: रक होतेहैं ॥ १८५ ॥
अम्लकांजिकके गुण । दाहज्वरापहंस्पर्शात्पानाद्वातकफापहम् ।
विबन्धनमवित्रंसिदीपनश्चाम्लकाधिकम् ॥ १८६ ॥ खट्टी कांजी-स्पर्शसे दाहज्वरनाशक अर्थात् इसमें कपडा भिगोकर रोगीके शरीरपर लपेटनेसे ज्वरकी दाह शान्त होतीहै,पीनेसे वात,कफ,विबंध,मलबद्ध इनको नष्ट करतीहै तथा अग्निको दीपन करतीहै ॥ १८६ ॥
नवीन और पुराने मद्यके गुण । प्रायशोऽभिनवंमद्यगुरुदोषसमीरणम्॥स्त्रोतसांशोधनंजीर्णदीपनलघुरोचनम् ॥ १८७ ॥हर्षणंप्रीणनंबल्यंभयशोकश्रमापहम् ॥ प्रागल्भ्यवीर्यप्रतिभातुष्टिपुष्टिबलप्रदम् ॥ सात्त्विकैविधिवद्युक्त्यापीतंस्यादमृतयथा। १८८५ वर्गोऽयंसप्तमोमद्यमधिकृत्यप्रकीर्तितः॥ १८९॥ .
इतिमद्यवर्गः॥ प्रायः नवीन मद्य-भारी और दोषकारक होती है। पुरानी मद्य-स्रोतोंको शुद्ध करनेवाली, पाचन, दीपन, हलकी, रुचिकारक, हर्षकर्ता, पुष्टिजनक, बलवईक, भयकारक,शोकोत्पादक,भ्रमनाशक, वकवादकारक, वीर्यवर्द्धक तथा हृष्टपुष्ट करने वाली होतीहै । विधिपूर्वक पीनेसे-अमृतके समान होतीहै । इस प्रकार मद्यवर्ग- . नामक यह सातवाँ वर्ग समाप्त हुआ। इति मद्यवर्गः॥ १८७ ॥ १८८॥ १८९ ॥
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सूत्रस्थान - अ० २७.
अथजलवर्गः ॥
जलमेकविधंसर्वपतत्यैन्द्रंनभस्तलात् ॥ तत्पतत्पतितञ्चैव देशकालावपेक्षते ॥ १९० ॥
वर्षा का जल - आकाशसे गिरताहुआ प्रायः सब जगह एकसे गुणवाला होता है • परन्तु आकाशसे पृथिवीमें गिरनेपर देश, कालकी अपेक्षासे भिन्न २ गुणोंवाला हो जाताहै ॥ १९० ॥
(३५१)
खात्पतत्सोमवाय्वकैःस्पृष्टंकालानुवर्त्तिभिः ॥
शीतोष्णस्निग्धरूक्षाद्यैर्यथा सन्नं महीगुणैः ॥ ११९ ॥
आकाशसे गिरता हुआ जल-शीत, उष्ण, कालानुगामी, चन्द्रमा, वायु, सूर्यके सम्पर्क तथा शीत, उष्ण, स्निग्ध, रूक्षादि पृथिवीके गुणोंसे युक्त होजाता है १९१ ॥ दिव्यजलको षद्गुणत्व |
शीतंशुचिशिवंमृष्टं विमलंलघुषड्गुणम् ॥ प्रकृत्यादिव्यमुदकं भ्रष्टं पात्रमपेक्षते ॥ ९९२ ॥
आकाशका जल-स्वभावसे ही शीतल, स्वच्छ, शुभ, शुद्ध, निर्मल, हलका, मधुरादि षड्गुणसंपन्न होता है । पृथ्वीपर गिरजाने से जैसे स्थान में गिरे वैसे गुणवाला होजाता है ॥ ९९२ ॥
पात्रभेदसे: जलभेद |
श्वेतेकषायं भवतिपाण्डुरे चैवतिक्तकम् । कपिलेकटुकंतोयभूषरेलवणान्वितम् । कटुपर्वतविस्रावेमधुरं कृष्णमृत्तिके ॥१९३॥ एतत्षाड्गुण्यमाख्यातं महीस्थस्यजलस्यहि । तथाव्यक्तरसं विद्यादैन्द्रकारंहिमञ्चतत् ॥ १९४ ॥
वह अन्तरिक्ष से गिरा जल, श्वेत भूमिमें गिरनेसे कषाय होता है । पांडुरभूमिमें ति होता है | कपिलभूमिमें तिक्त होता है । ऊषरभूमिमें लवणान्वित होता है । पर्वगिराहुआ कटु होता है, काली भूमिमें मधुर होता है ॥ ९९३ ॥ इस प्रकार पृथ्वी में गिरे हुए जलके यह ६ गुण कहे हैं । आकाशसे गिराहुआ जल -- अव्यक्त रस, शीतल तथा उत्तम गुणकारी होता है | आकाशके. जलको ऐन्द्रजल कहते हैं ॥ १९४ ॥
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(३५२) चरकसंहिता-भा० टी०।
ऐन्द्रजलका गुण । यदन्तरिक्षात्पततीन्द्रसृष्टञ्चोक्तञ्चपात्रेपरिगृह्यतेऽम्भः। तदैन्द्रमित्येववदन्तिधीरानरेन्द्रपेयंसलिलंप्रधानम् ॥ १९५॥ जो जल आकाशसे गिरताहुआ पृथ्वीपर गिरने न पाये और पात्रमें ही ग्रहण कियाजाये वह जल राजाओंके पीने योग्य सब जलोंमें प्रधान मानाजाताहै॥१९॥
ऋतुभेदसे जलके गुण । ऋतावृताविहाख्याताःसर्वएवाम्भसोगुणाः । ईषत्कषायमधुरं सुसूक्ष्मविषदंलघु ॥१९६॥ अरूक्षमनभिष्यन्दिसर्वपानीयमुत्तमम् ॥ गुर्वभिष्यन्दिपानीयंवार्षिकंमधुरंसरम् ॥ १९७ ॥ ऋतु ऋतुके भेदसे जलोंके अलग गुण कहेजातेहैं । प्रायः सामान्यतासे जल-कि, चित् कसैला, मीठा, सूक्ष्म, विशद, हलका, चिकना, अनभिष्यन्दी इन गुणोंसे युक्त सब प्रकारके जलों में उत्तम होताहै । वर्षाऋतुका जल-भारी, क्लेदकारक,मीठा और दस्तावर होताहै ॥ १९६ ॥ १९७ ॥
तनुलध्वनभिष्यन्दिप्रायःशरदिवर्षति ॥ तत्तुयेसुकुमाराः स्युः स्निग्धभूयिष्ठभोजिनः॥ १९८ ॥ तेषांभक्ष्येचभोज्येचलेह्यपे. येचशस्यते ॥ हेमन्तेसलिंस्निग्धंवृष्यंबल्यंहितगुरु॥ १७७॥ . शरदऋतुका जल-सूक्ष्म, हलका, और क्लेदराहत होताहै इसलिये यह जल सुकुमार पुरुषोंको चिकना और अधिक भोजन करनेवालोंको भक्ष्य, भोज्य, लेह्य. पदार्थों में तथा पीनमें उत्तम कहा है । हेमन्त ऋतुका जल-चिकना, वीर्यवर्द्धक, बलकारक और भारी होताहै ॥ १९८ ॥१९९ ॥ किश्चित्ततोलघुतरंशिशिरेकफवातजित् ॥ कषायमधुरंरूक्षवि- ' द्याद्वासन्तिकंजलम् ॥ग्रैष्मिकत्वनभिष्यन्दिजलमित्येवनिश्चयः ॥२००.॥ . . . . . . . शिशिरऋतुका जल-किंचित् हलका, कफ और वायुको जीतनेवाला होताहै। वसन्त ऋतुका जल--कषाय, मधुर और रूक्ष होताहै । ग्रीष्म ऋतुका.जल-क्लेदा रहित और स्वच्छ होताहै ॥ २०० ॥ .
विभ्रान्तेष्वृतुकालेषुयत्प्रयच्छन्तितोयदाः ॥ . सलिलंतत्तुदोषाययुज्यतेनात्रसंशयः ॥२०१॥
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सूत्रस्थान अ० २७. (३९३) इस प्रकार ऋतुभेदसे जलका निश्चय कियागयाहै । विना ऋतुसे आगे पीछे बाहुआ जल दोषकारक होताहै इसमें संदेह नहीं ॥ २०१॥
राजभीराजमात्रैश्चसुकुमारैश्चमानवैः ॥
संगृहीताःशरद्यापःप्रयोक्तव्याविशेषतः ॥ २०२॥ राजालोग, धनाढ्य पुरुष तथा सुकुमार मनुष्य इनको प्रायः शरदऋतुमें संग्रह किया जल पीना चाहिये ॥ २०२॥
हिमालयकी नदियोंके गुण। नद्यःपाषाणविच्छिन्नविक्षुब्धाविमलोदकाः ॥
हिमवत्प्रभवाःपथ्याःपुण्यादेवर्षिसेविताः ॥ २०३ ॥ हिमालय पर्वतसे निकली भई नदियोंका जल पत्थरों से आहत और विक्षोभित होताहै तथा निर्मल पुण्य देवर्षियोंसे सेवित एवम् पथ्य होता है ।। २०३ ॥
मलयाचलकी नदियोंका-गुण । नद्यःपाषाणसिकतावाहिन्योविमलोदकाः।
मलयप्रभवायाश्चजलंतास्वमृतोपमम् ॥ २०४॥ _ मलयाचलसे निकली हुई नदियोंका जल पत्थर और रेतमें बहता हुआ निर्मल होताहै तथा अमृतके समान होताहै ॥ २०४ ॥
पश्चिमकी ओर बहनेवाली नदियोंका गुण।
पश्चिमाभिमुखायाश्चपथ्यास्तानिर्मलोदकाः। . प्रायोमृदुवहागुव्यायाश्चपूर्वसमुद्रगाः॥ २०५॥ पश्चिमके समुद्रमें गिरनेवाली नदियोंका जल पथ्य तथा निर्मल होताहै । तथा पूर्वके समुद्रमें गिरनवाली नदियोंका जल मृदुगामी और भारी होताहै ॥ २०५ ॥
अन्य नदियोका जल । पारियात्रभवायाश्चविन्ध्यसाभवाश्चयाः ।
शिरोहृद्रोगकुष्ठानांताहेतुःश्लीपदस्यच ॥ २०६॥ पारियात्रपर्वत, विंध्याचल तथा सह्याद्रिसे निकली नदियोंका नल शिरोरोंग, हद्रोग, श्लोपद, तथा कुष्ठोंको करनेवाला होताहै । २०६ ।।
वर्षाती नदियोंका जल। वसुधाकीटसपाखुमलसंदूषितोदकाः । वर्षाजलवहानद्यःसर्वदोषसमीरणाः॥ २०७॥
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( ३५४ )
चरकसंहिता भा० टी० ।
मट्टी तथा कीट, सर्प, और मूषक आदियों के मल इनसे दूषित होने के कारण बरसाती नदियोंका जल सब दोषोंको कुपित करनेवाला होता है ॥ २०७ ॥ कूपादि जलके गुण | वापीकूपतडागोत्थसरःप्रस्रवणादिषु ।
आनूपशैलधन्वानां गुणदोषैर्विभावयेत् ॥ २०८ ॥
बावडी, कूप, तालाब, सूहा, निर्झर और सरोवर आदिकोंका नल - अनूप शैल और जांगल देशके गुणों के समान जानना । अर्थात् जिस देशमें जो बावडी आदिक होंगे वह उसके अनुसार होंगे ॥ २०८ ॥
वर्जित जल । पिच्छिलंक्रिमिलाक्कुन्नं पर्णशैवालकर्द्दमैः ।
विवर्णविरससान्द्रदुर्गन्धिनहितंजलम् ॥ २०९ ॥
जो जल - गाढा, कृमियुक्त, क्लिन्न, पत्र और सिवार तथा कीचडयुक्त, रस और वर्णसे राहत, सान्द्र, आर दुर्गंधित हो उसका कभी सेवन नहीं करना चाहिये२०९ विस्रंत्रिदोषलवणमम्बुयद्वरुणालयम् ।
इत्यम्बुवर्गःप्रोक्तोऽयमष्टमः सुविनिश्चितः ॥ २१० ॥ इति अम्बुवर्गः ।
समुद्रका जल - विस्त्रगंधयुक्त, त्रिदोषकारक, लवणयुक्त होता है । इस प्रकार जल वर्गनामक यह अष्टम वर्ग वर्णन किया गया ॥ २१० ॥
इति जलवर्गः ॥
:
अथ दुग्धवर्गः । गोदुग्धके गुण 1.
स्वादुशीतं मृदुस्निग्धं वहलं श्लक्ष्णापिच्छिलम् । गुरुमन्दंप्रसन्न - ञ्चगव्यं दशगुणंपयः ॥ २१९ ॥ तदेवंगुणमेवौजः सामान्याद
भिवर्द्धयेत् । प्रवरंजीवनीयानां क्षीर मुक्त रसायनम् ॥ २१२ ॥
"
गौका दूध-स्वादु, शीतल, मृदु, स्निग्ध, घन, श्लक्ष्ण, पिच्छिल, गुरु, मंद, पवित्र इन १० गुणोंवाला होता है तथा इन गुणोंसे संपन्न होनेसे और ओजधातुके सात्म्य होनेसे ओजको बढानेवाला, श्रेष्ठ, जीवनदायक ! और रसायन होता है २११॥२१२॥
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सूत्रस्थान-अ० २७. . (३५५)
भैसके दूधके गुण । महिषीणांगुरुतरंगव्याच्छीततरंपयः ।
स्नेहन्यूनमनिद्रायहितमत्यग्नयेचतत् ॥ २१३ ॥ भैसका दूध-गोदूधसे भारी, शीतल, अधिकस्नेहयुक्त; जिनको निद्रा नहींआतीं। और बलवान् अग्निवालोंको परम हितकारक है ॥ २१३॥
. ऊंटनीके दूधका गुण । रूक्षोष्णक्षीरमुट्रीणामीषत्सलवणंलघु ।
शस्तंवातकफानाहकिमिशोफोदरार्शसाम् ॥ २१४॥ : ऊंटनीका दूध-रूक्ष, गर्म,किंचित् नमकीन और हलका होताहै एवम् वात,कफ, अफारा, कृमि, सूजन, उदररोग और बवासीरमें हितकारी होता है ।। २१४॥
घोडीआदिक दूधका गुण । बल्यंस्थैर्यकरसवमुष्णञ्चकशफंपयः ।
साम्लंसलवणंरूक्षशाखावातहरंलघु ॥ २१५ ॥ एक खुरवाले जानवरोंका दूध-जैसे, घोडी, गवा आदिकोंका दूध वलकारक; शरीरको दृढ करनेवाला, उष्ण, किंचित् अम्ल और नमकीन, रूक्ष तथा शाखागत वायु नष्ट करताहै ॥२१५॥
. . बकरीकै दूधका गुण । छागंकषायमधुरशीतग्राहिपयोलघु ।
रक्तपित्तातिसारघ्नंक्षयकासज्वरापहम् ॥ २१६ ॥ . बकरीका दूध-कसैला, मधुर, शीतल, ग्राही और हलका है तथा रक्तपिच और अतिसार, क्षय, कास; ज्वर इनको नष्ट करता है ॥ २१६ ॥
भेड तथा हस्तिनीके दूधका गुण । हिक्काश्वासकरन्तुष्णपित्तश्लेष्मलमाविकम् ।
हस्तिनीनांपयोबल्यंगुरुस्थर्यकरंपरम् ॥ २१७ ।। भेडका दूध-गर्म है तथा पित्तकफकारक, हिचकी तथा श्वासको उत्पन्न करने चाला है । हथिनीका दूध-बलकारक, भारी, शरीरको परमहद्ध करनेवाला होता है ॥ २१७॥
गतीको हट करने बानवरोका पाखावात
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चरकसंहिता-भा. टी.
स्त्रीके दूधका गुण। जीवनंबृहणंसात्म्येस्नेहनमानुषपयः।
नावनंरक्तपित्तेचतर्पणञ्चाक्षिशूलिनाम् ॥ २१८॥ स्त्रीका दूध-जीवनदायक, पुष्टिकारक, सात्म्य, स्नेहन, रकपित्तम नसवार भौर नेत्ररोगमें नेत्रतर्पणके लिये परमहितकारक है ॥ २१८॥
दहीके गुण । रोचनंदीपनंवृष्यस्नेहनंबलवईनम् । पाकेऽम्लमुष्णवातघ्नमइलंबृहणंदधि ॥ २१९ ॥ पीनसेचातिसारेचशीतकविषमज्व. रे। अरुचौमूत्रकृच्छेचकाश्येचदधिशस्यते ॥ २२० ॥ दही-रुचिकारक, दीपन, वीर्यवर्द्धक, स्नेहन, बलवर्द्धक, पाकमें अम्ल, उष्ण, वातनाशक, मंगलकारक, एवम् पुष्टिननक होताहै । दही-प्रतिश्याय, अतिसार, शीतकरोग, विषमज्वर, अरुचि, मूत्रकृच्छ्र, और कृशतारोगेमें परम हिवा कारक है ॥ २१९ ॥ २२० ॥
दहीका निषेध। शरद्ग्रीष्मवसन्तेषुप्रायशोदधिगर्हितम्।
रक्तपित्तकफोत्थेषुविकारेष्वहितञ्चतत् ॥ २२१ ॥ शरद, ग्रीष्म और वसन्तऋतुमें दही नहीं खाना चाहिये । रक्तपित्त और कफसें उत्पन्नभये रोगोंमें भी दहीका खाना उचित नहीं २२१ ॥
मन्दकदहीके गुण। त्रिदोषमन्दकंजातंवातनंदधिशुक्रलम् ।
सररश्लेष्मानिलघ्नस्तुमण्डःस्रोतोविशोधनः ॥ २२२ ॥ मंदक दही अर्थात् विना जमा दूध-त्रिदोषकारक होताहै । दहीकी मलाई वातनाशक और वीर्यवईक होतीहै । दहीका तोड-दस्तावर, कफवातनाशक एवम् रोममार्गको शुद्ध करनेवाला होताहै ॥ २२२॥ के
तक्रके गुण । . शोफाशोंग्रहणीदोषमुत्रकृच्छोदरारुचि।
स्नेहव्यापदिपाण्डुत्वेतकंदद्याद्गरेषुच ॥ २२३ ॥ तक सूजन, अर्श, संग्रहणी, मूत्रकृच्छू, उदररोग, अरुचि, स्नेहपानसे उत्पन्न दुआ दोष, पांडुरोग, गरदोष, इन सबमें सेवन करना योग्य है ॥ २२३ ॥
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'
सूत्रस्थान - अ० २७.
नवनीतके गुण । संग्राहिदीपनंहृद्यं नवनीतनवोद्धृतम् । ग्रहण्यशोविकारघ्नमर्द्दितारुचिनाशनम् ॥ २२४ ॥
ताजा मक्खन-संग्राही, दीपन, हृदयको हितकारी, ग्रहणीरोगनाशक, बवासीरनाशक, अर्दितरोगनाशक एवम् रुचिकारक है ॥ २२४ ॥
(३५७
घृतका गुण ।
स्मृतिबुद्धयनिशुक्रजः कफमेदोविवर्द्धनं । वातपित्तविषोन्मादशोषालक्ष्मीज्वरापहम् ॥ २२५ ॥ सर्व स्नेहोत्तमं शीतं मधुरंरसपाकयोः । सहस्रवीर्य्यविधिभिर्वृतं कर्म्मसहस्रकृत् ॥ २२६ ॥
घृत--स्मृति, बुद्धि, अग्नि, वीर्य, ओज, कफ और मेद इनको बढानेवाला है तथा वात, पित्त, विषविकार, उन्माद, शोष, अलक्ष्मी, स्वरभंग इन सबको नह करता है । संपूर्ण स्नेहों में उत्तम है। रस तथा विपाकमें मधुर है घृत सहस्रों द्रव्योंके संयोगसे अलग २ संस्कार किया सहस्र प्रकारके गुणोंको करताहै ॥२२५॥२२६॥
पुराने घृतका गुण | मदापस्मारमूर्च्छायशोषोन्मादगरज्वरान् ॥ योनिकर्णशिरःशूलंघृतं जीर्णमपोहति ॥ २२७ ॥
पुराना घी-मदरोग, मृगी, मूर्च्छा, शोष, उन्माद, गर, ज्वर, योनि, कान तथा शिरके शूल इन सबको दूर करता है ॥ २२७ ॥
सर्पोष्यजाविमहिषीक्षीरवत्स्वानिनिर्द्दिशेत् ॥ पीयूषोमोरटञ्चैवकिलाटाविविधाश्चये ॥ २२८ ॥ दीप्ताग्नीनामनिद्राणां सर्व एतेसुखप्रदाः ॥ गुरवस्तर्पणावृष्याबृंहणाः पवनापहाः ॥ २२९ ॥
महिषी, भेड, बकरी इनके घृत इनके दूधके समान गुणवाले जानने । पीयूष (तत्काल बिआई - गौका दूध ), मोरट ( रबडी ), किलाट ( खोआ ) ये सब बलवान् अग्निवालेको तथा जिनको निद्रा कम आती हो उनको परम सुखके देनेवाले हैं तथा भारी, तृप्तिकारक, वीर्यवर्द्धक, पुष्टकारक एवम् वातनाशक होते ।। २२८ ।। २२९ ॥
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चरकसंहिता-भा० टी०।
तक्रपिण्डिकाके गुण । विषदागुरवोरक्षाग्राहिणस्तऋपिण्डकाः। . गोरसानामयंवोंनवमःपरिकीर्तितः ॥ २३० ॥
इति गोरसवर्गः। तक्रपिंड (पनीर) स्वच्छ, भारी, रूक्ष और ग्राही होताहै । इस प्रकार दूधवर्ग नामक यह नवम वर्म समाप्त हुआ ॥ २६०॥
अथेक्षुवर्गः ।
ईखके रसका गुण । वृष्य शीतःस्थिरःस्निग्धोबृंहणोमधुरोरसः।
श्लेष्मलोभक्षितस्येक्षोर्यान्त्रिकस्तुविदह्यते ॥ २३१॥ दांतोंसे चूसा हुआ ईखका रस-वीर्यवर्धक, शीतल, दस्तावर, स्निग्ध, पुष्टिकारक, मधुर और कफकारक होताहै । कोल्हूसे निकाला हुभा ईखका रस-विदग्धपाकी होता है । तथा उपरोक्त संपूर्ण गुणयुक्त भी होताहै ॥ २३१ ॥
पौंडा-गन्ना तथा गुडके गुण।। शैत्यात्प्रसादान्माधुर्यात्पौड्काद्वंशकोवरः।
प्रभूतक्रिमिमजासृङ्मेदोमांसकरोगुडः ॥२३२ ॥ पौंडा-शीतल, स्वच्छ और मीठा होता है । वंशक ईख-गुणमें इससे अधिक है। गुड-कृमिकारक, मज्जा, रुधिर, मेद,मांस इनको करनेवाला होताहै ॥२३२॥
क्षुद्रोगुडश्चतुर्भागस्त्रिभागा शोषितः ।
रसोगुरुर्यथापूर्वधौतस्वल्पमलोगुडः ॥ २३३ ॥ गुड पकाते समय जिसमें चारभाग रस हो उस गुडसे जिसमें तीन भाग रस बाकी रहगया वह गुड उससे दो भाग बाकी रहनेवाला तथा जिसमें आधाभाग रस गया हो यह क्रमपूर्वक पहिलेसे दूसरे भारी होतेहैं । शुद्ध किया गुड अल्प मलकारक होताहै ॥ २३३ ॥
मत्स्याण्डिकादिके गुण । ततोमत्स्यण्डिकाखण्डशर्कराविमलाःपरम् । यथायथैषांवैमल्यंभवेच्छैत्यंतथातथा ॥ २३४॥ .
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सूत्रस्थान - अ० २७.
(३५९ ) गुडकी अपेक्षा राव, रावकी अपेक्षा खांड और खांडकी अपेक्षा बूरा तथा इनमें पूर्वकी अपेक्षा जो जितना निर्मल होगा वह गुणमें उतना ही शतिल होता जाताहै ॥ २३४ ॥
गुडशर्करादिके गुण । . वृष्याःक्षीणक्षत हिताः सस्नेहागुडशर्कराः ।
कषायमधुराः शीताः सतिक्तायासशर्कराः ॥ २३५ ॥
गुड शर्करा ( यवनाल शर्करा, क्षीरखिस्त ) - बलकारक, क्षीण और क्षतमें हितकारी तथा स्निग्ध एवम् शुद्धदस्त लानेवाला है । यासशर्करा ( करंजवीत ) - कसैली, मधुर, शीतल, किंचित् तिक्त तथा मलको शोधन करनेवाली होती है ॥ २३५ ॥ मधुशर्कराके गुण | रूक्षावम्यतिसारघ्नीछेदनमधुशर्करा ।
तृष्णा सृपित्तदाहेषु प्रशस्ताः सर्वशर्कराः ॥ २३६ ॥
मधुशर्करा - रूक्ष, वमन और अतिसारनाशक तथा मलको छेदन करनेवाली है। सब प्रकारकी खांड प्यास, रक्तपित्त और दाह इनको शान्त करनेवाली है ॥२३६॥ शहतके भेद | माक्षिकं भ्रामरंक्षौद्रपौत्तिकमधुजातयः ।
माक्षिकंप्रवरं तेषां विशेषाद्द्भ्रामरंगुरु ॥ २३७॥
मधु - माक्षिक, भ्रामर, क्षौद्र; पौत्तिक इन भेदोंसे चार प्रकारका होता है । इन सबमें माक्षिक मधु उत्तम है और भ्रामरमधु सबकी अपेक्षा भारी है ॥ २३७ ॥ शहत के रङ्ग । माक्षिकतैलवर्णस्याच्तेच्छं भ्रामरमुच्यते ।
क्षौद्रन्तु कपिलंविद्याद्धृत वर्णन्तु पौत्तिकम् ॥ २३८ ॥
माक्षिकमधु तैल के वर्णका होता है । भ्रामर मधु श्वेत होता है। क्षौद्रमधु कापे-लवर्णका होता है । पौत्तिकमधु घृतके वर्णका होता है ॥ २३८ ॥
शहतके गुण | वातलंगुरुशीतञ्चरक्तपित्तकफापहम् ।
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सन्धातृच्छेदनं रूक्षकषायमधुरं मधु ॥ २३९ ॥
मधु -वातकारक, भारी, शीतल, रक्तपित्तनाशक, कफनाशक, सन्धानकारक, छेदक, रूक्ष, कषाय और मधुर होता है ॥ २३९ ॥
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(३६०)
चरकसंहिता-भा० टी०। हन्यान्मधूष्णमुष्णातमथवासविषान्वयात् ।
गुरुरूक्षकषायत्वाच्छैत्याच्चाल्पंहितमधु ॥ २४०॥ क्योंकि मक्खियां सब प्रकारके पुष्पोंमेंसे रस लेतीहैं उनमें कुछ ऐसे पुष्प भी होते हैं जो विषके समान हैं इस लिये मधुको विषके सम्पर्क होनेसे गर्म करके गर्म औषधिके साथ गर्मासे व्याकुल मनुष्यों को नहीं खाना चाहिये क्योंकि ऐसा होनेसे मधु विषके समान प्राणनाशक होता है ।। मधु-भारी, रूक्ष, कषाय तथा शीतल होनेसे थोडा खाना हितकारक होता है ।। २४० ॥
मधुके गुण । नातःकष्टतमंकिञ्चिन्मध्वामात्तदिमाधवम्। उपक्रमविरोधित्वात्सयोहन्याद्यथाविषम् ॥ २४१ ॥आमेसोष्णाक्रियाकाऱ्या सामध्वामेविरुध्यते । मध्वामंदारुणंतस्मात्सयोहन्याद्यथा विषम् ॥ २४२॥ मधुके अधिक सेवन करनेसे यदि पेटमें आम प्रगट होजाय तो उसको मध्वाम कहते हैं । इससे बढकर कष्टदायक दूसरा रोग नहीं है । क्योंकि इसकी चिकित्सामें उपक्रम विरोध होनेसे चिकित्सा करना कठिन पडता है। प्रायः आमरोगमें उष्ण- . क्रिया करना आवश्यक होता है वह उष्णक्रिया मध्याममें विरोधी पडती है अतएव यह रोग दारुण और विषके समान प्राणनाशक होता है ॥ २४१ ॥ २४२ ॥
मधुको योगवाहित्व। नानाद्रव्यात्मकत्वाच्चयोगवाहिहिममधु । इतीक्षुविकृतिप्रायोवर्गोऽयंदशमोमतः ॥ २४३॥
इति इक्षुवर्ग: । · मधु अनेक गुणवाले द्रव्योंके पुष्पोंसे संग्रह कियाजाताहै इसलिये अनेक द्रव्योंके साथ इसका उपयोग करने में आता है । यह योगवाही और शीतल है । इसप्रकार यह इक्षुवर्ग नामक दशमवर्ग समाप्त हुआ ॥ २४३ ॥
अथ कतान्नवर्गः । क्षुत्तृष्णाग्लानिदौर्बल्यकुक्षिरोगविनाशिनी ।
स्वेदाग्निजननीपेयावातवर्णोऽनुलोमनी ॥ २४४ ॥ पेया-क्षुधा, तृषा, ग्लानि, दुर्वलता, कुक्षिरोग इन सबको शान्त करती है। स्वेद उत्पादक आग्न एवम् अधोवात और मलको निकालनवाली है ॥ २४१॥
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सूत्रस्थान-अ० २७. तर्पणीग्राहिणीलध्वीहृद्याचापिविलेपिका ॥२४५॥मण्डस्तु दीपयत्यग्निवातञ्चाप्यनुलोमयेत् ॥ मृदूकरोतिस्रोतांसिस्वेद संजनयत्यपि ॥२४६॥ लंघितानांविरिक्तानांजीणेनेहेचतृष्यताम् ॥ दीपनत्वाल्लघुत्वाच्चमण्डःस्यात्प्राणधारणः ॥२४७॥ विलपी वृप्तिकर्ता, ग्राही, हलकी एवम् हृदयको प्रिय होती है । मांड-अग्निदीपक, वायुको अनुलोमनकर्ता, स्रोतोंको मृदु करनेवाला और स्वेदजनक होताहै। लंघन करनेवाले मनुष्योंको, विरिक्त मनुष्योंको और स्नेहजीर्ण होनेपर दीपन और हलका होनेसे मंड पिलाना प्राणधारक होता है ।। २४५ ॥ २४६ ॥ २४७ ।।
लाजमण्डके गुण । शृतःपिप्पलिशुण्ठीभ्यांयुक्तोलाजाम्लदाडिमैः। तृष्णातीसा. रशमनोधातुसाम्यकरःशिवः ॥लाजमण्डोऽग्निजननो दाहमू
छानिवारणः॥ २४८ ॥ मन्दाग्निविषमाग्नीनांवालस्थविरयोषितामादेयश्चसुकुमाराणांलाजमण्ड सुसंस्कृतः। क्षत्पिपासा
सहःपथ्यःशुद्धानान्तुमलापहः ।। २४९ ।। धानोंकी खीलोंका बनायाहुआ मांड-पीपल,सोंठ और खट्टे अनारोंका रस युक्त कर पीनेसे तृष्णा और आतिसार शान्त करताहैः और धातुओंको साम्यावस्थाम लाताहै, शुभ है,अभिजनक,दाह और मूर्छाको निवारण करनेवाला है। यह अच्छे प्रकारवनायाहुभालाजामंड मंदाग्निवालोंको, विषमानवालोंको,वालकोंको,वृदोंको स्त्रियोंको, सुकुमार पुरुषोंको, क्षुधा, पिपासाके शान्तिके लिये देनाचाहिये । यह संशोधित मनुष्योंको पथ्य है एवम् मलका निकालनेवाला है ॥ २४८ ॥ २४९ ॥
भातके गुण । सुधौतःप्रसुतःस्विन्नःसन्तप्तश्चौदनोलघुः । भृष्टतण्डुलमिच्छन्तिगरश्लेष्मामयेष्वपि ॥ २५० ॥ अधौतःप्रसुतस्विन्नः शीतश्चाप्योदनोगुरुः॥२५१ ॥ चावलोंको भले प्रकार धोकर सिद्ध करे और उनकी पीछ वगैरह दूरफर उत्तम तैयार होजानेपर इनका गर्मगर्म भोजन करना हलका और उत्तम कहाहै ।विषदोष और कफके विकारमें चावलोंको भूनकर भात सिद्ध होनेपर देनाचाहिये । विना धोयेहए, विना पाछ निकाले सिद्धकिया भात एवं शीतलभात भक्षण कियाहुआ भारी तथा गुरुपाकी होताहै ॥ २५० ॥ २५१॥
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(३६२५) चरकसंहिता-भा० टी०।
मांसादिसिद्ध अन्न। मांसशाकवसातैलघृतमज्जाफलौदनाः।
वल्याःसन्तर्पणाहृद्यागुरवोहयन्तिच ॥ २५२ ॥ मांस, शाक, वसा (चर्वी), तैल, घृत, मज्जा एवम् फलोंके साथ सिद्ध किया हुआ अन्न बलकारक, तृप्तिकारक, हृद्य, भारी, पुष्टिकारक होताहै ॥ २५२ ॥
कुल्माषके गुण। तद्वन्माषतिलक्षीरमुद्गसंयोगसाधिताः।।
कुल्माषागुरवोरक्षावातलाभिन्नवर्चसः ॥ २५३ ॥ उसीके समान उडद, तिल,दूध, मूंग इनके संयोगसे सिद्धकिया हुआ अन्न भी उपरोक्त गुणवाला होता है । कुल्माष (गेहूं और चनेका होला)-भारी,रूक्ष वातकारक एवम् मलभेदक होताह ॥ २५३ ॥
स्विन्नभक्ष्यास्तुयेकेचित्सौप्यगोधूमयावकाः।
भिषक्तषांयथाद्रव्यमादिशेदरुलाघवम् ॥ २५४ ॥ दाल, गेहूं, युव-इनसे सिद्ध किये भोजनमें उस पदार्थके अनुसार गुरु और लाघव जानकर वैद्य कथन करे ॥ २५४ ।।
कृताकृतयूषके गुण । अकृतंकृतयूषञ्चतनुसंस्कारितरसम् ।
सूपमम्लमनम्लञ्चगुरुविद्यायथोत्तरम् ॥ २५५ ॥ विना घृत, मसालेवाला यूष एवम् घृत मसालायुक्त यूष, पतला संस्कार किया हुआ रस, खटाई युक्त दाल,खटाई रहित दाल, यह सब क्रमपूर्वक एकसे दूसरा उत्तरोत्तर भारी जानना ॥ २५५ ॥
सत्तूके गुण । . सक्तवोवातलारूक्षाबहुवर्णोऽनुलोमिनः।
तर्पयन्तिनरंसद्यःपीता:सद्योबलाश्चते ॥२५६ ॥ __ सत्तू जलमें घोलकर पिये हुए-वातकारक, रूक्ष, मलवर्द्धक,अनुलोमन,भूखे मनुः ष्यको शीघ्र तृप्त करनेवाले तथा शीघ्र बल देनेवाले होते हैं ॥ २५६ ॥
शालिधान्यका सत्तू ।। मधुरालघवःशीताःसक्तवःशालिसम्भवाः। ग्राहिणोरक्तपित्तनास्तृषाछर्दिज्वरापहाः ॥२५७ ॥ .. ...
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सूत्रस्थान-अ० २७
(३६३.) शालीचावलोंके सत्तू-मधुर, हलके, शीतल, ग्राही, रक्तापित्तनाशक, तृषानाशकएवम् वमन तथा ज्वरको शान्त करते हैं । २५७ ॥
जौकी रोटियोंका गुण । हन्यायाधीन्यवापूपोयावकोवाटयएवच ।
उदावर्त्तप्रतिश्यायकासमेहगलग्रहान् ॥ २५८॥ यवके पूडे और वाटिय- उदावर्त, प्रतिश्याय, खांसी, प्रमेह और गलग्रहको नष्ट करतेहैं ॥ २५८॥
जौकी धान के गुण । धानासंज्ञारतुयेभक्ष्याःप्रायस्तेलेखनात्मकाः।
शुष्कत्वात्तर्षणाश्चैवविष्टम्भित्वाचदुर्जराः ॥ २५९ ॥ धाना (भुनेहुए यव या गेहूं). प्रायः लेखन होते हैं और शुष्क होनेसे तृषाजनक होते हैं तथा विम्भष्टी होनेसे दुर्जर होते हैं ॥ २५९ ॥
विरूढधानाके गुण । विरूढधाना:शष्कुल्योमधुक्रोडाःसपिण्डिकाः।
सूपाःपूपुलिकाद्याश्चगुरम:पैष्टिकाःपरम् ॥ २६०॥ पिष्ट धान्योंकी शष्ठुली, मीठी गुझियें, लड्डू, पूडे, पूडिये और कचौरिये ये. सब अत्यन्त भारी होते हैं ॥ २६० ॥
फलादिसंस्कृतके गुण। फलमांसवसाशाकपललक्षौद्रसंस्कृताः।
भक्ष्यावृष्याश्चबल्याश्चगुरवोबृहणात्मकाः ॥ २६१ ॥ फल, मांस, चर्बी, शाक, पल्वल, शहद इन सबके संयोगसे सिद्धकिये भोजनके पदार्थ-वीर्यवर्द्धक, वलकारक, भारी और पुष्टिजनक होते हैं ॥२६१॥
बेशवारके गुण । वेशवारोगुरुःस्निग्धोबलोपचयवर्द्धनः ।
गुरवस्तर्पणावृष्याःक्षीरेक्षुरससूपकाः ॥ २६२ ।। बेसवार ( पिष्ठमांस)-भारी, स्निग्ध और बलवर्दक होताहै । दूध और खांडसें। वनाईहुई खीर-भारी, तृप्तिकारक एवम् वीर्यवर्द्धक होती है ॥ २६२ ॥
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चरकसहिता-भा० टी०। सगुडा:सतिलाश्चैवसक्षीरक्षौद्रशर्कराः ।
वृष्यावल्याश्चभक्ष्यास्तुतेपरंगुरुवःस्मृताः॥ २६३॥ गुड, तिल, दूध, शहद, खांड इनसे बने पदार्थ-वीर्यवर्द्धक, वलकारक, एवम् अत्यन्त भारी होते हैं ॥ २६३ ॥
घृतसिद्ध गेहूके पदार्थके गुण । सस्नेहाःस्नेहासिद्धाश्चभक्ष्याविविधलक्षणाः ।
गुरवस्तर्पणावृष्याहृद्यागोधूमिकामताः ॥ २६४ ॥ चिकनाईयुक्त एवम् घृतमें सिद्धकिये हुए गेहूंके आटेके पदार्थ-भारी,दृप्तिकारक, वीर्यवर्दक एवम् हृदयको प्रिय होते हैं ॥ २६४ ॥
संस्काराल्लघवःसन्तिभक्ष्यागोधूमपैष्टिकाः ।
धानापर्पटपूपाद्यास्तानबुद्धानिर्दिशेतथा ॥२६५ ॥ संस्कारविशेषसे गेहूके बने पदार्थ हलके . भी होते हैं । जो धानिये, पापड, पूडे आदिक पदार्थ हैं इन सबको संस्कारविशेषसे हलके और भारी कहना चाहिये ॥ २६५ ॥
पृथुक गुण। पृथुकागुरवोभृष्टान्भक्षयदल्पशस्तुतान् ।
यावाविष्टभ्यजीयन्तिसतुषाभिन्नवर्चसः ॥२६६ ॥ चूडा--भारी होताहै इनको भूनकर थोडा खाना चाहिय । यवके चूड़े--विष्टम्म करके पाचन होते हैं। यदि तुषों सहित हों मलके भेदन करनेवाले होते हैं।२६६।।
यूष गुण । सूप्यान्यविकृताभक्ष्यावातलारूक्षशीतलाः ॥
सकटुस्नेहलवणानल्पशोभक्षयेत्तुतान् ॥ २६७ ॥ दालसे बने हुए यूष रूक्ष, शीतल और वायुकारक होतेहैं इस लिये उनको 'पीपल मिर्च, सोंठ मिलाकर तथा घृतयुक्त कर थोडा खाना चाहिये ॥ २६७ ॥
पांकके गुण। मृदुपाकाश्चयेभक्ष्याःस्थूलाश्चकाठिनाश्चये ॥
गुरवस्तेऽप्यतिक्रान्तपाकाःपुष्टिबलप्रदाः ॥ २६८॥ स्थूल और कठिनद्रव्य जो मृदुपाकी होते हैं वह सब भारी, देरमें पचनेवाले, पुष्टिकारक और बलके देनेवाले होतेहैं ॥ २६८॥
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(३६५)
सूत्रस्थान - अ० २७.
द्रव्यसंयोगसंस्कारं द्रव्यमामं पृथक्तथा ।
भक्ष्याणामादिशेहुद्धायथास्वं गुरुलाघवम् ॥ २६९ ॥
बुद्धिमान वैद्यको उचित है कि संपूर्ण भक्षण करनेके पदार्थों को द्रव्य, संयोग, संस्कार, मान विशेषसे यथोचित रीतिपर जानकर उनके अनुसार गुरु, लघु आदि कथन करे || २६९ ॥
रसालाक गुण | रसालाबृंहणीवृष्यास्निग्धावल्यारुचिप्रदा । स्नेहनं तर्पणं हृद्यं वातघ्नं सगुडदधि ॥ २७० ॥
शिखरन - वर्यिवर्द्धक, पुष्टिकारक, स्निग्ध, बलवर्द्धक एवम् रुचिकारक होता है. युक्त दही - तृप्तिकारक, स्नेहन और वातनाशक होता है || २७० ॥
पानकके गुण |
द्राक्षाखर्जूर कोलानां गुरुविष्टम्भिपानकम् । परूषकाणां क्षौद्रस्ययच्चेक्षुविकृतिप्रति ॥ २७९ ॥ तेषांकट्वम्लसंयोगाः पानकानां पृथक्पृथक् । द्रव्यमानञ्चविज्ञायगुणकर्माणिचादिशेत् ॥ २७२ ॥
मुनक्का, खजूर, उन्नाव इनसे बनाया हुआ पानक भारी और विष्टम्भी होती है फालसेका रस और शहदसे बनाया हुआ पानक तथा खांड विशेषसे बनाया हुआ पानक उनके चरपरे, खट्टे आदि गुणोंसे तथा संयोग और द्रव्य मानको जानकर गुण कमको कथन करे । इसी प्रकार प्रायः सब फलोंके पानक (शरबत) जानने: चाहिये ॥ २७९ ॥ २७२ ॥
रागषांडव के गुण |
कट्वम्लस्वादुलवणालघवोरागषांडवाः ।
सुखप्रियाश्च हृद्याश्चदीपनाभक्तरोचनाः ॥ २७३ ॥
रागखांडव - चरपरे, अम्ल, मधुर, नमकीन, हलके, मुखप्रिय, हृद्य, दीपन और भोजनमें रुचि करनेवाले होतेहैं ॥ २७३ ॥
आम और आंवलेका अवलेह । आम्रामलकलेहाश्चबृंहणाबलवर्द्धनाः । रोचनास्तर्पणाश्चोक्ताःस्नेहमाधुर्य्यगौरवात् ॥ २७४ ॥
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(३६६ )
चरकसंहिता - भा० टी० ।
पके हुए आम और आमलेके संयोग से बनाई हुई चटनी - चिकनी, मीठी, भारी, बलवर्द्धक, बृंहण, रुचिकारक तथा तृप्तिकारक होती है ॥ २७४ ॥ लेह ( चटनी ) गुण | बुद्धासंयोगसंस्कारद्रव्यमानञ्चतत्स्मृतम् ।
गुणकर्माणिलेहानां तेषां तेषां तथावदेत् ॥ २७५ ॥ जितने प्रकार के लेह पदार्थ हैं वह सब संयोग, संस्कार, द्रव्य, परिमाण इनके भेदसे उनके गुण कर्मोंको कथन करे ॥ २७५ ॥
शुक्तके गुण । रक्तपित्तकफोरक्लेदिशुक्तंवातानुलोमनम् ।
कन्दमूलफलाद्यञ्चतद्वद्विद्यात्तदासुतम् ॥ २७६ ॥
कंद, मूल, फल आदिकों का अचार - रक्तपित्त, कफ इनको उत्क्लेश करनेवाला तथा वातको अनुलोम करनेवाला होता है । शिरकेमें डाला हुआ अचार भी उन्हींके समान गुणवाला होताहै ॥ २७६ ॥
शिण्डाकीका गुण |
शिण्डाकीचासुतञ्चान्यत्कालाम्लंरोचनंलघु । विद्याद्वर्गकृतान्नानामेकादशत मंभिषक् ॥ २७७॥ .
इति कृतान्नवर्गः ।
चटनियें, अचार, कांजी, आदि सब प्रकारकी खटाई रुचिकारक और - हलकी होती है । इसप्रकार कृतान्नवर्ग नामक एकादश वर्ग समाप्त हुआ ॥ २७७ ॥ अथाहारयोगवर्गः | तैलके गुण । कषायानुरसंस्वादुसूक्ष्ममुष्णंव्यवायिच । पित्तलंबद्धविण्मूत्रन चश्लेष्माभिवर्द्धनम् ॥ २७८ ॥ वातघ्नेषूत्तमंबल्यंत्वच्यं मेधाग्रिवर्द्धनम् । तैलंसंयोगसंस्कारात्सर्वरोगापहंमतम् ॥ २७९ ॥
तिलोंका तेल - कषाय, अनुरस, स्वादु, सूक्ष्म, उष्ण, व्यवायी, पित्तवर्द्धक, मल मूत्रको बांधनेवाला तथा कफवर्द्धक नहीं है । वातनाशकोंमें उत्तम, बलकारक, त्वचाको उत्तम बनानेवाला, मेघा और अग्निको बढानेवाला होता है एवम् औषधियोंके संयोगसे सिद्ध किया तैल संपूर्ण रांगोंको नष्ट करता है || २७८ ॥ २७९ ॥
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( ३६७)
सूत्रस्थान-अ० २७.
तैलकी उत्कृष्टतामें दृष्टान्त । तैलप्रयोगादजरानिर्विकाराजितश्रमाः।
आसन्नातिबलाःसंख्येदैत्याधिपतयःपुरा ॥ २८०॥ किसी समयमें दैत्योंके राजा तैलके प्रयोगसे अजर निर्विकार, श्रमरहित, एवम् लडनेमें अत्यन्त बलवान् हुए थे। यदि मनुष्यभी विधिवत् तैलका उपयोग करे तो बलवान् तथा उपरोक्त गुणोंवाला होसकताहै परन्तु तैल मर्दन करनेसेही अधिक गुण करताहै ॥ २८ ॥
अरण्डतैल के गुण। ऐरण्डतैलंमधुरंगुरुश्लेष्माभिवर्द्धनम् ।
वातासृग्गुल्महृद्रोगजीर्णज्वरहरंपरम् ॥ २८१ ॥ एरंड तैल-मधुर, भारी, कफवर्धक तथा वात, रक्त, गुल्म, हृद्रोग, जीर्णज्वर इनको हरनेवाला है ॥ २८१ ॥
सरसों के तैलके गुण । कटूष्णसार्षपतैलंरक्तपित्तप्रदूषणम् ।
कफशुक्रानिलहरंकण्डूकोठविनाशनम् ॥ २८२ ॥ सरसोंका तैल-कटु,उष्ण,रक्तपिचको दूषित करनेवाला,कफ,शुक्र एवम् वायुको हरनेवाला तथा खुजली कोष्ठ आदि त्वचाके रोगोंको नष्ट करता है ॥२८२ ॥
पियालके तैलके गुण। पियालतैलंमधुरंगुरुश्लेष्माभिवर्द्धनम् ।
हितमिच्छन्तिनात्योष्ण्यासंयोगेवातपित्तयोः ॥ २८३॥ चिरौंजीका तेल-मीठा, भारी, कफवर्द्धक तथा अत्यन्त गर्म न होनेसे द्रव्यके संयोग द्वारा वातपित्तको नष्ट करताहै ॥ २८३ ॥
. अलसीके तैलके गुण । आतस्यमधुराम्लन्तुविपाकेकटु कंतथा।
उष्णवीयहितंवातेरक्तपित्तप्रकोपनम् ॥ २८४॥ .अलसीका तेल-मीठा, अम्ल, विपाकमें कटु, उष्णवीर्य, वातरोगामें हित एवम् रक्तपित्तको कुपित करनेवाला है ॥२८४ ॥
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(३६८)
गुरु।
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चरकसंहिता-भा०टी०।
कम्मके तैलके गुण। कुसुम्भतैलमुष्णञ्चविपाकेकटुकंगुरु ।
विदाहिचविशेषेणसर्वरोगप्रकोपनम् ॥ २८५॥ कुसुम्भके बीजोंका तेल-गर्म, विपाकमें कटु, भारी, विशेषकर विदाही एवम्:सर्व दोषोंको कुपित करनेवाला है ॥ २८५ ॥
फलोंके तैलके गुण । फलानांयानिचान्यानितलान्याहारसन्निधौ।,
युज्यन्तगुणकर्मन्यांतानिब्रूयाद्यथायथम् ॥ २८६ ॥ इसीप्रकार अनेक प्रकारके फलोंके तैलोंको आहारके संयोगमें गुणकर्मों करके उनके गुणोंको कथन करे ॥ २८६ ।।
मज्जावसाके गुण । मधुरोबृंहणोवृष्यावल्योमजातथावसा ।
यथासवन्तुशैत्योष्णेवसामज्ञोविनिर्दिशेत् ॥ २८७ ॥ मज्जा और चीं ये दोनों मधुर, पुष्टिकारक, वीर्यवर्द्धक, बलकारक होती हैं। शीतगुणविशिष्ट तेलोंको गर्मीमें तथा उष्णगुणविशिष्ट तेलोंको सीमें उपयोग करे ॥ २८७॥
सोंठके गुण । सस्नेहंदीपनंवृष्यमुष्णंवातकफापहम् ।
विपाकमधुरंहृद्यरोचनविश्वभेषजम् ॥ २८८ ॥ सोंठ-चिकनी, दीपन, वृष्य, उष्ण, वातकफनाशक, विपाकमें मधुर, हृद्य और। रुचिकारक है ।। २८८ ॥
पीपलके गुण । श्लेष्मलामधुराचागुर्वीस्निग्धाचपिप्पली।
साशुष्काकफवातघ्नीकटुकावृष्यसम्मता ॥ २८९॥ कची पीपल-कफकारक, मधुर,भारी एवम् स्निग्ध होतीहै । सूखी पीपल कफबात नाशक चरपरी एवं वीर्यवर्द्धक होतीहै ॥ २८९ ॥
मिरचके गुण। नात्यर्थमुष्णंमरिचमवृष्यंलघुरोचनम् । छेदित्वाच्छोषणत्वाञ्चदीपनंकफवातजित् ॥ २९॥
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सूत्रस्थान-अ० २७.
(३६९) . कालीमिर्च-अधिक गर्म नहीं है। अवृष्य, हलकी एवम् रुचिकारक है तथा - छेदी होनेसे और शोषण होनेसे दीप्तिकारक एवम् वातकफनाशक है ।। २९० ॥
हंगके गुण । वातश्लेमविवन्धनंकटुकंदीपनलघु।
हिंगुशूलप्रशमनं विद्यात् पाचनराचनम् ॥ २९१ ॥ हींग वात, कफ, विवंध इनको नष्ट करनेवाली, कटु, उष्ण, दीपन, लघु,शूल नाशक, पाचन और रुचिकारक है ॥ २९१ ॥
सेन्धानमश्के गुण । रोचनंदीपनंहृद्यचक्षुष्यविदाहिच।
त्रिदोषनेसमधुरसन्धर्वलवणोत्तमम् ॥ २९२ ॥ सेंधानमक रुचिकारक, दीपन, हृदयको प्रिय, नेत्रोंको हितकारी, अविदाही त्रिदोषनाशक, एवम् मधुर होताहै ।। २९२ ।।
संचलनमकके गुण। सौम्यादौष्ण्याल्लघुत्वाचसौगन्ध्याचाचप्रदम् ।
सौवञ्चलंविबन्धनंहृद्यमुद्वारशोधिच ॥२९३ ॥ ___ संचरनमक सूक्ष्म होनेसे तथा उष्ण होनेसे एवम् हलका और सुगंधित होनेसे रुचिकारक, विधनाशक हृद्य तया उद्गारको शुद्ध करता है ।। २९३ ।।
विडनमकके गुण । तैक्षण्यादौष्ण्याइयवायित्वाद्दीपनंशूलनाशनम् ।
ऊध्वञ्चायश्चवातानामानुलोम्यकरविडम् ॥ २१४ ॥ . विडनमक तीक्ष्ण होनेसे, उष्ण होनेसे एवम् व्यवायी होनेसे दीपन,शूलनाशक, ऊपर और नीचेके भागों में होनेवाली वायुको अनुलोमन करता है ।। २९४॥
उद्भिदनमकके गुण । सतिक्तकटुसक्षारतीक्ष्णमुलेदिचौद्भिदस् ॥
नकाललवणेगन्धःसौवर्चलगुणाश्चते ॥ २९५ ॥ उद्भिद नमक (खारी नमक )-किंचित् कडुआ, चरपरा, खाग, तीक्ष्ण तथा उक्छेदकारक है । कालानमक गन्धहीन होता है और सब गुण संचरनमकके समान होता है ॥ २९५ ॥
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(.३७०)
चरकसंहिता-भा० टी०॥ . समुद्रादिलवणके गुण । सामुद्रकंसमधुरंसतिक्तंकटुपांशुजम् ।
रोचनंलवणंसर्वपाकिस्रस्यनिलापहम् ॥२९६ ॥ सामुद्रनमक किञ्चित् मधुर होता है। पांशुलवण किंचित् तिक्त और कटु होता है । प्रायः सब प्रकारके लवण रुचिकारक, पाचन, दस्तावर, एवम् वातनाशक होते हैं । २९६ ॥
__जवाखारके गुण। हृत्पाण्डुग्रहणीदाषप्लीहानाहगलग्रहान् ।
कासंकफजमशेसियावशकोव्यपोहति ॥ २९७ ॥ जवाखार हृद्रोग, पांडुरोग, ग्रहणी, प्लीहा, अफरा, गलग्रह, कफकी खांसी और बवासीरको नष्ट करता है ॥ २९७ ॥
क्षारोंके गुण । । तीक्ष्णोष्णोलघुरूक्षश्चक्लदीपाकीविदारणः ।
दहनोदीपनश्छेत्तासर्वःक्षारोऽसिसन्निभः ॥२९८ ॥ प्रायः सब प्रकारके क्षार-तीक्ष्ण, गर्म,लघु, रूस, क्लेदी, पाचनकर्ता, विदा रण, दाहन, दीपन, छेदन और अग्निके समान होते हैं । २९८ ॥
जीरा और धनियाका:गुण । कारव्यःकुञ्जिकाजाजीकवरीधान्यतुम्बुरुः ।
रोचनंदीपनंवातकफदोर्गन्ध्यनाशनम् ॥ २९९ ॥ ५ कलौंजी, कालानीरा, अजायन, सफेदजीरा, मेथी नैपाली धनिया, तुंवरु, ये सब रुचिकारक, दीपन, वातकफनाशक एवम् दुर्गन्धनाशक होते हैं ॥ २९९ ॥
आहारयोगिनांभक्तिनिश्चयोनतुविद्यते । समातोद्वादशश्चायंवर्गआहारयोगिनाम् ॥ ३०० ॥
- इत्याहारयोगवर्गः। : आहारके उपयोगी पदार्थों में कहांपर कौन वस्तुएं कितनी डालिनी चाहिये इसका कोई यथार्थ नियम नहीं है । इस प्रकार आहारोपयोगी नामक द्वादशवर्ग -समाम हुआ ॥ ३०॥
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सूत्रस्थान -म० २७..
पुराण धान्यमें विशेषता |
शुकधान्यंशमीधान्यंसमातीतं प्रशस्यते । पुराणं प्रायशो रुक्षप्रायेणाभिनवगुरु ॥ ३०९ ॥
शूकधान्य और शमीधान्य एकवके पुराने होनेसे हितकारी होते हैं । पुराने धान्य प्रायः रूक्ष होते हैं और नवीन धान्य भारी होते हैं ॥ ३०१ ॥ यद्यदागच्छतिक्षिप्रंत चलघुतरं स्मृतम् ॥ ३०२ ॥
जो धान्य शीघ्र परिपाकको प्राप्त होते हैं वह उतने ही हलके होते हैं ॥ ३०२ ॥ निस्तुपंयुक्तिभृष्टन्तुसूप्यं लघुविपच्यते ॥ ३०३ ॥
तुषहित युक्तिपूर्वक भुनी हुई दाल लघुपाकी होती है ॥ ३०३ ॥
वर्जित मांस ।
(३७१)
स्मृतंकेशातिमेध्यञ्चवृद्धंबालंविषैर्हतम् ।
अगोचरभृतं व्याडमृदितं मां समुत्सृजेत् ॥ ३०४ ॥
अपने आप मरा हुआ, कृश, सडावुता, वृद्ध, वाल, विष आदिसे मराहुआ, अपरोक्ष मराहुआ, व्याघ्र आदिका माराहुआ ऐसे जीवोंका मांस त्यागदेने योग्य 711 302 11
मांसरसका गुण |
अतोऽन्यथाहितंमांसंबृंहणंत्र लवर्द्धनम् । प्रीणनः सर्वभूतानां हृद्योमांसरसः परम् ॥३०५॥ शुष्यतां व्याधियुक्तानां कृशानांक्षीणरेतसाम् ॥ वलवर्णार्थिनाञ्चैवरसंविद्याद्यथामृतम् ॥ ३०६ ॥ इनसे सिवाय प्रायः सम्पूर्ण जीवोंका मांस पुष्टिकारक और बलवर्द्धक होता है। मांसरस - सब मनुष्यों के लिये प्रीणन और हथ होता है तथा सुखेहुए शरीवालों को, अथवा शोषरोगवालोंको, कृश मनुष्योंको, क्षीणवीर्यवालोंको, वल वर्णकी इच्छावालोंको मांसरस अमृतके समान है ॥ ३०२ ॥ ३०६ ॥
सर्वरोगप्रशमनं यथास्वविहितंरसम् । विद्यात्स्वय्र्यंबलकरंवयोबुद्धीन्द्रियायुषाम् ॥ ३०७ ॥ व्यायामनित्याः स्त्रीनित्यामद्येनित्याश्चयेनराः । नित्यंमांसरसाहारानातुराः स्युर्नदुर्बलाः ३०८॥ मांसरस द्रव्यविशेषके संयोग से सिद्ध किया जानेपर संपूर्ण रोगों को नष्ट करता है तथा स्वरकारक, बलवर्द्धक, अवस्थास्थापक, बुद्धिवर्द्धक, इन्द्रियोंका बल तथा
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(३७२) चरकसंहिता-भा० टी०। आयुको बढानेवाला है । व्यायाम करनेवाले मनुष्योंको, स्त्री सेवन करनेवालोंकों,. सरापियों को नित्य मांसरसका आहार करना चाहिये । मांसरस सेवन करनेसे रोगग्रस्त मनुष्य भी दुर्बल नहीं होते ॥ ३०७ ॥ ३०८ ॥
वर्जित शाक। क्रिमिवातातपहतंशुष्कंजीर्णमनातवम् । - शानिःस्नेहसिद्धञ्चवज्ययच्चापरिसुतम् ॥ ३०९॥ कोडेका खाया हुआ, वायुका माराहुआ, सूखा, धूपसे जलाहुआ,पुराना, वेमौसम, बिना चिकनाईसे बनाया हुआ, जिस शाकको उबालकर पानी न निकालाहो. अथवा जो साफ न कियागयाहो ऐसा शाक खाने योग्य नहीं होता ॥ ३०९ ॥
वार्जत फल । पुराणमामसंक्लिष्टंक्रिमिव्यालहिमातपैः। -
अदेशाकालजंक्लिन्नयत्स्यात्फलमसाधुतत् ॥ ३१०॥ पुराना, कच्चा, सडाहुआ,कांडे सर्प आदिका खाया हुआ,धूपसे मुझाया हुआ, सदासे माराहुआ, खराब भूमिमें उत्पन्न भया, बे समय उत्पन्न भया, दुर्गंधयुक्त "ऐसे फलको निंदनीय समझ त्याग देवे । अर्थात् कभी न खाये ॥ ३१० ॥
हरितानांयथाशाकंनिर्देशंसाधनाहते ॥ ३११ ॥ सब प्रकारके सब्जियोंको पत्र शाकों के समान संस्कार कर खाना चाहिये परन्तु . इनको उबालकर शाकोंके समान निचोडना नहीं चाहिये ॥ ३११ ॥
मद्याम्बुगोरसादीनांस्वेस्खेवगैविनिश्चयः ॥ ३१२॥ मद्य, जल, दूध आदिकोंके गुणदोष उनके वर्गों में कथन कियेगये हैं ॥३१२ ॥
अनुपानका वर्णन । यदाहारगुणैःपानविपरीतंतदिष्यते । अन्लानुपानंधातनांदृष्टं यन्नविरोधिच ।। ३१३ ॥ आसवानांसमुद्दिष्टाअशीतिश्चतुरुत्तराः॥ ३१४॥ जिस गुणवाला आहार हो उससे विपरीत गुणवाला अनुपान करनाचाहिये अर्थात । आहार उष्णता-प्रधान हो तो अनुपान शीतल होनाचाहिये, शीतल आहार हो तो अनुपान गर्म. होनांचाहिये परन्तु खट्टे पदार्थपरसे.मीठा अनुपान नहीं करना चाहिये.'
१ अन्नानुपानम् इतिपुस्तकान्तरे। .
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सूत्रस्थान-अ० २७. (३७३ ), क्योंकि तीक्ष्ण खट्टेके ऊपरसे मीठा खाना धातुओंमें विकार उत्पन्न करताहै अथवा अन्नका इस प्रकारका अनुपान करना चाहिये जो धातुओंका विरोधी न हो।।३१३ आसव ८४ प्रकारके होतेहैं उनको हम प्रथमही कथनकर आयेहैं ।। ३१४ ॥
जलंपेयमपेयञ्चपरीक्ष्यानुपिबेद्धितम् ॥ ३१५ ॥ जल परीक्षा करके पीने योग्य है या नहीं ऐसा विचारकर पीना चाहिये।।३१५॥
स्निग्धोष्णंमारुतेशस्तपित्तेमधुरशीतलम् ।
कफेऽनुपानरूक्षोष्णंक्षयेमांसरसःपरम् ॥ ३१६ ॥ वायुके रोगमें चिकना और गर्म अनुपान करना चाहिये । पित्तजनित रोग -मधुर और शीतल अनुपान करना चाहिये ।कफजनित रोगमें रूक्ष और गर्म अनुपान करना चाहिये । एवम् सव धातुओंकी क्षीणतामें मांसरसका अनुपान करना चाहिये ।। ३१६ ॥
दूधका अनुपान । उपवासाध्वभारस्त्रीमारुतातपकम्मभिः।
क्लान्तानामनुपानार्थपयःपथ्यंयथामृतम् ॥३१७॥ उपवास, मार्गसे थका, बहुत भाषण किया हुआ, स्त्रीसंभोगके अनन्तर, वायु, धूप तथा अन्य कर्मोंसे थके हुए मनुष्योंको दूधका अनुपान पथ्य और अमृतसमान है ।। ३२७॥
अन्य अनुपान । सुराकशानांपुष्टयर्थमनुपानंप्रशस्यते । कार्यार्थस्थूलदेहानामनुशस्तंसधूदकम् ॥ ३१८ ॥ अल्पानीनामनिद्राणांतन्द्राशो. कसयलमैः । मद्यमांसोचितानाश्चमद्यमेवानुशस्यते ॥३१९॥ कृश मनुष्योंको पुष्टिके लिये सुराका अनुपान उत्तम है । एवम् स्थूल मनुष्योंका
श करनेके लिये शहदयुक्त पानीका अनुपान करना चाहिये ॥३१८॥ मंदाग्निवालोको अनिद्रा, तन्द्रा, शोक, भय तथा क्लान्ति युक्त मनुष्योंको और जो मद्यमांसके सेवन करनेवाले हैं उनको मद्यका अनुपान करना उत्तम है ।। ३१९ ॥
अनुपानके कर्म । अथानुपानकर्मप्रवक्ष्यामि । अनुपानंतर्पयतिप्रीणयतिऊर्जयतिपातिमभिनिवर्तयतिभुक्तमवसादयातिअन्नसङ्घातभिन
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(३७४)
चरकसंहिता-भा० टी०॥ त्तिमार्दवमापादयतिक्लेदयतिजरयतिमुखपरिणामितामाशुव्य वायिताचाहारस्योपजनयतीतिः॥ ३२० ॥ अब अनुपानके गुणोंको कहते हैं:-अनुपान-तर्पणकारक, प्राणदायक, बलव: देक, भोजनको अवसादनकर्ता तथा भोजनके संघातको भेदनकर्ता, मृदुताकारक, क्लेदकारक, पाचनकर्ता, आहारके परिणामको सुखावह करनेवाला तथा किये हुए भोजनको शीघ्र फैला देनेवाला होता है ।। ३२० ॥
तत्रश्लोकाः। अनुपानंहितंयुक्तर्पयत्याशुमानवम् ।
सुखंपचतिचाहारमायुषेचबलायच ॥ ३२१ ॥ यहां कहाजाताहै कि युक्तिपूर्वक अनुपान किया हुआ मनुष्यको शीघ्र पूर करता है तथा हितकारक है एवम् सुखपूर्व आहारको पचानेवाला, आयुवर्द्धक और बलदायक होता है ॥ ३२१॥
जलपानका निषेध । नोडमारुताविष्टानहिक्कावासकासिनः। नगीतभाषाध्ययनप्रसक्तानोरसिक्षताः ॥३२२ ॥ पिबेयुरुदकंभुक्त्वातद्धिकण्ठोरसिस्थितम् ।
स्नेहमाहारजहत्वाभूयोदोषायकल्पते ॥ ३२३ ॥ , उद्धांगगत वातवालोंको हिचकी तथा श्वास और खांसीवालोंको एवम् जिनकों गायन और भाषण एवम् अध्ययन इनका अधिक काम पडता हो तथा उरक्षत रोगवालोंको भोजनके अनन्तर पानी नहा पीना चाहिये क्योंकि इन पुरुषोंको भोजनके अनन्तर पानी पीनेसे वह पानी कण्ठ और वक्षस्थलमेंसे होकर आहारके स्नेहको . नष्ट कर दोषोंको कुपित करता है ॥ ३२२ ॥ ३२३ ॥
उपसंहार। - अनुपानकदेशोऽयमुक्तःप्रायोपयोगिकः ॥ द्रव्यन्तुनहिनिर्देष्टुंशक्यं.
छत्स्नेननामभिः ॥ ३२४ ॥ यथानामोषधकिञ्चिद्देशजानांव.... चोयथा ॥ द्रव्यंतत्तत्तथावाच्यमनुक्तमिहतद्भवेत् ॥३२५॥ इस प्रकार आहार द्रव्य और अनुपान साधारणरूपले प्रायः उपयोगी पदार्थोंका अर्णन करदिया है।और संपूर्ण द्रव्योंका संपूर्ण नामों सहित वणन होना मुश्किल है
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सूत्रस्थान-अ० २५० (३७५ ) क्योंकि जैसे यावन्मात्र संपूण द्रव्य जाने जा नहीं सकते एवम् उन संपूर्ण द्रव्योंको संपूर्ण भाषाओंमें नाम नहीं जानेजाते इसी प्रकार संपूर्ण द्रव्योंका इस आहार विषयमें कथन करना कठिन प्रतीत होताहै क्योंकि देशभेदसे, क्रमभेदसे, संस्कार भेदसे आहारविशेष द्रव्योंकी कल्पना असंख्य प्रकारसे है ॥ ३२४ ॥ ३२५ ॥
चरादिपरीक्षा। चरा शरीरावयवाःस्वभावोधातवःक्रिया ॥ लिङ्गंप्रमाणसंस्कारोमात्राचास्मिन्परीक्ष्यते ॥ ३२६ ॥ चरोऽनूपजलाकाशधन्वाद्योभक्ष्यसंविधौ ॥ जलजानूपजाश्चैवजलानूपचराश्च
ये ॥ ३२७ ॥ गुरुभक्ष्याश्चयेसत्त्वा:सतेगुरुवःस्मृताः । लघु. भक्ष्यास्तुलघवोधन्वजाधवचारिणः ॥ ३२८ ।।
आहारीवषयक प्रायः चर और अचर द्रव्योंका कथन करचुहैं अब यहांपर -चर जातीय अर्थात् आहारमें आनेवाले जीवोंका शरीरके अंग, स्वभाव, धातुयें, लक्षण, प्रमाण, संस्कार और मात्रा भी परीक्षा करने योग्य है सो उनका वर्णन करते हैं । जलचर, अनूपचर, आकाशचर एवम् जंगलमें फिरनेवाले तश जलमें उत्पन्न भये और अनूपदेशके रहनेवाले और जो संपूर्ण जीव गुरुपदार्थोंको भक्षण करनेवाले हैं वे सव संपूर्ण अंगोंमें भारी अर्थात् गुरुपाकी होते हैं । इसी प्रकार हलके पदार्थोंके खानेवाले और जंगलमें उत्पन्न भये तथा जंगलमें फिरनेवाले. जानवर हलके अर्थात् लघुपाकी होते हैं।। ३२६ ॥ ३२७ ॥ ३२८ ॥
शरीरावयवका वर्णन । शरीरावयवाःसस्थिशिरःस्कन्धादयस्तथा। सक्थिमांसाद्गुरुस्कन्धस्ततःक्रोडस्ततश्शिरः ॥ ३२९ ॥ वृषणाचर्ममेद्रश्चनो , णीवृक्कायैकद्गुदम् । मांसाद्गुरुतरंविद्याद्यथास्वंमध्यमस्थिच ॥ ३३०॥
जांघ, मस्तंक, कंधा आदिक जो शरीरके अवयव हैं इनमें जंघाके मांससे कंधेका मांस और कंधेके मांससे छातीका मांस तथा छातीके मांससे मस्तकका मांस और मस्तकके मांससे पैरोंका मांस भारी होता है। दोनों अण्डकोश, चर्म, मेडू (गुह्य. स्थान), वृक्कस्थान, यकृत् एवम् गुदाका मांस प्रथमकी अपेक्षा दूसरे क्रमपूर्वक भारी होतेहै. और अस्थियोंने लगा हुआ मांस इन सबकी अपेक्षा भारी होताहै ॥ ३२९॥ ३३०॥ .
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(३७६) . चरकसंहिता-मा० टी०॥
स्वभावका वर्णन । स्वभावाल्लघवोमुद्गास्तथालावकपिञ्जलाः ।
स्वभावाद्गुरवोमाषावराहमहिषास्तथा ॥ ३३१ ॥ मूंग, लवा और काजल यह स्वभावस ही हलके होते हैं एवम् उडद, वराह, भैंसा यह स्वभावसे ही भारी होते हैं ।। ३३१॥
धातुओंका लघुगुरुत्व । धातूनांशोणितायानांगुरुविद्यायथोत्तरम् । अलसेभ्योविशिष्यन्तेप्राणिनोयेबहुक्रियाः ॥ ३३२ ॥ गौरवेलिङ्गसामान्येपुंसां स्त्रीणाञ्चलाघवम्।महाप्रमाणागुरवःस्वजातौलघवोऽन्यथा ३३३॥ रक्तसे लेकर वीर्यपर्यन्त सब धातुयें प्रथमकी अपेक्षा दूसरी क्रमपूर्वक भारी माननी । सामान्य जातिके पशुओंमें भी आलसियोंकी अपेक्षा बहुत फिरनेवाले पशु उत्तम होते हैं । इसी प्रकार स्त्री और पुरुषजातिके जीवोंमें पुरुषजातिके जीव भारी और स्त्रीजातिके हलके होते हैं । एकजातिमें भी बडे शरीरवाला जीव भारी और छोटे शरीखाला उसकी अपेक्षा हलका होता है ॥ ३३२॥ ३३३ ॥
संस्कार और मात्राकृत गुरुलघुत्व । गुरूणालाघवंविद्यात्संस्कारात्सविपर्ययम् ।
बीहे जायथाचस्युःसक्तनांसिद्धपिण्डकाः ॥ ३३४॥ संस्कारके भेदसे भारी पार्थ हलके हो सकते हैं। और हलके भारी हो सकते हैं । जैसे चावलोंकी अपेक्षा खीर हलकी होती एवम् सत्तुओंकी अपेक्षा घृतपक्व मोदक भारी होजाते हैं ॥ ३३४ ॥
अल्पादानेगुरूणाञ्चलघूनांचातिसेवने ।
मात्राकारणमुद्दिष्टंद्रव्याणांगुरुलाघवे ॥३३५॥ भारी पदार्थ थोडा भक्षण करनेसे लघुपाकी अर्थात हलका होजाताहै और हलका पदार्थ भी बहुत खायाजानेसे भारी होजाताहै इसीलये द्रव्योंके हलके और भारीपनमें मात्राहीको कारण कहना चाहिये ।। ३३५ ॥
गुरूणामल्पमादेयंलघूनांतृप्तिरिष्यते। मात्रामपेक्षतेद्रव्यंमात्राचानिरपेक्षते ॥३३६॥
भारीपनमें मान बहुत खायाजानेसे भाको अर्थात हलका
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.(३७७३
सूत्रस्थान-अ० २७. जो पदार्थ भारी हैं उनको थोडा खाना चाहिये और हलके पदार्थोंको पेटभरकर खालेना चाहिये । आहारकी लघुता और गुरुता मात्राके अधीन है और मात्रा जठरानिके बलायलपर निर्भर है ॥ ३३६ ॥
बलमारोग्यमायुश्चप्राणाश्चानौप्रतिष्ठिताः।
अनुपानेन्धनैश्चाग्निर्दीप्यतेशाम्यतेऽन्यथा ॥ ३३७॥ वल, आरोग्यता, आयुकी स्थिरता, प्राण ये सब जठराग्निक ही आश्रयभूत हैं सो वह जठराग्नि अनुशनरूपी इंधनसे चैतन्य रहती है।यदि वह अनुपान अनुचितरीतिपर सेवन कियाजाय तो वहीं उस आग्नेको नष्ट करनेवाला होताहै ॥ ३३७ ॥
गुरुलाघवचिन्तयंप्रायेणाल्पबलान्प्रति। .. मन्दकर्माननारोग्यान्सुकुमारान्सुखोचितान् ॥ ३३८॥
यह गुरु लाधवका विचार प्रायः अल्पवलवालोंको, आलसीपुरुषोंको, रोगियोंको, सुकुमारोंको, सुखपूर्वक रहनेवालों को विशेषतासे रखना चाहिये ॥ ३३८॥
दीसाग्नयःसराहाराःकम्मनित्यामहोदराः।
येनराःप्रतितांश्चिन्त्यंनावश्यंगुरुलाघवम् ॥ ३३९ ॥ जिनकी अग्नि बहुत वलवान है जो अंटसंट, कठोर वस्तुओंके खानेके अभ्यासबाले हैं। जो दिनभर बहुत काम करनेवाले हैं तथा जो बहुत आहार करते हैं उनको गुरु, लाघवका विचार कर आहार करनेकी विशेष आवश्यकता नहीं है ।।३३९॥
हित कर्म । हिताभिर्जुहुयान्नित्यमन्तराग्निसमाहितः ।
अनुपानसमिद्भिर्नामात्राकालौविचारयन् ॥ ३४०॥. संपूर्ण मनुष्यमात्रको मात्रा और काल विचारकर हितकारक आहाररूपी इंधनः द्वारा जठराग्निको चैतन्य रखना चाहिये ॥ ३४०॥
आहिताग्नेःसदापथ्यान्यन्तराग्नौजहोतियः। दिवतेदिवसेबह्मजपत्यथददातिच । नरनिःश्रेयसेयुक्तंसात्म्यशंपानभोजन। ॥ ३४१ ॥ भजन्तेनामयाकेचिद्भाविनोऽप्यन्तराते । षटान शवसहस्राणिरामीणांहितभोजनजीवत्यनातुरोजन्तुर्जितास्मासम्मतःसतामिति ॥ ३४२॥
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'(३७८) चरकसंहिता-भा० से।
जो मनुष्य सदैव अंतराानमें पथ्यरूपी आहुति देता है और नित्यप्राति भगवान्का भजन कर यथाशक्ति दानदेता है,ऐसे कल्याणमें तत्पर और सात्म्य अन्नपान करने वाले मनुष्यको अवश्यम्भावीके विना कोई रोग या दःख नहीं सताते अथवा यों कहिये कि रोगोंके कारण न होनेके सवव रोग होते ही नहीं ऐसे वह जितेन्द्रिय, धर्मात्मा, श्रेष्ठ पुरुष रोगराहत होकर सौवर्षपर्यन्त जीवित रहताहै ॥ ३४१॥३४२॥
तत्र श्लोकाः। अनुपानगुणाःसाग्र्यावर्गाद्वादशनिश्चिताः ।
सशुणान्यन्नपानानिगुरुलाघवसंग्रहः ॥ ३४३ ॥ अनुपानविधायुक्तंतत्परीक्ष्यविशेषतः। प्राणाःप्राणभृतामन्नमनंलोकोऽभिधावति ॥ ३४४ ॥ वर्णप्रसादालोस्वयंावितप्रतिभासुखम् ॥ तुष्टिःपुष्टिबलंमेधासर्वभन्नेप्रतिष्ठितम् ॥ ३४५॥ लौकिकंकर्मयवृत्तौस्वर्गीयञ्चवैदिकम् । कर्मापवर्गेयच्चोक्तं तच्चाप्यन्नेप्रतिष्ठितम् ॥ ३४६ ॥
इत्यन्नपानचतुष्केऽन्नपानविधिरध्यायः। यहांपर अध्यायके उपसंहारमें श्लोक हैं:-कि इस अन्नपानविधि नामके अध्यायमें अन्नपानके गुण तथा उसकी सामग्री के विषयमें बारहवर्ग, अन्नपान गुण और उनका गौरव तया लाघव अन्नपान विधि नियमकी विशेषरूपसे परीक्षा, अन्नमें प्राणियोंके प्राण और अन्नमें ही लोककी प्रतिष्ठा, वर्ण, प्रसन्नता, सुंदरता, जीवन, कांति, सुख, पुटि, तुष्टि,बल, मेधा यह सब अन्नमें ही प्रतिष्ठित हैं । इसमें लौकिक और पारलौकिक तथा दैवलौकिक और मोक्षसाधन यह संपूर्ण अन्नमें ही प्रतिष्ठित है। इस प्रकार इस अन्नपानविधि नामक अध्यायमें निरूपण किया गया है॥३४३ ॥ ३४४ ॥ ३४५ ॥ ३४६ ॥ इति श्रीमहर्पिचरक० पंरामप्रसादवैद्य भाषाटीकायामन्नपानविधिर्नाम
सप्तविंशोऽध्यायः ॥ २७॥
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सूत्रस्थान-अ० २८,
(३७९) अष्टाविंशोऽध्यायः । अथातोविविधाशितपीतीयमध्यायंव्याख्यास्यामइति हस्माहभगवानात्रेयः।
अव हम विविध अशितपतिय नामक अध्यायकी व्याख्या करते हैं । ऐसा भगबान् आत्रयजी कथन करनेलगे।
हितकर आहारसे रस रक्तादिकी उत्पत्तिक्रम । विविधमशितपीतलीढखादितजन्तोर्हितमन्नमग्निसन्धुक्षितवलेनयथास्वेनोष्मणासम्यग्विपच्यमानंकालवदनवास्थितसर्वधातुपाकमनुपहतसर्वधातूष्ममारुतस्त्रोतःकेवलंशरीरमुपचयवलवर्णसुखायुषायोजयतीतिशरीरधातूनुर्जयन्धातवोहिधात्वाहारा प्रकृतिमनुवर्तन्ते ॥१॥
अनेक प्रकारके हितकारक भाजन करनेके पदार्थ, पीनेके पदार्थ, गटनेके. पदार्थ, खानेक पदार्थ अन्तराग्निकी गर्मी से यथोचित रीतिपर परिपाक होकर यथा समय रस,रक्त,मांसादि वनकर संपूर्ण धातुओंमें माप्त होजात है।इसी लिये शरीरके. संपूर्ण धातु वायुके निकलनेवाले छिद्रोंमें व्याघात करत न हु“ शररिके बल, वर्ण, सुख,पुष्टता तथा आयुकी वृद्धि करते हैं । आहारसे बल प्राप्तहुए धातु धातुरूप होते. अपनी २ प्रकृतिमें आहारको प्राप्त कर स्वभावानुकूल रहतेहैं ॥ १॥ -
आहारद्वारा शरीरोपचयक्रम । तत्राहारप्रसादाख्योरसःकिश्चमलायमभिनिवर्त्ततकिटातमू
स्वेदपुरीषवातपित्तश्लेष्माणःकर्णाक्षिनासिकास्यलोमकूपप्र. जननमलकेशश्मश्रुलोमनखादयश्चावयवाः॥२॥
किये हुए आहारका परिपाक होने पर उसके दो विभाग होजाते हैं। उनमें जो उत्तम सार होताहै-उसको रस कहतेहैं और जो फोकट बचता है उसको किट्ट अथवा मल कहते हैं उस किसे मूत्र, स्वेद, विष्ठा, वायु, पित्त तथा कफ ये उत्पन्न होतेहैं एवम् कान, नेत्र, नाक, मुख, रोमकूप इन सबका मल तथा बाल, श्मश्रु. रोम और नख यह संपूर्ण उस किटके अंशोंसे बनतेहैं ॥२॥ पुष्यन्तित्वाहाररसात्रसरुधिरमांसमेदोऽस्थिमज्जाशुक्रौजांसि
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चरकसंहिता - भा० टी० ।
पञ्चेन्द्रियद्रव्याणिधातुप्रसादसंज्ञकानिशरीरसन्धिबन्धपिच्छादयश्चावयवाः ते सर्वे एवधातवामलाख्याः प्रसादाख्याश्चरसमलाभ्यां पुष्यन्तःस्त्रमानमनुवर्त्तन्ते ॥ ३ ॥
उस आहारका जो उत्तम भाग रस है वह शरीरको पुष्ट करता है तथा उस रमसे रक्त, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा, शुक्र एवम् ओज वनते हैं एवम् इसी रससे पंचेन्द्रियों में पुष्टि, प्रसन्नता, धातुओंमें वल, शरीरके संधिवन्धनों का प्रसाद और दृढता आदिक उत्पन्न होते हैं । यह संपूर्ण धातुएं दो भागों में विभक्तह - एक प्रसादसंज्ञक, दूसरी मलसंज्ञक यह दोनों साररूप रसोंसे और शरीर रक्षक मलोंसे पुष्ट होती हुई अपने परिमाणोंकी रक्षा करती हैं ॥ ३ ॥
(३८०)
यथावयः शरीरमेवंरसम लौस्वप्रमाणावस्थितौआश्रयस्यसमधातोर्धातुसाम्यमनुवर्त्तयतोनिमित्ततस्तु क्षीणातिवृद्धानां प्रसादाख्यानां धातूनांवृद्धिक्षयाभ्यामाहारमूलाभ्यांरसः साम्यमुत्पादय आरोग्याय ॥ ४॥
इस प्रकार अवस्था तथा शरीर के अनुसार अपने २ प्रमाण में स्थित हुए रस और मल अपने आश्रित शरीरके धातुओंको साम्यावस्था में रखते हुए रक्षा करते हैं एवम् कारण विशेषसे प्रसाद संज्ञक जो धातुएं हैं उनकी आहार मूलक वृद्धि क्षीणताको रस साम्यावस्था में लाता है और यह रस ही मनुष्योंकी आरोग्यताको रखता है ४ ॥ किञ्चमलानामेवमेव ॥ स्वमानातिरिक्ताः पुनरुत्सर्गिणः शीतोष्णपर्य्याय गुणैश्चोपचर्य्यमाणामलाः शरीरधातुसाम्यकराः समुपलभ्यन्ते ॥ ५ ॥
जिस प्रकार रस सम्पूर्ण धातुओंको साम्यावस्थामें रखता है उसी प्रकार किट्ट -भी सम्पूर्णमलों को साम्यावस्थामें रखता है । अपने ठीक परिमाणपूर्वक निकलते हुए मल ( तथा वात, पित्त, कफ भी ) शीत, उष्ण आदि गुणोंसे परिवर्तित होते हुए धातुओं को साम्यावस्थामें करनेवाले होते हैं अथवा यों कहिये कि अपने मानसे • क्षीणता और वृद्धिको प्राप्त हुए मल शीत, उष्ण द्रव्योंद्वारा चिकित्सित होकर साम्यावस्थाको प्राप्त हो धातुओं को साम्यावस्था में करनेवाले होते हैं ॥ ५ ॥
तेषान्तुमलप्रसादाख्यानां धातूनांस्त्रोतांस्ययनमुखानि तानिय - थाविभागे यथास्वं धातूनापूरयन्त्येवमिदंशरीरमाशितपीतली
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सूत्रस्थान-अ० २८.
(३८१) ढखादितप्रभवम् । अशितलीढखादितप्रभवाश्चास्मिरीरेव्याधयोभवन्ति ॥६॥ हिताहितोपयोगविशेषास्त्वनशुभाशुभविशेषकराभवन्ति, इति ॥७॥ इन मल और प्रसाद संज्ञक धातुओंके स्रोतस्थान तथा मार्ग अपने उपयोगी धातुओं द्वारा पूर्णताको और पुष्टताको प्राप्त होते हैं । इस प्रकार यह शरीर अशित (भोज्य), पीत, आलोढ और खाद्य पदार्थों द्वारा वृद्धि सम्पन्न होताहै इसी प्रकार शारीरिक व्याधियां भी खाने,पीने, चूसने और चाटनेके आहारों द्वाराही उत्पन्न होता हैं । इस प्रकार हित आहारसे शरीरकी उत्पत्ति तथा वृाई उत्पन्न होती है अर्थात् हित आहारका सेवन करना सुखकारक होता एवम् अहित आहारका करना दुःखकारक होता है ॥ ६ ॥७॥
अग्निवेशका प्रश्न । एवंवादिनभगवन्तमात्रेयमग्निवेशउवाचादृश्यन्ते हिभगवन! हितससाख्यातमप्याहारमुपयुञानाव्याधिमन्तश्चागदाश्चतथैवाहितसमाख्यातमेवदृष्टेकथंहिताहितोपयोगविशेषात्मकाभाशुभविशेषमुपलभेमहीति ॥ ८॥ इस प्रकार कहते हुए भगवान् आत्रेयजीसे अग्निवेश कहनेलगे कि हे भगवन् ! आपने कथन कियाहै कि हित आहारका सेवन करनेसे रोगी पुरुष भी निरोग हो जाते हैं और निरोग मनुष्यों के शरीर स्वस्थ और बलिष्ठ होते हैं उसी प्रकार अहित आहारके सेवनसे व्याधियां उत्पन्न होती हैं । सो हे गुरो ! संसारमें ऐसा भी दखने में आताहै कि अहित आहारके सेवन करनेवाले पुरुष नीरोग रहते हैं और हित आहार सेवन करनेवालोंको अनेक प्रकारके रोग उत्पन्न होजाते हैं इस लिये हित और आहित आहार विशेषात्मक शुभ और अशुभका किस प्रकार हमको. ज्ञान होसकताहै सो कृपाकर कथन कीजिये ॥ ८॥
हिताहित आहार विषयमें आत्रेयका उत्तर।। तमुवाचभगवानात्रेयः। नहिताहारोपयोगिनामानवेश तन्निमित्ताच्याषयोजायन्ते । नचकेवलंहिताहारोपयोगादेवसव व्याधिभयमतिक्रान्तंभवति । सान्तहिऋतेऽपिहिताहारोपयोगादन्यरोगनरुतयः । तद्यथा-कालविपर्ययःप्रज्ञापराधः परिणामश्चशब्दस्पर्शरूपरसगन्धाश्चासात्म्याइतिाताश्चरोगप्रक
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(३८२.) चरकसंहिता-मा० टी०।
तयोरसान्सम्यगुपयुञ्जानंपुरुषमशुभेनोपपादयन्तिातस्माद्धिताहारोपयोगिनोऽपिदृश्यन्तेव्याधिमन्तः। आहिताहारोपयोगिनांपुनःकरणतोनसयोदोषवान्भवत्यपचारोनहिसवाण्यपथ्यानितुल्यदोषकराणि । नचसर्वेदोषास्तुल्यबलाः । नच . सर्वाणिशरीराणिव्याधिक्षमत्वेसमानितदेवापथ्यंदेशका-.. लसंयोगवीर्यप्रमाणातियोगाद्भूयस्तरमपथ्यसम्पद्यते। सएवदोषःसंसृष्टयं निविरुद्धोपक्रमोगम्भीरानुगतःप्राणायतनसमु- . त्थोमोपघातीवाभूयान्कष्टतमःशिप्रकारितमश्चलस्पद्यते ॥९॥ यह सुनकर आत्रेय भगवान् कहनेलगे कि हे आनिवेश ! आहारसे उत्पन्न होने. बालेजो रोग हैं,हित आहारके सेवन करनेवाले मनुष्यके शरीरमें कभी उत्पन्न नहीं होते परन्तु संपूर्ण व्याधियां हित आहार करनेसेही नहीं होती यह बात नहीं है। क्योंकि हित आहारकी उपयोगी आरोग्यताके सिवाय और भी ऐसे कारण हैं जो रोगोंको उत्पन्न करते हैं । जैसे- कालविपर्यय ( कालकी विपरीतता) और प्रज्ञापराध और परिणाम एवम् असात्म्य-शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध, ये सब हित आहार सेवन करनेराले मनुष्यों को भी अशुभके करनेवाले होते हैं अर्थात रोग उत्पन्न करनेके हेतु होतहैं ।इसलिये ही हित और पथ्य भोजन करनेवाले मनुष्यभी व्याधियुक्त दिखाई देतेहैं । और अहित आहारके सेवन करनेवाले मनुष्योंको भी तत्काल रोग ग्रसित नहीं देखा जाता क्योंकि संपूर्ण कुपथ्यही सब दोषोंके तुल्य नहीं होते एवम् सच दोष भी समान वलवाले नहीं होते और व्याधि सहन शक्तिके स्वभावसे सब शरीर भी एकसे नहीं होते । इस प्रकार अपथ्य भोजन-देश, काल, संयोग, वीर्य, प्रमाण इनके अतियोगसे और भी अधिक कुपथ्य होजाताहै और दोषोंको कुपित करदेता है । एक दोष भी अनेक रोगोंको उत्पन्न करनेवाला चिकित्सा विरोधी, गंभीरानुगत, प्राणस्थान तथा मर्मस्थानका उपघाती होता. दुधा अत्यंत कष्टको उत्पन्न करनेवाला और शीघ्रकारी होजाताहै ॥९॥
" असहन शक्तिवाले शरीरोंका वर्णन । शरीराणिचातिस्थूलानिअतिकशानिअनिविष्टमांसशोणतास्थीनिदुर्बलानिअसात्म्याहारोपचितान्यल्पाहाराणिअल्पसत्वानिवाभवन्तिअव्याधिसहानि॥१०॥विपरीतानिपुनर्व्याधि
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मूत्रस्थान-अ० २८.
(३८३:) सहानिएभ्यश्चैवापथ्याहारदोषशरीरविशेषेभ्योव्याधयोमृदवो दारुणाक्षिप्रसमुत्थाश्चिरकारिणश्चभवन्ति ॥ ११ ॥ स्वभावसेही अतिस्थूल और अतिकृश शरीरखाले जिनके शरीरमें रक्त तथा मांस आदि क्षीण होगयाहो, दुर्ब मनुष्य असात्म्य आहारके कारण अल्पभोजन करनेवाले तथा कमजोर मनुष्य व्याधियोंके सहन करनेमें असमर्थ होतेहैं । इनसे विपरीत व्याधिसहनकर्ता होतेहैं इन अपथ्य, आहार, दोष,शरीर विशेषके प्रभावसे व्याधिये भी मृदु, दारुण, शीघ्रकारी और चिरकारी भी होती हैं ॥ १० ॥११॥
अतएवचवातपित्तश्लेष्माणःस्थानविशेषेणप्रकुपिताव्याधिविशेषानभिनिवर्तयन्तिअग्निवेशातत्ररसादिषुस्थानेषुप्रकुपितानां दोषाणांयस्मिनस्थानेयेयेव्याधयःसम्भवन्तितांस्तान्यथावदनुव्याख्यास्यामः ॥१२॥ इसलिये हे अग्निवेश ! वात, पित्त, कफ-स्थानविशेषमें कुपित होकर रोगविशेषको करतेहैं सो उन रसादि स्थानों में कुपित हुए दोष जिस जिस स्थानमें जिस जिस प्रकार जिन जिन रोगोंको उत्पन्न करते हैं उन उन सवको यथाक्रम वर्णन करतेहैं ॥ १२॥
रसदोषसे उत्पन्न रोग। अश्रद्धाचारुचिश्चास्यवरस्यमरसज्ञता । हृल्लासोगौरवंतन्द्रा
साङ्गमदोंज्वरस्तमः॥ १३॥ पाण्दुत्वंस्रोतसांरोधःक्लैब्यसादः । ... कृशाङ्गता । नाशोऽग्नेरयथाकालंवलयःपलितानिच । रसप्र
दोषजारोगावक्ष्यन्तेरक्तदोषजाः॥ १४ ॥ दोषों करके रसके दूषित होनेसे भोजनमें अश्रद्धा, अरुचि, मुखकी विरसता, रसका अज्ञान, हलास, गुरुता, तन्द्रा, अंगमर्द, ज्वर, आंखोंके आगे अन्धकार, पांडुपन, स्रोतोंका अवरोध, क्लीवता, अंगोंका अवसाद, कृशता, मंदाग्नि, बिनाही समयके बालोंका सफेद होजाना, शरीरमें,सरवट पडना.यह रोग होते हैं। अब आगे रक्त दूषित होनेसे जो रोग उत्पन्न होतेहैं उनको कहतेहैं ॥१३॥१४॥
रक्तदोषजराग। . कुष्ठवीसर्पपिडकारक्तपिचमसृग्दरः। गुदमेदास्थपाकश्चप्लीहायुलमोऽथविद्रधी ॥ १५॥ नीलिक कामलाव्यङ्गपिप्लवस्तिल- .
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(३८४)
चरकसंहिता-भा० टी०। कालकाः। दद्गुश्चमदलंश्वित्रःपामाकोठास्त्रमण्डलम् । रक्तप्रदोषाजायन्तेशृणुमांसप्रदोषजान ॥ १६ ॥ कुष्ठ, विसर्प, पिडका, रक्तपित्त, प्रदर, गुदा, लिंग तथा मुखका पकना,प्लीहा,. गुल्म, विद्रधी, नीलिका, कामला, व्यंग, पिप्लव, तिल, कालक, दाद, चर्मदल, श्वेतकुष्ठ, पामा, कोष्ठरोग, रक्तमंडल तथा अन्यरक्तके विकार उत्पन्न होतेहैं । यह रक्त दूषित होनेके दोष कहे गये । अव थागे मांस दूषित होनेसे जो रोग होतेहैं. उनको वर्णन करतेहैं ॥ १५ ॥ १६ ॥
मांसदोषजरोग। अधिमांसार्बुदकीलगलशालूकशुण्डिकाः । पूतिमालालजीगण्डगण्डसालोपजिहिकाः ॥ १७॥ विद्यान्मांसाश्रयानुमेदःसंश्रयांस्तुप्रवच्स्यथानिदानानिप्रमेहाणांपूर्वरूपाणियानिच १८॥ मांसदूषित होनेसे अधिमांस अर्बुद, कीलक, गलमारूक, गलशुडी, पूतिमांस, अलजी, गलगंड, गण्डमाला और उपजिविका यह मांसाधित रेग होतेहैं । अब मेद दूषित होनेसे जो रोग होतेहैं उनका कथन करते हैं कि अष्टौनिंदनीय अध्यायमें तथा प्रमेहरोगके पूर्वरूपमें दूषित मेदरोगोंका वर्णन कियागयोहै ।। १७ ॥१८॥
अस्थिदोषज रोग। __ अध्यस्थिदन्तदन्तास्थिभेदःशलंविवर्णता।
केशलोमनखश्मश्रुदोषाश्चास्थिप्रकोपजाः ॥ १९॥ आस्थ दूषित होनेसे अध्यस्थि,अधिदन्त,दन्तभेद, अस्थिभेद, दन्तशूल,अस्थिशूल और विवर्णता होतेहैं तथा केश,लोम, नख और श्मश्रुइनमें भी अस्थि दूषित होनेसे विकार उत्पन्न होते हैं ॥ १९ ॥
मजादोषज रोग। रुपर्वणांभ्रमोमूर्छादर्शनंतमसोमताः।
अरुषांस्थलमूलानांपर्वजानाञ्चदर्शनम् ॥ २०॥ मजा दूषित होनेसे पर्वभेद, भ्रम, मूच्छा, अंधकार बडी २ मोटी तथा जडयुक्त अरुषिका नामक फुसियें पर्वस्थानमें ( संधिस्थानमें ) उत्पन्न होती हैं ।॥ २० ॥
शुक्रदोषज रोग। मज्जाप्रदोषाच्छुक्रस्यदोषारक्लैब्यमहर्षणम् । रोगिणंक्ली- . बमल्पायुविरूपंवाप्रजायते ॥ २१॥ नवालआयतेगसंपतति
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सूत्रस्थान अ० २८. . प्रस्रवत्यपि। शुक्रं हिदुष्टंसापत्यं सदारंवांधतेनरम् ॥२२॥ शुक (वीर्य ) दूषित होनेसे नपुंसकता, हर्षका न होना एवम् बहुत दिनतक रोगी रहनेके कारण आयुका कम होना, संतानका न होना या कुत्सित संतान होना अथवा गर्भका पतन या स्राव होजाना ऐसेरउपद्रव होतेहै । दूषित हुआ शुक्र अपने शरीरके सिवाय स्त्री और संतानको भी दुःखदायी हाताहै अर्थात् स्त्री पुत्रों सहित पुरुषको दाखित रखताहै ॥ २१ ॥ २२॥
कुपितदोषोंके कर्म । इन्द्रियाणिसमाश्रित्यप्रकुप्यन्तियदामलाः ।
उपतापोपघाताभ्यां योजयन्तीन्द्रयाणते ॥२३॥ - यदि कुपितहुए दोष इन्द्रियोंमें आश्रित होजांप तो इन्द्रियोंकाः उपताय तथा उपघात होताहै ॥ २३ ॥
स्नायौशिराकण्डरयोर्दुष्टाःक्लिश्यन्तिमानवम् ।
स्तम्भसंकोचखल्लीभिन्थिस्फुरणसुतिभिः ॥ २४ ॥ यदि वातादिदोष-स्नायु, शिरा एवम् कण्डरा आदि नाडियोंमें प्रकुपित होकर व्यापक होजाय तो मनुष्यक शरीरमें स्तम्भ, संकोच, खल्ली, गाठोंका फडकना तथा अंगोंका सोंजाना यह उपद्रव होतेहैं ॥ २४ ॥
मलानाश्रित्यकुपिताभेददोषप्रदूषणम् ।
दोषामलानांकुर्वन्तिसङ्गोत्सर्गावतीवच ॥ २५ ॥ कुपित हुए वातादि दोष मलस्थानमें व्यापक होनेसे मलोंका विलकुल रुकजाना या अत्यन्त निकलना आदि उपद्रव होते हैं ॥ २५ ॥
विविधादशितात्पीतादहिताल्लीढखादितात् ।
भवन्त्येतेमनुष्याणांविकारायउदाहृताः ॥ २६ ॥ इस प्रकार अहित,भुक्त, पीत, आलीह, चर्वित अनेक प्रकारके आहारोंके कर. ... नेसे मनुष्यों के शरीरोंमें यह विकार उत्पन्न होतेहैं ॥ २६ ॥
तेषामिच्छन्ननुत्पत्तिसेवेतमतिमान्सदा।
हितान्येवाशितादीनिनस्युस्तज्जास्तथामयाः ॥ २७॥ . जो मनुष्य अपने शरीरमें दापोंके प्रकोपको होने देना नहीं चाहते उन बुद्धि मानोंको हित आहारोंको ही सेवन करना चाहिये क्योंकि हित आहार सेवन करनेसे आहारजनित रोग उत्पन्न ही नहीं होनेपाते ॥ २७॥
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(३८६) चरकसंहिता-मा० टी०॥
रसरक्त मांस मेदादिगत दोषोंकी चिकित्सा। रसजानांविकाराणांसर्वलंघनौषधम् । . .
विधिशोणितकेऽध्याये रक्तजानांभिषग्जितम् ॥ २८ ॥ रसजन्य विकारोंमें लंघन करना ही संवोत्तम औषधि है। रक्तजनित विकारोंमें विविध शोणतीयाध्यायमें कही हुई चिकित्सा द्वारा रक्त विकारोंको जीतना चाहिये ॥ २८ ॥
मांसजानान्तुसंशुद्धिःशस्त्रक्षाराग्निकर्मच।
अष्टौनिन्दितसंख्यातेमेदोजानांचिकित्सितम् ॥ २९॥ मांस जनित विकारों में शृण शोधन ( वमन), विरेचन ) क्रिया तथा शस्त्रक्रिया अथवा क्षार या अग्निक्रिया हितकारक होतीहै । भेदजनित विकारोंकी चिकित्सा भष्टौनिन्दनीय अध्यायमें कथन कर आयेहे ॥ २९ ॥
अस्थ्याश्रयाणांव्याधीनांपञ्चकर्माणिभेषजम् ।
बस्तयःक्षीरसपीषितिक्तकोपहितानिच ॥ ३०॥ अस्थिजनित विकारोंमें-वमन,विरेचनादि पंचकर्म, तिक्तकगण तथा दूध,घृतकी बस्तिदारा चिकित्सा करनी चाहिये ॥ ३० ॥
मज्जाशुक्रसमुत्थानामौषधंस्वादुतिक्तकम् ।
अन्नंव्यवायव्यायामौ शुद्धिःकालेचमात्रया ॥ ३१॥ मजा और शुक्रजनित विकारोंमें मधुर और तिक्त औषधियों द्वारा चिकित्सा करनी चाहिये तथा हित अन्न, उचित मैथुन, व्यायाम एवम् यथा समय उचित मात्रासे संशोधन करना चाहिये ॥ ३१॥
सम्पूर्ण रोगोंमें सामान्य चिकित्सा क्रम ।
शान्तिरिन्द्रियजानान्तुत्रिमर्मीयेप्रवक्ष्यते ॥ ३२ ॥ इन्द्रियजनित विकारों में आगे त्रिमर्मीय चिकित्सित नामक अध्यायमें चिकित्सा स्थानमें कहेंगे ॥ ३२ ॥ स्नाय्वादिजानांप्रशमोवक्ष्यतेवातरोगके। नवेगान्धारणेऽध्यायेचिकित्सासंग्रहःकतः ॥ ३३ ॥ मलजानांविकाराणांसिद्धिश्वोक्ताकचित्त्वचित् ॥ ३४ ॥ स्नायु, शिरा, कण्डरा इनके दोषजनित विकारोंमें(वातव्याधि चिकित्सा अभ्या. यमें कथन करेंगे) वह यल करना चाहिये । मलजनित विकारोंकी चिकित्सा न
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सूत्रस्थान- अ० २८.
(३८७)
वेगान् धारणीयाध्यायमें कथन कर चुकेहैं तथा अन्य २ स्थानों में भी कहीं कहीं - कथन कियाजायगा ॥ ३३ ॥ ३४ ॥
व्यायामादुष्मणस्तैक्ष्ण्याद्धितस्यानवधारणात् । कोष्ठाच्छाखामलायान्तिद्रुतत्वान्मारुतस्यच ॥३५॥ तंत्रस्थाश्चविलम्बन्ते कदाचिन्नासमीरिताः । नादेशकाले कुप्यन्ति भूयोहेतुप्रतीक्षिणः ॥ ३६ ॥
'हितकारक आचरण न करनेसें, व्यायाम न करनेसे अथवा अहित व्यायाम 'करनेसे गर्मी की तीक्ष्णतासे, वायुकी द्रुतगति होनेसे दोष कोष्ठसे शाखा और मर्म - स्थानमें गमन करते हैं फिर उन स्थानों में पहुंचकर प्रबलता पाने पर्यन्त विलम्बित रहते हैं फिर विना समय तथा विना देश इनमें अपने हेतुकी परीक्षा करते हुए कुपित नहीं होते और कारण जनित सहायता प्राप्त कर कुपित हो अनेक प्रकारके - रोग उत्पन्न करते हैं ॥ ३५ ॥ ३६ ॥
वृद्धयाभिष्यन्दनात्पाकात्स्रोतोमुखविशोधनात्
।
शाखामुक्त्वामलाः कोष्ठयान्तिवायोश्चनिग्रहांत् ॥ ३७ ॥
वृद्धिको प्राप्त हुए वह दोष-अभिष्यंदी होजानेसे, अथवा स्रोतोंका मुख शुद्ध होनेसे या पाचन औषधियों द्वारा दोषोंके परिपाक होनेसे दोष वायुके निग्रह डोनेसे शाखाओं को छोडकर कोष्ठमें आकर प्राप्त होजाते हैं ॥ ३७ ॥ अजातानामनुत्पत्तौजातानांविनिवृत्तये ।
रोगाणां योविधिर्दृष्टः सुखार्थीतसमाचरेत् ॥ ३८ ॥
जो रोग उत्पन्न नहीं हुएहैं उनको उत्पन्न न होने देना और उत्पन्न हुए दोषको - नष्ट करदेना. इन दोनोंके लिये शास्त्रमें जो प्रकार लिखाहै उसका सेवन करना -सुखकी इच्छा वाले मनुष्यको अत्यावश्यक है ॥ ३८ ॥
हितकारी उपदेश | सुखार्थाः सर्वभूतानांमताः सर्वाः प्रवृत्तयः ॥ ज्ञानाज्ञानविशेषात् मार्गामार्गप्रवृत्तयः ॥ ३९ ॥
संपूर्ण प्राणीमात्र अपने सुखकी इच्छा करते हुए हीं सब कार्यों में प्रवृत्त होने हैं परन्तु वह प्रवृत्ति सुमार्ग और कुमार्गके भेदसे दो प्रकारकी हो जाती है। इस द्विविध प्रवृत्तिका कारण ज्ञान और अज्ञान ही है क्योंकि अज्ञानवश मनुष्य अपने सुखकों इच्छा करता हुआ कुमार्ग में प्रवृत्त होजाताहै और ज्ञानवश सुमार्ग में प्रवृत्त होताहै ॥ ३९ ॥
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(३८८ )
चरकसंहिता - भा० टी० ।
हितमेवानुरुध्यन्ते प्रसमीक्ष्यपरीक्षकाः । रजोमोहावृतात्मानः प्रियमेव लौकिकाः ॥ ४० ॥
बुद्धिमान मनुष्य विचारपूर्वक हितकारी वस्तुओं काही अवलम्वन करता है एवम् रज और मोहसे ढकी हुई आत्मावाले प्यारी वस्तुओं का अवलम्बन करते हैं । प्रायः संसारमें हित और प्रिय भेदसे दो प्रकार के पदार्थ होतेहैं । जो पदार्थ न अच्छा लगनेपर भी हितकारी होता है उसको हित कहते हैं जैसे ज्वरमें निम्वादिचूर्ण । इसी प्रकार जो पदार्थ अहितकारी होनेपर भी प्रिय मालुम होता है उसको प्रिय कहते हैं जैसे कफ प्रधान ज्वरमें दही बडे ॥ ४० ॥
श्रुतंबुद्धिःस्मृतिर्दाढ्यं धृतिर्हितनिषेवणम् । वाकूप्रशुद्धिः शमो धैर्य्यमाश्रयन्तिपरीक्षकम् ॥ ४१ ॥ लौकिकंनाश्रयन्त्येतेगुणामोहतमाश्रितम् । तन्मूला बहुलाश्चैव रोगाः शारीरमान
साः ॥ ४२ ॥
बुद्धिमान् परीक्षक शास्त्र, बुद्धि, स्मृति, दृढता, धृति, हितसेवन, वाणीकी शुद्ध, शान्ति और धैर्य इनका आश्रय लेकर कार्यमें प्रवृत्त होता है ॥ ४१ ॥ और लौकिक मनुष्य इन गुणोंका आश्रय न लेकर मोह और तम आदिके वश हो कार्यों में प्रवृत्त होता है । सो मोह और तममूलकही संपूर्ण शारीरिक और मानसिक रोग होते हैं ॥ ४२ ॥
प्रज्ञापराधाद्धयहितानर्थान्पञ्चनिषेवते । सन्धारयतिवेगांश्च सेवतेसाहसानिच ॥ ४३ ॥ तदात्वसुखसंज्ञेषुभावेष्वज्ञोऽनुरज्यते । रज्यतेनतुविज्ञाताविज्ञानेामलीकृते ॥ ४४ ॥ नरोगान्नाप्यविज्ञानादाहारमुपयोजयेत् । परीक्ष्यहितमश्नीयाद्देहोह्याहारसम्भवः ॥ ४५ ॥
मनुष्य बुद्धिके अपराधसे ही पांच प्रकारके अहित विषयोंका सेवन करता है । अज्ञानता वशही मल आदिके वेगोंको धारण करता है तथा अनुचित साहसको करता है इसी लिये वह अज्ञानी मनुष्य परिणामको न समझता हुआ असंखकारक अर्थात् दुःखदायी भावों में आसक्त होजाता है । परन्तु ज्ञानी मनुष्य निर्मल ज्ञानके प्रभावसे असुखकारी विषयों में प्रवृत्त नहीं होता और रागसे तथा अज्ञानसे अहितः आहार का सेवन नहीं करता इसलिये हित और अहितका विचार कर हित आहार-
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सूत्रस्थान-अ० २८...
(३८९, काही सेवन करना चाहिये क्योंकि यह शरीरं आहारसे.ही उत्पन्न होताहैः॥४३॥ ...४४॥ ४५ ॥ • • आहारस्यविधावष्टौविशेषाहेतुसंज्ञकाः।शुभाशुभसमुत्पत्तौता-:.:.
परीक्ष्योपयोजयेत् ॥४६॥ परिहा•ण्यपथ्यानिसदापारहर--- नरः । भवत्यनृणतांप्राप्तःसाधूनामिहपण्डितः॥४७॥
आहारके सम्बन्धमें हेतुसंज्ञक आठप्रकारका विधान किया गयाहै (विमानस्थान देखो)। मनुष्यको उचित है कि शुभ और अशुभकी उत्पत्तिके विषयमें पूर्णरूपसे परीक्षा करता हुआ आहारका उपयोग करे जो पदार्थ त्याग देने योग्य हों उनको त्यागताहुआ पथ्य वस्तुओंका सेवन करे ऐसा करनेसे बुद्धिमान् मनुष्य त्रिविध ऋणसे विमुक्त होकर सुखको प्राप्त होताहै ॥ ४६ ॥ ४७ ।।
यत्तुरोगसमुत्थानसशक्यमिहकेनचित् ।
परिहानतत्प्राप्यशाचितव्यंमनीषिणा ॥४८॥ और जो मनुष्य गेगके कारणरूपी अहित सेवनको त्यागनेमें असमर्थ है वह मूर्ख बुद्धिमानों करके सोचने योग्य है अथवा यदि कोई रोगका ऐसा कारण हो जो किसीमकार भी दूर न किया जासक्ता हो तो बुद्धिमानको चाहिये कि उसके लिये चिंतित होकर अपने शरीरको और भी कष्ट न बढावे ।। १८॥
तत्र श्लोकाः। 'आहारप्रभवोयस्तुरोगाश्चाहारसम्भवाः। हिताहितविशेषाश्च विशेष:सुखदुःखयोः ॥४९॥ सहत्वेचासहवेचदुःखानांदेहसत्त्वयोः। विशेषोरोगसंघाश्चधातुजायेपृथक्पृथक् ॥ ५० ॥ तेषाञ्चैवप्रशमनंकोष्ठाच्छाखाउपत्यच । दोषायथाप्रकुप्यन्ति शाखाभ्यःकोष्ठमेत्यच ॥ ५१॥ प्राज्ञाज्ञयोर्विशेषश्चस्वस्थातुर. हितञ्चयत् । विविधाशितपीतीयेतत्सर्वसम्प्रकाशितम् ॥ ५२॥.. इति अग्निवेशकतेतन्त्रेचरकप्रतिसंस्कृतेसत्रस्थानअन्नपानचतुष्कविविधाशितपीतीयोनामअष्टाविंशोऽध्यायःसमाप्तः। "यहांपर अध्यायकी पूर्तिमें श्लोक है । आहारसे उत्पन्न होनेवाला. रोग और आहारसे उत्पन्न होनेवाला शरीर,शरीरका हित और अहित तया हित और अहित विशेषसे सुख दुःख विशेष और दुःख के सहन योग्य तथा असहन योग्य शरीर,
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(३९०)
चरकसंहिता - भा०टी० ।
भातुओं में होनेवाले विविध प्रकारके रोग समूह, उनके शान्तिके उपाय, दोषोंका कोष्ठाश्रित और शाखाश्रित होना, बुद्धिमान् तथा अज्ञानीका कृत्य, स्वस्थ और आरके लिये हितकारक उपदेश, यह सब इसे विविध अशितपीतीय अध्यायमें वर्णन किया गया है ॥ ४९ ॥ ६० ॥ ५१ ॥ ५२ ॥
r
इति श्रीमहर्षिचरक ० पं० रामप्रसादवैद्य० भापाटीकायां विविधाशितपीतीयो नामाष्टाविंशोऽध्यायः ॥ २८ ॥
एकोनत्रिंशोऽध्यायः ।
अथातोदशप्राणायतनीयमध्यायं व्याख्यास्यामइतिहस्माहभगवानात्रेयः ।
अब हम दशप्राणायतनीय अध्यायकी व्याख्या करते हैं ऐसे भगवान् आत्रेयजी कथन करने लगे ।
प्राणस्थान तथा प्राणाभिसर वैद्य । दशैवायतनान्याहुः प्राणायेषुप्रतिष्ठिताः । शंखोममंत्रकण्ठोरक्तशुक्रौजसी गुदम् ॥ १ ॥ तानींद्रियाणिविज्ञानंचेतना - हेतुमामयम् । जानीतेयःसविद्वान् वैप्राणाभिसरउच्यतेइति ॥२॥ जिनमें प्राण आश्रयभूत रहते हैं वह दश स्थान हैं अथवा यों कहिये कि शरीरमें प्राणोंके रहनेके दश स्थान हैं। जैसे दोनों कनपट्टी, मस्तक, हृदय, वस्ती, कोष्ठरक्त, शुक्र, ओज और गुदा, जिस वैद्यको यह दश माणायतन और इद्रियें इनका विज्ञान, चेतना, हेतु तथा समस्त रोग इन सबका यथोचित ज्ञान है वह ही प्राणामिसर अर्थात् प्राणोंका रक्षक वैद्य कहाजाताहै ॥ १ ॥ २ ॥
वैद्योंके भेद | द्विविधास्तुखलुभिषजोभवन्तिअग्निवेश । प्राणानामेकेऽभिसाराहन्तारोरोगाणां, रोगाणामकेऽभिसराहन्तारः प्राणाना
मितिः ॥ ३ ॥
संसार में दो प्रकार के वैद्य होते हैं। हे अग्निवेश 1. एक वैद्य तो रोगों को नष्ट कर नेवाले और प्राणों की रक्षा करनेवाले होते हैं, दूसरे रोगों को बढ़ानेवाले और प्राणोंको इनन करनेवाले होते हैं ॥ ३ ॥
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'सूत्रस्थान- म०९.
अग्निवेशका प्रश्न । एवंवादिनभगवन्तमात्रेयमग्निवेशउवाचभगवन् ।
तेकथमस्माभिवेदितव्याभवेयुरिति ॥४॥ इस प्रकार कहतेहुए भगवान् आत्रेयजीसे अग्निवेश कहनेलगे कि हे भगवन् ! हम इन दोनोंको किस प्रकार जानसकते हैं अर्थात् इन दोनोंके जाननेका क्पा उपाय है ॥ ४ ॥
सदैद्यके लक्षण। भगवानुवाचयइमेकुलीनाः पर्यवदातश्रुताः परिदृष्टकर्माणो दक्षाः शुचयोजितहस्ताजितात्मानःसर्वोपकरणवन्तःसर्वेन्द्रियोपपन्नाःप्रतिज्ञाःप्रतिपत्तिज्ञास्ते प्राणिनामभिसराहन्तारो रोगाणांतथाविधाहिकेवलेशरीरज्ञानेशरीराभिनिवृत्तिज्ञानेप्र.. कृतिविकारज्ञानेच निःसंशयाः सुखसाध्यकच्छ्रसाध्ययाप्यप्रत्याख्येयानाश्चरोगाणांसमुत्थानपूर्वरूपलिङ्गवेदनोपशयविशेषविज्ञानेव्यपगतसन्देहाःत्रिविधस्यायुर्वेदसत्रस्यससंग्रहव्याकरणस्यसत्रिविधौषधग्रामस्यप्रवक्तारः ॥ ५ ॥ यह सुनकर भगवान् आत्रेयजी कहनेलगे कि जो वैध कुलीन, अनुभवसम्पन्न, शास्त्रज्ञ, दृष्टकर्मा, चतुर, पवित्र, सिद्धहस्त, जितात्मा औषधादि सब उपकरण संयुक्त, सर्वेन्द्रियसम्पन्न तथा प्रकृतिका जाननेवाला होताहै उसको प्राणाभिसर अर्थात प्राणरक्षक वैद्य कहते हैं तथा शारीरिक सम्बन्धमें पूर्णज्ञानी शरीरनाशक रोग तथा द्रव्योंका जाननेवाला, शरीरके उत्पत्तिकारक पदार्थोंको जाननेवाला, प्रकृतिके ज्ञानके विषयमें निःसंशय हो तथा सुखसाध्य, कष्टसाध्य, याप्यसाध्य,
और असाध्य रोगोंके कारण, पूर्वरूप, रूप, वेदना और उपशय इनके ज्ञानविशेपमें संदेहरहित एवम् हेतु लक्षण औषधेि इस त्रिविध आयुर्वेदसूत्रके संग्रह भौर व्युत्पात्री एवम् त्रिविध औषधके जाननेमें यथार्थज्ञानी हो उसको प्राणाभिसर रोगहन्ता वैद्य कहते हैं ॥ ५ ॥
पञ्चत्रिंशतश्चमूलफलानांचतुणांमहास्नेहानांपञ्चानांलवणानामष्टानाञ्चसूत्राणामष्टानाञ्चमूत्राणामष्टानाञ्चक्षीराणांक्षारत्वक्वृक्षाणाञ्चषण्णांशिरोविरोचनादेश्चपञ्चकमाश्रियस्योष
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(३९२)
चरकसंहिता-भा० टी०। धगणस्याष्टाविंशतेश्चयवागूनांद्वात्रिंशतश्चचूर्णप्रदेहानांषण्णां विरेचनशतानां पञ्चानाञ्चकषायशतानामितिस्वस्थवृत्तौच
भोजनपाननियमस्थानचङ्क्रमणशय्यासन-मात्रा-द्रव्याञ्ज. : नधूमनावनाभ्यञ्जन-परिमार्जनवगविधारणाविधारण- व्या। “ यामसात्म्येन्द्रियपरीक्षोपक्रमलवृत्तकुशलाः॥६॥
तथा पैंतीसप्रकारके मूल और फल,चार महास्नेह, पञ्चलवण, अष्टमूत्र, आठमकारके दूध, क्षीरप्रधान तथा त्वचाप्रधान वृक्षोंके षट्क ( छःप्रकार ) शिरोविरे चनादि पंचकर्माश्रित औषधिगण, अहाइसप्रकारकी यवागू, वतीसप्रकारके चूर्ण और प्रलेप, छःसौ विरेचन, पांच सौ कषाय, स्वाथ्यरक्षाके लिये भोजन पानके नियम, स्थान, भ्रमण, शय्या, आसन, मात्रा, द्रव्य, अंजन, धूम्रपान, नस्य, अभ्यंजन, परिमार्जन, वेगोंका धारण,और वेगोंका अविधारण, व्यायाम, इन्द्रिय, सात्म्य और पदार्थोंकी परीक्षा,एवम् रोगोंका निवृत्तिकारक यत्न आदि श्रेष्ठवृत्तमें कुशल हो उसको ही प्राणाभिसरवैद्य कहतेहैं॥ ६ ॥ ( प्रथमाध्यायसे नवमतकका कथन इसमें कियागया)
चतुष्पादोपगृहीतेचभेषजेषोडशकलेसविनिश्चयेसत्रिपर्येषणे
सवातकलाकलज्ञानेव्यपगतसन्देहाः चतुर्विधस्यचस्नेहस्यच' तुर्विशत्यपनयनस्यउपकल्पनीयोक्तचतुःषष्टिपर्यन्तस्यव्यव- .
स्थापयितारोवहविधविधान-युक्तानाञ्चस्नेहस्वेद्यवस्यविरेच्यो....षधोपचाराणांकुशलाःशिरोरोगादेश्चदोषांशविकल्पजस्यव्या। घिसंग्रहस्यसंक्षयपिडकविद्रधेःत्रयाणाञ्चशोफानांबहुविधशो- फानुबन्धानामष्टाचत्वारिंशतश्चरोगाधिकारिणांचत्वारिंशदधिकस्यचनानात्मजस्यव्याधिशतस्य । तथाविगर्हितातिस्थूलातिकशानांसहेतुलक्षणोपक्रमाणांस्वप्नस्यचहिताहितस्यास्वप्नातिस्वप्नस्यच सहेतूपक्रमस्यषण्णाञ्चलंघनादीना- । मुपक्रमाणांसन्तर्पणापतर्पणजानारोगाणांस्वरूपप्रशमनानां शोणितजानाञ्चव्याधीनांमदमूर्छायसंन्यासानाञ्चसकारणरूपोषधानांकुशलाः। कुशलाश्चाहारविधिनिश्चयस्यप्रकत्याहित
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' सूत्रस्थान - अ० २९. . तमानामाहारविकाराणामत्र्य संग्रहस्यासवानाञ्चचतुरशीतेः
(३९३)
द्रव्यगुणविनिश्चयस्यरसानुरससंश्रयस्यसविकल्पकवैरोधिकस्य द्वादशवर्गाश्रयस्य चान्नपानस्य सगुणप्रभावस्य सानुपानगुणस्य विविधस्यान्न संग्रहस्यआहारगते श्वहिताहितोपयोगविशेषात्मकस्यचशुभाशुभविशेषस्यधात्वाश्रयाणाञ्च रोगाणामौषधसंग्रहाणाञ्चदशानाञ्च प्राणायतनानांयञ्चवक्ष्याम्यर्थे दशमहामूलीयेत्रिंशत्तमाध्यायेतत्र च कृत्स्नस्यतन्त्रोद्देश लक्षणस्यतन्त्रस्वच ग्रहणधारणविज्ञानप्रयोगकर्मकार्य्यं काल कर्तृकरणकुशलाः ॥७॥
षोड़शकलायुक्त चतुष्पाद औषधका ज्ञान, त्रिविध एषणा, वातकलाकल ज्ञानमें निःसंदेह, चतुर्विध स्नेह, चौवीस प्रकार स्नेहकी विचारणा, उपकल्पनीय अध्यामें कई चौंसठ प्रकारकी व्यवस्थापयिता हो एवम् अनेक प्रकारके विधानसे स्नेहन, स्वेदन, वमन, विरेचनके योग्य प्रयोग, औषध, उपचार इनमें कुशल हो उसको ही प्राणाभिसर वैद्य कहना चाहिये । शिरोरोगादिक रोगोंके दोषोंका अंशांश कल्पनाजन्य विकल्प व्याधिसंग्रह, दोष और धातुओंका क्षय, पिडका, विद्रधी, त्रिविध शोथ, शोथके अनेक प्रकारके अनुबंध, अडतालीस रोगाधिकरण, चालीस पित्तरोग, वीस कफरोग, अस्सी वातरोग, अतिस्थूल और अतिकृश शरीरोंकी निंदा और उनके कारण तथा लक्षण एवम् चिकित्सा । निद्रा, अनिद्रा, अतिनिद्राका हित और अहित, कारण, यत्न लंघन आदि छः प्रकारकी चिकित्सा, समर्पण और अपतर्पणजन्य रोगों के स्वरूप और उपाय, रक्त रोग, मद, मूर्च्छा, संन्यास इनके हेतु रूप और चिकित्सा इन सबमें कुशल हो । एवम् आहारविधि विनिश्चयमें कुशल स्वभावसे ही हितकारक आहार तथा आहारजन्य विकार और आहारजनित विकारोंके सिवाय अन्य विकारोंके कारण चौरासी प्रकारके आसव द्रव्योंके गुणोंका विनिश्चय रस तथा अनुरसोंका विनिश्चय तथा उनके भेद विरोधकारक आहारोंका वर्णन, अन्नपान विषयक द्वादश वर्गोंका निश्चय, अन्नपान और गुणके प्रभाव तथा उनके अनुपानों के गुण तथा उनकी विधि अनेक प्रकारके द्रव्योंकी गुरुता और लघुताका संग्रह, आहार सम्बन्धी हित और अहित पदार्थों का उपयोग तथा उनसे होनेवाले शुभ अशुभ रसादिक धातुओंके आश्रितरोग और उनके उपाय प्राणोंके दश स्थान और जो कुछ दशमूलीय नामक तीसवें अध्याय कथन करेंगे वह संपूर्ण तथा इस प्रकार शास्त्रका उद्देश्य, लक्षण, ग्रहण
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(३९४)
चरकसंहिता - भा० टी० ।
धारणका अनेक प्रकारका ज्ञान एवम् प्रयोगज्ञान, कर्म, कार्य, काल, कर्ता, और करण इन संपूर्ण विषयों में कुशल हो ( नौसे लेकर तीसवें अध्यायतककी सूची इसमें देदी ॥ ७ ॥
कुशलाश्चस्मृतिमतिशास्त्रयुक्तिज्ञानस्यात्मनः
शीलगुणैरविसं
वादनेनसम्पादनेन सर्वप्राणिषुचचेतसोमैत्रस्यमातृपितृभ्रातृबन्धुवदेवंयुक्ताभवन्तिअग्निवेश। प्राणानामभिसराहन्तारोरोगाणामिति ॥ ८ ॥
इस प्रकार सूत्रस्थानेोक्त तीस अध्यायोंके विषयोंका यथोचित ज्ञान रखता हुआ स्मृति, मति, शास्त्र, युक्ति तथा ज्ञान सम्पन्न हो एवम् आत्माके शील आदि गुणोंसे सव मनुष्यों में मैत्री भाव रखता हुआ तथा निर्विवाद होकर संपूर्ण मनुक्योंका माता, पिता, भाई और बंधुवर्ग के समान हित करनेवाला हो। इन उपरोक्त संपूर्ण गुणवाला जो वैद्य होता है है अग्निवेश ! उसको ही प्राणाभिसर और रोगोंका नाश करनेवाला वैद्य कहना चाहिये ॥ ८ ॥
रोगाभिसर के लक्षण |
अतो विपरीतारोगाणामभिसराहन्तारः प्राणिनामिति । भिषक्छ्रद्मप्रतिच्छन्नाःकण्टकभूतालोकस्यप्रतिरूपिकसहधर्माणोराज्ञांप्रमादाच्चरन्तिराष्ट्राणि । तेषामिदं विशेषविज्ञानमत्यर्थवैद्यवेशेनश्लाघमानाविशिखान्तरमनुचरन्तिकर्म लोभात् । श्रुत्वाचकस्यचिदातुर्य्यमभितः परिपतन्तिसंश्रवणेचास्यात्मनोवैद्यगुणानुच्चैर्वदन्तियच्चास्यवैद्यः प्रतिकर्म्मकरोतितस्य
चदोषान्मुहुर्मुहुरुदाहरन्तिआतुरमित्राणिचप्रहर्षणोपजापोपसेवा
भिरिच्छन्तिआत्मीकर्त्तुमल्पेच्छताञ्चात्मनः ख्यापयन्तिकर्म्मचा
साद्यमुहुर्मुहुरवलोकयन्तिदक्ष्येणाज्ञानमात्मनः छादयितुकामाव्याधिञ्चापवर्त्तयितुमशक्नुवन्तेाव्याधितमेवानुपकरणमप
चारिकमनात्मवन्तमुद्दिश्यन्तिअन्तर्गतञ्चाभिसमीक्ष्यान्धमा
श्रयन्ति देशमा देशमात्मनः कृत्वा । प्राकृतजनसन्निपातेचात्मनः कौशलम कुशलवद्वर्णयन्ति अधीरवच्चधैर्य मपवदन्तिधीराणाम् ।
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सूत्रस्थान-अ०.२९
(३९५ 'विद्वज्जनसन्निपातञ्चाभिसमक्ष्यिप्रतिभयमिवकान्तारमध्वगा:
परिहरन्तिदूरात् ॥९॥ इन उपरोक्त संपूर्ण लक्षणोंसे विपरीत गुणवालेको रोगाभिसर और प्राणनाशक कहनाचाहिये । जो लोग वैद्यका वेश धारण किये, संसारमें कंटकरूप वैद्योंकेसे रूप धारण कियेहुए राजाओंको असावधानीस राज्यके अन्दर फिरते हैं उन धूतोंकी यही पहिचान है कि वह वैद्यका वेश धारण कियहुए अपने मुखसे अपनी बडी वडाई करतेहुए रास्तमें तथा जिस मार्गपर बहुत आदमी फिराकरते हैं उन स्थानों में कर्म लोभसे फिरा करते हैं और किसी मनुष्यको बीमार सुनकर झट उसके पास जा पहुँचते हैं और उसके कानके समीप विना ही पूछे अपने वडेभारी वैद्य होनेके गुण वर्णन करने लगजाते हैं और जो वैद्य पहिले उपाय कर रहाहो उसके दोषोंको वारबार अपने मुखसे.कथन करतेहुए अपनी प्रशंसा करते हैं तथा रोगीके मित्रोंको किसी प्रकारकी सेवा आदिस या अन्य किसी लोभसे प्रसन्न कर अपना बनानेकी इच्छा करतेहैं और अपने आपको निर्लोभ जंचाते हुए रोगीके सम्बन्धियोंसे अपने लेनके विषयमें वडी युक्तिके साथ थोडीसी इच्छा जंचाते हैं। तथा चिकित्सा करतेहुए पाखण्डसे रोगी और औषधीको बारबार देखतेहुए अपनी औष:: धाकी तारीफ करतेहैं और चतुराईपूर्वक अपनी मूर्खताको छिपाते जाते हैं । जब रोग बढने लगताहै तो रोगीको कुपथ्य करनेवाला और अजितात्मा बताकर अपनेको निर्दोष ठहरा अपने अवगुणको छिपाना चाहतेहैं । रोगीकी अवस्था बिगडते. देख उसके मकानको छोड दूसरे स्थानमें चलेजाते हैं । और हमको कहीं अत्यावश्यक कार्य है ऐसा कहकर अन्यस्थानमें चलेजातेहैं । यह दुष्ट साधारण मनुष्योंके समूहमें उन लोगोंको मूर्खसा बनाते हुए अपनी इतनी चतुराई दिखाते हैं
और अधीरके समान ऐसी बातें बनाते हैं कि जिनको सुनकर धीरपुरुषोंका भी, धैर्य जातारहे । जब किसी विद्वानको आते देखते हैं तो मारे भयके दूरसे ही उनको. देखकर स्त्रियोंके आने जानेके रास्तेसे झट इधर उधर छिपजाते हैं ॥ ९॥ .
यश्चैषांकश्चित्सूत्रावयवउपयुक्तस्तंप्रकृतेप्रकृतान्तरेवासततमुदाहरन्तिनचानुयोगमिच्छन्तिअनुयोक्तुंवामृत्योरवचानुयोगादुद्विजन्ते । नचैषामाचार्य:शिष्योवासब्रह्मचारीवैवादिको वाकश्चित्प्रज्ञायते इति ॥ १०॥ यह दुष्ट किसी एकाध वैद्यकके सूत्रके अवयवको अण्टसण्ट याद कररखते हैं उसको सब लोगोंमें बारम्बार उच्चारण करतेहुए अहंकारपूर्वक कहाकरते हैं कि
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(३९६)
चरकसंहिता-भा० टी० इमारा किसीसे शास्त्रार्थ कराओ जिस प्रकार मेहनतसे.हमने वैद्यकशास्त्रको पढा, और कौन परिश्रम करसकताहै यदि दैवयोगसे इनको कोई बुद्धिमान् शास्त्री बातचीत करनेवाला मिलजाय तो उससे बात करतेहुए भी घबडाते हैं । यदि कोई इनसे शास्त्रार्थ करनेकी इच्छा करे तो मृत्युके समान डरते हैं । न तो कहीं इनके गुरुका पता होताहै न इनके शिष्य आदिक कहीं होते हैं न कोई इनका स्वाध्यायी दिखाई पडताहै न किसी ऐसे वैद्यका पता लगताहै कि जिससे इन्होंने कभी शास्त्रकी बातचीत की हो ॥ १०॥ भिषक्छद्मप्रविश्यैवव्याधितांस्तयन्तिये । वसंतमिवसंश्रि. त्यवनेशाकुन्तिकोद्विजान् । श्रुतदृष्टक्रियाकालमात्रास्थानबहिष्कृताः । वजनीयाहितेनृत्योश्चरन्त्यनुचराभुवि ॥११॥ जैसे शिकारी पक्षियोंको जालमें फंसानेके लिये वनमें छिपे हुए रहते हैं उसी. प्रकार यह दुष्ट भी वैद्योंका स्वरूप बनाये हुए रोगियोंको अपन जालमें फंसानी कोशिशमें रहते हैं। शास्त्र,अनुभव, क्रिया,काल,मात्रा, स्थान, इन सबके ज्ञानसे रहित, मृत्युके अनुचररूप जो वैद्यका वेश धारण किये फिरते हैं उनको वैद्यकीय क्रियामें दृष्टिमात्रसे ही त्याग देना चाहिये ॥ ११ ॥
वृत्तिहतोर्मिषड्मानपूर्णान्सूर्खविशारदान् ।
वर्जयेदातरोविद्वान् सास्तेपीतमारुताः॥ १२॥ जो मनुष्य सामान्य आजीवन के निमित्त वैद्यवेश धारण किये हुए हैं ऐसे धूर्तीके गुरुओंको बुद्धिमान् रोगी दूरसे ही त्याग देवे क्योंकि यह दुष्ट पवन पिये हुए सौके समान जानने चाहिये ॥ १२ ॥
येतुशास्त्रविदोदक्षा शुचयःकर्मकोविदाः।
जितहस्ताजितात्मानस्तेभ्यानित्यकर्तनमः ॥ १३॥ जो वैद्य शास्त्रके जाननेवाले हैं तथा आयुर्वेदके सब विषयों में चतुर हैं, शुद्धचित्त हैं, वैद्यकर्ममें विशारद हैं, जिन्होंने हस्तक्रियाको भले प्रकार सीखाहै उन जितात्मा वैद्योंको नित्यप्रति नमस्कार है ।। १३ ।।
तत्र श्लोकः। .. दशप्राणायतनिकेश्लोकेस्थानार्थसंग्रहः। । . द्विविधाभिषजश्चोक्ताःप्राणस्यायतनानिच ॥ १४॥ इति दर्शप्राणायतनीयोनामोनत्रिंशोऽध्यायःसमाप्तः।
कः ।
।
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: सूत्रस्थान - अ० ३०.
(३९७ ) अध्याय की पूर्ति में यह एक श्लोक है - इस दश प्राणायतनीयनामक अध्यायमें संपूर्ण सूत्रस्थान के विषयोंका संग्रह, दो प्रकारके वैद्य और प्राणोंके दश स्थान वर्णन किये गये हैं ॥ १४ ॥
इति श्रीमहर्षिचरक० पं० रामप्रसाद वैद्य० भाषाटकियां दशप्राणायतनीयो नामैकोन त्रिंशोऽध्यायः ॥ २९ ॥
त्रिंशत्तमोऽध्यायः ।
अथातोऽर्थे दशमूलीयमध्यायं व्याख्यास्याम इति हस्माह
भगवानात्रेयः ।
C
अब हम अर्थदशमूलीय नामक अध्यायका वर्णन करते हैं ऐसा आत्रेय भगवान् कहने लगे ।
अर्थेदशमहामूलाःसमासक्तामहाफलाः । महच्चार्थश्च हृदयं पर्य्यायैरुच्यते बुधैः ॥ १ ॥
महत्, हृदय और अर्थ यह तीनों शब्द हृदयके वाचक हैं | हृदयसे दश घमनी संज्ञक नाडी लगी हुई हैं यह नाडियां महामूला और महाफला कही जाती हैं ॥१॥ हृदयाधीन अङ्गावयव ।
षडङ्गमङ्गविज्ञानमिन्द्रियाण्यर्थपञ्चकम् । आत्माचसगुणश्वेतःचिन्त्यञ्चत्वादिसंश्रितम् ॥ २ ॥ प्रतिष्ठार्थं हि भावानामेषां हृदयमिष्यते । गोपान सीनामागारकर्णिकेवार्थचिन्तकैः॥३॥
दो हाथ, दो पांव, मस्तक और देहका मध्यभाग यह शरीरके ६ अंग कहेजा - तेहैं | कान, त्वचा, नेत्र, जिह्वा और नासिका यह ९ इन्द्रियें कही जाती हैं । शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध यह ५ इन्द्रियोंके विषय होते हैं । सगुण आत्मा और चेतना शक्ति यह चिन्तनके योग्य हृदयके आश्रित हैं। संपूर्ण शारीरिक भावोंके आश्रयके लिये शरीरमें हृदयरूप खंभा है जैसे-घासके छप्पर के नीचे सम्पूर्ण छप्परके अवयवोंको टिकानेके लिये एक स्तम्भ रहता है उसी प्रकार शरीर के संपूर्ण भावोंको टिकानेके लिये हृदयके जाननेवालोंने हृदय कहा है ॥ २ ॥ ३ ॥
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३९८.)
चरकसंहिता-भा० टी ।
महामूलादिनामका कारण। . तस्योपघातान्मूयिंभेदान्मरणमृच्छति।
यद्धितत्स्पर्शविज्ञानंधारितत्तत्रसंश्रितम् ॥ ४॥ . हृदयमें चोट आदि किसी प्रकारका उपघात होनेसे संपूर्ण शरीरमें मूर्छाआजा लीहै एवम् हृदयके फटजानेसे मृत्यु होजातीहै । जो स्पेशन्द्रिय आदि इन्द्रियोंसे उत्पन्न हुई ज्ञानको धारण करनेवाली जीवनी शक्ति है वह हृदयके ही आश्र. यीभूत है ॥ ४॥
तत्परस्यौजसास्थानंतत्रचैतन्यसंग्रहः।।
हृदयंमहदर्थश्चतस्मादुक्तंचिकित्सकैः ॥ ५॥ चैतन्यशक्तिका धारण करनेवाला जो ओजधातु है वह ओज और चैतन्य भी हृदयके ही आश्रय हैं इस लिये चिकित्सकोंने हृदयको महत् और अर्थ कहाहै ५॥
ओजाधातुका गुणकर्म । तेनमूलेनमहतामहामूलामतादश । ओजोवहाःशरीरेवाविधम्यन्तेसमन्ततः ॥६॥येनौजसावर्त्तयन्तिप्रीणिताःसर्वदेहिनः ॥ यहतसर्वभूतानांजीवितंनावतिष्ठते ॥ ७ ॥
यह हृदय ही उन बडी बडी दश धमनियोंका मूल होनेसे वह नाडियाँ महा-मूला कहीजाती हैं यह दश धमनिये शरीरमें ओजको वहन करती हुई सम्पूर्ण शरीरमें ध्मायमान होती हैं इसलिये इनको धमनी कहते हैं । उस ओजके द्वारा ही सम्पूर्ण शरीरको पालन करती हुई देहको जीवित रखती है जिस ओजके विना सम्पूर्ण मनुष्योंका जीवन नहीं रहसकता ॥ ६ ॥ ७ ॥ यत्सारमादौगर्भस्ययोऽसौगर्भरसाद्रसः। संवर्द्धमानहृदयंसमाविंशतियत्पुरा ॥८॥ यस्यनाशात्तुनाशोऽस्तिधारियङ्घद
याश्रितम् ॥ यःशररिरसःस्नेहप्राणायनप्रतिष्ठिताः॥ ९॥ . ओंज ही आदिमें गर्भका सारभूत है तथा गर्भके उत्पन्न करनेवाले रसका भी सार है। यह भोज ही शरीरको उत्पन्न करनेके लिये हृदयमें प्रथम प्रवेश होताहै जिस ओजके नष्ट होनेसे शरीर भी नष्ट होजाताहै वह ओजही हृदयमें रहकर शरीरको धारण करताहै । यही शरीरका बल है, देह और प्राण इसीके आभित हैं तयां शरीरके धारण करनेवाले रस और वह यह सब उस ओजके ही आभय हैं और उस मोजका स्थान हृदय है ॥ ८ ॥ ९ ॥
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सूत्रस्थान-भ०३०
महाफलेकी निरुक्ति। तत्फलाविविर्धावातःफलन्तीतिमहाफलाः॥ध्यानाद्धमन्यः स्रवणास्त्रोतांसिसरणाच्छिराः॥ १०॥ तन्महत्तामहामूलास्तञ्चौजःपरिरक्षता॥परिहार्याविशेषेणमनसोदुःखहेतवः ॥११॥
शरीरको जीवित रखनेवाली अनेक किस्मकी वायुमें हृदयका फल है। उन 'यवनरूपी फलोंको हृदयसे लगी हुई धमनिय फलती हैं। इसीलिये इनको महाफला कहाजाताहै शरीरमें धमन ( रससे पूर्ण) करती हैं इसलिये धमनी कहीजाती हैं। श्रवण(पोषणकर्ता रसका स्राव करनेसे)स्रोत कहेजाते हैं । रसका सरण ( रसका अन्य स्थानमें पहुंचाना) करनेसे इनका नाम सिरा है ॥ १० ॥ उस हृदय तथा ‘उन धमनियों एवम् उस ओजकी रक्षा करते हुए मनुष्यको दुःखोंके हेतुओंसे बचना चाहिये अर्थात् जो जो वस्तुयें अथवा कृत्य इन हृदय और ओजमें हानिका. रक हों उनको त्याग देना चाहिये ॥ ११॥
हृायत्स्यायदोजस्यंस्रोतसांयत्प्रसादनम् ।।
तत्तत्सेव्यंप्रयत्नेनप्रंशमोज्ञानमेवच ॥ १२ ॥ जो पदार्थ हृदयको प्रिय हो तथा ओजको वढानेवाला हो एवम् धमनियोंके -स्रोतोंको प्रसन्न करनेवाला हो उसका ही यत्नपूर्वक सेवन करनाचाहिये एवंम् यत्नपूर्वक शान्ति और ज्ञानको धारण करनाचाहिये ॥ १२ ॥
ओज बलादि वर्द्धक एक २ उपाय । अथखलएकंप्राणवर्द्धनानामुतकृष्टतममेकंबलवर्द्धनानामेकंबूहणानामेकंनन्दनानामेकंहर्षणानामेकमयनानामिति ।तत्राहिंसाप्राणिनांप्राणवर्द्धनालामुस्कृष्टतमम्। वीय्यबलवर्धनानाम् । विद्याबृहणानाम् । इन्द्रियजयोनन्दनानाम् । तत्त्वाववोधोहर्षणानाम् । ब्रह्मचर्यमयनानामित्यायुर्वेदविदोमन्यते ॥१३॥ शरीरकी रक्षाके सम्बन्धमें अनेक उपाय होतेहुए भी प्राणोंको बढानेवाला सवमें उत्तम एक उपाय है वलवर्द्धक पदार्थोंमें एक उपाय प्रधान है । बृहणकर्ताओंमें, आनन्द वढानेवालोंमें, हषोत्पादकोंमें, सब प्रकारकी गति वढानेवालोंमें एक एक ‘उपाय सर्वोत्तम और प्रधान कहा है । वह इस प्रकार है-किसी प्रकारकी भी हिंसा -नं करना सबसे उत्तम माण वढानका उपाय है । वीर्यकी रक्षा सबसे बढकर बलवदक उपाय है। विद्या होना सबसे बढकर वृंहण ( पुष्टता) का उपाय हैं ।इन्द्रि
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(४००.)
चरकसंहिता - भा० टी०- 1
योंको अपने वश में रखना सबसे बढकर आनन्द बढानेका उपाय है, । तत्त्वका ज्ञान होना सबसे बढ़कर हर्ष ( प्रसन्नता ) के बढाने का उपाय है। ब्रह्मचर्य पालन करना सब प्रकारकी गति बढानेका उपाय है । आयुर्वेदके जाननेवाले इस प्रकार मानते हैं ॥ १३ ॥
आयुर्वेदवित् के लक्षण | तत्रायुर्वेदविदस्तन्त्रस्थानाध्यायप्रश्नानां पृथक्त्वेनवाक्यशोवाक्यार्थशोऽथावयवशश्चप्रवक्तारोमन्तव्याः ॥ १४ ॥
जिसको इस आयुर्वेद तन्त्र के स्थान, अध्याय, क्रमपूर्वक प्रश्नोंका विभाग, वाक्य, वाक्यार्थ, अर्थावयव अच्छी तरहसे आतेहों अर्थात् इन सबका जाननेवाला हो उसको आयुर्वेदवित् ( आयुर्वेदका जाननेवाला ) कहते हैं ॥ १४ ॥ तंत्रादिशब्दोंकी व्याख्या ।
अत्राहकथंतन्त्रादीनिवाक्यशोवाक्यार्थशोऽवयवशश्चेतिउक्तानिभवन्ति, अत्रोच्यते तन्त्रमार्षकात्स्न्येनयथास्थान मुच्यमानं वाक्यशोभवत्युक्तम् । बुद्धया सम्यगनुप्रविश्यार्थतत्वंवाग्भिर्वाससमास-प्रतिज्ञाहेतूदाहरणोपनयनिगमनयुक्ताभिः त्रिविधशिष्यबुद्धिगम्याभिरुच्यमानंवाक्यार्थशोभवत्युक्तम् । तन्त्रनियतानामर्थदुर्गाणांपुनर्भावनैरुक्तमर्थावयवशोभवत्युक्तम् । तत्रचेत्प्रष्टारः स्युः चतुर्णामृक्सामयजुरथर्ववेदानां कंवेदमुपदिशन्तिआयुर्वेदविदः । किमायुः कस्मादायुर्वेदविदः । किमायुः कस्मादायुर्वेदः किञ्चायमायुर्वेदः शाश्वतोऽशाश्वतइति । कानि चास्याङ्गानिकैश्चायमध्येतव्यः किमर्थञ्चेति ॥ १५ ॥
अब कहते हैं कि तन्त्रादिक वाक्यद्वारा तथा वाक्यार्थ द्वारा एवम् अर्थावयवद्वारा किस तरह जाने जाते हैं और किनको तन्त्रादि कहतेहैं । सो कहाजाता है कि भूत, भविष्यत, वर्त्तमानके जाननेवाले ऋषियोंके बनायेहुए ग्रन्थको तन्त्र कहा जाता है । बहुतसे विषयों के कथन के समुदायको स्थान कहते हैं और वह वेदानुसार कहांहुआ होनेसे वाक्य कहा जाता है । इस प्रकार संपूर्ण तन्त्रको भलेप्रकार जानकर उसके अर्थतत्त्वको प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण, उपनय, निगमनके साथ उत्तम बुद्धिवाले तथा मध्यम बुद्धिवाले एवम् कनिष्ठ बुद्धिवाले शिष्योंकी बुद्धिको जानकर संक्षेपसे अथवा विस्तार से समझाया जानेवाला उपदेश वाक्यार्थसे कथन करना कहाजाताहै । ग्रंथ में
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। सूत्रस्थान-०३०..
१४०१ कहेहुए कठिन कठिन शब्दोंको फिर अंशांशद्वारा स्पष्ट कर कहना अर्थावयव कहा. जाताहै। यादि वहाँपर कोई ऐसा प्रश्न करनेवाला हो कि ऋग्वेद, सामवेद,यजुर्वेद, अथर्ववेद इन चारों वेदों से किस वेदके कथन करनेवालेको आयुर्वेद के जाननेवाला कहना चाहिये,आयु क्या है,अयुर्वेद कहांसे हुआ और आयुर्वेद किसको कहतेहैं? यह आयुर्वेद प्रामाणिक है अथवा अप्रामाणिक एवम् नित्य है या अनित्यौआदिके कौन २अंग हैं ? किन लोगोंको आयुर्वेद पढना चाहिये ? आयुर्वेदके पढनेसे सिद्ध क्या होताहै अथवा आयुर्वेद किसलिये बनायागया ? ॥ १५॥ . .
तत्राभिषजापृष्टेनैवञ्चतुर्णामृक्सामयजुरथर्ववेदानामात्मनोऽ-: थर्ववेदेभक्तिरादेश्यावेदोह्यथर्वणः स्वस्त्ययनबलिमङ्गलहोमनियमप्रायश्चित्तोपवासमन्त्रादिपरिग्रहाच्चिकित्सांप्राह । चि. कित्साच युषोहितायोपदिश्यतेवेदश्चोपदिश्यआयुर्वीच्यम् । तत्र आयुश्चेतनामवृत्ति वितमनुबन्धोधारिचेत्येकोऽर्थः तत्र आयुर्वेदयतीत्यायुर्वेदःकथमित्युच्यतेस्वलक्षणतः. सुखासुख: तोहिताहिततःप्रमाणाप्रमाणतश्च । यतश्चायुष्यानायुष्याणि चद्रव्यगुणकर्माणिवेदयत्यतोऽप्यायुर्वेदः तत्रआयुष्याण्यनायुष्याणिचद्रव्यगुणकाणिकेवलेनोपदेक्ष्यन्ते ॥ १६ ॥. . . वैद्यके इस प्रकार प्रश्न करनेपर कहना चाहिये कि ऐसे मत कहो। ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद इन चारों वेदोंमें अथर्ववेद ही आयुर्वेदकी : आत्मा कहनाचाहिये क्योंकि अथर्ववेदमें कहेंहुए,स्वस्त्ययन,वलिदान,मंगलकर्म,होम, नियम, प्रायश्चित्तं, उपवास और मंत्र आदिकासे ही चिकित्साका निर्देश कियागयाहै । और आयुके हितके लिये ही चिकित्साका.उपदेश कियागयाहै। इसप्रकार आयुके वेदका कथन कर अब, आयुका कथन करतेहैं कि आयु.चेतना,प्रवृत्ति,जीवित,अनु. बंध यह सर्व आयुके पर्यायवाचक शब्द हैं इन सब शब्दोंमें आयुशब्द प्रसिद्ध होनेसे मुख्य रक्खा गयाहै सो आयुको विदित करानेवाला अर्थात् आयुसम्बन्धी ज्ञानके करानवाले शास्त्रको आयदि कहतेहैं। आयुर्वेद आयुका परिज्ञान किस प्रकार करता है सो कहते हैं । जैसे-आयुके लक्षण सुखायु,दुःखायुं, · हितआयु तथा अहितआयु. आयुका प्रमाण और अपमाण, जिसप्रकारं आयुके वढानेवाले पदार्थ आयुको बढातेहैं एवम् क्षय करतेहैं और द्रव्य, गुण, कर्म इन संवका यथार्थ ज्ञान करानेवाला आयुर्वेद कहा जाताहै. इस. आयुर्वेद में अ'युक्के बढानेवाले और आपुंके नष्ट करने वाले द्रव्य, गुण कर्मोका ही कंथन किया जाताहैः॥ १६ ॥ ... ... ...
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(४०२).
चरकसंहिता-मा० टी०। . . . सुखायु और दुःखायुके लक्षण । तन्त्रेणतंत्रायुरुक्तंस्वलक्षणतोयथावदिहैवतत्रशारीरमानसाभ्यारोगाभ्यामनभिद्रुतस्यविशेषेण यौवनवतः समर्थानुगतबलवीर्यपौरुषपराक्रमस्यज्ञानविज्ञानेन्द्रियन्द्रियार्थवलसमुदायेवर्तमानस्यपरमार्द्धसाचविविधोपभोगस्यसमृद्धसारम्भस्ययथेष्टविचारणासुखमायुरुच्यतेअसुखमतोविपर्यायेण ॥१७॥
आयुर्वेद शास्त्र करके आयुर्वेद और आयुका कथन किया जाचुकाहै अव सुखायु और असुखायुका लक्षण कहतेहैं । जो मनुष्य शारीरिक और मानसिक व्याधियोंसे दु:खित नहीं है और पूर्णरूपसे युवावस्थावाला है, जिसके शरीरमें भले प्रकार बल,वीर्य,पुरुषार्थ,पराक्रम प्राप्त है और ज्ञान,विज्ञान,इन्द्रिय और इन्द्रियार्थ इन सबके बल समुदायसे सम्पन्न हैं एवम् परम ऋद्धि सम्पन्न सुन्दर शोभायुक्त अनेक प्रकारके उपयोगयुक्त जिसके सब आरम्भ यथोचित समृद्ध हैं तथा वह मनुष्य स्वाधीन तथा सुन्दर विचारयुक्त हो उसके जीवितको सुखायु कहतेहैं । इससे विपरीत असुखायु (दुःखायु) जानना चाहिये ॥ १७ ॥
हिताहितआयुका वर्णन ।। हितैषिणःपुनर्भूतानांपरस्वात्उपरतस्यसत्यवादिनःशमपरस्य . परीक्ष्यकारिणोऽप्रमत्तस्यत्रिवर्गपरस्परेणानुपहतमुपसेवमानस्यपूजार्हसम्पूजकस्यज्ञानविज्ञानोपशमशीलवृद्धस्योपसेविनः सुनियतरागेामदमानवेगस्यसततंविविधप्रदानपरस्यतपोज्ञानप्रशमनित्यस्यअध्यात्मविदस्तत्परस्यलोकमिमञ्चामुञ्चावेक्ष्यमाणस्यस्मृतिमतिमतोहितमायुरुच्यते । अहितमतो . विपर्यायेण ॥ १८॥ जो मनुष्य संपूर्ण प्राणियोंका हित चाहनेवाला, परधनकी इच्छा न रखनेवाला, सत्यवादी, शान्तचित्त, विचारकर करनेवाला,अप्रमत्त, धर्म,अर्थ, काम इन सबको 'परस्पर अनुपहत विधिसे सेवन करनेवाला, पूज्यजन गुरुजन आदिकोंकी सेवा करनेवाला, ज्ञान, विज्ञान और उपशमशील, वृद्धजनोंकी सेवा करनेवाला, राग,
द्वेष, मद और मनके वेगको वशमें रखनेवाला,नित्य प्रति यथाशक्ति दान देनेवाला, । तप, ज्ञान,और इन्द्रियोंका शमन इनका अभ्यास करनेवाला, अध्यात्म विद्यायुक्त,
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सूत्रस्थान-१०३०.
(४०३) ईश्वरपरायण इस लोक और परलोकमें हितका चाहनेवाला तथा स्मृविसम्पन्न-इन सब गुणोंयुक्त मनुष्यकी आयु हितआयु कही जातीहै । और इससे विपरीत गुणोंवालेकी आयु अहित आयु कही जाती है ॥ १८॥
आयुका प्रमाण । प्रमाणमायुषस्त्वर्थेन्द्रियमनोबुद्धिचेष्टादीनांस्वेनाभिभूतस्य विकृतिलक्षणैरुपलभ्यतेअनिमित्तैरिदमस्मात्क्षणान्मुहादिवसात्त्रिपञ्चसतदशद्वादशाहात्पक्षात् मासात्षण्म सात्संवत्सराद्वास्वभावमापत्स्यतेइति । तत्रस्वभावःप्रवृत्तेरुपरमो मरणमनित्यतानिरोधइत्येकोऽर्थः इत्यायुषःप्रमाणमतोविपरीतमप्रमाणम् ॥ १९ ॥
अब आयुके प्रमाणको कथन करतेहैं। इन्द्रियोंके अर्थ यथा शब्द, स्पर्श आदि इन्द्रिय, मन, बुद्धि,चेष्टा आदिकोंकी विकृति आदिके लक्षणोंसे आयुका प्रमाण जाना जाताहै यदि इनमें अकस्मात् विकृति होजाय तो क्षणभरमें या मुहूर्तमें एक दिनमें अथवा तीन दिन, पाँच दिन, सात दिन, दशदिन, एवम् बारहदिनमें तथा पक्षमें या महीनेमें अथवा छमहीनेमें या एक वर्ष में मनुष्य स्वभावमें स्थित हो जाताहै । यहांपर स्वभाव, प्रवृत्तिका उपराम, मरण, अनित्यता, निरोध यह सब एक ही अर्थवाले शब्द हैं । अर्थात् मरणके वाचक हैं वस यही आयुके प्रमाण हैं। इससे विपरीत आयुका अप्रमाण जानना ॥ १९ ॥
आयुर्वेदका नित्यत्व प्रतिपादन । अरिष्टाधिकारेदेहप्रकृतिलक्षणमाधिकत्यचोपदिष्टमायुषःप्रमाणमायुर्वेदे । प्रयोजनचास्यस्वस्थस्यस्वास्थ्यरक्षणमातुरस्य विकारप्रशमनम् ।सोऽयमायुर्वेदःशाश्वतोनिर्दिश्यतेऽनादित्वा. स्वभावसंसिद्धस्वलक्षणत्वाद्भावस्वभावनित्यत्वाच्च । नहि नाभूत्कदाचिदायुषःसन्तानोवृद्धिसन्तानोवाशाश्वतश्चायुषोवेदिताअनादिमञ्चसुखदुःखंसद्रव्यहेतुलक्षणमपरापरयोगादेष चार्थसंग्रहोविभाव्यते। आयुर्वेदलक्षणमितियत्पुनःगुरुलघुशीतोष्णस्निग्धरूक्षादीनाञ्चद्वंद्वानांसामान्यावशेषायांवृद्धिह्रासौयथोक्तं गुरुभिरग्यस्यमानेगुरूणामुपचयोभवत्यपचयोल
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(४०४). चरकसंहिता-भा० टी०।
घूनामेवमेवेतरेषामित्येषभावस्वभावोनित्यः स्वस्वलक्षणश्च । . द्रव्यांणांपृथिव्यादीनांसन्तिद्रव्याणिगुणाश्चनित्यानित्याः॥२०॥ इन्द्रिय स्थानके अरिष्टाधिकारमें-देह, प्रकृति, लक्षण इनका वर्णन करते हुए : मायुका प्रमाण कथन कियागयाहै । ( इसको देखो) इस आयुर्वेदका प्रयोजन स्वस्थ (तन्दुरुस्त ) मनुष्यकी आरोग्यावस्था स्थिर रखना और रोगी मनुष्यको रोगसे छोडाना अर्थात् रोगीके रोगका शान्त करनाही है ।सो यह आयुर्वेद अनादि होनेसे और स्वभाव संसिद्ध लक्षण होनेसे अर्थात् आयुर्वेद अपने संपूर्णलक्षणों द्वारा स्वभावके अनुकूल और स्वतःसिद्ध होनेसे. एवम् भावोंका स्वभावकं नित्य.होनेसे आयुर्वेद नित्य है । आयुकी जो संतान है और वृद्धि संतान यह नित्य नहीं है ऐसा नहीं होसकता अर्थात् आयुक्रम और भावोंकी वृद्धि संतति भी अनादि है इसलिये नित्य है और आयुर्वेदका ज्ञाता भी नित्य है अर्थात् आयु आयुर्वेद और इनका ज्ञान और ज्ञानवाला यह सदासेही नित्य हैं क्योंकि सुख और दुःखके सर्व भावका लक्षण परम्परासे सम्बन्ध रखता चला आता है इससे इस संग्रहकी स्पष्ट नित्यता प्रतीति होतीहै । आयुर्वेदके नित्य होनेमें और भी लक्षण कंथन करते हैं। कि द्रव्योंका जो स्वभाव है यह भी नित्य है क्योंकि गुरु, लघु, शीत, उष्ण, . स्निग्ध, और रूक्ष आदिकों के सामान्य विशेष योगसे वृद्धि और हास होता है। (प्रथमाध्यायमें कथन कर चुके हैं सव भावोंकी सामान्यतासे प्रवृत्ति वृद्धिका कारण । और असामान्यतासे प्रवृत्ति ह्रासका कारण होताहै, जैसे कि-गुरु वस्तुओंका' । अभ्यास करनेसे गुरुताका उपचय और लघुताको अपचय होता है इसी अंकार रूक्ष । निग्ध आदि भावोंको भी जानना चाहिये)। इससे स्पष्ट जाना जाता है कि द्रव्योंके भावोंका स्वभाव.नित्य है । पृथ्वी आदिक पंचमहाभूतोंके गुणविशिष्ट जो द्रव्य है उनमें भी अपने २ लक्षणोंसे पृथिव्यादि महाभूतोंके गुण नित्य प्रतीत होतेहैं यद्यपि द्रव्योंमें रसादिगुण अनित्य होतहैं परन्तु जिस द्रव्यमें-जो आग्नेय या जलीयगुण प्रधान होताहै' 'वह कभी नष्ट नहीं होता। इससे स्पष्ट सिद्ध है कि भावोंके स्वभावोंको नित्यता होनेसे भी आयुर्वेद नित्य ही है ॥ २०॥":":... '
नहिआयुर्वेदस्याभूत्वोत्पत्तिरुपलभ्यते।अन्यत्रांवबोधोपदेशा-. भ्यामेतद्वैद्वयमधिकृत्यउत्पत्तिमुपदिशन्त्येकेस्वाभाविकञ्चास्य' लक्षणमधिकृत्ययदुक्तमिहचायेअध्यायेयथाग्नेरोष्ण्यमपांद्रवत्वंभावस्वभावनित्यत्वमपिचास्ययथोक्तं गुरुभिरभ्यस्यमान गुरूणामुपचयोभवत्यपचयोलघूनामित्येवमादि ॥२१॥
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( . ४०५.)
आयुर्वेद उत्पन्न हुआ है ऐसा भी नहीं कहसकते क्योंकि ब्रह्माको आयुर्वेदक ज्ञान हुआ और इन्द्रने आयुर्वेदका उपदेश किया यह दो प्रकारसे आयुर्वेद उत्पन्न हुआ इस कथन से भी आयुर्वेद अनित्य नहीं होसकता क्योंकि ब्रह्माको ज्ञान होनसे प्रथम भी आयुर्वेद था यह स्पष्ट प्रतीत होता है । कोई कहते हैं कि आयुर्वेदका नित्य होना स्वभाव से ही सिद्ध है । जैसे प्रथामा ध्यायमें कहआयेहैं कि अग्निमें उष्णता और जलमें द्रवता उनका स्वाभाविक और नित्यधर्म है उसी प्रकार गुरु द्रव्योंके सेवन से गुरुताका उपचय होना और लघुताका अपचय होना आदि भी स्वभावसिद्ध हैं । सो इन सब प्रमाणोंसे आयुर्वेद स्वभावसिद्ध और नित्य सिद्ध हो चुका ॥ २१ ॥
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- सूत्रस्थान - अ० ३०,
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आयुर्वेदके आठ अङ्ग तथा उनसे धर्मप्राप्ति । तस्यायुर्वेदस्य अङ्गानि अष्टौ । तद्यथा । कायचिकित्साशालाक्यं - 'शल्या पहर्तृकंविषगरवशोधक प्रशमनं भूतविद्या कौमारभृत्य करसायनानिवाजीकरणमिति । सचाध्येतव्यो ब्राह्मणराजन्यवैश्यैः । तत्रानुग्रहार्थप्राणिनां ब्राह्मणैरात्मरक्षार्थ राजन्यैर्वृत्त्यर्थं वैश्यैः सामान्यतोवाधर्मार्थकामप्रतिग्रहार्थं सर्वैः । तंत्रचयदध्यात्मविदां धर्मपथस्थानां धर्मप्रकाशानांबामातृपितृभ्रातृबन्धुगुरुजनस्यवात्रिकार प्रशमनेप्रयत्नवान्भवति । यश्चायुर्वेदोक्तमघ्या - त्ममनुध्यायति वेदयत्यनुविधीयते वासोऽप्यस्यपरोधर्मः ॥ २२ ॥ उस आयुर्वेद के आठ अंग हैं जैसे कायचिकित्सा, शालाक्यतन्त्र, शल्यापहर्तृ'कतन्त्र, विषगखैरोधिकतन्त्र, भूतविद्या, कौमारभृत्यक, रसायनतन्त्र और वाजीकरण तन्त्र इन आठ तन्त्रों से युक्त आयुर्वेद ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्योंको पढना चाहिये । सामान्यता से उनमें ब्राह्मणको सम्पूर्ण जीवोंपर दया करनेके लिये, क्षत्रियोंको अपनी 'आत्मरक्षा के लिये और वैश्योंको अपनी वृत्तिके लिये अध्ययन करना चाहिये । अथ धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष सबको इनके साधन के लिये आयुर्वेदका अध्य'यन करना चाहिये। उन आत्मज्ञांनी, धर्मपरायण, धर्म के प्रकाश करनेवालोंको माता, पिता, भाई, बन्धु और गुरुजनोंके विकार शान्तिके लिये यत्नवान् रहना चाहिये। जो मनुष्य आयुर्वेदोक्त अध्यात्म विषयोंको अनुध्यायन करते हैं अर्थात् जानते हैं अथवा आयुर्वेदीय विषयोंको जानना, मनन करना और संपूर्ण आयुर्वेद के जानने में यत्नवान् रहना यह इसका परमधर्म है ॥ २२ ॥
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(४०६)
चरकसंहिता-भा० टी०॥
। आयुर्वेदसे धर्मादिप्राप्ति । यापुनरीश्वराणांवसुमतांवासकाशात्सुखोपहारनिमित्ताभवत्यथलवावातिरवेक्षणञ्चयाचस्वपरिगृहीतानांप्राणिनामातुर्य्याद्रक्षाक्षमत्वञ्चास्यार्थः। यत्पुनरस्यविद्वग्रहणंयशःशरण्यत्वंयाचसमानशुश्रूषायचेष्टानांजनानामारोग्यमाधत्तसोऽस्यकामइति ॥ २३॥
आयुर्वेद पढनेसे धनिक पुरुषोंसे अथवा राजाओंसे सुखपूर्वक आहार आदिके लिये द्रव्यकी प्राप्ति होना और अपने परिवारकी रोगसे रक्षा करना तथा जो मनुष्य इसके आश्रयाभूत हों उनको रोगसे बचाना यह उसका परमअर्थलाभ है। जो आयुर्वेदीय चिकित्साद्वारा विद्वानों में यशका फैलना तथा वडे २ योग्य पुरुषोंको अपने वशीभूत करलेना, अपने समान मनुष्योंमें बडाईका पाना एवम् अपने प्रियपात्रोंको आरोग्यकर चित्तमें आनन्दलाभ करना यह परम कामनाकी प्राप्ति है। इस प्रकार आयुर्वेदके अध्ययनसे धर्म, अर्थ, और काम इन सबकी सिद्धि होती है ॥ २३ ॥
शास्त्रविषयक आठ प्रश्न। यथाप्रश्नमुक्तमशेषेण । अथभिषगादितएवभिषजाप्रष्टव्यइति अष्टविधम् । तद्यथा-तन्त्रंतन्त्रार्थस्थानानिस्थानार्थानध्याथानध्यायार्थान्प्रश्नान्प्रश्नार्थाश्चेति ॥२४॥ पृष्टेचैतद्वक्तव्यमशेषेणवाक्यशोवाक्यार्थशोऽर्थावयवशश्चति ॥ २५॥ इस प्रकार अशेषरूपसे संपूर्ण प्रश्नोंका उत्तर कहा गया । अव कहतेहैं कि वैद्यको वैद्यके ऊपर प्रथम ही यह आठप्रकारके प्रश्न करना चाहिये। जैसे तंत्र क्या है, तंत्रार्थ किसे कहतेहैं, स्थान क्या है, स्थानार्थ किसको कहतेहैं एवम् अध्याय: अध्यायार्थ प्रश्न, और प्रश्नार्थ किसको कहतेहैं इन आठ प्रकारके प्रश्नोंको करना चाहिये ॥ २४ ॥ यदि कोई अपने ऊपर इन आठ प्रश्नोंको करे तो वाक्यसे, वाक्यार्थसे एवम् अर्थावयवसे भलेप्रकार वर्णन करदेना चाहिये जैसे इसी अध्यायः के पन्द्रहवें सूत्र में कहआये हैं ॥ २५ ॥
क्रमानुसार प्रश्नाष्टकका उत्तर । तत्रायुर्वेदःशाखाविद्यासूत्रज्ञानशास्त्रलक्षणतन्त्रमित्यनान्त- , रम् । तन्त्रार्थःपुनःस्वलक्षणेनोपदिष्टःसचार्थःप्रकरणैर्विमा
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सूत्रस्थान - अ० ३०.
( ४०७ )
व्यमानोभूय एवशरीरवृत्तिहेतुव्याधि कर्म कार्यकालकर्तृकरणविधिविनिश्वयोद्देशप्रकरणाः तानिचप्रकरणानि केवलेनो पढ़ेक्ष्यन्ते तन्त्रेण ॥ २६ ॥
शाखा, विद्या, सूत्र, ज्ञान, शास्त्र, तंत्र, आयुर्वेद यह सब शब्द पर्यायवाचक है अर्थात् इन सबमें किसी एकके कहनेसे आयुर्वेदका ही नाम जानना। यह सब शब्द तंत्र वाचक हुए | तंत्रार्थ उसके लक्षणों की व्याख्या में कथन कियागया है और फिर भी तंत्र का अर्थ अर्थात् विषय इसके प्रकरणोंसे जानाजाता है । जैसे शरीरवृत्ति, हेतु, व्याधि, कर्म, कार्य, काल, कर्त्ता, करण, विधि, विनिश्वय और कल्पना यह सब तंत्र अर्थात् आयुर्वेद के प्रकरण हैं इनके देखनेसे तंत्रार्थ अर्थात् तंत्र का विषय जानाजाताहै ॥ २६ ॥
आठ स्थानोंके नाम |
तन्त्रमष्टौस्थानानि । तद्यथा - श्लोक - निदान - विमानशारीरेन्द्रिय-चिकित्सित-कल्प - सिद्धिस्थानानि । तत्रत्रिंशदध्यायकंश्लोकस्थानम् । अष्टाध्यायकानिनिदानविमानशरीरस्थानानि । द्वादशकामिन्द्रियाणाम् । त्रिंशकंचिकित्सितानाम् । द्वादशके कल्पसिद्धिस्थानइति ॥ २७ ॥
तंत्र आठ स्थान हैं। जैसे श्लोक ( सूत्र ) स्थान, निदानस्थान, विमानस्थान, शारीरस्थान, इन्द्रियस्थान, चिकित्सास्थान, कल्पस्थान, और सिद्धिस्थान इन आठों में तसि अध्यायोंका सूत्रस्थान है, निदानस्थान, विमानस्थान और शारी-रस्थान इन सबमें आठआठ अध्याय हैं । इन्द्रियस्थानमें बारह अध्याय हैं । चिकित्सास्थान में तीस अध्याय हैं । कल्पस्थानमें बारह अध्याय हैं एवम् सिद्धि स्थानमें बारह अध्याय हैं ॥ २७ ॥
भवतिचात्र । द्वात्रिंशकेद्वादशकत्रयञ्च त्रीण्यष्टकान्येषुसमाप्तिरुक्ता । श्लोकौषधारिष्टविकल्पसिद्धिनिदानमानाश्रयसंज्ञकेषु ॥ २८ ॥
यहां पर कहा है कि दो स्थान तीस तीस अध्यायोंके हुए और तीन वारह अध्या-के हुए एवम् तीन आठ आठ अध्यायों में समाप्त किये गये हैं । इनमें सूत्रस्थान और चिकित्सास्थान तीस तीस अध्यायोंमें, इन्द्रियस्थान और कल्पस्थान एवम् सिद्धि
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.( ४०८) चरकसंहिता-भा० टी०। स्थान बारह बारह अध्यायोंमें तथा निदानस्थान और विमानस्थान एवम् शारी रस्थान आठ आठ अध्यायोंमें वर्णन कियेगयहैं ॥२८॥
स्वस्वस्थानेयथास्वञ्चस्थानार्थउपदेक्ष्यते
सविंशमध्यायशतंशणनामक्रमागतम् ॥ २९॥ ... . सूत्रादिस्थानोंमें उन स्थानोंके स्थानार्थ अर्थात् स्थानोंके विषय कथन कियेहैं। इन सब स्थानोंके १२० अध्याय हुएं । उन सब अध्यायोंके क्रमपूर्वक नाम श्रवण करो ॥ २९ ॥....
... भेषजाश्रयअध्यायोंके नाम । .. " " दीर्घजीवोऽप्यपामार्गतंडलारग्वंधादिकौ।।
षड्विरेकाश्रयश्चेतिचतुष्कोभेषजाश्रयः ॥ ३०॥ जैसे-दीर्घजीवितीय, अपामार्गतंडुलीय, आरग्वधादि, और षड्विरेचन शता. नितीय-इन चार अध्यायोंमें औषधियों का विषय वर्णन किया गयाहै ॥ ३०॥
स्वास्थ्यवृत्तिक अध्यायोंके नाम । - मात्रातस्याशितीयौचनवेगान्धारणतथा। .. . 2. इन्द्रियोपक्रमश्चेतिचत्वारःस्वास्थ्यवृत्तिकाः ॥ ३१॥ मात्राशितीय, तस्याशितीय, नगान्धारणीय और इन्द्रियोपक्रमणीय-ये चार । अध्याय स्वाथ्यरक्षाक विषयमें कथन कियेगये हैं ॥ ३१ ॥ . . .
'- नैर्देशिक अध्यायोंके नामः । . . . — खुड्डाकश्चचतुष्पादोमहांस्त्रिौषणस्तथा।
सहवातकलाख्येनविद्यान्नेदेशिकान्बुधः ॥ ३२ ॥ . खुड्डाकचतुष्पाद, महाचतुष्पाद, विस्लेषणीय और वातकलाकलीय-ये चार अध्याय कर्तव्य और अकर्तव्य के विषयमें कथन कियेगये हैं ॥ ३२ ॥
., उपकल्पना विषयकं अध्यायों के नाम । ": :: : स्नेहनस्वेदनाध्यायावुभौयश्चापकल्पनः। . . . :
. : . चिकित्साप्रभृतश्चैवसर्वाएवोपकल्पनाः ॥ ३३॥ • 5 नेहाध्याय, स्वेदाध्याय, , उपकल्पनीयाध्याय और चिकित्साप्रभृतीय-ये चार "अध्याय. उपकल्पनाके विषयों कथन किये गये हैं ।।.३.३ ॥. .. . . . ., ...
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सूत्रस्थान - अ० ३०..
. रोगाध्यायों के नाम । कियन्तः शिरसीयश्वत्रिशोफाष्टोदरादिकौ । रोगाध्यायो महांश्चैव रोगाध्यायचतुष्टयम् ॥ ३४ ॥
कियन्तः शिरसोय, त्रिशोफीय, अष्टोदरीय और महारोगाध्याय इन चार अध्यायोंमें रोगोंका, विषय है ॥ ३४ ॥
•
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"
-योजनाचतुष्क अध्यायोंके नाम । अष्टौनिन्दित संख्यातस्तथा लंघन तर्पणौ
(४०)
विधिशोणितकश्चेतिव्याख्यातास्तत्र योजनाः ॥ ३५ ॥
अष्टौनिन्दनीय, लंघनबृंहणीय, संतर्पणीय और विधिशोणितीय- ये चार अध्याय औषधी प्रयोग विषयमें कंथन किये गये हैं ॥ ३५ ॥
अन्नपानचतुष्कअध्यायों के नाम |
यज्जःपुरुषकः ख्यातोभद्रकाप्योऽन्नपानिको । विविधाशितपीतश्च चत्वारोऽन्नविनिश्वर्ये ॥ ३६ ॥
●
यज्जः पुरुषीय, आत्रेयभद्रकाप्यीय, अन्नपानविधि और विविधाशितपीतीय-. न चार अध्यायों में आहार द्रव्यों का वर्णन कियागयाहै ॥ ३६ ॥
वैद्यगुणागुणविषयक अध्यायोंके नाम । दशप्राणायतंनिकस्तथार्थे दश मलिकः
-द्वावेतौ प्राणदेहाथाप्रोक्तविद्यगणाश्रय ॥ ३७ ॥ दशप्राणायतनीय, अर्थेदशमूलीय - ये दो अध्याय वैद्यके गुणों के विषय में कथनं किये गये हैं ॥ ३७॥
सूत्रस्थान के अध्यायों का संक्षिप्त वर्णन । औषधस्वस्थानिर्देशकल्पनांरोगयोजनाः ॥
चतुष्काः षट्क्रमेणोक्ताः स तमश्चान्नपानिकः ॥ ३८ ॥
औषध, स्वस्थ, निर्देश, कल्पना, रोग और योजना - यह छः चतुष्क कथन किये गये और सातवां क्रमपूर्वक अन्नपानिकचतुष्क हुआ ॥ ३८ ॥
stari हायायावितित्रिंशकमर्थवत् ।
... लोकस्थानसमुद्दिष्टतन्त्रस्यास्याशरः शुभम् ॥ ३९ ॥
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( ४१० )
चरकसंहिता - मा० टी० ।
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'बाकी दो अध्याय संग्रह अर्थात् संपूर्ण तंत्र के संग्रह के विषय में कथन किये गये हैं । सम्पूर्ण तंत्रका शिरोभूत यह सूत्रस्थान इस प्रकार तीस अध्यायोंमें सम्पूर्ण
हुआ ।। ३९ ॥
चतुष्काणांमहार्थानां स्थानेऽस्मिन्सञ्चयः कृतः ।
श्लोकार्थः संग्रहार्थश्च श्लोकस्थानमतः स्मृतः ॥ ४० ॥ इस प्रकार इस सूत्रस्थानमें परम योग्य विषययुक्त चतुष्कोंका संग्रह कियागया है । इसमें समस्त विषयोंका अर्थ सूत्ररूपसे संग्रह किया गया है इसलिये इसको सूत्रस्थान कहते हैं ॥ ४० ॥
इति सूत्रस्थानोक्तत्रिशतकम् । निदान स्थानके अध्यायोंके नाम |
ज्वराणांरक्तपित्तस्यगुल्मानां मेहकुष्ठयोः । शोषोन्मादनिदाने चस्यादपस्मारणञ्चयत् । इत्यध्यायाष्टकमिदनिदानस्थानमुच्यते ॥ ४१ ॥
निदानस्थानमें ज्वरनिदान, रक्तपित्तनिदान, गुल्म निदान, प्रमेहनिदान, कुष्ठनिदान, शोषनिदान, उन्मादनिदान एवम् अपस्मारनिदान विषयक आठ अध्याय वर्णन किये गये हैं ॥ ४१ ॥
इात निदानस्थानोक्ताष्टकम् | विमानस्थानके अध्यायोंके नाम ।
रसेषुत्रिविधे कुक्षौ ध्वंसजनपदस्यच ॥ ४२ ॥ त्रिविधेरोगविज्ञाने स्रोतः स्वपिचवर्त्तते । रोगानी केव्याधिरूपेरोगाणाञ्चभिषजिते । अष्टौविमानान्युक्तानिमानार्थानि महर्षिणा ॥ ४३ ॥ विमानस्थान में - रस विमानाध्याय, त्रिविधकुक्षीय, जनपदोध्वंसनीय, त्रिविधरोग विशेष विज्ञानीय, स्रोत विमान, रोगानीकविमान, व्याधिरूपीय विमान एवम् रोगभिषग्जितीय विमान ये आठ अध्याय महर्षि अत्रियजीने वर्णन किये ४२ ॥ ४३ ॥ इति विमानाष्टकम् |
शारीरस्थान के अध्यायोंके नाम ।
कतिधापुरुषीयञ्च गोत्रेणा तुल्यमेवच ॥ ४४ ॥ खुड्डीकामहती चैवगर्भाव क्रान्तिरुच्यते । पुरुषस्यशरीरस्यविचयौद्यौविनिश्चि
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सूत्रस्थान - अ० ३०.
( ४११.}
तौ ॥ ४५ ॥ शरीरसंख्यासूत्रञ्चजातेरष्टम उच्यते । इत्युद्दिष्टानिमुनिनाशारीराण्य त्रिसूनुना ॥ ४६ ॥
शारीरस्थानमें - कतिधापुरुषीय, तुल्यगोत्रीय, खुड्डीका गर्भावक्रान्ती, महतीं गर्भाक्रान्ता, पुरुषविचय, शरीरविचय, शरीरसंख्या और जातिसुत्रीय यह आठअध्याय भगवान् आत्रेयजीने वर्णन किये हैं ॥ ४४ ॥ ४५ ॥ ४६ ॥ इति शारीरस्थानोक्ताष्टकम् | इन्द्रियस्थानके अध्यायों के नाम |
वर्णस्वरीयं पुष्पाख्यस्तथैव परमर्षणः । तथैवचेन्द्रियानीकः पौर्वरूपकमेवच ॥ ४७ ॥ कतमानिशरीरीयः पन्नरूपोऽप्यवाकूशिराः । यस्यश्यावनिमित्तश्चसद्योमरणएवच ॥ ४८ ॥ अणुज्योतिरितिख्यातस्तथागोमयचूर्णवान् । द्वादशाध्यायकंस्थानमिन्द्रियाणां प्रकीर्त्तितम् ॥ ४९ ॥
इन्द्रियस्थान में - वर्णस्वरीय और पुष्पाख्य, परिमर्षण, इन्द्रियानकि, पौर्वरूपिककतमानिशरीरीय, पन्नरूपीय, अवाक्शिरसीय, यस्यश्यावनिमित्तीय, सद्योमरणीय, अणुज्योतीय और गोमयचूर्णीय - ये बारह अध्याय इन्द्रियस्थानमें वर्णन किये गये ॥ ४७ ॥ ४८ ॥ ४९ ॥
इतीन्द्रियस्थानोक्तद्वादशकम् । चिकित्सास्थानके अध्यायोंके नाम ।
अभयामलकीयञ्चप्राणकामीयमेवच । करप्रचितिकवेदसमुत्थानंरसायनम् ॥ ५० ॥
चिकित्सास्थानम् - अभयामलकीय, प्राणकाभीय, करप्रचितिक, आयुर्वेदसमुः स्थानीय - यह चार रसायनपाद हैं ॥ ५० ॥ संयोगशरमूलीयमासकक्षीरकंतथा ।
माषपर्ण तृतीयञ्चपुमान् जातबलादिकम् ॥ ५१ ॥ संयोगशरमूलीय, आसक्तक्षीरीय, माषपर्णवृतीय, पुमान् जातवलादिक - यह चार पाद वाजीकरण पादके हुए ॥ ५१ ॥
चतुष्कद्वयमप्येतदध्यायद्वयमुच्यते ।
रसायनमितिज्ञेयवाजीकरणमेवच ॥ ५२ ॥
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चरकसंहिता-मा० टी०। यह.दो चतुष्क-सायनपाद और वाजीकरण पाद इन नामोंसे दो अध्याय माने जातेहैं ('इन दोनों के आठ विभाग करनेसे चिकित्सास्थानके छत्तीस अध्याय होजा: तेहैं इसलिये इन दो चतुष्कोंको दो अध्यायोंमें माना है ) ॥ १२ ॥
ज्वराणांरक्तपिक्तस्यगुल्मानांमेहकुष्ठयोः। शोषेऽर्शसमतीसारें - वीसचमदात्यये ॥५३॥ द्विव्रणीयतथोन्मादेस्यादपस्मारएव
च । क्षतशोथोदरेचैवग्रहणीपाण्डुरोगयोः ॥५४॥ हिक्काश्वासे चकासेचछर्दितृष्णाविषेषु च। मर्मत्रयेचोरुलादेसवातेवातशोणिते ॥ ५५ ॥ त्रिशचिकित्सितान्येवंयोनीनांव्यापदासह ।। ५६ ॥ ज्वरचिकित्सित, रक्तपित्त चिकिसित, गुल्मचिकित्सित, प्रमेहः चिकित्सित, कुष्ठचिकित्सित, शोषचिकित्सित, अर्थचिकित्सित, अतिसार चिकित्सित, विसर्प चिकित्सित, मदात्ययचिकित्सित, द्वितीय चिकित्सित, उन्मादचिकित्सित,अपस्मार चिकित्सित, क्षतक्षीण चिकित्सित, शोथचिकित्सित, उदररोग चिकित्सित, ग्रहणीरोग चिकित्सित, पांडुचिकित्सित, हिक्काश्वास चिकित्सित,काशचिकित्सित, छचिकित्सित, तृष्णाचिकित्सित विषचिकित्सित, त्रिमर्मीय चिकित्सित, ऊरुस्तम्भ चिकित्सित, वातव्याधिचिकित्सिंत, और वातरक्तचिकित्सिंत एवम् योनियांपदचिकित्सित-यह सव मिलाकर चिकित्सास्थानोक्त तीस अध्याय हुए अर्थात् इन तीस अध्यायोंसे चिकित्सास्थ न पूरितह ।। ५३ ॥ ५४॥ ५५ ॥५६॥
इति चिकित्सास्थानोक्तत्रिंशकम् ।।
कल्पस्थानके अध्यायोंके नाम । फलजीमूतकेक्ष्वाकुकल्पोधामार्गवस्यचा पञ्चमोवत्सकस्योक्तः
षष्ठश्चकृतवेधने ॥ ५७ ॥ श्यामात्रिवृतयोःकल्पस्तथैवचतुरं.. गुले। तिल्वकस्यसुधायाश्चसमलाशंखिनीष्वपि । दन्तीद्रव... त्यो कल्पश्चद्वादशोऽयंसमाप्यते ॥ ५८ ॥ . .
कल्पस्थानमें-मदनकल्प, जीमूतकल्प, इक्ष्वाकु कल्प, धामार्गव कल्प, वत्सक 'कल्प, कृतवेधन कल्प श्यामात्रिवृत् कल्प, चतुरंगुल कल्प, तिल्वक् कल्पं, महावृक्ष कल्प, सप्तला शंखिनी कल्प और दंती द्रवन्तीकल्प-यह बारह कल्पस्थानोक्त अध्याय समाप्त हुए ॥ ५७॥ ५.८ ॥ ।
इति कल्पस्थानोक्तद्वादशकम् । . . . . . .
सिद्धिस्थानके अध्यायोंके नाम। कल्पनापञ्चकर्माख्याबस्तिसूत्रातथैवच । स्नेहव्यापादिकासि
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सूत्रस्थान - अ० ३०.
(४१)
द्वित्रव्यांपादिकातथा ॥ ५९ ॥ सिद्धिः शोधनयोश्चैवबस्तिसेि- ' द्विस्तथैवच॥प्रासृती मर्म संख्यातासिद्धिर्वस्त्याश्रयाचया ॥ ६०॥ :फलमात्रातथासिद्धिःसिद्धिश्चोत्तरसंज्ञिता ॥ सिद्धयोद्वादशैवैतास्तन्त्रञ्चासुसमाप्यते ॥ ६१ ॥
सिद्धिस्थान में - कल्पना सिद्धि, पंचकमयसिद्धि, वस्तिमुत्रीयसिद्धि, स्वेदव्यापादिका सिद्धि, नेत्रव्यापादिकासिद्धि, वमन विरेचन व्यापत सिद्धि, वस्तिव्यापादिका सिद्धि, प्रामृत योगका सिद्धि, त्रिममयसिद्धि, वस्ति सिद्धि, फलमा त्रासिाद और उत्तर सिद्धि इन बारह अध्यायोंसे सिद्धिंस्थान समाप्त किया है ॥ ५९ ॥ ६० ॥ ६१ ॥ इति सिद्धिस्थानोक्तद्वादशकम् ।' 'स्यानार्थ अध्यायार्थ और प्रश्नका लक्षण | स्वेस्वेस्थान तथाध्याये चाध्यायार्थः प्रवक्ष्यते ॥ तंत्रयात्सर्वतः सर्वयथास्वार्थसंग्रहात् ॥ ६२ ॥ पृच्छा तन्त्राद्यथाम्नायंविधिना प्रश्नउच्यते ।
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. हरएक स्थान में तथा अध्याय में स्थानार्थ (स्थानका विषय ) और अध्यायका: विषय वर्णन कियागया है तो उसको उसी उसी अध्याय और उसीउसी स्थानके: विषय के अनुसार स्थानार्थ और अध्यायार्थ कथन करना चाहिये । यदि कहीं, किसी अध्यायके विषय में कुछ आग पांछे हो अथवा नामानुरूप विषय में कुछ न्यूनता आर्त हो तो बुद्धिमान वैद्यको बुद्धि अनुसार विचारकर स्थानार्थ अथवा, अध्यायार्थं कहना चाहिये वेदानुसार प्रसंगक्रमसे तंत्रमें पूछनेको प्रश्न कहते हैं ॥ ६२ ॥ प्रश्नार्थका लक्षण |
प्रश्नाथै युक्तिमांस्तस्य तन्त्रेणैवार्थनिश्चयः ॥ ६३ ॥
'युक्तियुक्त तंत्रद्वाराही उस प्रश्नकी मीमांसा किये जानेको प्रश्नार्थ कहते हैं ॥ ६३ ॥ तन्त्रादिकी निरुक्त । निरुक्तंतन्त्रणा तन्त्रस्थानमर्थ प्रतिष्ठया ।
अधिकृत्यार्थमध्यायनामसंज्ञाः प्रतिष्ठिताः ॥ ६४ ॥
सव विषयोंको इसमें तंत्रण किया गया इसलिये इसका तंत्र कहते हैं । अर्थ (विषय) प्रतिष्ठित अर्थात् स्थित होनेसे स्थान कहा जाताह (जैसे सूत्रस्थानादि ) ॥ ६४ ॥ इतिसर्वयथाप्रश्नमष्टकंसम्प्रकाशितम् ।
कारस्न्येनचोक्तस्तन्त्रस्य संग्रहः सुविनिश्चितः ॥ ६५ ॥
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चरकसंहिता-भा० टी०। इस प्रकार यह प्रश्नाष्टक कहागया अर्थात् जो पहिले आठ प्रश्नोंको कथन कियाथा उनके उत्तर रूपमें यह प्रश्नाष्टककी मीमांसा कीगई सो संपूर्णरूपसे 'यथावत तंत्रके संग्रहको कथन कियागयाहै ॥ ६५ ॥
अज्ञवैद्यके लक्षण । सन्तिपाल्लविकोत्पाताःसंक्षोभंजनयन्तिये।वर्तकानामिवोत्पाताः सहसैवविभाविताः।तस्मात्तान्पूर्वसंजल्पेसर्वत्राष्टकमादिशेत॥६६॥परस्परपरीक्षार्थनात्रशास्त्रविदांवलम् । शब्दमात्रेणतन्त्रस्यकेवलस्यैकदोशिकाः । भ्रमन्त्यल्पबलास्तन्त्रेज्याशब्देनैववर्तकाः ॥६७॥ बहुतसेलोग इधरउधरसे एकाध वात सीखकर इस प्रकार अभिमान और क्रोध दिखातेहैं जैसे-वटेरपक्षी अपने चोंचसे एक पत्रको उठाकर इधरउधर उलटा और -सीधा नाच करताहै ठीक उसी प्रकार यह लोग भी किसी ग्रंथकी एकाधमूलवातको याद कर घमण्डी वैद्यराज बन बैठतेहैं । इसलिये उनसे बात करतेही प्रथम प्रश्नाष्टक ( पूर्वोक्त आठ प्रश्न कर देनाचाहिये । इसपर यथार्थ और अयथार्थ कथन कर• नेमें अथवा पर अपरकी परीक्षाके लिये प्रश्नाष्टक कियेजानेपर आयुर्वेदके न जान'नेवाले मनुष्यका बल स्पष्टरूपसे दिखाई देजाताहै । तात्पर्य यह हुआ कि आयुवैदका ज्ञाता ही प्रश्नाष्टकका यथोचित उत्तर देसकताहै । जो मनुष्य केवल एकदेशका जाननेवाला है वह इस प्रश्नाष्टकको सुनकर इस प्रकार घबराजाताहै जैसेधनुषकी टंकारको सुनकर बटेर उडजायाकरतेहैं ॥ ६६ ॥ ६७ ॥
पशुः पशूनांदौर्बल्यात्कश्चिन्मध्येवृकायते। समत्ववृकमासाद्य प्रकृतिभजतेपशुः ॥६८॥ तद्वदज्ञोऽज्ञमध्यस्थःकश्चिन्मौख..
य॑साधनः । स्थापयत्याप्तमात्मानमाप्तन्त्वासायभिद्यते ॥६९॥ जैसे-दुर्बल पशुओंमें बलवान् पशु भेडियेका आकार बनाकर अपने आपको महा 'पराक्रमी जंचाता है परन्तु असली भेडियेके आजानेपर जैसा वह पशु-होताहै वैसाही होकर भागना पडताहै । ठीक उसी प्रकार मूखोंके बीचमें बकवाद करनेवाला चपल मनुष्यभी अपने आपको बडाभारी योग्य और प्रामाणिक जंचाताहै और किसी योग्य पंडितके आजानेपर पूर्वोक्त पशुके समान पूंछको छिपाता फिरताहै६८॥६९॥ .
बभ्रमंढइवोर्णाभिरबुद्धिरबहुश्रुतः । ... किंवैवक्ष्यतिसंजल्पेकुण्डभेदीजडोअथा ॥ ७० ॥ .
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सूत्रस्थान - अ० ३०. ( ४१५ ) :- जैसे-झुंड मकड़ीके तारोंसे जकडा जानेपर कुछ नहीं बोल सकता और जैसे नीच जातिका मनुष्य अपने आपको ब्राह्मण बताकर फिर बहुत से लोगों में नीच जाति प्रगट होजानेपर कुछ नहीं कहसकता एवम् जैसे- बुड्डा नेवला रस्सियोंसे जकडा जानेपर चुपका बैठा रहता है उसी प्रकार ढोंग मारनेवाला मूर्ख वैद्य भी विद्वान वैद्यको देखकर अपने छलके प्रगट होनेके भयसे भीत हुआ मूढ बनाबैठा रहताहै ॥ ७० ॥
सद्वृत्तैर्नविगृह्णीयाद्भिषगल्पश्रुतैरपि । हन्यात्प्रश्नाष्टकेनादावितरांस्त्वात्समानिनः ॥ ७१ ॥ दम्भिनोमुखराह्यज्ञाः प्रभूता बद्धभाषिणः ॥ ७२ ॥
यदि थोडा मढा हुआ वैद्य भी शुद्ध और पवित्र आचरणवाला हो तो बुद्धिमानको चाहिये, प्रश्नाष्टक द्वारा हराने का यत्न न करे । परन्तु मूर्ख, पाखंडी, बक· वादी, चपल और अभिमानी इनको तो प्रथम ही प्रश्नाष्टकद्वारा हतबुद्धि वनादेना चाहिये ॥ ७१ ॥ ७२ ॥
प्रायः प्रायेण सुमुखाः सन्तोयुक्ताल्पभाषिणः । तत्त्वज्ञानप्रकाशार्थमहंकारमनःश्रिताः ॥ ७३ ॥ स्वल्पाधाराज्ञ मुखरान् दशैंयुर्नविवादिनः ॥ परोभूतेष्वनुक्रोशस्तत्वज्ञानेपरावया । येषां तेषामसद्वादनिग्रहेनिरतामतिः ॥ ७४ ॥
प्रायः श्रेष्ठ मनुष्य विनयको ग्रहण करके युक्तियुक्त बहुत थोडा और मीठा बोलनेवाले होते हैं । वह एकाधवातके जाननेवाले मूखोंसे विवाद करके अपने आपके बडा दिखाना नहीं चाहते क्योंकि वह महात्मा अहंकाररहित होकर तत्त्वज्ञान के प्राप्त करनेके लिये अथवा तत्वज्ञानका प्रकाश करनेके लिये सद्वृत्तिका अवलम्बन करते हैं । सम्पूर्ण जीवापरं परमदया करनेमें तथा तत्वज्ञानमें जिनकी बुद्धि लगीहुई है वह लोग झूठे बकवादको खण्डन करने या उससे अलग रहने में दत्तचित्त • रहते हैं ॥ ७३ ॥ ७४ ॥
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असत्पक्षाक्षणित्वार्त्तिदम्भपारुष्यसाधनाः ॥ ७५ ॥ भवन्त्यनाप्ताः स्वेतन्त्रेप्रायः परविकत्थनाः ॥ तत्कालपाशसदृशान्वर्ज-: येच्छास्त्रदूषकान् ॥ ७६ ॥ .
झूठे पक्षका अवलम्बन करनेवाले पाखण्डी, कठोर प्रकृतिवाले, रपाई निन्दा करने -वाले इस शास्त्र से कुछ भी लाभ नहीं उठासकते । अर्थात् ऐसे दुष्टोंको यह शास्त्र
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( ४१६ )
चरकसंहिता - भा० टी० ।
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नहीं आता और जिनको शास्त्र आता है उनमें यह दुष्ट भग्व नहीं होते। इस लिये उन 'शास्त्रनिंदकों को कालकी फांसी के समान दूरसे ही त्यांग देनाचाहिये ७९ ॥७६ • सेवनीय वैद्यं । प्रशमज्ञानविज्ञान पूर्णाः सेव्याभिषक्तंमाः ॥ ७७ ॥ समदुःखमायातमविज्ञानेंद्रयाश्रयम् । सुखंसमग्रविज्ञाने विमलेचप्रतिष्ठितम् ॥ ७८ ॥
जो वैद्य प्रशम अर्थात् रोगनाशक शास्त्र के ज्ञानी है एवम् चिकित्सा सम्बन्धी संपूर्ण विषयोंके विज्ञान से पूर्ण हैं ऐसे योग्य पुरुषों का नित्य सेवन करना चाहिये । क्योंकि संसार में संपूर्ण दुःख अज्ञ नसे और संपूर्ण सुख निर्मल ज्ञानसे प्राप्त होते हैं तात्पर्य यह हुआ कि अज्ञान में संपूर्ण दुःख प्रतिष्ठित रहते हैं और निर्मल ज्ञानमें संपूर्ण सुख प्रतिष्ठित रहते हैं ॥ ७७ ॥ ७८ ॥
इदमेव सुदारार्थमज्ञानार्थप्रकाशकम् । शास्त्रष्टप्रनष्टानां यथैवादित्यमण्डलमिति ॥ ७९ ॥
जैसे नष्टाष्टे अर्थात् चक्षुद्दीन मनुष्योंकोः सूर्यसे प्रकाशके कुछ लाभ नहीं पहुँच सकता उसी प्रकार मूर्खोको इस बहुमूल्य आयुर्वेदशास्त्रसे कुछ लाभ नहीं पहुंचसकता अथवा जैसे योगदृष्टिहीन मनुष्योंके लिये और धर्मदृष्टिहीन मनुष्यों के लिये. सूर्यका प्रकाश उनके कार्यकी ' सहायताका कारण होता है उसी प्रकार यथार्थ. ज्ञानहीन मनुष्यों को आयुर्वेदको एकाधवात सीखलेना लोगोंको ठगने में सहायताकारक होता है ।। ७९ ।।
तत्रश्लोकाः ।
अर्थे दशमहामूलाः संज्ञास्तेषांयथाकृताः । अयनान्ताः षडग्याश्चरूपंवेदविदाञ्चयत् ॥ ८० ॥ कश्चाष्टकश्चैव परिप्रश्नः सनिर्णयः । यथावाच्यंयदर्थञ्चषडिधाश्चैकदेशिकाः ॥ ८१ ॥ अर्थे दशमहामूलेसर्वमेतत्प्रकाशितम् । संग्रहश्चैव मध्यायस्त*न्त्रस्यास्यैव केवलः ॥ ८२ ॥ -
यहां पर अध्यायकी पूति में इलोक हैं: - इस अर्थदशमूलीय अध्याय में महादशमूलोंकी संज्ञा, स्थान, छः अंग, आयुर्वेद के जानने वालों का स्वरूप, सप्तक तथा अष्टक प्रश्नावली की मीमांसा कथन करनेका निर्देश और अर्थ षड्विध तथा एकदेशिक
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सूत्रस्थान अ०३०.
(४१७) विद्वान् और अध्यायोंका संग्रह तथा स्थानसंग्रह एवम् इस तंत्रका विषय वर्णन कियागयाहै ॥ ८०॥ ८१॥ ८२ ॥
सूत्रस्थानकी निरुक्ति । • यथासुमनसांसूत्रसंग्रहार्थविधीयते।
संग्रहार्थेयथार्थानामृषिणासंग्रहः कृतः ॥ ८३॥ इति अग्निवेशकृते तन्त्रे चरकप्रतिसंस्कृते सूत्रस्थाने ।
अर्थे महादशमूलीयो नाम त्रिंशत्तमोऽध्यायः॥३०॥ जिस प्रकार फूलोंको गठन करनेकेलिये धागा होताहै अर्थात् जिस प्रकार धागेमें फूल गूथे जातेहैं उसी प्रकार संपूर्ण संग्रहको इस सूत्रस्थानमें भगवान् आत्रेयजीने गठन कियाहै ॥ ८३ ॥
इति श्रीमहर्षिचरक० पं० रामप्रसादवैद्य भाषाटीकायामन्नपानविधिर्नाम . . . त्रिंशत्तमोऽध्यायः ॥ ३०॥
अग्निवेशकतेतन्त्रेचरकप्रतिसंस्कृते। " इयतावधिनासर्वसूत्रस्थानं समाप्यते ॥ महर्षि आग्निवेशके रचेहुए तथा महात्मा. चरकद्वारा प्रतिसंस्कार कियेहुए इस आयुर्वेद तंत्रमें यह सूत्रस्थान इन तीस अध्यायों में समाप्त हुआ ।
दोहा । इह विधि सूत्रस्थान यह सूत्रित तंत्र महान । सो प्रसादनीयुत भयो, लघुमति जैहैं जान ॥ १॥
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अथ निदानस्थानम् ।..
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प्रथमोऽध्यायः ।
अथातोज्वरनिदानं व्याख्यास्याम इतिहस्माहभगवानात्रेयः । अव हम ज्वरनिदानकी व्याख्या करते हैं, इस प्रकार भगवान् आत्रेयजी कथन करने लगे ।
निदान के पर्यायवाची शब्द । इहखलुहेतुर्निमित्तमायतनं कर्त्ता कारणंप्रत्ययः समुत्थाननिदानमित्यनर्थान्तरम् ॥ १॥
इस शास्त्र में - हेतु, निमित्त, कर्त्ता, कारण, प्रत्यय, समुत्थान, निदान इन सब शब्दका एक ही अर्थ है अर्थात् यह सब शब्द निदानके वाचक हैं ॥ १ ॥ त्रिविध निदान ।
तत्त्रिविधम् असात्म्येन्द्रियार्थसंयोगः प्रज्ञापराधः परिणाम
श्वेति ॥ २ ॥
वह निदान तीन प्रकारका है - १असात्म्येन्द्रियार्थ, २ प्रज्ञापराध, ३परिणाम || २ || व्याधियोंके भेद | अतस्त्रिविधविकल्पान्याधयः प्रादुर्भवन्त्याश्नय सौम्यवायव्याः द्विविधाश्चापरेराजसास्तामसाश्च ॥ ३ ॥
· निदान - तीन प्रकारका होनेसे व्याधियां भी तीन प्रकार की ही होती हैं । उन तीनोंमें शारीरिक व्याधि - वात, पित्त, कफजनित होनेसे तीन प्रकार की होते हैं । मनासिक व्याधि - राजस और तामस भेदसे दो प्रकारकी हैं ॥ ३ ॥ व्याधि के पर्याय शब्द |
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तत्रव्याधिरामयोगदआतङ्को यक्ष्माज्वरोविकार इत्यनर्थान्तरम् ॥४॥ -व्याधि, आमय, गद, आतंक, यक्ष्मा, ज्वर, विकार, और रोग यह सब शब्द एक ही अर्थवाले हैं । अर्थात् रोगके वाचक हैं ॥ ४ ॥
रोगकी उपलब्धिके विषय । तस्योपलब्धिर्निदान पूर्वरूपलिङ्गोपशयसम्प्रातितश्च ॥ ५ ॥
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निदानस्थान-अ० १.
(४१९) 'वह रोग निदान, पूर्वरूप, रूप, उपशय, संप्राप्ति इन पांच प्रकारोंसे जाना जा: सकताहै । अर्थात् रोगके बतलानेवाले यह पांच प्रकार हैं ॥५॥
निदानका लक्षण । तत्रनिदानकारणमित्युक्तमये॥६॥ उनमें निदान कारणको कहतेहैं-यह पहिले कथन कर आये हैं । (निदान रोगके उत्पन्न करनेवाले कारण को कहते हैं)॥६॥ .
पूर्वरूपके लक्षण। रूपंप्रागुत्पत्तिलक्षणव्याधेः ॥७॥ रोग उत्सन्न होनेसे प्रथम होनेवाले लक्षणोंको पूर्वरूप कहते हैं ॥७॥
लिङ्गके लक्षण । प्रादुर्भूतलक्षणंपुनर्लिङ्गंतत्रलिङ्गमारुतिलक्षणचिह्नसंस्थानं व्यञ्जनरूपमित्यनान्तरम् ॥८॥ च्याधिक प्रगट हो जानेको रूप अथवा लक्षण कहते हैं । या यों काहये कि, व्याधिक प्रगट होजाने पर व्याधिक जो लक्षण होते हैं उनको रूप कहते हैं लिङ्ग, आकृति, लक्षण, चिह्न, संस्थान, व्यंजन और रूप यह सब शब्द एकही अर्थक बाचक हैं ॥८॥
उपशयके लक्षण। उपयशः पुनर्हेतुाधिविपरीतानां विपरीतार्थकारिणाञ्चौषधाहारविहाराणां उपयोगःसुखानुबन्धः ॥९॥ हेतुसे विपरीत, व्याविसे विपरीत और हेतु व्याधि इन दोनोंके विपरीत तथा मर्थक करनेवाले औषधि आहार विहारंका उपयोग करना सुखकारक अर्थात् आरोग्यकारी होता है उसीको उपशय कहते हैं। और उसीको सात्म्य कहते हैं। तात्पर्य
यह हुआ कि रोगोत्पादक हेतुसे विपरीत और व्याधिसे विपरीत तथा हेतु और । व्याधि इन दोनोंसे विपरीत और विपरीत अर्थ करनेवाला अर्थात व्याधि और
व्याधिके कारणको हटानेवाला तथा दोनोंको हटानेवाला औषध अन्न और विहार सुखको देनेवाला होता है उसीको सात्म्य (शरीरके अनुकूल ) और उपशय. कहते हैं ॥९॥
संप्राप्तिके पर्याय । - संप्राप्तिातिरागतिरित्यनान्तरव्याधेः॥१०॥
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९४२०): चरकसंहिता-भाटी।
रोगकी उत्पत्तिको अर्थात् जिस प्रकार जितने अंशोंसे जिन जिन दोषोंकों लेकर शरीरके जिस . २ भागमें व्याधि उत्पन्न होती है उसको समाप्ति कहते हैं। संप्राप्ति, जाति, आगति ये सब एक ही अर्थके वाचक शब्द हैं ॥१०॥
. सम्प्राप्तिके भेद । सासंख्याप्राधान्यविधिविकल्पवलकालविशेषभिद्यते॥११॥ संख्या, प्राधान्य, विधि, विकल्प एवम् वल, कालके भेदसे संप्राप्तिके विभाग कियेगयेहैं अर्थात् संख्यादि समाप्तिके भेद हैं ॥११॥
संख्यासम्प्राप्तिके लक्षण । संख्या यथाष्टौज्वराः पञ्चगुल्माः सप्तकुष्ठान्येवमादि ॥ १२ ॥
अब संख्याके लक्षणको कहतेहैं-जैसे, आठ प्रकारके ज्वर, पांच प्रकारके गुल्म, सात प्रकारके कुछ इत्यादिक जो गणना है उसको संख्या कहते हैं ॥ १२ ॥
प्राधान्यसम्प्राप्तिके लक्षण । . प्राधान्यंपुनर्दोषाणांतरतमयोगेनोपलभ्यते तत्र द्वयोस्तरखिषु
तमइति ॥ १३॥ वात, पित्त, कफ इन तीन दोषोंमें-वात और पित्त अल्प होनेसे अप्रधान और कफ अधिक होनेसे प्रधान माना जाता है । इस प्रकार दोषके न्यूनाधिक योग' द्वारा प्राधान्य जानना चाहिये। जैसे-त्रिदोषज्वरमें वात अल्प.हो पित्त मध्य हो और कफ आधिक हो ता उस सन्निपातको अल्पवात, मध्य पिच, और कफ प्रधान कहाजाताहै। अथवा ज्वरातिसारमें ज्वर प्रधान है. कि अतिसार प्रधान है इस तरह पर एक कालमें एक पुरुषको दो तीन व्याधियों से जो व्याधि स्वतंत्र हो उसको प्रधान कहते हैं। और जो परतंत्र हो. उसको अप्रधान कहते हैं। इस प्रकार अन्यत्र भी जानना चाहिये ॥ १३ ॥
विधिसम्पातिके लक्षण । विधिर्नामाद्विविधाव्याधयोनिजागन्तुभेदनत्रिविधास्त्रिदोषभेदे- ... नचतुर्विधाःसाध्यासाध्यमृदुदारुणभेदेनपृथक् ॥ १४॥ . .
अव विधिके लक्षणों को कहते हैं । यथा-व्याधि दो प्रकारकी होती है. एक । निज, दूसरी आगन्तुक, फिर वह वात, पित्त, कर्फ भेद से तीन प्रकारकी है। साध्य, असाध्य, मृदु और दारुण, इन भेदोंसे चार प्रकारकी होती है. इस प्रकार रोगोंके भेदके क्रमको विधि कहते हैं ॥ १४ ॥ . . . . .
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.निदानस्थान-अ० १. ... . . . विकल्पसम्पाप्तिके लक्षण । 'विकल्पोनामसमवेतानांपुनर्दोषाणामंशांशंबला
नर्थे ॥ १५ ॥ : मिले हुए दोषों के अंशांश कल्पना को विकल्प कहते हैं । जैसे-सन्निपात ज्वरके अनेक विकल्प हैं ॥ १५ ॥
बलकालका लक्षण । बलकालविशेषःपुनर्व्याधीनामृत्वहोरात्राहारकालविधिनियतो भवति ॥ १६ ॥ व्याधियोंका ऋतु, दिन, रात्रि, आहार, काल और विधि भेदसे बल और कालका जानना वलकाल विशेष संप्राप्त कहा जाता है । जैसे-वसन्त ऋतुर्मे कफ का काल कृत वल हाता है एवम् रात्रिके प्रथम भागमें कफका बल होता है, दिनके प्रथम भागमें कफका बल होता है और भोजनके प्रथम भागमें कफका बल होता है एवम् शरद ऋतुमें, मध्य रात्रिमें, मध्य दिनमें, भोजनके मध्यमें, अथवा भोजनकी परिपाकावस्था में पित्तका बल होता है। इसी प्रकार वर्षा ऋतुमें, रात्रिके अंतमें, दिनके अंतमें, भोजनके अंतमें वातका बल होता है । इसी प्रकार कफकी व्याधिका वसंत ऋतु कोपकाल है,पित्तका शरद,आधी रात्र, मध्याह,और भोजनका परिपाक समय कोपकाल जानना।इस प्रकार वल,काल,विशेष,समाप्ति जानना॥१६॥
तस्माद्याधीनभिषगनुपहतसत्त्वबुद्धिर्हेत्वादिभिर्भावयथावद. , नुबुध्येत् ॥ १७॥ इस लिये बुद्धियुक्त वैद्य हेतु आदिक भावोंसे अर्थात् निदानादिकों द्वारा रोगकी यथार्थ परीक्षा करे ॥ १७ ॥
विशेषतासे निदान कथन । इत्यर्थसंग्रहोनिदानस्थानस्योद्दिष्टःभवतितविस्तरेणभूयः परमतोऽनुव्याख्यास्यामः ॥१८॥ इस प्रकार सक्षेपसे संपूर्ण निदानको कथन कियाहै । अब फिर विशेषरूपसे कथन करते हैं ॥ १८॥ ___ तत्रप्रथमएवतावदाद्याल्लोभाभिद्रोहकोपप्रभवानष्टोव्याधीन्निदा
नपूर्वेणक्रमेणअनुव्याख्यास्यामः ॥ १९ ॥ अव क्रमपूर्वक लोभ और अभिद्रोह अथवा : मिथ्याआहार और अनाचारसे उत्पन्न हुई आठ प्रकारकी व्याधियोंको. निदानादि क्रमसे कथन करते हैं:॥ १९ ॥
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(.४२२) . चरकसंहिता-मा० टी०। तथासूत्रसंग्रहमात्रंचिकित्साया:चिकित्सितेषुचोत्तरकालंयथोद्दिष्टविकाराननुव्याख्यास्यामः ॥२०॥
और चिकित्साको भी सूत्रसंग्रह मात्रसे अर्थात् संक्षेपरूपसे कथन करते हैं. विशेषरूपसे तो संपूर्ण रोगोंका निदान और उपाय यथाक्रम चिकित्सा स्थानमें कथन करेंगे ॥ २० ॥
ज्वरके भेद । - इहखलुज्वरएवादोविकाराणामुपदिश्यते ।
तत्प्रथमत्वाच्छारीराणाम् ॥ २१ ॥ क्योंकि संपूर्ण शारीरिक विकारोंमें ज्वरही प्रधान माना गया है अथवा संपूर्ण विकारों में प्रथम ज्वरकी उत्पत्ति हुई है इसलिये इस निदानस्थानमें प्रथम ज्वरका ही कथन करते हैं ॥२१॥
अथखल्वष्टाभ्यःकारणेभ्योज्वर सञ्जायतमनुष्याणांतद्यथावातात् पित्तात्कफाद्वातपित्ताभ्यांपित्तश्लष्मभ्यांवातश्लेष्मभ्यां वातपित्तष्लेष्मभ्यःआगन्तोरष्टमात्कारणात । तस्यनिदानपूर्वरूपलिङ्गोपचयविशेषानुपदेक्ष्यामः ॥ २२ ॥ अब कहते हैं कि ज्वर आठ कारणोंसे मनुष्योंके शरीरमें उत्पन्न होता है। वह आठ कारण इस प्रकार हैं । जैसे-वातसे, पित्तसे, कफसे, वातपित्तसे, पित्तकफसे, वातकफसे एवम् वातपित्तकफसे आठवां आगन्तुक कारणसे सो उस आठ प्रकारके ज्वरको निदान, पूर्वरूप,रूप,उपशय और संप्राप्ति विशेषसे कथन करतेहैं॥२२॥
वायुकोपका कारण । तद्यथारूक्षलघुशीतव्यायामवमनविरेचनास्थापनशिरोविरेचनातियोगवेगसन्धारणानशनाभिघातव्यवायोद्वेगशोकशोणितातिसेकजागरणविषमशरीरन्यासेभ्योऽतिसेवितेभ्योवायुःप्रकोपमापद्यते ॥२३॥ वह इस प्रकार है। रूक्ष, लघु,शीतल पदार्थोंके सेवनसे, परिश्रम करनेसे,वमनविरेचन और आस्थापनके अतियोगसे, मलमूत्रादि वेगोंको रोकनसे, उपवास कर; नेसे,चोट लगनेसे,मैथुन करनेसे,उद्वेग मारै शोच होनेसे,रक्तके अत्यन्त निकलनेसे, रात्रि में जागनेसे, शरीरको ऊंचा नीचा तिरछा आदि करनेसे इन सब कारणोंके. अधिक सवेनसे शरीरमें वायुका कोप होताहै ॥ २३ ॥
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निदानस्थान-अ० १. (४२३)
. अतिकुपितवायुका कर्म । सयदाप्रकुपितःप्रविश्यामाशयमुष्मणःस्थानमुष्मणासहमिश्रीभूतआद्यमाहारपरिणामधातुंरसनामानमन्ववेद्यरसस्वेदवहा. निचस्रोतांसिचपिधायाग्निमुपहत्यपक्तिस्थानादुष्माणंबहिनिरस्यकेवलंशरीरमनुपद्यतेतदाज्वरमभिनिवर्तयतितस्येमानि लिङ्गानिभवन्ति ॥ २४॥ वह कुपित हुई वायु आमाशयमें प्रवेश करके आमाशयकी गर्माईमें मिल जाती है । फिर वह आहारके सारभूत रस नामक धातुका आश्रय लेकर रस और स्वेदके वहनेवाले छिद्रोंको रोक देती है। फिर पाचकाग्निको हनन करके पक्ति स्थानकी • गाईको बाहर निकाल देती है । फिर वह वायु शरीरको यथोचित अग्निवलहीन देखकर वल पा जाती है । वह बल पाया हुआ वात वातज्वरको उत्पन्न करता है ॥ २४॥
____ वातज्वरके लिंग व अंगविशेषोंमें वेदना विशेष । तद्यथाविषमारम्भविसर्गित्वमूष्मणोवैषम्यतीव्रतनुभावानवस्थानानिज्वरस्यजरणान्तेदिवसान्तेधर्मान्तेवाज्वराभ्यागमनमभिवृद्धिज्विरस्यविशेषेणपरुषारुणवर्णत्वंनखनयनवदनमूत्रपुरीषत्वचामत्यर्थक्किप्तीभावश्चानेकविधोपमाश्चचलाचलाश्च . वेदनास्तेषांतेषामगावयवानाम् । तद्यथापादयोःसुप्ततापिण्डिकयोरुद्वेष्टनंजानुनो केवलानाश्चसन्धीनांविश्लेषणमूर्वोःसादः कटीपार्श्वपृष्ठस्कन्धबाआँसोरसाञ्चभग्नरुग्णमृदितमथितचटितावपीडितावतुन्नत्वमिवहन्वोरप्रसिद्धिः स्वनश्चकर्णयोःशंखयोनिस्तोदः कषायास्यत्वमास्यवैरस्यवामुखतालुकण्ठशोषः पिपासाहृदयग्रहःशुष्कछर्दिःशुष्ककासाक्षवथूदारविनिग्रहो , नरसस्वेदःप्रसेकारोचकाविपाकाःविषादविजृम्भाविनामवेपथु. श्रमभ्रम-प्रलापजागरणलोमहर्षदन्तहर्षास्तथोष्माभिप्रायता . निदानोक्तानामनुपचयोंविपरीतोपचयश्चेतिवातज्वरलिङ्गानिस्युः ॥ २५॥
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चरकसंहिता-भा० टी० ॥ उस ज्वरके यह लक्षण होते हैं।जैसे-ज्वरके चढनेके समय और उतरनेके समय शरीरके तापमें विषमता, कभी शरीरका अधिक तपना और कभी थोडा तपना, जारका एकसा न रहना, कभी ज्वर तीक्ष्ण और कभी मंद होना, तथा भोजनके "वजानेके अनन्तर सायंकालमें एवम् वर्षा ऋतुमें उत्पत्ति अथवा वृद्धि होना एवम् नख, नेत्र, मुख, मूब, मल और त्वचा इन सवका कठोर और शुष्क होजानातथा लाल वर्णके दिखाई देना, शरीरका वर्ण चिकटा सा हो जाना, शरीरके अंगोंमें 'क्षणक्षणमें इधर उधर चलनेवाली. तथा स्थिर रहनेवाली वायुकी पीडा होना जैसे पैरोंका सोजाना, पिण्डलियोंमें उद्देष्टन (लपेटनेकीसी पीडा) होना, नानुमओंका तथा अन्य संधियोंका ढीले ढलिसे पड़ जाना, दोनों जांघोंका रहसा जाना, कटि, 'पार्थ, पीठ, कंधे, भुजा और कंधके ऊपरके भागमें एवम् वक्षस्थलमें तोडनेकीसी पीडा तथा मर्दन करनेकीसी पीडा एवम् मथनेकीसी पीडा होना तथा चटकानेकीसी. पीडा, मीडनेकीसी पीडा और सूई चुभानेसी पीडा होना, ठोडीका जकडना कानों में शब्द होना, कनपटियों में सूई चुभनेकीसी पीडा होना,मुखका कसैला होना एवम् विरस होना । मुख, ताल, और कण्ठका सूखना, तृषा, छातीमें दर्द, सूखी छौ, सूखी खांसी और छीक इनका होना, डकार न भाना, अनके रसयुक्त थूकना, अरुचि, अन्नका न पचना, चित्तमें विषाद रहना, जंभाई अधिक आना, शरीरका नमजाना,कंप होना, थकावट मालूम देना,भ्रम होना,वकना,निद्रा न आना, रोमाञ्च होना, दंतहर्ष होना, गर्मीकी इच्छा होना, वातनाशक, उष्ण, स्निग्ध आदि पदार्थोंसे रोगकी शान्ति होना, एवम् रूक्ष,शीत आदिकोंसे रोगका बढना यह सब लक्षण वातज्वरके होतह ॥ २५ ॥
पित्तकोपका कारण। उष्णाम्ललवणक्षारकटुकाजीर्णभोजनेभ्योऽतिसेवितेभ्यस्तथातितीक्ष्णातपानिसन्तापश्रमक्रोधविषमाहारेभ्यः पित्तंप्र. कोपमापद्यते ॥ २६॥ अब पित्तकोपके कारणोंको कहतेहैं । जैसे उष्ण, अम्ल, लवण, क्षार, चरपरे पदार्थोंके सेवनसे एवम् अजीर्णकर्ता भोजनके अधिक सेवनसे तथा अतितीक्ष्ण, रूप, आग्न और संतापके सेवनसे, पारश्रम करनेसे तथा विषम भोजन करनेसे इन सब कारणोंसे पित्तका प्रकोप होताहै ॥ २६ ॥ .
... प्रकुपितपित्तका कर्म। तद्यथाप्रकुपितमामाशयादेवोष्माणमुपसंसृज्यायमाहारपरि
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निदानस्थान-अ० १. (४२८) ... . णामधातुंरसनामानमन्वावेद्यरसस्वेदवहांनिचस्रोतांसिपिधा
यद्रवत्वादग्निमुपहत्यपक्तिस्थानादूष्माणंबहिरंनिरस्यप्रपांडयन्केवलंशरीरमुपपद्यतेतदाज्वरमभिनिर्वर्त्तयति ॥ २७ ॥ फिर वह पित्त कुपित होकर आमाशयसे गर्मीको उत्तेजन करताहुआ आहारका परिणामरूप जो रसनामक धातु है उसमें मिलकर स्वेद और रसके बहानेवाले छिद्रोंको रोक देताहै । फिर अपने द्रवसे जठरामिको हनन कर पाचकस्थानकी गर्मीको बाहर निकाल देताहै । तब अपना अधिकार पाकर शरीरको पीडन करता. हुआ पित्तज्वरको उत्पन्न करताहै ॥ २७ ॥
पित्तज्वरके लक्षण । तस्येमानिलिङ्गानिभवन्ति। तद्यथायुगपदेवकेवलेशरीरेज्वरा" भ्यागमनमभिवृद्धिर्वा । भुक्तस्यविदाहकालेमध्यन्दिनेऽद्धरा
त्रेशरदिवाविशेषेणकटुकास्यताप्राणमुखकण्ठोष्ठतालुपाकस्तृ- : रुणाभ्रमोमदोमछापित्तच्छर्दनमतीसारोऽन्नद्वेषःसदनस्वेदःप्रलापोरक्तकोठाभिनिवृत्तिःशरीरेहरितहारिद्रत्वंनखनयनवदनमूत्रपुरीषत्वचामत्वचामत्यर्थमुष्मणस्तीव्रभावोऽतिमात्रंदाहाशीताभिप्रायतानिदानोक्तानामनुपचयोविपरीतोपचयश्चेतिपित्तज्वरलिङ्गानिभवन्ति ॥ २८ ॥
उसके ये लक्षण होतेहैं ।शरीरमें एकदम ज्वरका वेग होना,भोजनके पाकके समय दिनके मध्यमें, अर्धरात्रिमें, शरदऋतुमें विशेष करके ज्वरकी वृद्धि होना या उत्पन्न होना, मुखमें कटुता, नाक, मुख, कण्ठ, ओष्ठ और तालुका पकना, तृषा, भ्रम, मोह, मूर्छा, मुखसे पित्तका निकलना, पतला दस्त होना, आहारमें अरुचि,स्वेद, प्रलाप, शरीरमें लाल वर्णके चकत्ते प्रगट होना, नेत्र, नख, मुख, मूत्र,पुरीष, त्वचा इनका हल्दाके समान पीलावर्ण होना, गर्मी अधिक प्रतीत होना, अधिकं दाह होना, शीतल वस्तुकी इच्छा होना एवम् उष्ण वस्तुओंसे रोगका बढना, शीतल बस्तुओंसे शान्त होना यह पित्तज्वरके लक्षण होतेहैं ॥२८॥ . .:.
कफप्रकोपका कारण । स्निग्धमधुरगुरुशीतपिच्छिलाम्ल-लवण-दिवास्वप्नहर्षव्या. यामेभ्योऽतिसेवितेत्यश्लेष्माप्रकोपमापद्यते ॥ २९॥ . .
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(' ४२६ ) .
चरकसंहिता - भा० टी० ।
7
चिकने, मधुर, भारी, शीतल, पिच्छिल, अम्ल, एवम् लवण पदार्थोंके खानेसे दिनमें सोनेसे, हर्षसे, परिश्रम न करनेसे इत्यादि कफवर्द्धक पदार्थोंके अधिक सेव नसे कफका कोप होता है ॥ २९ ॥
प्रकुपितकफका कर्म |
सयदाप्रकुपितः प्रविश्यामाशय मूष्मणासह मिश्रीभूतमाद्य माहारपरिणामधातुरसनामानमन्ववेत्य रसस्वेदवहानिचस्रोतांसि पिधायाग्निमुपहत्यपक्तिस्थानादूष्माणंवावहिः निरस्यप्रपीडय - नूकेवलंशरीरमुपपद्यते तदाज्वरमभिनिर्वर्त्तयति ॥ ३०॥
वह कुपित हुआ कफ आमाशय में प्रवेश करके जठराग्निकी गर्मी के साथ मिलकर आहारके परिणामरूप रस नामक धातुके साथ जाकर रस और स्वेदके वहानेवाले छिद्रोंको रोक देता है । तब जठराग्निको हनन करके पाचकाचिकी गर्मीको बाहर निकाल देता है । फिर अपना अधिकार पाकर शरीरको पीडित करताहुआ कफज्वर उत्पन्न करता है ॥ ३० ॥
कफज्वरके लक्षण |
तस्येमानिलिङ्गानि भवन्ति । तद्यथायुगपदेव केवलशरीरेज्वराभ्यागमनमभिवृद्धिर्वा भुक्तमात्रे पूर्वाह्णे पूर्व रात्रेवसन्तकालेवाविशेषेण गुरुगात्रत्वमनन्नाभिलाषः श्लेष्मप्रसेकोमुखस्यचमाधु
र्य्यहृल्लासोहृदयोपलेपस्तिमिरत्वंछर्द्दिमृद्वग्नितानिद्रायाआधिक्यंस्तम्भःतन्द्राश्वासःकासः प्रतिश्यायः शैत्यं श्वैत्यञ्चनयननखवदनमूत्रपुरीषत्वचामत्यर्थशीत पिडका भृशमङ्गेभ्यउत्तिष्ठति उष्णाभिप्राय तानिदानोक्तानामनुपचयोविपरीतोपचयश्चेतिश्लेष्मज्वरलिङ्गानि भवन्ति ॥ ३१ ॥
उसके ये लक्षण होते हैं शरीरमें एकदम ज्वरका प्रगट होना, भोजन करते ही पूर्वाद्धमें रात्रि के प्रथम भाग में एवम् वसन्तऋतुमें ज्वरका अधिक होना अथवा उत्पन्न होना एवम् शररिंमें भारीपन, अन्नमें अरुचि, मुखसे कफका गिरना, मुखका स्वाद मीठा होना, कफकी छर्दी होना, हृदय कफसे लिपासा प्रतीत होना, देहमें गीलापन प्रतीत होना, अग्निकी मंदता, अधिक निद्रा, स्तंभ, तंद्रा, श्वास, कास, प्रतिश्याय, शीतता, नेत्र, नख, मुख, मूत्र, पुरीष, त्वचा इनका श्वेत होना, देहमें:
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निदानस्थान - अ० १
(४२७) तरंगकीपिडकाका होना, गर्मीकी इच्छा होना, चिकने एवम् कफकारक पदाथास ' रोगका बढना, रुक्ष, उष्ण आदि पदार्थोंसे शान्त होना यह सब कफज्वर के लक्षण होते हैं ॥ ३१ ॥
द्वन्द्वजादिज्वरोंका निदान ।
विषमाशनादनशनादन्नस्य अपरिवर्तादृतुव्यापत्तेः असात्म्यागन्धोपघ्राणाद्विषोपहतस्यो दकस्य उपयोगाद्गरेभ्योगिरीणामुपश्लेषात्स्नेहस्वेदवमन विरेचनास्थापनानुवासन शिरोविरेचनानामयथावत्प्रयोगात्स्त्रीणाञ्चविषमप्रजननात् प्रजातानाञ्च मिथ्योपचाराद्यथोक्तानाञ्च हेतूनां मिश्री भावाद्यथानिदानं द्वन्द्वानामन्यतमः सर्वेवात्रयोदोषायुगपत्प्रकेापमापद्यन्ते ॥ ३२ ॥
विषम भोजन करनेसे, ऋतुओंके परिवर्तनसे, ऋतुओंके विगड- से, असात्म्य गंधके सूंघनेसे, विषैले जलके पनिसे, गर (गरसंज्ञक विष ) विकारसे, पहाडों के समीपतासे, स्नेहन, स्वेदन, वमन, विरेचन, आस्थापन, अनुवासन और शिरो विरेचन इन सबके मिथ्यायोग होनेसे, स्त्रियोंके बेसमय प्रसव होनेसे अथवा प्रस• वके समय कुपथ्य होजाने से एवम् ऊपर कहे हुए वात, पित्त, कफ, इनमेंसे दों दोषों के कारणोंके मिलनेसे दो दोष कुपित होते हैं और तीनों दोषोंके कोप कारक कारणोंके मिलजानेसे तीनों दोष एकही कालमें कुपित होतेहैं ॥ ३२ ॥
द्वन्द्वजादिज्वरों के लक्षण | तेप्रकुपितास्तयैवानुपूर्व्याज्वरमभिनिर्वर्त्तयन्ति तत्रयथोक्तानां
ज्वरलिङ्गानांमिश्री भावविशेषदर्शनाद्द्द्वान्द्विकमन्यतमंज्वरं सान्निपातिकंवाविद्यात् ॥ ३३ ॥
कुपित हुए दोष क्रमपूर्वक इन्द्रजज्वरको अथवा सन्निपातज्वरको उत्पन्न करते हैं दो दोष कुपित हुए इन्द्रजज्वरको उत्पन्न करते हैं। तीनों दोष कुपित होनसे सन्निपात ज्वर उत्पन्न होताह । दो दाषाक लक्षण मिलनेसे इन्द्रज (द्विदोषज ) ज्वर जानना और तीनों दोषों के लक्षण मिलनेस त्रिदोषज्वर जानना चाहिये ॥ १३ ॥
आगन्तुज्वरका कारण व उसमें दोषात्पाते ।
अभिघाताभिषङ्गाभिचाराभिशापेभ्यआगन्तुर्व्यथापूर्वोज्वरोऽमोभवति । सकञ्चित्कालमागन्तुः केवलो भूत्वापश्चाद्दोषैरनुबध्यते ।
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४२८) चरकसंहिता-भा० टी०॥ अभिघातजोवायुनादुष्टशोणिताधिष्ठानेनअभिषङ्गजःपुनर्वातपित्ताभ्याम्अभिचाराभिशापजोतुसन्निपातेनउपनिबध्यते ।
सप्तविधाज्ज्वराद्विशिष्टलिंगोपक्रमसमुत्थितत्वाद्विशिष्टोवेदि'तव्यः । कर्मणासाधारणेनचोपक्रम्यतिअष्टविधाज्वरप्रकति. रुक्ता ॥ ३४॥ चोट आदिके लगनेसे; काम क्रोधादि अभिषङ्गसे, अभिचार तथा अभिशापसे आगन्तुकज्वर उत्पन्न होताहै । आगन्तुक ज्वरके मिलानेसे ज्वर आठ प्रकारके होते हैं। आगन्तुकज्वर पहिले स्वयं प्रगट होकर पीछे वात, पित्त, कफकी सहायताको प्राप्त होताहै अर्थात् आगन्तुज व्याधि पहिले व्याधि उत्पन्न होकर पीछे वातादि दोष कुपित होते हैं । (और निज व्याधिौ पहिले वातादि दोष कुपित होकर पछि रोग उत्पन्न होता है)। अभिघात निमित्तक आगन्तुजज्वरमें वायुदूषित रुधिरका आश्रय लेकर अभिघातज्वरका सहायक बनताहै । अभिषङ्ग ज्वरमें वात
और पित्तका अनुबन्ध होता है । अभिचार और अभिशापजनित ज्वरमें तीनों दोषोंका अनुबन्ध होताहै । आगन्तुजज्वर पूर्वोक्त सात प्रकारके ज्वरोंसे लक्षण, उपाय कारणों द्वारा अलग जानना चाहिये अर्थात् वातादि सात प्रकारके ज्वरोंसे आगन्तुजज्वरके कारण, लक्षण उपाय और प्रकारके होते हैं । क्योंकि आगन्तुजज्वर उसके साधारण कारण की चिकित्सामात्रसे शान्त होजाताहै । इस प्रकार ज्वरोंकी आठ प्रकारकी प्रकृति कही है ॥ ३४ ॥
ज्वरके भेद। ज्वरस्त्वेकएवसन्तापलक्षणस्तमवाभिप्रायविशेषादाद्विविधमाचक्षतेनिजागन्तुविशेषाञ्चतत्रनिजद्विविधत्रिविधंचतुर्विधंसप्तविधञ्चाहुर्वातादिविकल्पात् ॥ ३५॥ . यद्यपि सन्तापमात्र लक्षणसे अर्थात् शरीरके तपायमान होनेसे ज्वर (ताप) एकही प्रकारका होताहै परन्तु उसीको निज और आगन्तुकभेदसे दो प्रकारका कथन करते हैं । उनमें निजज्वर एक प्रकारका तथा दो प्रकारका एवम् तीन प्रकारका और चार प्रकारका अथवा सात प्रकारका वात आदिके विकल्पसे माना
... . "
ज्वरके पूर्वरूप।
..
.
तस्येमानिपूर्वरूपाणि। तद्यथामुखवैरस्यगुरुगात्रत्वमनन्नाभि
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निदानस्थान-अ० १......। लाषश्चक्षुषोराकुलत्वमस्रागमनंनिद्रायाआधिक्यमरतिर्जम्भाविनामोवेपथुश्रमभ्रमप्रलापजागरणलोमहर्षशब्दगीत-- वातातपासहत्वमरोचकाविपाकौदौर्बल्यमङ्गमई सदनमल्पप्राणतादीर्घसूत्रताआलस्यमुपंचितस्य कर्मणोहानिःप्रतीपता स्वकार्येषुगुरूणांवाक्येषुअभ्यसूयाबालेषुप्रद्वेषः स्वधर्मेषुअचिन्तामाल्यानुलेपभोजनक्लेशनमधुरेषुभक्ष्येषुप्रद्वेषोऽम्ललवणकटुकप्रियताचेतिज्वरपूर्वरूपाणि ॥३६ ॥ . . . सामान्य ज्वरके यह पूर्वरूप होतेहैं-जसे मुखकी विरसता, अंगोंका भारीपन, अन्नमें अरुचि,आंखोंमें दाह अथवा स्त्राव होना एवम् आंखोंका लाल होना अधिक निद्रा आना, चित्त न लगना तथा जंभाई आना, शरीरका ऐंठना एवम् कम्प,श्रम, भ्रम, प्रलाप, जागरण, रोमहर्ष, दन्तहर्ष इन सबका होना तथा शब्द, गीत,पवन, धूप इनकी इच्छा होना और क्षणमात्रमें इनसे द्वेष होना तथा अरुचि, अविषका, दुर्बलता, अङ्गमर्द, अवसाद, प्राणोंका क्षीण होना, कामको बहुत देरमें करना, आलस्य उपस्थित कामको छोडदेना, अपने कार्यमें बेपरवाही करना, गुरुजनोंकें। वाक्योंको न मानना, बालकों की वोलचाल बुरी मालूम होना,अपने धर्मका चिन्तन न करना, पुष्पमाला चन्दनादिका लेप और भोजन इनसे भी क्लेशं प्रतीत होना;:. मधुर पदार्थोंसे भी द्वेष होना, खट्टे, नमकीन, चरपरे पदार्थोकी इच्छा होना यह. सब लक्षण ज्वरके पूर्वरूपमें होते हैं ।। ३६ ॥ . .
ज्वरकारूप। प्राक्सन्तापादपिचैनसन्तापातमनुषचन्तीत्येतानिएकैकज्वरलिंगानिविस्तरसमासाभ्याम् ॥ ३७॥.. . . सन्ताप होनेसे अर्थात् ज्वरसे पहिले प्रगट होनेसे इसको ज्वरका पूर्वरूप कहते। हैं। और यह लक्षण ज्वर प्रगट होनेके अनन्तर होनेसे ज्वरके रूपमें गिने जाते हैं.' अर्थात पूर्वरूपावस्थामें जो संताप प्रगट नहीं था वह प्रगट होजानेपर रूप कहा जाता. है । सो यह लक्षण हरएंक.ज्वरमें संक्षेप और विस्तारसे जान लेना चाहिये॥३७॥
.. .... सोत्पत्तिक ज्वरका वर्णन। ज्वरस्तुखलुमहेश्वरकोपप्रभवःसर्वप्राणिनांप्राणहरोदेहेन्द्रिय
मनस्तापकरःप्रज्ञाबलवर्णहर्षोत्साहसादनार्तिश्रमक्लममोहा- .. . हारोपरोधसञ्जननोज्वरयतिशरीराणिइतिज्वरः । नान्येव्या- :
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(४३०.). चरकसंहिता-मा० टी०।
धयः। तथादारुणाबहूपद्रवादुश्चिकित्स्यायथायमिति । सर्वरोगाधिपतिवर नानातिर्यग्योनिषुबहुविधैःशब्दरभिधीयते सर्वप्राणभृतश्चसज्वराएवजायन्तेसज्वराएवम्रियन्तेसमहामोमोहातेनाभिभूताःप्राग्दैहिकंदेहिनःकर्मकिञ्चिन्नस्मरन्तिसवप्राणिभ्यश्चज्वरएवप्राणानादत्ते ॥३८॥ अब ज्वरकी उत्पत्ति और उसके नामादिकोंका वर्णन करते हैं । ज्वर महादेवके कोपसे उत्पन्न हुआहै । और सब प्राणियों के प्राणों को हरनेवाला देह, इन्द्रिय, मन इनको तपायमान करनेवाला बुद्धि, वल, वर्ण,हर्ष, उत्साह इनको नष्ट करनेवाला है । पीडा, थकावट, घबराहट, माह इनको करनेवाला है तथा आहारका उपरोध. करनेवाला है । शरीरको जर्जर करदेताहै इसलिये इसको ज्वर कहतेहैं । अन्य व्याधियां इस प्रकार दारुण और बहुतसे उपद्रवोंवाली एवम् दुश्चिकित्स्य नहीं होती जिस प्रकार यह ज्वर है ज्वर सब रोगोंका राजा हैऔर अनेक प्रकारकी पशु . आदि योनियों में अनेक नामोंसे कहा जाताहै । संपूर्ण जीवमात्र ज्वरसहित जन्म लेतेहैं और मरनेके समय भी ज्वरसहित प्राणोंको त्यागते, ज्वररूप महामाहसे व्याप्त हुआ मनुष्य जन्मके समय पूर्वजन्मकी किसी बातको भी स्मरण नहीं कर सकता यह ज्वरही संपूर्ण प्राणियोंके प्राणोंको आकर्षण करताहै अर्थात् ग्रहण करताहै ॥ ३८॥
___ ज्वरक पूर्व में कर्तव्य कर्म। तत्रास्यपूर्वरूपदर्शनेज्वरादौवाहितलध्वशनमतर्पणवाज्वरस्या- :
माक्षयसमुत्थत्वात् ॥ ३९॥ " क्योंकि ज्वर आमाशयसे उत्पन्न होताहै इसलिये ज्वरके पूर्वरूप दिखाई देते ही अथवा ज्वरके.आदिमें हित और हलके भोजन अथवा अतर्पण (लंघन )करना चाहिये ॥ ३९॥
ज्वरमें कर्तव्य । • ततःकषायपानाभ्यङ्गस्वेदप्रदेहपरिषेकानुलेपनवमनविरेचनास्थापनानुवासनोपशमननस्तःकर्मधूपधूमपानाञ्जनक्षीरभोजनविधानम् ॥४०॥
ज्वर उत्पन्न होनेपर काथ पीना, ज्वरनाशक तेलका मलना, पसीना देना एवम् 'लेप, परिषेक, अनुलेपन, वमन.विरेचन, आस्थापन, अनुवासन, उपशमन, नस्य,
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थास्वंयुक्त्याजीणस्नेहाद्वातंशमा साहितमुदकाम
निदानस्थान-अ० १. (४३१), धूम्रपान, अंजन, दूधपान इन सबको जिस जगह जिस विधिसे जिसका प्रयोग करना उचित हो उस प्रकार प्रयोग करे ॥ ४० ॥ -
ज्वरमें घृतपान । 'यथास्वंयुक्याजीर्णज्वरेषुसर्वेष्वेवसर्पिषःपानंप्रशस्यते । यथा स्वमौषधसिद्धस्यसपिहिस्नेहाद्वातंशमयतिसंस्कारात्कफंशैत्यापित्तमुष्माणंचतस्माजीर्णज्वरेषुतुसर्वेष्वेवसर्पिर्हितमुदकमिवाग्निप्लुष्टेषुद्रव्येष्विति ॥४१॥ सब प्रकारके जीर्णज्वरों में उनके लक्षणों के अनुसार युक्तिपूर्वक ज्वरनाशक द्रव्योंद्वारा सिद्ध किये हुए घृतोंका पान करना परमोत्तम कहाहै। यथा लक्षणयुक्त औषधियोंसे सिद्ध किया घृत अपने स्नेहके योगप्ते वायुको शान्त करताहै । कफनाशक द्रव्योंके संयोगसे कफको शान्त करताहै एवम् शीतल होनेसे पित्तको शान्त करता है। इसलिये संपूर्ण जीर्णज्वरों में घृतका पान करना इस प्रकार शान्तिकारक है जैसे आग्नि लगे पदार्थोपर जलका डालदेना शान्तिकारक होताहै ॥४१॥
तत्रश्लोकाः । — यथाप्रज्वलितंवेश्मपरिषिञ्चन्तिवारिणा । . नराःशान्तिमभिप्रेत्यतथाजीर्णज्वरेघृतम् ॥ ४२ ॥ यहांपर श्लोक हैं-कि जैसे, अग्निसे जलते हुए घरको मनुष्य जलसे सींचता है और वह जल शान्तिकारक होताहै उसी प्रकार जीर्णज्वरमें घृत भी शान्तिकारक होताहै ॥४२॥
. स्नेहाद्वातंशमयतिशैत्यात्पित्तंनियच्छति ।
घृतंतुल्यगुणदोषंसंस्कारात्तुजयेत्कफम् ॥ १३ ॥ __ घृत-स्नेहसे वायुको शान्त करताहै और शीततासे पित्तको शान्त करताहै । घृत-कफके तुल्यगुण होनसे औषधियोंके संस्कार द्वारा कफको जीत लेताहै।॥४३॥
घृतको उत्कृष्टत्व । नान्यःस्नेहस्तथाकश्चित्संस्कारमनुवर्तते।
यथासर्पिरतःसर्पिःसर्वस्नेहोत्तरंपरम् ॥ ४४ ॥ और स्नेह अर्थात् तैल आदिक द्रव्यान्तरसे संस्कार किये हुए द्रव्योंके गुणोंको ग्रहण नहीं करते । जिस प्रकार संस्कार द्वारा घृत औषधियोंके गुणको ग्रहण कर. लेता है। इसलिये सब प्रकारके स्नेहोंमें घृत परमोत्तम माना जाताहै ॥ ४४ ॥
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(४३२)
चरकसंहिता-मा० टी। गद्योक्तोयःपुनःश्लोकैरर्थःसमनुगीयते । ....
तद्वयक्तिव्यवसायार्थद्विरुक्तःसनगीते ॥४५॥ गयों में कहाहुआ विषय यदि श्लोकों द्वारा फिर कथन करदियाजाय तो उसमें पुनरुक्ति दोष नहीं माननाचाहिये क्योंकि वह श्लोकोंमें मनुष्योंको याद रहसकता है आर प्रिय मालूम होताहै इसलिये कथन कियाजाताहै ॥ ४५ ॥ त्रिविधनामपायहेतुंपञ्चविधानगदान । गदलक्षणपOयान व्याधेःपञ्चविधंग्रहम् ॥ ४६॥ज्वरमष्टविधंतस्यप्रकृष्टास
कारणम् । पूर्वरूपञ्चरूपञ्चसंग्रहेभेषजस्यच ॥४७॥ ... व्याख्यातवावरस्यागेनिदानेविगतज्वरः । भगवानमिवे.
शायप्रणतायपुनर्वसुः॥४८॥ इतिचरकप्रतिसंस्कृतेतन्त्रज्वरनिदानो नामप्रथमोऽध्यायः॥१॥
अब अध्यायका उपसंहार करते हैं । कि इस ज्वरनिदाननामक अध्यायमें तीन प्रकारका कारण, पांच प्रकारका रोग विज्ञान, पांच प्रकारके रोगोंके लक्षणोंका पर्याय तथा उनका संग्रह, आठ प्रकारके ज्वर, उस ज्वरके विप्रकृष्ट और सनिकृष्ट कारण, पूर्वरूप, रूप, संक्षेपसे औषधिसंग्रह, संतापरहित भगवान् पुनर्वसुजीन इस ज्वरनिदानमें कथन कियेहैं ॥ ४६ ॥ ४७ ॥४८॥
इति श्रीमहर्षिचरकप्रणीतायुर्वेदीयसंहितायां निदानस्थाने टंकसालनिवासि पं०रामप्रसादवै.. · द्योपाध्यायविरचितप्रसादन्याख्यभाषाटीकायां ज्वरनिद नं नाम प्रथमोध्यायः ॥१॥
द्वितीयोऽध्यायः ।।
रकपित्तनिदानम्। अथातोरक्तपित्तनिदामंव्याख्यास्यामइतिहस्माहभगवानानेयः ।। अब हम रक्तपित्त के निदानका कथन करतेहैं । इस प्रकार भगवान् आत्रेयजी. कहने लगे।
- रक्तपित्तका कारण। पित्तयथाभूतलोहितपित्तमितिसंज्ञालभतेतत्तथानुव्याख्या- ... स्यामः । यदायस्तुजन्तुर्यवकोदालकोरदूषकप्रायाणिअन्ना-. .
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निदानस्थान-अ० २.
(१३३) निनित्यंभुङ्क्तेभृशोष्णतीक्ष्णमपिचान्यदन्नजातनिष्पावमाषकुलत्थक्षारसूपोहितदधिमण्डोदश्वित्कटम्लकालिकोपहितंवाराहमाहिषाविकमत्स्यगव्यपिशितंपिण्याकपिण्डालुकशाकोपहितमूलकसर्षपलशुनकरअशिग्रुकषडयूषभूस्तृणसुमुखसुरंसकुठेरगण्डीरकालमालकपर्णासक्षवकफणिजकोपदंशंसुरासौवीरतुषोदकमैरेयमेचकमधूलककुदलबदराम्लप्रायान्नपानंपिप्टान्नोत्तरभूयिष्ठमुष्णाभितप्तोऽतिमात्रमतिवेलेवापयसासमश्नातिरोहिणीकालकपोतमांसंवासर्षपतैलक्षारसिद्धंकुलस्थमाष
पिण्याकजाम्बलकुचपक्कैः शौक्तिकैर्वा सहक्षीरमाममतिमात्रम. थवापिवत्युष्णाभितप्तस्तस्यैवमाचरतःपित्तप्रकोपमापद्यते ।
लोहितञ्चस्वप्राणमतिवर्त्तते ॥१॥ पित्त जिस प्रकार रक्तपित्त संज्ञाको प्राप्त होताहै उस प्रकारकी उसकी व्याख्या करतेहैं । जब मनुष्य-जौ, उद्दालक, कोद्रव आदिक द्रव्योंका निरन्तर सेवन करताहै एवम् अत्यन्त उष्ण और तीक्ष्ण अन्नोंको सेवन करताहै अथवा निष्पाव उडद, कुल्थी दाल आदिमें दहीका मण्ड उदश्वित् मिलाकर खाताहै अथवा चरपरे, खहे. कांजी आदिक पदार्थोंको अधिक सेवन करताहै तथा सूअर, भैंसा मेंढा, मछली, गो आदिकोंके मांसको खाताहै । तिलोंकी खली, पिंडालुका शाक एवम् पकी मूली, सरसों, लहसुन, कंजा, सुहाँजना, पडयूष, मृतृण, शाक, पर्णाश सुमुख, सरसः (तुलसीके भेद ),कुठेर,गण्डीरशाक,कालमालकशाक, फणीझक (मरुआ), उप-- देशक (चीमांसविशेषका बना पदार्थ), सुरा, सौपीर, तुषोदक, मैरेय, भेदक,. मधूलक, वेर तथा अन्य खट्टे पदार्थों का अत्यन्त सेवन करताहै। मिष्टान्नका अधिक सेवन करताहै । गर्माईसे तत मनुष्य बहुत भोजन करे एवम् भोजनका समय लंघनकर भोजन करे अथवा राहणी नामक मछली वा कालकपोतके मांसको दूधके. साथ कालकपोतके मांसको · सरसोंके तेल और क्षारके साथ सिद्ध कर खाताहै एवम् कुल्थी, उडद, तिलकल्क, जामुन, बडहरके साथ पकायेहुए दूधको अथवा इनसब वस्तुओंको कच्चे दूधके साथ वा कांजीके साथ पित्त प्रकृतिवाला मनुष्य निर• न्तर सेवन करताहै. उसके शरीरमें पित्त कोपको प्राप्त होजाताहै । एवम् रक्तं अपने. प्रमाणको छोडकर बढजाताहै ॥ १॥
२८
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चरकसंहिता - भा० टी० ।
रक्तके दूषित होनेका कारण । तस्मिन्प्रमाणातिप्रवृत्तेपित्तंप्रकुपितं शरीरमनुसर्पद्यदैवयकत्लीहप्रभावाणां लोहितवहानांस्रोतसां लोहिताभिष्यन्द गुरूणिमुखान्यासाद्यप्रतिपद्यते तदैव लोहितं दूषयति ॥ २॥
रक्त अपने प्रमाणसे अधिक होकर और पिच कुपित होकर जव शरीरमें अनु सर्पण ( विचरण ) करते हैं फिर यकृत और प्लीहा से प्रगट हुई रक्त के बहानेवाली नाडियों का रक्त संचित होकर उन नाडियोंका मुख भारी होकर रुधिरके जमने से गिलगिलासा हो जाता है तब वह कुपित हुआ पित्त रक्तको भी दूषित करदेता है २॥ रक्तपित्तनामका कारण ।
(४३४ )
संसर्गीन्तली हतप्रदूषणा लोहितगन्धवर्णानुविधानाञ्च्चपित्तंलोहितमित्याचक्षते ॥ ३ ॥
रक्तके साथ पित्तका संसर्ग होनेसे और दूषिक रक्तसे रक्तको गन्ध और वर्ण होनेके कारण वह रक्तयुक्त पित्त - रक्तपित्त ऐसा कहा जाता है ॥ ३ ॥ रक्तपित्तके पूर्वरूप ।
तस्येमानि पूर्वरूपाणि । तद्यथा । अनन्नाभिलाघोभक्तस्यविदाहःशुक्ताम्लरसगन्धस्योद्गारश्छदैः अभीक्ष्णागमनं छर्दितस्यवीभत्सतास्वरभेदो गात्राणांसदनं परिदाहश्च मुखा सागमइव लोहलोहित मत्स्यामगन्धित्वमपिचास्यस्यरक्त हरितहारिद्रवत्वमङ्गावयवशकृन्मूत्र-स्वेदलाल शिंघानकास्य कर्णमल - पिडकानाम -- ङ्गसंवेदनालोहित नीलपीतश्यावानामर्च्चिष्मताञ्चरूपाणां स्वप्नदर्शनमभीक्ष्णमितिलोहितपित्तपूर्वरूपाणि ॥ ४ ॥
उस रक्तपित्त के यह पूर्वरूप होते हैं । जैसे- अन्नमें अरुचि, भोजनका विदाही परिपाक, कांजी और खट्टेरसकी गन्धयुक्त छर्दी तथा डकार आना, संदा छर्दका होना, वीभत्सता, स्वरभेद, अंगोंका सदन (सोनेवत् होना) छातीमें दाहजैसी होना, मुखसे । असा निकलना और मुखसे लोहा, रुधिर, आम, मछलीकीसी दुर्गंध आना, हल्दी के रंगके समान अंगों के अवयव, मल, मूत्र, पसीना, नाकका मैल, मुखकी लार, कानका मैल और पिडाकाओं का वर्ण पीला होना अथवा लाल होना और अंगोंमें पीडा होना तथा सप्न में नित्य लाल, नीले, पीले, काले प्रकाशवाले रूपोंको देखना यह सब रक्तपित्त रोगं प्रगट होने से प्रथम प्रगट ( पूर्वरूप ) होते हैं ॥ ४ ॥
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. निदानस्थान-०२.
___ रक्तपित्तके उपद्रव । उपद्वास्तुखलुदौर्बल्यारोचकाविपाकश्वासकासज्वरांतीसारशोफशोषपाण्डुरोगस्वरभेदाः॥५॥ दुर्बलता, अरुचि, अन्नका न पचना; श्वास, कास, ज्वर, अतिसार, शोथ, शोष, पाण्डु,स्वरभंग यह रक्तपित्तके उपद्रव होते हैं ॥५॥
रक्तपित्त के मार्ग। मार्गौपुनरस्यद्वौऊर्द्धश्चाधश्चतहहुश्लेष्मणिशरीरेश्लेष्मसंसर्गादूर्द्धप्रपद्यमानंकर्णनासिकानेत्रास्यायः प्रच्यवते । बहुवा
तेतुशरीरेवातसंसर्गादधः प्रपयमानमूत्रपुरीषमार्गाभ्यांप्रच्य. वते । बहुवातश्लंष्मणितुशरीरेश्लेष्मवातसंसर्गाद्दावपिमार्गों
प्रपद्यते। तौमागाप्रपद्यमानंसर्वेश्य एवयथोक्तेयःखेल्यःप्रच्य. वतेशरीरस्य ॥६॥
रक्तपित्तके दो मार्ग हैं एक ऊर्ध्वमार्ग दूसरा अधोमार्ग । वह रक्तपित्त-कफ. अधान शरीरमें करके संसर्गसे ऊपरको गमन करताहुआकान, नत्र,नासिका और मुख द्वारा निकलताहै । वातप्रधान शरीरमें वायुके संसर्गसे नीचको गमन करता हुआ मूत्र और मनके द्वारोंसे निकलतोह। जिसके शरीरमें वायु और कफ इन दाना की अधिकता होतीहै उसके शरीरमें वात और कफके संसर्गसे दोनों ( उपरके
और नीचेके) मार्गों द्वारा निकलताहै । जब दोनों मार्गोंसे प्रवृत्त होताहै तो शरीरके संपूण द्वारोंसे अर्थात मुख, नासिका, नेत्र, गुदा, लिंग इन . सब मागाँसे निकः लताहै ॥ ६ ॥ .. ..
__. रक्तपिचका साध्यासाध्यत्व। ... · तत्रयदूर्वभागंतत्साध्यंविरेचनोपक्रमणीयत्वाद्दद्वौषधत्वाच ॥७॥
उनसे ऊपरके मार्गसे प्रवृत्त होनेवाला रक्तपित्त विरेचन द्वारा शान्त होनेसे,एवम् बहुतसी औषधिय ऊर्ध्वगत रक्तपित्त नाशक होनेसे ऊर्ध्वगत रक्तपित्त साध्य हैं॥७॥ ... यदधोभागंतद्याप्यंवमनोपक्रमणीयत्वादल्पौषधत्वाच्च ॥८॥ · · · अधोमार्गगामी-रक्तपित्त-याप्य साध्य होताहै क्योंकि उसकी शांति करनेवाली औषधिये बहुत थोडी हैं और उसमें वमन द्वारा शांति होतीहै ॥ ८॥
यदुभयभागंतदसाध्यवमनविरेचनायोगित्वादनौषधत्वाचं ॥९॥
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(४३)
चरकसहिता-भा० टी०। जो दोनों मागासे गमन करताहै वह असाध्य है क्योंकि न तो उसमें वमनावरचन करासक्तेहैं न उभयतः शांत करनेमें औषधी यथोचित क्रिया कर सकती॥९॥
रक्तपित्तकी उत्पत्ति आदि। रक्तपित्तप्रकोपस्तुखलपुरादक्षयज्ञध्वंसेरुद्रकोपामर्षाग्निनाप्राणिनांपारंगतशरीरप्राणानामनुज्वरमभवत् ॥ १०॥ पहले दक्षप्रजापतिका यज्ञ विध्वंस हानके समय महादेवके कोपरूप अग्निद्वारा ज्वर उत्पन्न होनेके उपरांत रक्तपित्त उत्पन्न हुआ वह रक्तपित्त शरीरधारियोंके प्राणोंको दावाग्निके समान सर्वतः प्रवेश करताहुआ शीघ्र नष्ट करदेवाहै । इसलिये इस शीघ्रकारी रोगकी शांतिका उपाय भी शीघ्रही करना चाहिये ॥ १०॥
रक्तपित्तम चिकित्साक्रम । तस्याशुकारिणोदावाग्नेरिवापतितस्यात्ययिकस्याशुप्रशान्तीयतितव्यमात्रांदेशंकालञ्चाभिसमीक्ष्यसन्तर्पणेनापतर्पणेनवा मृदुमधुरशिशिरतिक्तकषायैरन्यवहाय्यः प्रदेहपरिषेकावगाहसंस्पर्शनर्वमनायैर्वातत्रावहितेनति ॥११॥ मात्रा, देश, काल इन सबको विचारकर संतपण अथवा अपतर्पण क्रियाद्वारा एवम् मृदु, मधुर, शीतल, कडुए, कसैले आदि योगोंसे रक्तपित्तको शान्त करै । अथवा लेप, परिषेक,अवगाहन,रत्नआदिका धारण, एवम् वमनआदिकोंसे अथवा अन्य जो क्रिया उचित हो उसके द्वारा रक्तपित्तको शान्त करे ॥११॥
साध्या साध्य विवेचन । तत्र श्लोकाः-साध्यंलोहितपित्तद्यदूर्द्धप्रतिपद्यते ।
विरेचनस्ययोगित्वाइहुत्वाद्भेषजस्यच ॥ १२॥ इसी विषयमें यहांपर श्लोक हैं:-उर्ध्वगामी रक्तपित्त विरेचनके योगसे एवम् उसके नाश करनेवाली वहुतसी औषधियां होनेके कारण साध्य होताहै ॥ १२ ॥
वमननहिपित्तस्यहरणेश्रेष्ठमुच्यते । यश्चतत्रानुगोवायुस्तच्छा
न्तौचावरंमतम् ॥१३॥ स्याच्चयोगावहंतत्रकषायतिक्तकानि ' च । तस्माद्याप्यंलमाख्यातं यद्रक्तमनुलोमगम् ॥ १४ ॥
रक्तन्तुयदधोभागंतचाप्यामितिनिश्चयः । वमनस्याल्पयोगित्वादल्पत्वानेषजस्यच ॥१५॥
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निदानस्थ.न-अ० २.
(४३७) क्योंकि पित्तको हरण करनेके लिये वमन कराना श्रेष्ठ नहीं होता और अधोमार्गगामी रक्तपित्तमें वायुका संसर्ग होनेसे उसकी शान्तिके लिये वमन कराना उचित होताहै । एवम् तिक्त,कषाय पदार्थोदारा पित्त शान्त होताहै परन्तु वायु शान्त नहीं होता इसालये अधोगामी रक्तपित्त चिकित्सामें कठिनाई पडनेसे याप्यसाध्य होताहै। क्योंकि अधोगामी रक्तपित्तमें यथोचित रीतिपर वमन भी नहीं करासकते । . और तिक्त, कषाय द्रव्योंद्वारा भी यथोचित रीतिपर शान्त नहीं करसकते । इसलिये इसको याप्यसाध्य मानत ॥ १३ ॥ १४ ॥ १५॥
रक्तपित्तन्तुयन्मार्गोंद्वावपिप्रतिपद्यते । असाध्यमपितज्ज्ञयंपू. वोक्तादपिकारणात् ॥१६॥ नहिसंशोधनकिञ्चिदस्त्यस्यप्रतिमार्गगम् । प्रतिमार्गश्चहरणंरक्तपित्तेविधीयते । एवमेवोपशमनसर्वशोनास्थविद्यते ॥ १७ ॥ संसृष्टेषुचदोषेषुसर्वजिच्छमनं मतम् ॥ १८॥
जो रक्तपित्त दोनों मार्गोंसे प्रवृत्त होताहै वह ऊपर कहेहुए कारणोंसे असाध्य . होताहै । क्योंकि ऊर्ध्वगामी होनेसे इसमें वमन नहीं कगसकते और अधोगामी होनेके कारण विरेचन नहीं करासकते इसलिये दोनों मार्गोंद्वारा उभयगामी रक्तपित्तमें शोधनक्रिया नहीं होसकती अतएव सर्वथा इसका कोई उपाय शान्तिकारक नहीं होता । सब दोषोंसे मिलेहुए रक्तपित्तमें सर्वतः शान्तिकारक औषधियोंका सेवन हितकर होताहै एवम् सब प्रकारसे उभयंगामी रक्तपित्तको जीतनेके लिये औषधियें भी अपना काम नहीं करसकती इसलिये इसको असाध्य मानाहै१६-१८॥
इत्युक्तंत्रिविधोदकरमार्गविशेषतः ॥ १९ ॥ इस प्रकार मार्ग विशेषसे रक्तपित्तके तीन भेद कथन कियेहैं ॥ १९॥
साध्यरोगको असाध्य होनेका कारण । • एश्यस्तुखलहेतुभ्यःकिञ्चित्साध्यनसिध्यति । प्रेष्योपकरणा. .
भावाद्दौरात्म्याद्वैद्यदोषतः। अकमतश्चसाध्यत्वंकश्चिद्रोगोऽतिवर्चते ॥ २०॥
चार हेतुओंके अच्छा न होनेसे कोई भी रोगसाध्य नहीं रहता वह चार हेतु यह हैं। परिचारक अच्छान होनेसे,औषधी आदि उपकरण अच्छा न होनेसे,रोगीका स्वभाव अथवा आचार अच्छा न होनेसे, एवम् वैद्यके दोषसे साध्य रोग भी असाध्य होजातेहैं । तथा यत्न न करनेसे भी साध्यरोग कोई ही शान्त होताहै अर्थात साध्यरोग भी विना उपाय किये शान्त होना कठिन होताहै ॥ २०॥ .
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(४३८)
चरकसंहिता--भा० टी०॥ तत्रासाध्यत्वमेकंस्यात्साध्ययाप्यपरिक्रमात् ।
रक्तपित्तस्यविज्ञानमिदंतस्योपदेक्ष्यते ॥ २१ ॥ साध्य, याप्यसाध्य और असाध्य इन तीनोंमें असाध्यता सिर्फ एक प्रकारकी होतीहै अर्थात् असाध्यरोगका यत्न नहीं होसकता । साध्य और याप्यसाध्यकी क्रमपूर्वक चिकित्सा हो सकतीहै । इसलिये रक्तपित्तकी असाध्यताके लक्षण कथन करतेहैं ॥२१॥
असाध्यके विशेष लक्षण । यत्कष्णमथवानीलंयद्वाशक्रधनुष्प्रभम् । __ रक्तपित्तमसाध्यंतद्वाससोरञ्चनञ्चयत् ॥ २२ ॥ जो रक्तपित्त काला, नीला,इन्द्रधनुषके समान वर्णवाला, होताहै वह असाध्य जानना । एवम् जिसमें रंगाहुआ कपडा फिर स्वच्छ न होसके उसको भी असाध्य जानना ॥ २२ ॥
भृशंपूत्यतिमात्रञ्चसर्वोपद्रववञ्चयत् । - बलमांसक्षयेयच्चतचरक्तमसिद्धिमत् ॥ २३॥
जिस रक्तपित्तमें अत्यन्त दुर्गंध आवे, तथा संपूर्ण उपद्रवों सहित हो एवम् । रोगीका बल और मांस क्षीण हो वह रक्तपित्त भी असाध्य होताहै ॥ २३ ॥
येनोपहतोरक्तरक्तपित्तेनमानवः ।
पश्येदृश्यावियच्चैवतच्चासाध्यमसंशयम् ॥ २४ ॥ . जिस रक्तपित्तके होनेसे मनुष्य आकाश और संपूर्ण पदार्थोंको लालवर्णका देखे वह भी असाध्य जानना ॥ २४॥
रक्तपित्तमें कर्तव्यता। तत्रसाध्यपरित्याज्यंयाप्ययत्नेनयापयेत् । ।
साध्यश्चावहितासिद्धर्भेषजैःसाधयद्भिषक् ॥ २५ ॥ इनमें असाध्यको त्यागकर याप्यसाध्यकी यत्नपूर्वक चिकित्सा करनीचाहिये। और साध्यरक्तपित्तको सिद्ध औषधियों द्वारा जीत लेनाचाहिये ॥ २५॥ . .. . . . . तत्रश्लोको।.. . कारणंनामनिवृत्तिपर्वरूपाण्युपद्रवान् । मागौँदोषानुवन्धञ्चसा-.,
पर
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निदानस्थान-अ० ३.
(४३९) ध्यत्वंनचहेतुमत् ॥ २६ ॥ निदानेरक्तपित्तस्यव्याजहारयुनर्वसुः। वीतमोहरजोदोषलोभमानमदस्पृहः ॥२७॥ . इति अग्निवेशकृतेतन्त्रेचरकप्रतिसंस्कृतेरक्तपित्तनिदा
नंनामद्वितीयोऽध्यायः ।। अव अध्यायका उपसंहार करतेहैं । इस रक्तपित्त निदाननामक अध्यायमें रक्त पित्तके कारण, उत्पत्ति, पूर्वरूप, उपद्रव, ऊध्ये और अधोगमन, वातादि दोषोंका: अनुवंध, साध्य और असाध्य तथा उनके कारण यह सब मोह, रजोदोष, लोभ, . मान, मद और स्पृहारहित भगवान् पुनर्वसुजीने कथन कियेहै ॥ २६ ॥ २७ ॥ इति श्रीमहापंचरक० नि० स्था० पं.रामप्रसादवेद्य० भाषाटीकायां रक्तपित्तीनदानं
नामद्वितीयोऽध्यायः॥२॥ तृतीयोऽध्यायः।
अथातोगुल्मनिदानं व्याख्यास्याम इति हस्माह भगवानात्रेयः। अब हम गुल्मनिदानकी व्याख्या करतहैं इस प्रकार भगवान् आत्रेयजी कथन करने लगे।
गुल्मोंके भेद । इहखलुपश्चगुल्माभवन्ति । तद्यथा-वातगुल्मः पित्तगुल्मः श्लेष्मगुल्मोनिचयगुल्मःशोणितगुल्मइति ॥१॥ गुल्मरोग पांच प्रकारका होता है-जैसे, वातगुल्म,. पित्तगुल्म, कफगुल्म और सन्निपातगुल्म तथा रक्तजगुल्म ॥१॥
अग्निवेशका प्रश्न । एवंवादिनभगवन्तमात्रेयमग्निवेशउवाचकथामिहभगवन् ! पञ्चानांगुल्मानांविशेषमभिजानीमहे । नाविशेषविद्रोगाणामौषधविदापिभिषप्रशमनसमर्थइति ॥२॥ इस प्रकार कथन करते हुए भगवान् आत्रेयजीसे अग्निवेश कहने लगे कि हे भग-- वन् ! इन पांच प्रकारके गुल्मोंको हम यथोचित रीतिपर कैसे जान सकतेहैं अर्थात इनके जाननेका प्रकार कथन कीजिये क्योंकि रोगके निदानको यथोचित रीतिपर विना जाने अर्थात रोगके बिना समझे औषध क्रियामें कुशल वैद्य भी रोग शान्ति नहीं कर सकता ॥ २॥ . .
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(४४०.) . चरकसंहिता-भा० टी० ।
आत्रयका उत्तर। तमुवाचभगवानांत्रयः। समुत्थानपूर्वरूपलिङ्गग्वेदनोपशयविशेषेभ्योविशेषविज्ञानगुल्मानांभवत्यन्येषाञ्चरोगाणामनिवेश ! तत्तुखलुगुल्मेषूच्यमानंनिबोध ॥३॥ यह सुनकर आत्रेय भगवान् कहनेलगे कि हे अग्निवेश ! कारण, पूर्वरूप, रूप, वेदना और उपशयके भेदसे गुल्मोंका विशेषरूपसे अलग २ ज्ञान होसकता है। इसी प्रकार कारणादि द्वारा अन्य रोगोंका भी ज्ञान हो सकताहै । सो यहांपर गुल्मरोगके कारण आदिकोंका श्रवण करो ॥३॥
___ वातकुपितहोनेका कारण । यदापुरुषोवातलोविशेषेणज्वरवमनविरेचनातीसाराणामन्यतमेनकर्शनेनकर्शितोवातलमाहारमाहरतिशीतंवाविशेषणातिमात्रस्नेहपूर्वे वा वमनविरेचनेपिबत्यनुदानवातमूत्रपुरीषवेगानविरुणद्धिअत्यशितोवापिबतिनवोदकमतिमात्रसंक्षोभणावा यानेनयातिअतिव्यवायव्यायाममद्यरुचिर्वाभिघातमिच्छति वाविषमाशनशयनस्थानचंक्रमणसेवीवाभवतिअन्यद्वाकिञ्चिदेवंविधंवाअतिमात्रंव्यायामजातंवाआरभतेतस्यापचाराद्वातः । प्रकोपमापद्यते ॥४॥ जब वातप्रधान मनुष्य ज्वर, वमन, विरेचन, अतिसार अथवा अन्य कर्षण. द्वारा विशेषरूपसे कृश होजाताहै फिर वह वातकारक और शीतल द्रव्योंको विशेपरूपसे सेवन करे अथवा विना स्नेहन किये ही वमन, विरेचनादिकोंका उपयोग करे अथवा विनाही वेगके वमन आदिकोंको को एवम् मल, मूत्रके वेगोंको रोके अथवा नवीन अन्नोंको और नवीन जलको अधिक मात्रासे सेवन करे या बहुत संक्षोभ ( हिलाना) करनेवाली सवारीमें बैठे एवम् मैथुन, व्यायाम, मद्य,' इनको अधिक सेवन करे एवम् चोट लगनेसे विषम भोजन और विषम शयन करनेसे ऊंचे नीच स्थानमें अधिक फिरनेसे अथवा इस प्रकारके अन्य थकावट आदि पैदा करनेवाले कारणोंसे तथा वातकारककारणों के उपस्थित होनेसे एवम् उपरोक्त वमन, विरेचनादिकोंमें किसीप्रकारका अपचार होनेसे वायुका कोप होताहै ॥४॥
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निदानस्थान-अ० ३.
(४४१) प्रकुपित वातसे गुल्मकी उत्पत्ति । सप्रकुपितोमहास्रोतोऽनुप्रविश्यरोक्ष्यात्कठिनीकृत्याप्लुत्यपिण्डितोऽवस्थानंकरोतिहिदिवस्तौपार्श्वयोनाभ्यांवासशूलमुपजनयति । सवातजन्याननेकविधान्वेदनाविशेषाञ्जनयति ग्रन्थींश्चानेकविधान् । पिण्डितश्चावतिष्ठतेसपिण्डितत्वाद्गु. ल्मइत्युपचयंते ॥५॥ फिर वह कुपित हुई वायु महास्रोतोंमें अर्थात् आमाशय और पक्वाशय आदिमें प्रवेश करके अपने रूक्षतादि गुणोंसे कठोरताको प्राप्त हो चक्कर खाकर एक गोलमोल गोलेको उत्पन्न करदेतीहै वह गोला-वस्ती अथवादोनों पंसवाडे तथा नाभिमें पीडाको उत्पन्न करताहै ।तथा वातजनित और भी अनेक प्रकारके रोगोंको उत्पन्न करताहै तथा अनेक प्रकारकी ग्रंथिये गोलेकी समान वनकर रहतीहैं वह ग्रंथिये भी गुल्मनामसे ही उच्चारण कीजातीहैं ॥५॥
वातगुल्मके लक्षण । समुहुरादधातिमुहुरल्पत्वमापद्यतेअनियतवेदनाचलत्वाद्वायोः पिपीलिकासंप्रकीर्णइवतोदस्फुरणायामसङ्कोचहर्षप्रलयोदयबहुलस्तदातुरश्चसूच्येवशकुनेवचातिविद्धमात्मानमन्यतेऽपि
चदिवसान्तज्वर्यतेशुष्यतिचास्यास्यमुच्छासश्चोपरुध्यतेहृष्यन्तिरामाणिवेदनाया:प्रादुर्भावप्लीहाटोपान्त्रकूजविपाकोदाव
गङ्गमर्दमन्याशिरःशंखशूलबनरोगाश्चैनमुपद्रवन्तिकृष्णारुणपरुषत्वङ्नखनयनवदनमूत्रपुरीषश्चभवतिनिदानोक्तानिचास्यनोपशेरतेविपरीतानिचोपशेरतइतिवातगुल्मः॥६॥ वह गोला वायुकी चलगति होनेसे कभी वडा, कभी छोटा प्रतीत होताहै ।इसमें . पीडा भी कभी अधिक और कभी कम होतीहै । और चींटिओंके काटनेके समान तोद होताहै और स्फुरण एवम् फैलाव तथा संकोच और प्रकटता तथा कभी नष्ट 'प्रायसा हो जाना एवं फिर प्रकट रूपसे दीखना यह लक्षण होतेहैं । पीडा होनेके समय रोगीको सूई चुभने एवम् शूल चुभनेके समान प्रतीत होना, सायंकालमें ज्वर चढना, मुखका सुखजाना, श्वास रुकरुककर आना, रोमोंका खडा होना, पीडाका प्रगट होना,प्लीहा, अफरा, आंतोंका वोलना, अन्नका न पचना,उदावर्त,
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(४४२) चरकसंहिता-मा० टी० । अंगमर्द तथा गर्दन, शिर,कनपट्टी इनमें पीडा होना,बद निकलना आदि उपद्रवोंसे रोगीका पीडित होना एवम त्वचा, नख, नेत्र, मुख, मूत्र, मल ये सब कालरंग तथा लालरंग एवम कठोर होजाना तथा निदानम कहे हुप कारणोंसे रोगका वढना उससे विपरीत द्रव्योंके सेवनसे रोगका शान्त होना यह सव लक्षण वातजगुल्मके होतेहैं ॥६॥
वायुपित्तप्रकोपका कारण । तैरेवतुकर्षणैःकर्षितस्याम्ललवणकटुकक्षारोष्णतीक्ष्णशुष्कव्यापन्नमद्यहरितकफलाम्लानांविदाहिनाञ्चशाकमांसानामुपयोगादजीर्णाध्यशनाद्रौक्ष्यानुगतेचामाशयेवमनविरेचनमतिवेलसन्धारणवातातपौचातिसेवमानस्यपित्तंसहमारुतेनप्रकोपमापद्यते ॥७॥ पूर्वोक्त वमन, विरेचन आदि कर्षणों द्वारा कर्षित हुआ मनुष्य यदिखट्टे,नमकीन, चरपरे,खारे. उष्ण, तीक्ष्ण और शुष्क पदार्थोंको खाताहै अथवा सडेहुए मद्य तथा दूषित शाक आदि एवम् खट्टेफल,विदाहकारी पदार्थ, शाक, मांस'इनका उपयोग करताहै तथा अजाणकारी पदार्थ अध्यशन (अधिक भोजन या विषम भोजन)तथा रूक्षता आदि कारणोंसे एवम् वमन, विरेचनके अतियोगसे,मल मूत्र आदि वेगोंको रोकनेसे, पवन और धूपके अत्यन्त सेवनसे पित्त-वायुके साथ कुपित हो जाताहै ७
पित्तप्रकोपसे गुल्म। . तत्प्रकुपितंमारुतआमाशयैकदेशेसवय॑तानेववेदनाप्रकारानुपजनयतियेउक्तावातगुल्मपितंतेनविदहतिकुक्षौहृद्यरतिकण्ठेवासविदह्यमानःसधूममिवोद्भारमुद्रित्यम्लान्वितंगुल्मावकाशश्चास्यदह्यतेदूयतेधूप्यतेउष्मायतस्विद्यतिक्लिद्यतिमृदुशिथिलइवचास्पर्शासहोऽल्परामाश्चोभवतिज्वरभ्रमदवथुपिपासागलवदनतालुशोषप्रमोहविड्भेदाश्चभवन्ति। हरितहारिद्रत्वङ्नखनयनवदनमूत्रपुरीषञ्चभवतिनिदानोक्तानिचास्यनोपशेरतेविपरीतानिचास्यचोपशेरततिपित्तगुल्मः ॥८॥ उस कुपितहुए पित्तको वायु आमाशयके एकदेशमें अर्थात् ग्रहणाविभागमें प्राप्त कर वातगुल्ममें कही हुई संपूर्ण पीडाओंको प्रगट करता है। और पूर्वोक्त प्रकारसे:
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निदानस्थान-अ० ३. गुल्मको उत्पन्न करदेताहै । फिर वह पित्तगुल्म-कुक्षि, हृदय. छाती, कण्ठ, इन सबमें दाहको उत्पन्न करताहै वह गुल्म दाहयुक्त होकर धूएंकीसी तथा खटाईयुक्त डकारको उत्पन्न करताहै और गुल्म स्थानमें दाह तथा पीडा होतीहै एवम् धूआंसा . निकलता हुआ प्रतीत होताहै, पसीने आते हैं शरीरमें गीलापनसा उत्पन्न होजाता. . है । वह गीला नरम और शिथिलसा प्रतीत होता है स्पर्शको सह नहीं सकता,... थोडाथोडा रोमाञ्च होताहै एवम्,ज्वर,भ्रम,दाह,प्यास,मुख,गल,तालू इनका सूखना, मोह तथा दस्तका लगना और त्वचा, नख, नेत्र, मुख, मूत्र, पुरीष इन सबका हल्दीके समान रंग होना, पित्तकारक पदार्थोंसे बढना और उसके विपरतिोंसे शान्त होना यह पित्तगुल्मके लक्षण होते हैं ॥ ८ ॥
कफके प्रकुपित होनेका कारण। तैरेवतुकर्षणैःकर्षितस्यात्यशनास्निग्धगुरुमधुरशीताशनारिपटेक्षुक्षीरमापतिलगुडविकृतिसेवनमद्यपानाद्धरितकातिप्रणिनयादानूपोदकयाम्यमांसातिभक्षणासन्धारणादतिसुहितस्य चातिप्रगाढमुदकपानात्संक्षोभणाद्वाशरीरस्यश्लेष्मासहमारुतेनप्रकोपमापद्यते ॥९॥ . उसी प्रकार वमन, विरेचनादि कारणोंसे कर्षित हुए मनुष्यके अधिक भोजन करनेसे तथा स्निग्ध,गुरु, मधुर, शीतल पदार्थों के खानेसे, मैदा आदि पिष्ट पदार्थ, गुड, दूध, उडद, तिल, मिठाई आदि पदार्थोंके अधिक सेवनसे, गंदक तथा सडी हुई मद्यके पीनेसे, अधिक सब्जियों के खानेसे, अनूपसंचारी तथा ग्राम्यजीवोंका मांस अधिक खानेसे, मल, मूत्रादि वेगोंको रोकनेसे, प्यारे पदार्थोंको बहुत. ज्यादे खानसे, अधिक जलपानसे, शरीरके अधिक हलचल होनेसे, कफ वायुके. साथ कोपको प्राप्त होता है ॥ ९॥
प्रकुपितकफसे गुल्मकी उत्पत्ति । तंप्रकुपितंमारुतआमाशयैकदेशेसंवय॑तानेववेदनाप्रकारानुप- . जनयतियउक्तावातगुल्मे । श्लेष्मात्वस्यशीतज्वरारोचकावि--. पाकाङ्गमर्दहर्षहृद्रोगच्छदिनिहालस्यस्तैमित्यगौरवशिरोमि-- : तापानुपजनयतिअपिचगुल्मस्यस्थैर्यगौरवकाठिन्यावगाढसुघताःतथाकासश्वासप्रतिश्यायानराजयक्ष्माणञ्चातिप्रवृद्धः..त्यंत्वनखनयनवदनमूत्रपुरीषेषुउपजनयतिनिदानोक्तानि :
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(४४४) चरकसंहिता-भा० टी०।
चास्यनोपशेरतेतद्विपरीतानिचोपशेरतइतिश्लेष्मगुल्मः॥१०॥ उस कुपित हुए कफको वायु, आमाशयमें ले जाकर चक्कर देकर गोलाकार बना देतीहै और वातगुल्ममें कहेहुए पीडाके प्रकारोंको उत्पन्न करतीहै । फिर यह कफसे बना हुआ गुल्म-शीतज्वर, अरुचि, अन्नका अविपाक, अंगमर्द, रोमहर्ष, हृद्रोग, वमन, निद्रा, आलस्य, शरीरका गीलासा होना, गुरुता और शिरमें शूल इन सबको प्रगट करताहै तथा वह गुल्म-स्थिर, भारी, कठिन, गाढतायुक्त तथा सुप्तसा होता है । उस गुल्मके बढनेसे-कास, श्वास, प्रतिश्याय, राजयक्ष्मा यह उत्पन्न होते हैं एवम् त्वचा, नख, नेत्र, मुख, मूत्र, मल, ये सब सफेद वर्णके होतेहैं।
और निदानमें कहे हुए कारणोंसे रोगका बढ़ना तथा तद्विपरीत कारणोंसे शान्त होना यह सव कफजन्य गुल्मके लक्षण होते हैं ॥ १० ॥
निचयगुल्मका वर्णन । त्रिदोषहेतुलिङ्गसन्निपातातुसान्निपातिकंगुल्ममुपदिशन्तिकु
शलाः । सप्रतिषिद्धोपक्रमत्वादसाध्योनिचयगुल्मः ॥ ११ ॥ जिस गुल्ममें गुल्मदोषोंके कारण और लक्षण मिलतेहों उस गुल्मको बुद्धिमान बैद्य सन्निपातसे उत्पन्न हुआ मानते हैं । सन्निपातके गुल्ममें चिकित्साकी विरोधता "पडनेसे इसको असाध्य गुल्म जानना ॥ ११ ॥
रक्तगुल्म। शोणितगुल्मस्तुखलुस्त्रियाएवभवतिनपुरुषस्य ।
गर्भकोष्ठातैवागमनवैशेष्यात् ॥ १२ ॥ रक्तजनित गुल्म केवल स्त्रियोंकोही होताहै । पुरुषोंको नहीं होता क्योंकि गर्भ कोष्ठ और मासिक ऋतुका बहाव स्त्रियोंके ही होनसे रक्तगुल्म भी स्त्रियोंके ही होता है ॥ १२ ॥
रक्तगुल्मकी उत्पत्ति के कारण। पारतन्त्र्यादवैशारद्यात्सततमुपचारानुरोधाद्वेगानुदीर्णानुपरुन्धन्त्याआमगर्भवापिअचिरात्पतितेतथाप्यचिरप्रजातायाऋतौवावातप्रकोपनान्यासेवमानायावातप्रकोपमापद्यते ॥१३॥ स्त्रियें परतंत्र होनेसे और शारीरिक विषयमें मूर्ख होनेसे निरन्तर अपने घर अथवा संतान आदिके काममें लगी हुई रहती हैं ओर मल मूत्रादिके आयेहुए वेगोंको रोकलताह अतएव वेग आदिकोंके रोकनेसे, कच्चे गर्भके पात होजानसे अथवा प्रस्त
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निदानस्थान-अ०३.
(४४५) कालमेंही या ऋतुकालमें वात-प्रकोप कारक पदार्थके सेवनसे उस स्त्रीके शरीरमें वायु कोपको प्राप्त होजाताहै ॥ १३ ॥
सप्रकुपितोयोन्यामुखमनुप्रविश्यावमुपरुणद्धिमासिमासितदार्तवमुपरुध्यमानंकुक्षिमभिवर्द्धयति ॥ १४॥ फिर वह कुपित हुआ वायु योनिके मुखमें प्रवेश करके स्वीके मासिक ऋतुका बद कर देता है फिर महीने २ ऋतुके रजको रोकता हुआ कूरखमें वृद्धिको प्राप्त होताहै अर्थात् रक्तका गोलासा बना कर कूखमें बढताजाताहै ॥ १४ ॥
तस्याःशूलकासातीसारछर्यरोचकाविपाकाङ्गमर्दनिद्रालस्यकफप्रसेका समुपजायन्तेस्तनयोश्चस्तन्यमोष्ठयोस्तनमण्डलयोश्च काष्ण्यंग्लानिःचक्षुषोर्मूछ हल्लासोदोहदःश्वयथुःपादयोरीषचोद्गमोरोमराज्यायोन्याश्चाजननत्वमपिचयोन्यादोर्गन्ध्यमा. स्रावश्ोपजायते ॥ १५॥ केवलश्चास्यागुल्मःस्पन्दतेतामगभौगर्भिणीमित्याहुर्मूढाः ॥ १६ ॥ इसके होनेसे उस स्त्रीके-शूल, खांसी,अतिसार, वमन, अरुचि,अन्नका न पचना अंगमर्द, निद्रा, आलस्य, कफका थूकना ये उत्पन्न होतेहै तथा दोनों स्तनों में दूध उत्पन्न होजाताहै । ओष्ठ और स्तनोंके अग्रभाग काले होजातेहैं एवम् ग्लानी, नेत्रोंका निकलसाजाना, मूर्छा, अलास तथा सव गर्भकेसे लक्षण होना, पाापर किंचित् सूजन, रोमाञ्च होना, योनिका गर्भ प्रगट करनेकसे लक्षण दीखना,योनिका दुर्गंधित तथा नावित होना और वह गोला किंचित फडकताहै । उस गुल्मयुक्त स्त्रीको मूर्खलोग गर्भवती समझने लगजातेहैं।ये रक्तजगुल्मके लक्षण हैं ॥१५॥१६॥
गुल्मके पूर्वरूप। एषांतुखलुपञ्चानांगुल्मानांप्रागभिनिवृत्तरिमानिपूर्वरूपाणि । तद्यथा--अनन्नाभिलषणमरोचकाविपाकावग्निवैषम्यविदाहोभुः तस्यपाककालेचायुक्याछर्दिरुद्वारोवातमूत्रपुरीषवेगाणामप्रादुर्भावःप्रादुर्भूतानाचाप्रवृत्तिःसङ्गःईषदागमवावातशलाटोपान्त्रकूजनपरिहर्षणाभिवृत्तपुरीषताअबुभुक्षादौर्बल्यंसौहित्यस्यचासहत्वमितिगुल्मपूर्वरूपाण ॥ १७॥ इन पांच प्रकारके ही गुल्मकि प्रगट होनेसे पहिले यह पूर्वरूप होतेहैं। जैसे अन्नको
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१४४६) 'चरकसंहिता-भा० टी०। अभिलाषा न होना, अरोचक, अन्नका न पचना, अग्निकी विषमता, भोजन किये हुएका विदाही विपाक, भोजन पचनेके समय विनाही कारणसे छर्द होजाना,डकारोंका आना, अधोवायु, मूत्र, मल इनके वेगोंका न होना, आयेहुए वेगोंका यथोचित निःसर्ग न होना अथवा वेगोंका निवृत्त होजाना या किंचित् किंचित् आना, शूल, पेटमें वायुका फैलना, अफारा आंतोंका वोलना, रोमहर्ष, मलका गांठदार होना, भूख थोडी लगना, शरीर दुर्वल होजाना, पेटभरके भोजन न करसकना यह गुल्म रोगके पूर्वरूप होतेहैं ॥ १७ ॥
गुल्ममें चिकित्सा निर्देश । सर्वेष्वपिचगुल्मेषुनकश्चिद्वाताहतेसम्भवति। गुल्मस्तेषांसन्नि-. पातजमसाध्यंज्ञात्वानोपक्रमेत । एकदोषजेतुयथास्वमारम्भ · प्रणयेवसंस्त्रष्टास्तुसाधारणेनकर्मणोपचरेत् ॥ १८॥
संपूर्ण गुल्म वायुके विना नहीं होसकते अर्थात् वायु ही स्वयम् या अन्यदोर्षोंसे मिश्रित होकर उत्पन्न करताहै । इन पांच प्रकारके गुल्ममें सन्निपात जनित गुल्मवाले रोगीको असाध्य समझकर त्याग देनाचाहियो एक दोषसे उत्पन्न हुए गुल्मको अर्थात् वातजगुल्मको उसके कारण और लक्षणोंद्वारा जानकर चिकित्सा करे और अन्य तीन प्रकारके गुल्मोंमें यथोचित रीतिसे चिकित्सा करे ॥ १८ ॥
यद्वाअन्यदप्यविरुद्धमन्येत तदवचारयेद्विभज्यगुरुलाघवमुपद्रवाणांसमीक्ष्यगुरूपद्रवांस्त्वरमाण:चिकित्स्यजघन्यामितरां. स्त्वरमाणस्तुविशेषमुपलभ्यगुल्मेष्वात्ययिककर्मणिवातचिकिसितंप्रणयेत् ॥ १९॥ यदि सन्निपातज गुल्मको भी चिकित्सा योग्य समझे तो उसमें दोष और उपद्रवोंकी गुरुता और लघुता विचारकर पहिले भारी उपद्रवोंको शीघ्र जीत लेवे फिर मध्यम उपद्रवोंको शान्त करे तदनन्तर बाकीके अंशोंको छांटते हुए आधिक समय व्यतीत होगा ऐसा विचारकर वायुको चिकित्सा करे क्योंकि भारी उपद्रवोंके नष्ट होनेपर केवल वातमात्रकी चिकित्सा करनेते रोगीको परमलाभ पहुंच सकता है१९
स्नेहस्वेदौवातहरौस्नेहोपसहितश्चमृदुविरेचनंबस्तीनम्ललवण-मधुरांश्चरसान्युक्तितोऽवचारयेत्मारुतापशान्तस्वल्पनापिप्र
यत्नेनशक्यमन्योऽपिदोषोनियन्तुंगुल्मोप्वति ॥२०॥ . • स्नेहन करना, स्वेदन करना, एवम् स्नेहयुक्त मृदु विरेचन करना तथा अम्लल
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- निदानस्थान- अ० ४.
.. (४४७) चण और मधुर रसयुक्त युक्तिपूर्वक वस्तिकर्म करना इनसे गुल्मरोगमें वायुकी शान्ति होती है । इस प्रकार वायुके शान्त होनेपर अथवा अल्प रहजानेपर यलपू बैंक अन्य दोषों को भी शान्त करनेका प्रयत्न करनाचाहिये । यह सामान्परूप से गुल्मोंकी चिकित्साका क्रम है ॥ २० ॥
तत्र श्लोकौ ।
+
गुल्मिनामनिलशान्तिरुपायैः सर्वशोविधिवदाचारितव्या । मातेह्यव जितेऽन्यमुदीर्णदोषमल्पमपिकर्मनिहन्यात् ॥ २१ ॥ उसीको यहां कहते हैं के गुल्मरोग में सब तरहसे विधिपूर्वक उपायों द्वारा वायुको शान्त करे । उस वायुके शान्त होनेपर बाकी रहे दोष साधारण क्रियाद्वारा भी शान्त हो जाते हैं ॥ २१ ॥
संख्यानिमित्तरूपाणिपूर्वरूपमथापिच ।
दृष्टनिदाने गुल्मानामुपदेशश्च कर्मणाम् ॥ २२ ॥
इति अग्निवेशक तन्त्रे चरकप्रतिसंस्कृते गुल्मनिदानं नाम तृतीयोऽध्यायः ॥ ३ ॥
इस गुल्मनिदान नामक अध्यायमें गुल्मोंकी संख्या, निमित्त, पूर्वरूप, रूप, और गुल्म रोग चिकित्सा कर्मोंका उपदेश किया गया है ॥ २२ ॥
इति श्रीमहर्षि चरक० नि० स्था० पं० रामप्रसादुद्वैद्य • भाषाटीकायां गुल्मनिदानं नाम. तृतीयोध्यायः ॥ ३ ॥
चतुर्थोऽध्यायः ।
407
प्रमेहनिदानम् ।
अथातः प्रमेहनिदानं व्याख्यास्यामइतिहस्माहभगवानात्रेयः । अब हम प्रमेहके निदानकी व्याख्या करते हैं । ऐसा भगवान् आत्रेयजी कथन -करने लगे ।
- प्रमेोंकी संख्या ।
त्रिदोषको पनिमित्ताविंशतिः प्रमेहविकाराः चापरेऽपरिसंख्येयाः । · तत्रयथात्रिदोषप्रकोपः प्रमेहानभिनिवर्त्तयतितथानुव्याख्यास्यामः ॥ १ ॥
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: (४४८)
चरकसंहिता-भान्टी। · वात,पित्त,कफ इन तीनों दोषोंके निमित्तसे वीस प्रकारके प्रमेह उत्पन्न होतेहैं। यद्यपि इन बीस प्रकारोंके सिवाय प्रमेहोंके अन्य प्रकार भी हैं परन्तु वह गणनामें नहीं आसकते । अतएव प्रमेहोंकी बीसप्रकारकी ही संख्या है सो जिस प्रकार तीनों दोष कुपित होकर प्रमेहोंको उत्पन्न करतेहैं उनका वर्णन करतेहैं ॥१॥ . इहखलुनिदानदोषदृष्यविशेषेभ्योविकाराणांविघातभावाभावप्रतिविशेषाभवन्ति ॥ २॥ इस स्थानमें हेतु, दोष और दूष्यके भेदसे रोगोंका विघात, भाव और अभावकी भेदता होतीहै ॥२॥
यदा तेत्रयोनिदानादिविशेषाःपरस्परंनानुबध्नन्तिअयथाप्रकर्षादबलीयांसोवानुवघ्नन्तिनतदाविकाराभिनिवृत्तिः । चि
राद्वाप्यभिनिवर्तन्तेतनवोवाभवन्यथवाप्ययथोक्तसलिङ्गाविपर्ययेणविपरीताइतिसर्वविकाराविघातभावाभावप्रतिविशे· पाभिनिवृत्तिहेतुरुक्तः॥३॥
जब वातादि तीनों दोषोंके हेतु परस्पर अर्थात् आपसमें एकसे दूसरा प्रतिषेध कारक होनेके कारण रोगोंको उत्पन्न नहीं होनेदेता उसको रोगोंका विधात कहते हैं। जैसे दुर्बलभावंसे दोषोंका परस्पर अनुबंध होनेसे रोगोंकी उत्पत्ति नहीं होती इसको रोगोंका विधात कहतेहैं । अथवा रोग विलम्बसे उत्पन्न हो या बहुत थोडा उत्पन्न हो अथवा जैसा होनाचाहिये था वैसे लक्षणयुक्त न हो। इस प्रकार रोगोंको विघात,भाव, अभाव, प्रतिनिर्वृत्तिके हेतुओंको कहाहै तात्पर्य यह हुआ कि निदान, दोष, दूष्य विशेषों करके जो विकारोंका इकट्ठा होनाहै उसको विधात कहतेहैं । अथवा वातकारक हेतुसे. विपरीत गुणकारक हेतुके मिलजानेसे जो रोगका उत्पन्न न होनाहै उसको विघात जानना चाहिये । और दो दोषोंका मिल करके अथवा दो हेतुओंका मिल करके रोगका होना भाव कहा जाताहै । एकदम रोगोंका हेतु आदि न होनेसे रोगका उत्पन्न न होना अभाव कहा जाताहै । हेतु आदिकोंसे रोगका प्रगट होजाना निवृति कहा जाताहै इन सबके कारणोंको संक्षेपसे कहाहै । . अथवा निदान,दोष दूष्य विशेषों करके विकारोंका विघात,भाव अंभावं, प्रतिविशेष ' आदिसे रोगोंके विभाग कियेगयेहैं॥३॥ . . . .
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निदानस्थान-अ० ४. (४४९)
: प्रमेहनिदान भेद। . .. तत्रइमेनिदानादिविशेषाःश्लेष्मनिमित्तानांप्रमेह भिनिवृत्तिकराः। तद्यथा-- हायनकयवचीनकोदालकनैषधोत्कटमुकुन्दकमहाव्रीहिप्रमोदकसुगन्धकानांनवान्नानामतिवेलमतिप्रमाणेनोपयोगः। तथा : सर्पिष्मतांनवहरेणुमाषसूपानांग्राम्यानूपौदकानांमांसानांशाकतिलपललपिष्टान्नपायसकसरविलेपीक्षुविकाराणांक्षीरमन्दकदधिद्रवमधुरतरुणप्रायाणानुपयोगोमजाव्यायामवर्जनस्वनशयनासनप्रसंगोयश्चकश्चिद्विधिरन्योऽपिश्लेष्ममेदोमूत्रसंजननःसर्वःसनिदानविशेषः ॥४॥
सो यह निदानादि विशेष कफनिमित्तक प्रमेहोंको शीघ्र उत्पन्न करनेवाले होतेहैं जैसे जौ, शालिधान्य, चीना,कोदों, नैषध, मुकुन्दक, महाव्रीहि, प्रमोदक,सुगंधकः आदि धान्योंकी जातियोंका निरन्तर अधिक सेवन करना और घृतके साथं नवीन मटर और उडदकी दाल अधिक सेवन करना, ग्रामसंचारी, अनूपसंचारी एवम जलज जीवोंका मांस तथा शाक,तिल,पिष्टक,मैदा आदिगरिष्ठ पदार्थ,खीर,खिचडी,. विलेपी, शक्कर, गुड आदि ईखके विकार, दूध, मंदक, दही एवम् पतले और मीठे. पदार्थ, नवीन पदार्थ इन सबका अधिक सेवन करना तथा देहको सुकुमार बना रखना, कसरत न करना, बहुत सोना, सुन्दर नर्म शय्या और आसन आदिका. उपयोग करना इनके सिवाय अन्य भी जो आहार औरविहार कफ मेद तथा मूत्रके. वढानेवाले हैं वह सव कफजनित प्रमेहोंके निदान (कारण) होतेहे ॥ ४॥ यह कारण कहेगये)
दोषदूष्यका वर्णन । बहुद्रवश्लेष्मादोषेविशेषःबहुबद्धंमेदोमांसञ्चशरीरक्लेदःशुक्र: • शोणितञ्चवसामज्जालसाकारसश्चौजःसंख्याताइतिदृष्यविशे · षाः॥५॥
अब दोष और दूष्योंको कहतेहैं । कफजनित प्रमेहोंमें बहुतसे पतले द्रावयुक्त कफ जो है उसको दोष कहतेहैं । बहुत और बंधीहुई मेद, मांस, शरीरका क्लेद,. • शुक्र, रक्त, चर्बी, मज्जा,लसीका रंस और ओज यह सब प्रमेहरोगमें दुष्यं होतेहैं। 'कफदोषको उपरोक्त कारणोंका सेवन करना कुपित करताहै इसलिये उन कारणों
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(४५०)
चरकसंहिता - भा० टी० ।
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को कफके कोपका निदान अर्थात् हेतु माना गया है । अपने कारणोंसे बढाहुआ कफ मेद आदि धातुओंको दूषित करता है इसलिये उसको दोष कहते हैं । उस दोषद्वारा द आदि धातुएं दूषित होती हैं इसलिये उनको हृष्य कहा जाता है ॥ ५ ॥ प्रकुपित कफ के कर्म । त्रयाणामेषां निदानादिविशेषाणांसन्निपातेक्षिप्रश्लेष्माप्रकोपमापद्यते प्रागतिभूयस्त्वात् । सप्रकुपितः क्षिप्रमेवशरीरे विसृप्तिं लभते शरीरशैथिल्यात्सविसर्पनशरीरे मेदसैवादितामिश्रीभावं गच्छति । मेदसश्चैववहुबद्धत्वान्मेदसश्चगुणानां गुणैः समानगुणभूयिष्ठत्वात्स मेदसा मिश्रीभावंग-: च्छन्दूषयत्येतद्विकृतत्वात्सविकृतो दुष्टेनमेदसोपहितः शरीरक्लेदमांसाभ्यांसंसर्गगच्छति । क्लेदमांसयोरतिप्रमाणाभिवृद्धित्वात्समां से मांसप्रदोषात्पूतिमांसपिडकाः शराविकाकच्छपिकाद्याः संजनयतिअपकृतिभूतत्वाच्छरी रक्लेदंपुन र्दूषयन्मूत्रत्वेनपरिणमयति। मूत्रवहाणांस्त्रोतसांर्वक्षणवस्तिप्रभवाणांमेदःक्लेदोपहितानि गुरूणिमुखान्यासाद्यप्रतिरुध्यते । ततःस्थैय्यं साध्यतांवाजनयतिप्रकृतिविकृतिभूतत्वात् ॥ ६ ॥ शररिक्लेदस्तुश्लेष्म मे दोमिश्रः प्रविशन्मूत्राशयेमूत्रत्वमापद्यमानः श्लैष्मि कैरेभिर्दशभिर्गुणैरुपसृज्य तेवैषम्यहानिवृद्धियुक्तैः । तद्यथाश्वेतशीत मूर्त्तपिच्छिला च्छस्निग्धगुरुमधुरसान्द्रप्रसाद गन्धैस्तत्रयेन गुणेनैकेनानेकेनवाभूयस्तरमुपसृज्यते तत्समाख्यंगौ- . नामविशेषंप्राप्नोति ॥ ७ ॥
इन निदान और दोष तथा दूष्यों के संयोग से कफ कुपित होता है क्योंकि वह प्रथम ही अधिकतायुक्त होता है । वह कुपित हुआ कफ सम्पूर्ण शरीर में झट फैल जाता है। शरीरकी शिथिलतासे इधर उधर फिरता हुआ वही कफ पहिले मेदमें मिलजाता है फिर मेदके बहुत और बध्य होनेके कारण तथा मेदके समान गुणवाला होने से वह कफ मेद में मिलकर मेदको बिगाड देता है । फिर विकृत हुए मेदकेसंयोगसे शरीर के क्लेद और मांसमें मिलजाता है। उस क्लेद और मांसके अत्यन्त
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रका छेद नाम होनेसे साध्य कर उन छिद्रों के मुख तथा वैक्षण और बस मेद
निदानस्थान-०१. पढजानेसे मांस में--मांसके दोषसे दुर्गंधित मांसको शराविका कच्छपिका आदि पिडका उत्पन्न होजाती हैं । फिर वह दूषित कफ मेदादिकोंसे मिलाहुआ छेदको दूषित करके प्रकृतिस्थमूत्रको बिगाड़ देता है । तब मूत्रवाही स्रोतोंके मुख मेद और क्लेदके द्वारा भारी कर देता है और रोक देता है । तथा वंक्षण और वस्तीके मुखौको भी भारी कर देताहै । फिर उन छिद्रोंके मुख दृढ होजाते हैं अथवा किसी प्रकार प्रकृतिस्थ होनेसे साध्य भी होजातेहैं । कफ और मेदसे मिश्रित हुआ शरीरका क्लेद-मूत्राशयमें प्राप्त होकर मूत्ररूप होजाताहै फिर वह कफजनित दश प्रकारके विषमता न्यूनता एवम् अधिकता युक्त गुणों को उत्पन्न करताहै । जैसेश्वेतता, शीतलता, मूर्तता, पिच्छलता अच्छता, स्निग्धता, गुरुता, मधुरता, सांद्रता एवम् गंधता इन दश गुणोंको उत्पन्न करताहै। इनमें यदि वह क्लेद एक गुणयुक्त हो तो सम कहा जाताहै और बहुतसे गुणयुक्त होनेसे गौण कहाजाता है ॥६॥७॥
प्रमेहोंके नाम। तेतुखलुइमेदशप्रमेहानामविशेषणभवन्ति तथाउदकमेहश्चेक्षुमेहश्चसान्द्रमेहश्चसान्द्रप्रसादमेहश्चशुक्कुमेहश्चशुक्रमेहश्च शीतमहश्चसिकतामेहश्चशनैर्मेहश्चलालामेहश्चति ॥८॥ फिर उन दश गुणयुक्त होनेसे दश प्रकारके प्रमेहोंको उत्पन्न करताहै । वह दश प्रमेह यह है-उदकमेह, इक्षुमेह, सान्द्रमेह, सान्द्रप्रसादमेह, शुक्लमेह, शुक्रमेह, शीतमेह, सिकतामेह, शनैर्मेह और लालामेह ॥ ८॥
कफप्रमेहका साध्यत्व । तेदशप्रमेहाःसाध्या:समानगुणमेदःस्थानत्वात्कफस्यप्राधान्यात्समानक्रियत्वाच्च ॥१॥ वह दश प्रकारके प्रमेह साध्य होतेहैं क्योंकि मेदके समान गुण होनेसे, मेदसे कफके प्रधान होनेसे तथा कफ और मेदकी समान चिकित्सा होनेसे साध्य होते, अर्थात् जो चिकित्सा कफनाशक की जायगी वह मेदके विकारोंको भी शान्त करती है । इसलिये चिकित्सा विरोध न पडनेसे कफजनित प्रमेह साध्य होतेहै९॥
उदकमेहका लक्षण ।
तत्र श्लोकाः। .. श्लेष्मप्रमेहविज्ञानार्थाः । अच्छंबहुसितंशीतनिर्गन्धगुदकोपमम् । श्लेष्मकोपान्नरोमूत्रमुदमहीप्रमेहति ॥१०॥ उन कफके प्रमेहोंके विज्ञानके लिये यहांपर श्लोक कहेजातेहैं।
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चरकसंहिता-भा० टी०। उदकमेही मनुष्य-कफके कोपसे स्वच्छ,बहुत, सफेद, शीतल, निर्गंध, जलके समान मूत्रको मूतता है ॥ १० ॥
इक्षुमेहके लक्षण । ... . अत्यर्थमधुरशीतमीषत्पिच्छिलमाविलम् ।
काण्डेक्षुरससङ्काशंश्लेष्मकोपात्प्रमेहति ॥ ११ ॥ . . . इक्षुमेही मनुष्य-अधिक, मधुर, शीतल, किंचित् पिच्छल,गन्धला, काण्डेक्षुके रसके समान मूतता है ॥ ११॥
सान्द्रमेहके लक्षण । ... यस्यपर्युषितंमूत्रसान्द्रीभवति भाजने। ..
पुरुषंकफकोपेनतमाहुःसांद्रमहिणम् ॥ १२॥ . . सान्द्रमेही मनुष्यका मूत्र-देरतक रक्खा रहनेसे गाढा और आन्तयुक्तसा होजाताहै इसीलिये इस कफजनित प्रमेहको सान्द्रमेह कहते हैं ॥ १२ ॥
सान्द्रप्रसादमेहके लक्षण । यस्यसंहन्यतमूत्रकिञ्चित्किञ्चित्प्रसीदति।
सान्द्रप्रसादमेहीतितमाहुः श्लेष्मकोपतः ॥ १३॥ जिस मनुष्यका मूत्र-देरतक रक्खा रहनेसे नीचेसे जमजाय और ऊपरसे हिलानेसे कुछ कुछ फैलावयुक्तसा होजाय उसको सान्द्रप्रसादमेही कहतेहैं ॥ १३ ॥
शुक्लमेहके लक्षण । शुक्लंपिष्टनि मूत्रमभीक्ष्णयाप्रमेहति। .
पुरुषकफकोपेनतमाहुःशुक्लमेहिनम् ॥ १४ ॥ जो मनुष्य-श्वेत और पिछीके धोवनके समान मूत्र करता है उसको शुक्लमेही कहतेहैं ॥ १४ ॥ .. .
शुक्रमेहके लक्षण। शुक्राभंशुक्रमिभंवामुहुमेंहतियोनरः।
शुक्रमहिणमेवाहुःपुरुषश्लेष्मकोपतः॥१५॥ जिस मनुष्यका मूत्र-शुक्रयुक्त अथवा शुक्रके समान हो तथा वह वारंवार थोडा थोडा मूतता हो उसको कफंजनित शुक्रमेह कहतेहैं ।। १५ ॥
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। निदानस्थान-अ०.४.० (४५३).
शीतमेहके लक्षण.. अत्यर्थशीतमधुरंमूत्रंक्षरतियोभृशम् ।
शीतमेहिनमाहुस्तंपुरुषश्लेष्मकोपतः ॥ १६ ॥ जिस मनुष्यका मूत्र-अधिक, शीतल एवम् मधुर उतरता है उसको कर्फजनित शीतमेही कहतेहैं ॥ १६ ॥
सिकतामेहके लक्षण । मून्मित्रगतान्दोषानणूनमेहतियोनरः।
सिकतामेहिनंविद्यान्नरतंश्लेष्मकोपतः॥ १७ ॥ जिस मनुष्यका मूत्र-कठिन स्पर्शवाले रेतकेसे कणकोयुक्त हो उसको सिकता. मेही कहतेहैं ॥ १७ ॥
शनैर्मेहके लक्षण । मन्दमन्दमवेगन्तुकच्छंयोमूत्रयेच्छनैः।
शनैर्मेहिनमाहुस्तपुरुषंश्लेष्मकोपतः ॥१८॥ जिस मनुष्यके कफ कोपके कारण वेगरहित थोडा २. एवम्, शनैः शनैः मूत्र आता हो उसको शनैर्मही कहते हैं ॥ १८॥
. आलालमेहके लक्षण । '. तन्तुबद्धमिवालालंपिच्छिलंयःप्रमेहति। आलालमहिनंविद्यान्तं.
नरंश्लेष्मकोपतः॥इत्येते दश प्रमेहाः श्लेष्मप्रकोपनिमित्ता - व्याख्याताः ॥ १९ ॥ जिस मनुष्यको-तंतुओंके समान, पिच्छिल, लारयुक्त मूत्र आता हो उसको लालामेही कहतेहैं । इस प्रकार कफकोपसे उत्पन्न हुए दश प्रकारके प्रमेहोंका कथन कियागयाहै । इति कफजनित दशमेह ॥ १९ ॥
पित्तप्रमेहका लक्षण । उष्णाम्ललवणक्षारकटुकाजीर्णभोजनोपसविनस्तथातितीक्ष्णातपाग्निसन्तापश्रमक्रोधविषमाहारोपसेविनश्चतथात्मकशरीरस्यैवक्षिप्रंपित्तप्रकोपमापद्यते ॥ २०॥
अव पित्तके प्रमेहोंके कारणोंको कहतेहैं । गर्म, खट्टे, नमकीन चरपरे एवम् अजीर्णकर्ता पदाथोंके सेवनसे तथा अजीर्णमें भोजनके करनेसे एवम् अत्यन्त
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(४५४) चरकसंहिता-भा० टी०॥ तीक्ष्ण, धूप, अग्नि, संताप, श्रम, क्रोध और विषम आहारके सेवनसें पित्तप्रकृति मनुष्यके शरीरमें पित्तका शीघ्र प्रकोप होजाताहै ॥ २० ॥ तत्प्रकुपितंतयैवानुपूर्व्याप्रमेहानिमान्षदाक्षिप्रमभिनिर्वर्त्तयति॥२१॥
वह कुपित हुआ पित्त पूर्वोक्त क्रमसे मेदादिकोंको दूषित करता हुआ छाप्रकारके प्रमेहोंको उत्पन्न करताहै ॥ २१॥
छः प्रमेहोंके नाम। तेषामपिचपित्तगुणविशेषेणनामविशेषाः । तद्यथा-क्षारप्रमेहश्चकालमेहश्चनीलमेहश्चलोहितमेहश्चमञ्जिष्ठामेहश्चहरिद्रामेहश्चेतितेषड्भिरेवक्षाराम्ललवणकटुकविस्रोष्णैःपित्तगुणैः पूर्वव
समन्विताः ।सर्वएवतेयाप्या:विषमगुणमेदःस्थानत्वाद्विरुद्धो- : पक्रमत्वाच्चेति ॥२२॥ उन छ ओंके पित्तगुणके भेदसे छःप्रकारके नाम होतेहैं । जैसे-क्षारमेह, कालमेह, नीलमेह, लोहितमेह, मंजिष्ठामेह, हरिद्रामेह, यह छाप्रकारके ही प्रमेह-क्षार, अम्ल, लवण, कटु, विस्त्र, उष्ण इन पित्तके गुणोंसे युक्त होतेहैं । यह पित्तके छःप्रकारके प्रमेह-मेदके गुणोंसे विरुद्ध क्रिया द्वारा शान्त होनेवाले होनेसे याप्य साध्य होते, अर्थात् इन पित्तजनित विकारोंको शान्त करनेवाली क्रिया मेदके विकारोंकों शमन करनेवाली नहीं होसकती इसलिये चिकित्सामें विषमता पडनेसे इन प्रमेहोंको याप्य साध्य कहाहै ॥ २२ ॥
क्षारमेहीके लक्षण ।
तत्र श्लोकाः। पित्तप्रमेहविज्ञानार्थाः। गन्धवर्णरसस्पर्शर्यथाक्षारस्तथात्मकम् । पित्तकोपान्नरोमूत्रंक्षारमेहीप्रमेहति ॥ २३॥ उन पित्तके प्रमेहोंके विज्ञानके लिये यहांपर श्लोक कहतेहैं । क्षारप्रमेहमेंपित्तके कोपसे गंध, वर्ण, रस और स्पर्श यह सब क्षारके समान गुणोंसे युक्त मूत्र होताहै ॥ २३ ॥
कालमेहीके लक्षण । मसीवर्णमजलंयोमूत्रमुष्णंप्रमेहति । । पित्तस्यपरिकोपेनतंविद्यात्कालमेहिनम् ॥ २४॥
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निदानस्थान - अ० ४.
( ४५५
- पित्तके कोपसे स्याहीके समान काला और गर्म मूत्र जिसको नित्य आता है उसको कालमेही कहते हैं ॥ २४ ॥
नीलमहीके लक्षण |
चाषपक्षनिभं मूत्रमम्लं मे हतियोनरः । पित्तस्यपरिकोपेनतविद्यान्नील मेहिनम् ॥ २५ ॥
जिसका नीलकंठके पंख के समान - नीलवर्णका मूत्र थोडा थोडा आता है उसको नीलमही कहतेहैं ॥ २५ ॥
रक्तमेहीके लक्षण ।
विस्रंलवणमुष्णञ्चरक्तंमेहतियोनरः ।
पित्तस्यपरिको पेनतविद्याद्रक्तमेहिनम् ॥ २६ ॥
रक्तमेही मनुष्यको - आमकीसी गंधयुक्त, नमकीन, गर्भं तथा रक्तके समान सूत्र. आता है - उसको रक्तमेही कहते हैं ॥ २६ ॥
मञ्जिष्ठमेह के लक्षण |
मजिष्ठा रूपियोऽजस्रं भृशविस्रंप्रमेहति ।
पित्तस्यपरिकोपात्तंविद्यान्माञ्जिष्ठमेहिनम् ॥ २७ ॥
जिस मनुष्यको मंजीठके समान बहुत गंधवाला नित्य मूत्र आता है उसको मंजि ष्ठामेही कहते हैं ॥ २७ ॥
हरिद्राहोंके लक्षण | हरिद्रोदकसङ्काशं कटुकंयः प्रमेहति । पित्तस्यपरिकोपात्तुविद्यादारिद्रमेहिनम् ॥ इतिषट्प्रमेहाः पित्तप्रकोपनिमित्ताव्या
ख्याताः ॥ २८ ॥
जिस मनुष्यको हल्दी के समान वर्णवाला और कटुमूत्र आता है उसको हरिद्रामेही कहते हैं । इस प्रकार पित्तके कोपसे उत्पन्न हुए छः प्रमेहिओं का कथन किया गया है । इति पित्तजनितषट्प्रमेहाः ॥ २८ ॥
वातप्रमेह होने का कारणकटुककषायतिक्तरूक्षलघुशीतव्यवायव्यायामवमनविरेचनास्थापन शिरोविरेचनातियोगसन्धारणानशनाभिघातात पोद्वेगशोकशोणिताभिषेकजागरणविषमशरीरन्यासानभ्युपसेवमा
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चरकसंहिता-भा. टीका . नस्यतथात्मकशरीरस्यैवक्षिप्रंवायुःप्रकोपमापद्यते । सप्रकुपित
स्तथात्मकेशरीरेविसर्पन्यदावसामादायमूत्रवहानिस्रोतांसिप्र.
तिपद्यतेतदावसामेहमभिनिर्वर्त्तयति ॥ २९ ॥ . अब वातके प्रमेहोंका कथन करतेहैं। कडुए, कसैले, चरपरे, रूखे, हल्के, शीतल "पदार्थोके सेवनसे, मैथुन और अधिक परिश्रमके करनेसे, वमन, विरेचन, आस्थापन, शिविरेचन इनके अति योगसे, मलमूत्रादि वेगोंको रोकनेसे, लंघन करनेसे, चोट लगनेसे,तप,उद्वेग और शोकके होनेसे,रक्तके निकलनसे,अधिक जागनेसे,शरीरको विषमावस्थामें रखनेसे तथा अन्य वातकोपकारक कारणोंसे वातप्रधान मनुष्यके शरीरमें शीघ्र वायु कोपको प्राप्त होताहै । वह कुपित हुआ वातात्मक शरीरमें इधर उधर भ्रमण करताहुआ वसाधातु (चर्वी.) से मिलकर मूत्रवाहिनी स्रोतोंमें प्रवेशकर वसामेहको उत्पन्न करताहै ॥ २९ ॥
मजामेहका कारण। यदापुनर्मज्जानमत्रबस्तावाकतितदामजामेहमाभानिर्वर्त्तयति ।॥३०॥ फिर वह जव मज्जाको आकर्षण करताहुआ मूत्रवस्तिमें प्राप्त होवाहै तो मज्जा. मेहको उत्पन्न करताहै ॥ ३०॥
हस्तिमेहका कारण। यदालसीकांमूत्राशयेभिवहन्मत्रमनुवन्धंश्च्योतयतिलसीकातिबहुत्वाद्विक्षेपणाचवायोःखल्वस्यातिमूत्रप्रवृत्तिसझंकरोति,
तदा समत्तइवगजाक्षरत्यजत्रंमूत्रमवेगंतंहस्तिमहिनमाचक्षते ३१ • जब वह (कुपितवायु) लसीकामें मिलकर मूत्राशयमें प्रवेश करताहै तब लसी. काकी अधिकता होनेसे और वायुका विक्षेपण होनेसे लसीकायुक्त मूत्रकी अधिक प्रवृत्ति होतीहै । फिर वह मनुष्य मत्तहस्तीके समान निरन्तर विना वेग मूत्रको मृतता रहताहै उसको हस्तिमेह कहतेहैं ॥ ३१ ॥
. ..मधुमेहका कारण। ओजः पुनर्मधुरस्वभावंतद्रक्ष्याद्वायुःकषायत्वेनाभिसंसृज्य मत्राशयेऽभिवहतितदामधुमहिनं करोति ॥३२॥ ... .
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निदानस्थान - अ० ४.
(४५७१
ओजधातु स्वभावसे मधुर है । उसको जव वायु रूक्षतांसे तथा कषाय स्वभाबसे आकर्षण करलती है और मूत्राशयमें लेजाकर मधुरस्वभाववाले ओजसे प्रमेहको उत्पन्न करता है उसको मधुमेह कहते हैं ॥ ३२ ॥
वातप्रमेहोंको असाध्यत्व । तानिमांश्चतुरः प्रमेहान्वातजानसाध्यानाचक्षते । महात्ययिकाद्विप्रतिषिद्धोपक्रमत्वात् तेषामपि चपर्ववदगुणाविशेषेणनामविशेषाः ॥ ३३ ॥
इन वातसे उत्पन्न हुए चारों प्रमेहोंको असाध्य कहते हैं क्योंकि यह प्रमेह चिकिसामें विरोध पडनेसे और अत्यन्त सांघातिक होनेसे असाध्य होते हैं । और इनमें चसा और मज्जा आदि गुणयुक्त मूत्रके आनेसे उन्हीके समान नाम रक्खेगयेहैं ३३ ॥
तद्यथा ।
वसामेहश्चमज्जमेहश्चहस्ति मेहश्च मधुमेहश्चेति ॥ ३४ ॥
जैसे वसामेह, मज्जामेह, हस्तिमेह और मधुमेह यह चार प्रकारके नाम हैं ॥ ३४॥ तत्रश्लोकाः । वसामेहीके लक्षण । वातप्रमेहविशेषविज्ञानार्थाः । वसामिश्रंवसाभञ्चमूत्रमेहति योनरः । वसामेहिनमाहुस्तमसाध्यंवात कोपतः ॥ ३५ ॥
"
उन वातजनित प्रमेोंके विशेष ज्ञानके लिये यहांपर श्लोक कहे जाते हैं। जिस मनु ष्यको वसा (चर्बी) युक्त तथा वसाके वर्णवाला मूत्र आता है उसको वातके कोपसे उत्पन्न हुआ वसामेह कहते हैं । यह वसामेह असाध्य होता है ॥ ३५ ॥
मज्जाही के लक्षण |
: मज्जानंसह मूत्रेणमुहुर्मे हतियोनरः । मज्जा मेहिनमाहुस्तमसाध्यंवातकोपतः ॥ ३६ ॥
जो मनुष्य मज्जायुक्त मूत्रको वारंवार मूतता है उसको मज्जामेही कहते हैं । यह चातकोपजनित मज्जामेह भी असाध्य होता है ॥ ३६ ॥
हस्तिमेहीका लक्षण |
हस्तीमत्तइवाजस्रंमूत्रंक्षरतियोभृशम् । हस्तिमेहिनमाहुस्तमसाध्यंवातकोपतः ॥ ३७॥
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(४५८) चरकसंहिता-भा० टी०।
जो मनुष्य मत्तहस्तीके समान निरन्तर बहुत मूता करताह उसको हस्तिमेहीं. कहतेहैं । यह वातजनित हस्तिमेह भी असाध्य होताहै ॥ ३७॥
मधुमहाके लक्षण । कषायमधुरंपाण्डंरक्षमेहतियोनरः । वातकोपादसाध्यंतंप्रतीयान्मधुमेहिनम् ॥ ३८॥ जो मनुष्य कषाय,मधुर, रूक्ष एवम् पाण्डुवर्णका मूत्र मूतता है उसको वातके कोपसे उत्पन्न हुआ असाध्य मधुमेह जानना ॥ ३८॥
इतिचत्वारःप्रमेहावातप्रकोपनिमित्ताः । तेएवंत्रिदोषप्रकोपनिमित्ताविंशतिप्रमेहाव्याख्याताः ॥ ३९॥ इस प्रकार वायुके कोपसे उत्पन्न हुए चार प्रकारके प्रमेहोंका वर्णन कियाहै।' वह सब मिलकर तीनों दोषोंके कोपसे उत्पन्न हुए बीस प्रकारके प्रमेहोंका कथन किया है ॥ ३९॥
___त्रिदोषजन्य प्रमेहके पूर्वरूप । त्रयस्तुदोषाःप्रकुपिताम्प्रमेहानभिनिवर्तयिष्यन्तइमानिपर्वरूपाणिदर्शयन्ति ।
तद्यथा । जटिलीभावकेशेषुमाधुयमास्यकरपादयोःसुप्ततांदाहमुखतालु: कण्ठशोषंपिपासामालस्यंमलञ्चकायेकायच्छिद्रेषपदहेंपरिदाहं सुप्ततांचाङ्गेषुषट्पदपिपीलिकाभिःशरीरमूत्राभिसरणंमूत्रे । ' चमूत्रदोषान्वितंशरीरगन्धंनिद्रांतन्द्राञ्चसर्वकालमिति ॥४०॥ यह तीन वातादि दोष ही कुपित होकर प्रमेहोंको उत्पन्न करतेहुए इन पूर्वरूपोंको करतेहैं । उन रूपोंको दिखातेहैं । जैसे बालोंकी जटे बन्धना, मुखमें मीठापन, हाथपैरोंका सोना, दाह, मुख, तालु और कण्ठका सूखना, प्यास, आल. स्य, शरीरमें मैलका बहुत वढना, रोममार्गोका बन्द होना, शरीरमें दाह होना,
अंगोका सोजाना, मक्खिये और चीटियोंका शरीरपर बहुत आना तथा मूत्रम · लगना, शरीरसे मूत्रकीसी गंध आना, सब कालमें निद्रा तथा तन्द्राकी अधिकता रहना यह सब प्रमेहके पूर्वरूप होते हैं ॥ ४० ॥
प्रमेहके उपद्रव । उपद्रवास्तुखलुप्रमेहिणांतृष्णातीसारज्वरदाहदौर्बल्यारोच
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निदानस्थान - अ० ४.
(४५९)
पूतिमांसपिडकाअलजीविद्रध्यादयश्च तत्प्रसङ्गाद्
काविपाका: भवन्ति ॥ ४१ ॥
.
अब प्रमेहके उपद्रवोंको कथन करते हैं । प्यास, अतिसार, ज्वर, दाह, दुर्बलता, अरुचि, अन्नका न पचना, मांसमेंसे दुर्गंध आना, शरीरमें पिडका होना तथा अलजी, विद्रधी आदिक प्रमेह पिडकाओंका होना यह प्रमेहके उपद्रव होते हैं ४१ ॥ साध्यप्रमेह की चिकित्साविधि ।
तत्रसाध्यानप्रमेहान संशोधनोपशमनैर्यथार्हमुपपादयेश्चिकित्सेच्चेति ॥ ४२ ॥
इनमें साध्य प्रमेहों में संशोधन और उपशमन द्रव्योंद्वारा यथोचित रीतिपर चिकित्सा करे ॥ ४२ ॥
तत्र श्लोकाः ।
गृध्रमभ्यवहार्येषुस्तानचंक्रमणाद्विषम् ।
प्रमेहः क्षिप्रमभ्येतिनी चद्रुममिवाण्डजः ॥ ४३ ॥
यहां कहते हैं कि जिस प्रकार साधारण वृक्षोंपर उडता हुआ पक्षी विना हीं प्रयास से झट आन बैठता है उसी प्रकार जो मनुष्य नित्य प्रति आहारके लोभमेंफंसे रहते हैं और नित्य खान तथा भ्रमण आदि नहीं करते उनके शरीर में प्रमेहभी झट अधिकार जमा बैठता है ॥ ४३ ॥
मन्दोत्साहमतिस्थूलमतिस्निग्धंमहाशनम् ।
मृत्युः प्रमेहरूपेणक्षिप्रमादायगच्छति ॥ ४४ ॥
आलस्ययुक्त तथा अत्यन्त स्थूल और अधिकस्निग्ध शरीरवाले एवम् बहुतखानेवाले मनुष्य के शरीर में प्रमेहके रूपको धारण करके मृत्यु झट प्रवेशकर लेता है४४यस्त्वाहारंशरीरस्यधातुसाम्यकरंनरः ।
सेवतेविविधाश्चान्याश्चेष्टाः स खमश्नुते ॥ ४५ ॥
जो मनुष्य शररिकी धातुओंको साम्यावस्थामें रखनेवाले आहार विहारोंका सेवन करता है वही मनुष्य परंमंसुखको भोग करताह ॥ ४५ ॥
- तत्र श्लोकाः । हेतुव्याधिविशेषाणांप्रमेहाणाञ्चकारणम्। दोषधातुसमायोगो रूपविविधमेवच ॥४६॥ दशश्लेष्मकृतायस्मात्प्रमेहाः षट्चपि
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(४६० )
चरकसंहिता - भा० टी० ।
तजाः । यथाकरोतिवायुश्चप्रमेहांश्चतुरोवली ॥ ४७ ॥ साध्यासाध्यविशेषाश्चपूर्वरूपाण्युपद्रवाः । प्रमेहाणांनिदानेऽस्मिनक्रियासत्रञ्चभाषितम् ॥ ४८ ॥ इतिअग्निवेशकृतेतन्त्रेचरकप्रतिसंस्कृतेप्रमेहनिदानं नाम चतुर्थोऽध्यायः ॥४ ॥
अब अध्यायका उपसंहार करते हैं । इस प्रमेह निदान नामक अध्यायमें हेतु और - व्याधिविशेषों को तथा प्रमेहके कारणोंको, दोष, धातुके संयोगको तथा उनके अनेक प्रकारके रूपोंको कथन किया है । और दश प्रकारके कफजनित प्रमेह, छः प्रकारके पित्तजनित प्रमेह और जिस प्रकार बलवान् वायु चार प्रकारके प्रमेहांको उत्पन्न करता है।एवम् प्रमेहों को साध्य, असाध्यता तथा उनके पूर्वरूप, उपद्रव एवम् चिकित्साका क्रम यह सब कथन किया है ॥ ४६ ॥ ४७ ॥ ४८ ॥
इात श्रीमहर्षिचरक० निदान • पं० रामप्रसादुद्वैद्य ० भाषाटीकायां प्रमेहनिदानं नामचतुर्थोऽध्यायः ॥ ४ ॥
पंचमोऽध्यायः ।
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·
अथातः कुष्ठनिदानंव्याख्यास्यामइतिहस्माहभंगवानात्रेयः । अब हम कुष्ठके निदानकी व्याख्या करते हैं । इस प्रकार भगवान् आत्रेयजी - कथन करने लगे ।
कुष्ठोत्पत्तिका कारण ।
सप्तद्रव्याणिकुष्ठान प्रकृतिर्विकृतिमापन्नानि भवन्ति । तद्यथात्रयोदोषावातपित्तश्लेष्माणः प्रकोपणविकृतादूष्याश्चशरीरधात
वत्स्वङ्मांसशोणितलसीकाश्चतुर्द्धादोषोपघातविकता इतिएतत्सप्तानांसप्तधातुकमेवंगत माजननंकुष्ठानामतः प्रभवाण्यभिनिर्वर्त्यमानानि केवलं शरीरमुपतपन्ति । नचकिञ्चिदस्तिकुष्ठमे - कदोषप्रकोपनिमित्तम् ॥ १ ॥
विकारको प्राप्तहुए सातंद्रव्य कृष्ठोंके प्रकृति अर्थात् कारण होते हैं । वह सात - इस प्रकार हैं। वात, पित्त, कफ यह तीन दोष अपने कुपितकारी कारणोंसे बिगड़ते
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निदानस्थान-अ०५.. (४६१) हैं और त्वचा, मांस, रक्त एवं लसीका यह चार वातादि दोषों द्वारा बिगडजातेहैं । बस इन सात प्रकारके द्रव्योंके विकृत होनेसे ही कुष्ठोंकी उत्पत्ति होतीहै । ऐसा कोई भी कुछ नहीं होता जो केवल एक ही दोषके कोप होनेसे उत्पन्न हो जाताहो॥
अस्तितुखलुसमानप्ररुतीनामपिसतानांकुष्ठानांदोषांशबलवि- . कल्पानुबन्धस्थानविभागेनवेदनावर्णसंस्थानप्रभावनामचिकि- . सितविशेषः ॥२॥ सात प्रकारकेही कुष्ठ समान प्रकृति और समान कारणोंसे उत्पन्न होनेपर भी दोष, अंश, बल इनके विकल्पसे और स्थानके विभागसे वेदना, वर्ण, संस्थान और नामके प्रभावसे सबकी अलग २ प्रकारकी चिकित्सा की जाती है ॥ २॥ .
कुष्ठभेद । . ससप्तविधोऽष्टादशविधोपरिसंख्येयविधोवा ॥३॥ यह कुष्ठ मुख्य सात प्रकारके होते और दोषांश बलके विकल्पसे वह अठारह. प्रकारके होतेहैं एवम् सूक्ष्म विचार करने लगे तो असंख्य होजातेहैं ॥ ३ ॥
सातप्रकारके कुष्ठ । दोषाहिविकल्पनर्विकल्प्यमानाविकल्पयन्तिविकारानसंख्यानसाध्यभावात्तेषांविकल्पविकारसंख्यानेऽतिप्रसङ्गमभिसमक्ष्यि सप्तविधमेवकुष्ठविशेषमुपदेक्ष्यामः॥४॥ वातादि दोष ही अंशांश कल्पनासे अनेक भेदोंवाले होते हुए अनेक प्रकारके. विकारोंको उत्पन्न करतेहैं। उनके सूक्ष्म अंशांश कल्पना द्वारा रोगोंकी गणना करनसे सब विकागेका वर्णन करना कठिन होजाताहै इसलिये विशेषरूपसे कुष्ठ सात प्रकारकेही होतेहैं सो उनका वर्णन करतेहैं ॥ ४॥
- कुष्ठोंके भेद और उत्पत्तिके कारण । इहवातादिषुत्रिषुप्रकुपितेषुत्वगादींश्चतुरःप्रदूषयत्सुवातेऽधिक- . तरेकपालकुष्ठमभिनिर्वर्त्तते । पित्तेत्वोदुम्बरश्लेष्मणिमण्डलकुष्ठम् ॥ ५॥ यह वातादि तीनों दोष कुपित होकर त्वचाआदि चार प्रकारके दूष्य धातुओंको दूषित करदेतेहैं तो इनमें वायुकी अधिकता होनेसे कपालनामा कुष्ठ उत्पन्न होताहै। पित्तकी अधिकता होनेसे-उदुम्बरनामक कुष्ठ उत्पन्न होताहै एवम्. कफकी अधिकता होनेसे मण्डलनाम कुष्ठ उत्पन्न होताहै ।। ५॥. . .. .... .
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(४६२) चरकसंहिता-भा० टी०। . वातपित्तयोऋष्यजितपित्तश्लेष्मणोःपुण्डरीकंश्लेष्ममारुतयोः
सिध्मकुष्ठंसर्वदोषातिवृद्धोकाकणकमभिनिवर्तते।इत्येवमेषस. सविधःकुष्ठविशेषोभवति ॥६॥ ___ वात और पित्त इन दोनोंकी अधिकता होनेरी ऋष्पजिह्वनामक कुष्ट उत्पन्न होताहै । पित और कफके कोपकी अधिकता होनेसे पुण्डरीकनामक कुष्ठ उत्पन्न होताहै । एवम् कफ और वायुका कोप अधिक. होनेसे सिध्मनामक कुष्ठ उत्पन्न होता है । तथा तीनों दोषों के मिलकर वृद्धि होनेसे काकणकनामक कुष्ठ उत्पन्न होवा है । इन सात प्रकारके कुष्ठोंका कथन किया गया है ॥ ६ ॥
सचैषभूयोऽतःप्रकृतिविकल्पनयाभूयसीविकारसंख्यामापद्यते॥ सो ये सात प्रकारके ही कुष्ठ कारणादिकोंके विकल्पसे अनेक प्रकारके होजातेहैं ॥ ७॥
कष्टका साधारण निदान ।। तत्रेदंसर्वकुष्ठनिदानंपुनःसमासेनउपदेक्ष्यामः। शीतोष्णव्यत्यासमलानुपर्योपसेवमानस्यतथासन्तर्पणापतर्पणाभ्यवहार्यव्यत्यासंचमधुफाणितमत्स्यमलककाकमाचीःसततमतिमात्रमप्यजीर्णेसमश्नताश्चलिचिमञ्चपयसाहायनकयवकचीनकोदालककोरदूषप्रायाणिचान्नानिक्षीरदधितक्रकोलकुलत्थमाषातसीयषकुसु. म्भस्नेहवन्त्यतैश्चापिसुहितस्यव्यवायव्यायामसन्तापानप्युपसेवमानस्यभयश्रमसंतापोपहतस्यसहसाशीतोदकमवतरतोविदग्धमाहारमनुल्लिख्यविदाहीन्यभ्यवहरतःछाईश्वप्रतिघ्नतःस्नेहांश्चाभिचरतःयुगपत्त्रयोदोषाःप्रकोपमापद्यन्तोत्वगादयश्चत्वारः शैथिल्यमापद्यन्तोतेषुशिथिलेषुदोषाःप्रकुपिताःस्थानमभिगम्य सन्तिष्ठमानास्तानेवत्वगादीन्दषयन्तःकुष्ठान्यभिनिवर्तयन्तिा॥ सो अब फिर उन संपूर्ण प्रकारके कुष्ठोंका निदान संक्षेपसे कथन करतेहैं। सर्दी और गर्मीकी विपरीततोसे अथवा विपरीतभावसे सेवन करनेसे या अपने स्वाभाविक आहारविहारादिकोंको विपरीत रीतिपर सेवन करनेसे मलोंके कुपित करनेवाले पदाआँको निरन्तर सेवन करनेसे संतर्पण और अपतर्पणकी विपरीततासे भोजन, मधु,
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निदानस्थान-१० ५.
(४६३ माणित, मछली, मूलिये,मकोहका-शाक, इनका सदैव अधिक सेवन करनेसे अजीणमें भी भोजन करनेसे और अधिक भोजन करनेसे, दूधके साथ चिलिचिमनामक मछली खानेसे तथा हायनक, यवक, चीनक, कोद्रव, उद्दालक आदि धान्याका दूध मछली आदि संयोग सहित निरन्तर अधिक खानेसे, दूध, दही,छाछ, कुल्थी, वेर, उडद, अलसीका यूष, करडका तैल इन सबके अत्यन्त सेवन करनेसे एवम अधिक संतर्पण, मैथुन, व्यायाम तथा अन्य संतापकारी वस्तुओंके सेवन करनेसे और भय, श्रम,संताप इनसे व्याकुल हुआ मनुष्य सहसा शीतल जल पोवे अथवा शीतल जलमें तैरने लगजाय उससे विदग्धकारी आहारके सेवनले अथवा विदग्ध हुए आहारको उखाडकरके विदाही पदार्थोंका सेवन करनेसे एवम् आय हुए वमनके वेगको रोकनेसे, शरीरको अत्यन्त स्नेहन करनेसे वातादि तीनों दोष एकसाथ कुपित होजातेहैं । फिर वह कुपित होकर त्वचा आदि चारों धातुओंको शिथिल करदेतेहैं । उन शिथिल धातुओंमें कुपित हुए दोष प्रवेश करके उनके स्थान विश. षोंमें प्राप्त होकर रहतेहुए उन त्वचा, मांस आदिको विगाडते हुए कुष्ठोंको उत्पन्न करतेहैं ॥ ८॥
कुष्ठके पर्वरूप। तत्रेमानिपूर्वरूपाणि ॥ तद्यथाअस्वेदनमतिस्वेदनंपारुष्यमतिश्लक्ष्णतावैवयंकण्डूनिस्तोदःसुप्ततापरिदाहःपरिहर्षोलोमहर्षोखरत्वमुष्मायणंगौरवंश्वयथुवासपांगमनमभीक्षणकायच्छिद्रेषूपदाहःपक्कदग्धदष्टक्षतोपस्खलितेष्वतिमात्रंवेदनास्वल्पानामपिच व्रणानांदुष्टिरसंरोहणश्चेतितेभ्योऽनन्तरंकुष्ठानिजायन्ते ॥९॥
उन कुष्ठों के पूर्वरूप यह है । जैसे पसीनाका न आना अथवा अधिक आना. त्वचाका अत्यन्त कठोर होना या अधिक नरम होजाना,एवम त्वच का रंग बिगडजाना, खाज, पीडा, शून्यता, दाह और हर्षण इन सबका शरीरमें होना,रोमहर्ष, शरीरका खदरापन बचामें गर्मीकी अधिकता, शरीरमें भारीपन, सूजन, विसर्परोगका होना, शरीरके रोम मागॉमें तथा अन्य छिद्रोंमें निरन्तर दाहकां होना और शरीरमें यदि कोई जखम या आगसे दग्ध अथवा किसी जानवरके काटनेसे जखम होजाय तो उसमें अत्यन्त पीडा होना और छोटी २ फुसिये होकर उनमें भी काटन तथा दागनेकीसी दाह और पीडा होना और उन छोटे २ व्रणोंका भी
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(४६४)
चरकसंहिता-भा० टी० दूषितसा होजाना और फिर नहीं भरना ऐसे २ उपद्रव होनेके अनन्तर कुष्ठ उत्पन्न होतेहैं अर्थात् यह कुष्ठोंके पूर्व रूप है ॥९॥
___ कपालके लक्षण। तेषामिदंवेदनावर्णसंस्थानप्रभावनामविशेषविज्ञानमातद्यथा रूक्षारुणपरुषाणिविषमविसृतानिखरपर्यन्तानितनून्यवृत्तवा हिस्तनूनिसुप्तसुप्तानिहाषितलोमाचिताानिनिस्तोदबहुलानिअंल्पकण्डूदाहपूयलसीकान्याशुगतिसमुत्थानालिआशुभेदीनि जन्तुमन्तिकृष्णारुणकपालवर्णानिकपालकुष्ठानीतिविद्यात् ॥१०॥ उन सात प्रकारके कुष्ठोंकी वेदना,वर्ण,स्थान और प्रभागेके ज्ञानको यथोचित रीतिपर वर्णन करतेहैं । जैसे रूक्ष, अरुण, कठोर, विषम गतिवाले जिसका अंतका भाग खरदरा हो तथा थोडे २ ऊंचे हों, वाहरके भागमें किंचित् ऊंचे हों, छोटे २ हों, शून्यसे हों, जिनके ऊपर रोम खडे हों, प्रायः अधिक पीडा होतीहो, किंचित्, खाजयुक्त एवम् दाह, पूय (राध ) और लसीका ( मांसकासा धोवन ) ये उन जख्मोंसे निकलतेहों तथा झटपट फैलजानेवाले झट अपनी पीडाको उत्पन्न करनेवाले, कृमियुक्त काले और लालवर्णके तथा कपालके समान वर्ण युक्त इन सब लक्षणोवाले कुष्ठको कपालकुष्ठ कहतेहैं ॥ १०॥
उदुम्बरकुष्ठके लक्षण । ताम्राणिताम्ररोमराजीभिरवनद्धानिबहुलानिबहुबहलरक्तपूयलसीकानिकण्डूक्लेदकोथदाहपाकवन्त्याशुगतिसमुत्थानभेदीनिससन्तापक्रिमीण्युदुम्बरफलपक्कपर्णान्युदुम्बरकुष्ठानीति विद्यात् ॥११॥ तांबेके समान वर्णवाला तथा ताम्रवर्णके रोमयुक्त, सघन और बहुत तथा गाढी राध तथा लसीका युक्त एवम् खाज, क्लेद, सडन, जलन, पाक, इनसे युक्त शीघ्र फैलनेवाला, झट प्रगट हो जानेवाला, एवम् शीघ्र फटजानेवाला संताप और कृमियुक्त और पके हुए गूलरके समान वर्णवाला हो इन सब लक्षणोंवाले कुष्ठको उदुः म्बर कुष्ठं कहते हैं ॥ ११॥
__ मण्डलकुष्ठके लक्षण। स्निग्धानिगुरूण्युत्सेधवन्तिश्लक्ष्णस्थिरपीनपर्यन्तानिशुक्लरक्तावभासानिबहुलबहलशुक्लपिच्छिलस्रावीणिशुक्लरोमरा--.
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निदानस्थान-अ०.५.. . जीसन्तानानिवहुकण्डूक्रिमीणिसक्तगतिसमुत्थानभेदीनिपरि
मण्डलानिमण्डलकुष्ठानीतिविद्यात् ॥ १२ ॥ ':चिकना, भारी, ऊंचा,मृदु, दृढ तथा किनारोंपर्यंत मोटा,श्वेत और लालवर्णका बहुत वहाव करनेवाला और वह वहाव श्वेत तथा पिच्छलवर्णका लवता हो मुफेद रोमोंसे युक्त हो तथा उसमें अत्यन्त खाज होतीहो और कृमि पडे हों एवम् उसके सव मण्डल देरसे फैलनेवाले, देरमें उत्पन्न होनेवाले, तथा देरमें फटनेवाले हों इस प्रकारके गोलगोल मण्डलोंवाले कुष्ठको मण्डल कुष्ठ कहतेहैं ॥ १२ ॥
ऋष्यजितकुष्टके लक्षण। परुषाण्यरुणवर्णानिबहिरन्तःश्यावानिनीलपीतताम्रावभासा. न्याशुगतिसमुत्थानान्यल्पकण्डूक्लेदक्रिमीणिदाहभेदनिस्तोदंपाकबहुलानिशूकोपहतोपमानवेदनान्युत्सन्नमध्यानितनुप
य॑न्तानिकर्कशपिडकाचितानिदर्घिपारमण्डलानिऋष्याज- . .. हाकृतीनिऋष्यजिह्वानीतिविद्यात् ॥१३॥ __ कठोर तथा लालवर्णका वाहरका भाग एवम् भीतरका भाग काला,नीला,पीला एवम् ताम्रवर्णका हो, शीघ्र फैलनेवाला हो,शीघ्र उत्पन्न होनेवाला हो,खाज,कृमि, दाह, भेद, निस्तोद यह हों एवम् अधिक पकनेवाला,सुईसी चूभनेकी पीडायुक्त, बीचका भाग आधिक ऊंचा न हो किनारें पतले हों और छोटी २ कठोर फुसियोंसे युक्त हो जिसमें लम्बे २ मण्डल हों वह मण्डल रीछकी जीभके समान हों इन सब लक्षणों युक्त कुष्ठको ऋष्यजित कुष्ठ कहते हैं ॥ १३ ॥ . . .
पुण्डरीककुष्ठके लक्षण । शुक्लरक्तावभासानिरक्तपर्यन्तानिरक्तशिराराजीसन्ततान्यु: त्सेधवन्तिबहुबहलरक्तपूयलसीकानिकण्डूक्रिमिदाहपाकवन्त्या शुगतिसमुत्थानभेदीनिपुण्डरकिपलाशसंकाशानिपुण्डरीकाणीतिविद्यात् ॥ १४॥ . . . . . . . . जो कुष्ठ-सफेद तथा लालवर्णवाले अथवा गुलावीवर्णवाले हों एवम् किनारे लालवर्णके हों लालरोमयुक्त हो एवम् ऊंचे हों उनमेंसे अधिक रक्त, राध, और लसीका निकलती हों एवम् खाज, कृमि,दाह, पाक इन सवसे युक्त हों,शीघ्र फैलने और उत्पन्न होने एवम् फटजानेवाले हों और कमलके फूलकी कंकडीके समान हों इन सव लक्षणयुक्त कुष्ठको पुण्डरीक कुष्ट कहतेहैं ॥ १४ ॥ . . . .
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(४६६ ) चरकसंहिता-भा० टी० ।
सिध्मकुष्ठके लक्षण । परुषारुणविशीर्णबहिस्तनून्यन्तःस्निग्धानिशुक्लरक्तावभासानिबहून्यल्पवेदनान्यल्पकण्डूदाहपूयलसीकानिलघुसमुत्थानान्यल्पभेद-क्रिमीण्यलावु-पुष्पसङ्काशानिसिध्म-कुष्ठानीति विद्यात् ॥ १५॥ जो कुष्ठ बाहरके भागमें कठोर, लाल और फैला हुआसा हो और भीतर हलका हो, तथा चिकना, सफेद और लालवर्णयुक्त हो और वहुतही थोडी पीडावाला हो, जिसमें अल्पखुजली उठती हो एवम् दाह, राध और लसीका इन करके युक्त हो और बहुत छोटेपनसे प्रगट होना और फटना यह लक्षण हों, कृमियुक्त हो घीयाके फूल के समान वर्णवाला हो उसको सिध्मकुष्ठ कहतेहैं ॥ १९ ॥
काकणक कुष्टके लक्षण। .... काकणन्तिकावर्णान्यादौपश्चात्सर्वकुष्ठलिङ्गसमन्वितानिपापीयसांसर्वकुष्ठलिङ्गसम्भवनानेकवर्णानिकाकणकानीतिविद्यात्१क्षा काकणनामक कुष्ठ-पहिले रक्तकके समान वर्णवाले होतेहैं फिर संपूर्ण कुष्ठोंके लक्षणेस यक्त होजातेहैं । पापाजनोंके शरीरमें यह कुष्ठ होकर सब कुष्ठोंके लक्षणोंको धारण करतहैं तथा अनेक वर्णके होतेहैं । इन अनेक लक्षणवाले कुष्ठोंके वर्ण. वेदनादियुक्त कुष्ठको काकणकुष्ठ कहतेहैं ॥ १६ ॥ कुष्ठोंका साध्यासाध्य वर्णन।
' तान्यसाध्यानिसाध्यानिपुनरितराणि । तत्रयदसाध्यंतदसाध्यतांनातिवर्तते । साध्यंपुनःकिञ्चित्साध्यतामतिवर्ततेकदाचि- . दिपचारात् ॥ १७ ॥ सब का साध्य और असाध्यके भेदसे दो प्रकारके होतेहैं । उनमें काकण असाध्य है और बाकी साध्य हैं। इनमें जो असाध्य है वह अपनी असाध्यताको नहीं छोडता जोसाध्य है वह किसी प्रकारके कुपथ्यके होजानेसे असाध्यताको प्राप्त -होजातेहैं ॥ १७॥
साध्यानीहषटकाकणकवानिचिकित्स्यमानानिअपचारतोवादोषैरभिष्यन्दमानानिअसाध्यतामुपयान्ति.॥ १८॥ इनमें काकणकि कुष्ठके सिवाय बाकी छ। कुष्ठ साध्य मानेगयेहैं । परन्तु चिकि:
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निदानस्थान-अं०५. . (४६७) साके दोषसे अथवा चिकित्सा न करनेस या किसी अपचारके होजानेसे वृद्धिके माप्त होकर फैलते हुए असाध्यताको प्राप्त हो जातेहैं ॥ १८ ॥ .
उपेक्षितकुष्ठका फल ।। साध्यानामपिापेक्षमाणानामेषांत्वङ्मांसशोणितलसीकाको
थक्केदसंस्वेदजाःक्रिमयोऽभिमूर्च्छन्ति । तेभक्षयन्तोत्वगादी. नदोषान्पुनर्दूषयन्तःइमानुपद्रवान्पृथक्पृथगुत्थापयान्ति ॥१९॥
साध्य कुष्ठोंमेंभी शीघ्र यत्न न करनेसे त्वचा, मांस, रुधिर और लसीका इन सबके सडने और क्लेद तथा पसीने आदिसे कृमि उत्पन्न होजातेहैं । वह काम कुष्ठीको हुए फिर सचा आदिकोंको दूषित करतेहैं और नीचे लिखे हुए इन उपद्रवोंको अलग २ उत्पन्न करते हैं ॥ १९ ॥
प्रकुपितदोषोंके उपद्रव। ततोवातःश्यावारुणपरुषवर्णतामपिचरौक्ष्यशूलशोथतोदवेपथुहर्षसङ्कोचायासस्तम्भसुप्तिभेदभङ्गान् । पित्तंपुनहिस्वेदक्लेदकोथकण्डूस्त्रावपाकरागान् । श्लेष्मात्वस्यश्वैत्यशैत्यस्थैर्यकण्डून्गौरवोत्सेधोपस्नेहोपलेपान् । क्रिमयस्त्वगादींश्चतुरःशिराः स्नायून्यस्थीन्यपिचतरुणानिंखांदन्ति ॥ २०॥ इन कृमियोंसे दूषित हुए त्वचा आदिकोंमें वायु कुपित होकर, कृष्णता, अरुः णता, कठोरता, रूक्षता एवम् शूल, शोथ, तोद, कम्प, रोमहर्ष, संकोच, आयास, स्तब्धता,शून्यता और भेदनकोसी पीडा तथा भग्नता इनको उत्पन्न करताहै । कुपित हुआ पित्त-दाह, स्वेद, क्लेद, सडन, खुजली, नाव, पाक और लालवर्णता इनको उत्पन्न करताहै एवम् कफ कुपित होकर शीतता, स्थिरता, खाज, भारीपन, कुष्ठमें ऊंचापन,चिकनाहट, उपलेप इनको प्रगट करताहै। और वह वढे हुए कृमि-खचा, मांस, रुधिर, लसीका, शिरा, स्नायु और पुष्टहड्डियोंको भी खाना आरम्भ करदेतेहैं ॥ २० ॥
कुपितदोषोंमें उपद्रव । अस्यामवस्थायामुपद्रवाःकुष्टिनस्पृशन्ति । तद्यथा-प्रस्रवणमङ्गभेदःपतनान्यगावयवानांतृष्णाज्वरातीसारदाहदौर्बल्यारोच. · काविपाकोश्चतद्विधमसाध्यविद्यादिति ॥ २१ ॥
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( ४६८ )
चरकसंहिता - भा० टी० ।
ऐसी अवस्थामें कुष्ठी को ये उपद्रव दुःख देते हैं। जैसे राधका स्राव, अंगोंका भेदन, अंगुली आदि अंगका गिरना, प्यास, ज्वर, अतिसार, दाह, दुर्बलता, अरुचि और अन्नका न पचना इत्यादि असाध्य उपद्रव हो जाते हैं ॥ २१ ॥
तत्रश्लोकाः । साध्योऽयमितियः पूर्वन रोरोगमुपेक्षते । सकिञ्चित्कालमासाद्यमृतएवावबुध्यते ॥ २२ ॥
यहां पर श्लोक हैं कि जो मनुष्य रोगको साध्य समझकर उसका यत्न नहीं करते और यह कहते हैं कि अभी क्या है जब अवकाश मिलेगा तव यत्न कर लेंगे । ऐसे मनुष्य कुछ कालके अनन्तर मरे हुए ही दिखाई पडते हैं ॥ २२ ॥ यस्तुप्रागेव रोगेभ्यो रोगेषुतरुणेषुच ।
भेषजं कुरुते सम्यक्सचिरंसुखमश्नुते ॥ २३ ॥
जो मनुष्य रोगोंसे प्रथम ही अथवा रोग होनेपर भी शीघ्र यत्न कर लेते हैं वह शरीर सुखको सुखपूर्वक भोगते हैं ॥ २३ ॥
यथास्वल्पेन यत्नेनच्छिद्यतेतरुणस्तरुः । सएवातिप्रवृद्धस्तुन सुच्छेयतमोभवेत् ॥ २४ ॥ एवमेवविकारोऽपितरुणः साध्यतेमुखम् । विवृद्धः साध्यतेकच्छ्रादसाध्योवापिजायते ॥ २५ ॥
जैसे छोटासा वृक्ष साधारण यत्न करनेसे झट उखड़ सकता है और अधिक बडा होजानेसे उखाडना कठिन होजाता है । उसी प्रकार रोग भी वल पानेके पहिले सुखपूर्वक निवृत्त होजाता है । वही रोग वृद्धिको प्राप्त होनेसे कष्टसाध्य अथवा असाध्य होजाता है ॥ २४ ॥ २५ ॥
संख्याद्रव्याणिदोषाश्च हेतवः पूर्वलक्षणम् ।
रूपाण्युपद्रवाश्वोक्ताः कुष्ठानां कोष्ठिकेपृथक् ॥ २६ ॥
इति अग्निवेशकृतेतन्त्रे चरकप्रतिसंस्कृते कुष्ठनिदानं नामपञ्चमोऽध्यायः ॥ ५ ॥
अब अध्यायका उपसंहार करते हैं कि, इस कुष्ठनिदान नामक अध्याय में, कुष्ठों की संख्या, द्रव्य, दृष्यधातु, दोष, हेतु, पूर्वरूप, रूप, उपद्रव यह सब पृथक २ कथन किये हैं । २६ ।।
इति श्रीमहर्षिचरक० निदान- पं० रामप्रसाद वैद्य • भाषाटीकायां कुष्ठनिदान नाम पंचमोऽध्यायः ॥ ५ ॥
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(४६९)
निदानस्थान-अ०६. षष्ठोऽध्यायः
शोषनिदानम्। अथातःशोषनिदान व्याख्यास्यामइति हस्माह भगवानात्रयः।
अव हम शोषके निदानकी व्याख्या करते हैं ऐसे भगवान् आत्रेयजी कथन करनेलगे।
शोषोंके आयतनोंकी संख्या । इहखलुचत्वारिशोषस्यायतनानि । तयथा
साहसंसन्धारणं क्षयोविषमाशनमिति ॥१॥ इस शरीरमें शोषरोग होनेके चार कारण होते हैं । जैसे अपनी ताकतसे बढकर साहस करना सन्धारण ( मलमूत्रादि वेगोंको रोकना ) धातुओंका क्षय होना और विषमभोजन करना ॥१॥
साहसका वर्णन । तत्रयदुक्तंसाहसंशोषस्यायतनामितितदनुव्याख्यास्यामः । यदापुरुषोदुर्बलोहिसन्वलवतासहविगृह्णातिअतिमहतावाधनुषाव्यायच्छतिजल्पतिवातिमात्रमतिमात्रंवाभारमुबहतिअ. प्सुवाप्लवतेचातिदूरमुत्सादनपदाघातेनवातिप्रगाढमासेवते . अतिप्रकृष्टवाध्वानंद्रुतमभिपततिअभिहन्यतेवान्यद्वाकिञ्चिदेवंविधविषममतिमात्रंवाव्यायामजातमारभतेतस्यातिमात्रेणकर्मणाउरःक्षण्यतेतस्यउरःक्षतमुपप्लवतेवायुः । सतत्रावस्थिताश्लेष्माणमुरःस्थमुपसंगृह्यशोषयन्विहरत्यूर्द्धमधस्तिर्य
क्च ॥२॥ उनमें प्रथम साहस जो शोषका कारण कथन कियाहै उसकी व्याख्या करतेहैं। जब दुर्वल मनुष्य बलवान् मनुष्यसे मल्लयुद्ध करताहै अथवा बडे भारी धनुषको .अधिक वलसे खींचताहै एवम् बहुत जोरसे बहुत वोलताहै और अपनी सहनशक्तिसे बढकर भारको उठाताहै एवम् जलमें अधिक तैरता है । अत्यन्त बलपूर्वक अपनी छातीमें तैल आदिका मालिश कराताहै अथवा लात आदिकी वलवान् चोट लगनानेसे या बहुत ज्यादे पैरोंको हिलाताहै अथवा अत्यन्त कठिन मार्गमें बहुत भागताहै
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(४७०)
चरकसंहिता-भा० टी०। इन कारणोंसे अथवा गिरपडनेसे, चोट आदि लगनेसे,विषम या अत्यन्त व्यायाम करनेसे एवम् अपनी शक्तिसे बढकर काम करनेसे, मनुष्यकी, छाती(फुप्फुस हृदय आदिमें ) घाव अथवा क्षीणता उत्पन्न होजातीहै तब वायु कुपित होकर उस मनुज्यके शरीरमें उरक्षतरोगको उत्पन्न करताहै । फिर वही वायु उर अर्थात् छातीमें स्थित होकर छातीके कफको ग्रहण करके शोषरोगको प्रगट करताहै।और ऊपर,नीचे तथा तिरछा गमन करताहुआ शरीरकी धातुओंको सुखा डालताहै ॥ २ ॥
वायुके कर्म। योऽशस्तस्यशरीरसन्धीनआविशतितेनजृम्भाङ्गमर्दोज्वरश्चोपजायते । यस्त्वामाशयमुपैतितेनरोगाभवन्तिउरस्याअरोचकश्च । यःकण्ठंप्रपंद्यतेकण्ठस्वनमुद्धंसतेस्वरश्वावसीदतियःप्राणवहानिस्रोतांस्येतितेन श्वासःप्रतिश्यायश्चोपजायते।यःशिरस्यवतिष्ठतेशिरस्तेनोपहन्यते ॥ ३॥ उसी वायुके जो अंश शरीरकी संधियोंमें प्रवेश करतेहैं वह जंभाई, अंगमर्द और ज्वर इनको उत्पन्न करतेहैं। जो अंश आमाशयमें प्राप्त होताहै वह छातीके रोगोंकों तथा अरुचिको प्रगट कहताहै जो अंश कण्ठमें प्रवेश करताहै वह कण्ठके शब्दको तथा स्वरको बिगाड देता है । जो अंश प्राणवाहक स्रोतोंमें प्रवेश करताहै उससे श्वास और प्रतिश्यायको उत्पन्न करता है । जो अंश शिरमें प्रवेश करताहै उससे शिरमें दर्द उत्पन्न होतीहै ॥ ३ ॥
ततःक्षणनाच्चैवोरसोविषमगतित्वाचवायोःकण्ठस्योद्धंसनात् कासःसंजायतो कासप्रसङ्गादुरसिक्षतेसशोणितंष्ठवितिशाोण- . तागमाचास्यदौर्गन्ध्यमुपजायतेएवमेतेसाहसप्रभवाःसाहसिकमुपद्रवाःस्पृशन्ति ॥४॥ इसके अनन्तर छातीके क्षरण होनेसे तथा वायुकी विषमगति होनेसे एवम् वायुः द्वारा कण्ठके रुकजानसे खांसी उत्पन्न होजातीहै उस खांसीके सबबसे छातीके घावोंका रक्त थूकमें आनेलगजाताहै । उस रक्तके निकलनेसे मुखसे दुर्गंध आने लगजातीहै । इस प्रकार यह साहससे उत्पन्न हुए उपद्रव अधिक साहस करनेवाले मनुष्यको घेर लेतेहैं ॥४॥
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निदानस्थान-अ० ६. (४७१)
शोषमें उपदेश । ततःसोऽप्युपशोषणैरेतैरुपद्रवरुपद्रुतःशनैशनैरुपशुष्यति । त
स्मात्पुरुषोमतिमान्बलमात्मनःसमीक्ष्यतदनुरूपाणिकर्माण्या. रभेतकर्तुम् । बलसमाधानंहिशरीरंशरीरमूलश्चपुरुषइति ॥५॥
फिर वह मनुष्य इन शोषणकर्ता उपद्रवों द्वारा पीडित हुआ धीरे धीरे सूख जाताहै । इसलिये बुद्धिमान् मनुष्यको अपने वलकी परीक्षा करके उसके अनुरूप कर्मोको ही आरम्भ करना चाहिये। क्योंकि बल ही शरीरका आश्रय है और मनुध्यका जविन शरीरके अधीन होताहै ॥५॥
तत्रश्लोकः । साहसंवर्जयेत्कर्मरक्षजीवितमात्मनः।
जीवन्हिपुरुषस्त्विष्टकर्मणःफलसश्नुते ॥६॥ यहां एक श्लोक है कि बुद्धिमान मनुष्य अपने जीवनकी रक्षा करताहुआ बहुतं साहसके कर्मको त्याग देवे क्योंकि पुरुषोंके वांछित कोका फल जीवन ही होता है अर्थात् संपूर्ण सुखोंका मूल जीवन है उस जीवनके रहनेपर ही मनुष्य अपने शुभ, काँका फल भोग सकताहै ॥६॥ • दूसरा कारण संधारण-शोषका कारण कथन कियाहै सो उसकी व्याख्या करतेहैं।
सन्धारणजन्य शोषका वर्णन । सन्धारणशोषस्यायतनमितियदुक्तंतदनुव्याख्यास्यामः। यदा .. पुरुषोराजसमापेभर्तृसमीपेवागुरोर्वापादमूलेयूतसमांसभाजयन्स्त्रीमध्यवानुप्रविश्ययानैर्वाप्युच्चावचैर्गच्छन्भयात्प्रसंगाद्धी. मत्वाणित्वादानिरुणद्धयागतानिवातमूत्रपुरीषाणितस्यसन्धारणाद्वायुःप्रकोपमापयते ॥७॥ जब पुरुष राजाके समीप अथवा मालिकके समीप या गुरु आदिकोंके चरणोंके समीप अथवा जूआ आदि किसी खेलमें बैठे हुए या किसी संभा एवम् खियोंमें बैठकर या किसी ऊंची नीची सवारी आदिमें चलते हुए अथवा भयसे या किसी
और प्रसंगसे या उपरोक्त सभा आदिकोंमें लज्जाके मारे अथवा घृणासे वात, मूत्र, पुरीष आदिक वेगोंको रोक लेता है तो उसके शरीरमें वायु कोपको प्राप्त होजाताहै ॥ ७॥
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(४७२)
चरकसंहिता-भा०टी०। । सप्रकुपितःपित्तश्लष्माणौसमुदीयोवमधस्तिय॑क्चविहरति ततश्चशिविशेषेणपूर्ववच्छरीरावयवविशेषप्रविश्यशूलंजनयति । भिनत्तिपुरीषमुच्छोषयतिवा, पार्श्वेचाभिरुजतिगृह्णात्यंसौकण्ठमुरश्चावधमतिशिरश्चोपहन्ति, कासंश्वासज्वरस्वरभेदप्रतिश्यायञ्चोपजनयति ॥८॥ . फिर वह कुपित हुआ वायु पित्त और कफको उठाकर पूर्वोक्त क्रमसे ऊपर, नोचे, तिरछा तथा भिन्न २ अंशोंसे शरीरके भिन्न २ भागों में प्रवेश करके पीडाकों उत्पन्न करताहै। और मलको पतला करके निकालता है अथवा सुखादेताहै । दोनों पार्श्वभागोंमें शूलको करताहै एवम् अंसनामक कंधोंसे ऊपरके स्थानमें (हंसलीमें) पीडाको करताहै एवम् छातीमें पीडा उत्पन्न करताहै । शिरमें दर्दको करताहै और कण्ठको पीडायुक्त बनाताहै तथा खांसी, श्वास, ज्वर, स्वरभेद, प्रतिश्याय इनकों उत्पन्न कर देताहै ॥८॥ ततःसोऽप्युपशोषणैरेतैरुपद्रवरुपद्रुतःशनैःशनैरुपशुष्यति। . तस्मात्पुरुषोमतिमानात्मनःशरीरेष्वेवयोगक्षेमकरेषुप्रयतेतवि
शेषेणशरीरंह्यस्यमूलंशरीरमूलश्चपुरुषइति ॥ ९॥ ' फिर वह इन शोषणकर्ता उपद्रवोद्वारा धीरे धीरे शरीरको सव धातुओंकों सुखा डालताहै । इस लिये बुद्धिमान् मनुष्यको अपने शरीरके योग और क्षेमकी इच्छा करते हुए मल मूत्रादि वेगोंको नहीं रोकना चाहियोक्योंकि शरीरके आधार ही पुरुषका जीवन है इसलिये शरीरकी रक्षा करना सबसे मुख्य धर्म है ॥ ९॥
तत्रश्लोकः। सर्वमन्यत्परित्यज्यशरीरमनुपालयेत्।।
. तदभावेहिभावानांसर्वाभावशरीरिणामिति ॥१०॥ यहाँपर एक श्लोक कहा है कि अन्य सब आडम्बरोंको छोडकर शरीरको ही पालन करना चाहिये क्योंकि शरीरके नष्ट होनेसे संपूर्ण सम्पत्तियोंका भी अभाव होजाताहै ॥ १० ॥
क्षयशोषका वर्णन । . . क्षयःशोषस्यायतनभितियदुक्तंतदनुव्याख्यास्यामः। यदापु
रुषोतिमात्रंशोकचिन्तापरीतहृदयोभवति, ईर्षोत्कण्ठाभय- ;
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निदानस्थान-१० ६.
(४७३) क्रोधादिभिर्वासमाविश्यते,कशोवासनरूक्षानपानसेवीभवति, दुर्बलप्रकृतिरनाहारोऽल्पाहारोवाआस्तेतदातस्यहृदयस्थायी रसाक्षयमुपैति । सतस्योपक्षयात्संशोषप्राप्नोतिअप्रतीकाराचा नुबध्यतेयक्ष्मणायथोपदेक्ष्यमाणरूपेण ॥११॥ तीसरा जो शोषरोगका कारण क्षय कथन कियाहै अब उसकी व्याख्या करतेहैं। जव मनुष्यक हृदयको अत्यन्त शोक एवम् चिन्ता घेर लेतेहैं अथवा ईर्षा, उत्कंठा, भय, क्रोध इनको अत्यन्ततासे घिरं जाता है अथवा अत्यन्त कृश होनेपर भी रूक्ष अन्नपानोंका सेवन करताहै एवम् दुर्वल शरीरवाला लंघन अथवा बहुत थोडा आहार करताहै तब इसके हृदयमें रहनेवाला रस क्षय होजाताहै । उसके क्षय होनेसे मनुष्यके सब धातु सूख जाते हैं। इसका शीघ्र यल न करनेसे आगे कहा हुआ यक्ष्मारोग उत्पन्न होजाताहै ॥ ११ ॥
___ यक्ष्मा होनेकी रीति । यदापुरुषोऽतिहर्षात्प्रसक्तभावःस्त्रीषुअतिप्रसङ्गमारभतेतस्यातिप्रसङ्गानेतःक्षयमुपैतिक्षयमपिचोपगच्छतिरेतसियदिमनःस्त्रीभ्यो वास्यनिवर्ततअतिप्रवर्ततेएवतस्यातिप्रणीतसङ्कल्पस्य मैथुनमापद्यमानस्यशुक्रनप्रवर्ततेअतिमात्रोपक्षीणत्वात् ।। अथास्यवायुयायच्छमानस्यैवधमनीरनुप्रविश्यशोणितवाहिनीस्ताभ्यःशोणितंपच्यावयतितच्छुक्रक्षयाच्छुकमार्गेणशोणितंप्रवर्ततेवातानुसृतलिंगम् ॥ १२ ॥ जव मनुष्य अत्यंत हर्षसे आसक्त होकर अधिक मैथुन करताहै उस अधिक मैथुन करनेसे उसका वीर्य क्षय होजाताहै। वीर्यके क्षय होनेपर भी जिसका चित्त स्त्री संगसे निवृत्त नहीं होता बल्कि और भी अधिक प्रवृत्ति होती जाती है । इस प्रकार स्त्री संसर्गमें अधिक प्रवृत्ति होनेसे वीर्यका क्षय होकर पुनः मैथुन करनेपर भी वीर्यके न रहनेसे वीयकी प्रवृत्ति नहीं होती क्योंकि वह अत्यन्त क्षीणताकों प्राप्त हो लेताहै ऐसा करनेसे फिर उसके शरीरमें वायु प्रवेश हो धमनीय नसोंके वीचमें प्रवेश करके रक्तवाहिनी नसोंमेंसे रक्तको लेकर वीयके मार्गसे वीर्यके क्षय होनेके अनन्तर उस रक्तको निकालताहै । और वायु उस रक्तके साथ मिलना; . ताहै ॥ १२॥ .
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चरकसंहिता - भा० टी० ।
अथास्यशुक्रक्षयाच्छोणितप्रवर्तनाच्च सन्धयः शिथिलीभवन्ति । रौक्ष्यमुपजायते । भूयः शरीरे दैवल्य माविशतिवायुः प्रकापेमापद्यते । सप्रकुपितोऽवशकंशरीरमनुसर्पन्परिशोषयतिमांसशोणितेप्रच्यावयतिश्लेष्मपित्तेसंरुजतिपार्श्वेचावगृह्णात्यंसौ कण्ठसुइंसयतिशिरश्लेष्माणमुपक्लिश्यप्रतिपूरयतिश्लेष्मणासन्धीश्चप्रपीडयन्करोत्यङ्गमर्द मरोचका विपाकौचपित्तश्लेष्मोत्क्लेशात्प्रतिलोमगत्वाच्च वायुज्वरंकासंस्वरभेदंप्रतिश्यायञ्चोपजनयति ॥ १३ ॥
फिर उस मनुष्यके वीर्यके क्षीण होनेसे और रक्तकी प्रवृत्ति होनेसे संधिये शिथिल होजाती हैं तथा शरीरमें रूक्षता उत्पन्न होजाती है । और शरीर दुर्बलताको प्राप्त होजाता है । शरीर में वायुका कोप होजाता है । वह कुपित हुआ वायु उस दुर्बल शरीरमें इधर उधर फिरता हुआ मांस और रुधिरको सुखा देता है एवम् कफ और पित्तको निकालता है। दोनों पसवाडोंमें तथा दोनों असोंमें और कण्ठमें पीडाको उत्पन्न करता है । एवम् शिरको पीडन करता है और कफको बिगाडकर मस्तकमें पूरित करता है । संधियोंमें पीडा उत्पन्न करता है एवम् अरोचकता, अंगमर्द, अवि पाक इनको उत्पन्न करता है । पित्त और कफ के उत्क्लेशसे वायुकी गति प्रतिलोम होनेसे ज्वर, खांसी, स्वरभंग, प्रतिश्याय इनको प्रगट करता है ॥ १३ ॥ वीर्य की रक्षामें उपदेश.
ततः
( ४७४ )
सोऽप्युपशोषणैरेतैरुपद्रवैरुपद्रुतः शनैः शनैरुपशुष्यति । तस्मात्पुरुषोमतिमानात्मनः शरीरमनुरक्षशुक्रमनुरक्षेत् । पराह्येषाफलनिर्वृत्तिराहारस्येति ॥ १४ ॥
फिर वह मनुष्य इन शोषणकारक उपद्रवों द्वारा पीडित हुआ धीरेधीरे सूख जाता है | इसलिये बुद्धिमान् मनुष्यको शरीरकी रक्षाके लिये वीर्यकी भी रक्षा करनी चाहिये । क्योंकि वीर्यं शरीरमें आहार द्रव्योंका सर्वोत्तम और अन्तिम फलहोताहै ॥ १४ ॥
तत्रश्लोकः । आहारस्य परंधामशुक्रं तद्रक्ष्यमात्मनः । क्षयेद्यस्य वहून्रोगान्मरणंवानियच्छति ॥ १५ ॥
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निदानस्थान-अ०६. (४७५) यहांपर एक श्लोक कहाहै कि भोजनका परमधाम शुक है इसलिये उस शुक्र (वीर्य) की रक्षा करनी चाहिये । क्योंकि उसके क्षय होनसे अनेक प्रकारके रोग उत्पन्न होतेहे अथवा मनुष्य मृत्युको प्राप्त होजाताहै ॥ १५ ॥
विषमाशनका वर्णन। विषमाशनशोषस्यायतनमितियदुक्तंतदनुव्याख्यास्यामः । यदापुरुषःपानाशनभक्ष्यलेह्योपयोगान्प्रकृतिकरणसंयोगराशिदेशकालोपयोगसंस्थोपशयविषमानासेवतेतदातस्यवातपित्तश्लेष्माणोवैषम्यमापद्यन्ते । तेविषमा शरीरमनुपसृत्ययदास्रोतसांमुखानिप्रतिवाऱ्यावतिष्ठन्तेतदाजन्तुर्यदाहारजातमाहरति तदस्यमूत्रपुरीषमेवोपचीयतेभूयिष्ठम्, नान्यस्तथा शरीरधातुःसपुरीषोपष्टम्भावर्त्तयति ॥ १६॥ विषमाशन जो चौथा कारण कहाहै । अव उसकी व्याख्या करतेहैं।जव मनुष्य पान, अशन, भक्ष्य, लेह्य इन चार प्रकारके पदार्थोंको कारण,करण,संयोग,राशि, देश, काल, भोजन प्रकार, एवम् सात्म्य इन आठ प्रकारके भोजनके स्थानों अर्थात् विधानोंको.त्यागकर विषमरीतिसे सेवन करताहै तब उसके शरीरमें वात, पित्त, कफ यह तीनों दोष विषमताको प्राप्त होजातेहैं । वह तीनों दोष विषमताको प्राप्तहुए शरीरके आश्रयीभूत स्रोतोंके मुखोंको ढककर स्थित होतेहैं । फिर यह मनुष्य जो २ पदार्थ खासाहै उससे मल और मूत्रकी ही वृद्धि होतीहै और अन्य शरीरके धातुओंकी वृद्धि नहीं होती और धातुएं क्षीण होकर केवल मलही अधिक. निकलता जाताहै ॥ १६ ॥
तस्माच्छुष्यतोविशेषणपुरीषमनुरक्ष्यम्,तथासर्वेषामत्यर्थकृश- . दुर्वलानाम् । तस्यानाप्याय्यमानस्यविषमाशनोपचितादोषाः पृथक्पृथगुपद्रवैर्युञ्जतोभूयःशरीरमुपशोषयन्ति ॥ १७॥ क्योंकि मलकी अधिक प्रवृत्ति होने से शरीर स्थिर नहीं रह सकता । इसलिये संपूर्ण कृश और दुर्बल मनुष्यके मलकी रक्षा करनी चाहिये । उस विषमाशन करनेवाले मनुष्यके शरीरमें मलकी रक्षा न करनेसे और अन्य धातुओंको पुष्ट करनेका उपाय न करनेसे वह वातादि दोष फिर अलग २ उपद्रवोंको करतेहुए शरीर में शोषरोग उत्पन्न करतेहैं ॥ १७ ॥
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६.४७६) चरकसंहिता--भा० दी। तत्रवातःशूलमङ्गमर्दकण्ठोद्धंसनपार्श्वसंरोजनमंसावमर्दनस्वरभेदप्रतिश्यायञ्चोपजनयति । पित्तंपुनज्वरमतीसारसान्तर्दाहञ्चश्लेष्माप्रतिश्यायंशिरसोगुरुत्वंकासमरोचकञ्च ॥१८॥ उनमें वायु कोपको प्राप्त होकर शूल, अंगमर्द, कण्ठका बैठना, दोनों पावोंमें पीडा, मांसभा क्षय होना, स्वरभङ्ग और प्रतिश्यायको उत्पन्न करता है । एवम् पित्त कुपित होकर ज्वर, अतिसार और देहमें अंतर्दाह इनको उत्पन्न करताहै तथा कफ कुपित होकर प्रतिश्याय, शिरका भारीपन,खांसी और अरुचिको उत्पन्न करताहै१८
स कासप्रसादुरसि क्षते शोणित ष्ठीवति । शोणितगमनाचास्य दौविल्यमुपजायते । एवमेते विषमाशनोपचिता दोषा राजयक्ष्माणमभिनिर्वर्त्तयन्ति ॥ १९॥ . फिर खांसी होनेके कारण छातीमें घाव उत्पन्न होकर रक्त थूकमें आनेलगताहै। उस रक्तके निकलनसे मनुष्यके शरीरमें दुर्वलता उत्पन्न होजातीहै । इस प्रकार विषमाशनसे संचित हुए दोष राजयक्ष्माको प्रकट करते हैं ॥ १९ ॥
. विषमाशनशोषमें कर्तव्यता। • सतैरुपशोषणैरुपद्रवरुपद्रुतःशनैःशनैरुपशुष्यति । तस्मात्
पुरुषोमतिमान प्रकृतिकरणसंयोगराशिदेशकालोपयोगसंस्थोपशयादविषमाहारमाहरोदिति ॥ २०॥ फिर वह मनुष्य उनः शोषणकर्ता उपद्रवों द्वारा धीरे २ सूख जाताहै । इसलिये बुद्धिमान् मनुष्यको प्रकृति, करण, संयोग, राशि, देश, काल, उपयोग, संस्था, एवम् उपशय इनसे अविपरीत अर्थात् इनके अनुकूल भोजन करना चाहिये ॥२०॥
__ तत्र श्लोकः । ... हिताशी स्यान्मिताशी स्यात् कालभोजी जितेन्द्रियः। पश्य. नरोगान् बहून् कष्टान बुद्धिमान् विषमाशनादिति ॥ २१॥
यहांपर एक श्लोक है कि बुद्धिमान् मनुष्यको हितभोजी, मितभोजी, कालभोजी एवम् जितेन्द्रिय होनाचाहिये । क्योंकि विषमाशनसे अनेक प्रकारके कष्ट उत्पन्न होतेहैं ॥ २१॥
राजयक्ष्मानामका कारण । एतैश्चतुर्भिः शोषस्यायतनैरभ्युपसेवितैर्वातपित्तश्लेष्माण एव
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निदानस्थान-अ० ६.
(४७७) प्रकोपमापद्यन्ते । ते प्रकुपितानानाविधैरुपद्रवैः शरीरमुपशोषयन्ति । तं सवरगाणां कष्टतमंमत्वा राजयक्ष्माणमाचक्षते भिषजः । यस्माद्वा पूर्वमासीद्भगवतःसोमस्योडुराजस्य तस्माद्राजयक्ष्मेति ॥ २२॥ इस प्रकार इन चार शोषरोगके कारणोंको सेवन करनेसे वात, पित्त, कफ यह तीनों कोपको प्राप्त होतेहैं । वह कोपको प्राप्त हुए अनेक प्रकारके उपद्रवों द्वारा शरीरको सुखा देतेहैं । इसलिये सब रोगों में कष्टतम इस रोगको जानकर वैद्यलोग राजसूक्ष्मा कहतेहैं । अथवा तारागणोंके पति. भगवान् चन्द्रमाके शरीरंमें यह रोग पहिहं हुआ था इसलिये भी इस शोषरोगको राजयक्ष्मा कहते हैं ॥ २२ ॥
राजयक्ष्माके पूर्वरूप। तस्येमानिपूर्वरूपाणि । तद्यथा--प्रतिश्यायःक्षवथुरभीक्ष्णश्ले.
मप्रसेकोमुखमाधुर्य्यमनन्नाभिलाषोऽनकालेचायासोदोषदर्शनमदोषदर्शनमदोषेष्वल्पदोषेषुवाभावेषुपात्रोदकानसूपापूपोपदंशपरिवेशकेषुभुक्तवतोहल्लासस्तथोल्लेखनमाहारस्यान्तरा. न्तरामुखपादस्यशोषःपाण्योरवेक्षणमत्यर्थमक्ष्णोः श्वेतताबाहो. प्रमाणजिज्ञासास्त्रीकामतातिघृणित्वंबीभत्सदर्शनताचकाये स्वप्नेहिअभीक्ष्णंदर्शनमनुदकानामुदकस्थानांशून्यानाञ्चग्राम- . नगरनिगमजनपदानांशुष्कदग्धभग्नानाञ्चवनानांकृकलासमयूरवानरशुकसर्पकाकोलूकादिभिःसंस्पर्शनमधिराहणंवाअश्वोष्ट्रखरवराहैर्यानञ्चकेशास्थिभस्मतुषाङ्गारराशीनाञ्चाधिरोहणमितिशोषपर्वरूपाणिभवन्ति ॥ २३॥ उस राजयक्ष्माके यह पूर्वरूप होतेहैं जैसे प्रतिश्याय छींक आना, निरन्तर कफ गिरना, मुखमें मीठापन, अन्नकी इच्छा न होना, अन्नके समय थकावटसी मालुम देना, दोषरहित वस्तुओंमें भी दोषोंका दिखाई देना अथवा थोडे दोष. वाली वस्तुओंमें भी अधिक दोष दिखाना और उनके सेवनसे अनिच्छा एवम पात्र, जल, अन्न, दाल, पिष्ट पदार्थ, चटनी एवम् मसाले आदि युक्त पदार्थ इन सबमें अनिच्छा, भोजनके पश्चात् सूखी छर्द होना और जो भोजन
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(४७८)
चरकसंहिता-भा० टी०। 'किया हो उसका वमनमें निकलना, बीचबीचमें मुख और.पैरोंका सुखना, हार्थोको नित्यप्रति. देखनेकी इच्छा होना, नेत्र सफेद होना, दोनों वाहोंके प्रमाण जाननेकी इच्छा होना एवम् स्त्रीकी · कामना होना तथा अत्यन्त धृणा, देहमें भयंकरताका होना स्वममें तालाव, सरोवर, नदी आदि जलाशयोंका जलरहित और सूखा हुआ देखना एवम् ग्राम,नगर,रास्ता.देश इन सबका सूखे हुए अथवा दग्ध होते हुए एवम् टूटे फूटे दीखना तथा वनोंको कटा हुआ देखना एवम् त्रिफला, मोर,बन्दर, तोता,सांप, कौआ,उल्लू, इनका स्वममें स्पर्श करना और घोडा, ऊंट, गधा, तथा सूअर युक्त सवारीमें बैठना और केश, अस्थि, भस्म, तुष, अंगार इनकी ढेरोंपर चढना ऐसा स्वममें दीखना यह सव शोषरोगके पूर्वरूप हैं ॥ २३ ॥
राजयक्ष्माके रूप ।। अतऊर्द्धमेकादशरूपाण। तद्यथा-शिरसःप्रतिपूरणं कासः ।। श्वासःस्वरभेदःश्लेष्मणश्छदनं शोणितष्ठीवन पार्श्वसंरोजन अंसावमदोज्वरःअतीसारस्तथा अरोचक इति ॥ २४ ॥ ।
अब शोषरोगके ग्यारह प्रकारके रूपोंका कथन करते हैं। जैसे, मस्तकका बहुत भारी होना अथवा पीडायुक्त होना । खांसी, स्वरभेद, कफका गिरना, श्वास, थूकमें रुधिरका आना, पसलियोंमें पीडा तथा कन्धोंमें पीडा, ज्वर, अतिसार और अरुचि ॥ २४॥
तत्रापरिक्षीणमांसशोणितोबलवानजातारिष्टःसर्वैरपि शोष. लिरुपद्रुतःसाध्यो ज्ञेयः॥२५॥
अव साध्य असाध्यको कहते हैं । जिस मनुष्यके शरीरमें मांस और रक्त क्षीण न हुए हों और स्वयं बलवान् हो तथा मरणख्यापक लक्षण न हों वह शोष-रोगी शोषरोगके लक्षणयुक्त होनेपर भी साध्य होता है ॥ २५ ॥
बलवर्णोपचयोपचितो हि सहिष्णुत्वाद्वयाध्योषधबलस्य काम बहुलिङ्गोऽप्यल्पलिङ्ग एवमन्तव्यः ॥ २६ ॥ जो मनुष्य बल और वर्णसे युक्त हो एवम् व्याधि तथा औषधीके बलको सहन करसकता हो ऐसे मनुष्यके शरीरमें राजयक्ष्माके सम्पूर्ण लक्षण मिलने पर भी वह साध्य होता है ॥ २६ ॥
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निदानस्थान-अ०७. (४७९) दुर्बलन्त्वतिक्षीणमांसशोणितमल्पलिंगमध्यजातारिष्टमापिबहुलिङ्गमेवविद्यादसहत्वाद्वयाध्यौषधवलस्य त परिवर्जयेत् ॥२७॥ यदि रोगी दुर्बल हो तथा उसके रक्त और मांस क्षीण होगये हों वह मनुष्य अरिष्टकारक सब लक्षण न होनेपर भी असाध्य जानना चाहिये । उसको व्याधि और औषधीका वल न सहन करनेवाला देखकर त्याग देना चाहिये ।। २७॥ क्षणेनहिप्रादुर्भवन्त्यरिष्टानि । अन्यनिमित्तश्चारिष्टप्रादुर्भाव इति ॥२८॥ इस प्रकार राजरोगमें क्षणमात्रमें अरिष्टकारक सुव लक्षण प्रगट होजातेहैं तथा अन्य कारणोंसे भी अरिष्टकारक लक्षण उत्पन्न होते हैं ॥ २८॥
तत्रश्लोकः। · समुत्थानश्च लिङ्गञ्च यः शोषस्यावबुध्यते।
. पूर्वरूपञ्च तत्त्वेन सराज्ञः कर्तुमर्हति ॥२९॥ इति चरकसंहितायां निदानस्थाने शोषनिदानं समाप्तम् ॥६॥
अब यहां अध्यायकी पूर्तिमें एक श्लोक है । शोषरोगके कारण, लक्षण और पूर्वरूप इन सबको जो वैद्य विधिपूर्वक जानता है वही राजाओंकी (राजयक्ष्माकी)
इति श्रीमहापाग्य है । सधपूर्वक जानता है
इति श्रीमहार्पचरक निदान० पं०रामप्रसादवैद्य० भापाटीकायां शोपरोगनिदान
नाम पठोऽध्यायः ॥६॥
सप्तमोऽध्यायः ।
अथोन्मादनिदानव्याख्यास्याम इति हस्माहभगवानात्रेयः। अव हम उन्मादके निदानकी व्याख्या करते हैं । इस प्रकार भगवान् आत्रे यजी कथन करनेलगे।
उन्मादके भेद। इह खलु पञ्च उन्मादाभवन्ति ।तद्यथा-वातपित्तकफसन्निपातागन्तुनिमित्तास्तत्र दोषनिमित्ताश्चत्वारः ॥ १॥ मनुष्यके शरीरमें उन्माद रोग पांच प्रकारसे होताहै । वातसे, पित्तसे, कफसे, सन्निपातसे और आगन्तुक कारणोंसे ॥१॥
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( ४८० )
चरकसंहिता - भा० टी० ।
:
उन्मादरोगी पुरुष | पुरुषाणामेवंविधानां क्षिप्रमभिनिर्वर्त्तन्ते । तद्यथा-- भीरून णामुपक्लिष्टसत्त्वानामुत्सन्नदोषाणाञ्चमलविकृतोपहितान्यनुचितानि आहारजातानि वैषम्ययुक्तेनोपयोग विधिनोपयुञ्जानानां तत्र प्रयोगंवा विषममाचरतामन्यां वा चेष्टांविषमांसमाचरतामत्युपक्षीणदेहानाञ्च व्याधिवेगसमुद्भ्रमितानामुपहतमनसांवाकामक्रोध लोभ हर्ष भयशोकचिन्तोद्वेगादिभिः पुनरभिघाताभ्याहतानांचामनसिउपहतेबुद्धौचप्रचलितायामभ्युदीर्णादोषाः प्रकुपिता हृदयमुपसृत्यमनोवहानि स्रोतांसिआवृत्यजनयंतिउन्मादम्| उन्मादपुनर्मनोबुद्धिसंज्ञाज्ञानस्मृतिभ- . क्तिशालचेष्टाचारविभ्रमविद्यात् ॥ २ ॥
:
वह उन्माद रोग इस प्रकारके पुरुषों के शररिमें शीघ्र उत्पन्न होते हैं । जो मनुष्य . अधिक डरपोक हैं, जिनका सत्त्वगुण बिगड गया हो, जिनके शरीरमें वात, पित्त, कफ यह अत्यन्त बढे हों। जिनके मल बिगडे हुए हों जिनके अनुचित आहारके करनेसे एवम् विषमभोजनके करनेसे तथा पूर्वोक्त विधिसे विपरीत रीतिपर भोजन करने से अथवा विषम चेष्टाओंके करनेसे शररिमें दोष कुपित हुए हों । जिस मनुष्यका शरीर क्षीण होगया हो अथवा व्याधिके वेगसे व्याकुल हो, जिसका चित्त काम, क्रोध, लोभ, हर्ष, भय, शोक, चिन्ता और उद्वेग अन्य गद आदिसे व्याकुल हो अथवा दिमाग आदि स्थानमें चोट लगी हो । ऐसे ऐसे कारणोंसे मनुष्यका मन उपहत होकर बुद्ध चलायमान होजाती है । उस समय बढे हुए दोष कुपित होकर हृदयमें प्रवेश कर मनके बहनेवाले छिद्रोंको रोककर उन्मादरोगको उत्पन्न करते हैं । उस उन्मादके होनेसे - मन, बुद्धि, संज्ञा, ज्ञान, स्मृति, भक्ति, शील, चेष्टा तथा आहार इन सबमें विभ्रम होजाता है ॥ २ ॥
११
उन्मादके पूर्वरूप |
तस्येमानि पूर्वरूपाणि । तद्यथाशिरसः शून्यभावः चक्षुषोराकुलतास्वनःकर्णयोरुच्छ्रासस्याधिक्यमास्य संस्रवणमनन्नाभिला
षोऽरोचकाविपाको हृदयग्रहोध्यानायाससम्मोहाद्वेगाश्चास्थाने सततं लोमहर्षोज्वरश्वाभीक्ष्णमुन्मत्तचित्तत्व मुदर्दितत्वमर्दिता
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निंदानस्थान-अ० ७. (४८३) रुतिकरणञ्चव्याधेः । स्वनेचदर्शनमभीक्ष्णंभ्रान्तचलितावस्थितानवस्थितानाश्चरूपाणामप्रशस्तानाञ्चतिलपीडकचक्राधिरोहणंवातकुण्डलिकाभिश्चोन्मथनंनिमज्जनंकलुषाणासम्भसामावत्तेषु चक्षुषोश्चापसर्पणामति दोषनिमित्तानामुन्मादानांपूर्वरूपाणि ॥ ३॥
उस उन्माद रोगके यह पूर्वरूप होतेहैं । जैसे-शिरका शून्य होजाना, नेत्रोंका व्याकुल होना,कानोंमें शब्दका होना, ऊपरको श्वास लेनेकी अधिकता होना,मुखसे लारका बहना,अन्नसे द्वेष,अरुचि, अविपाक,हृदयका रुकना,विना किसी कारणके ध्यानसा लगा रहना,शरीरमें थकावट प्रतीत होना एवम् संमोह, उद्वेग, निरन्तर रोमोंका खडा होना,ज्वर हरसमय उन्मत्त चित्त होना,उदर्दरोग होना,अदितवायुसे पीडित हुए मनुष्यकीसी आकृति बनाये रखना, स्वप्नमें निरन्तर भूलेहुएसा तथा चलित और अतिचंचल तथा अधिक भयानक रूपोंको देखना । अपने आपको तेलीके कोल्हूपर चढेहुए देखना, वात कुण्डलिका (मूत्रकी विमारी )रोगसे पीडित होना, विगडे हुए जलोंके चक्रमें अपनेको डूबतेहुए देखना, नेत्रोंका चलायमान होजाना यह सव उन्माद रोगके पूर्वरूप होतेहैं ॥ ३ ॥ .
उन्मादकी पहिचान । . • ततोऽनन्तरमुन्मादाभिनिवृत्तिस्तत्रेदमुन्मादविज्ञानं भवति ।
तद्यथा-परिसर्पणमक्षिभ्रुवामोष्ठांसहनुहस्तपादविक्षेपणामक.. स्मात् अनियतानाञ्च सततं गिरामुत्सर्गःफेनागमनमास्थात् .
स्मितहसितनृत्यगीतवादित्रादिप्रयोगाश्चास्थाने, वीणावंशश. वशम्यातालशब्दानुकरणम् असाम्ना । यानमयानरलंकरणमलंकारिकैव्यैलोभोऽभ्यवहार्येष्वलब्धेषु । लब्धेषुचावमानस्तीनं मात्सयं काश्य पारुष्यमुत्पिण्डतारुणाक्षता. वातोपशयविपर्यासादनुपशयिता चति वातोन्मादलिङ्गानि भवन्ति ॥४॥ उसके उपरान्त उन्मादंरोग प्रगट होजाताहै सो उसके लक्षणविशेषोंका कथन करतेहैं । जैसे नेत्र और भौंका चलायमान होना, वह रोगी अकस्मात होठ, कंधा, ठोडी, हाथ और पांव इनको हिलावे, सदैव अंटसंट बकवाद करे,मुखसे झाग गिरे।
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८.४८२) चरकसंहिता-भा० टी०॥ हर एक जगह विना ही किसी प्रसंगसे मुस्कुराना, हंसना, नाचना, गाना, मुख तथा हाथोंसे बाजे बजाना एवम् वीणा,वांसुरी,शंख,शम्या,ताल,शब्द आदि मुखसे बाजे बजाना अर्थात् असंबद्ध स्वर करना, कुत्ते, गधे आदिकोंपर तथा लकडी पत्थर आदिपर संवारी करना एवम् लकडी,पत्थर,जूते आदिके आभूषण पहिनंना, जो चीजें मिल न सकें उनके लिये इच्छा करना, मिलहुए भोजनादिक पदार्थोंको अपमानित करना; बहुत मत्सरता, कृशता, कठोरपन यह सव होना, नेत्रोंको ऊपरको चढायेरखना तथा नेत्रोंका लाल रंग होना,वातनाशक द्रव्योंसे उपद्रवोंका शान्त होना और वातकारक द्रव्योंसे रोगका बढना यह लक्षण वातजनित उन्माद रोगके होतेहैं ॥४॥
पित्तोन्मादके लक्षण । अमर्षःक्रोधःसरम्भश्चास्थानेशस्त्रलोष्टकाष्ठमुष्टिभिरभिद्रवणं स्वेषांपरेषांवाप्रच्छायशीतोदकान्नाभिलाषःसन्तापोऽतिवेलः । ताम्रहरितहारिद्रसंरब्धाक्षतापित्तोपशयाविपर्यासादनुपशयिताचेतिपित्तोन्मादलिंगानिभवन्ति ॥५॥ किसीकी बातको न संहना, क्रोध, गर्व करना, विना कारण शस्त्र, मट्टीका डला, लकडी लेकर अथवा मुक्की बांधकर किसीके पीछे दौडना, अपने और पराये मनुष्योंको मारना, शीतलछाया, शीतलजल शीतल अन्न इनकी अभिलाषा होना, शरीरमें अधिक संताप रहना, नेत्र ताम्रवर्णके अथवा हरे वा हल्दीके समान पीले वर्णके हों तथा टेटे और विक्षिप्तसे दिखाईदें एवम् काधयुक्त प्रतीत हों। पित्तनाशक द्रव्योंद्वारा शान्ति प्राप्त हो और पित्तकारक द्रव्योंद्वारा रोगकी वृद्धि हो यह पित्तजानत उन्मादके लक्षण हैं ॥ ५॥ .
कफोन्मादके लक्षण । स्थानमेकदेशतूष्णीम्भावोऽल्पंशश्चंक्रमणलालाशिंघाणकप्रस्त्रवणमनन्नाभिलाषोरहस्कामताबीभत्सत्वशाचद्वेषःस्वल्पनिद्रताश्वयथुराननेशुक्लस्तिमितमलोपादिग्वाक्षताश्लेष्मोपशयवि'पोसादनुपशयिताचेतिश्लेष्मोन्मादलिङ्गानिभवन्ति ॥६॥ किसी एक स्थानमें चुपचाप बैठे रहना, इधर उधर बहुत थोडा फिरना, मुखसे लार और नाकसे मलका अधिक गिरना,अन्नमें रुचि न होना, एकान्तमें बैठेरह: नेकी इच्छा होना,शरीरकी आकृतिकी भयानक होना, शुद्धता बुरी मालूम होना,
ताचेतिपित्तोन्मादा क्रोध, गर्व करना, पाछे दौडना,अपने
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निदानस्थान-अ०७ थोडी २ नोंदका आना, मुखपर सूजन होना और नेत्रोंका श्वेत, गिलेगिल, मलयुक्त होमा। देहका गीलासा तथा मलयुक्त रहना कफकारक द्रव्योंसे रोगका बढ़ना
और कफनाशक द्रव्योंसे रोगका शान्त होना । यह लक्षण कफजनित उन्मा: 'दके हैं ॥ ६॥
त्रिदोषलिङ्गसन्निपातेतत्सानिपातिकविद्यात्। ।
तमसाध्यामत्याचक्षतकुशलाः ॥७॥ वात, पित्त, कफ इन तीनों दोषोंके लक्षण एकसाथ मिलनेसे सन्निपातजानित उन्माद जानना । इस उन्मादको वैद्यलोग असाध्य कथन करतेहै ॥ ७॥.
साध्योंकी उपक्रमणावधि । साध्यानान्तुत्रयाणांसाधनानिभवन्ति । तद्यथा-स्नेहस्वेदवमनविरेचनास्थापनानुवासनोपशमननस्तःकर्मधूपधूमपानाञ्ज
नावपीडप्रधमनाभ्यङ्गप्रदेहपरिषेकानुलेपनवधबन्धनावरोधन. वित्रासनविस्मापनविस्मारणापतर्पणशिराव्यधनानि ॥८॥.
सन्निपातके सिवाय और वातादि दोषसे उत्पन्न हुए तीन प्रकारके उन्माद साध्य होतहैं । सो उनके यलॉको कथन करतेहैं। उनका क्रम यह है कि उन्माद रोगमें वातादि दोष भेद विचारकर स्नेहन, स्वेदन, वमन, विरेचन, आस्थापन,अनुवासन, उपशमन, नस्यकर्म, धूपन, धूम्रपान, अंजन और पीडन, प्रधमन, अभ्यंग, प्रदेह, “परिषेक, अनुलेपन, प्रहार, बंधन, अवरोधन,वित्रासन, विस्मयोत्पादन, विस्मारण, अपतर्पण, शिरावधन यह सब उचित रीतिपर यल करना चाहिये ॥८॥
भोजनविधानञ्चयथास्वंयुक्त्यायच्चान्यदपिकिञ्चिन्निदानविपरीतमौषधकार्यतत्स्यादिति ॥९॥ तथा दोषके.अनुसार युक्तिपूर्वक आहार विधिका सेवन कराना एवम् अन्य भी दोषको शान्त करनवाले जो उपाय प्रतीत हों उनको करनी चाहिये ॥९॥
तत्र श्लोकः।। उन्मादानदोषजानसाध्यानसाधयेद्भिषगुत्तमः ।
अनेन विधियुक्तनकर्मणायत्प्रकीर्तितमिति ॥ १०॥ यहां एक श्लोक है कि वात, पित्त, कफसे उत्पन्न हुए उन्माद रोगोंको बुद्धिमान वैध उपरोक्तविधि और क्रियाके अनुसार साधन करे अर्थात् साध्य उन्मादरोगोंको शान्त करे ॥ १०॥
अनेनविधियुक्तनत, पित्त, कफसे उत्पनर अर्थात् साध्य
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चरकसंहिता - भा० टी० १
आगन्तुकउन्माद के लक्षण । यस्तुदोषनिमित्तेभ्यउन्मादेभ्यः समुत्थान पूर्व रूप लिङ्गवेदनोपशयविशेषसमन्वितोभवतिउन्मादस्तमागन्तुमाचक्षते ॥ ११ ॥ जिस उन्माद रोग में वातादि दोषोंके लक्षणोंसे अन्य प्रकारके कारण, पूर्वरूए और रूप मिलते हों उसको आगन्तुज उन्मादरोग जानना ॥ ११ ॥ आगन्तु उन्मादकी उत्पत्तिमें भिन्नमत ।
केचित्पुनः पूर्वकृतं कर्मा प्रशस्तामिच्छन्ति । तस्यनिमित्तंप्रज्ञापराधएवेतिभगवान् पुनर्वसुरात्रेय उवाच ॥ १२ ॥ प्रज्ञापराधाद्धिअयंदेवर्षिपितृगन्धर्वयक्षराक्षस पिशाच गुरुवृद्धसिद्धाचार्य्यपूज्यानवमत्याहितानिआचरतिअन्यद्वाकिञ्चित् कर्मा प्रशस्त
मारभते ॥ १३ ॥
कोई कहते हैं कि : पूर्वजन्म के किये हुए पापही मनुष्यके उन्माद रोग के कारण होते हैं । भगवान् आत्रेयजी कहने लगे कि हे अग्निवेश ! उन्मादरोग के उत्पन्न होने में बुद्धका ही दोष है क्योंकि बुद्धिका दोष ही संसारमें देवता, ऋषि, पितर, गंधर्व, यक्ष, राक्षस, पिशाच गुरु, वृद्ध, सिद्ध, आचार्य और पूज्योंका अपमान कराकर उनसे अहित आचरण कराता है तथा अन्य भी जो कुछ निंदनीय कर्म हैं उनके करानेवाला होता है ॥ १२ ॥ १३ ॥
आगन्तु उन्माद के पूर्वरूप । तमात्मनोपहतमुपघ्नन्तोदेवाः कुर्वन्त्युन्मत्तम् । तत्रदेवादिप्रकोपनिमित्तेनागन्तुकोन्मादेन पुरस्कृत स्यइमानि पूर्वरूपाणि तिद्यथादेवगोब्राह्मणतपस्विनांहिंसारुचित्वं कोपनत्वंनृशंसाभिप्रायताअरतिरोजोवर्णच्छायाबलवपुषाञ्चोपतातः । स्वचदेवा - दिभिरभिभर्त्सनंप्रवर्त्तनञ्चेतिआगन्तुनिमित्तस्यउन्माद स्यपूर्वरूपाणि भवन्तिततोऽनन्तरमुन्मादाभिनिवृत्तिः ॥ १४ ॥
इसलिये क्रोधितहुए देवता उस हतबुद्धि मनुष्यके शरीर में उन्मादरोगको उत्पन्नकरते हैं । सो उस देवादि प्रकोप से उत्पन्न हुए उन्माद रोग के यह पूर्वरूप होतेहैं जिसे देवता, गौ, ब्राह्मण, तपस्वी इनको मारनेकी इच्छा होना, तथा इनमें रुचि होना, एवम् इनपर क्रोध होना और निदनीय लज्जारहित कमाँके करने की इच्छा होना,
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निदानस्थान - अ० ७.
(४८७) चित्तका कहीं न लगना, ओज, वर्ण, कांति, वल इन सबका नष्ट होना, शरीरक तपायमान रहना, सममें देवता आदि उसको बहुत डरावें और बुरे शब्द कहें । यह आगन्तु उन्मादरोग पूर्वरूप हैं। इसके उपरान्त उन्मादरोगके लक्षण प्रगट होजाते हैं ॥ १४ ॥
उन्मादोत्पत्तिसे पूर्वचेष्टा ।
तत्रायमुन्मादकराणां भूतानामुन्मादयिष्यतामारम्भविशेषःतयथा - अवलोकयन्तोदेवाजनयन्तिउन्मादम् । गुरुवृद्धसिद्धर्षयोऽभिशपन्तः पितरो धर्षयन्तः। स्पृशन्तो गन्धर्वाः । समावि - शन्तोयक्षराक्षसास्त्वामगंधमाघ्रापर्यंतःपिशाचाः पुनरधिरुह्य . वाहयंतः ॥ १५ ॥
आगन्तुक उन्माद प्रगट होने के समय उन्मादकारक देवादिकों के अलग २ प्रकार भेदसे उन्मादरोगका आरम्भ होता है। जैसे- देवता देखनेमात्रसेही उन्माद रोगको · उत्पन्न करते हैं । गुरु, वृद्ध, सिद्ध और ऋषि इनके शाप देनेसे उन्माद रोग होता है। . पितरोंके डरानेसे उन्माद रोग होता है । गंधर्व शरीरको स्पर्शकर उन्मादको उत्पन्न 'करते हैं । यक्ष, राक्षस शरीर में प्रवेश होकर उन्मादको उत्पन्न करते हैं । पिशाच देहमें आमगंधको सूंघकर और शरीर के ऊपर चढकर उन्माद रोगको उत्पन्न करते हैं १५ ॥ उन्मादके रूप ।
तस्येमानि रूपाणि । तद्यथा अमर्त्यबलवीर्य्य पौरुषपराक्रमग्रहणधारणस्मरणज्ञानवचनविज्ञानानि अनियतश्चोन्मादका
लः ॥ १६ ॥
उस उन्माद रोगके यह लक्षण होते हैं। जो मनुष्यों में न हों, उस प्रकारके अर्थात् अमानुषीय- वल, वीर्य, पराक्रम, पौरुष, ज्ञान और विज्ञान यह सब उस मनुष्यके शरीरमें उन्मादके समय उत्पन्न हो जांय तथा उस उन्मादके होनेका कोई नियत -समय न हो ॥ १६ ॥
आघातकाल |
उन्मादायेष्यतामपिखलुदेवर्षिपितृगंधर्वयक्षराक्षसापशाचानां गुरुवृद्धसिद्धानां वाएषुअन्तरेषुअभिगमनीयाः पुरुषा भवंति तद्यथा- पापस्य कर्मणः समारम्भेपूर्वकृतस्यवाकर्मणः परिणा
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९.४८ .४/८०४ )
चरकसंहिता - भा० टी० ।
मकालेएकस्यवाशून्यगृहवासेचतुष्पथाधिष्ठाने वासन्ध्यावेलायामप्रयतभावेवापर्वसंधिषुवामिथुन भावेरजस्वलाभिगमनें वाविगुणेवाध्ययनबलिमङ्गल होम प्रयोगनियमत्रतब्रह्मचर्य्यभङ्गेवामहाहवेवादेश कुलपुरविनाशेवा महाग्रहोपगमनेवास्त्रियाः प्रजननका लेविविधभूताशुभाशुचिस्पर्शने वावमन विरेचनरुधिरस्त्राववाशुचेरप्रयतस्यवाचैत्यदेवायतनाभिगमनेवामांसमधु
थोपवनश्मशानायतनाभिगमनेवाद्विजगुरुसुरपूज्याभिधर्षणें
तिलगुडमद्योच्छिष्टवादिग्वासासवा निशिनगरनिगमचतुष्प
वाधर्माख्यानव्यतिक्रमेवाअन्यस्य कर्मणोऽप्रशस्तस्यारम्भेवाइ
त्याघातकालाः ॥ १७ ॥
}
• उन्मादके करनेवाले देवता, ऋषि, पितृगण, गंधर्व, यक्ष, राक्षस, पिशाच इनका तथा गुरु, वृद्ध, सिद्ध इनका भी उन्मादके उत्पन्न करनेका समय होता है. अर्थात् यह सब भी मनुष्य में किसी प्रकारका छिद्र पाकर ही उन्माद रोगको उत्पन्न करते हैं । इनके कुपित होनेके यह समय होते हैं । पापकर्मके करनेसे अथवा पूर्वजन्मके किये पापें के फलसे - शून्य घर में अकेला देखकर, चौराहे में, दोनों संध्याओंके समय, बिना काम कहीं खाली बैठे हुए, पर्वके समय, अपवित्र समय, मैथुन के समय अथवा रजस्वलासे गमन करने के समय, या पर्वसंधियों में स्त्रीगमनके समय, अथवा पढने, बलिदान करने एवम् मंगल तथा होम कर्म करने के समय किसी प्रकारका उपद्रव कर लेनेसे, नियम, व्रत और ब्रह्मचर्यं इनमें किसी प्रकारको विगुणता होजानेके समय, घोर युद्धमें अथवा देश, कुल और नगर के विनाशके समय या किसी ग्रहण आदि महाग्रह कें आगमन के समय, स्त्रियोंके प्रसूत कालके समय एवम् अनेक प्रकारके भूत तथा अपवित्र स्पर्शके समय अथवा वमन तथा रुधिरके स्रावके समय एवम् अपवित्रावस्था में तथा बेसमय पीपल आदि देवता के वृक्ष तथा देवमंदिरमें प्रवेश करनेसे अथवा उच्छिष्ट, मांस, मधु, तिल, गुड, मद्य इनके सेवन से बिलकुल नंगा रहनके समय, रात्रि में, रास्ते में, चौराहे में, आंधी में एवम् स्मशानमें अकेला हाके समय, धर्म की मर्यादा के बिगाडनेसे अथवा अन्य कोई निंदित कर्म करने के समय उपरोक्त देवतादि आघात पाकर उन्माद रोगको उत्पन्न
"
करते हैं ॥ १७ ॥
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निदानस्थान-अ० ७. (४८७)
भूतादिकृत उन्मत्तताके तीन प्रयोजन । · त्रिविधन्तुखलुउन्मादकराणांभूतानामुन्मादनेप्रयोजनंभवति । तद्यथा--हिंसारतिरभ्यर्चनश्चेति तेषांतत्प्रयोजनमुन्मत्ताचरणविशेषलक्षणैर्विद्यात् । तत्राहँसार्थमुन्माद्यमानोऽ. निप्रविशतिअप्सुवानिमज्जतिस्थलात्श्वभ्रेवानिपतति । शत्रकशाकाष्ठलोष्टमुष्टिभिर्हन्त्यात्मानमन्यञ्चप्राणवधार्थमारभते । हिंसार्थिनमुन्मत्तमसाध्यविद्यात् । साध्योपुनःविवरौ ॥१८॥
उन्मादकारक देवताओंका उन्मादरोग उत्पन्न करनेमें तीन प्रकारका प्रयोजन है। १ हिंसा २ अराति ३ अभ्यर्चन । इन तीनों प्रयोजनोंको उन्मत्त मनुष्यके आचरणोंसे जाना जासकताहै उनमें हिंसा अर्थात् मनुष्यके पापकर्मसे कुपित हुए देवादि जब उसके (हिंसा-मारने) के लिये उन्मादरोगको उत्पन्न करतेहैं तब वह मनुष्य अग्निमें प्रवेश करे अथवा जलमें डूब मरे या ऊंचे स्थानसे नीचे गिर पडे अथवा किसी गढे आदिमें गिरे एवम् शस्त्र, कशा, काष्ठ, पत्थर, मुक्का आदिसे अपने प्राणोंको नष्ट करने लगे। इस प्रकार देवादिकोंसे हिंसाके लिये उन्मादित कियाहुआ मनुष्य असाध्य होताहै । अरति और अभ्यर्चनाके लिये जो दो प्रकारके उन्मादरोग हैं उनको साध्य जानना ॥ १८॥
साध्योंका वर्णन । तयोःसाधनानि । मन्त्रौषधिमणिमालबल्युपहारहोमनियमनतप्रायश्चित्तोपवासस्वस्त्ययनप्रणिपातगमनादीनिइतिएवमेतेपञ्चोन्मादाव्याख्याताभवन्ति ॥ १९॥ उन साध्य उन्मादोंको साधन करनेके यह उपाय हैं। जैसे-मंत्र, औषध, मणि,. मंगलकर्म, बलिदान, उपहार ( भोजनादि देना), हवन, नियम, व्रत, प्रायश्चित्त,. उपवास, स्वस्त्ययन (स्वस्तिवाचन आदि अथवा शान्तिकारक कर्म), प्रणिपातन (वंदना ) एवम् देवयात्रादि कर्म आगन्तुज उन्माद रोगकी शान्तिके लिये करना चाहिये । इस प्रकार पांच प्रकारके उन्मादका वर्णन कियागयाहै ॥ १९॥ .
उन्मादका विविधत्व । ते तु खलु निजागन्तुविशेषेणसाध्यासाध्यविशेषेण च प्रविभज्यमानाः पञ्च सन्तो द्वौ एव भवतः ॥ २० ॥
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५४८८)
चरकसंहिता-भा० टी०॥ वह उन्मादरोग निज और आगन्तुज भेदसे पांच प्रकारके और साध्य असाध्यके भेदसे दो प्रकारके होतेहैं ॥२०॥
तौ परस्परमनुबनीतः । कदाचिद्यथोक्तहेतुसंसर्गाच तयोः सं. सृष्टमेव पूर्वरूपं भवति संसृष्टमेवलिङ्गश्च । तत्र असाध्य. संयोगसाध्यासाध्यसंयोगवाअसाध्यंविद्यात् ।साध्यन्तुसाध्यसंयोगं तस्य साधनं साधनसंयोगमेवविद्यादिति ॥ २१ ॥ उन आगन्तुज और निज अर्थात् दोषज उन्मादोंका भी आपसमें संवन्ध होता है। निज और आगन्तुज कारणोंका संसर्ग होनेसे पूर्वरूपमें तथा लक्षणोंमें भी संसर्ग होजाताहै वह इस प्रकार निज और भागन्तुज उन्मादोंका संसर्ग हुआ असाध्य. साको प्राप्त होजाताहै एवम् साध्य और असाध्योंका संसर्ग होना भी असाध्य ही जानना चाहिये । इस प्रकार मिलेजुले निज और आगन्तुज उन्मादोंमें तथा साध्य और असाध्यों में चिकित्सा भी मिलीजुली करनी चाहिये ॥ २१ ॥
तत्र श्लोकाः। नैव देवा न गन्धर्वा न पिशाचा न राक्षसाः।
न चान्ये स्वयमक्लिष्टमुपक्लिश्यन्ति मानवम् ॥ २२ ॥ जो मनुष्य अपने पाप तथा दोषोंसे रहित होताहै उसके शरीरमें कोई देवता, गन्धर्व, पिशाच, राक्षस, आदि तथा अन्य भी कोई किसी प्रकारका उपद्रव नहीं करते ॥ २२॥
ये त्वेनमनुवर्तन्ते क्लिश्यमानं स्वकर्मणा । .
न तन्निमित्तः क्लेशोऽसौ न ह्यस्तिकृतकृत्यता ॥ २३ ॥ जो मनुष्य अपने पापकोसे कष्टको भोगतेहुए देवता आदिको दोष देतेहैं और अपने किये पापोंको अपने दुःखका कारण नहीं समझते वह संपूर्णरूपसे झूठे हैं और अपने कार्यकी कृतकृत्यताको प्राप्त नहीं होते ॥ २३ ॥ प्रज्ञापराधात् सम्प्राते व्याधौ कर्मजआत्मनः । नाभिशंसद्बुधोदेवान् न पितन् नापि राक्षसान् ॥ २४ ॥
अपनी बुद्धिसे अपराधसे किये हुए कुकोंके फलसे संकट प्राप्त होनेपर बुद्धिमान् मनुष्य देवता तथा पितृगण एवम् राक्षसादिकोंको दोष न देवें ॥ २४ ॥
आत्मानमेव मन्येत कर्तारं सुखदुःखयोः । . तस्माच्छेयस्कर मार्ग प्रतिपद्येत नोत्रसेत् ॥ २५ ॥
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निदानस्थान-अ० ७.
(४८९) बुद्धिमान्को उचित है कि अपनेको ही सुखदुःखका कारण माने । इसलिये कल्याणके करनेवाले मार्गपर चलता रहे । ऐसा करनेसे मनुष्य त्रासको प्राप्त नहीं होता ॥ २५॥
देवादीनामुपचितिर्हितानामुपसेवनम्।
न च तेभ्यो विरोधश्चसर्वमायत्तमात्मनि ॥ २६ ॥ हित वस्तुओंका सेवन करना एवम् हित आचरण रखना यही देवतादिकोंका 'यूजन है क्योंकि देवताओंको प्रसन्न रखना तथा उनसे विरोध उत्पन्न करना यह सव अपने ही आधीन होता है ॥ २६ ॥
संख्यानिमित्तं द्विविधं लक्षणं साध्यता न च । उन्मादानां निदानेऽस्मिन् क्रियासूत्रञ्चभाषितम् ॥ २७ ॥
इस उन्मादरोग निदान नामक अध्यायमें उन्मादरोगकी संख्या, कारण,उनके दोनों प्रकारों के लक्षण, साध्यता और असाध्यता तथा संक्षेपसे उनकी चिकित्साके क्रमका वर्णन किया है ॥ २७ ॥ इति श्रीमहर्षिचरकप्रणीतायुर्वेदीयसंहितायां पटियालाराज्यान्तर्गतटकसालनिवासिवैद्यपंचानन पं०रामप्रसादवैद्योपाध्यायविरचितप्रसादन्याख्यभापाटीकाया.
__ मुन्मादरोगनिदानं नाम सप्तमोध्यायः ॥७॥
अष्टमोऽध्यायः।
अथापस्मारनिदानं व्याख्यास्याम इति हमाह भगवानात्रेयः। अब हम अपस्मार रोगके निदानको कथन करते हैं । इस प्रकार भगवान् आत्रेयजी,कथन करनेलगे।
अपस्मारके भेद। . इह खलु चत्वारोऽपस्मारा वातपित्तकफसन्निपातनिमित्ताः१॥
इस शरीरमें अपस्माररोग चारप्रकारसे उत्पन्न होता है । जैसे वातसे, पित्तसे, कफसे एवम् सन्निपातसे ॥ १॥ ..
अपस्मारके योग्यपुरुष । ते एवंविधानां प्राण तांक्षिप्रमाभनिवर्तन्तोतद्यथा रजस्त
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(४९०) चरकसंहिता-भा० टी०।
मोभ्यामुपहतचेतसामुद्घान्ताविषमवहुदोषाणां समलविकतोपहितानि अशुचानि अभ्यवहारजातानि वैषम्ययुक्तेन उपयोगविधिनोपयुञ्जानानांतन्त्रप्रयोगसपिचविषममाचरतामन्याश्चशरीरचेष्टाविषमा:समाचरतामत्युपक्षीणदेहानांवादोषाःप्रकुपितारजस्तमोभ्यामुपहतचेतसामन्तरात्मनःश्रेष्ठतममायतनहृदयमुपसंगृह्यपर्यवतिष्ठन्तेतथाइन्द्रियायतनानितत्र चावस्थिताःसन्तोयदाहृदयमिन्द्रियायतनानिचोरताःकामक्रोधभयलोभमोहहर्षशोकचिन्ताद्वैगादिभिःभूयःसहसाअभिपूरयन्तितदाजन्तुरपस्मरति ॥ २॥ वह अपस्मार (मृगी) रोग ऐसे मनुष्योंके शरीरमें शीघ्र होताहै जिनका नीचे कथन करतेहैं । ऐसे रजोगुण और तमोगुणसे ढकेहुए चित्तवाले जिनके शरीरमें वातादिदोष उद्भ्रान्त अथवा विषम, या वढेहुए हों । जो मनुष्य आहार विधिको त्याग कर मलीन, बिगडाहुवा, गतरस, अपवित्र ऐसे २ आहारको करताहै । अथवा विषमभोजनको करताहै। जो शास्त्रीयविधिके प्रतिकूल अन्यान्य आहारविहारोंको करताहै। तथा अनेकप्रकारकी विषमचेष्टा करनेवाले एवम् क्षीणदेहवाले ऐसेर मनुष्योंके अमिरमें वातादि दोष कुपित हो अंतरात्माके श्रेष्ठस्थानरूप चित्तमें प्रवेश करतेह और उस चित्तको रजोगुण और तमोगुणसे उपहत (विगाड) कर स्थित रहतेहैं ।फिर उस मनुष्यके काम, क्रोध, भय, लोभ, मोह, हर्ष,शोक, चिंता, और उद्वेग आदिसे सहायता पाकरहृदय और इंद्रियोंके स्थानोंको सहसा पूरण कर अपस्माररोगको उत्पन्न करतेहैं ॥२॥
अपस्मारके लक्षण। अपस्मारंपुनःस्मृतिबुद्धिसत्त्वसप्तवाहीभत्सचेष्टमावस्थिकंतमः प्रवेशमाचक्षते ॥३॥ .. . स्मरणशक्ति,बुद्धि, सत्त्व, यह सब नष्ट होकरभयानक चेष्टाकी अवस्थारूप अंधः । कारमें प्रवेश होनेको अपस्मार (मृगी) रोग कहतेहैं ॥ ३ ॥
__ अपस्मारके पूर्वरूप। तस्येमानिपूर्वरूपाणिभवन्ति । तद्यथा--भ्रूव्युदासःसततमक्ष्णोर्वैकृतमशब्दश्रवणलालाशिंघाणकप्रस्त्रवणमनन्नाभ्यशन
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निदानस्थान-अ०८.
(४९१३ मरोचकाविपाकौहृदयग्रहःकुक्षेराटोपोदौर्वल्यमङ्गमदोंमोहस्त. मसोदर्शनमूर्छाभ्रमश्चाभीक्ष्णञ्चस्वप्नेमदनर्तनपीडनवेपनव्यधनपतनादीनिअपस्मारपूर्वरूपाणिभवन्तिततोऽनन्तरमपस्माराभिनिर्वृत्तिः॥४॥ उस अपस्माररोगके यह पूर्वरूप होतेहैं। जैसे-दोनों भृकुटियोंका संकोच,. नेत्रोंकी निरंतर विकृति (टेढसे रहना)कानोंमें शब्दसा सुनना, अथवा श्रवणशक्ति नष्ट होजाना, मुखसे लार बहना, नाकसे मैल गिरना, अन्नका न खाना, अरुचि, अविपाक, हृदयका रुकजाना, कूखका फूलना, दुर्बलता, अंगमर्द, मोह,अंधकार दर्शन, मूर्छा, भ्रम, सोते हुए मस्त होजाना, नाचना, दोनों हार्थोको मीजना,. कांपना, व्यथाका प्राप्तहोना, और गिर पडना, यह अपस्माररोगके पूर्वरूप हैं । इसके अनंतर अपस्माररोग प्रगट होजाताहै ॥४॥
वातज अपस्मारके लक्षण। तत्रेदमपस्मारविशेषविज्ञानंभवति। तद्यथा--अभीक्ष्णमपस्मरन्तं क्षणे क्षणे संज्ञा प्रतिलभमानमुत्पिण्डिताक्षमसाम्ना वा विलपन्तमुद्वमन्तं फेनमतीवाध्मातग्रीवमाविद्धशिरस्कं विषमविनतांगुलिमनवस्थितसक्थिपाणिपादमरुणपरुषश्यावनखनयनवदनत्वचमनवस्थितचपलपरुषरूक्षरूपदार्शनंवातलानुपशयं विपरीतोपशयं वातेनापस्मारवन्तंविद्यात् ॥ ५॥
अब अपस्मारके भेदोंके ज्ञानको कथन करतहैं वह इस प्रकार हैं । जिस मनु. ध्यको अपस्माररोग होताहो अथवा स्मरणशक्ति नष्ट होजाय और अपस्मार होनेके समय थोडी थोडी देरमें होश आजाताहो जिसके नेत्रकी पुतली सिकुडगईहो जो मनुष्य वकवाद करताहो एवम् मुखसे झाग निकालताहो तथा गर्दन फूली हुईसी हो मस्तक रुका हुआसा हो हाथोंकी अंगुलियें टेढी होगईहों तथा हाथपर अनवस्थित हों एवम् नख, नेत्र, मुख और त्वचा यह सव लाल कठोर और काले होगयेहों, मन चलायमान हो, सब , वस्तुयें चपल, कठोर और रूक्ष दिखाई देवें तथा वातकारक पदार्थोंसे रोगकी वृद्धि हो और वातनाशक पदार्थोंके सेवनसे शान्ति हो यह सब लक्षण वातजानित अपस्मारमें होतेहे ॥ ५॥
पित्तजअपस्मारके लक्षण । '' अभीक्ष्णमपस्मरन्तं क्षणे क्षणेसंज्ञाप्रतिलभमानमनुकूजन्त:
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(१९२) चरकसंहिता-भा० टी०। मास्फालयन्तं च भूमिहरितहारिद्रताम्रनखनयनवदनत्वचं रुधिरोक्षितोयभैरवप्रदीप्तरुषितरूपदार्शनं पित्तलानुपशयंविपरीतोपशयं पित्तेनापस्मारितविद्यात् ॥६॥ पित्तके अपस्मारमें निरन्तर अपस्मार रोगका होना क्षण २ पर होश आजाना, कण्ठसे कील्हनेकासा शब्द करना, हाथपैरोंको इधर उधर भूमिमें पटकना, नेत्र, नख, मुख, त्वचा इन सबका वर्ण हरा पीला तथा ताम्रवर्णका होना और उस मनुष्यको स्वममें अथवा अपस्मार रोग होनेके समय रक्तसे भरेहुए उग्र भयानक प्रकाशयुक्त, क्रोधित रूपोंका देखना तथा पित्तकारक द्रव्योंसे रोगका वढना एवम् पिचनाशक द्रव्योंसे शान्त होना।यह सब लक्षण पित्तजनित अपस्मारमें होतेहैं॥६॥
कफज अपस्मारके लक्षण । चिरादपस्मरन्तचिराच्चसंज्ञांप्रतिलभमानपतन्तसनतिविकृत
चेष्टलालामुद्वमन्तंशुक्लनखनयनवदनत्वचंशुक्लागुरुस्निग्धरूपदार्शनंश्लेष्मलानुपशयविपरीतोपशयंश्लेष्मणापस्मारितविद्या
त् ॥ ७॥ F- जिस अपस्माररोगमें देरदेरमें बेहोशी हो और देरमें ही संज्ञा प्राप्त हो पृथ्वीपर गिरते ही अत्यन्त विकृत चेष्टा न हो, मुखसे लार गिरतीहो, नख, नेत्र, मुख,त्वचा यह सब सफेद हों, रोगके समय श्वेत और भारीरूप दिखाई देतेहों अथवा सब वस्तुयें सफेद और भारी दीखती हों कफकारक वस्तुओंसे रोगकी वृद्धि हो और कफनाशक पदार्थोंसे शान्ति होतीहो । इन लक्षणोंसे युक्त अपस्मारको कफजनित अपस्मार जानना ॥७॥
सानिपातिक अपस्मारके लक्षण । समवेतसलिंगमपस्मारंसान्निपातिकविद्यात् । तमसाध्यमाचक्षते । इतिचत्वारोऽपस्माराः। तेषामागन्तुरनुबन्धोभवत्येव । कदाचित्सउत्तरकालमुपदेक्ष्यते । तस्यविशेषविज्ञानंयथाक्तैः लिङ्गलिङ्गाधिक्यमदोषलिंगानुरूपंकिञ्चिद्धितंतत्तुअपस्मारिभ्यस्तीक्ष्णानिचैवलंशोधनानिउपशमनानियथास्वमन्त्रादीनिचागन्तुसंयोगे॥८॥
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निदानस्थान - अ०८. -
( ४९३ )
तीनों दोषोंके लक्षणोंयुक्त अपस्मारको सान्निपातिक जानना । सन्निपातकेअपस्मारको असाध्य कथन करते हैं । इस प्रकार अपस्मारके चार भेद होते हैं । इन चारों प्रकारके अपस्मार होनेमें कोई भी आगन्तुक कारण अवश्य होता है । जिसका विषय चिकित्सा स्थानमें कथन किया जायगा । उस आगन्तुज अपस्मारको अन्य | अपस्मारोंके कथन किये हुए लक्षणोंसे विशेष लक्षणोंवाला तथा विशेषरूपसे प्रगट होनेवाला और दोषोंके लक्षणोंसे विचित्र लक्षणोंवाला होनेस जान लेना चाहिये । कि यह आगन्तुन अपस्मार है । इस प्रकार अपस्मारोंके लक्षणों को जानकर उनमें हित तथा तीक्ष्ण उपशमनों द्वारा चिकित्सा करनी चाहिये । आगन्तुज लक्षणके अनुबंध होनेपर मंत्रादिकोंसे शान्ति करनी चाहिये ॥ ८ ॥ रोगों की उत्पत्ति |
तस्मिन्नहिदक्षाध्वरोद्धंसे देहिनांनानादिक्षुविद्रवतामतिसरणपुवनलडनायैर्देहविक्षोभणैः पुरागुल्मोत्पत्तिरभूद्धवि प्राशान्मेहकुष्ठानांभयत्रासशोकैरुन्मादानांविविधभूताशुचिसंस्पर्शादपस्माराणाम् ॥ ९ ॥ ज्वरस्तुमहेश्वरललाटप्रभवः । तत्सन्तापाद्रक्तपित्तमतिव्यवायात् पुनर्नक्षत्रराजस्यराजयक्ष्मेति ॥ १० ॥ उस दक्षयज्ञकेही नष्ट होनेके समय जब महादेवके भयसे दशदिशाओंमें यज्ञस्थ मनुष्य भागने लगे और इधर उधर उछलना, कूदना, आदि देहका विक्षेप करत हुए भागने लगे तब उनके शरीर में पहिले गुल्म रोग उत्पन्न हुआ और उसी यज्ञमें अत्यन्त घृतके खाने से प्रमेह और कुष्ठ रोगकी उत्पत्ति हुई तथा तप और उपवास एवम शोक से उन्मादों की उत्पत्ति हुई। उसी यज्ञके नष्ट होते समय भूत गणादिकों के स्पर्शसे अपस्माररोग पैदा हुआ । और महादेवके मस्तक ज्वर उत्पन्न हुआ । उसके संतापसे रक्तपित्त उत्पन्न हुआ । एवम् मैथुन के प्रभावसे चन्द्रमाके शरीरमें : राजयक्ष्मा पैदा हुअ' ॥ ९ ॥ १० ॥
तत्रश्लोकाः ।
अपस्मरतिवातेनपित्तेनचकफेनच ।
चतुर्थः संन्निपातेनप्रत्याख्येयस्तथाविधः ॥ ११ ॥
यहांपर श्लोक कहे हैं कि अपस्माररोग वातसे, पित्तसे, कफसे और सन्निपातसे इन चार भेदों से कहा गया है । इन अपस्मारें में सन्निपात जनित अपस्मार असाध्य है तथा अन्य तीन प्रकारके अपस्मार साध्य हैं ॥ ११ ॥
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(.४९४ )
चरकसंहिता - मा० टी०.
· साध्यांस्तुभिषजः प्राज्ञाः साधयन्तिसमाहिताः । तीक्ष्णैः संशोधनैश्चैव यथास्वं शमनैरपि ॥ १२ ॥ यदादोषनिमित्तस्यभवत्यागन्तुरन्वयः । तदासाधारणकर्मप्रवदन्तिभिषग्वराः ॥ १३ ॥ · बुद्धिमान् वैद्यको चाहिये कि साध्य अपस्मारोंको सावधान होकर तीक्ष्ण संशो-धनों द्वारा तथा उनमें जैसे उचित हों वैसे संशमनों द्वारा चिकित्सा करे । यदि उन दोषजनित अपस्मारोंमें आगन्तुज कारणों का संबंध हो तो उस समय मंत्रादि साधारण कमद्वारा शान्ति करे ॥ १२ ॥ १३ ॥
सर्वरोगविशेषज्ञः सर्वौषधाविशेषवित् । भिषक्सर्वामयान्हन्ति नचमोहंनियच्छति । इत्येतदखिलेनोक्तंनिदानस्थानमुत्तमम् १४॥ जो वैद्य संपूर्ण रोगोंको जानता है तथा संपूर्ण औषधियोंके परिज्ञानयुक्त है वह • वैद्य संपूर्ण रोगोंको नष्ट करता है और मोहको प्राप्त नहीं होता । इस प्रकार संपूर्ण- तासे इस उत्तम निदानस्थानको कथन किया है ॥ १४ ॥ एकरोगसे अनेक रोगोंकी उत्पात् ।
निदानार्थकरोरोगोरोगस्याप्युपलभ्यते । तद्यथाज्वरसन्तापाद्रक्तपित्तमुदीर्य्यते ॥ १५ ॥ रक्तपित्ताज्ज्वरस्ताभ्यांशोषश्चाप्युपजायते । प्लीहाभिवृद्धया जठरंजठराच्छोफएवच ॥ १६ ॥
. कोई रोग भी रोगके उत्पन्न करनेका हेतु होता है अर्थात् जैसे कारण रोगको उत्पन्न करता है उसी प्रकार कोई रोग भी रोगको उत्पन्न करनेवाला होता है । उसमें ष्टान्त देते हैं । जैसे- ज्वर के अत्यन्त संतापसे रक्तपित्त उत्पन्न होजाता है । रक्त: पिक्त और ज्वर- इन दोनोंके होनेसे श्वास उत्पन्न होजाता है । एवम् प्लीहा के बढ़नैसे- उदररोग उत्पन्न होता है । उदरोगसे सूजन उत्पन्न होजाती है ॥ १५ ॥ १६ ॥ अशौभ्योजठरं दुःखंगुल्मश्चाप्युपजायते । प्रतिश्यायादथोकासः कासात्संजायतेक्षयः । क्षयोरोगस्यहेतुत्वे शोषश्चाप्युपजायते ॥ १७ ॥
बवासीरसे - जठररोगकी तथा गुल्मरोगकी उत्पत्ति होती है · उत्पन्न हो जाती है। खांसी के होनेसे क्षयरोग उत्पन्न होजाता है शोष रोग उत्पन्न होजाता है ॥ १७ ॥
। प्रतिश्याय से - खांसी
| क्षयरोगके कारण
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निदानस्थान • अ०८.
( ४९५ )
पूर्व केवलारोगाः पञ्चाद्धेत्वर्थकारिणः । उभयार्थकरादृष्टास्तथैवैकार्थकारिणः॥१८॥ कश्चिद्धिरोगोरोगस्य हेतुर्भूत्वाप्रशाम्यति । .-नप्रशाम्यति चाप्यन्यो हेतुत्वं कुरुतेऽपिच ॥ १९ ॥
वह रोग पहिले तो स्वयं रोग होते हैं फिर दूसरे रोगोंको उत्पन्न करनेके कारण बन जाते हैं। कोई रोग आप भी रहता है तथा दूसरे रोगको भी उत्पन्न कर देता है । कोई रोग एक ही अर्थके करनेवाला रहता है । जैसे कोई रोग दूसरे रोगको उत्पन्न करके स्वयम शान्त होजाता है और कोई रोग स्वयं भी रहता है तथा दूसरेको भी उत्पन्न कर लेता है ॥ १८ ॥ १९ ॥
एवंकृच्छ्रतमानृणांदृश्यन्तेव्याधिसंकराः । प्रयोगापरिशुद्धत्वात् तथाचान्योन्यसम्भवात् ॥ २० ॥ प्रयोगः शमयेद्वयार्धियोऽन्यमन्यमुदीरयेत् । नासौविशुद्धः शुद्धस्तुशमयेधोनको'पयेत् ॥ २१ ॥
-इस प्रकार मनुष्योंको कष्ट देनेवाले रोगोंका व्याधिसंकर अर्थात् व्याधियोंका "मिलना जुलना होनेसे व्याधियें कष्टसाध्य होजाती हैं । एक रोगकी चिकित्सा करते -समय दूसरे रोगका उत्पन्न होजाना इसमें चिकित्सा के प्रयोगकी अविशुद्धता रोगका - कारण होती है । जो औषधी प्रयोग एक रोगको शान्त करे और दूसरेको उत्पन्न करे उसको विशुद्धचिकित्सा नहीं कहते । जो चिकित्सा रोगको शान्त करे तथा अन्य व्याधियों को भी होने न देवे उसको शुद्ध चिकित्सा कहते हैं ॥ २० ॥ २१ ॥ रोगों हेतुओं का वर्णन |
एको हेतुरनेकस्य तथैकस्यैकएव हि । व्याधेरेकस्यचाने का बहूनां बहवोऽपिच ॥ २२ ॥
कहीं कहीं एकही कारण बहुतसे रोगोंको उत्पन्न करता है । कहीं एक कारण एकीको उत्पन्न करता है । कहीं एक व्याधिके अनेक कारण होते हैं और कहीं बहु५. तसी व्याधियों के बहुतसे कारण भी होते हैं ॥ २२ ॥ ज्वरभ्रमप्रलापाद्यादृश्यन्ते रूक्षहेतुजाः ।
रूक्षेणैकेन चाप्येको ज्वरएवोपजायते ॥ २३ ॥
जस ज्वर, भ्रम, प्रलाप आदिक यह सब रूक्षतासे उत्पन्न होते हैं । कहीं अकेली • रूक्षता से केवल ज्वर ही उत्पन्न होता है ॥ २३ ॥
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चरकसंहिता - भा० टी० ।
हेतुभिर्बहुभिचैकोज्वरोरूक्षादिभिर्भवेत् ।
रूक्षादिभिर्ज्वराद्याश्वव्याधयः सम्भवन्तिहि ॥ २४ ॥
कहीं रूक्ष आदिक बहुतसे हेतुओंसे केवल एक ज्वर ही उत्पन्न होता है कहीं उन्हीं रूक्ष यदि बहुतसे हेतुओंसे ज्वर आदिक बहुत से रोग भी उत्पन्न होजाते हैं ॥ २४ ॥ . रोगों में श्रमकारक ल०
लिङ्गञ्चैकमनेकस्यतथैकस्यैकमुच्यते । बहून्येकस्यचव्याधेर्वहूनां स्युर्बहूनि च ॥ २५ ॥
(४९६)
कहीं बहुतसे रोगोंका एक ही लक्षण होता है । कहीं एक रोगका एकही लक्षण होता है । कहीं एक व्याधिके बहुतसे लक्षण होते हैं कहीं बहुतसी व्याधियों के बहुत से. लक्षण होते हैं ॥ २५ ॥
विषमारम्भमूलानांलिंग मेकंज्वरोमतः । ज्वरस्यैकस्यचाप्येकः सन्तापोलिंगमुच्यते ॥ २६ ॥ विषमारम्भमूलैश्चज्वर एकोनिरुच्यते । लिंगैरेतैर्ज्वरश्वासहिक्काद्याः सन्तिचामयाः ॥ २७॥
जैसे बहुतसे विषमारंभ रोगोंका केवल एक ज्वर ही चिह्न दिखाई देता है । कहीं
•
केवल ज्वरका एक संतापमात्र लक्षण दिखाई देता है । कहीं बहुत से विषमारंभ मूलक लक्षणोंसे केवल ज्वरमात्र दिखाई देता है । कहीं उन्हीं लक्षणोंसे ज्वर, श्वास, हिचकी आदि रोग दिखाई देते हैं ॥ २६ ॥ २७ ॥
रोगोंकी शान्तिका वर्णन । एकाशान्तिरनेकस्य तथैकैकस्यलक्ष्यते ।
व्याधेरेकस्य चानेको बहूनांबह्वय एवच ॥ २८ ॥
कहीं अनेक प्रकारके रोगोंकी एक ही प्रकारकी चिकित्साद्वारा शान्ति होजाती हैं। कहीं एक प्रकारके रोगमें एक ही प्रकारकी चिकित्सा करनी पडती है ॥ २८ ॥ शान्तिरामाशयोत्थानां व्याधीनांलंघनक्रिया | ज्वरस्यैकस्यचाप्येकाशान्तिलंघनमुच्यते ॥ २९ ॥
जैसे आमाशय की खराबी से उत्पन्नहुए बहुत से रोगोंकी शान्ति के लिये केवललंघन करनाही उन सब विकारोंकी शान्तिका एक ही उपाय है । उसी प्रकार, ज्वररूप एक व्याधिकी शान्तिके लिये केवल लंघन शान्तिकारक होता है ॥ २९ ॥
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१७)
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निदीनस्थान अंदम तथालध्वशनाद्यैश्चज्वरस्यकत्यशान्तयः .
एताश्चैवज्वरश्वासहिक्कादीनांप्रशान्तयः ॥ ३० ॥ ' जैसे हलका भोजन आदि एकज्वरकी शान्तिोलिये अनेक उपाय शान्तिका रक होतेहैं। वैसे ही ज्वर, वास, हिचकी आदि अनेक रोगों में भी हलका भोजन आदि अनेक क्रियाद्वारा शान्ति होती हैं ॥ ३ ॥ सुखसाध्यासुखापाय:कालेनाल्पेनसाध्यते । साध्यतेकृच्छ्रसाध्यस्तुयत्नेनमहताचिरात् ॥ ३१॥ यातिलाशेषतांव्याधिरसाध्योयाप्यसंज्ञितः। परोऽसाध्य क्रिया सर्वाःप्रत्याख्येयोऽति वर्त्तते ॥३२॥ सुखसाध्यरोम साधारण उपाय करनेसे थोड़े ही कालमें शान्त होजाते है । कष्टसाध्य गेग अत्यन्त यल करनेपर बहुत कालमें शान्त होतेहैं। व्याप्यसाध्यरोग यद्यपि उत्तम वैद्यके द्वारा चिकित्सा कीजानपर कुछ कालके लिये थोडी शान्ति रहतीहै । परन्तु वह रोग समूल नष्ट नहीं होता । असाध्य रोग सर्व प्रकारके चिकि: साओं द्वारा शान्त नहीं होसकता। इसलिये वह प्रत्याख्येय अर्थात् त्यागदेने योग्य होता है । चिकित्सा करने योग्य नहीं होता। शा
नासाध्या साध्यतायातिसाध्यायातित्वसाध्यताम् ।
पादापचारादेवाद्वायान्तिभावान्तरंगदाः ।। ३३ असाध्यरोग साध्य नहीं होसकते परन्तु साध्यरोगभी चिकित्सा में किसी प्रकारका अन्तर पडनेसे असाध्य होजातेहैं।। चिकित्साके पादचतुष्टयको अपचार होनेसे अथवा दैवयोगसे व्याधियां भीवान्तरको प्राप्त होजातीहै अर्थात साध्य भी असाध्य होजाती हैं । ( दैवयोगसेतो असाध्योंका भी सध्या होना संभव है) ॥ ३६॥
A FTEवैद्यको उपदेश वृद्धिस्थानक्षयावस्थादोषाणामुपलक्षयेत् सुसूक्ष्मामपिचप्री-" ज्ञोदेहाग्निबलचेतसाम् ॥३४॥ व्याव्यवस्थाविशेषान हिज्ञात्वाज्ञात्वाविचक्षणः । तस्यातस्यामवस्थायातका वैद्यको रचिते हैं कि दोषोंकी वृद्धि और भाणावस्थापर भले. प्रकार ध्यान रक्खे और वह बुद्धिमान् वैद्य देह,अग्निवल तथा चित्तकी वृत्चिको बहुत सूक्ष्मवि:
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(४९८)
चरकसंहिता-भा० टी० ॥ चार द्वारा परीक्षा करे । एवम् व्याधिकी अवस्था विशेषको जानकर जैसी जैसी अवस्थाएँ हों वैसी वैसी चिकित्सा करनेसे चतुर वैद्य कल्याणको प्राप्त होता है ॥ ३४ ॥ ३५॥
चिकित्साकी विधि। . प्रायस्तिय॑ग्गवादोषाःक्लेशयन्त्यातुरांश्चिरम् । तेषुनत्वरया कुर्यादेहाग्निबलविताक्रियाम् ॥३६॥ प्रयोगैःक्षपयेद्वातान्सुख वाकोष्ठमानयत्ाज्ञात्वाकोष्ठप्रपन्नांस्तान्यथास्वंतंहरेबुधः॥३७॥ दोष प्रायः तिर्यगामी होनेसे मनुष्यको बहुत कालतक कष्ट देते, उनमें देह, अग्नि और वलकी परीक्षा करनेवाला वैद्य शीघ्रता न करे । ऐसे समयमें जव कि दोष तिर्यगामी हो गये हों औषधी प्रयोगद्वारा उनको धीरे २ पकाकर कोष्ठमें ले आवे । फिर जब वह कोष्ठमें आजाय तव उनको जो २ जिस प्रकार निकालने योग्य हों उस प्रकार निकाल डाले ॥३६॥ ३७॥
ज्ञानार्थयानिचोक्तानिव्याधिलिङ्गानिसंग्रहे । व्याधयस्तेतदात्वेतुलिङ्गानीष्टानिनामयाः॥३८॥ विकाराःप्रकृतिश्चैवद्वयंस
समासतः । वद्धतुवशगंहेतोरभावान्नानुवर्तते ॥ ३९॥ रोगके परिज्ञानके लिये संग्रहमें जो लक्षण कथन कियेहैं उनको भी अलग २ होनेपर रोग ही जानना चाहिये जैसे-किसी रोगके लक्षणमें श्वासका होना कथन कियाह अश्या अतिसारका होना कथन कियाहै यदि यह रोगके विना शरीरमें प्रगट हों तो यही रोग होते हैं। परन्तु ज्वरादिकोंके समय ज्वरके वेगसे इनका होना रोग न कहा जाकर ज्वररोगका उपद्रव माना जायगा । रोग और प्रकृति यह दोनों ही संक्षेपसे सब रोगोंमें कथन करनेमें आतेहैं । सो वह प्रकृति अर्थात रोगजनक कारण और रोग यह दोनोंही अपने हेतुके वश हैं अर्थात् अनुचित आहार विहारके होजानेसेही बलको प्राप्त होतेहैं। यदि अहित आहार आदि रोग और रोगकी प्रकृतिका कारण न होने पावें तो कारणके अभावसे यह दोनों उत्पन्न नहीं हो सकते ॥ ३८ ॥ ३९ ॥
तत्रश्लोकाः। हेतवःपूर्वरूपाणिरूपाण्युपशयस्तथा । संप्राप्तिःपूर्वमुत्पत्तिः सूत्रमात्रंचिकित्सितम्॥४०॥ ज्वरादीनांविकाराणामष्टानांसाध्यतानच । पृथगेकैकशश्चोक्ताहेतुलिङ्गोपशान्तयः ॥ ४ ॥
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निदानस्थान-अ०८ हेतुप-यनामानिव्याधीनांलक्षणस्यच । निदानस्थानमेतावत्संग्रहणोपदिश्यते॥४२॥ इति श्रीमहर्षिचरकप्रणीतसहितायांनिदानस्थानं सम्पूर्णम् ।
अब निदानस्थानका उपसंहार करतेहैं । इस निदानस्थानमें-हेतु, पूर्वरूप, रूप, उपशय, संप्राप्ति, पूर्व उत्पत्ति तथा चिकित्साका सूत्रपात एवम् ज्वरादिक भाठ विकारोंकी साध्यता और असाध्यता इन सवका कथन कियागयाहै तथा इन सबको अलग २ एकएक करके इनके हेतु, चिह्न तथा उपशान्तिकारक उपाय एवम् हेतुके पर्यायवाचक नाम एवम् व्याधिके पर्यायवाचक नाम तथा लक्षणके पर्यायवाचक नाम यह सव इस निदानस्थानके संग्रहमें कथन कियेगये, अर्थात् इन सब विषयों करके युक्त यह निदानस्थान समाप्त हुआ ॥४०॥४१॥ ४२ ॥
दोहा। हेतु रूप आदिक सव, विधिवत् व्याधिज्ञान ।
सो प्रसादनीयुक्त यह, भयो निदान स्थान ॥१॥ इति श्रीमहर्पिचरकप्रणीतायुर्वेदीयसंहितायां निदानस्थाने पं०रामप्रसादवैद्यविरचितप्रसादन्याख्यभापाटीकायामपस्मारनिदानं नामाप्टमोऽध्यायः ॥ ८॥
समाप्तमिदं निदानस्थानम् ।
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अथ विमानस्थानम्। प्रथमोऽध्यायः ।
अथातोरसविमानंव्याख्यास्यामइति हस्माह भगवानात्रेयः। इहखलुव्याधीनांनिमित्तपूर्वरूपरूपोपशयसंख्याप्राधान्याविधिविकल्पबलकालविशेषाननुप्रविश्यानन्तरंरसद्रव्यदोषविकारभेषजदेशकालवलशरािहारसारसात्म्यसत्त्वप्रकृतिवयसांमानमवहितमनसायथावज्ज्ञेयंभवतिभिषजारसादिमानज्ञानायत्तत्वातक्रियायाः । नहिअमानज्ञोरसादीनांभिषव्याधिनिग्रहसमर्थोभवति । तस्माद्रसादिमानज्ञानार्थविमानस्थानमुपदेश्यामोऽग्निवेश ! तत्रादौरसद्रव्यदोषविकारप्रभावानवक्ष्यामः ॥१॥
अब हम इस विमानस्थानकी व्याख्या करते हैं, इस प्रकार भगवान् आत्रेयजी कथन करने लगे। प्रथम वैद्यको चाहिये कि व्याधियोंके-निमित्त, पूर्वरूप, रूप, उपशय,संख्या,प्राधान्य, अनेक प्रकारका विकल्प, विधि, वल, और कालविशेषको यथोचित रीतिसे जानलेवे, तदनन्तर, दोष, औषध, देश, काल,बल,शरीरं,आहार, सार, सात्म्य, सत्त्व, और प्रकृति तथा अवस्थाके मानको सावधानतासे यथोचित रीतिपर जानना चाहिये। क्योंकि जबतक इन दोष आदिकोंका यथोचित ज्ञान न होगा तबतक वैद्यककी क्रियाका आरम्भ नहीं हो सकता । इन सबके प्रमाणको न जाननेवाला वैद्य व्याधिको दूर करनेमें समर्थ नहीं हो सकता । हे अग्निवेश ! इस लिये दोष आदिकोंके यथोचित प्रमाण जाननेके अर्थ विमानस्थानका कथन करते हैं। इनमें प्रथम रस और द्रव्य तथा दोष और विकार इनके विमान (प्रमाण) को कथन करते हैं ॥१॥
रसोंका वर्णन ! रसास्ताक्षट्मधुराम्ललवणकटुतिक्तकषायास्तसम्यगुपयुज्यमानाःशरीरंयापयन्तिामिथ्योपयुज्यमानास्तुखलुदोषप्रकापनायोपकल्पयन्ति ॥ २॥
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विमानस्थान-अ० १. . (५०१) रस छ: प्रकारके होते हैं । जैसे-मीठा, खट्टा, नमकीन, चरपरा, कडुआ, और कसैला। यह छः रस उत्तम रीतिस सेवन किये जानेपर शरीरको पालन करते हैं । और यही छः रस अनुचित रीतिस उपयोग किये हुए दोषोंके प्रको! 'पके कारण हैं ॥२॥
दोषोंका वर्णन । दोषाःपुनस्त्रयोवातपित्तश्लेष्माणः तेप्रतिभताःशरीरोपकारकाभवन्ति । विकृतिमापन्नाःखलनानाविधैर्विकारैःशरीरमु- . पतापयन्ति ॥३॥ दोष-तीन प्रकारके होते हैं । वात, पित्त और कफ । वह तीनोंदोष परिमाणसे ठीक रहनेपर शरीरको पुष्ट करते हैं और विकृत होनेसे शरीरको अनेक प्रकारके रोगों द्वारा तपायमान करते हैं ॥ ३ ॥
रसों द्वारा दोषोंका चयापचय । तत्रदोषमेकैकंत्रयस्त्रयोरसाजनयन्ति,त्रयस्त्रयश्चोपशमयन्ति । तद्यथा--कटुतिक्तकषाया वातं जनयन्ति, मधुराम्ललवणास्त्वेनं शमयन्ति । कटुकाम्ललवणाः पित्तं जनयन्ति, मधु.. रतिक्तकषायाःपुनरेनं शमयन्ति । मधुराम्ललवणाःश्लेष्माणं
जनयंति, कटुतिक्तकषायास्त्वेनं शमयन्ति ॥ ४॥ . उनमें एक एक दोषको तीनतीन रस उत्पन्न करते हैं उसी प्रकार तीनतीन रस शान्तिको करते हैं अर्थात् दोषोंको शमन करते हैं । तात्पर्य यह हुआ कि तीनरस एक दोषको वढाते हैं और अन्य तीन रस उसी दोषको शान्त करते हैं । जैसे-चरः परा,कडुआ,कसैला यह तीनरस वायुको उत्पन्न करते हैं । उसी प्रकार मीठा,खट्टा
और नमकीन यह तीन रस वायुको शान्त करते हैं । चरपरा, खट्टा और नमकीन यह तीन रस पित्तको उत्पन्न करते हैं और मीठा कडुआ, कसैला यह तीन रस पित्तको शान्त करते हैं । मीठा- खट्टा, नमकीन यह तीन रस कफको उत्पन्न करते हैं और चरपरा, कडुआ, कसैला यह तीन रस कफको शान्त करते हैं ॥ ४ ॥
रसदोषसन्निपाते तु ये रसा यैदोषैःसमानगुणा:समानगुणभूयिष्ठा वा भवन्ति ते तानभिवर्द्धयन्ति । विपरीतगुणास्तु विपरीतगुणभूयिष्ठा वा शमयन्त्यायस्यमानाःइत्येतद्वश्वस्था
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(९०२) चरकसंहिता-भा० टी०॥ हेतोः षट्त्वमुपदिश्यते रसानां परस्परेणासंसृष्टानाम् । त्रित्वञ्च दोषाणाम् । संसर्गविकल्पविस्तारोहोषामपरिसंख्येयो भवति विकल्पभेदापरिसंख्येयत्वात् ॥५॥ शरीरमें कई एक रसों तथा दोषोंका मिलाप होनेपर जो रस जिस दोषके समान गुणवाले हों उस दोषको बढाते हैं तथा समान गुणवालोंमें भी जिस दोषके बढाने. वालोंकी आधिकता हो वह उसकीही वृद्धि करते हैं । इसी प्रकार विपरीत गुणवाले रस दोषोंको शान्त करते हैं। उनमें भी विशेषतास विपरीत गुणवाले जिस दोषसे विपरीत गुणवाले हों उसकोही शमन करते हैं। इस प्रकार व्यवस्था स्थापन करनेके लिये अलग अलग छः रसोंका कथन किया है, और तीन दोषोंका कथन किया है। रसोंके संसर्ग जनित विकल्पोंसे इनकी संख्या परिमाणसे बढजातीहै अर्थात् असंख्य होजातेहैं । क्योंकि विकल्प द्वारा अंशांश कल्पनाकर भद विशेषसे असंख्य होजाते हैं ॥५॥
तत्र खलु अनेकरसेषु द्रव्येष्वनेकदोषात्मकेषु च विकारेषु रसदोषप्रभावमेकैकत्वेनाभिसमीक्ष्य ततो द्रव्यविकार.. प्रभावतत्त्वं व्यवस्येत् । नत्वेवं खलु सर्वत्र । न हि विकृतिविषमसमवेतानां नानात्मकानां द्रव्याणां परस्परेण चोपहतानामन्यैश्च विकल्पनैर्विकल्पितानामवयव. प्रभावानुमानेन समुदायप्रभावतत्त्वमध्यवसितुमशक्यम् ॥६॥ उन अनेक रसोंवाले अनेक द्रव्योंमें अनेक रस मिले हुए होनेपर उनके एकएक रसको अलग अलगं जानकर द्रव्य प्रभाव जान लेना चाहिये । उसी प्रकार अनेक दोषोंके मिले हुए विकारोंमें कौन २ दोष कितने २ अशसे मिला हुआ है इसको अलग अलग जानकर दोषप्रभाव जानलेना चाहिये। परन्तु संब जगह यही क्रम. नहीं होता क्योंकि विकृत भाव तथा विषममानसे मिले हुए अनेक आत्मक द्रव्योंका ' एकके रससे दूसरेके रसका तथा आपसमें स्वभाव तत्वका परस्पर हनन होनेसे.' रसके समुदाय प्रभावका तत्व पृथक् पृथक् नहीं जाना जा सकता। उसी प्रकार विकृत और विषमभावसे मिले हुए दोषोंका आपसमें परस्पर हनन भाव होनेसे . विकल्प जनित सूक्ष्म अंशोंका पृथक् पृथक् जान लेना भी कठिन होता है ॥ ६ ॥
तथायुक्ते हि समुदाये समुदायप्रभावतत्त्वमेवोपलभ्य ततो रसद्रव्यविकारप्रभावतत्त्वं व्यवस्येत् तस्मादसत्प्रभावतश्न
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विमानस्थान-अ० १. (५०३: द्रव्यप्रभावतश्चदोषप्रभावतश्चविकारप्रभावतश्चतत्त्वमुपदे
क्ष्यामः । तत्रैषरसद्रव्यदोषविकारप्रभावउपदिष्टो भवति ॥७॥ __ इसलिये बहुतसे द्रव्य समुदायके मिलनसे उस समुदायके प्रभावको जानकर फिर रस तथा द्रव्य एवम् विकार इनके प्रभावोंके जाननेका यत्न किया जासकताहै। इसलिये रसप्रभावसे, द्रव्यप्रभावसे, दोषप्रभावसे और विकारप्रभावसे तत्वको कथन करतेहैं।सो यहांपर रस,द्रव्य, दोष,विकार इनके प्रभावोंका कथन कियाजाताहै।॥७॥
द्रव्यप्रभावका वर्णन । द्रव्यप्रभावंपुनरुपदेक्ष्यामः। तैलसर्पिमधूनिवातपित्तश्लेष्मप्रशमनानिद्रव्याणिभवन्ति । तत्रतैलस्नेहोष्ण्यागोरवोपपन्नवाद्वातंजयतिसततमायस्यमानम् । वातोहिरोक्ष्यशैत्यलाघवोपपन्नोविरुद्धगुणोभवति। विरुद्धगुणसन्निपातेहिभूयसाल्पमवजीयतेतस्मात्तैलंवातंजयतिसततमभ्यस्यमानम् ॥ ८॥ ' रसके प्रभावको प्रथम कथन करचुके अब यहांपर द्रव्यके प्रभावको कहते हैं। जैसे तैल, घृत, शहद यह वात, पित्त, कफको शमन करनेवाले द्रव्य होतहैं । इनमें तैल चिकना और गरम होनेसे, एवम् गौरवगुण विशिष्ट होनेसे, निरन्तर मालिश किया हुआ अथवा विधिपूर्वक खाया हुआ वायुको शान्त करताहै । क्योंकि वायु तैलके गुणसे विरुद्ध गुणवाला रूक्ष,शीतल और हलकापन युक्त होताहै। दोपकारके विरुद्धगुण आपसमें मिलनेसे भारी गुण अल्प गुणको जीत लेतेहैं । इसलियेअभ्यास. कियाहुआ तैल अपने स्निग्धादि गुणोंद्वारा वायुको जीतलेताहै ॥ ८॥
सर्पिःखलएवमेवपिंजयतिमाधुर्य्याच्छैत्यान्मन्दवीर्यत्वाच्च
पित्तामधुरमुष्णंतीक्ष्णम् ॥९॥ - इसी प्रकार सेवन किया हुआ घृत भी पित्तको जतिलेताहै । घृत मीठा,शीतल... .... और मंद होनेसे मधुरतारहित उष्ण और तीक्ष्ण इन विपरीत गुणोंवाले पित्तको जीतलेताहै ॥९॥
मधु च श्लेष्माणं जयति रोक्ष्यात् तैक्ष्ण्यात् कषायवाच श्लेष्मा हि स्निग्धो मन्दो मधुरश्च ॥ १०॥
शहद रूक्ष, कषाय और तीक्ष्ण होनेसे स्निग्ध, मंद,मधुर इन विपरीव गुणोंवाले कफको जीतलेताहै ॥ १० ॥
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। (५०४) चरकसंहिता भा० टी० ।
यच्चान्यदपि किञ्चिद्व्यमेवंवातपित्तकफेभ्यो गुणतो विपरीत तञ्चैताञ्जयत्यभ्यस्यमानम् ॥ ११ ॥ इसी प्रकार अन्य भी जो द्रव्य वात, पित्त, कफसे गुणोंमें विपरीत हो वह भी . विधिवत सेवन किये हुए इनको जीतलेतेहैं ॥ ११ ॥
अथ खलु, त्रीणि द्रव्याणि नात्युपयुञ्जीताधिकमन्येभ्यो द्रव्येभ्यःतद्यथा-पिप्पली क्षार लवणमिति पिप्पल्यो हि कटुकाः सद्योमधुरविपाका गुव्यों नात्यर्थम् । स्निग्धोष्णाः प्रक्लेदिन्यो भेषजाभिमंताश्च । ताः सद्यः शुभाशुभकारिण्यो भवन्त्यापातभद्राःप्रयोगसमसाद्गुण्यादोषसञ्चयानुबन्धाःस. ततमुपयुज्यमानाहिगुरुप्रक्लेदित्वात् श्लेष्माणमुत्क्लेशयन्ति ।
औष्ण्यात् पित्तम् । नच वातप्रशमनायोपकल्पन्ते अल्पस्ने: होष्णभावात् । योगवाहिन्यस्तु खलु भवन्तिातस्मात् पिप्प
लीनात्युपयुञ्जीत ॥ १२ ॥ किसी योगमें भी और द्रव्योंसे इन तीन द्रव्योंको अधिक प्रयोग नहीं करना चाहिये । जैसे पिपली, क्षार और लवण । क्योंकि पीपल चरपरी है और शीघ्र मधुरं विपाक होजातीहै, अत्यन्तं भारी नहीं है एवम् निग्ध, उष्ण, क्लेदकर्ता, तथा औषधियोंमें मुख्य है। सो वह पीपली प्रयोग करनेसे शीघ्र ही अपने शुभ और अशुभगुणोंकों करती है । किसीरोगमें देते ही हितकारक होजातीहै । इसका निरन्तर प्रयोग करनेसे दोषोंका संचय होताहै।क्योंकि यह भारी और क्लेदी होनेसे कफको उठाती है । गर्म होनेसे पित्तको प्रबल करतीहै । इसमें स्नेह और उष्णता अधिक न रहनेसे वायुको भी शान्त नहीं करती परन्तु किसी योगमें मिलाकर दीहुई योगवाही होनेसे उस योगके समान गुण करनेवाली अवश्य होतीहै । इसलिये पिप्पलीका अधिक और निरन्तर सेवन नहीं करना चाहिये ॥ १२ ॥.
.. ... ... . क्षारसेवनका निषेध । क्षारः पुनरोष्ण्यतैक्षण्यलाघवोपपन्नः क्लेदयत्यादौ पश्चात् विशोधयति । स पचनदहनभेदनार्थमुपयुज्यते सोऽतिप्रयुज्यमानः केशाक्षिहृदयपुंस्त्वापघातकरः सम्पद्यते । ये ह्येनं .
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विमानस्थान-अ० १. (५०५) ग्रामनगरनिगमजनपदाः सततमुपयुञ्जते तेह्यान्ध्यषाण्ड्याखालित्यपालित्यभाजो हृदयोपकर्तिनश्च भवन्ति तद्यथा-प्राच्याश्चीनाश्च तस्मात् क्षारं नात्युपयुञ्जीत ॥ १३॥ क्षार उष्ण, तक्षिण और हलका होताहै । प्रथम गीलापन उत्पन्नकर फिर शोधन करदेताहै । पाचन, दहन एवम् भेदन करनेके लिये क्षारका प्रयोग कियाजाताहै । वह क्षार अत्यन्त सेवन किया जानेसे केश, नेत्र, हृदय और पुंस्त्वशक्तिको नष्ट करनेवाला होता है । ग्राम, नगर, प्रान्त, देशमें रहनेवाले जो लोग क्षारका अधिक सेवन करतेहैं ।वह लोग अंधे, नपुंसक, गंजे, सफेदवालोंवाले एवम् हृदयके रोगयुक्त होतेहैं । प्रायः ऐसे लोग पहिले पूर्व और चीनमें होतेथे । इसलिये क्षारका अधिक प्रयोग नहीं करनाचाहिये ॥ १३ ॥
लवण सेवमका निषेध । लवणंपुनरोष्ण्यतैक्ष्ण्योपपन्नमनति गुरुअनतिस्निग्धमुपक्लेदि वित्रंसनसमर्थमन्नद्रव्यरुचिकरमापातभद्रम् ।प्रयोगातिरेकादोषसञ्जयानुबन्धम् । तद्रोचनपाचनोपक्लेदनविलंसनार्थमुपयुज्यतोतदत्यर्थमुपयुज्यमानंग्लानिशैथिल्यदौर्बल्याभिनिर्व त्तिकरंशरीरस्यभवति । येह्येतद्ग्रामनगरनिगमजनपदाःसततमुपयुञ्जते,तेभूयिष्ठंग्लास्नवःशिथिलमांसशोणिताभवन्तिअ. परिक्लेशसहाश्च । तद्यथा-बाह्रींकसौराष्ट्रिकसैन्धवसावीरकाः। तेहिपयसापिसदालवणमश्नति ।येऽपहिभूमेरत्यूषरादेशास्तेषुऔषधिवीरुद्वनस्पतिवानस्पत्यानजायन्ते । अल्पतेजसोवाभवन्तिलवणोपहतत्वात् । तस्माल्लवर्णनात्युपयुञ्जीत । ये ह्यतिलवणसात्म्याःपुरुषास्तेषामपिखालित्येन्द्रलुप्तपालित्यानितथावलयश्चाकालेभवन्ति । तस्मात्तेषांतत्सात्म्यतःक्रमेणापगमनंश्रेयः ॥ १४ ॥ लवण गर्म, तीक्ष्ण, किंचित् भारी, किंचित् स्निग्ध, क्लेदकारक, स्रेसन अन्नादि द्रव्योंमें रुचिकारक, किसी द्रव्यमें डालते ही अपने गुणको करनेवाला होताहै । अत्यन्त सेवन करनेसे दोषोंको संचित करताहै । इसलिये यह केवल रुचि उत्पन्न
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चरकसंहिता - भा०टी० ।
करनेके लिये, पाचन के लिये तथा क्लेदन और स्रंसन होनेसे इसका उचित रीतिपर प्रयोग किया जाता है । इसके अधिक सेवन करनेसे शरीर में ग्लानि, शिथिलता,दुर्बलता यह उत्पन्न होते हैं । ग्राम, नगर, प्रान्त तथा देशों में जो लोग लवणका अधिकसेवन करते हैं उनके शरीरमें ग्लानि, मांस और रुधिर में शिथिलता होती है तथा वह सामान्य क्लेशको भी सहन नहीं करसकते। जैसे वाह्वीक, सौराष्ट्र, सिन्ध, सौवीर देशों के रहनेवाले मनुष्य दूधके साथमें भी लवणको भक्षण करते हैं । जिन देशोंमें. अत्यन्त ऊषर भूमि है उनमें क्षारकी अधिकता होनेसे ओषधी, वीरुध, वनस्पती और वानस्पत्य इन चार प्रकारकी औषधियोंमेंसे कोई भी उत्पन्न नहीं होती। यदि कोई हो भी जाय तो उस पृथ्वीके लवणके वलसे उन औषधियोंका तेज माराजाताहै । इसलिये लवणका अधिक उपयोग नहीं करना चाहिये। जिन मनुष्योंको लवण सात्म्य है उनको भी अधिक सेवन करनेसे गंजापन, बालोंका सफेद होना, वालों का.. उखडना, शरीरमें छोटी उमर में सरवट पडना यह विकार होते हैं । इसलिये लवण. जितना रुचि आदिके लिये सेवन करना उचित हो उससे अधिक नहीं खाना चाहिये ॥ १४ ॥
सात्म्यके लक्षण | सात्म्यमपिहि क्रमेणोपनिवर्त्त्यमानमदोषमल्पदोषंवाभवति । सात्म्यंना मतद्यदात्मनिउपशेते । सात्म्यार्थीद्युपशयार्थः । तत् त्रिविधंप्रवरावर मध्यविभागेन, सप्तविधञ्चर सैकैकत्वेन सर्वरसोपयोगाच्च । तत्रसर्वरसंप्रवरमवर मेकरसंमध्यमन्तुप्रवरावरमध्यस्थम् । तत्रावरमध्याभ्यां सात्म्याभ्यां क्रमेणप्रवरमुपपादयेत्सात्म्यम् । सर्वरसमापिचद्रव्यंसात्म्यमुपपन्नं सर्वाणि आहार - विधिशेषायतनानिअभिसमीक्ष्यहितमेवानुरुध्यते ॥ १५ ॥
यदि किसी हानिकारक वस्तुके सेवनका अभ्यास होगया हो (जैसे अफीम शंखिया आदि) तो उसको धीरेधीरे क्रमपूर्वक छोडदेना चाहिये । ऐसा करनेसे अल्पदोष अथवा निर्दोष होजाता है । जो पदार्थ अपने शरीरको हितकारी हो उसको सात्म्य कहते हैं । सात्म्यका जो अर्थ है उपशयका भी वही अर्थ है । वह सात्म्य - उत्तम, मध्यम और कनिष्ठ इन भेदोंसे तीन प्रकारका है । फिर वह मधुर आदि एकएक रसके योगसे तथा एकसाथ संपूर्ण रसोंके योग भेदसे सात प्रकारका होता है । उनमें सव रसोंका अभ्यास उत्तम होता है । एक रसका उपयोग कनिष्ठ माना जाता है : कनिष्ठ और उत्तमके मिलनेसे मध्यम सात्म्य होता है । उनमें कनिष्ठ और मध्यम
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विमानस्थान- अ० १.
(५०७ ) सात्म्यों से क्रमपूर्वक उत्तम सारत्म्यका अभ्यास करना चाहिये। संपूर्ण रसों को तथा संपूर्ण द्रव्योंको सात्म्य होनेपर एवम् आहार विधिके विशेष आयतनोंको विचारकर अहित पदार्थों को त्याग देवे एवम् हितोंका सेवन करे ॥ १५ ॥
आहारके आयतन । तत्रखल्विमानिअष्टावाहारविधिविशेषायतनानि भवन्ति । त
द्यथा - प्रकृतिकरणसंयोगराशिदेशकालोपयोगसंस्थोपयोक्ताटेमानिभवन्ति ॥ १६ ॥
उनमें आहार विधिके यह अष्टविध आयतन कथन किये हैं। जैसे- प्रकृति, करण, संयोग, राशि, देश, काल, उपयोग, संख्या तथा उपयोगको करनेवाला यह आठ आयतन हैं ॥ १६ ॥
प्रकृतिका वर्णन | तत्रप्रकृतिरुच्यतेस्वभावोयः सपुनराहारौषधद्रव्याणां स्वाभाविकोगुर्वादिगुणयोगः । तद्यथा माषमुद्गयोः शूकरैणयोश्च ॥ १७ ॥
इनमें प्रकृति - स्वभावको कहते हैं । आहार र औषध द्रव्योंका जो स्वाभाविक गुरु, आदि गुणका योग है उसका प्रकृति कहते हैं । जैसे-उडद स्वभावसे ही भारी है और मूंग स्वभावसे हो हल्के गुणवाला है । सूअरका मांस - स्वभावसे हा भारी गुणवाला है और हिरनका मांस स्वभावसे ही हलका होता है ॥ १७ ॥ करणका वर्णन |
करणंपुनःस्वाभाविकानां द्रव्याणामभिसंस्कारः । संस्कारोहि गणान्तराधानमुच्यते । तेगुणाश्चतायाग्निसन्निकर्षशौचमन्थनदेशकालवशेन भावनादिभिः कालप्रकर्षभाजनादिभिश्चाभिधीयन्ते ॥ १८ ॥
स्वाभाविक द्रव्योंके संस्कारको करण कहते हैं । संस्कारका अर्थ गुणान्तरकों प्राप्त करना है वह गुण - जल और अग्निके सन्निकर्षसे एवम् शौच, मन्थन, देश, काल, बल, भावना आदिसे तथा समयके उत्कर्ष एवम् पात्रादिकों के संसर्ग से गुणान्तरक प्राप्त होते हैं ॥ १८ ॥
संयोगका वर्णन |
संयोगस्तुद्वयोर्बहूनांवाद्रव्याणां संहतीभावः सविशेषमारभतेय.
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(१०८) चरकसंहिता-भा० टी०॥
कशोद्रव्याणिआरभन्ते । यथामधुसर्पिषोमेधुमत्स्यपयसा। ञ्चसंयोगः ॥ १९ ॥
दो अथवा बहुतसे द्रव्योंका संसर्ग होना संयोग कहाताहै । द्रव्योंका संयोग विशेष होनेसे गुण उत्पन्न होताहै । जैस-शहद और घृतको समान भागमें लानेसे एवम् शहद मछली और दूधके मिलानेसे विषके समान गुण उत्पन्न होजाताहै १९
राशिका वर्णन । राशिस्तुसर्वग्रहपरिग्रहौमात्राऽमात्राफलविनिश्चयार्थःप्रकृतः। तत्रसर्वस्याहारस्यप्रमाणग्रहणमेकपिण्डेनसर्वग्रहः । परिग्रहश्चपुनःप्रमाणग्रहणमेकैकत्वेनाहारद्रव्याणाम् । सर्वस्य हिग्रहःसर्वग्रहःसर्वतश्चग्रहःपरिग्रहःउच्यते ॥२०॥
राशि-सव द्रव्योंके सर्वग्रह और परिग्रहको कहते हैं । इसका वर्णन मात्रा और अमात्राके फलनिश्चयार्थ किया है उनमें सब प्रकारके भोजन सामग्रीका गोलासा बनाकर खाना सर्वग्रह कहा जाताहै । व्यंजन आदि आहार द्रव्योंको अलग अलग भक्षण करनेको परिग्रह कहते हैं । सनदव्योंको मिला एकसाथ ग्रहण करनेको सर्वग्रह कहते हैं और सबसे किसी एक पदार्थके खानेको परिग्रह कहतेहैं ॥२०॥
देशका वर्णन । देशःपुनःस्थानद्रव्याणामुत्पत्तिप्रचारोंदेशसात्म्यञ्चाचष्टे ॥२१॥ द्रव्यके उत्पन्न होनेके स्थानको तथा प्रचार (फिरना तुरना आदि) आदिके स्थानको देश कहते हैं ॥ २१ ॥
कालका वर्णन। कालोहिनित्यगश्चावस्थिकश्च । तत्रावस्थिकोविकारमपेक्ष्यते। नित्यगस्तुखलुऋतुसात्म्यापेक्षः ॥ २२॥ काल दो प्रकारका होता है । नित्यग, आवस्थिक । उनमें आवस्थिक काल विकारकी अपेक्षा करताहै अर्थात् बाल्यावस्थासे विकृति प्राप्त होकर तरुणावस्थामें माप्त होना आवस्थिक काल कहा जाता है। नित्यगकाल ऋतु और सात्म्यकी अपेक्षा करताहै । अर्थात् नित्यगकाल क्षण, दिवस, मास, ऋतु आदिक चक्रको कहते हैं ॥ २२ ॥
उपयोगका वर्णन । . उपयोगसस्थातूपयोगानयमः सजीर्णलक्षणापेक्षः ॥ २३॥ .
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विमानस्थान-अ० ११ भोजन आदिके उपयोगके नियमको उपयोग कहते हैं । वह उपयोग विधिवद हानसे यथोचित रीतिपर भोजनादि जीर्ण होजाते हैं ॥ २३ ॥
उपयोक्ता और ओकसात्म्यका वर्णन । उपयोक्तापुनर्यस्तमाहारमुपयुक्त। यदायत्तमोकसात्म्यम्।॥ २४॥ उपयोक्ता भोजनके उपयोग करनेवालेको कहते हैं । भोक्ता मनुष्य अपने आधीन भोजनको करके यथोचित रीतिपर पचावे उसको ओकसात्म्य कहते हैं ॥ २४ ॥
इत्यष्टावाहारविधिविशेषायतनानिभवन्ति । एषांविशेषाःशुभाशुभफलप्रदाःपरस्परोपकारकाभवन्ति । तानबुभुत्सेत । बुद्धाचहितेप्सुरेवस्यान्नचमोहात्प्रमादाद्वाप्रियमहितमसुखोदकमुपसेव्यमाहारजातमन्यद्वा ॥ २५॥ इस प्रकार आहारविधिके आठ आयतन विशेषोंका कथन कियाहै। यह आहा. रका अष्टविध भेद शुभ और अशुभ फलको देनेवाला है एवम् परस्पर उपकारकारक. है । इसलिये आहारविधिको यथोचित रीतिपर जानकर हितकी इच्छावाला मनुष्य मोहंसे और प्रमादसे भी अपने अहित और सुखके नष्ट करनेवाले पदार्थीको सेवन न करे ॥ २५ ॥
आहार विधि। तत्रेदमाहारविधिविधानमरोगाणामपिचातुराणांहितम् । केषाञ्चित्कालेप्रकत्यैवहिततमंभुञ्जानानांभवति । उष्णस्निग्धं मात्रावजीर्णेवीर्याविरुद्धंइष्टंदेशेइष्टसौंपकरणंनातिद्रुतंनांतिविलम्बितनजल्पन्नहसंस्तन्मनाभुञ्जीतआत्मानमभिसमीक्ष्य ' सम्यक् ॥ २६॥ यह आहार विधिसे सेवन करना आरोग्य मनुष्योंके लिय तथा रोगियोंके लिये हितकर होता है। और समयपर भोजन करना स्वभावसे ही भोजनकर्ताको हितकारक. होता है। तथा कसा २ क लिये कोई नियत समय हितकर होताहै । अब आहारकी विधिको कथन करते हैं। गर्म, चिकना, और परिमाणका भोजन- प्रथम भोजनके पाचन होनेपर खाना चाहिये । वह भोजन आविरुद्धवर्यि होना चाहिये तथा पवित्रस्थानमें बैठकर वांछित सब पदार्थों से युक्त हो, भोजनको न बहुत जल्दी नाबहुत देर में करना चाहिये। और भोजन करते हुए बहुत बोलना और हंसना त्याग कर भाजनमें मन लगाकर अपने शरीरके बलावलको देखकर भोजन करें ॥ २६॥
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(५१०) चरकसंहिता-भा० टीः ।
उष्णभोजनके गुण । तस्यसाद्गुण्यमुपदेक्ष्यामः । उष्णमनीयादुष्णंहिभुज्यमानंस्वदतेमुक्तञ्चाग्निमुदीर्यमुदीरयति। क्षिप्रञ्चजरांगच्छति, वातञ्चानुलोमयति, श्लेष्माणञ्चपरिशोषयतितस्मादुष्णमनीयात् ॥ २७॥ उस भोजनके विधिवत् किये जानेसे जो उत्तम गुण होते हैं उनका वर्णन करते हैं। भोजन सदैव ताजा और गर्म करना चाहिये। क्योंकि उस आहारमें स्वादुशक्ति उत्तम रहती है एवंम् उससे अग्नि चैतन्य होकर आहारको पाचन करती है। और वह आहार शाघ्र जर्णि होजाताहै । गर्म आहारके भाजन करनेसे वायुका अनुलोम होताहै और कफका परिशोषण होताहै । इसलिये गर्म आहारका ही सेवन · करना चाहिये ॥ २७ ॥
स्निग्धभोजनके गुण । स्निग्धमश्नीयात् । स्निग्धहिभुज्यमानस्वदते । भुक्ताश्चाग्निमुदीरयतिक्षिप्रंजरांगच्छतिवातमनुलोमयतिदृढीकरोति । शरीरोपचयं बलांभिवृदिञ्चोपजनयति, वर्णप्रसादमपिचाभिनिवर्तयति । तस्मात् स्निग्धमश्नीयात् ॥ २८॥ भोजन सदैव चिकना करना चाहिये। चिकने पदार्थोंका स्वादु उत्तम होताहै। और भोजन कियजानेपर अग्निको बलवान् करताहै । तथा वायुको अनुलोमन करताहै । एवम् शरीरको दृढ तथा पुष्ट करताहै और वलकी वृद्धिको उत्पन्न करता है । वर्णको प्रसन्न करताहै इसलिये आहारको घृतयुक्त कर खाना चाहिये ॥ २८ ॥
मात्रावत्भोजनका गुण। मात्रावदश्नीयात् । मात्रावद्धिभुक्तं वातपित्तकफानप्रपीडयदायुरेवविवर्द्धयतिकेवलंसखसम्यक्पक्वविड्भूतंगदमनुपथ्र्योत नचोष्माणमुपहन्तिअव्यथञ्चपरिपाकमेति । तस्मान्मात्रावदश्नीयात् ॥ २९॥ भोजन सदैव परिमाणसे करना चाहिये । परिमाणसे कियाहुआ भोजन वात पित्त, कफको साम्यावस्थामें रखताहुआ आयुको बढाता है। और मुखपूर्वक पाचन होजाताहै । इसका मलभाग मलस्थान द्वारा यथोचित रीतिसे निकल जाताहै जठ
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। विमानस्थान - अ० १.
'(488')
रानिकी गर्मी में किसी प्रकारका विघ्न न करके परिपाकको प्राप्त होजाता है । इसालय - भोजन उचित मात्रासे करना चाहिये ॥ २९ ॥
जीर्णभोजन में भोजन के गुण ।
जीर्णेऽश्नीयात् । अजीर्णेहिभुञ्जानस्य पूर्वस्याहारस्यरसमपरिणतमुत्तरेणाहाररसेनोपसृजन्सर्वान् दोषान्प्रकोपयत्याशु । जीतु भुञ्जनस्यस्वस्थानस्थेषुदोषेषु अग्नौ चोदीर्णे जातायाञ्चबुभुक्षायांविवृतेषुच स्रोतसांमुखेषुचोद्गारेविशुद्धेहृदयेविशुद्धेवातानुलोम्येविसृष्टेषुचवातमूत्रपुरीषवे गेषुजीर्णमभ्यवहृतमाहारजातसर्वशररिधातून प्रदूषयदायुरवाभिवर्द्धयति केवलम् । तस्माजीर्णेऽश्नीयात् ॥ ३० ॥
प्रथम दिनका आहार जीर्ण होजानेपर तव भोजन करना चाहिये । अजीर्णमें भोजन करनेसे अर्थात् पाहिले किये हुए आहारका रस शरीरंमें यथोचित रीतिपर पचजाने के बिना भोजन करनेसे उस दूसरे आहारके साथ मिलकर दोषोंको कुपित करता है । और पहिला भोजन पचजानेपर फिर भोजन कियाजाय तो दोष अपने २ स्थानों में स्थित रहते हैं। अग्नि चैतन्य होकर भूख लगाती है और नाडियोंके मुख शुद्ध - होकर डकार शुद्ध आती है । हृदय शुद्ध रहता है । वायुका अनुलोम होता है । वात, मूत्र, मल ये अपने समयपर ठीक निकलते हैं । वह आहार यथोचित रीतिपर जीर्ण ' होकर धातुओंको दूषित न करता हुआ केवल आयुको बढाता है ॥ ३० ॥ वीविरुद्ध भोजनके गुण । वीर्य्याविरुद्धमश्नीयात्। अविरुद्धवीर्य्यमश्ननहिनविरुद्धवीर्य्याहारजैर्विकारैरयमुपसृज्यते तस्माद्वीर्य्याविरुद्धमश्नीयात् ॥ ३१ ॥
अविरुद्ध वीर्यवाले. पदार्थों का सेवन करना चाहिये । अविरुद्ध वीर्यवाले पदार्थोंके खानेसे जो विकार विरुद्धवीर्य आहारसे उत्पन्न होते हैं वह नहीं होते। इसलिये विरुद्धवीर्य पदार्थों को न खाना चाहिये ॥ ३१ ॥
इष्टदेशमें भोजन का गुण ।
इष्टदेशेऽश्नीयात् । इष्टेहि देशेभुआनोनानिष्टदेशजैर्मनोवि - घातकरैर्भावैर्मनोविघातं प्राप्नोतितथेष्ठैः सर्वोपकरणैस्तस्मादिष्टे -देशेतथेष्टसवपकरणञ्चाश्नीयात् ॥ ३२ ॥
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(५१२)
चरकसंहिता-भा० टी०। अर्थात पवित्रस्थानमें भोजन करना चाहियोपवित्रस्थानमें भोजन करनेवाले मनुष्यको दुष्टस्थानजनित मनमें ग्लानि आदि उत्पन्न नहीं होती। इसलिये वांछित स्थानमें मनको प्यारे लगनेवाले, उत्तम उपकरणोंके सहित भोजन करे ॥ ३२॥
नातिद्रुतभोजनके गुण। नातिद्रुतमश्नीयात्।अतिदूतं हि सुझानस्यउत्स्नेहनमवसदनंभोजनस्याप्रतिष्ठानम् । भोज्यदोषलाद्गुण्योपलब्धिश्चन नियता । तस्मान्नातिद्रुतमश्नीयात् ॥३३॥
अत्यन्त जल्दी भोजन नहीं करना चाहिये । अत्यन्त जल्दी भोजन करनेसे शररिके स्नेहकी ऊर्ध्वगति, देहका रहनाना एवम् किया हुआ आहार यथोचित रीतिपर अपने स्थानमें नहीं पहुंच सकता और जो भोजन किया जाय उसका यथोचित दोष, गुण प्रतीत नहीं होसकता इसलिये भोजनको अत्यन्त शीघ्र नहीं करना चाहिये ॥ ३३ ॥
नातिविलम्वित भोजनके गुण । नातिविलम्बितमश्नीयावा अतिविलम्बितहिभुञानोनतृप्तिमधिगच्छतिबहुभुंक्तशीतीभवतिचाहारजातीवषमपाकञ्चभव. ति तस्मान्नातिविलम्बितमश्नीयात् ॥ ३४॥ बहुत देरमें भी भोजन नहीं करना चाहिये । बहुत देरमें भोजन करनेसे मनुष्याः वृप्तिको प्राप्त नहीं होता। और बहुत भोजन करता है एवम् भोजनके पदार्थ शीतल होजाते हैं तथा आहारका विषम परिपाक होताहै इसलिये अधिक देरमें भोजन नहीं करना चाहिये ॥ ३४॥
मौनसे भोजनके गुण । ' ' अजल्पन्नहसंस्तन्मनाभुञ्जीता जल्पतोहसतोऽन्यमनसोवाभुञानस्यतएवहिदोषाभवन्तियएवाति तमश्नतः। तस्मादजल्पन्नहसंस्तन्मनाभुञ्जीत ॥३५॥ . . . भोजन करते हुए-हंसना और वहुत बोलना नहीं चाहिये । तथा भोजनमें चित्त लगाकर भोजन करना चाहिये । हंसते हुए और बोलते हुए तथा दूसरी जगह चित्त लगाकर भोजन करनेसे जो अवगुण बहुत शीघ्र भोजन करनेसे होतेहैं सोई. इनमें भी होतेहैं। इसलिये चुपचाप हास्य रहित भोजनमें चित्त लगा भोजन करना चाहिये ॥३५॥
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विमानस्थान-अ० १. (५१३)
आत्माको देखकर भोजनके गुण । आत्मानमभिसमीक्ष्यभुञ्जतिसम्यक् । इदंममोपशेतेइदंनोपशेतेइति । विदितंहिअस्यआत्मनआत्मसात्म्यंभवति । तस्मादात्मनात्मानमभिसमीक्ष्यभुञ्जीतसम्यगिति ॥ ३६॥
अपने शरीरके बलावलको विचार कर ही विधिवत् भोजन करना चाहिये किं. यह पदार्थ मुझे सात्म्य है और यह असात्म्य है । इस प्रकार विचारकर भोजन किया हुआ अन्न शरीरके सात्म्य अर्थात् अनुकूल होताहै।इस लिये अपनी ममिका वलाबल विचारकर जो पदार्थ अपने शरीरको हितकर हो वह खाना चाहिये॥३६॥
तत्र श्लोकाः। रसान्द्रव्याणिदोषांश्चविकारांश्चप्रभावतः । वेदयोदेशकालौच शरीरञ्चसनाभिषक् ॥ ३७॥ विमानार्थोरसद्रव्यदोषरोगाः प्रभावतः। द्रव्याणिनातिसेव्यानित्रिविधंसात्म्यमेवच ॥३८॥ आहारायतनान्यष्टौभोज्यसाद्गुण्यमेवच । विमानेरससंख्याते. सर्वमेतत्प्रकाशितम् ॥३९॥ इति अग्निवेशकृते तंत्रेचरकप्रतिसंस्कृते विमानस्थाने .
रसविमाननामप्रथमोध्यायः ॥१॥ अब अध्यायका उपसंहार करतेहैं । यहांपर श्लोक हैं-कि जो मनुष्य रस,द्रव्य दोष, और रोगोंके प्रभावको जानता है और देश, काल, तथा शारीरिक अव स्थाको जानताहै उसीको वैद्य कहना चाहिये ॥३७॥ इस विमाननामक अध्यायमें विमानका अर्थ, रसके प्रभाव, द्रव्यके प्रभाव, दोषोंके प्रभाव एवम् रोगोंके प्रभाव तथा आहारविधि और अत्यन्त न सेवन करनेयोग्य द्रव्य, तीन प्रकारका सात्म्य आठ प्रकारके आहारके आयतन,आहारके गुण ये सव वर्णन किये गयेहैं॥३८॥३९॥ इति श्रीमहर्षिचरक० विमानस्थान पं० रामप्रसादवैद्य० भाषाटीकायां.
रसविमानं नाम प्रथमोऽध्यायः ॥१॥
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(५१४)
चरकसंहिता-मा० टी०। द्वितीयोऽध्यायः।
-CRETRIENONअथातस्त्रिविधंकुक्षीयांवमा व्याख्यास्यामइतिहस्माह भगवानात्रेयः । अब हम त्रिविधकुक्षीय विमानका कथन करते हैं । इस प्रकार भगवान् आत्रे: यजी कहनेलगे।
त्रिविधकुक्षीयका वर्णन। त्रिविधंकुक्षौस्थापयेदवकाशांशमाहारस्याहारमुपयुञ्जानः ।तयथैकमवकाशांशमूर्तानामाहारविकाराणामेकंद्रवाणामेकंयुनर्वातपित्तश्लेष्मणाम् ॥१॥ भोजन करते समय-उदरमें तीन विभाग करने चाहिये । उनमें उदरके एक भागको पेडा, पूडी, परांवठा आदि गरिष्ठ पदार्थोंसे पूरित करना चाहिये । और एक भागको खीर, दूध आदि पतले पदार्थों से पूरित करना चाहिये। तीसरा भाग वात, पित्त, कफके संचारके लिये खाली रखना चाहिये ॥१॥
एतावतींयाहारमात्रामुपयुञ्जानोनामात्राहारजंकिञ्चिदशुभंप्रानोति । नचकेवलंमात्रावत्वादेवाहारस्यकत्लमाहारफलसौष्ठवमवातुंशक्यम् । प्रकृत्यादीनामष्टालामाहारविधिविशेषायतनानांप्रविभक्तफलकत्वात् । तत्रतावदाहारराशिमधिकृत्यमात्रामात्राफलविनिश्चयार्थःप्रकृतः एतावानेवह्याहारराशिविधिविकल्पोयावन्मात्रावत्त्वममात्रावत्त्वञ्चतत्रमात्रावत्वंपूर्वमु· पदिष्टंकुक्ष्यंशविभागेन। तद्भूयोविस्तरेणानुव्याख्यास्यामः॥२॥
यही आहारकी मात्रा है । इस प्रकार मात्रासे भोजन करनेवाला मनुष्य आहा. . रजनित विकारोंसे बचा रहता है अर्थात् उसको आहारजानत कोई रोग नहीं होता
और यथोचित रीतिपर भोजन करनेके कारण आहार करनेके जो उत्तम फल होते हैं और शरीरको पुष्टता आदि उत्तम गुण प्राप्त होते हैं। संपूर्ण आहार पूर्वोक्त आहारके आठ आयतनोंको विचारकर फिर मात्रानुसार भोजन करना चाहिये। आहारके समूहमें इतना ही विधि और विकल्प है कि उसको मात्रा और अमा,
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विमानस्थान-म०२.
(५१५). त्राको विचारकर भोजन करे । मात्राक्रमसे भोजन करना उदरके अंश विभागसे प्रथम कथन कर चुके हैं। अब उसका विस्तारपूर्वक फिर वर्णन करते हैं ॥२॥
तद्यथा-कुक्षेरप्रपीडनमाहारेणहृदयस्यानवरोधःपार्श्वयोरविपाटनमनतिगौरवमुदरस्यप्राणनमिन्द्रियाणांक्षुत्पिपासोपरमः स्थानासनशयनगमनप्रश्वासोच्छासहास्यसंकथासुचसुखानुवृत्तिःसायंप्रातश्चसुखेनपरिणमनम् । बलवर्णोपचयकरत्वञ्चेति मात्रावतोलक्षणमाहारस्यभवति ॥३॥
आहारको इस प्रकार करना चाहिये जिससे कोखमें पीडा न हो और हृदयका अवरोध न हो। दोनों तरफके पार्श्वभाग फटें नहीं, पेटमें अधिक भारीपन न हो।इस प्रकार मात्रानुसार भोजन करनेसे-इंद्रियें पुष्ट होती हैं । क्षुधा और प्यास शान्त होती है । वैठने,सोने,चलने,श्वास,प्रतिश्वास लेनेमें तथा हंसने और वोलने आदिमें सुख प्राप्त होताहै । सायंकाल और प्रातःकाल दोनों समय आहार पाचन हुआ प्रतीत होताहै तथा मलादि वेग ठीक परिमाणसे ही निकलते हैं । बल और वर्णकी वृद्धि होती है । ठीक मात्रापूर्वक आहार करनेके यह लक्षण होते हैं ॥३॥
अमात्राके भेद । अमात्रावत्त्वंपुनर्द्विविधमाचक्षते। हीनमाधिकञ्च। तत्रहीनमाजाहारराशिवलवर्णापचयक्षयकरमतृप्तिकरमुदावर्तकरमवृष्य. मनायुष्यमनौजस्यंमनोवुद्धीन्द्रियोपघातकरंसारविधमनमलक्षम्यावहमशीतेश्चवातविकाराणामायतनमाचक्षते ॥ ४॥
अमात्राके दो भेद हैं । १ हीनमात्रा । २ आधिकमात्रा । हीनमात्रासे भोजन किया जाय तो-बल, वर्ण और पुष्टिकी क्षीणता, पेटका नहीं भरना, उदावर्त रोग तथा अवृष्यता होती है । वह आयुको नहीं बढाता,ओज, मन, बुद्धि, इन्द्रिय इन सबकी शक्ति हीन होती है। सारका प्रधमन,(इसी विमानस्थानके आठवें अध्यायमें आठ प्रकारके सारोंका कथन किया जायगा) अलक्ष्मी एवम् अस्सी प्रकारकी वातव्याधियें उत्पन्न होती हैं ॥ ४ ॥
अतिमात्रपुनःसर्वदोषप्रकोपनमिच्छन्तिसर्वकुशलाः ॥५॥ अव अधिकमात्रासे भोजनके अवगुणोंको कथन करते हैं।सव दोषोंको जानने वाले बुद्धिमान कथन करते हैं कि अधिक मात्रासे भोजन कियाहुआ आहार संपूर्ण दोषोंको कुपित करताहै ॥५॥
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(५१६). चरकसंहिता-भा०. टी०.।
दोषोंके कुपितहोनेका कारण । योहिमूर्तानामाहारविकाराणांसौहित्यंगत्वापश्चाद्वैस्तृप्तिमापद्यतेभूयस्तस्यामाशयगतावातपित्तश्लेष्माणोऽभ्यवहारेणअतिमात्रेणातिप्रपीडयमानाःसर्वेयुगपत्प्रकोपमापद्यन्ते ॥६॥ जो मनुष्य पूडी आदि कडे पदार्थोंसे पेट भरकर फिर दूध, जल आदिसे पेटको पूर्णकर लेताहै उस मनुष्यके आमाशयमें प्राप्तहुए वात, पित्त, कफ अधिक भोजन, करनेसे पीडित हुए एककालमें ही सव कोपको प्राप्त होतेहैं ॥ ६ ॥
पृथक् २ दोषाके उपद्रव । तेप्रकुपितास्तमेवाहारराशिमपरिणतमाविश्यकुक्ष्येकदेशमानि- . ताविष्टम्भयन्तःसहसावापिउत्तराधराभ्यांमार्गाभ्यांप्रच्यावय... न्तःपृथक्पृथग्विकारानभिनिर्वतयान्तअतिमात्रभोक्तुः ॥७॥ फिर वह कुपित हुए दोष उसी आहारसमूहमें मिलकर कोखके एक देशमें स्थित होजातेहैं । तब वह विष्टम्भको करते हुए सहसा ऊपरको या नीचेको निकलने आरम्भ होतेहैं। तब वह दोष अत्यन्त भोजन करनेवाले मनुष्यके शरीरमें अपने अलग २ विकारोंको करते हैं ॥ ७ ॥
कुपितवातादि दोषोंके उपद्रव ।। तत्रवातःशूलानाहाङ्गमर्दमुखशोषमूर्छाभ्रमानिवैषम्यशिरासङ्कोचनसंस्तम्भनानिकरोति ॥८॥ इनमें कुपित हुआ वायु-शूल, अफारा, अंगमर्द, मुखशोष, मूर्छा, भ्रम, अनिकी विषमता, सिराओंका संकोच और अंगोंका स्तम्भ आदि उपद्रवोंको करता है ॥८॥
पित्तंपुनज्वरमतीसारमन्तर्दाहंतृष्णामदभ्रमप्रलपनानि ॥९॥ . वहुत आहारसे कुपित हुआ पित्त-ज्वर, अतिसार, अन्तर्दाह, तृषा, मद, भ्रमः और बकवादको उत्पन्न करताहै ॥ ९॥ श्लेष्मातुरचरोचकाविपाकशीतज्वरालस्यगात्रगौरवाभिनि- . वृत्तिकरःसस्पद्यते ॥१०॥ इसी प्रकार कुपित हुआ कफ-छर्दी, अरुचि, अविपाक, शीतज्वर, आलस्य, देहमें भारीपन इनको उत्पन्न करता है ॥ १० ॥
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विमानस्थान अ०२
(५१७) आम दूषित होनेका कारण । नखलुकेवलमतिमात्रमेवाहारराशिमामप्रदोषकारणमिच्छन्ति । अपितुखलुगुरुरूक्षशीतशुष्कद्विष्टविष्टम्भिविदाह्यशुचिविरुद्धानामकालेअन्नपानानामुपसेवनम्। कामक्रोधलोभमोहेाहीशोकलोभोद्वेगभयोपतप्तनमनसावायदन्नपानमुपयुज्यतेतदपिआममेवप्रदूषयति ॥ ११॥
केवल अधिक मात्रासे आहार करनाही भुक्ताहारको आमदोषादि युक्त कर-ताहै यही नहीं किन्तु भारी, रूक्ष, शीतल, सूखे, द्वेषी, विष्टम्भकारक, विदाही,
अपवित्र और विरुद्ध अन्नपानोंका विना समय सेवन करना भी आमदोषको कुपित करताहै इसी प्रकार-काम, क्रोध, लोभ, मोह, ईर्षा, लज्जा, शोक, लोभका उद्वेग, भय इनसे उत्तप्त मन होनेपर जो अन्नपान कियाजाताहै वह सब आमकोही दूषित करताहै ॥ ११॥
भवति चात्र। मात्रयाप्यभ्यवहृतंपथ्यश्चान्नजीति ।।
चिन्ताशोकभयक्रोधदुःखशय्याप्रजागरैः॥ १२ ॥ सो यहांपर कहते हैं कि, जो आहार मात्रापूर्वक पथ्य ही कियाजाय वह भी चिंता, शोक, भय, क्रोध, दुःख, सोना और जागना इन कारणोंसे यथोचित परिपाकको प्राप्त नहीं होता ॥ १२ ॥
आमके विसूचिकादि भेद । तद्विविधमामप्रदोषमाचक्षतेभिषजः। विसूचिकामलसञ्च। त. त्रविसूचिकामूद्धश्चाधश्चप्रवृत्तामदोषांयथोक्तरूपाविद्यात्॥ १३ ॥ उस आमदोषको वैद्यलोग दो प्रकारका कथन करतेहैं । १ विचिका । २ अलसक । उनमें विसूचिका रोग-छर्दद्वारा ऊपरके मार्गसे, दस्तद्वारा नीचे के मार्गसे दोनों ओरसे प्रवृत्त होता है । तथा शरीरमें सूई चूभनेका तोद और उल्लेश होताहै । इसको लोकमें हैजा और कौलरा कहते हैं ॥ १३ ॥
अलसकके लक्षण । अलसकमुपदक्ष्यामः दुर्बलस्याल्पाग्नेबहुश्लेष्मणोवातमूत्रपु. पुरीषवेगविधारिणःस्थिरगुरुवहुरूक्षशीतशुष्कान्नसेविनस्त
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(५१८) चरकसंहिता-भा० टी०।
दन्नपानमनिलप्रपीडितंश्लेष्मणाचविबद्धमार्गमतिमात्रप्रलीनमलसत्त्वान्नबहिर्मुखीभवति । ततश्छर्यतीसारवानिआमप्रदोषलिङ्गानिअभिदर्शयतिअतिमात्राणि । अतिमात्रप्रदुष्टाश्चदोषाःप्रदुष्टामबद्धमार्गास्तिर्यग्गच्छन्तःकदाचित्केवलमे. वास्यशरीरंदण्डवत्स्तम्भयन्तिाततस्तमलसकमसाध्यंब्रुवत॥१४॥ अब अलसकका वर्णन करते हैं-अल्प अग्निवाला और वढेहुए कफवाला दुर्वल मनुष्य जब मल आदि वेगोंको रोकता है तथा कठोर,मारी, अधिक,रूक्ष, शीतल एवम् शुष्क अन्नपानका सेवन करताहै तो उस मनुष्यके शरीरमें वह अन्नपान-वायुसे पीडित होकर कफसे विबद्धमार्ग होकर घिरजाता है और मूच्छित तथा अलंसीभूत होकर देहसे बाहर नहीं निकल सकता। वह छर्दी और दस्तके सिवाय और संपूर्ण आमके दोषोंके लक्षणों से युक्त होताहै । फिर अत्यन्त कोपको प्राप्तहुए दोष दुष्टहुए तथा बद्धमार्ग हुए तिरछा गमन करते हैं । कभी उसके शरीरको दण्डक समान स्तम्भन कर देते हैं । इस रोगको अलसकरोग कहतेहैं । यह रोग असाध्या,
आम विषका वर्णन । विरुद्धाध्यशनाजीशनशालिनःपुनरेवदोषमामविषमित्याचक्षतेभिषजोविषसहशलिङ्गत्वात्, तत्परमसाध्यमाशुकारित्वात,विरुद्धोपक्रमत्वाचेति ॥ १५॥ विरुद्ध भोजन करनेवाले और अधिक भोजन करनेवाले तथा अंजीर्णमें भोजन करनेवाले मनुष्योंके शरीरमें जो आमदोष होताहै वैद्यलोग उसको आमविष कहते हैं। क्योंकि यह आमविषके समान शीघ्र मारकलक्षणवाला होताहै । यह रोग शीघ्र नाशकरनेवाला होनेसे तथा चिकित्सामें विरोध पडनसे यह विषके समान असाध्य होताहै ॥ १६ ॥
साध्य आमकी चिकित्सा। तत्रसाध्यमामंप्रदुष्टमलसीभूतमुल्लेखयेदादौपाययित्वालवणमुष्णञ्चवारि । ततःस्वेदनवर्तिप्रणिधानाभ्यामुपाचरेदुपवासयेचैनम् ॥ १६॥ यदि उस अलसक रोगमें वह दुष्ट आम अलसीभूत हुई कुंछ साध्य प्रतीत हो सो उस आमको नमक और गरमजल पिलाकर वमन द्वारा दोषको निकाल दे।
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विमानस्थान-अ० २. उसके अनन्तर स्वेदन तथा बस्ति प्रयोगद्वारा चिकित्सा करे और लंघन करावे१६
विषूचिकादि आमदोषको चिकित्सा । विषूचिकायान्तुलंघनमेवाग्रेविरिक्तवच्चानुपूर्वी ॥ १७॥ विसूचिकामें तो प्रथम लंघन करानाः चाहिये और तदनन्तर जैसा विरेचन होजानपर विरिक्त मनुष्यकी क्रिया कीजातीहै उसी प्रकार क्रमपूर्वक चिकित्सा करनीचाहिये ॥ १७ ॥
आमप्रदोषेषुत्वनकालेजीर्णाहारंपुनदोषावलिप्तामाशयस्तिमितगुरुकोष्ठमनन्नाभिलाषिणमभिसमीक्ष्यपाययेदोषशेषपाचनार्थमौषधमग्निसन्धुक्षणार्थञ्चनत्वजीर्णाशनम् । आमप्रदोषदुर्वलोह्यग्निर्युगपदोषमौषधमाहारजातञ्चाशक्तःपक्तुम् ॥१८॥ आमके दूषित होनेपर प्रथम लंघन कराना चाहिये। लंघनद्वारा अन्न जीर्ण होनेपर याद फिर भी ऐसा देखे कि आमाशयमें दोष लिपायमान है. तथा कोष्ठ क्लेदयुक्त है एवम् भारी है तथा अन्नमें रुचि भी नहीं है तो शेष दोषोंके पाचन करनेके. लिये तथा अग्निको चैतन्यं करनेके लिये पाचन औषधी देवे। परन्तु आमयुक्त अजीर्णमें पाचन औषध देनेकी आवश्यकता नहीं है । क्योंकि आमदोष बलवान् होताहै । उस वढेहुए आमदोषको दुर्वल अग्नि तथा औषधी पाचन नहीं कर; सकती ॥ १८॥
अपिचामप्रदोषाहारौषधविभ्रमोऽतिबलत्वादुपरतकायानि सहसैवातुरमबलमभिपातयेत् ॥ १९ ॥ आम, दोष, आहार, औषध,इनका विभ्रम बलवान होनेसे क्षीणाग्निवल मनुष्यको शीघ्र नष्ट करडालतेहैं इसलिये अजीर्ण में अग्निकी चैतन्यता करनी चाहिये केवल पाचन औषध न देवे ॥ १९ ॥
आमप्रदोषजानांपुनर्विकाराणामपतपणेनैवोपरमोभवति । सतित्वनुबन्धेकृतापतर्पणानांव्याधीनांनिग्रहनिमित्तविपरीतमपास्यौषधमातङ्कविपरीतमेवावचारयेत् । यथास्वंसर्वविका• राणामपिचनिग्रहहेतुव्याधिविपरीतमौषधमिच्छन्तिकुशलाः२०॥
आमदोषसे उत्पन्नहुए रोग अपतर्पण क्रिया द्वारा शान्त होतेहैं। यदि अपतर्पण करने पर भी आमदोषजनित विकार वाकी रहजाय तो रोगके नाश करनेवाले यल
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. (५२० )
चरकसंहिता - भा० टी० ।
करने चाहिये । अर्थात् अपतर्पण करना आमदोषको चिकित्सा है। यदि अपतर्पण. करनेपर भी आमसे उत्पन्न हुए रोग शेष रहजांयं तो उन रोगोंकी नाश करनेवाली 'औषधी करनी चाहिये। जैसे सम्पूर्ण विकारोंकी शान्तिके लिये वैद्यलोग हेतु व्याधिके विपरीत अर्थकारी चिकित्सा करते हैं वैसे ही यहां पर भी करनी चाहिये ॥ २० ॥ तदर्थकारिविपक्क भुक्कामप्रदोषस्यपुनः परिपक्वदोषस्यदीतेचाग्नौअभ्यङ्गास्थापनानुवासनंविधिवत्स्नेहपानञ्च युक्त्याप्रयोज्यम्, प्रसमीक्ष्यदोषभेषजदेशकालबलशरीराहारसात्म्य सत्त्वप्रकृतिवयसामवस्थान्तराणिविकारांश्च सम्यगिति ॥ २१ ॥
फिर हेतु और व्याधिके विपरीत अर्थवाली चिकित्सा करनेसे जब आमदोष पचजाय और दोष के पचनेसे जठराग्नि चैतन्य होजाय फिर विधिपूर्वक अभ्यंजन, अनुवासन और आस्थापन तथा स्नेहपान यह युक्तिपूर्वक कराने चाहिये । तथा दोष, औषधी, देश काल, बल, शरीर, आहार, सात्म्य, सत्त्व, प्रकृति और अवस्था इन सवको भलीप्रकार विचारकर तथा विकारों को देखकर विधिवत् चिकित्सा करे२१ ॥ भवति चात्र ।
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अशितंखादितंपीतंलीढञ्चचविपच्यते । एतत्त्वांधीर ! पृच्छामस्तन्नआचक्ष्वबुद्धिमन् ॥ २२ ॥ इत्यग्निवेशप्रमुखैः शिष्यैः पृष्टः पुनर्वसुः । आचचक्षेततस्तेभ्योयत्राहारोविपच्यते ॥ २३ ॥
यहां पर कहा है कि खानेके, चाबनेके, पीनेके, चाटने के योग्य जो पदार्थ हैं वह शरीर के किस स्थान में प्राप्त होते हैं यह हे धीर ! हम आपसे पूँछते हैं कृपाकर आप कथन कीजिये । इस प्रकार अग्निवेश आदि शिष्यों के पूंछनेपर भगवान् पुनर्वसुजी कथन करने लगे कि जिस जगह आहार परिपाकको प्राप्त होता हैं वह तुम सबसे कथन करता हूं ॥ २२ ॥ ३३ ॥
आहारपचनेका स्थान ।
नाभिस्तनान्तरंजन्तोरामाशयइतिस्मृतः । अशितंखादितंपीतंलीढञ्चानविपच्यते ॥ २४ ॥ आमाशयगतः पाकमाहारःप्राप्यकेवलम् । पक्वः सर्वाशयः पश्चाद्धमनीभिः प्रपद्यते ॥ २५ ॥ मनुष्य के नाभि और स्तनके बीच में अर्थात् नाभिसे ऊपर और छाती से नीचे
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विमानस्थान-अ० ३.
(५२१० भामाशय है उस आमाशयमें ही-भक्ष्य, भोज्य,चोष्य,लेह, यह सव पदार्थ परि पांकको प्राप्त होते हैं। आमाशयमें आहार पाहले परिपाकको प्राप्त होकर फिर धम नियोंद्वारा उसका रस संव आशयोंमें पहुंच जाता है ॥ २४ ॥ २५ ॥
तस्यमात्रावतोलिङ्गंफलञ्चोक्यथायथम् अमात्रस्यतथालिङ्गं फलञ्चोक्तविभागशः॥ २६॥ आहारविध्यायतनानिचाष्टौसम्यकपरीक्ष्यात्महितंविदध्यात् । अन्यश्चयःकश्चिदिहास्तिमागोंहितोपयोगेषुभजेततञ्च ॥ २७ ॥ इति आग्निवेशकृतेतन्त्रेचरकप्रतिसंस्कृतेविमानस्थानेत्रिविध
कुक्षीयं विमाननामद्वितीयोऽध्यायः ॥२॥ इस प्रकार मात्रासे भोजन करनेवालोंके लक्षण और फल कथन करदिये गये हैं इसी प्रकार विना मात्रास भोजन कियेके लक्षण और फल भी यथाक्रम कथन किये गये हैं ॥ २६ ॥ सो बुद्धिमान् मनुष्यको चाहिये कि, आहारविधिके आठ आयतनोंको भले प्रकार परीक्षा करके अपनी आत्माके हितके लिये साधन करना चाहिये । इसके सिवाय अपनी आत्माके हित करनेवाले अन्य भी जो हितकारक मार्ग हों उनका सेवन करना चाहिये ॥२७॥ इति श्रीमहार्पचरक० पं०रामप्रसादवैद्य० भाषाटीकायां त्रिविधकुक्षीयो
नाम द्वितीयोऽध्यायः ॥२॥
तृतीयोऽध्यायः ।
अथ जनपदोद्ध्वंसनीयमध्यायंव्याख्यास्यामइति हस्माह
भगवानात्रेयः। अब हम जनपदोध्वंसनीय विमानाध्यायका कथन करतेहैं ऐसे भगवान् आत्रेयजी कहने लगे।
पुनर्वसुका प्रस्ताव । जनपदमण्डलेपाञ्चालक्षेत्रोद्विजातिवराध्युषितायांकाम्पिल्यराजधान्यांभगवान्पुनर्वसुरानेयोऽन्तेवासिगणपरिवृतःपश्चिमेघर्ममासेगङ्गातीरेवनविचारमनुविचरञशिष्यमग्निवेशमब्रवीत् १॥
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(५२२)
चरकसंहिता-मा० टी०। पांचालदेशमें द्विजवरोंसे शोभायमान काम्पिल्य राजधानीमें भगवान् पुनर्वस आत्रेयजी अपने शिष्यगणोंसे पारवृत हुए ग्रीष्मऋतुके अन्तमें गंगाके किनारे वनमें विचरते हुए अपने शिष्य अग्निवेशसे कहनेलगे ॥१॥
दृश्यन्तेहिखलुसौम्य ! नक्षत्रग्रहचन्द्रसूर्यानिलानलानांदिशाचप्रकृतिभूताऋतुवैकारिकाभावाअचिरादितोभूरपिचनयथावद्रसवीर्यविपाकप्रभावमोषधीनांप्रतिविधास्यति । तद्वियोगाचातंकप्रायतानियता। तस्मात्प्रागुद्धंसात्प्राक्चभूमेर्विरसीभावादुद्धरसौम्य ! भैषज्यानि,यावन्नोपहतरसवीर्याविपाकप्रभावाणि । वयंचैषांरसवीर्यविपाकप्रभावानुपदेक्ष्यामहा, येचास्माननुकांक्षन्ति, यांचवयमनुकांक्षामः॥२॥ हे सौम्य ! ऐसा दिखाई देताहै कि नक्षत्र, ग्रह, चन्द्रमी, सूर्य, पवन, अग्नि तथा दिशाओंके स्वभाव विकारको प्राप्त होगये हैं और ऋतुएं भी अपने स्वभावोंसे विपरीत प्रतीति होती हैं और पृथिवीके भी ऐसे लक्षण देख पडते हैं कि, यह भी औषधियोंके यथोचित रस, वीर्य, विपाक और प्रभावोंको नष्ट करडालेगी अर्थात अब पृथिषीमें जो औषधियें उत्पन्न होंगी वह अपने गुणोंको नहीं करेंगी । जब औषधियें अपने गुणोंको न करेंगी तो मनुष्यंभी नित्यम्प्रति रोगी होंगे और ऋतुआदिकोंके विकारसे रोग उत्पन्न हो देशको नष्ट करडालेंगे । इसलिये उद्धंसकारक रोग उत्पन्न होनेसे पहिले तथा पृथिवीका स्वभाव बिगडजानेसे पहिले ही हे सौम्य ! औषधियोंका संग्रह कर लो जबतक इन औषधियोंके रस,वर्यि, विपाक
और प्रभाव नष्ट न हों उससे प्रथम ही इनको संग्रह कर लेना चाहिये जो मनुष्य हमारेपर विश्वास रख हमारे पास आवेंगे तथा जिनके हितके लिये हम इच्छा करते हैं उन सबको रस,वीर्य,विपाक,प्रभावयुक्त औषधियोंके उपयोग द्वारा आरोग्य रखसकेंगे ॥२॥
नहिसम्यगुद्धृतेषुभैषज्यषुसम्यग्विहितेषुसम्यग्विचारचारितेषु जनपदोद्धंसकराणांविकाराणांकिाश्चत्प्रतीकारगौरवम्भवति ॥३॥ भले प्रकार उखाडी हुई औषधियोंको उत्तम विधिसे बनाकर यथोचित विचारपूर्वक प्रयोग करनेसे देशके नष्ट करनेवाले रोग अपना जोर न पासकेंगे । यदि बिना विचारे और विना ही समय उखाडे तथा भले प्रकार संस्कार किये विना
औषधियोंका प्रयोग किया जायगा तो वह जनपदोद्धंसनके समय विकारोंमें अपना कुछ भी गुण न दिखा सकेगी ॥३॥
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'विमानस्थान-अ०३.
(५२३) अग्निवेशका प्रश्न। एवंवादिनभगवन्तमात्रेयमग्निवेश उवाच । उद्धृतानिखलुभगवन् ! भैषज्यानिसम्यग्विहितानिसम्यग्विचारचारितानि । अपितुखलुजनपदोद्धंसनमेकेनव्याधिनायुगपदसमानप्रकृत्याहारदेहवलसात्म्यासत्त्ववयसांमनुष्याणांकस्माद्भवतीति ॥४॥ इस प्रकार कथन करते हुए भगवान् आत्रेयजीसे अग्निवेश कहनेलगे कि हे भगवन् ! औषधियोंको भले प्रकार उखाड लिया है और विधिपूर्वक संस्कार किया हुआ है तथा उनके प्रयोगके विधानको विचारा हुआ है अथवा यों औषधियोंको भले प्रकार उखाडना तथा संस्कार करना एवंविधिवत् प्रयोग करना यह आपका उपदेश रोगोंमें हितकारक होना बहुत ठीक है परन्तु मनुष्योंकी प्रकृति, आहार, देह बल, सात्म्य, सत्व और अवस्था यह सब अलग २ होतेहुए एक रोग एक समयमें जनपद (देश) को कैसे उध्वंसन ( नष्ट) कर सकताहै। सो हमारी समः झमें नहीं आया कृपया उसका कथन कीजिये ॥ ४ ॥
आत्रेयका उत्तर। । तमुवाचभगवानात्रेयः । एवमसामान्यानामभिरपिअग्निवेश! प्रकृत्यादिभिर्भावर्मनुष्याणांयेऽन्येभावाःसामान्यास्तद्वैगुण्या
समानकाला:समानलिंगाश्चव्याधयोभिनिवर्तमानाजनपदमुद्ध्वंसयन्ति । तेतुखलुइमेभावाःसामान्याजनपदेषुभवन्ति । तद्यथा-वायुरुदकंदेशःकालइति ॥ ५ ॥ यह सुनकर भगवान् आत्रेयजी कहनेलगे कि हे अग्निवेशायद्यपि सव मनुष्योंके प्रकृति आदि भाव समान नहीं होते अर्थात् एकसे दूसरे मनुष्यके स्वभाव आदिक अलग २ होतेहैं । जैसे-कोई मनुष्य शीत प्रकृतिवाला, कोई उष्ण प्रकृतिवाला । पर मनुष्योंके प्रकृति मादि भाव समान न होनेपर भी इनसे पृथक् जो अन्य सामान्य भाव हैं उनकी विगुणतासे अर्थात उनके बिगडजानेसे समानकालमें समानलक्षणों वाली व्याधिये प्रगट होकर देशको नष्ट कर डालती हैं । वह समानभाव देशमें ये होते हैं । जैसे वायु, जल, देश और काल ॥५॥
वातको अनारोग्यत्व । तत्रवातमेवंविधमनारोग्यकरंविद्यात् । तद्यथा-ऋतुविषममतिस्तिमितमतिचलमतिपरुषमतिशीतमत्युष्णमतिरूक्षमत्य
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... ५२४)
चरकसंहिता-भा० टी०। भिष्यन्दिनमतिभैरवारावमतिप्रतिहतपरस्परगतिमतिकुण्डलिनमसात्म्यगन्धबाष्पसिकतापांशुधूमोपहतमिति ॥६॥ उनमें इस प्रकारका वायु होनेसे व्याधियोंके उत्पन्न करनेवाला जानना । जैसे विकृत ऋतुके गुणोंसे मिलाहुआ, अत्यन्त गीला, अत्यन्त वेगयुक्त, अति कठोर, अत्यन्त शीतल, अधिक गर्म, अत्यन्त रूक्ष, क्लेदकारक, अतिभयंकरशब्दयुक्त, दो तीन तरफसे वायु मिलकर टक्कर खानेवाला,अत्यन्त चक्कर खानेवाला,जिसकी गंधसे लोगोंके शरीरमें विकार उत्पन्न हों एवम् भाफ, सिकता, धूल, गर्दा,चूंआं आदिसे 'मिलाहुआ वायु विकारयुक्त होताहै ॥ ६॥
जलको अनारोग्यत्व। उदकन्तुखलुअत्यर्थविकृतगन्धवर्णरसस्पर्शवक्केदबहुलमपक्रान्तजलचरविहङ्गमुपक्षीणजलाशयमप्रीतिकरमपगतगुणं वि. . द्यात् ॥७॥ जल इस प्रकारका रोगकारक होताहै । जैसे दुर्गंधयुक्त विकृतवर्णवाला और जिसका रस तथा स्पर्श बुरा हो,गिलगिला जिसको जलचर पक्षियोंने त्याग दियाहो तथा जिसका जल सूख गयाहो, एवम् जिसका जल हानिकारक हो अथवा जिसके समीप जानेसे चित्त खराब होजाय और जलके गुणोंसे रहित हो ऐसे जलको रोगकारक जानना चाहिये ॥ ७॥
देशको अनारोग्यत्व । देशंपुनःविकृतप्रकृतिवर्णगन्धरससंस्पर्शक्लेदबहुलमुपसृष्टंसरीसृपव्यालमशकशलभमक्षिकामूषकोलूकश्माशानिकशकुनिजम्बुकादिभिस्तृणोलूपोपवनवन्तंप्रतानादिबहुलमपूर्ववदवपतितंशुष्कनष्टशस्यंधूम्रपवनंप्रध्मातपतत्रिगणमुत्कुष्टश्वगणमुद्मान्तव्यथितविविधमृगपक्षिसंघमुत्सृष्टनष्टधर्मसत्यलज्जाचारगुणजनपदंशश्वरक्षाभतोदीर्णसलिलाशयंप्रततोल्कापातनिर्घातभूमिकम्पमतिभयारावरूपंरूक्षताम्रारुणसिताम्रजालसंवृतार्कचन्द्रतारकमभीक्ष्णंलम्धमोद्वेगमिव सत्रासरुदितमिवसतमस्कमिवगुह्यकाचरितमिवाक्रन्दितशब्दबहुलञ्चाहितंविद्यात् ॥८॥
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विमानस्थान-अ० ३. (५२५) देशको ऐसे लक्षण होने पर रोगकारक जानना चाहिये। जिस देशके स्वभाव,वर्ण, रस,गंध,स्पर्श यह सब बिगडगयेहों तथा संपूर्ण भूमिमें गिलगिलापन हो एवम् सांप, व्याल,मच्छर,टिडी,मक्खी, मूषक, उल्लू, गीध आदि श्मशानमें रहनेवाले जानवर तथा गीदड आदिक बहुतहों।बहुतसे घास और बेलें इनके फैलाव हों एवम् अनेक प्रकारकी वेलें उत्पन्न हो । पहिलेसे सव लक्षण विपरीत प्रतीति हों एवम् अपूर्व. लक्षण दिखाई देतेहों, बिना बोये हुए अंटसंट अनेक प्रकारके घास उत्पन्न हुए हों, खेती सूख या नष्ट होगई हो, पवन धूएंसे युक्त हो, पक्षीगण आकाशमें इधर उधर बहुत उडते हों गीदड और कुत्ते रोते हों, अनेक प्रकारके मृग और पक्षी व्याकुल हुए इधर उधर फिरते हों; । एवम् उस देशमें धर्म, सत्य, लज्जा, आचार,शुभगुण यह सव नष्ट होगये हों तथा जलाशय सहसा क्षुभित हुए हों। और उस देशमें उल्कापात हो अर्थात् तारे टूटे,विजली गिरे। भूकम्प हो,भारी आंधी आवे तथा देशका भयंकर रूप होजाय । चंद्रमा, सूर्य और तारागण कभी रूखे, कभी लाल, कभी सफेद एवम् मेघजालसे ढकेहुए निरन्तर ऐसे २ रूपमें दिखाई दियाकरें और उस देशमें संभ्रम, उद्वेग, त्रास और रोनेकसे लक्षण दिखाई दियाकरें निरन्तर अन्धकारसा छाया रहे तथा भूत, प्रेतोंका घूमना और शब्द करना प्रतीत हुआकरें ऐसे लक्षणवाला देश भयानक रोगोंको उत्पन्न करनेवाला होताहै ॥ ८॥
कालको अनारोगत्व । कालन्तुखलुयथ लिङ्गाद्विपरीतलिंगमतिलिङ्गहीनलिङ्गचाहितंव्यवस्येत् ॥९॥ अव काल अर्थात् समयके रोगोत्पादक होनेके लक्षण कहतेहैं । जैसे ऋतुओंका अपने लक्षणोंसे विपरीत होना । जैसे जिस ऋतु जैसे लक्षण होनेचाहिये उससे अत्यन्त अधिक होना, बहुत कम होना,या न होना अथवा आगे पीछे होना।इसमः कारके लक्षणवाला समय रोगोंको उत्पन्न करनेवाला होताहै ॥ ९॥ .
इमानेवेदोषयुक्तांश्चतुरोभावानजनपदोद्ध्वंसकरान्वदान्तकुशलाः । अतोन्यथाभूतांस्तुहितानाचक्षते ॥ १०॥ इस प्रकार वायु, जल,देश और काल इन चारोंके विकृतगुण होनेसे जनपदका उध्वंस होता है । अर्थात् जिस प्रान्त अथवा जिस देश या जिस द्वीपमें उपरोक्त. चारों भावोंकी विकृतावस्था होजाती है वह देश,वह मान्त, वह द्वीप भयानक रोगयुक्त होकर नष्ट हो जाता है । इससे,विपरीत अर्थात् अपने ठीक लक्षणंवाले-वायु, जल, पृथ्वी, समय होनेसे सब मनुष्यों के लिये हितकारक होते हैं ॥ १०॥
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(५२६) चरकसंहिता-भा० टी०। विगुणेष्वपितुखलुएतेषुजनपदोद्ध्वंसनकरेषुभावेषुभेषजेनोपपाद्यमानानांनभयंभवतिरोगेभ्यइति ॥११॥ जब यह चारों भाव बिगडकर जनपदकाउध्वंसन करते हुए रोगोंको उत्पन्न करते हैं उस समय भी विधियुक्त संस्कार करीहुई औषधियोंका उपयोग जिन मनुष्यों को कियाजाताहै उन मनुष्योंको जनपदोध्वंसनकारक रोगोंका भय नहीं होता ॥११॥
भवन्तिचात्र । वैगुण्यमुपपन्नानांदेशकालानिलाम्भसाम् । गरीयस्त्वविशेषणहेतुमत्संप्रवक्ष्यते ॥ १२॥ यहांपर कहाहै कि देश, काल, वायु, जल इनका विकृत होजाना रोगोंके उत्पन्न करनेके लिये एक बडा भारी कारण होताहै ॥ १२ ॥
वाताजलंजलादेशंदेशात्कालंस्वभावतः॥ . .
विद्यादुष्परिहार्यत्वाद्रीयस्तरमवत् ॥१३॥ वायुसे जल, जलसे देश और देशसे काल स्वभावसे ही दुर्निवार और अधिक रोगोत्पादक होते हैं ॥ १३ ॥
वाय्वादिषुयथोक्तानांदोषाणान्तुविशेषवित् ।
प्रतीकारस्यसौकय्यविद्याल्लाघवलक्षणम् ॥ १४ ॥ वायु आदिक चारों भावोंके दोषोंकी विशेषताको जाननेवाला और वात, पित्त, कफ इन तीनों दोषोंकी विशेषताको जाननेवाला वैद्य उन रोगोंका प्रतिकार करते हुए उनके लक्षणोंके हल्केपन मादिको जाने । अथवा यों कहिये कि इन चारों भावोंमें जलसे वायु, देशसे जल और कालसे देश रोगोत्पादक हेतुओंमें हल्के मानना चाहिये ॥ १४ ।।
___ जनपदोध्वंसकारी भावोंकी चिकित्सा । चतुष्वपितुदुष्टेषुकालान्तेषुयदानराः।
भेषजेनोपपाद्यन्तेनभवन्त्यातुरास्तदा ।। १५॥ जब चारों भाव बिगडकर देशको नष्ट करनेके लिये प्रपन्न होतेहैं अर्थात् वायु, जल, देश और काल यह चारों बिगडकर जब देशको नष्ट करते हैं तब जिन मनु'ष्योंको विधिवत् औषधियोंका प्रयोग करा दियागया है अथवा कराया जाता है वह मनुष्य व्याधियोंसे पीडित नहीं होते ॥ १५ ॥ ___ येषांनमृत्युसामान्यसामान्यनचकर्मणाम् ।
कर्मपञ्चविधतेषांभेषजंपरमुच्यते ॥ १६ ॥
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विमानस्थान-अ० ३.
(५२७) जिन मनुष्योंके मृत्युसाम्य (पूर्णायु होकर आवश्यकीय मृत्यु काल ) नहीं है एवम् किसी मारक विष आदिका प्रयोग आदि कोई मारक कर्म उपस्थित नहीं है उनको रोगशान्तिके लिये पंचकर्म द्वारा चिकित्सा करना परम उत्तम औषध कहा है ॥ १६ ॥
रसायनानांविधिवच्चोपयोग प्रशस्यते।
शस्यतेदेहवृत्तिश्चभेषजैःपूर्वमुद्दतैः॥ १७ ॥ ऐसे समयपर जव कि जनपदोध्वंसनकारी भाव दिखाई पडे तो कोई उत्तम रसायन औषधीका (लाक्षादि तैलकी नित्य मालिश, विडंगरसायन, च्यवनप्राश आदि २) सेवन करना चाहिये । तथा जनपदोध्वंसनकारी भावोंके होनेसे प्रथम संग्रहकियेहुए औष|द्वारा और हितकर अन्न आदि द्वारा देहकी रक्षा करता रहे१७
सत्यंभूतदयादानबलयोदेवतार्चनम् । सदृत्तस्यानुवृत्तिश्चप्रशमोगुप्तिरात्मनः ॥ १८॥ हितंजनपदानाञ्चशिवानामुपसेवनम् । सेवनंब्रह्मचर्यस्यतथैवब्रह्मचारिणाम् ॥ १९ ॥ सङ्कथा 'धर्मशास्त्राणांमहर्षीणांजितात्मनाम् । धार्मिकैःसात्त्विकैर्नित्यं सहास्यावृद्धसम्मतैः॥२०॥ इत्येतद्भषजंप्रोक्तमायुषःपरिपालनम् । येषांननियतोमृत्युस्तस्मिन्कालेसुदारुणे ॥ २१ ॥ जब जनपदके उध्वंसनकारी भाव उत्पन्न होते दिखाई दें अथवा उत्पन्न होजाय तब मनुष्योंको अपनी शरीर रक्षाके लिये एवम् कुटुम्बसम्बन्धी तथा देशकी रक्षाके लिये जो यत्न करना चाहिये उनका वर्णन करतेहैं । वह ये हैं-सत्य भाषण, जीव. मात्रपर दया, दान, देवताओंके अर्पण वली देना, देवताओंका पूजन करना, श्रेष्ठ आचरणका धारण करना, मंत्र पाठादिकोंसे अपनी आत्माको रक्षित रखना, देशके हितकारक मंगलाचरण करना, अथवा शिवजीका पूजन करना, ब्रह्मच.
र्यका पालन एवम् अथवा उस देशको त्यागकर अन्य शुभदेशमें रहना, उत्तम : शास्त्रोंकी धर्मसंबंधी कथाओंको सुनना । महर्षि महात्मा तथा ऋषियोंके उपदेश । श्रवण करना, धर्मात्माओं, सत्पुरुषों तथा वृद्धजनोंकी आज्ञानुसार नित्य आचरण
करना और उन्हीं महात्माओंके पास निवास करना यह सब जनपदोध्वंसनके समय -मनुष्योंको आयुके देनेवाले परम औषधियोंका कथन किया है। उस दारुण कालमें जिनकी आवश्यकीय नियत मृत्यु नहीं है उनके लिये उपरोक्त कर्मोंका सेवन आयुवर्द्धक और परमहितकर होताहै । तथा अकालमृत्युसे बचानेवाला होता है ( मरणासन्न मनुष्योंको परलोकमें हितकर होता है )॥१८॥१९॥२०॥२१॥
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चरकसंहिता - भा० टी० ।
निवेशक प्रश्न | इतिश्रुत्वा जनपदोद्धंसने कारणानि आत्रेयस्यभगवतः पुनरपिभगवन्तमात्रेयमग्निवेशउवाच । अथखलु भगवन ! कुतोमूलमेषां वाय्वादीनां वैगुण्यमुत्पद्यतेयेनोपपन्नाजनपदमुद्धं सयन्तीति २२ ॥ इस प्रकार भगवान् आत्रेयजीके मुखसे जनपदोध्वंसन के कारणोंको सुनकर अग्निवेश फिर भगवान् आत्रेयजीसे पूछनेलगे कि हे भगवन् ! इस वायु आदिक चारों भावों के बिगड जानेका क्या कारण है ? जिससे यह चारो विगडकर जनपदका उध्वंसन करते हैं सो कृपाकर कथन कीजिये ॥ २२ ॥
( ५२८ )
आत्रेयका उत्तर । .
तमुवाच भगवानात्रेयः । सर्वेषामग्निवेश ! वाय्वादीनांयहैगण्यमुत्पद्यतेतस्य मूलमधर्मस्तन्मूलञ्चासत्कर्म पूर्वकृतम् । तयोयोनिः प्रज्ञापराध एव ॥ २३ ॥
यह सुनकर आत्रेय भगवान्जी कहनेलगे कि हे अग्निवेश ! इन वायु आदिक चारों भावोंके विकारी होनेका कारण अधर्म है । और उस अधर्मका कारण प्रथम बुरे कर्मों का करना है । वह बुरे कर्म बुद्धिके अपराधसे होते हैं ॥ २३ ॥ तद्यथा - यदा देशनगरनिगमजनपदप्रधानधर्ममुत्क्रम्य अधर्मेणप्रजांप्रवर्त्तयन्ति तदाश्रितोपाश्रिताः पौरजनपदाव्यवहारोपजीविनश्चतमधर्ममभिवर्द्धयन्ति ॥ २४ ॥
उसीको कथन करते हैं । जब देश, नगर निगम और जनपदके मालिक अर्थात् राजा आदि प्रधान पुरुष धर्मको उल्लंघनकर प्रजासे अधर्मका वर्ताव करते हैं तव उनके आश्रित और उपाश्रित अर्थात् मंत्री मुख्याध्यक्ष तथा अन्य अहलकार और ग्रामोंके नम्बरदार आदिक अथवा अन्य ऐसे पुरुष जो कि उन राजा आदिकों के यहां मुख्य माने जाते हों उनके आश्रयसे अपना आजीवन करनेवाले (खुशामदखोर) उस अधर्मको लेकर खूब फैला देते हैं अथवा यो कहिये कि, राजा आदिदेश केप्रधान पुरुष जब अपनी बुद्धिके अपराधसे थोडा बहुत भी अधर्म करने लगते हैं तो उनके आश्रय रहकर अपनी आजीविका चलानेवाले खुशामदखोर लोग उस अधर्मको खूब बढादेते हैं ॥ २४ ॥
ततः सोऽधर्मः प्रसभंधर्ममन्तर्धत्ते । ततस्तेऽन्तर्हितधर्माणोदेवताभिरपित्यज्यन्ते । तेषां तथान्तर्हितधर्माणामधर्मप्रधानाना
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विमानस्थान-अ०३. मपक्रान्तदेवतानामृतवाव्यापद्यन्ते । तेननापोयथाकालंदेदो वर्षति । विकृतवावतिवातानसम्यगभिवान्तिक्षितिापद्यतेसलिलानिउपशुष्यन्ति। ओषधयःस्वभावंपरिहायापद्य
न्तविकृतिम् । ततउद्ध्वंसन्तेजनपदास्पास्यवहार्यदो : षात् ॥ २५॥
वह वृद्धिको प्राप्तहुआ तथा सर्वतः फैलाहुआ अधर्म,धर्मको छिपादेताहै अर्थाद नष्टप्राय बनादताहै। तब उन लोगोंको धर्मरहित जानकर और अधर्म प्रधान होनेसे उस देशके रक्षक देवतागण उस देशको त्याग जाते हैं फिर उन धर्मरहित और अधर्मप्रधान तथा देवताओंसे त्यागेहुए देशोंमें ऋतुएं विकृत होजाती हैं। तब ऋतु: ओंके विकृत होनेसे इन्द्रदेव समयपर वृष्टि नहीं करते अथवा वर्षाकालसे आगे पीछे या विकृतरूपसे वृष्टि होतीहै और वायु भी हितकारक शुभगतिवाला नहीं रहता। पृथ्वी दोषयुक्त होजातीहै, जलाशय सूख जाते हैं,जड़ी बूटीआदि अपने स्वभावकों छोडकर विकारयुक्त होजाती हैं । तब इन सबके विकृत होनेसे मनुष्योंमें रोग उत्पन्न होते हैं और परस्पर संसर्ग और अन्नपान आदि संसगाँसे वह रोग देशम फैलकर समस्त लोगोंको नष्ट करते हैं ॥ २५ ॥
. युद्धका कारण। तथाशस्त्रप्रभवस्यआपजनपदोसस्यअधएवहेतुर्भवति । येतिवृद्धलोभकोधरोषमानास्तेदुर्बलानवमत्यआत्मस्वजनप.. रोपघातायशस्त्रेणपरस्परमभिकामन्तिपरान्वाभिक्रामन्तिपरैवाभिक्राम्यन्तरक्षोगणादिभिर्वा विविधैर्भूतसङ्कुस्तमधर्ममन्यद्वाप्यपचारान्तरमुपलभ्याभिहन्यन्ते ॥ २६ ॥ तथा राजाओंमें परस्पर शस्त्रयुद्ध होना भी जनपदोध्वंसन कहाजाताहै उसका कारण भी अधर्म ही होताहै।जब मनुष्योंमें लोभ,क्रोध, रोष और अभिमान बहुत बढजाताहै तब वह दुर्वल मनुष्योंका,गरीवोंका, निरपराधोंका अपमान करनेलगते हैं फिर वह अधर्मी लोग अपने और परायेको कुछ न समझकर लोभ और अहंकाः रसे अंधे वनेहुए शस्त्रादिकोंसे उनको मारनेके लिये परस्पर आक्रमण करतेहैं और दूसरोंको मारनेके लिये आक्रमण करतेहैं । तथा उनके ऊपर अन्य मनुष्य भी उसी प्रकार आक्रमण करते हैं । ऐसे समय अनेक प्रकारके भूत, प्रेत, राक्षस आदि भी उन अधर्मके.आचरण करनेवालोंको जहां. पाते नष्टभ्रष्ट कर.डालते हैं ॥ २६ ॥
३४
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(५३०).
चरकसंहिता-भा० टी०।
अभिशापका हेतु । तथाभिशापस्याप्यधर्मएवहेतुर्भवतियेलुप्तधर्माणोधर्मादपेताः तेगुरुवृद्धसिद्धर्षिपूज्यानवमत्यअहितानिआचरन्ति ।ततस्ताः प्रजागुर्वादिभिरभिशप्ताभस्मतामुपयान्ति । प्रागप्यभूदनेकपुरुषकुलविनाशाय ॥२७॥ तथा अभिशापका भी अधर्म ही कारण होताहै । जब धर्मरहित मनुष्य अधर्मसे मुरुजन, वृद्धजन, सिद्ध, ऋषि, तथा अन्य पूज्य महात्माओंका अपमान करतेहैं और अहितकर्मका आचरण करतेहैं तब उन गुरुजन आदिकोंके अभिशापसे अधर्मी प्रजा नष्टताको प्राप्त होजातीहै । ऐसे गुरुजनोंके अभिशापसे पहिलेके युगमें अनेक पुरुषोंके वंश नष्ट होगयेहैं ॥ २७॥
नियतप्रत्ययोपलम्भानियताश्चपरे ।
अनियतप्रत्ययोपलम्भादनियताश्चापरे ॥२८॥ बहुतसे मनुष्य आयुके नियत होनेसे पूर्णआयुको भोगतेहैं । बहुतसे आयुके अनिश्चित होनेसे अकालमें ही अर्थात् बाल अथवा युवावस्थामें ही मृत्युको प्राप्त होतेहैं । (तात्पर्य यह है कि अधर्मकी वृद्धिसे आयु नियत न रहकर अकालमें मृत्यु होतीहै और धर्मके रहनेसे मनुष्य पूर्णआयुभोगतेहैं ।जब अधर्म नहीं होताथा तब वर्तमान समयके अनुसार अनियत मृत्युयें भी नहीं होतीथीं। ) ॥ २८ ॥ .
संसारमें अधर्मके आनेका क्रम । प्रागपिचाधाहतेनाशुभोत्पत्तिरन्यतोऽभूत् । आदिकालेहि अदितिसुतसमौजसोऽतिविमलविपुलप्रभावाःप्रत्यक्षदेवदेवर्षिधर्मयज्ञविधिविधानाशैलेन्द्रसारसंहतस्थिरशरीराःप्रसनवर्णेन्द्रियाःपवनसमबलजवपराक्रमाश्चारुफिचोऽभिरूपप्रमाणातिप्रसादोपचयवन्तःसत्यार्जवानृशंस्यदानदमनियमतपउपवासब्रह्मचर्य्यव्रतपराव्यपगतभयरागद्वेषमोहलोभ - क्रोधशोकमानरोगनिद्रातन्द्राश्रमकुमालस्यपरिग्रहाश्चपुरुषा बभूवुरमितायुषः ॥ २९ ॥ पूर्वकाल ( सतयुग) में भी अधर्मके बिना कभी किसी अशुभकी उत्पत्ति नहीं शेतीची देखिये पहिले समयमें मनुष्य दैत्यों के समान बलवान होतेथे अत्यन्त विमल
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विमानस्थान - अ० ३.
( ५३१ )
और विपुल प्रभावशाली होतेथे देवता तथा देवार्षे उनको प्रत्यक्ष मिलते थे, वह लोग धर्म और यज्ञोंको विधिपूर्वक किया करतेथे, उनके शरीर पहाडोंके समान सारयुक्त संगठित और स्थिर रहतेथे, वर्ण और इन्द्रियें, सब प्रसन्न होतीथीं पवनके समान बल और वेग तथा पराक्रमयुक्त होतेथे । उनके नितम्व तथा अन्य शरीर के अंग उत्तम होते थे, उनके शरीरसुंदर गठनयुक्त तथा उचित प्रमाणवाले और सुन्दर आकार तथा प्रसन्नता एवम् पुष्टियुक्त होते थे । वह लोग सत्य, आचार, दयालुता, लज्जा, दान, दम, नियम, तप, उपवास, ब्रह्मचर्य और व्रत इनका भलेप्रकार पालन करतेथे अर्थात् इनका सेवन करना ही अपना परम कर्त्तव्य मानतेथे । उस समय उनके समीप भय, राग, द्वेष, मोह, लोभ, क्रोध, शोक, अहंकार, रोग, निद्रा, तन्द्रा, श्रम, क्लम और आलस्य नहीं आतेथे और वह अन्यकी वस्तु के हरनेकी कभी इच्छा नहीं रखतेथे । इसीलिये उनकी आयु भी बहुत वडी होतीथी ॥ २९ ॥
तेषामुदारसत्त्वगुणकर्मणामचिन्त्यत्वात्रसवीर्य्यविपाकप्रभावगुणसमुदितानिप्रादुर्बभूवुः शस्यानि सर्वगुणसमुदितत्वात्पृथिव्यादीनां कृतयुगस्यादौ । भ्रश्यतितुकृतयुगेकेषाञ्चिदत्यादानात्साम्पन्निकानांशरीरगौरवमासीत् । सत्त्वानांगौरवाच्छ्रमःश्रमादालस्यमालस्यात्सञ्चयःसञ्चयात्परिग्रहःपरिग्रहाल्लोभः प्रादुर्भूतः ॥ ३० ॥
उनके उदारभाव तथा सवगुण एवम् शुभकमोंके फलसे रस, वीर्य, विपाक, प्रभाव इन उत्तम गुणोंयुक्त खेतियें तथा औषधियें उत्पन्न होतीथीं । उस समयकी अवस्था अब स्मरण भी नहीं की जासकती । क्योंकि तव सत्ययुगके प्रारम्भमें पृथ्वी आदिक सर्वगुणसम्पन्न होतेथे । सत्ययुगके व्यतीत होजानेपर कुछ मनुष्यों के अत्यन्त आदान (ग्रहण ) करने से सम्पन्न होकर शरीरमें गौरव उत्पन्न हुआ । गाव होनेसे श्रम उत्पन्न हुआ, श्रमसे आलस्य, आलस्यते सञ्चय और सञ्चयसे परिग्रह तथा परिग्रहसे लोभ उत्पन्न हुआ ॥ ३० ॥
ततः कृतयुगे गते त्रेतायां लोभादभिद्रोह: । अभिद्रोहादनृतवचनमनृतवचनात् कामक्रोधमानद्वेषपारुष्याभिघातभयतापशोकचित्तोद्वेगादयः प्रवृत्ताः ॥ ३१ ॥
१ परिग्रह परवस्तुके ग्रहणको कहते हैं ।
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(५३२)
चरकसंहिता--भा० दी। · सत्ययुगके चलेजानेपर त्रेतायुगमें 'लोभके होनेसे अभिद्रोह उत्पन्न हुआ। अभिद्रोहसे असत्यभाषण उत्पन्न हुआ। असत्यभाषणसे काम, कामसे क्रोध, क्रोधसे मान, मानसे द्वेष, द्वेषसे कठोरपन,कठोरपनसे अभिघात, अभिघातसे भय, ताप, शोक, चित्तमें उद्वेग आदिक उत्पन्न हुए ॥ ३१॥
ततस्त्रेतायाधर्मपादोऽन्तानमगमत् । तस्यान्तर्धानात्पुथिव्यादीनांगुणपादप्रणाशोऽभूत् । तत्प्रणाशकृतश्चशस्यानां स्नेहवैमल्यरसवीर्यविपाकप्रभावगुणपादभ्रंशः ॥ ३२ ॥
ऐसा होनेसे त्रेतायुगमें धर्मका एक पाद अन्तर्धान होगया। उसके अन्तर्धानसे पृथ्वी आदिके गुणोंमें भी एक पादकी न्यूनता उत्पन्न होगई है । पृथिवी आदिमें गुणोंके एकपाद नष्ट होनेसे औषधी, अन्न आदिकोंके स्नेह, विमलता, रस, वीर्य, विपाक प्रभाव आदि गुणोंका एकपाद नष्ट होगया ॥ ३२॥
ततस्तानिप्रजाशरीराणिहीनगुणपादीयमानगुणैश्चाहारविहारैरयथापूर्वमुपष्टभ्यमानानिअग्निमारुतपरीतानिप्रागव्याधिभिवरादिभिराक्रान्तानिअतःप्राणिनोहासमवापुरायुषःक्रमश
इति ॥३३॥ जब द्रव्योंके गुणोंका एक पाद नष्ट होगया तो इन द्रव्यादिकोंके और पृथिव्यादिकोंके एकपाद गुणहीन होनेसे संपूर्ण प्र॒जागणोंके शरीरमें भी एकपाद गुणकी हीनता होगई । बब एकपाद गुणसे हीन शरीर होनेसे आहार विहारादिकोंमें भी यथाक्रम न्यूनता प्राप्त होगई तथा अग्नि और वायुके व्यतिक्रमसे पहिले. ज्वरादि रोगोंसे शरीर आक्रान्त हुआ फिर क्रमपूर्वक मनुष्योंकी आयुका भी हास होने लगा॥३३॥
भवति चात्र। युगेयुगेधर्मपादःक्रमेणानेनहीयते ।
गुणपादश्वभूतानामेवंलोकप्रलीयते ॥ ३४॥ यहांपर कहा है कि युगयुगमें धर्मका. एकएक पाद इसी क्रमसे क्षीण होता रहा और उसके क्षीण होनेसे पृथिव्यादिके गुणोंमें द्रव्योंके प्रभावोंमें एवम् मनुष्योंके शरीरमें क्रमसे क्षीणता होती रही ॥ ३४ ॥
संवत्सरशतेपूर्णेयातिसंवत्सरःक्षयम्। देहिनामायुषःकालेयत्रयन्मानमिष्यते ॥
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विमानस्थान - अ० ३.
(५३३)
सौवर्ष व्यतीत होजाने पर एक शताब्दी क्षय होजाती है इसी प्रकार मनुष्योंकी आयु भी सौवर्ष व्यतीत होनेपर क्षीण होजाती है कलियुग में आयुका सौवर्ष पर्यन्त ही प्रमाण है ॥ ३५ ॥
इतिविकाराणां प्रागुत्पत्तिहेतुरुक्तो भवति ॥ ३६ ॥
इस प्रकार रोगोंकी प्रथम उत्पत्ति के कारणको कथन कियागया है ॥ ३६ ॥ एवंवादिनं भगवन्तमात्रेयमग्निवेशउवाच । किन्नुखलु भगवन् ! नियतकालप्रमाणमायुः सर्वनवेति भगवानुवाच । इहअग्निवेश ! भूतानामायुर्युक्तिमपेक्षते ॥ ३७ ॥
.
इस प्रकार कथन करते हुए भगवान् आत्रेयजीसे अग्निवेश कहने लगे कि हे भगवन् ! क्या आयुका प्रमाण सौवर्षका निश्चयात्मक है या नहीं ? अर्थात् सब मनुष्योंकी आयु सौवर्षकी नियत है या नहीं । यह सुनकर भगवान् आत्रेयजी कहने लगे कि, हे अग्निवेश ! संपूर्ण मनुष्योंकी आयु युक्तिकी अपेक्षा करती है प्रारब्ध और पुरुषार्थके योगाधीन आयुका प्रमाण है) ॥ ३७ ॥
कर्मों का वर्णन | दैवे पुरुषकारे चस्थितंह्यस्यबलाबलम् । दैवमात्मकृतं विद्यात्कर्मयत्पूर्व दैहिकम् ॥ ३८ ॥ स्मृतःपुरुषकारस्तुक्रियतेयदिहापरम् । बलाबलविशेषोऽस्तितयोरपिचकर्म्मणोः ॥ ३९ ॥
आयुका वलावल देव और पुरुषकार के आधीन है । मनुष्य के पूर्वजन्मके किये कर्मको दैव कहते हैं और इस जन्मके कियेहुए कर्मको पुरुषकार कहते हैं। इन दोनों प्रकारके कर्मों में भी बलावलकी विशेषता होती है ॥ ३८ ॥ ३९ ॥ कर्मके भेद | दृष्टहित्रिविधं कर्म हीनंमध्यममुत्तमम् । तयोरुदारयोर्युक्तिर्दीर्घस्य स्वसुखस्यच ॥ ४० ॥
यह द्विविध कर्म तीन प्रकारका होता है हीन, मध्यम और उत्तंम । इनमें दैव और पुरुषार्थ दोनों उत्तम होनेसे मनुष्य के सुख और आयुकी नियत अवस्था होती है अर्थात् जिस मनुष्यका देव और पुरुषकार यह दोनों उत्तम होते हैं वह सुखपूर्वक सौवर्ष जीता रहता है ॥ ४० ॥
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चरकसंहिता - भा० टी० ।
नियतस्यायुषो हेतुर्विपरीतस्यचेतरा | मध्यमामध्यमस्येष्टाकारणंशृणुचापरम् ॥ ४१ ॥
यह तो हुआ आयुके सौवर्षका प्रमाण । और इससे विपरीत अर्थात् देव और पुरुषकारके हीनवल होनेसे मनुष्यों की आयु भी अल्प होती है। देव और पुरुषकार मध्यम होनेसे आयु भी मध्यम होती है । अव देव और पुरुषकार में भी विशेषताको श्रवण करो ॥ ४१ ॥
(१३४)
आयुके नियता नियतपर विचार |
दैव पुरुषकारेण दुर्बलघुपहन्यते ॥ दैवेन चेतरत्कर्म्मविशिष्टेनोपहन्यते ॥ ४२ ॥ दृष्ट्ायदेकेमन्यन्तेनियतंमानमायुषः । कर्म किंञ्चित्क्वचित्कालविपाकेनियतं महत् । किञ्चित्वकालनियतं प्रत्ययैः प्रतिवोध्यते इति ॥ ४३ ॥
यादे दैव दुर्बल हो और मनुष्यका कियाहुआ यह लौकिक कर्म (पुरुषकार ) बलवान् हो तो पुरुषकार दैवको नष्ट कर देता है। यादे दैव बलवान् हो और पुरुष - कार दुर्बल हो तो दैव (प्रारब्धकर्म ) पुरुषकारको नष्ट कर देता है ॥ ४२ ॥ यह देखकर कोई कहते हैं कि आयुका प्रमाण विधाताने जिसका जैसा नियत कर दिया है ही आयुका प्रमाण है । कोई कहते हैं कि आयुका प्रमाण कर्माधीन है । जब किसी महाफल कर्मका विपाकका समय आता है वही आयुका नियत प्रमाण हैं कोई कहते हैं कि आयुका नियत समय नहीं होता क्योंकि कोई किसी अवस्थामें कोई किसी अवस्थामें मृत्युको प्राप्त होता है। कोई भी नहीं इस प्रकारका महाफल कर्मही आयुका कारण प्रतीत होता है ॥ ४३ ॥ तस्मादुभयदृष्टत्वादेकान्तग्रहणम साधुनि दर्शनमपिचात्रउदाहरिष्यामः । यदिहिनियतकालप्रमाणमायुः सर्वस्यात्तदायुष्कामाणांनमन्त्रौषधिमणिमङ्गलबल्युपहारहोमनियमप्रायश्चित्तो
:
पवासस्वस्त्ययनप्रणिपातगमनाद्याः क्रियाइष्टयश्चप्रयुज्येरन् ॥ ४४॥
इसलिये इन सब पक्षोंको देखकर विना प्रमाण किसी एकको मानलेना अन्याय है सो सव प्रमाण निश्चयात्मक आयुके विषयका उदाहरण देकर कथन करते हैं । यदि विधाताका रचाहुआ ही प्रत्येक व्यक्तिकी आयुका प्रमाण नियत है तो संपूर्ण . आयु की कामनावाले मनुष्यको मंत्र, औषधी, माण, मंगलकर्म, वलिदान, उपहार, होम, नियम, प्रायश्चित्त, उपवास, स्वस्त्ययन, नम्रता, शुभ आचरण आदि करनेकी
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विमानस्थान-अ०३. ५३६) कोई आवश्यकता न होती । अर्थात् दीर्घायुकी कामनासे इन सव शुभकर्मीको
तथा यज्ञादिकोंको कोई भी नहीं किया करता। क्योंकि आयुका प्रमाण तो नियत ' था ही फिर शुभकर्मोंकी क्या आवश्यकता थी ।। ४४ ॥
नउद्घान्तचण्डचपलगोगजोष्ट्रखरतुरगमहिषादयःपवनादयश्वदुष्टाःपरिहार्याःस्युःनप्रपातगिरिविषमदुर्गाम्बुवेगाः। तथा नप्रमत्तान्मत्तोद्धान्तवण्डचपलमोहलोभाकुलमतयोनारयोन प्रवृद्धोऽग्निर्नचविविधविषाश्रयाःसरीसृपोरगादयः । नसाहसं
नदेशकालचर्याननरेन्द्रप्रकोपइत्येवमादयोभावानाभावकराः " स्युः आयुषःसर्वस्यनियतकालप्रमाणत्वात् ॥ ४५ ॥
तथा उद्धांत, चंड, चपल हुए गौ,हाथी,ऊंट, गधा,घोडा,भैंसा तथा दुष्ट पवन आंधी आदिसे बचनेकी कोई आवश्यकता न होती।एवम् पहाड आदिसे गिरनेका विषमस्थानोंमें जानेका,वेगवान नदी आदिमें वहनेका भी कोई भय न होता और न उपरोक्त कारणोंसे आयु नष्ट हुआ करती । इसीप्रकार प्रमत्त,उन्मत्त, उद्भ्रांत, चंड, चपल, मोह तया लोभसे व्याकुल मातवाले शत्रुओंसे भी कोई भय न होता। और प्रबल अग्नि,अनेक प्रकारके विषभरे सर्प आदिकोसे वचनेकी भी कोई आवश्यकता न होती और साहस तथा देश, कालका विचार, राजाओंके क्रोधका भय आदिक मनुष्योंकी आयुमें हानिकारक न होते.यदि सव मनुष्योंकी आयु नियत समयपर निश्चित होती। इसलिये आयुका नियत मानना ठीक नहीं है ।। ४५॥
नचानभ्यस्ताकालमरणभयनिवारकाणामकालमरणभयमागच्छेत् प्राणिनाम् । व्यर्थाश्चारम्सकथाप्रयोगबुद्धयःस्यमहसणांरसायनाधिकारी॥४६॥
और भी कहतेहैं। यदि अकालमृत्युका अभाव है तो मनुष्योंके हृदयमें अकाल मृत्युका भय भी नहीं होनाचाहिये था और आयुके वढानेवाले रसायनप्रयोग जो रसायनाधिकारमें महर्षियोंके कथन कियेहैं वह सब भी वृथा और झूठे मानेजा, यंगे ॥ ४६॥
नापीन्द्रोनियतायुषंशत्रुबजेणाभिहन्यात् । नाश्विनावातभेषजेनोपपादयेताम् । नर्षयोयथेष्टमआयुस्तपसाप्राप्नुयुनचविदितवेदितव्यासहर्षयःससुरेशाः सम्यकपश्ययुरुपदिशेयुराचरेयुर्वा ॥ १७॥
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४५३६
चरकसंहिता - भा० टी० ।
तथा इन्द्र नियत आयुवाले अपने शत्रुओं को, वज्रसें नहीं मारसकता और न अश्विनीकुमार औषधियोंद्वारा किसीको आरोग्य कर सकते अर्थात् उनकी चिकित्सा ही वृया जाती और ऋषिलोग तपके प्रभाव से दीर्घायुको प्राप्त न होते । तथा प्रत्यक्षदर्शी महर्षिगण और इन्द्र भूत, भविष्य, वर्तमानको जानते हुए आयुऔर हितकारक आयुर्वेदका उपदेश न करते । एवम् स्वयं भी यज्ञादिक न क्रिया करते ॥ ४७ ॥
अपिच सर्वचक्षुषामेतत्परं यदैन्द्रचक्षुरिदञ्चास्माकंतेन प्रत्यक्षयथापुरुषसहस्राणामुत्थायोत्थाया हवं कुर्वतामकुर्वताञ्चातुल्यायुष्यं ! तथाजातमात्राणामप्रतीकारात्प्रतीकाराच्चअविषाविषप्राशि
नांचापिअतुल्यायुष्टुंनचतुल्योयोगक्षेम उदपानघटानांचित्रघटानाञ्चत्सीदताम् ॥ ४८ ॥
सर्वज्ञ महर्षियों तथा प्रत्यक्षदर्शी इन्द्रका तो कहना ही क्या है परन्तु हम लोग श्री प्रत्यक्ष देखते हैं कि सहस्रों मनुष्यों में जो मनुष्य - लडाई युद्ध आदिमें जाते हैं और जो कभी किसी लडाई, दंगेमें शामिल न होते उनकी आयु में भी तुल्यता.. नहीं है अर्थात् संग्राम आदिमें जानेवाले शीघ्र मृत्युको प्राप्त होते हैं और जो संग्राम में नहीं जाते वह उस तात्कालिक मृत्युसे बचे रहते हैं । इसीप्रकार जो मनुष्य जन्म लेते ही औषधादि द्वारा रक्षित रहते हैं और जो नहीं रहते उनकी आयुमें भी तुल्यता नहीं होती । जिन मनुष्योंने प्राणनाशक विष खाया है और जिन्होंने नहीं खाया उनकी आयु भी तुल्य नहीं होती । जो जल पीनेके पात्र नित्यप्रति वर्तनेमें aat और जो चित्रयुक्त पात्र बिना वर्ते रक्खे रहते हैं उनकी आयु में तुल्यता नहीं है अर्थात् नित्य वर्त्ते हुए पात्र शीघ्र घिसकर टूट जाते हैं और जो रक्खे रहते हैं वह चिरकालतक वैसे ही पड़े रहते हैं ॥ ४८ ॥
'तस्माद्धि तोप चार मूलंजीवितमतोविपर्य्ययान्मृत्युः ॥ अपिच देशकालात्मगुणविपरीतानां कर्मणामाहारविकाराणाञ्चक्रियोपयोगः ॥ ४९ ॥
इसलिये मनुष्यका जीवन हित उपचारके आश्रित है। इससे विपरीत अर्थात् अहित सेवन से आयु नष्ट होती है। तथा देश, काल और सात्म्य के विपरीत कर्मोंके करनेसे एवम् आहारविहारके अनुचित उपयोगसे भी अकालमें आयु नष्ट होती है ॥ ४९ ॥
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विमानस्थान-अ०३.
(६३७) सम्यक्सर्वातियोगसन्धारणमसन्धारणमुदाणानाञ्चगतिमतां सहसानाञ्चवर्जनमारोग्यानुवत्तौउपलभामहेहेतुमुपदिशामः सम्यक्पश्यामश्चेति ॥ ५० ॥ सव प्रकारके अतियोगोंको न करना तथा मलमूत्रादि वेगोंको न रोकना और उचित रीतिपर नित्य भ्रमण करना, खोटे साहसोंको त्याग देना यह सब मनुष्योंको आरोग्यरखनेवाले कारण हैं । यह हमको निश्चय है और ऐसा ही हम देखते भी हैं तथा ऐसा ही कथन करते हैं ॥ ५० ॥
अग्निवेशका प्रश्न । अतःपरमग्निवेशउवाच । एवंसतिअनियतकालप्रमाणायुषांभ. गवन् ! कथंकालमत्युरकालमृत्युभवतीति ॥ ५१॥ इसके उपरान्त अग्निवेश कहनलगे कि हे भगवन्! याद आयुका प्रमाण निश्चित नहीं है तो कालमृत्यु और अकालमृत्यु कैसे होती है अर्थात् कालमृत्यु और अकाल: मृत्युमें क्या भेद है ॥ ५१ ॥
____ काल तथा अकालमृत्युका वर्णन । तमुवाचभगवानात्रेयः। श्रयतामग्निवेश ! यथायानसमायुकोऽक्षःप्रकृत्यैवाक्षगुणैरुपेतःस्यात् । सचसर्वगुणोपपन्नोवाह्यमानोयथाकालं स्वप्रमाणक्षयादेवावसानंगच्छेत्तथायुःशरीरोपगतवलवतःप्रकृत्यायथावदुपचर्यमाणंस्वप्रमाणक्षयादेवअवसानंगच्छति ॥५२॥ समृत्युः कालेयथाचसएवाक्षोऽतिभाराधिष्ठितत्वाद्विषमपथादपथादक्षचक्रभङ्गाद्वाह्यवाहकदोषादनिर्मोक्षात्पर्यसनादनुपाङ्गाच्चान्तराव्यसनमापद्यते ॥ ५३॥ vथायुरप्ययथाबलमारम्भादयथाग्न्यभ्यवहरणाद्विषसाश्यवहरणाद्विषमशरीरन्यासादतिमैथुनादसत्संश्रयादुदीर्णवेगवि. निग्रहात् । विधाय॑वेगाविधारणाद्भूतविषवावग्न्युपतापादभिघातादाहारप्रतीकारविवर्जनाच्चान्तराव्यसनमापद्यते । स मृत्युरकाले ॥ ५४॥
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(५३८)
चरकसंहिता-मा० टी०। - यह सुनकर भगवान् आत्रेयजी कहनेलगे कि हे अग्निवेश! सुनो जैसे थमें लगा हुआ रथचक्रका मध्यमभाग (अक्षी) अपने स्वाभाविक गुणोंसे युक्त हुआ सर्वगुण सम्पन्न होनेपर भी चलते चलते जीर्ण होजानेपर यथासमय अपनी शक्तिके क्षय होजानेसे नष्टभ्रष्ट होजाताहै वैसे ही इस शरीरकी आयु भी बलवान् मनुष्यकी प्रकृतिके गुणोंसे यथायोग्य निर्वाहित होतीहुई अपने प्रमाणके क्षय होनेसे नाशकों प्राप्त होजातीहै। वही इसका मृत्युकाल है अर्थात् उसको कालमृत्यु कहतेहैं और जैसे उस रथचक्रका अक्ष अत्यन्त भार लादेनेसे अथवा उंचनीचे विषम रास्तपर चलानेस, कुमार्ग लेजानेसे अथवा चक्रके कोई अंगभंग होजानेसे या चलानेवाले वाहक आदिके दोषसे तथा उसकी कील आदि नखडजानेसे वह चक्रमण्डल नष्टभ्रष्ट होजा: ताहै वही उसकी अकालमृत्यु है । उसी प्रकार आयु और बलसे विपरीत शरी; रकी चेष्टाओंको करनेसे अग्निके बलसे अधिक भोजन करनेसे, विषम आहारके शरीरकी विषमावस्था होनेसे अधिक मैथुन करनेसे दुष्टोंके संगसे आयेहुए मलादि वेगोंको रोकनेसे, काम, क्रोधादि वेगोंको न रोकनेसे, भूत, विष, अग्नि, उपताप, चोट इनके संयोगसे, आहारके न करनेसे मनुष्य पूर्णआयुको प्राप्त न होकर वीचमें ही मृत्युको प्राप्त होजाताहै । इसीको अकालमृत्यु कहते हैं ॥ ५२ ॥ ५३॥ ५४॥
तथाज्वरादीनप्यातङ्कान्मिथ्योपचरितानकालमृत्यून्पश्याम शत ॥ ५५ ॥ तथा ज्वरादिरोगोंका मिथ्या उपचार करनेसे भी अकालमृत्यु देखनेमें आती
अग्निवेशका प्रश्न। अथाग्निवेशःप्रपच्छकिन्नुखलुभगवन्।ज्वरितेभ्यःपानीयमुष्णं भयिष्ठप्रयच्छन्तिभिषजोनतथाशीतम् । अस्तिचशीतसाध्यो धातुर्वरकरइति ॥ ५६ ॥ इसके उपरान्त अग्निवेश कहने लगे कि हे भगवन् ! प्रायः ऐसा देखनेमें आता है कि जैसे ज्वरादित मनुष्यों को प्रायःगर्मजलही पीने के लिये दियाजाताहै वैसे शीत- ., लजल नहीं दियाजाता । और शीतक्रिया साध्य धातु भी ज्वरको उत्पन्न करने. वाली होती है इसलिये उन ज्वरों में शीतल जल क्यों नहीं दियाजाता ॥ ५६ ॥
ज्वरमें उष्णजलका विधान ।। तमुवाचभगवानात्रेयोज्वरितस्यकायसमुत्थानदेशकालानाभ.समीक्ष्यपाचनार्थपानीयमुष्णप्रयच्छन्तिभिषजः।ज्वरोह्यामा
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___· विमानस्थान-अ०.३.
(५३९) शयसमुत्थः,प्रायोभेषजानिचामाशयसमुत्थानांविकाराणांपाचनवमनापतर्पणानिशमनानिभवन्तिपाचनार्थञ्चपानीयमुष्णं,' तस्मादेतज्ज्वरितेभ्यःप्रयच्छन्तिभिषजोभूयिष्ठम् ॥ ५७ ॥ तब भगवान् आत्रेयजी अग्निवेशसे कहनेलगोक ज्वरवाले मनुष्य के शरीर,कारण, देश,काल इन सवको विचारकर आमदोषको पचानेके लिये वैद्यलोग गर्मजल पीनेको देते हैं। इसका कारण यह है कि ज्वर-आमाशयसे उत्पन्न होताहै और प्रायः आमाशयसे प्रगट होनेवाले रोगमात्रको पाचन, वमन, लंघन आदिकासे शान्त करते हैं।औरआमके पचानेके लिये गर्म जलका देना उत्तम मानाहै।इसलिये वैद्यलोग ज्वरवाले मनुष्यको अधिकतर गर्मभल ही पिलाते हैं ॥ ५७ ॥
उष्णजलके गुण । तझ्येषांपीतंबातमनुलोमयतिअग्निमुदर्यमुदीरयति । क्षिप्रं .. जरां गच्छतिश्लेष्माणञ्चपारशोषयतिस्वल्पमपिचपतितृष्णा..
प्रशमनायोपपद्यतेतथायुक्तमपिचैतन्नात्योत्सन्नपित्तेज्वरेसदा हभ्रमप्रलापातिसारेवाप्रदेयमुष्णनहिदाहभ्रमप्रलापातिसारा
भूयोऽभिवद्धन्तेशीतेनोपशाम्यन्तीति ॥ ५८॥ . ___ ज्वरादित मनुष्योंको गर्मजल पिलानेसे उनके शररिमें वह जल-वायुको अनुः लोमन करताहै, भग्निको दीपन, शीघ्र पाचन होजाताहै, क.फको परिशोषण कर ताहै तथा थोडाही पीनेसे तृषा शान्त होजातीहै । परन्तु यह गर्मजल- इसप्रकार युक्ति सम्पन्न और गुणकारी होनेपर भी अत्यन्त वढेहुए पित्तके कोपबालेको तथा दाह, भ्रम और प्रलाप एवम् आतिसारयुक्त ज्वरोंमें देना उचित नहीं। क्योंकि एस ज्वरोंमें गरमजल देनेसे--दाह, भ्रम, प्रलाप, और अतिसार अधिक बढजातेहैं और शीतल क्रिया करनेसे तथा शीतल जल देनसे शान्तिको प्राप्त होते हैं ॥ ५८॥.
भवतिचात्र । शीतनोष्णकतानरोगानशमयन्तिभिषग्विदः ।
येतुशीतकृतारोगास्तेषाञ्चोष्णंभिषगजितम् ॥ ५९॥ यहांपर कहाहै कि चिकित्साके जाननेवाले वैद्य गरमीके रोगोंको शीतलाया द्वारा और शीतसे उत्पन्न हुए रोगोंको उष्ण क्रिया द्वारा शान्त करते हैं ॥१९॥ . एवमितरेषामापव्याधीनांनिदानविपरीतमौषधंकार्यम् ॥६॥
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. (६४०)
चरकसंहिता-भान्टी। इसीप्रकार अन्य व्याधियोंमें भी कारणसे विपरीत औषधादि द्वारा चिकित्सा करनी चाहिये ॥ ६॥
तथातर्पणनिमित्तानामापिव्याधीनांनान्तरेणपूरणमस्तिशान्तिस्तथापूरणनिमित्तानांनान्तरेणापतर्पणम् ॥ ६१॥ ।
जैसे अपतर्पणसे उत्पन्न हुए रोगोंकी तर्पणके विना शान्ति नहीं हो सकती । 'तर्पणसे उत्पन्न हुए रोगोंकी अपतर्पणके विना शान्ति नहीं होसकती ॥ ६१ ॥
अपतर्पणके भेद। अपतर्पणमपिचत्रिविधंलंघनलंघनपाचनंदोषावसेचनश्चेति ॥ तत्रलंघनमल्पदोषाणाम् । लंघनेनह्यग्निमारुतवृद्धयावातातपपरीतमिवाल्पमुदकमल्पदोषःप्रशोषमापद्यते ॥ ६२ ॥ तर्पणके तीन भेद हैं-लंघन और लंघन पाचन तथा दोषावसेचन इनमें अल्पदोषवाले मनुष्यको लंघन कराना चाहिये । लंघनके करनेसे जठराग्नि और वायुकी वृद्धि होकर जैसे-पवन और धूपके योगसे अल्पजल सूख जाता है उसी प्रकार अल्पदोष शोषणको प्राप्त होजाते हैं अर्थात् नष्ट होजाते हैं ॥ ३२॥
लंघनपाचनके गुण। लंघनपाचनाभ्यांमध्यबलासूर्यसन्तापमारुताभ्यांपांशुभस्मावकिरणरिवचानतिबहूदकंमध्यदोषः प्रशोषमापद्यते ॥ ६३ ॥
यदि दोष मध्यबल हो तो उसको लंघन पाचन कराना चाहिये। जैसे सूर्यके संतापसे और वायुके वेगसे तथा गर्दा, मिट्टीआदि डालनेसे मध्यमजल सूखजाता है वैसेही लंघन और पाचन द्वारा मध्यम दोष भी शोषण होजाते हैं ।। ६३ ।।
दोषावसेचनके गुण । बहुदोषाणांपुनर्दोषावसेचनमवकार्य्यम्। नाभिन्नेकेदारसेतो पल्वलप्रसेकोऽस्ति । तद्वदोषावसेचनमादोषावसेचनन्तुखल अन्यद्वाभेषजंप्राप्तकालमप्यातुरस्यनैवंविधस्यकुर्यात् ॥६॥ बढे हुए दोषोंमें दोषावसेचन अर्थात् वमनादि द्वारा विधिपूर्वक दोषोंको निकाल देना चाहिये । जैसे किसी खतमें बहुतसा जल इकट्ठा हों एक तरफसे खेतकी डौल( सीमा) तोड देनेसे वह जल सब बाहर निकलजाता है। उसी प्रकार दोषा. बसेचन द्वारा दोषों को निकाल डालना चाहिये । परन्तु यह दोषावसेचन वा अन्य
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विमानस्थान-अ० ३.
(५४१) उत्कट औषधियों का प्रयोग एवम् शीघ्रकारी औषधी आगे कथन कियेहुए रोगियों को नहीं देना चाहिये । ६४॥
अयोग्यरोमकि लक्षण । अनपवादप्रतीकारस्थाधनस्यापरिचारकस्यवैद्यमानिनश्चण्डस्या, सूयकस्यतीवाधर्मरुचेरतिक्षीणबलमांसशोणितस्यअसाध्यरोगोपहतस्यमुमूर्षुलिंगान्वितस्यचति । एवंविधंह्यातुरमुपचरभिषपापीयसाअयशसायोगंगच्छतीति ॥६५॥
जैसे-जिस रोगीको अपने अपयशका भय न हो, जो निर्धन हों,जिसकी कोई सेवा करनेवाला नं हो,जो अपने आपको वैध मान रहाहो,जो कठोर स्वभाववाला हो, जो निंदक हो, जो अत्यंत पापी हो, जो अतिक्षीण होगयाहो, जो स्वयम् मर; नेकी इच्छा रखता हो। इतने प्रकारके रोगियोंकी चिकित्सा करनेसे वैद्य पाण और अपयश अर्थात् बदनामीको प्राप्त होता है ॥ ६ ॥
तत्र श्लोकाः। अल्पोदकद्रुमोयस्तुप्रवातःप्रचुरातपः।
ज्ञेयःसजाङ्गलादेश स्वल्परोगतमोऽपिच ॥६६॥ यहाँपर श्लोक हैं-जिन देशोंमें जल और वृक्ष थोडे होतेहैं,वायु बडे वेगसे चलती है, धूप अधिक पडती है उस देशको जांगल देश कहते हैं । ऐसे देशोंमें रोग बहुतकम होतेहैं ॥ ६६ ॥
प्रचुरोदकवृक्षोयोनियातोदुर्लभातपः।
अरूपोऽबहुदोषश्चसमःसाधारणामतः ॥ ६७॥ . जिस देशमें जल और वृक्ष बहुत होते हैं, वायु और धूप बहुत कम लगती हैं
उस देशको आनूप देश कहते हैं । इस देशमें रोग अधिक होतेहैं। जिस देशमें यह ' दोनों बातें सामान्य हों उसको साधारण देश कहते हैं ।। ६७ ॥
तदात्वेचानुबन्धोवायस्यस्यादशुभंफलम् ।
कर्मणस्तन्नकर्तव्यमेतद्बुद्धिमतांमतम् ॥ ६८॥ जिस कर्मके करनेसे उसी समय अथवा कुछ काल पाकर अशुभफल हो वह कर्म कभी भी न करना चाहिये । यह बुद्धिमानोंका मंतव्य है ॥ ६८॥
पूर्वरूपाणिसामान्याहेतवःस्वस्वलक्षणाः। देशोद्ध्वंसस्यभेष
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(५४२.)
चरकसंहिता-भा०. टी०। ज्यहेतूनांमूलमेवच ॥६९ ॥ प्राग्विकारसमुत्पत्तिरायुषश्चक्षयक्रमः। मरणप्रतिभूतानांकालाकालविनिश्चयः॥७०॥यथा चाकालमरणंयथायुक्तञ्चभेषजमासिद्धियात्यौषधंयेषांनकायेनहेतुना ॥ ७१॥ तदग्निवेशायात्रेयोनिखिलंसर्वमुक्तवान् । देशोद्ध्वंसनिमित्तीयेविमानेमुनिसत्तमः ॥७२॥
इति च० सं० जनपदोध्वंसनीयविमानं समाप्तम् ॥३॥ इस जनपदोद्ध्वंसनीय विमान नामक अध्यायमें जनपद उध्वंसनके पूर्वरूप, सामान्य हेतु, और उन सब भावोंके अलगरलक्षण देशाध्वंसकी चिकित्सा, उसके कारण तथा पूर्वक्रमसे विकारोंकी उत्पत्ति, आयुके क्षय होनेकाक्रम तथा मनुष्योंकी काल और अकाल मृत्युका निश्चय, जैसे अकाल मरण होताहै जैसे उनकी औषधी करना चाहिये, जिनको औषधी फलदायक होतीहै,जिनको जिन हेतुओंसे औषधी लाभदायक नहीं होती यह सव भगवान् पुनर्वसु आत्रेयजीने अग्निवेशके प्रति कथन किया है ॥ ६९ ॥ ७० ॥ ७१ ॥ ७२ ॥ इति श्रीमहर्षिचरक० विमानस्थाने पं० रामप्रसादवैद्य० भाषाटीकायां जनपदोध्वंसनीय
विमानं नाम तृतीयाध्यायः ॥ ३ ॥
चतुथाऽध्यायः।
अथातस्त्रिविधरोगविशेषविज्ञानीयविमानंव्याख्यास्यामइति हस्माहभगवात्रेयः॥
अब हम त्रिविध रोग विशेष विज्ञानीय विमान नामक अध्यायका कथन करतेहैं इस प्रकार भगवान् आत्रेयजी कथन करने लगे।
रोगविशेषज्ञानके भेद । त्रिविधंखलुरोगविशषज्ञानभवति ।
तद्यथा--आप्तोपदेशः, प्रत्यक्षमनुमानञ्चेति ॥१॥ आप्तोपदेश प्रत्यक्ष अनुमान इन तीन प्रमाणों द्वारा ही सम्पूर्ण रोगोंका विशेष 'ज्ञान होताहै ॥१॥
- आप्तोपदेशका लक्षण । . तत्राप्तोपदेशोनामआप्तवचनम् । आप्ताह्यवितर्कस्मृतिविभा
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विमानस्थान-अ० ४.
(५४३) गविदेोनिष्प्रीत्युपतापदर्शिनश्च ।तेषामेवंगुणयो गाद्यद्वचनंत- ; प्रमाणम् । अप्रमाणपुनर्मत्तोन्मत्तमूर्खरक्तदुष्टान्तःकरणवचनमिति ॥ २॥ इनमें आप्तोपदेश-आप्त पुरुषों के वचनको कहतेहैं । जिन महर्षियोंको सम्पूर्ण विषयोंमें तर्करहित यथार्थ निश्चयात्मक ज्ञान हो । जो भूत, भविष्यत्, वर्तमानके ज्ञानको जाननेवाले हैं। जिनकी स्मरणशक्ति कभी नष्ट नहीं होती।जिनको किसीसे राग, द्वेष नहीं है तथा. पक्षपात गहित हैं। उन ऋषियोंको आप्त कहते हैं । इस प्रकारके गुणवाले ऋषियोंके वचनको आप्तोपदेश कहते हैं और वह आप्तोपदेश वितकरहित प्रमाण होता है जो मनुष्य-मत्त, उन्मत्त, मूर्ख और पक्षपाती है तथा जिनका अन्तःकरण दुष्ट है उनका वचन अप्रमाणिक होताहै ॥ २ ॥
प्रत्यक्ष और अनुमान । प्रत्यक्षन्तुखलुतधत्स्वयमिन्द्रियैमनसाचोपलायते।
अनुमानंखलुतर्कोयुक्त्यपेक्षः ॥ ३॥ इन्द्रिय और मनके संयोगसे जो अस्मदादिकोंका यह घट है, यह पट है, यह स्थाणु है, यह पुरुष है इस प्रकारका जो निश्चयात्मक ज्ञान होता है उसको प्रत्यक्ष कहते हैं । तर्क और युक्तिसे जो ज्ञान होता है उसको अनुमान कहते हैं ॥ ३ ॥ त्रिविधेनखल्वनेनज्ञानसमुदयेनपूर्वपरीक्षयरोगसर्वथासर्वमेवोत्तरकालमध्यवसानमदोषंभवति ॥४॥ इन तीन प्रकारके प्रमाणों द्वारा अर्थात् ज्ञान समुदाय द्वारा रोगोंकी परीक्षा करके तदनन्तर उनकी चिकित्सा करनी चाहिये । इस प्रकार करनेसे प्रथम मध्यम और उत्तरकाल पर्यन्त सब प्रकार वैध निदोषी रहताहै ॥ ४ ॥ नहिज्ञानावयवेनकृरलेज्ञेयेज्ञानमुत्पद्यते । त्रिविधेत्वस्मिज्ञानसमुदायेपर्वमातोपदेशाज्ज्ञानंततःप्रत्यक्षानुमानाभ्यांपरीक्षापपद्येत । किनुपदिष्टपर्वप्रत्यक्षानुमानान्यांपरीक्ष्यमाणोविद्यात् । तस्माद्विविधापरीक्षाज्ञानवतांप्रत्यक्षमनुमानञ्चति । त्रिविधावासहोपदेशेन । तत्रेदमुपदिशन्तिबुद्धिमन्तो । रोगमेकैकमेवंप्रकोपमेयोनिमेवात्मानमेवमधिष्ठानमवंवेदनमवंसंस्थानमेवंशब्दस्पर्शरूपरसगन्धमेवमुपद्रवमेवंवृद्धिस्था
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(५४४) चरकसंहिता-भा० टी०॥ नक्षयसमन्वितमेवमुदकमेवनामानभेवंयोगविद्यात्। तस्मिन्नियंप्रतीकाराप्रवृत्तिरथवानिवृत्तिरित्युपदेशाज्ज्ञायते ॥५॥ उपरोक्त तीनों प्रमाणोंमेंसे एकही प्रमाण द्वारा सम्पूर्ण रोगोंका ज्ञान नहीं हो सकता इसलिये इन तीन प्रकारके ज्ञानसमुदायमें व्याधिको प्रथम आप्तोपदेश द्वारा जानना चाहियोउसके अनन्तर प्रत्यक्ष और अनुमान द्वारा परीक्षा उपपन्न होती है। तात्पर्य यह हुआ कि, वैद्यक परीक्षा शास्त्रमें पहिले आप्तोपदेश द्वारा व्याधि तथा द्रव्योंके प्रभावको जानकर पीछे प्रत्यक्ष और अनुमान द्वारा निश्चय करना चाहिये। यदि मानुषी बुद्धिके कारण प्रथम ही प्रत्यक्ष और अनुमान द्वारा द्रव्योंकी तथा व्याधियोंकी परीक्षा कीजायगी तो अनेक मनुष्योंके प्राणोंका घात होना संभव है जैसे कोई तत्काल प्राणहारक विषोंको लेकर उससे प्रत्यक्षानुमानकी सिद्धि करना चाहे तो जिस प्राणीपर उसकी परीक्षा कीजायगी उसकी हिंसाका भार वैद्यपरही होगा । इसलिये वैद्यक शास्त्रमें प्रथम आप्तोपदेश द्वारा ज्ञेय विषयको जानकर तदनन्तर प्रत्यक्ष और अनुमानसे जानलेना चाहिये । अव शंका करते है कि जिस विषयको प्रथम आप्तोपदेश द्वारा नहीं जाना है उसको प्रत्यक्ष और अनुः मानसे भी जानसकेतहैं कि नहीं सो क तेहैं कि जिस पदार्थके ज्ञानके लिये प्रथम आतोपदेश नहीं हुआहै उसको प्रत्यक्ष और अनुमान द्वारा जानना चाहिये । इस लिये बुद्धिमान् मनुष्योंने प्रत्यक्ष और अनुमान दो प्रकारकी परीक्षा मानी है । उन दोनोंमें आप्तोपदेश मिलादनेसे परीक्षा तीन प्रकारकी होतीहै परन्तु वैद्यक शास्त्रमें प्रत्यक्ष और अनुमान, आप्तोपदेशका आश्रय लेकर ही प्रवृत्त होताहै । सो बुद्धि: मान् यहां इसमकार उपदेश करतेहैं कि प्रत्येक रोग इस प्रकार होताहै उनके यह २ लक्षण होते हैं । दोषोंका प्रकोपन इस प्रकार होताहै । रोगोंके.कारण इस प्रकार होतेहैं । वातादिकोंके तथा ज्यरादिकोंके स्वरूप इसप्रकार के होते हैं । अधिष्ठान इसको कहते हैं । शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध इस प्रकारके होते हैं । उपद्रव इनको कहतेहैं । दोषोंकी तथा रोगोंकी वृद्धि इसप्रकार होता है । दोष साम्यावस्थामें इस प्रकार रहतेहैं।धातु आदि क्षीण इसप्रकार होते हैं रोगोंका उत्तरकाल इस प्रकारजानना रोगोंका नाम इस प्रकार जानाजाताहै। रोगके जाननेका यह प्रकार है ऐसे स्थानमें । चिकित्सा करनी चाहिये अथवा नहा करनी इत्यादि सब ज्ञान आप्तोपदेशसेही होतेहैं । इसलिये वैद्यको प्रत्यक्ष और अनुमान आप्तोपदेशको पूर्व लिये विना चलही नहीं सकता ॥ ५॥ . .
. प्रत्यक्षज्ञानका लक्षण ।.. प्रत्यक्षतस्तुखलुरोगतत्त्वंबुभुत्सुःसरिन्द्रियःसर्वानिन्द्रियार्था- ....
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विमानस्थान-अ० ४. . नातुरशरीरगतान्परीक्षेतान्यत्ररसज्ञानात् । तद्यथा,अन्नकूजन.. सन्धिस्फोटनमंगुलीपर्वणांचस्वरविशेषांश्चयेचान्येऽपिकेचिच्छरीरोपगता शब्दास्युस्ताऽश्रोत्रेणपरीक्षेत। वर्णसंस्थानप्रमागच्छायाशरीरप्रकृतिविकारौचक्षुवैषयिकाणचान्यानिकानि चतानिचक्षुषापरीक्षेत ॥६॥ प्रत्यक्ष द्वारा रोगके तत्वको जाननेकी इच्छावाला वैद्य रसज्ञानके बिना सब इन्द्रियों द्वारा रोगीके शरीरगत इन्द्रियार्थोंकी परीक्षा करे उसीको दिखाते हैं। जैसे-आंतोंका गूंजना, संधियोंका स्फोटन, अंगुलियोंका तथा पाका मटकना; स्वरभंग होना इनके सिवाय अन्यभी रोगीके. शरीरमें होनेवाले जितने प्रकारकें शब्द हों उनको वैद्य अपनी कर्णेन्द्रिय द्वारा परीक्षा करे तथा हृदय और धमनी आदिकोंकी गति तथा शन्दज्ञानकारक यन्त्रद्वारा परीक्षा करोशरीर तथा नेत्र,जिता) नरू, आदिकोंका वर्ण, मत्र आकार, प्रमाण, कांति, शरीरकी प्रकृति और विकृति आदिकोंका वर्ण तथा अन्यभी देखने योग्य जो विषय हों उनकी चक्षुइंद्रियद्वारा परीक्षा करे ॥६॥
अनुमानज्ञानका लक्षण । रसन्तुखलुआतुरशरीरगतमिन्द्रियवैषयिकमप्यनुमानादवग- . च्छेत् । नास्यप्रत्यक्षेणग्रहणमुपपद्यते । तस्मादातुरपरिप्रश्नेने वातुरमुखरसंविधात् । यूकापसर्पणेनत्वस्यशरीरवैरस्यमक्षिा कोपदर्शनेनशरीरमाधुर्यम् । लोहितपित्तसन्देहेतुकिन्धारि.. लोहितलोहितापिनवेतिश्वकाकभक्षणात्धारिलोहितमभक्षणा लोहितमित्यनुमातव्यम्एवमन्यानंप्यातुरशरीरगतानरसाननु. मिर्मात । गन्धास्तुखलुसर्वशरीरगतानातुरस्यप्रतिवकारि- . कान्नाणेनपरीक्षतस्पर्शचपाणिनाप्रकृतियुक्तमितिमत्यक्षतोऽ नुमानकदेशतश्चपरीक्षणमुक्तम् ॥ ७॥ परन्त रोगीके शरीरगत रसनेंद्रियका विषय होनेपरभी अनुमान दारा जानना चाहिये । क्योंकि रसका नेत्रोंदारा प्रत्यक्ष हो नहीं सकता और जिहाद्वारा उसकों. कोई बान नहीं सकता इसलिये रोगीसे : प्रश्नदारा उसके मुखके रसादिकोंकों जानना चाहिये। शरीरपर, यूका: भादिके चलनेस-शरीरकी विरसताको.जानन.
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(६४६) चरकसंहिता-भा० टी० । चाहिये मक्खियोंके शरीरपर पडनेसे शरीरके मीठेरसका अनुमान होसकता है । रक्तपित्त रोगवालेका रक्त तथा. विना रक्तपित्तवालेके रक्त में संदेह हो तो कुत्ते और कागको भक्षण करानेसे जान सकतेहैं यदि उसको श्वान आदि भक्षण करे तो आरोग्य पुरुषका.रक्त समझना चाहिये और यदि वह श्वान आदिक उस रक्तको न छुएं तो रक्तपित्त है ऐसा जानना चाहिये इसी प्रकार रोगोके शरीरगत अन्य रसोंका भी अनुमान करे रोगीके शरीरगत गन्धोंको स्वाभाविक प्रकृतिसे विकारको प्राप्त हुए गंधको घ्राणेन्द्रियद्वारा परीक्षा करे। शरीरकी प्रकृति,विकृति, उष्णता,शीतता आदि एवम् धमनीकी गति आदि-हाथके स्पर्शदाग परीक्षा करे इस प्रकार प्रत्य.. क्षसे तथा अनुमानसे एकदेशसे परीक्षाका कथन किया गया है ॥७॥
। अन्य अनुमान ज्ञेय भावोंका वर्णन । इमेतुखलुअन्येप्येवमेवभूयोऽनुमानज्ञेयाभवन्तिभावाःतयथा-अग्निजरणशक्या, बलंव्यायामशक्त्या ,श्रोत्रादीच्छदादिग्रहणेन, मनोऽर्थाव्यभिचारेण, विज्ञानंव्यवसायेन, रजः सङ्गेन,मोहमविज्ञानेन,क्रोधमभिद्रोहेण,शोकं दैन्येन,हर्षमा-. मोदेन,प्रीतिं तोषेण, भयंविषादेन, धैर्यमविषादेन, वीर्य— मुत्साहेन,स्थानमविभ्रमेण,श्रद्धामभिप्रायेण, मेधां ग्रहणेन, "संज्ञानामग्रहणेन, स्मृति स्मरणेन, ह्रियनपत्रपेण, शीलम.
नुशीलनेन, द्वेषप्रतिषेधेन,उपाधिमनुबन्धेन,धृतिमलौल्येन, "वश्यतांविधेयतया, वयोभक्तिसात्म्यव्याधिसमुत्थानानिकाउदेशोपशयवेदनाविशेषेणगूढलिङ्गव्याधियुपशयानुपशयाभ्यां दोषप्रमाणविशेषमपचारविशेषेणआयुषःक्षयमरिष्टैरुपस्थित- : श्रेयस्त्वंकल्याणाभिनिवेशेनअमलंसत्त्वमविकारेगोति ग्रह-: ण्यास्तुमृदुदारुणत्वंदुःस्वप्नदर्शनमभिप्रायद्विष्टेष्टसुखदुःखानि .. चातुरपारप्रश्नेनैवविद्यादिति ॥८॥ ...... यह आगे कथन किये हुए विषयों तथा उनके सिंगय और भी जो भाव हैं उनकी अनुमान द्वारा परीक्षा करनी चाहिये । जैसें भोजनके परिपांक द्वारा जंठरा-.. निकी परीक्षा, पारिश्रम आदिसें बलकी परीक्षा; शब्दादिकसे कर्णादिकोंकी परीक्षा, मनके विषयोंके अव्यभिचारसें मनकी परीक्षा, व्यवसाय अर्थात बांदके कार्यों
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विमानस्थान-अ०४. (९४७) विज्ञानकी परीक्षा, संगद्वारा रजोगुणकी परीक्षा, नष्टज्ञानद्वारा मोहकी परीक्षा,अभिद्रोह द्वारा क्रोधकी परीक्षा, दीनताद्वारा शोककी परीक्षा, प्रसन्नतासे हर्षकी परीक्षा, संतोषसे प्रीतिकी परीक्षा, विषादसे भयकी परीक्षा, अविषादसे धैर्यकी परीक्षा, उत्साहसे पराक्रमकी परीक्षा, अभ्रान्तिसे स्थिरताको परीक्षाका अनुमान करना चाहिये एवम् मनके अभिप्रायसे श्रद्धा, धारणासे मेधा, नाम लेनसे संज्ञा, स्मरणसे स्मृति, संकोचसे लज्जा, शीलतासे स्वभाव, त्यागसे द्वेष, अनुबंधसे. उपाधि, चपलता न होनेसे धृति और विधेयतासे वशीभूतकी परीक्षाका अनुमान किया जाताहै इसी प्रकार-काल,देश,उपशय और वेदनाविशेषसे यथाक्रम,अवस्था,भक्ति,सात्म्य, व्याधि तथा निदानका अनुमान किया जाता है।उपशय और अनुपशय द्वारा गूढ लक्षणवाली व्याधियोंका अनुमान किया जाता है।अपचारविशेषसे दोषका प्रमाण विशेष जाना जाताहै अरिष्टद्वारा आयुके क्षयका अनुमान कियाजाताहै । कल्याणकारक योगों में चित्तके लगनेसे शुभका अनुमान कियाजाताहै और विकाररहित होनेसे विमल सतोगुणका अनुमान कियाजाताहै । ग्रहणीकी नम्रता और कठोरता दु:स्वम दर्शन, अभिप्राय, द्वेष, इष्ट, सुख, दुःख, यह सब विषय रोगीसे प्रश्न: द्वारा जानने चाहिये ॥ ८ ॥
भवान्तचात्र । · · आततश्चोपदेशेनप्रत्यक्षकरणेनच । ।
___ अनुमानेनचव्याधीन्सम्यग्विद्याद्विचक्षणः ॥ ९॥ यहांपर कहा है कि, चतुर वैद्य आप्तेक उपदेशसे, प्रत्यक्ष करणसे ,एवम् अनुमानसे व्याधियोंको भली प्रकार जाने ॥९॥ __ सर्वथासर्वमालोच्ययथासम्भवमर्थवित् । ...
अथाध्यवस्येत्तत्त्वेचकार्येचतदनन्तरम् ॥ १० ॥ अर्थको जाननेवाला वैद्य सब प्रकारसे सब विषयोंको विचारकर यथा संभव कारण और कार्यको जान लेवे । जव संपूर्ण कारणादिका निश्चय करलेवे तदनन्तर कार्यके विषयमें निश्चय करे ॥ १० ॥ . .
. . कार्यतत्वविशेषज्ञःप्रतिपत्तौनमुह्यति ।... . .. ..
. . . अमूढःफलमाप्नोतियदमोहनिमित्तजम् ॥ ११ ॥ . कार्यके. तत्त्वके निश्चयज्ञानवाला.वैद्य समय प्राप्त होनेपर मोहको प्राप्त नहीं होता। मोहको प्राप्त न होनेसे यथार्थ फलको प्राप्त ोताहै ॥ ११ ॥
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(५४८) __ चरकसंहिता-भा० टी। . ज्ञानबुद्धिप्रदीपेनयोनाविशतितत्त्ववित् ।
आतुरस्यान्तरात्मानंनसरोगांश्चिकित्सति ॥१२॥ जिस वैद्यने कारणादि ज्ञान तथा बुद्धिरूप दीपकसे रोगीके शरीरमें प्रवेश नहीं, किया है वह वैद्य रोगोंकी चिकित्सा नहीं कर सकता ॥ १२ ॥
सर्वरोगविशेषाणांत्रिविधंज्ञानसंग्रहम् । यथाचोपदिशन्त्याप्ताःप्रत्यक्षंगृह्यतेयथा ॥१३॥ येयथाचानुमानेनज्ञेयास्तांश्चात्युदारधीः।
भावास्त्रिरोगविज्ञानेविमानेमुनिरुक्तवान् ॥ १४ ॥ इतिश्रीमच्चरकसंहितायां त्रिविधरोगविशेषविज्ञानीय
नामचतुर्थोऽध्यायः॥ ४॥ अब अध्यायका उपसंहार करते हैं कि त्रिविध रोगविशेषविज्ञानीयअध्याय सम्पूर्ण रोगविशेषको जाननेके लिये तीन प्रकारके शानका संग्रह जैसे आप्त पुरुष उपदेश करते हैं। जैसे प्रत्यक्षका ग्रहण होता है । जो विषय अनुमान द्वारा जैसे जानेजाते हैं। इन सब भावोंको उदार बुदि भगवान् आत्रेयजीने वर्णन किया है॥ १३ ॥१४॥ इति श्रीमहार्षिचर० वि० स्था० भा० टी० त्रिविधरोगविशेषविज्ञानीयविमान
नाम चतुर्थोऽध्यायः ॥४॥
पञ्चमोऽध्यायः।
. अथातःस्रोतोविमाननामाध्यायं व्याख्यास्याम इति हस्माह
भगवानात्रेयः। अब हम स्रोतोविमाननामकअध्यायकी व्याख्या करते हैं। इस प्रकार भगवान् आत्रेयजी कथन करने लगे।
स्रोतोंका वर्णन.। . . .. यावन्तःपुरुषेमूर्तिमन्तोभावविशेषास्तावन्तएवास्मिन्स्रोतसां.
प्रकारविशेषाः,सर्वेभावाहिपुरुषेनान्तरेणस्रोतांस्यभिनिवर्तन्ते क्षयवानगच्छंति। स्रोतांसिखलुपारणाममापद्यमानानांधातुः ।
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विमानस्थान-अ०५.
(५४९) नामभिवाहीनिभवन्तिअयनार्थेनापिंचैकेमहर्षयःस्रोतसामे. . . क्समुदयपुरुषमिच्छन्तिसर्वगतत्वात्सर्वसरत्वाञ्चदोषप्रकोपणप्रशमनानांनत्वेतदेवंयस्यसहिपुरुषःस्रोतांसियंचवहन्तियच्चा
वहन्तियत्रचावस्थितानिसर्वतदन्यत्तेभ्यः ॥१॥ 'पुरुषके शरीरमें शिरा, कोष्ठ आदि स्थूल पदार्थ हैं वह सब स्रोतोंके ही प्रकारान्तर हैं क्योंकि पुरुषके शरीरमें संपूर्णभाव स्रोतोंद्वाराही उत्पन्न होते हैं और क्षय नहीं होते।बोत ही परिणामको प्राप्तहुए सम्पूर्ण धातुओंको वहन करतेहैं अर्थात अथास्थानमें पहुंचा देते हैं । स्रोत ही अयनार्थ होते हैं क्योंकि संपूर्ण शरीरमें सर्वगामी होनेसे तथा दोषों के प्रकोपकारक अथवा शमनकारक किये हुए आहारा. दिकोंको सम्पूर्ण शरीरमें व्यापक करदेते हैं । इसलिये कोई स्रोतोंके समुदायको ही पुरुष मानते हैं। परन्तु स्रोतोंका समुदाय पुरुष नहीं होता. त्रिोतोंके समुद्रात यंका जो अधिष्ठाता है स्रोत जिसके आभित हैं, जिसके लिये स्रोत रसादिकोंको बहन करते हैं वह पुरुष है तथा स्रोत जिसको वहन करते हैं। और जिसका आव-. इन करते हैं वह स्रोतोंसे पृथक् पुरुष हैं ॥ १॥
अतिबहुत्वात्तुखलुकेचिदपरिसंख्येयानिआचक्षतेस्रोतांसि,परिसंख्येयानिपुनरन्ये,तेषांस्रोतसांयथास्थानंकतिचित्प्रकारान्मूलतश्चप्रकोपविज्ञानतश्चानुव्याख्यास्यामः। येभविष्यन्त्यलमनुक्तार्थज्ञानवतेविज्ञानायचाज्ञानाय, तद्यथा, प्राणोदका. नरसरुधिरमांसमेदोषस्थमज्जाशुक्रमूत्रपुरीषस्वेदवहानिवातपित्तश्लेष्मणांपुनःसर्वशरीरचराणांसर्वस्रोतांसिअयनभूतानि ॥२॥
अत्यन्त अधिक होनेसे कोई २ स्रोतोंको असंख्य कहते हैं। कोई कहते हैं कि स्रोतोंकी संख्या होसकती है । उन स्रोतोंका प्रकार मेदसे तथा मूलभेदसे और उनके प्रकोप विज्ञानके यथा स्थानमें आगे कथन करेंगे। क्योंकि सम्पूर्ण स्रोतोंका विषय जानलेनेसे जिन स्रोतोंका कथन नहीं भी कियागया. उनको. भी. ज्ञानवान मनुष्य जान सकताहै । तथा यथोचित उपदेश द्वारा अज्ञानी भी जानसकेंगे । वह इस प्रकार हैं प्राणवाही, उदकवाही, अन्नवाही; रसवांही, रक्तवाही, मांसवाही,मेदबाही एवम् अस्थि, मज्जा, शुक्र, मूत्र, मल, स्वेद इनके.वहन करनेवालोंको स्रोत कहते हैं तथा वात, पित्त और कफ सम्पूर्ण शरीरमें गमन करानेषाले मार्गभूत भी
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( ५५० )
चरकसंहिता - मा० टी० ।
स्त्रोतही होते हैं । यह स्रोतही सम्पूर्ण रस, घातु, वायु आदिके अयन अर्थात गतिस्थान और अधिष्ठान होते हैं ॥ २ ॥
तद्वदतीन्द्रियाणां पुनः सच्त्वादीनां केवलंचेतनावच्छरीरमयनतदेतत्स्रोतसांप्रकृतिभूतत्वान्नविकारैरु
भूतमधिष्ठानभूतञ्च
पसृज्यते शरीरम् । तत्रप्राणवहानांस्रोतसां हृदयंमूलंमहास्रोतश्च; प्रदुष्टानामिदं विशेषज्ञानं भवति अतिसृष्टकुपितंसप्रति - बन्धमल्पाल्पमभीक्ष्णंवासशब्दशूलमुच्छ्रसन्तं दृष्ट्वा प्राणवहान्यस्यस्रोतांसिप्रदुष्टानीर्तिविद्यात् ॥ ३ ॥
उसी प्रकार चेतनायुक्त केवल शरीर - इन्द्रियोंका तथा मन आदिकोंका गतिस्थानं मार्गरूप एवम् अधिष्ठान होता है । यही कारण है कि सम्पूर्ण स्रोत प्रकृतिभूत होनेसे शरीर में विकारको नहीं होने देते । इनमें प्राणोंके वहन करनेवाले 'स्रोतों का मूल हृदय है और उसको महास्त्रोत भी कहते हैं । यह स्रोत जब दूषित होते हैं तब इनमें यह विशेषता होता है कि उच्छासकों, अधिक छोडे, बहुत तेज़ या रुककर थोडा २ अथवा शब्दयुक्त शूलके साथ श्वास आवे । इन लक्षणोंसे प्राणवाहक स्रोतोंको दूषित हुआ जानें ॥ ३ ॥
·
-
दूषित उदकवाही स्रोतके लक्षण |
उदकवहानां स्रोतसां तालुमूलंक्कोमच प्रदुष्टानामिदंविज्ञानं,तद्यथाजिह्वा ताल्वोष्ठकण्ठक्लोमशोषंपिपासाञ्चातिप्रवृद्धांदृष्ट्वोदकवहान्यस्यस्रोतांसि प्रदुष्टानीतिविद्यात् ॥ ४ ॥
जलके वहन करनेवाले स्रोतोंका मूल तालु और क्लोम होता है । यदि यह स्रोत दूषित होजांय तो इनके ये लक्षण होते हैं । जैसे- जिल्हा, तालु, ओष्ठ और क्लोम ( प्यास लगानेवाली कारणभूत स्थान ) ये सूखने लगें प्यास अधिक लगे । इन लक्षणोंसे जलके वहन करनेवाले स्रोतोंको दूषित हुआ जाने ॥ ४ ॥ दूषित अन्नवाही स्रोतके लक्षण ।
अन्नवहानांस्त्रोतसामामाशयोमूलंवामञ्च पार्श्वम्, प्रदुष्टानान्तुख ल्वेषामिदविशेषविज्ञानंभवति, तद्यथाअनन्नाभिलषणमराचकाविपाकौछर्द्दिञ्चदृष्ट्वाअन्नवहानि स्रोतांसि प्रदुष्टानीति, - विषात् ॥ ५॥
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विमानस्थान - अ० ५.
- ( ५५१ ) अन्नके वहन करनेवाले स्रोतोंका मूल-आमाशय औरं वामपार्श्वभाग है । इन स्रोतोंके दूषित होनेसे यह लक्षण होते हैं । जैसे- अन्नकी अभिलाषा न होना, अरुचि होना, अन्नका परिपाक न होना, छर्दि होना इन लक्षणोंसे अन्नके वहन करनेवाले स्रोतों को दूषित हवा जानना चाहिये ॥ ५ ॥ रसवहादिस्रोतों का वर्णन ।
रसवहानांस्रोतसांहृदयंमूलंदशचधमन्यः, शोणितवहानांस्त्रोतसांयकृतमूलंप्लीहाच,मांसवहानाञ्चस्रोतसां स्नायुमूलंत्वक् च, मज्जा वहानांस्रोतसामस्थीनि मूलंसक्थयश्च, शुक्रवहानां स्रोतसांवृषण मूलंशश्च । प्रदुष्टानान्तुरसादिस्रोतसांखलु एषां विज्ञानान्युक्तानिविविधाशितीये अध्यायेयान्येवहिधातूनांप्रदोषविज्ञानानितान्येवयथास्वधातुस्रोतसाम् ॥ ६ ॥
रसके वहन करनेवाले स्रोतोंका मूल हृदय और दश धमनियें हैं । रक्तवाहक स्रोतों का मूल - यकृत (जिगर) और प्लीहा (तिल्ली ) होते हैं । मांसके वहन कर नेवाले स्रोतों का मूल स्नायु नसें और त्वचा हैं । मज्जाके वहन करनेवाले स्रोतों का मूल अस्थियें और सक्थि हैं । वीर्यके वहन करनेवाले स्रोतों का मूल दोनों वृषण और लिंग हैं । इन रसादिक वहन करनेवाले स्रोतोंके बिगडनेसे जो लक्षण होते हैं. वह विविधाशितपीतीय अध्यायमें वर्णन किया गया है ॥ ६ ॥
मूत्रवाही स्रोतोंके लक्षण | मूत्रवहाणांसोतसांबस्तिर्मूलंवंक्षणौच, खल्वेषामिदंप्रदुष्टानां
विज्ञानमतिसृष्टप्रतिबद्धंकुपितमल्पाल्पमभीक्ष्णंवासालंमूत्र.
मूत्रवन्तं दृष्ट्रा सूत्रवहाण्यस्यस्रोतांसि प्रदुष्टानीतिविद्यात् ॥ ७ ॥ मूत्रको वहन करनेवाले स्रोतोंका मूल वस्ति और वंक्षण हैं । इनको दृष्टि हुए जानने के ये लक्षण होते हैं । जैसे - मूत्रका अधिक आना अथवा मूत्रका वृद्ध जाना मूत्रका विगडाहुआ होना मूत्रका लगकर आना थोडा २ आना वा दर्द के. साथ आना इस प्रकारके मूत्रके लक्षणों को देखकर मूत्रवाहक स्त्रोतोंको दूषितः
जानना ॥ ७ ॥
पुरीषवादी स्रोतोंके लक्षण | . पुरीषवहाणां स्रोतसां पक्काशयोमूलंस्थूलगुदश्च प्रदुष्टानांखलु एषामिदं विज्ञानं, कच्छ्रेण अल्पाल्पंसशूलमतिद्रवकुपितम-:
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चरकसंहिता-भा० टी०। तिवृद्धंचोपविशन्तंदृष्ट्वापुरीषवहाण्यस्यस्रोतांसिप्रदुष्टानीतिवि. यात् ॥ ८॥ पुरीष ( मल) के वहन करनेवाले स्रोतोंका मूल पकाशय, स्थूल अंतडी और इदा हैं। उनके दूषित होनेसे यह लक्षण होते हैं जैसे-कष्टके साथ थोडा २ मल उतरना, दर्दके साथ मल उतरना, बहुत पतला मल आना, तेजगर्मीके साथ मल माना, रुककर अत्यन्त सूखा मल आना । इन लक्षणोंको देखकर मलके बहन करनेवाले स्रोतोंको दूषित जानना ॥८॥
स्वेदवाही स्रोतोंके लक्षण । *स्वेदंवहानांस्रोतसांमेदोमूलंरोमकूपाश्च प्रदुष्टानांखल्वेषाभिदंविज्ञानमस्वेदनमतिस्वेदनंपारुष्यमतिश्लक्ष्णतांपरिदाहलोमहर्षश्चदृष्टास्वंदवहान्यस्यस्रोतांसिप्रदुष्टानीतिविद्यात् ॥ ९ ॥ स्वेदके वहन करनेवाले स्रोतोंका मूल मेद तथा रोमकूप हैं । इनको दूषित हुए ऑननेके ये लक्षण हैं । पसीना न आना अथवा अधिक आना, रोमकूपोंका कठोर होना या अत्यंत नरम होना, शरीरमें दाह होना, रोमोंका खडा होना इन लक्षणोंको देखकर स्वेदवाहक बोसोंका दूषित हुआ जानना ॥ ९॥
___ शरीरधात्ववकाशोंके नाम। स्रोतांसिशिराधमन्योरसवाहिन्योनाड्यःपन्थानोमार्गाःशरीरच्छिद्राणिसंवृतासंवृतानिस्थानानिआशया आलया:निकेताश्चेतिशरीरधात्ववकाशानांलक्ष्यालक्ष्याणांनामानि ॥१०॥ . स्रोत, शिरा, धमनियें, रसवाहनी नाडिये, पथसमूह, मार्ग, शरीरछिद्र, संवृत. स्थान, असंवृतस्थान, आशय, निकेतन, आलय,यह सब नाम-शरीरफे धातुभोंके लक्ष्य तथा अलक्ष्य स्थानोंके हैं ॥१०॥
तेषांप्रकोपात्स्थानस्थाश्चैवमार्गगाश्चैवशरीरधातवःप्रकोपमाप- ‘द्यन्ते ॥ ११॥
उनके कुपित होनेसे स्थानमें स्थित तथा मार्गमें गमन करनेवाली शारीरिक धातुयेभी कोपको प्राप्त होजाती हैं ॥ ११ ॥
इतरेषांवाप्रकोपादितराणि ॥१२॥ अन्य स्रोतोंके कोपसे अन्य स्रोत भी कुपित होजातेहैं ॥ १२ ॥
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विमानस्थान - अ० ५.
स्रोतांसिस्रोतांस्येव धातवश्चधातूप्रदूषयन्ति ॥ १३ ॥
एक धातु दूषित होकर दूसरी धातु दूषित करदेती है स्रोत दूषित होकर अन्य स्रोतों को भी दूषित कर देते हैं ॥ १३ ॥
प्रदुष्टास्त्वेषां सर्वेषामेववात पित्तश्लेष्माणोदुष्टादूषयितारोभवन्तिदोषस्वभावादिति ॥ १४ ॥
वात, पित्त कफ दूषित होकर इन सब स्रोतोंको अपने दोष स्वभावसे दूषित करदेते हैं ॥ १४ ॥
(५५३)
"
प्राणवाही स्रोतोंके दूषित होनेका कारण । भवतिचात्र । क्षयात्सन्धारणाद्रौक्ष्याद्वधायामात्क्षुधितस्यच । प्राणवाहीनिदुष्यन्तिस्रोतांस्यन्यैश्चदारुणैः ॥ १५ ॥
सोई कहते हैं । प्राणोंको वहन करनेवाले स्रोत - धातुओं के क्षीण होनेसे, वेगोंको धारण करनेले, रूक्षतासे, अधिक परिश्रम करनेसे, बहुत क्षुधा लगनेसे तथा अन्य दुष्ट कारणोंसे दूषित होतेहैं ॥ १५ ॥
उदकवाही स्रोतोंके दूषित होनेका कारण । औष्ण्यादामाद्भयात्पानादतिशुष्कान्नसेवनात् । अम्बुवाहीनिदुष्यन्तितृषायाश्चातिपीडनात् ॥ १६ ॥
उष्णतासे, आमदोषसे, भयसे, मद्य आदि पीनेसे, अधिक शुष्क अन्न सेवनसे, अत्यन्त प्यास लगने से जलके वहन करनेवाले स्रोत दूषित होते हैं ॥ १६ ॥ अन्नवाही स्रोतोंके दूषित होनेका कारण । अतिमात्रस्य चाकाले चाहितस्यचभोजनात् । अन्नवाहीनिदुष्यन्तिवैगुण्यात्पावकस्यच ॥ १७ ॥
9
अधिक भोजन करनेसे, वेसमय भोजन करनेसे विषम भोजन करनेसे, अहित भोजन करनेसे, जठरानिकी विगुणतासे अन्नके वहन करनेवाले स्रोत दूषित होते हैं ॥ १७ ॥
रसवाही स्रोतोंके दूषित होनेका कारण।
गुरुशीतमतिस्निग्धमतिमात्रनिषेवणात् । रसवाहीनिदुष्यन्तिचिन्त्यानाञ्चातिचिन्तनात् ॥ १८ ॥
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( ५५४ )
चरकसंहिता - भा० टी० ।
भारी; शीतल और अत्यन्त निग्ध पदार्थों के अधिक सेवनसे बहुत चिन्ताकें करनेसे रसके वहन करनेवाले स्रोत दूषित होते हैं ॥ १८ ॥ रक्तवाही स्रोत दूषित होने का कारण । विदाहीन्यन्नपानानिस्निग्धोष्णाद्रिवाणिच । रक्तवाहीनिदुष्यन्तिभजताञ्चापानलों ॥ १९ ॥
19
· विदाही अन्नपानके सेवन से तथा स्निग्ध, उष्ण और द्रव पदार्थों के सेवनसे, धूप, अग्नि इनके सेवनसे रक्तवाही स्रोत दूषित होते हैं ॥ १९ ॥ मांसवाही स्रोतोंके दूषित होनेका कारण । अभिष्यन्दीनि भोज्यानि स्थूलानिचगुरूणिच । मांसवाहीनिदुष्यन्तिभुक्त्वा चस्वपतोदिवा ॥ २०॥
अभिष्यन्दी, स्थूल और भारी पदार्थों के भोजन करनेसे, भोजन कर दिनमें सोजासे मांसवाही स्रोत दूषित होते हैं ॥ २० ॥
मेदोवाही स्रोता के दूषित हानका कारण । अव्यायामाद्दिवास्वप्नान्मे ध्यानाञ्चातिभक्षणात् । मेदोवाहीनि दुष्यन्तिवारुण्याश्चातिसेवनात् ॥ २१ ॥
व्यायाम न करनेसे, दिनमें सोनेसे, चिकने पदार्थों के अधिक खानेसे और मद्यकें. अधिक पीनेस, मेदको वहन करनेवाले स्रोत दूषित होते हैं ॥ २१ ॥
अस्थिवाही स्रोतोंके दूषित होनेका कारण । व्यायामादतिसंक्षोभादस्थनामतिचभक्षणात् अस्थिवाहीनिदुष्यन्तिवातलानाञ्च सेवनात् ॥ २२ ॥
।
¿
अधिक व्यायाम करनेसे, अत्यन्त संक्षेपणसे, अस्थियोंके चवानेसे तथा वादवर्द्धक पदार्थों के सेवन से अस्थिवाही स्रोत दूषित होजाते हैं ॥ २२ ॥
मज्जावाही स्रोतोंके दूषित होनेका कारण । उत्पेषादत्यभिष्यन्दादभिघातात् प्रपीडनात् । मज्जावाहीनि दुष्यन्तिविरुद्धानाञ्च सेवनात् ॥ २३ ॥
किसी वस्तु के नीचे दबजाने से, अभिष्यंदी पदार्थों के सेवनसे, चोटके लगनेसें, शरीर के प्रपीडनसे, एवम् विरुद्ध पदार्थोंके सेवनसे मज्जाके वहन करनेवाले स्रोतदूषित होते हैं ॥ २३ ॥
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विमानस्थान-१०५. शुक्रवाही स्रोतोंके दूषित होनेका कारण । अकालायोनिगमनान्निग्रहादतिमैथुनात् ।
शुक्रवाहीणिदुष्यन्तिशस्त्रक्षाराग्निभिस्तथा ॥२४॥ विना-समय मैथुन करनेसे, अयोग्य मैथुन करनेसे, विलकुल मैथुन न करनेसें, अधिक मैथुन करनेसे, शस्त्र, क्षार, तथा आग्निके संयोगसे वीर्यवाही स्रोत दूषित होते हैं ॥ २४॥
मूत्रवाही स्रोतोंके दूषित होनेका कारण । मूत्रितोदकभक्षस्त्रसिवनान्मूत्रनिग्रहात् ।
मूत्रवाहाणिदुष्यन्तिक्षीणस्याथरूशस्यच ॥२५॥ मूत्रके वेग आये हुए पर मूत्रको रोककर पानी पीनेसे एवम् मूत्रके वेगको रोककर स्त्रीगमन करनेसे, मूत्रको रोकनेसे तथा क्षीणता और कृशता होनेसे मूत्रवाही स्रोत दूषित होजाते हैं ॥२५॥
वोंके स्त्रोतोंके दूषित होनेका कारण । विधारणादत्यशनादजीर्णाध्यशनात्तथा ।
वचौवाहीनिदुष्यन्तिदुर्बलाने कशस्यच ॥ २६ ॥ मलके वेगको रोकनेसे, अधिक भोजन करनेसे; अजीर्णमें भोजन करनेसे, दुर्बल आनके होनेसे तथा कृशताके कारण मलवाही स्रोत दूषित होते हैं ॥ २६ ॥ ..
__स्वेदवाही स्रोतोंके दूषित होनेका कारण । व्यायामादतिसंन्तापाच्छीतोष्णाक्रमसेवनात् ।
स्वेदवाहीनिदुष्यन्तिक्रोधशोकभयैस्तथा ॥ २७॥ अधिक व्यायाम करनेसे, अधिक धूप, तथा तापके सहनेसे, विकृतभावसे, सर्दी गौके सेवनसे,शोक तथा भयसे,स्वेदके वहन करनेवाले स्रोत दूषित होजातेहैं२७.
. अन्य कारण ।. . आहारश्चविहारश्चयःस्थादोषगुणैःसमः। .
धातुभिर्विगुणश्चापिसातसांसप्रदूषकः ॥ २८ ॥ जो आहार विहार-वात, पित्त, कफके साम्यगुणकारी हैं वह स्रोतोंको दूषितः करते हैं जो आहार विहार रसरक्तादि धातु के असमान गुण करनेवाले हैं वह भी स्रोतोंको दूषित करते हैं ॥ २८ ॥
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घरकसंहिता-मा० टी०। अतिप्रवृत्तिःसङ्गोवाशिराणांग्रन्थयोऽपिवा ।
विमार्गगमनंवापिस्रोतसांदुष्टलक्षणम् ॥ २९ ॥ 'मलादिकोंकी अधिक वृद्धि अथग विरोध होना तथा नसोंमें गांठका पडना मोर मलोंको अपने मार्ग त्यागकर दूसरेमार्गद्वारा निकलना यह दूषितहुए स्रोतोंके बक्षण होते हैं ॥ २९ ॥
स्रोतोंकी आकृति । स्वधातुसमवर्णानिवृत्तस्थूलान्यनिच ।
स्रोतांसिदीर्घाण्याकृत्याप्रतानसशानिच ॥ ३०॥ . संपूर्ण स्रोत अपने २ धातुके समान वर्णवाले गोलाकार मुखवाले,स्थूल अथवा सुक्ष्म आकारके होतेहैं ॥ ३० ॥
. दूषित स्रोतोंकी चिकित्साका विधान ।
प्राणोदकान्नवाहानांदुष्टानांश्वासिकाक्रिया ।
कार्यातृष्णोपशमनीतथैवामप्रदोषिकी ॥ ३१॥ .. प्राणवाही स्रोत, जलवाही स्रोत, और भन्नषाही स्रोतोंके दूषित होनेपर श्वास सैगके समान चिकित्सा करनी चाहिये तथा तृषानाशक और मामनाशक चि. कित्सा करनी चाहिये । अर्थात प्राणवाही स्रोतोंके दूषित होनसे श्वासचिकित्सा, जलवाही स्रोतोंके दापित होनेसे वृषानाशक चिकित्सा, अन्नवाही स्रोताके दूषित होनेसे आमदोष नाशक चिकित्सा करनी चाहिये ॥ ३१॥
विविधाशितपीतीयेरसादीनांयदौषधम् ।
दूषितस्रोतसांकुत्तिद्यथास्वमुपक्रमम् ॥ ३२ ॥ . .. . .. रस आदि धातुओंके वहन करनेवाले स्रोतोंके दूषित होनेपर विविधाशितपीतीय अध्यायमें कथन की हुई रस रक्तादिकोंकी चिकित्सा क्रमपूर्वक करनी चाहिये३२॥
मूत्रविट्स्वेदवाहानांचिकित्सामौत्रकच्छिकी । तथातिसारको
का-तथाज्वरचिकित्सिकी इति ॥ ३३॥ .. : मूत्रवाही स्रोतोंके दूषित होनेपर मूत्रकृच्छ्में कही चिकित्सा करनी चाहिये। मलबाही स्रोतोंके दूषित होनेपर अतिसार रोमके समान चिकित्सा करनी चाहिये। खेदवाही स्रोतोंके क्षित होनेपर ज्वरके समान चिकित्सा करनी चाहिये ॥३३॥
विविधाशिलासा करनी व चिकित्सा,
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वाताव
विमानस्थान अ०६.. (९५७)
तत्र श्लोकाः। त्रयोदशानामूलानिस्रोतसांदुष्टलक्षणम् । सामान्यनामपर्यायाःकोपनानिपरस्परम् ॥ ३४॥ दोषहेतुःपृथकूत्वेनभेषजोद्देशएंव च। . . ...
स्रोतोविमाननिर्दिष्टस्तथाचादौविनिश्चयः॥३५॥ ... अब मध्यायकी पूर्ति श्लोक कहते हैं कि इस स्रोतोविमान नामक अध्यायमें तेरह स्रोतोंके मूल, उनके दृषित होनेके लक्षण, सामान्यनाम, पर्यायवाचक शन्द, परस्पर कोपक्रम, पृथकू २ दोषोंके हेतु और औषध उद्देश तथा स्रोतोंका निधन इनका वर्णन कियागया है ॥ ३४ ॥ ३५ ॥
केवलंविहितंयस्यशरीरंसर्वभावतः.। .
शारीराःसर्वरोगाश्चसकर्मसुनमुह्यति ॥ ३६ ॥ इति चरकसंहितायां विमानस्थाने स्रोतोविमानम्। जिस वैद्यको संपूर्ण भावोंसे शरीरका ज्ञान है तथा शरीरके संपूर्ण रोगोंको जानवा है वह वैद्य चिकित्सा क्रममें मोहको प्राप्त नहीं होता ॥ ३६ ॥ इति श्रीमहर्षि चरक० विमानस्थाने भाषाटीकायां स्रोतोदिमानं नाम पञ्चमोऽध्यायः॥५॥
. . .
...
षष्ठोऽध्यायः।
।
अथातो रोगानीकं विमानव्याख्यास्याम इति हस्माह.भगवानात्रेयः।.
अब हम रोगानीक विमानकी व्याख्या करते हैं । इस प्रकार भगवान् मात्रै बजी कथन करनेलगे।
. . . . . रोगों के विभाग। द्वेरोगानभिवतःप्रभावभेदेनसाध्यश्चासाध्यञ्च, देरोगानीके बलभेदेनमृदुचदारुणञ्च,ढेरोगानीके अधिष्ठानभेदेनमनोऽधिः ठानंशरीराधिष्ठानञ्च, रोगानीकेटेनिमित्तभेदेनस्वधातुवैषम्य
.
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चरकसंहिता - भा० टी० ।
निमित्तञ्चागन्तुनिमित्तञ्च, डेरोगानी के आशय भेदेन आमाशय -
समुत्थञ्चपक्वाशयसमुत्थञ्च ॥ १ ॥
रोगों के समूह प्रभाव के भेदसे दो प्रकारके होते हैं। प्रथम साध्य । द्वितीय असाध्य । - रोग समूहके वलके भेदसे दो भेद होते हैं । मृदु और दारुण । अधिष्ठान भेदसे दो प्रकार के हैं । मनोधिष्ठान और शरीराधिष्ठान । निमित्त भेदसे दो प्रकारके हैं। निजधातु • वैषम्यनिमित्तक और आगन्तुक निमित्तक । आशयभेदसे दो प्रकार के हैं आमाशयसे उत्पन्न होनेवाले और पक्वाशयसे उत्पन्न होनेवाले ॥ १ ॥ रोगोंको संख्पासंख्येयत्व |
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एवमेतत्प्रभावबलाधिष्ठाननिमित्ताशयद्वैधं समुद्भेदप्रकृत्यन्तरे-. णभिद्यमानमथवासन्धीयमानंस्यादेकत्वं वाबहुत्वंवा, एकत्वं तावदेकमेव रोगानीकंदुःखसामान्यात्. बहुत्वन्तुदशरोगानीकानिप्रभावभेदादीनि, बहुत्वमपिसंख्येयं वास्यादसंख्येयं : संख्येययथोक्तम्- अष्टोदरीये, असंख्येयं यथाम हतिरोगाध्याये रुग्वर्णसमुत्थानादीनामसंख्येयत्वात् ॥ २ ॥
- इस प्रकार प्रभाव, बल, अधिष्ठान, निमित्त और आशयभेदसे दो दो प्रकारके - होतेहुए भी निदान और प्रकृतिके भेदसे सब रोग पृथक् २ अथवा मिले हुए होते हैं इस प्रकार संपूर्ण रोगोंको एकत्व अथवा वहुत्व कथन किया है । जैसे- संपूर्ण रोग दुःख देनेवाले होनेसे अर्थात् दुःखदायित्व होनेसे संपूर्ण रोगसमूहको एकस्व कथन किया है अब बहुत्वको कथन करते हैं । प्रभाव भेदादिकोंसे रोगसमूह दश भेदमें विभक्त हैं। रोगोंके बहुस्वकी संख्या हो भी सकती है और सूक्ष्म अंशांश विकल्पना द्वारा इनकी संख्या नहीं होसकती । जैसे- अष्टादरीयाध्यायमें रोगोंकी संख्या और - महारोगाध्यायमें असंख्पता वर्णन की है संपूर्ण रोगसमूह पीडा, वर्ण, कारण आदि भेदों से कल्पना किये जानेपर असंख्यताको प्राप्त होते हैं ॥ २ ॥
नचसंख्येयायेषु भेदप्रकृत्यन्तरीयेष्वविगीतिरित्यतोनदोषवती स्यादत्रकाचित्प्रतिज्ञानचाविगीतिरित्यतःस्याददोषवद्भत्ताहि भेद्यमन्यथाभिनत्त्यन्यथा पुरस्ताद्भिन्नं भेदप्रकृत्यन्तरेणभिन्दनभेदसंख्या विशेषमापादयत्यनेकधानच पूर्व भेदाग्रमुपहन्ति ॥३॥ संपूर्ण रोगों के एक ही समय संख्येय और असंख्येय होने से कोई विरोध उत्पन्न
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(५५९) नहीं हो सकता क्योंकि जिस प्रकार रोग संख्यय और असंख्येय होते हैं उनका वर्णन प्रथम करचुके हैं इसलिये इसस्थानमें कोई विरोधी दोष उत्पन्न नहीं होसकता। भेद करनेवाला अपनी इच्छासे एक वस्तुको एक प्रकारका कथन कर दूसरे समय उसी वस्तुके अनेक भेद दिखा सकता है। और 'प्रकारान्तरसे भेद संख्याको अनेक प्रकारकी करते हुए प्रथम कथन किये हुए एक प्रकारके भेदमें किसी प्रकारकी आपत्ति नहीं होने देता ॥३॥ , समानायामपिखलुभेदप्रकृतोपकतानुपयोगान्तरमपेक्ष्यसन्ति ।
ह्यर्थान्तराणिसमानशब्दाभिहितानि । समानोहिरोगशब्दो- . दोषेषुव्याधिषुचवर्त्तते । दोषाअपिरोगशब्दमातङ्कशब्दयक्ष्मशब्दंदोषप्रतिशब्दविकारशब्दञ्चलभन्ते । तत्रदोषेषुचैवव्याधिषुचशेगशब्दःसमानःशेषेषुतुविशेषवान् ॥ ४॥
भेदके कारणके समान होनेपर भी कहीं कहीं प्रयोगान्तरकी अपेक्षा करते हुए समान शब्दसे कहे :हुए शब्दोंके अथ अलग २ ग्रहण किये जाते हैं । जैसे-रोग शब्दसे दोष और व्याधि इन दोनोंकाही वोध होता है अर्थात् रोगशब्द. दोषों और व्याधियोंमें सामान्यरूपसे व्यापक है। दोषभी रोगशब्द, आतंकशब्द, यक्ष्मशब्द, दोष प्रकृति शब्द एवम् विकार शब्दसे ग्रहण किये जातेहैं। इनमें रोगशब्द दोषोंमें तथा व्याधियोंमें समान है और अन्य स्थलों में विशेष अर्थात् असमान होताहै ४
तत्रव्याधयोऽपरिसंख्येयाभवन्त्यतिबहुत्वादोषास्तुपरिसंख्येया "अनतिबहुत्वात्तस्माद्यथोचितविकाराउदाहरणार्थमनवशेषेणच .. : दोषाव्याख्यास्यन्ते ॥५॥.. . . .
इनमें व्याधियें “अपरिसंख्येय 'अर्थात् 'अगण्य होती हैं क्योंकि वह बहुत तथा अंशांश कल्पना द्वारा अत्यंत ही बहुत हैं परंतु दोष संख्यावान हैं क्योंकि यह बहुत : .. नहीं हैं । इसलिये उदाहरणके लिये विकारोंको तथा दोषोंको विस्तारपूर्वक वर्णन ____ करते हैं ॥६॥........ ....... .. . ..
:: ' दोषोंका वर्णन :- . . . . . . रजस्तमश्चमान सौदोषी,तयोर्विकाराःकामक्रोधलोभमोहा. मानमदशाकचित्तौद्धगभयहर्षादयः॥६॥ . . . . . .... • रजोगुण और तमोगुण मनके दोष हैं ।काम, क्रोध, लोभ,मोह, ईर्षा, अभिमान,
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(५६०) चरकसंहिता-मा० टी०॥ मद, शोक, चित्तका उद्वेग, भय और हर्ष आदिक इन मनके दोषोंके विकार हैं। अर्थात् मनके रोग हैं ॥ ६॥ वावपित्तश्लेष्माणस्तुशारीरादोषास्तेषामपिचविकाराज्वराती:
सारशोथशोषमेहकुष्ठादयइति ॥७॥ वात, पित्त और कफ यह शरीरमें रहनेवाले दोष हैं। ज्वर,अतिसार,शोथ,शोष, प्रमेह, कुष्ठ, आदिक उन दोषोंके विकार हैं ॥ ७ ॥
दोषाश्चकेवलाव्याख्याताः, विकारैकदेशश्च ॥८॥ यहांपर केवल दोषोंका कथन किया है और विकारोंके एकदशका कथन कियाहै ॥ ८॥
दोषोंका.त्रिविध कोप । तत्रतुखल्वेषांद्वयानामपिदोषाणांत्रिविधंप्रकोपणमसात्म्येन्द्रियार्थसंयोगःप्रज्ञापराधःपरिणामश्चेति । प्रकुपितास्तुप्रकोपणविशेषात् । द्रव्यविशेषाञ्चविकारविशेषानभिनिवर्तयन्ति । अपरिसंख्येयास्ते विकाराःपरस्परमनुवर्त्तमानाः कदाचिदनुबन्नीन्तकामादयोज्वरादयश्च। नियतस्त्वनुबन्धोरंजस्तमः सोः परस्परंनहरजस्कन्तमः ॥९॥ इन शारीरिक और मानसिक दाना प्रकारके दोषोंके ही कुपित करनेवाले तीन प्रकारके कारण होतेहैं । जैसे असात्म्य विषयोंका सेवन, प्रज्ञापराध और परिणाम (समय ) इनमें पृथक् २ प्रकोपके कारणोंसे तथा द्रव्याविशेषके वलसे कुपित हुए दोष अनेक प्रकारके विकारोंको उत्पन्न करतेहैं ।वह विकार असंख्य होतेहैं। कामादिक मानसिक विकार, ज्वरादिक शारीरिक विकार कभी२ मापसमें एक दूसरे आश्रयीभूत होजाते हैं अर्थात् एक दूसरेके सहायक होजातेहैं या आपसमें मिलजावई क्योंकि रजोगुण और तमोगुणका आपसमें परस्पर अनुबंध है।तमोगुण रजोबुणके. विना रह नहीं सकता ॥ ९ ॥
प्रायःशरिदोषाणामेकाधिष्ठीयमानानांसंन्निपातःसंसगोवा. समानगुणत्वाद्दोषाहिदूषणैःसमानाः ॥१०॥ शारीरिक दोषोंका एक ही अधिष्ठान ( रहनेका स्थान) होता है अर्थात् पान, पिच और कफका अधिष्ठान शरीर है। इसलिये प्रायः उनका संसर्ग और साब: पात होजाताहै। क्योंकि उष्ण, शीत आदि तथा रूक्ष, निग्ध आदि-दोषोंके पृथ
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(९६१) पृथंक गुण होनेपर भी दूषण करनेवाला गुण तीनों दोषोंमें समान होनेसे.एकदाप दूसरेको भी दूषित करलेताहै। अर्थात् दूषण स्वभाववाले होनेसे दोष एक दूसरक सहायक होजातेहैं और दूषण स्वभावसे समानगुणवाले होजातहे ॥ १०॥
अनुवन्ध्यानुबन्ध भेद । . . . ... तत्रानुबन्ध्यानुबन्धकृतोविशेषः स्वतन्त्रोव्यक्तलिङ्गोयथोक्त
समुत्थानप्रशमोभवत्यनुबन्ध्यस्तद्विपरीतलक्षणोऽनुबंधः ॥११॥ उनमें अनुवन्ध्य और अनुवन्धकी विशेषता यह है कि अनुबन्ध्य स्वतन्त्र और प्रकटलक्षणवाला होताहै और उसका प्रकट होना तथा शमन होना भी यथोक्त प्रकारसे होताहै अर्थात् स्वतन्त्र होताहै। और अनुबन्ध परतन्त्र तथा छिपेहुए लक्षण वाला होताहै । इसके समुत्थान और प्रशमन भी- पूर्वोक्त क्रमसे नहीं होते । तात्पर्य यह हुआ कि दूषित हुए वायुने अपने साथ, पित्तको भी दूषित करलिया । इस जगह वायु अनुवन्ध्य और पित्त अनुवन्ध होताहै । इसलिये वायु स्वतन्त्र और प्रकटलक्षणवाला तथा अपने कारणासे कुपित हुआ और वातनाशक द्रव्योंद्वारा शांतहोनेवाला होताहै । पित्त अनुबन्ध होनेसे परतंत्रादि गुणवाला जानना ॥११॥
सन्निपातादि दोष भेद । अनुबंध्यानुबंधलक्षणसमन्वितास्तत्रयदिदोषाभवंतितंत्रिकंसन्निपातमाचक्षतेद्वयंवासंसर्गम् । अनुवन्ध्यानुबन्धविशेषइतस्तुबहुविधोदोषभेदः। एवमेषसंज्ञाप्रकतोभिषजांदोषेषु चव्याधिषुचनानाप्रकृतिविशेषाद्वयूहः ॥१२॥ . .
यदि किसी ज्वरमें वात, पित्त, कफ अनुवन्ध्य तथा स्वतंत्र और प्रगट लक्षण वाले हों तो उन तीनों दोषोंके मिलापको सन्निपात कहा जाताहै यदि दो दोष स्वा तन्त्र होकर और प्रगट लक्षणोंद्वारा मिले हुएहों तो उनको संसर्ग कहतेहैं । इस कार अनुबन्ध्य और अनुबंध विषयके किये हुए रोगों के बहुत प्रकारके भेद होजातेहैं. इस तरह वैद्योंके कथन किये हुए संज्ञा और प्रकृतिके भेदसे दोषोंमें तथा व्याधि, योंमें अनेक प्रकारके भेद होजाते हैं ॥ १२ ॥
. अमिभेद । अग्निषुतुशरीरेषुचतुर्विधोविशेषोबलभेदेन। तद्यथा-तीक्ष्णोऽ१ दोपभेदविकारभेदमाभिधाय शरीरस्थिते. प्रधानकारणस्याग्ने दमाह अभिनित्यादि ।शरीरेष्विति सामान्यवचनेन सर्वशरीरगताननीन् ग्राहयति । विवरणे तु जठरामिरेव . : तीक्ष्णः सर्वापचारसह इत्यादिना यचातुर्विध्यमुक्त, तजठराग्मितीक्ष्णतादिमूलत्वगग्न्यादितीक्ष्णत्वादेरेवति शेयम् । वचन हि "तन्मूलास्ते हिं तपदिक्षयवृद्धिक्षयात्मका:" इति । तीक्ष्णःसर्वापचारसहत्वेन प्रधानम् ।
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(५६२) चरकसंहिता-भा० टी। मन्दः समाविषमइति।तत्रतीक्ष्णोऽग्निःसर्वापचारसहस्तद्विपरीतलक्षणोमन्दः । समस्तुखलुअपचारतः विकृतिमापद्यते अनपचारतः प्रकृताववतिष्ठते । समलक्षणविपरीतलक्ष- . णस्तुविषमइत्येतेचतुर्विधाअग्नयश्चतुर्विधानामेवपुरुषाणाम् ॥१३॥ शारीरिक अग्निके बल भेदसे चार प्रकार होतेहैं । जैसे-तीक्ष्णाग्नि, मंदाग्नि, समाग्नि और विषमानि । इनमें तीक्ष्णानि सब प्रकारके कुपथ्योंको सहन करसकती है। और मंदाग्नि तीक्ष्णाग्निसे विपरीत लक्षणवाली होतीहै अर्थात् यह किंचित कुपथ्यको भी सहन नहीं कर सकती ।जो आग्न कुपथ्यादि अपचार करनेसे विकृत होजाय और कुपथ्य न करनेसे अपनी ठीक अवस्थामें रहे उसको समाग्नि कहते हैं। एवम् समाग्निसे विपरीत लक्षणवालीको विषमाग्नि कहतेहैं । इस प्रकार चार प्रकारके पुरुषोंकी चार प्रकारकी अग्नि होतीहैं ॥ १३ ॥
दोषोंकी साम्यावस्था या प्रकृति । तत्रसमवातपित्तश्लेष्मणांप्रकृतिस्थानांसमाभवन्तिअग्नयः । वातलानान्तुवाताभिस्तेऽग्न्यधिष्ठानेविषमाभवन्तिअशयः। पित्तलानान्तुपित्ताभिस्तेऽन्यधिष्ठालेतीक्ष्णासवन्तिअग्नयःम्ले.
मलानान्तुश्लेष्माभिभूतेह्यग्न्यधिष्ठानेमन्ताभवन्तिअग्नयः । तत्रकेचिदाहुर्नसमवातपित्तश्लेष्माणोजन्तवःसन्तिविषमाहारोपयोगित्वान्मनुष्याणाम् तस्माचकेचिद्वातप्रकृतयः केचित् पित्तप्रकृतयः केचित्पुनःश्लेष्मप्रकृतयोभवन्तीति तच्चानुपपनकस्मात् कारणात्समवातपित्तश्लेष्माण रोगमिच्छन्तिभिषजः प्रकृतिश्चारोग्यम्, आरोग्यार्थाचभेषजप्रवृत्तिःसाचेष्टारूपा, तस्माद्भवन्तिसमवातपित्तश्लेष्माणः । नतुखलसन्ति वातप्रकृतयःपित्तप्रकृतयः श्लेष्मप्रकृतयोवातस्यतस्यकिलदो'षस्यहिअधिकभावात्सासादोषप्रकतिरुच्यतेमनुष्याणाम् ॥ १४॥
इनमें वात, पित्त कफकी प्रकृतिस्थ साम्यावस्था रहनेसे अर्थात् अपनेरस्वभा. : १ समवातपित्तश्लेष्मणामित्युक्तेऽपि प्रकृतिस्थानाम्' इति पदं वृद्धानां समवातपित्तश्लेष्मणा प्रति
षधार्थम् ।
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विमानस्थान-अ०६. बमें स्थित रहनेसे अग्नि सम रहतीहै । वातप्रधान मनुष्योंके वायुद्वारा अग्निस्थान व्याप्त होनेसे अग्नि विषम होती है। यहांपर कोई कहते हैं कि वात, पित्त, कफ किसी मनुष्पके शरीरमें साम्यावस्थामें नहीं रहते क्योंकि सब मनुष्योंका आहार एक प्रकारका और वात, पित्त, कफको समान रखनेवाला नहीं होता। इसीलिये कोई मनुष्य वातप्रकृति कोई पित्तप्रकृति और कोई कफप्रकृतिवाले होतेहैं । सो यह कथन ठीक नहीं है क्योंकि जिसके शरीरमें वात,पित्त और कफ साम्यावस्थामें हैं अर्थात् अपने २ परिमाणमें स्थित हैं उन्हीं मनुष्योंको वैध आरोग्य अर्थात् निरोगी कहतेहैं । आरोग्यताही मनुष्योंकी प्रकृति है। आरोग्यताके लियेही औषध आदिकोंका प्रयोग किया जाता है इसीलिये वात, पित्त कफकी साम्यावस्थासाले . मनुष्य ही आरोग्य कहे जाते हैं और उनको वातप्रकृति पित्तप्रकृति अथवा कफप्रकृति नहीं कहा जाता । जिस जिस दोषकी अधिकता जिस मनुष्यों होती है उसको उसी दोषकी प्रकृतिवाला कहा जायगा ॥ १४ ॥
नचविरुतेषुदोषेषुप्रकृतिस्थत्वमुपपद्यतेतस्मान्नैताः प्ररुतयः सन्तिसन्तिखलुवातला:पित्तलाःश्लेष्मलाश्चाप्रकृतिस्थास्तु तेज्ञेयाः ॥१५॥
भव कहतेहैं कि यदि किसी मनुष्यके शरीर में वायु अधिक हो तो उसको वातप्रकृति नहीं कहना चाहिये क्योंकि प्रकृतिनाम अपने ठीक स्वभावमें स्थित रहनेका है । वायुकी अधिकता होनेसे वायुकी विकृति माननी चाहिये । इसलिये विकृत हुए दोषोंको प्रकृति नहीं कहना चाहिये । सो वातल, पित्तल, श्लेष्मल अर्थात् वातप्रधान कफप्रधान और पित्तप्रधान मनुष्य प्रकृतिस्थ नहीं होते ॥ १५ ॥
चार प्रकारके अन्नप्रणिधान । तेषान्तुखलुचतुर्विधानांपुरुषाणांचत्वार्यन्नप्रणिधानानिश्रेयः . स्कराणि । तत्रसमसर्वधातूनांसाकारसममधिकदोषाणान्तु त्रयाणांयथास्वदोषाधिक्यमभिसमीक्ष्यदोषप्रतिकूलयोगीन त्रीणिअन्नप्रणिधानानिश्रेयस्कराणियावःसमीभावात्,ससे तुसममेवतुकार्यमेवंचष्टाभेषजमयोगाश्चापरे, तद्विस्तरेणानु- - व्याख्यास्यन्ते । त्रयस्तुपुरुषाभवन्त्यातुरास्तेअनातुरास्तन्त्रान्तरीयाणांभिषजाम् । तयथा-वातलः श्लेष्मलः पित्तल इति ॥ १६॥
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(५६४) चरकसंहिता-भा० टी।
उन चार प्रकारके पुरुषों के लिये अग्निके अनुसार चार प्रकारके ही आहार हितकारक होते हैं उनमें जिस मनुष्यके शरीरकी सव धातुयें साम्यावस्थामें हों तथा तीनों दोष पूर्णरूपसे बढे हुए हों उनमें तीनों दोषोंके लक्षणों की अधिकताकों देखकर दोषोंके प्रतिकूल अर्थके करनेवाले अर्थात् दोषोंको साम्यावस्थामें लगानेवाले औषध अन्नपानादिकोंको दे अथवायों कहिये किजिस मनुष्यके शरीर में वातादि कोई दोष बढा हुआ हो उसको साम्पावस्यामें करनेवाले अन्नपानादि देवे जब उस मनुष्यकी अग्नि दोषोंकी साम्यावस्था होनेसे समअवस्थामें आजाय तव उसको त्रिविध आहारोंकोसमरीतिपर उपयोग कराव।जिस प्रकार अन्नपान तथा अन्यान्य क्रिया और औषधादिक प्रयोग दोषोंको तथा अग्निको साम्यावस्थामें करनेके लिये किये जाने चाहिये उनका विस्तारपूर्वक आगे वर्णन करते हैं। तीन प्रकारके पुरुष रोगी होते हैं परन्तु अन्य शास्त्रोंके माननेवाले वैद्य उनको रोगी नहीं मानते । वह तीन प्रकारके पुरुष यह हैं । जैसे-वातप्रधान, पित्तमधान और कफप्रधान ॥ १६॥
तेषांविशेषविज्ञानवातलस्यवातनिमित्ताः पित्तलस्थपित्तनिमित्ताः श्लेष्मलस्यश्लेष्मनिमित्ताव्याधयः प्रायेणवलवन्तश्च ॥१७॥ उनका विशेष विज्ञान इस प्रकार है कि वातप्रधान मनुष्यको वातके रोग आधिक होतेहैं । पित्तप्रधान मनुष्यको पित्तके रोग अधिक होते हैं।तथा कफप्रधान मनुष्यको कफके रोग प्रायः आधिक होतेहैं ॥ १७ ॥
वातप्रकृति के रोग। तत्रवातलस्यत्रकोपणोक्तान्यासेवमानस्याक्षप्रंवातःप्रकोपमा. पद्यतेनतथेतरौ ॥१८॥ इनमें वातप्रधान मनुष्य शरीरमें वातकारक पदार्थोंको खानेसे वायु शीघ्र कोपको प्राप्त होता है । इस प्रकार पित्तकारक और कफकारक पदार्थीको आधिकखानेसे वातप्रधान मनुष्यके शरीरमें पित्त और कफका कोप नहीं होता ॥१८॥ सतस्यप्रकोपमापन्नोयथोक्तैर्विकारैः शरीरमुपतपतिबलवर्णसुखायुषामुपघाताय ॥ १९॥ वातप्रधान मनुष्यके शरीरमें वायुका कोप होनेसे-चायुके रोग उत्पन्न होकर शरीरको दुःखित कर देते हैं तथा बल, वर्ण, सुख और आयुको भी नष्ट कर डालते है ॥ १९॥
१ नततराविति। सत्यपि हेतुसेवयेत्यर्थः अन्यथा वात्प्रकोपणसेवया पित्ताहमणोद्धिरेव नास्ति। यद्यपि विनासनादयो वातप्रकोपकरास्तथापि वातननितोन्मादविनाशकत्वेन चोकाः ।
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नाशक स्नेह और दानिक वातनाशक दया, विस्मापन, विस्मारवेध
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(५६५) वायुके जीतनेका उपाय। तस्यावजयनम्-स्नेहस्वेदौविधियुक्तौमदनिचसंशोधनानिस्नेहोष्णमधुराम्ललवणयुक्तानितद्वदभ्यवहार्याण्युपनाहनोपवेष्टनोन्मर्दनपरिषेकावगाहनसंवाहनावपीडनवित्रासनविस्मापनविस्मारणानिसुरासवविधानस्नेहाश्चअनेकयोनयोदीपनीयपाचनीयावातहरविरेचनीयोपहिताःशतपाकाःसहस्रपाकाःसर्वशः प्रयोगार्थाबस्तयोबस्तिनियमःसुखशीलताचोत ॥२०॥ उस मनुष्यके शरीरमें-वायुको जीतनेवाली स्नेहन और स्वेदन क्रिया विधिपूर्वक करे । एवम् चिकने, गरम, मधुर, खट्टे लवणयुक्त पदार्थों द्वारा मृदु संशोधन करे। तथा चिकने, गर्म आदि आहार करावे और वातनाशक लेप,बंधन, मर्दन,परिषेक, अवगाहन, संवाहन और पीडन, वित्रासन,विस्मापन,विस्मारण, मद्य और आसव मादिकोंका तथा अनेक वातनाशक द्रव्योंका उपयोग करना चाहिये। एवम् वातनाशक स्नेह और दीपन तथा पाचन एवम् वायुके हरनेवाले रेचक द्रव्योंसे शतपाकी तथा सहस्रपाकी घृतों और तैलोंका सेवन करावे । अथवा वातनाशक द्रव्यों द्वारा सौवार अथवा सहनवार पकाये हुए घृत तथा तैलों द्वारा बस्तिकर्म या अन्य प्रकारसे सुखदायक प्रयोग कर वायुको जीतना चाहिये ॥ २० ॥
पित्तका प्रकोप और जीतनेका क्रम । पित्तलस्यापिपित्तप्रकोपणोक्तान्यासेवमानस्यक्षिपित्तंप्रकोपमापद्यते, तथानेतरौ॥ २१॥ पित्तप्रधान मनुष्योंके शरीरमें पित्तकारक पदार्थोके खानेसे पित्तका शीघ्र कोप होजाताहै तथा वात और कफका कोप इसप्रकार नहीं होता ॥ २१ ॥
तदस्यप्रकोपमापन्नंयथोक्तैर्विकारैःशरीरमुपतपतिबलवर्णसुखायुषामुपघाताय ॥ २२॥ सब पित्तप्रधान मनुष्यके शरीरमें कोपको प्राप्त हुआ पिच शरीरको पित्तके विकारोंसे तपायमान करता है तथा बल, वर्ण, सुख और आयुको भी नष्ट कर डालता है ॥ २२ ॥
तस्यावजयनम्-सर्पिष्पानसर्पिषाचस्नेहनमधश्चदोषहरणमधुरतिसंकषायशीतानाञ्चोषधानामभ्यवहार्याणामुपयोगोमृदुमधु
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अपवनमालीयमृणालभिप्रोक्षणद्भिश्चर
(५६६) चरकसंहिता-भा० टी०। रसुरभिशातहृद्यानांगन्धानाञ्चोपसेवामुक्तामाणिहारावलीनाञ्चपवनशिशिरवारिसंस्थितानांधारणमुरसाक्षणेक्षणेस्त्रश्चन्दनप्रियङ्गुकालीयमृणालशीतवातवारिभिरुत्पलकुमुदकोकनदीगन्धिकपद्मानुगतैश्चवारभिरभिप्रोक्षणश्रुतिसुखमृदुमधुरमनोऽ. नुगानाञ्चगीतवादित्राणांश्रवणञ्चाभ्युदयानांसुहृद्भिश्चसंयोगःसं-- योगश्चइष्टाभिःस्त्रीभिःशीतोपहितांशुकग्धारिणीभिर्निशाकरांशुशीतप्रवातहयेवासःशैलान्तरपुलिनशिशिरसदनवसनव्यजनपवनानांसेवारल्याणाञ्चोपवनानांसुखशिशिरसुरभिमारुतोपवातानामुपलेवनसेवनञ्चनलिनोत्पलपद्मकुसुदसागन्धिकपुण्डरीकशतपत्रहस्तानांसोल्यानाञ्चसर्वभावानामिति ॥२३॥ उस पित्तको जीतनेके लिये पित्तनाशक घृतका पीना तथा पित्तनाशक घृतोद्वारा स्नेहन करना, विरेचन कराना एवम् मधुर, तिक्त, कषाय, शीतल औषधियोंका सेवन करना तथा मृदु, मधुर, सुगंधित, शीतल हृदयको प्रिय एसे आहारोंका सवन करना सुगांधका लेना तयाचंदन आदि शीतल गंधोका लगाना,मोती और मणियोंकी माला पहिनना, शीतल पवन तथा शीतल जलके छींटे छातीपर लेंना, क्षणक्षणमें चंदन, अगर, प्रियंगु,कमलकी डण्डी, शीतल और सुगंधित कमल कुमोदिनी, कोकनद, कल्हार आदिक कमलोंको शीतल जल और पवनसे ठण्डे कर उनसे शीतल जल अपने शरीरपर छिडकना, कानोंको सुखदायक मृदु मधुर, मनोहर गीत और वाजोंका सुनना, उत्तम शब्दोंको सुनना अपने प्यारे मित्रोंसे मिलना शीतल सुगन्धित पुष्पमाला आदि धारण कियेहुए सुशोभित स्त्रियोंसे सहवास करना शीतल वायुयुक्त चंद्रमाकी चांदनीको महलकी छतपर लेटकर सेवन करना, पहाडमें बहनेवाली नदियों के किनारे लथा ठण्डे मकानोंमें रहना शीतल वस्त्र धारण करना शीतल पखेकी पवन लेना, रमणीय सुगंधित शीतल बागों में शीतल सुगंधित पवनका सेवन करना, नलिनी, उत्पल, पद्म, कुसुद, कलार पुण्डरीक, शतपत्र आदि पुष्पोंको धारण किये सब प्रकारके सौम्यभावोंका सेवन करना पित्तके कोपको शान्त करता है ॥ २३ ॥
कफका प्रकोप और जीतनेका क्रम । श्लेष्मलस्थापिश्लेष्मप्रकोपणोक्तान्यासेवमानस्यक्षिप्रश्लेष्म
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(५६७) प्रकोपमापद्यते, नतथेतरौदोषौ ॥ २४ ॥ तदस्यप्रकोपमापन्नों यथोक्तैर्विकारैःशरीरमुपतपतिबलवर्णसुखायुषामुपघाताय॥२५॥ कफप्रधान मनुष्योंके शरीरमें-कफकोपकारक पदार्थोंके सेवनसे कफ शीघ्र प्रकोपको प्राप्त होजाताहै । उस प्रकार वात, पित्त नहीं होते। फिर इसके शरीरमें यह कोपको प्राप्त हुआ कफ अपने विकारों द्वारा शरीरको कष्ट देता है तथा बल, वर्ण सुख और आयुको भी नष्ट कर डालता है ।। २४ ॥ २५ ॥
तस्यावजयनम्-विधियुक्तानितक्षिणोष्णानिसंशोधनानिरूक्षप्रायाने णिचाभ्यवहार्याणिकटुतिक्तकषायोपहितानितथैवधावनलंघनप्लवनपरिसरणजागरणानियुद्धव्यवायव्यायामोन्मर्दनस्नानोत्सादनानिविशेषतस्तीक्ष्णानांदीर्घकालस्थितानांमद्यानामुपयोंगःसर्वशश्चोपवासस्तथोष्णवासासधूमपानःसुखप्रतिषेधश्चसुखार्थमेवेति ॥ २६ ॥ उस कफके जीतने के लिये अनेक प्रकारके विधिपूर्वक तीक्ष्ण और उष्ण संशोधनाशो करे और प्रायः रूक्ष पदार्थोंका तथा कटु, तिक्त, कषाय रसवाले द्रव्योंका सेवन करे । एवम् भागना, लंघन करना, उछलना, कूदना, परिसर्पण करना,जागना तथा कुश्ती, मैथुन, व्यायाम, मर्दन,स्नान और उत्सादन आदिका उपयोग करना विशेषतासे तीक्ष्ण और पुराने मद्यका सेवन करना, सब प्रकारसे उपवास करना गर्म स्थानों में रहना, गर्म वस्त्र पहनना, धूम्रपान करना, आलस्यके नष्ट करनेवाले. पदार्थोंका उपयोग करना चाहिये इनके कानेसे कफके विकार नष्ट होतेहैं ।। २६ ५.
अध्यायका उपसंहार ! भवतिचात्र । सर्वरोगविशेषज्ञः सर्वकाविशेषवित् ।
सर्वश्रेषजतत्त्वज्ञोराज्ञःप्राणपतिसंवेत् ॥ २७ ॥ यहांपर कहतेहैं कि,संपूर्ण रोगविशेपको जाननेवाला तथा संपूर्ण कार्य विशेषोंकों समझनेवाला एवम् संपूर्ण औषधियोंके तत्वको जाननेवाला वैद्य राजाओंका प्राणपति होताहै ॥ २७ ॥
१ श्लेष्माऽवजयनार्थ-रूक्षस्यव हितत्वेन रूक्षाणाति वक्तव्ये यक्षप्रायाणीति निगदितं तदत्यर्थरुक्षान्नस्य वातानुगुणत्वेन धात्वपोपकत्वेन चासेव्यत्वं दर्शयति ।
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(५६८)
चरकसंहिता-भा० टी०। अध्यायका संक्षेप।
तत्र श्लोकाः। . प्रकृत्यन्तरभेदेनरोगानीकविकल्पनम् । परस्पराविरोधश्चसा
मान्यरोगदोषयोः॥२८॥ दोषसंख्याविकाराणामेकदोषप्रकोपनम्। जरणप्रतिचिन्ताचकायाग्नेधुंक्षणानिच ॥ २९॥ नरागांवातलादीनांप्रतिस्थापनानिच । रोगानीकेविमानेऽस्मिन् व्याहृतानिमहर्षिणा ॥३०॥ इति श्रीचरकसंहितायां विमानखण्डे रोगानीकं विमानम् । अध्यायके उपसंहारमें यहांपर श्लोक हैं । इस रोगानीक विमाननामक अध्याअमें प्रकृतिके भेद, रोगसमूहोंके विभाग, रोगोंका परस्पर विरोध,रोगसामान्यता तथा दोषसामान्यता एवम् दोषों और विकारोंकी संख्या एकर दोषका प्रकोपन, भोजनके पचनेकी अवस्था, जठरागिकी चैतन्यता, वातप्रधान आदि मनुष्योंका अकृतिस्थ करना यह सब महर्षि आत्रेयजीने कथन कियाहै ॥ २८ ॥ २९ ॥ ३०॥ इति श्रीमहायुचरक० वि० स्था० भाषाटीकायां रोगानीकं नाम षष्ठोऽध्यायः ॥६॥
सप्तमोऽध्यायः।
-OCACHISINGअथातो व्याधितरूपीयंविमानं व्याख्यास्याम इति हस्माहभगवानात्रेयः॥
अब हम व्याधितरूपीय विमानकी व्याख्या करते हैं इस प्रकार भगवान् आत्रेयजी कहनेलगे।
रोगीके भेद । द्वापुरुषोव्याधितरूपाभवतः, तद्यथा--गुरुव्याधितएकःसत्त्वबलशरीरसम्पदुपेतत्वाल्लघुव्याधितइवहश्यतोलघुव्याधितोऽपरःसत्त्वादीनामधमत्वादरु धितइवहश्यते ॥१॥
१ व्याधि प्रतिपाद्य व्याधितस्य भेद चिकित्सोपयोगितया प्रतिपादयितुं तत्प्रसंगाच कृमीन् प्रतिपादयितुं व्याधितरूपीयोऽभिधीयते ।
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विमानस्थान - अ० ७.
(GES)
दो प्रकार के पुरुष व्याधितरूप अर्थात् रोगी देखनेमें आते हैं । उनमें एक तो इस प्रकारके होते हैं कि अत्यन्त व्याधियुक्त होनेपर भी सत्व, बल और शारीरिक सम्पत्तिके सामर्थ्ययुक्त होनेसे थोडी व्याधिवाले दिखाई देते हैं। दूसरे इस प्रकार के होते हैं कि जो थोडी व्याधियुक्त होनेपर भी सत्व, बलादिकों की हीनतासे भारी व्याधिवाले दिखाई देते हैं ॥ १ ॥
अज्ञानियोंका भ्रम |
तयोरकुशलाः केवलं चक्षुषैवरूपं दृष्ट्राव्यवस्यन्तोव्याधिगुरुलाघवेविप्रतिपद्यन्ते। नहिज्ञानावयवेन कृत्स्नेज्ञेयेज्ञानमुत्पद्यते ॥२॥ इन दोनों प्रकारके पुरुषोंकी चिकित्सा करते समय अनभिज्ञ वैद्य केवल नेत्रोंसे रोगीकी आकृतिको देखकर ही व्याधिके गौरव और लाघवका निश्चय मान लेते हैं । पर वह रोग के यथार्थ ज्ञानको सम्पूर्ण रूपसे नहीं जान सकते ॥ २ ॥ विप्रतिपन्नास्तुखलुरोगज्ञानेउपक्रमयुक्तिज्ञानेचअपिविप्रतिप
द्यन्ततियदागुरुव्याधितंलघुव्याधित रूपमासादयन्तितदात
मल्पदोषमत्वासंशोधनकालेऽस्मैमृदुसंशोधनंप्रयच्छन्ताभूयए : वास्य दोषमदीरयन्ति । यदातु लघुव्याधितं गुरुव्याधितरूपमासादयन्ति महादोषंमत्वा संशोधनकालेऽस्मैतीक्ष्णसंशोधनंप्रयच्छन्तोदोषानतिनिर्हृत्यशरीरमस्याक्षिण्वन्ति ॥ ३ ॥
रोगका यथार्थ ज्ञान न होनेसे उस रोगकी चिकित्सा भी मूर्खतासे करने लगते हैं । जब वह किसी भारी व्याधिवाले मनुष्य के सत्व, वल शरीर आदिको देखकर व्याधिको लघु मान लेते हैं तव रोगीको अल्प दोषवाला समझकर बहुत नर्मशोधन आदि करते हैं । ऐसा करनेसे दोषोंको उलटा उत्तेजित कर देते हैं । जब यह अनभिज्ञ किसी लघु व्याधिवाले मनुष्यको उसका रंगढंग देखकर भारी व्याधिवाला मान लेते हैं तो उसको तीक्ष्ण संशोधनादि प्रयोग करते हैं जिससे दोषोंको अत्यन्त हरण करके शरीरको क्षीण कर देते हैं ॥ ३ ॥
एवमवयवेनज्ञानस्य कृत्स्नेज्ञेयेज्ञानमितिमन्यमानाः स्खलन्ति, विदितवेदितव्यास्तुाभषजः सर्वसर्वथा यथासम्भवपरीक्ष्यंपरीक्ष्याध्यवस्यन्तोनक्वचनविप्रतिपद्यन्ते, यथेष्टमर्थमभिर्निर्वत्तयन्तिचोति ॥ ४ ॥
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( ५७० )
चरकसंहिता - भा० टी० ।
केवल दृष्टिमात्रसह। हमने सम्पूर्ण रोगकी यथार्थताको समझ लिया है ऐसा माननेवाले मूर्ख वैद्य चिकित्सा के मार्ग से पतित होजाते हैं । सुज्ञ वैद्य तो ज्ञातव्य विष यको यथोचित रीतिपर जानकर संपूर्ण भागों में सर्वथा उचित रीतिपर परीक्षा करके व्याधिका यथार्थ निश्चय कर लेते हैं । तब उचित रीतिसे चिकित्सा करने में प्रवृत्त होते हैं । इसी प्रकार चिकित्सा करते हुए किसी स्थान में भी विफल नहीं होते अर्थात् अपने कार्य में कहीं भी निष्फलताको प्राप्त नहीं होते किन्तु अपने अभीष्ट कार्यको साधन कर लेते हैं ॥ ४ ॥
तत्रश्लोकाः । सत्त्वादीनांविकल्पेनव्याधितंरूपमातुरे । दृष्ट्वाविप्रतिपद्यन्ते बालाव्याधिबलावले ॥ ५ ॥ तेभेषजमयोगेन कुर्वन्त्यज्ञानमोहिताः । व्याधितानांविनाशाय केशाय महतेऽपिवा ॥ ६ ॥
यहांपर श्लोक हैं- जो मूर्ख वैद्य सत्वादिकोंके भेदसे ही रोग के रूपको देखकर व्याधिका बलाबल समझ लिया मान लेते हैं और उसीप्रकार चिकित्सा करने लगजाते हैं वह अज्ञानसे मोहित हुए वैद्य औषधियोंके प्रयोगद्वारा रोगी मनुष्योंकों महान् कष्ट देते हैं अथवा मृत्युको प्राप्त कर देते हैं ॥ ५ ॥ ६ ॥
प्रज्ञास्तु सर्वमाज्ञाय पररीक्ष्यमिह सर्वथा । नस्खलन्तिप्रयोगेषु भेषजानां कदाचन ॥ ७ ॥
बुद्धिमान वैद्य तो संपूर्ण विषयोंको जानकर तथा सर्वथा संपूर्णरूपले परीक्षाकरके तदनन्तर औषधियोंका यथोचितरूपसे प्रयोग करते हैं इसीलिये कभी भी चिकित्साक्रम में धोखा नहीं खाते ॥ ७ ॥
इतिव्याधितरूपाधिकारेश्रुत्वाव्याधितरूपसंख्याय सम्भवण्यावितरूप हेतु विप्रतिपत्तोच कारणंसापवादंसम्प्रतिपत्तिकारणञ्चानपवादं निशम्य भगवन्तमात्रेयमन्निवेशोऽतः परं सर्वक्रिमीणांपुरुषसंश्रयाणां समुत्थानस्थान संस्थानवर्णनामप्रभावचिकित्सितविशेषान्पप्रच्छोपसंगृह्यपादावथास्मैप्रोवाच भगवानात्रेयः। इहखलुअग्निवेश!विंशतिविधाः क्रिमयः पूर्वमुक्तानानाविधेननविभागेनान्यत्रसहजेभ्यः ॥ ८ ॥
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विमानस्थान-अ०७.
(५७१) इसप्रकार व्याधितरूपीय अधिकारमें व्याधिके दो प्रकारके रूपोंकी संख्या, उनमें होनेवाला विषय, व्याधितरूपके कारण उनमें वैद्यके विप्रतिपन्न अर्थात् न समझनेके कारण साथही अपवादके स्वालित हानेके कारण एवम् योग्य वैद्यद्वारा निरपवाद चिकित्सा होनेके कारणोंको सुनकर आनिवेश आत्रेय भगवान्के दोनों चरणोंको पकडकर पूछनेलगे कि हे भगवन् शरीरमें होनेवाले सब प्रकारके कृमि योके निदान, स्थान, आकृति, वर्ण नाम और प्रभाव तथा चिकित्साका वर्णन कीजिये । यह सुनकर अग्निवेशके प्रति छात्रेय भगवान् कहनेलगे कि हे अग्निवेश! · सहज कृमियोंके सिवाय अन्य बीस प्रकारके कृमियोंका विभागपूर्वक अलग २ पहिले कथन करचुकेहैं ॥ ८ ॥
४ प्रकारके सहजकृाम। तपुनःप्रकतिमिसिंघमालाश्चतुर्विधास्तद्यथा-पुरीषजाःश्लेष्मजाःशोणितजामलजाश्चेति । तत्रमलोबाह्यश्चाभ्यन्तरश्च तत्र वाह्येमलेजातान्मलजान्संचमहे, तेषांसमुत्थानंजावर्जनं, स्थानकेशश्मश्रुलोलपक्ष्मवालासि,संस्थानमणवस्तिलाकतयोबहुपादावर्णस्तुकृष्णःशुक्लश्च नामानिचैषांयूकाःपिपीलिकाश्वेति:प्रभावकण्डूजननंकोठपिडकाभिनिर्वर्तनश्चचिकित्सितन्त्वेषामपकर्षणं मलोपघातोमलकराणाञ्चभावानामनुपलेवनमिति ॥९॥
उनमें सहज कृमि प्रकृतिभेदसे चार प्रकारके होतेहैं। जैसे पुरीषज, श्लेष्नज, .. शोणितज और मलज ।उनमें मल दो प्रकारका होताहै। एक बाह्यमल और द्वितीय
भीतरमिल उनमें वाहरके मलमें उत्पन्न होनेवाले कृमियोंका वर्णन करतेहैं वाहिरके कृषि उत्पन्न होनेका कारण शरीरको शुद्ध न रखना है अर्थात शरीरको शुद्ध न रखनसे बाह्यकृमि उत्पन्न होतेहैं। केश, इमच, लोम, पक्ष्म और वस्त्र यह वाह्य कृामयों के स्थान हैं । इनका आकार और स्वरूप बहुत छोटा और तिलके समान होताहै तथा वहुतसे पांवयुक्त और काले तथा मफेद वर्णके होतेहैं । नाम इनके यूका और पिपीलिका होतेहैं । यह कृमि खुजली, चकत्ते और फुसियोंको उत्पन्न करतेहैं यही इनका प्रभाव है । यल इनका कंघी आदिसे खींचकर निकालदेना, शारीरिक मैलको दूर करना मलके उत्पन्न करनेवाले उपयोगोंको नहीं करना यही इनकी चिकित्सा है आमलोग इनको जूआं और लीख कहते हैं ॥९॥
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(५७२)
चरकसहिता-भा० दी।
रुधिरजकृमि । शोणितजानान्तुकुष्ठैःसमानसमुत्थानं, स्थानरक्तवाहिन्योधमन्यः,संस्थानमणवोवृत्ताश्चापादाश्चसूक्ष्मत्वाच्चैकेभवन्त्यदृश्याः वर्णस्ताम्र:नामानिकेशादालोमादालोमद्वीपाःसौरसाऔदुम्वराजन्तुमातरइतिाप्रभावःकेशश्मश्रुनखलोमपक्ष्मापध्वंसोबणगतानाञ्चहर्षकण्डूतोदसंसर्पणानिअतिवृद्धानाञ्चत्वशिरानायुमांसतरुणास्थिभक्षणमिति, चिकित्सितमप्येषांकुष्ठैःसमानं तदुत्तरकालमुपदेक्ष्यामः ॥ १० ॥ शोणितज अर्थात रक्तसे उत्पन्न होनेवाले कृमियोंका समुत्थान कुष्ठके समान जानना रक्तवाहिनी धमनियों में इनके रहनेका स्थानहै।पांवरहित और बहुत बारीक होतेहैं । अत्यन्त सूक्ष्म होनेके कारण दिखाई नहीं देते । तांबेके समान उनका वर्ण होताहै । केशाद,लोमाद,लोमदीप,सौरस औदुम्बर और जन्तुमाता ये इनके नाम हैं।केश,मोंछ,दाढी,नाखून राम इनको नष्ट करना इनका प्रभाव है । जव यह किसी जख्म (व्रण) में पड जातेहैं तो उस व्रणमें हर्ष, खुजली, तोद और इधरउधर चलनेसे सरसराहट उत्पन्न होतेहैं । जब यह अत्यन्त बढजातहैं तो त्वचा, शिरा, -स्नायु, मांस और नरम हड्डियें इनको खातेहैं । चिकित्सा इनकी कुष्ठरोगके समान करनी चाहिये उसको आगे कथन भी करेंगे ॥ १०॥
कफजकृमि । श्लेष्मजाःक्षीरगुडतिलमत्स्यानूपमांसपिष्टान्नपरमान्नकुसुम्भ- . स्नेहाजीर्णपूतिक्किन्नसंकीर्णविरुद्धासात्म्यभोजनसमुत्थानाः। तेषामामाशयःस्थानं, प्रभावस्तुतेप्रवर्द्धमानास्तूर्द्धमधोवाविसर्पन्ति, उभयतोवा । संस्थानवर्णविशेषास्तुश्वेताःपृथुबध्नसंस्थानाः कचित्, कचिद्वृत्तपरिणाहाःगण्डूपदाकृतयश्च श्वेताः । · श्वेतास्ताम्रावभासाः, केचिदणवोदीर्घास्तन्त्वाकृतयःश्वेता।
तेषांत्रिंविधानांश्लेष्मानिमित्तानांक्रिमीणांनामानिअन्त्रादाः, .. उदरादाः,हृदयादाश्चरवो,दर्भपुष्पाः, सौगन्धिकाः, महागु..., दाश्चइति । प्रभावोहल्लासास्यसंस्रवणमरोचकाविपाकोज्व
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विमानस्थान - अ० ७..
(५७३)
रोमूर्च्छा जृम्भाक्षवथुरानाहोऽङ्गमर्दः छर्दिः काश्यपारुष्यमिति ११ ॥ इलेष्मज कफजनित कृमियोंके निदानको कहते हैं । दूध, गुड, तिल, मछली, अनूपदेशके जीवोंका मांस, पाठी अथवा मैदा आदि पिसेहुए अन्न खीर आदि उत्तम पकवान कुसुम्भका तेल, अजीर्ण करनेवाले सडेबुसे क्लेदकारक, संकीर्ण तथा बिरुद्ध पदार्थों के सेवन करनेसे एवम् असात्म्य पदार्थोंके सेवन करने से श्लेष्मज कृमि उत्पन्न होते हैं । आमाशय इनके रहनेका स्थान है। जब यह वढजः तेहैं तो ऊपर अथवा नीचे या दोनों तरफ फिरते हैं। वर्ण विशेष इनका सफेद होता है । आकारमें गोल, लम्बे होते हैं । कोई केंचुएके समान आकारवाले होते हैं। कोई श्वेत, कोई: ताम्रवर्णक, कोई बहुत छोटे, कोई बहुत लम्बे धागेके आकारके होते हैं उन तीन प्रकारके कफजनित कृमियोंके नाम यह होते हैं । जैसे अंत्राद, उदगद, हृदयाद. चुरू, दर्भपुष्प, सौगंधिक, महागुद । प्रभाव इनका जी मचलाना, मुखसे पानी बहना, अरुचि, अन्नका परिपाक न होना, ज्वर, मूर्च्छा, जंभाई, छींक, अफारा, अंगमर्द, छर्दि, शरीरका कृश होना एवम् शरीर अथवा कोष्ठका कठोर होना है । यह कफ जति कृमियोंका कार्य वर्णन कियागया ॥ ११ ॥ विष्ठाके कृमि ।
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पुरीषजास्तुल्यसमुत्थानाः श्लेष्मजैस्तेषां संस्थानं पक्वाशयः । प्रभावास्तुतेप्रवर्द्धमानास्त्वधोविसर्पन्ति । यस्यपुनरामाशयाभिमुखास्युस्तदनन्तरं तस्योद्वारनिःश्वासाः पुरीषगंधिनःस्युः । संस्थान वर्णविशेषास्तुसूक्ष्मवृत्तपरीणाहाः श्वेतादीघणांशुकस - ङ्काशाः केचित्केचित्पुनःस्थूलवृत्तपरीणाहाः श्यावनीलहरि - तपीताः। तेषांनामानिक केरुकामकरुका लेलिहाः शालूवकाः सौसुरादाश्चेति । प्रभावः पुरीषभेदः काश्यं पारुष्यं लोमहर्षा - भिंनिर्वर्त्तनञ्च । तत्रवास्यगुदमुखं परितुदन्तःकण्डूश्चोपजनयन्तो गुदमुखंपर्थ्यासते । सजातहर्षोगुदान्निष्क्रमणमतिवेलं करोति ॥ १२ ॥
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पुरोष अर्थात् मजनित कृमियोंका निदान कफके कृमियोंके सदृश जानना | इनके रहनेका स्थान पक्काशय (मलाशय ) है जब यह मलके कृमि अत्यन्त बढ जाते हैं तो नचिकी ओर गमन करते हैं तथा आमशयकी ओर ऊपरको गमन करने ते हैं इनके ऊपरको गमन करनेसे डकार और श्वासमें विष्ठा कीसी गन्ध आने लगती है।
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(५७४) चरकसंहिता-भा०टी०। इनका आकार और वर्ण विशेष सूक्ष्म, गोल तथा श्वेत लम्बा, ऊनके धागे समान होताहै । इनमें कोई बडे स्थूल, कोई वत्तीके समान आकारवाले तथा काले, पाल, नाले एवम् हर्णके होतेहैं, नाम इनके इस प्रकार हैं ककेरुक, मकेरुक, लेलिह्य, शालूवक और सौमुरादाप्रभाव अर्थात् कार्य इनका इस प्रकार है।मलका पतला होना, शरीरका कृश होना, कोष्टका कठोर होना और रोमहर्ष होना तथा जब यह गुदाके मुखपर आते हैं तो गुदामें सूई चुभनेकीसी पीडाऔर खुजलीको उत्पन्न करतहुए गदाके मुखमें व्यापक रहतेहैं। गुदासे बाहर निकलते समय सरसराहटसी उत्पन्न करतेहैं । यह पुरीषज कृमियोंके लक्षण हैं । १२ ॥ इत्येषश्लेष्मजानांपुरीपजानाञ्चक्रिमीणांसमुस्थानादिविशेपः। चिकित्सितन्तुखल्वेषालमासेनोपदिश्यपश्चाद्विस्तरेणोपदेक्ष्यते तत्रसर्वक्रिमीणासपकर्षणमेवादितःकार्य्यम् । ततः प्रकृतिविघातोऽनन्तरं निदानोक्तानांसावानामनुपसेवनमिति ॥ १३ ॥
इस प्रकार कफजनित और पुरीषजनित कृमियोंके निदान आदिकोंको कथन कियागयाहै। इनकी संक्षेपसे चिकित्साका कथन करके फिर विस्तारपूर्वक वर्णन करेंगे । सब प्रकारके कृमियों में कृमियोंको निकाल डालना मुख्य कार्य है । फिर कृमियोंको नाश करनेवाले द्रव्यों द्वारा कृमियोंका प्रकृति विधात अर्थात् कृमिना- . शक द्रव्योंद्वारा उनको नष्ट कर तदनन्तर कृमियोंको उत्पन्न करनेवाले कारणोंको त्याग देना चाहिये ॥ १३ ॥
क्रिमिचिकित्सा। तनापकर्षणंहस्तेनाभिपृश्यापनयनमुपकरणवतामुपकरणेन वा। स्थानगतानान्तक्रिमीणांभेषजेनापकर्षणन्यायतश्चतुर्वि 'धम् । तद्यथा, शिरोविरेचनंवमनविरेचनमास्थापनमित्यप
कर्षणविधिः ॥ १४ ॥ - अब कृमियोंके अपकर्षण अर्थात् निकालनेका क्रम कथन करतहैं । कृमियोंको हाथसे मसलकर अथवा पकडकर या किसी यंत्रद्वारा दवाकर निकाल देना अथवा चूर देनाचाहिये । जो कृमि आमाशय आदि तथा अन्य किसी भीतरी स्थान में हों उनको औषधी द्वारा निकाल देनाचाहिये । औषधी द्वारा कृमियोंको निकालनेक
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विमानस्थान-अ०७ : (५७५) चार विधि हैं जैसे शिरोविरेचन, वमन, विरेचन और आस्थापन इसप्रकार हामयोंका अपकर्षण अर्थात् निकालनेकी विधिका कथन कियागया ॥ १४ ॥
प्रकृतिविघातस्त्वेषांकटतिक्तकषायक्षारोष्णानांद्व्याणामपयोगोयच्चान्यदापकिञ्चिच्लेष्मपुरीषप्रत्यनीकभूतंतत्स्यादिति प्रकृतिविघातः ॥१५॥ अव प्रकृतिविघातको कहतहैं कटु, विक्त, कषाय, क्षार तथा उष्ण द्रव्योंका उपयोग करना और इनके सिवाय अन्य भी जो द्रव्य कफ और मलके विरोधी हों अथवा शुद्ध करनेवाले हों उनका सेवन करना एवम् कृामियोंके उत्पन्न करनेवाले कारणोंको नष्ट करनेवाले द्रव्योंका सेवन करना कृमियोंका प्रकृतिविघात कहाजालाहै ॥ १५ ॥
अनन्तरंनिदानोक्तानांभावानामनुपसेवनयदुक्तंनिदानविधी तस्यवर्जनंतथाविधप्रायाणाश्चापरेषांद्रव्याणामितिलक्षणतश्चिकित्सितमनुव्याख्यातमेतदेवपुनर्विस्तरेणोपदेक्ष्यते ॥ १६ ॥ इसके अनन्तर निदानमें कहेहुए भावोंका अर्थात् कृमियोंके उत्पन्न करनेवाले पदार्थोंका सेवन नहीं करना और इनके उत्पन्न करनेवाले भावोंको त्याग देना निदानमें कथन कियेहुए भावोंके सिवाय और भी जो कृमियों के उत्पन्न करनेके कारण हों उनको त्याग देनाचाहिये । यह कृमियोंकी संक्षेपसे चिकित्सा कथन कीगईहै अव विस्तारसे कथन करतेहैं ॥ १६ ॥
पेटके कीडोंकी चिकित्सा।। अथैनंक्रिमिकोष्ठमातुरमप्रेषड्रा–सप्तरात्रंवानेहस्वेदाभ्यामुप'पायश्वोभूतेएनंसंशोधनंपायायतास्मीति,क्षीरदधिगुडतिलमत्स्यानपमांसपिष्टान्नपरमानकुमुम्भलेहसम्प्रयुक्तैर्भोज्यैःलायं प्रातरुपपादयेत्समुदीरणार्थञ्चैवक्रिमीणांकोष्ठाभिसरणार्थञ्च॥१७॥ भिषगथव्युष्टायांरजन्यांसुखोषितंसुप्रजीर्णभुक्तञ्चविज्ञायास्थापनवमनविरेचनैस्तदहरेवोपपादयेत् ॥ १८॥ जिस मनुष्यके कोष्ठमें कृमि हों उसको पाहिले छ: दिन या सात दिन निहन और स्वेदन करना चाहिया फिर स्नेहन स्वेदन करके जब देखे कि कल प्रातकाल सशाधन करावेंगे तो प्रथम दिन रात्रिके समय दूध, दही, गुड, तिल,मछली,अनू
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(५७६) चरकसंहिता-भा० टी०। पसंचारी जीवोंका मांस, पिष्टान्नं, खीर आदि.पकवान, कस्मेकी चिकनाई आदि खूब पेटभर खिला देना चाहिये ऐसा करनेसे सव कृमि इधर उधरसे आकर अपने स्थानोंको छोडकर कोष्ठमें आजाते हैं और आहार द्रव्यके साथ मिलकर कुलबुलाने लगते हैं फिर रात्रि बीतजानेपर प्रातःकाल ही अन्नको पाचन हुआ जान योग्य वैद्य आस्थापन, वमन, तथा विरेचन द्वारा कृमियोंको निकाल डाले ॥ १७॥१८॥.
उपपादनीयश्चेत्स्यात्सर्वान्परीक्ष्याविशेषान् समीक्ष्यसम्यक् । अथाहरेतिब्रूयान्मूलकसर्षपलशुनकरञ्जशिग्रुमधुशिग्रुखरपुष्पभूस्तृणसुमुखसुरसकुठेरक 'गण्डी' कंण्डीरकालमालकपर्णासक्षवकफाणिज्जकानि । सर्वाणिअथवायथालाभम् । तानि आहृतानिअभिसमीक्ष्यखण्डशश्छेदयित्वाप्रक्षाल्यपानीयेनसुप्रक्षालितायांस्थाल्यांसमवाप्यगोमूत्रेणाद्धोदकेनाभ्यासिच्य साधयेत् । सततमवघट्टयेत्दातस्मिशीतीभूतेतुउपयुक्त भूयिष्ठेऽम्भासिगतरसेषुऔषधीषुस्थालीमवतार्थसुपरिपतंकषायसुखोष्णंमदनफलपिप्पलीविडङ्गकल्कतलोपहितंसर्जिकालवणमभ्यासिच्यबस्तौविधिवदास्थापयेदेनम् ॥ १९ ॥ यदि वह रोगी फिर भी ऐसा करनेके योग्य हो तो सब प्रकारसे उसकी परीक्षा करके तथा सम्पूर्ण विशेषरूपसे जानकर उचित रीतिपर फिर संशोधन करे । अब संशोधन द्रव्योंको कथन करते हैं-मूली, सरसों,लहसुन,करंज,सहिजना,अजवायन, भूतृण, सुमुख, (तुलसीका भेद ) सुफेद तुलसी, वनतुलसी, गण्डीर,कालमालका. पर्णास, क्षवक, और फणिज्झक ( मरुएके भेद) इन सबको अथवा जो मिलसके उनको विधिवत् परीक्षा कर छोटेरटुकडे कर डाले फिर पानीके साथ धोकर शुद्ध वर्तनमें डाल दे और उस वर्तनमें गोमूत्र और गोमूत्रसे आधा पानी मिलाकर पकावे और कडछीसे बराबर हिलाता जावे । जब सब पानी सूखकर गोमूत्र भी चतुर्थभाग रहजाय तब उसको उतारकर कपडेसे छान डाले फिर उस शुद्ध स्वच्छ - काढेमें मैनफल, पीपल और वायविडंग इनका कल्क मिला दे तथा सज्जीखार और सेंधानमकको थोडा डाले फिर उसमें तेल और उचित समझे तो थोडा गर्म जल मिलाकर सहती २ आस्थापन, बस्तिकर्म करे ॥ १९ ॥
__ संशोधन औषधकी विधि। तैयाकोलकुटजांढकीकुंष्ठकैटर्यकषायणतथाशिग्रुपीलुकुस्तुः
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विमानस्थान:
(५७७) म्बुरुकटुकसर्षपकषायेणतथामलकशृङ्गवरदारुहरिद्रापिचुमर्दकषायणमदनफलसंयोगसंयोजितेनत्रिरात्रंसतरावास्थापयेत् ॥ २०॥
अथवा इसी प्रकार लाल तथा सफेद आक, कुडा, अरहर, कूठ और कायफल इनके काथमें मैनफलका कल्क मिलाकर आस्थापन वस्तिकर्म करे। अथवा सहि: जना, पोल, धनिया,कुटकी और सरसोंके काढेमें अथवा इसीप्रकार आमले, सोंठ, दारुहल्दी, नीमकी छालके काढेमें मैनफलका कल्क मिलाकर तीन रात्रि अथवा सात रात्रि आस्थापन वस्तिकर्म करे ॥२०॥
प्रत्यागतेचपश्चिमेबस्तौप्रत्याश्वस्तंतदहरेवोभयतोभागहरणं संशोधनंपाययेत्युत्त्या, तस्यविधिरुपदेक्ष्यते ॥२१॥ जब पिछली बस्ति गुदाद्वारा उलटकर बाहर निकलजाय तब उससे दूसरे दिन प्रातःकाल शोधनकर्ता द्रव्योंद्वारा विधिपूर्वक वमन विरेचन करावे। उसकी विधिको कथन करते हैं ॥ २१ ॥
मदनफलपिप्पलीकषायेषुअञ्जलिमात्रेणत्रिवृत्कल्काक्षमात्रमालोडयपातुमस्मैप्रयच्छेत्। तदस्यदोषमुभयतोनिहरतिसाधु॥२२॥ मैनफल और पीपलके सोलह तोला काथमें एक तोला निशोथका कल्क मिला कर रोगीको पिलावे। इसके पीनेसे वमन और विरेचन द्वारा ऊपर और नीचे, दोष भली प्रकार निकल जाते हैं ॥ २२ ॥
एवमेवकल्पोक्तानिवमनविरेचनानिसंसृज्यपाययेदेनंबुझ्यास- :
विशेषानवेक्ष्यमाणः॥२३॥ इसीप्रकार कल्पस्थानमें कहेहुए वमन विरेचन द्रव्योंको विधिवत् सम्पादनाकर यथोचित रीतिसे दोषादिकोंको तथा बलादि व्यवस्था देखकर रोगीको पिलावे२३॥
विरेचन होजानेपर कर्म । अथैनंसम्याग्विरिकंविज्ञायापराह्नशैखरिककषायेणसुखोष्णेन परिषेचयेत्। तेनैवचकषायेणबाह्याभ्यन्तरान्सर्वोदकार्थान्कारयेत्शश्वत् । तदभावेवाकटुतिक्तकषायाणामोषधानांवाथैमूत्रक्षारैर्वा परिषेचयेत् । परिषिक्तञ्चएननिवातमागारमनुप्र
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चरकसंहिता - भा० टी० ॥
वेश्यपिप्पलीपिप्पलीमूलचव्यचित्रकशृङ्गवेरसेिदेनयवाग्वादि -
'नाक्रमेणउपक्रामयेत् ॥ २४ ॥
जब देखे कि यह रोगी यथोचित विरिक्त (वमन विरेचन द्वारा शुद्ध ) होगया तब दिनकी पिछले प्रहरमें अपामार्गके सुखोष्ण क्वाथ द्वारा परिसेचन करे । और उसी काय द्वारा वाह्य और आभ्यान्तर सम्पूर्ण जलके कार्योंको साधन करे । अर्थात् अपामार्गके काथसे ही हाथ, पांव धोना, कुल्ला, स्नान आदि सब काम करे | यदि उस समय अपामार्गका क्वाथ न मिल सके तो कटु, तिक्त द्रव्योंके कषायसे अथवा गोमूत्र और क्षार मिलेहुए सुखोष्ण जलसे स्नान आदि करावे । स्नान करने के अनन्तर निर्वात स्थानमें रक्खे और पिप्पली, पिपलामूल, चव्य, चित्रक और अदरख इनके संयोगसे सिद्ध की हुई यवागू पीनेको देवे । तथा विधि-वत् सब उपचार करे ॥ २४ ॥
विलेपीक्रमागतःञ्चैनमनुवासयेद्विडङ्गतैले नै कान्तद्विनिर्वायदि पुनरस्थातिप्रवृद्धाच्छीर्षादीन्क्रिमन्मन्येत, शिरस्येवअभिसर्पतःकदाचित्ततः स्नेहस्वेदाभ्यामस्यशिरउप राद्यविरेचयेदपामार्गतण्डुला दिनाशिरोविरेचनेन ॥ २५ ॥
(५७८ )
. उस यवागू पीने के अनन्तर क्रमपूर्वक विलेपी सेवन करावे। फिर दो तीन दिनके अन्तरवायविडंग के तेल से अनुवासन कर्म करे यदि फिर भी देखे कि इसके शिर आदि अंगों में कृति बढे हुए हैं तो शिरोविरेचन करानेके लिये पहिले शिरको स्नेहन और स्वेदन करके फिर अपामार्ग तण्डुल आदि शिरोविरेचन द्रव्योंद्वारा शिरका विरेचन करे ॥ २५ ॥
कृमिनाशक औषधि |
यस्त्वभ्याहाय्योविधिःप्रकृतिविघातायोक्तः क्रिमीणां, सोऽनुव्याख्यास्यते । मूषिकपर्णीसमूलाग्र प्रतानामपहृत्य खण्डशश्छेदयित्वाउलूखलेोदायित्वापाणिभ्यां पीडयित्वाचरसंगृह्णीयांत् । तेनरसेन लोहितशालितण्डुलपिष्टसमा लोड्य पालकांकृत्वात्रिधूमेषु अङ्गारेषुविपाच्य विडङ्गतैललवणोपहितांक्रिमिकोष्ठायभक्षयितुं प्रयच्छेत् । तदनन्तरञ्चअम्लकाञ्जिकमुदश्विद्वापिप्पल्यादिपञ्चवर्गसंसृष्टसलवणमनुपाययेत् ॥ २६ ॥
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विमानस्थान-अ०७.
(५७९). जो कृमिनाशक पथ्यादि कृमियोंके प्रकृति विघातक कथन करआयेहँ अव उनकी व्याख्या करतेहैं । जैसे मूषिकपर्णीको जडसहित तथा अग्रभागसहित लेकर उसके छोटे २ टुकडे कर डाले फिर उसको उखलीमें कूटकर दोनों हाथोंसे दवा. उसका रस निचोड ले। उस रसमें लालचावलोंके आटेको मिलाकर विधिवत् पूडिये बनाले इन पूडियोंको निर्धूम अग्निपर पका विडंगका तैल और सेंधानामक मिलाकर जिस मनुष्यके कोष्ठमें कृमि हों उसको यह खानेको देवे । इसके ऊपर खट्टी कांजीका जल · अथवा दहीका पानी सेंधेनमकयुक्त पंचकोलका चूर्ण मिलाकर पानेके लिये देवे ॥ २६ ॥
अनेनकल्पेनमार्कवार्कसहचरनीपनिगुण्डीसुमुखसुरसंकुठेरक-. कण्डीरकालमालकपर्णा सक्षवकफणिज्झकबकुलकुटजसुवर्णक्षीरीसुरसानामन्यतस्मिन्कारयेत्युपलिकानितथाकिलिहीकिराततिक्तकसुवहाललकहरीतकीविभीतकस्वरसेषुकारयेत् यूपलिकाः । स्वरसांश्चैतानेकैकशोद्वन्द्वशःसर्वशोवामधुविलुलितान्प्रातरनन्नायपातुप्रयच्छेत् ॥ २७॥ इसी प्रकारसे भांगरा, आक, कठसरइया, कदंव, निर्गुण्डी और प्रमुख, सुरस (तुलसीकी जाति ),बनतुलसी, काण्डीर, कालमालक, पर्णाश, क्षवक और फाणि ज्झक यह मरुएंकी जातिये । मौलसरी, कुडा, सत्यानाशी, तुलसी इनसे किसी एकके स्वरसको पूर्वोक्त रीतिपर निकालकर उस रसमें लालचारलोंके आटेको मांडकर पूडिथे वनावे उन पूडियोको जंगली उपलोंकी नि म अग्निपर पकाकर पूर्वोक्त गीतले कृमि कोष्ठवाले मनुष्यको खिलावे अथवा अपामार्ग, चिरायता, सुवहा, हरड,वहेडे,आमले इन सबसे किसी एकके स्वरसमें तथा दोनोंके स्वरसको मिलाकर अथवा सबके रसमें लालचावलके आटेकी पूड़ियें वनावे उनको शहद लपेटकर प्रात:काल कृमियोंवाले रोगीको खिलावे अथवा उपरोक्त सवं औषधियोंके रसमें या किसी एकके स्वरसमें शहद मिलाकर भोजनसे प्रथम प्रातःकाल * पीनेके लिये देवे ॥ २७॥ ___ अथाश्वशकृदाहृत्यमहतिाकलि प्रस्ती-तपेशोषयित्वोलुख.
लेक्षोदयित्वादृषदिपुनः सूक्ष्माणिचूर्णानिकारयित्वाविडंगकपायेणत्रिफलाकषायेणवाअष्टकत्वोदशकृत्वोवाआतंपेसुपरिभावितानिभावायत्वादृषादपुनःसूक्ष्माणिचूर्णानिकारयित्वानवेक
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(५८०) चरकसंहिता-भा० टी०। लशेसमवाप्यानुगुप्तनिधापयेत् । तेषांतुखलुचूर्णानांपाणितलं चूर्णयावद्वासाधुमन्येतक्षौद्रेणसंसृज्यक्रिमिकोष्ठायलेढुंयच्छेत् २८
अथवा घोडेकी ताजी लीद लेकर किसी बडे टाट या चटाईपर डाल सुखा लेने फिर उस सूखी लीदको उखलीमें डालकर वारीक चूर्ण करे फिर उसको सिलपर पीसा । कर अत्यन्त महीन बनाले इसके अनन्तर बायविडंगके काथकी आठ भावना अथवा त्रिफलेके क्वाथकी दश भावना या दोनोंकी भावना देवे और प्रत्येक भावनांके अनन्तर धूपमें सुखाता जावे फिर इसको सुखाकर कपडछान कर लेवे और एक नये महोके पात्र में भरकर अलग रख देवे और इसका किसीको भेद न बतावे । इसमेंसे एक तोलाभर चूर्ण अथवा दो या तीन तोलाभर जितना उचित समझे शहदमें मिलाकर जिस मनुष्यके कोष्ठमें काम हों उसको चटादियाकरे ॥ २८ ॥
तथाभल्लातकास्थान्याहार्यकलशप्रमाणेनसम्पोथ्यस्नहभावितेहढेकलशेसूक्ष्मानेकच्छिद्रबध्नेमृदावलिसमवाप्योडपेनपिधायभूमौआकण्ठनिखातस्यस्नेहभावितस्यैवअन्यस्यदृढस्यकुम्भस्यउपरिसमारोप्यसमन्तात्गोमयैरुपचित्यदाहयेत् । सयदाजानीयात्साधुदग्धानिगोमयानिगलितम्नेहानिभल्लातकास्थीनिततस्तंकुम्भमुद्धारयेत्।अथतस्माद्वितीयात् कुम्भात्तस्नेहमादायविडङ्गतण्डुलचूर्णैःस्नेहाईमात्रैः प्रतिसंसृज्यातपेसर्वमहः स्थापयित्वाततोस्मैमात्रांप्रयच्छेत्पानाय । तेनसाधुविरिच्यते विरिक्तस्थचानुपूर्वीयथोक्ता ॥ २९ ॥
अथवा भेलावेकी १६ सेर गुठलियोंको लेकर थोडा कूट लेवे फिर किसी पक्कै चिकने घडेमें भरदेवे और उस घडेके नीचे बारीक बारीक छिद्र रहने देवे तथा उसके मुखको, सरावसे ढककर कपडमट्टी करदेवे और उस घडेके नीचे जिस जगह छिद्र , हों एक खुले मुखका चिकना पात्र रखदेवे अर्थात् नीचेके खाली चिकने पात्रके मुखपर औषधीवाले घडेके छिद्रोंको टिका कपडमिट्टीसे बंद करदेवे फिर जमीनमें एक गढा खोदकर उसमें नीचे के सम्पूर्ण पात्रको दबा देवे और थोडासा हिस्सा उपरले घडेका भी मट्टीमें आजाना चाहिये । फिर इस घडेके चारोंतरफसे मट्टीको दबा इसके ऊपर चारोंओर सूखे जंगली उपले लगाकर आग लगादेवोजब जाने कि उपाले घडेके भेलावोंका आगकी गर्मीसे सब तेल नीचके पात्रमें टपक चुकाहै तों शीवर होजानेपर घडेके उपरकी राख मट्टी सावधानीसे हटाकर नीचेके पात्र में
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"विमानस्थान-१० ७. . (५८१) आये हुए तेलको निकाल लेवे । और किसी दूसरे उतम पात्रमें भरकर रक्खे । फिर इसमेंसे थोडा तेल लेकर उसमें तेलसे आधा वायविडंगका चूर्ण मिला देवे
और उसको धूपमें रखदेवे । तमाम दिन धूपमें रखकर इसमेंसे यथोचित मात्रा खिलाकर ऊपरसे गर्मपानी पिलावे । जब इससे ठीक विरेचन होचुके तब संशोधन 'किये मनुष्यका जिसप्रकार उपचार करनाचाहिये उस विधिसे इसकी रक्षा करे । (भेलाके फलका तेल लगजानेसे मनुष्यके शरीरमें खुजली, सूजन, घाव आदि अनेक उपद्रव होजातेहैं । विना विधिसे भेलावेका सेवन करना विषके समान होता है। परन्तु यह विकार भेलावेके फलके रसमें होतेहैं । फलोंकेगुठलियोंमेंसे निकाले तेलमें नहीं होते । तौ भी भेलावेका तथा अन्य किसी विषैले पदार्थका उपयोग सुयोग्य वैद्यके ही हाथसे करनाचाहिये विना जाने स्वयं करनेसे मनुष्य अपने शरीरको भी नष्ट कर वैठताहै । )॥ २९ ॥
एवमेवभद्रदारुसरलकाष्ठस्नेहानुपकल्प्यपातुंप्रयच्छेत् ।
अनुवासयेच्चैनमनुवासनकाले ॥३०॥ इसीप्रकार देवदारु तथा सरलकाष्ठका तेल निकालकर उसमें वायविडंगका चूर्ण मिलाकर १ दिन धूपमें रक्खे और दूसरे दिन गर्मजलके योगसे पिलावे । देवदारु
और सरलके तेल द्वारा अनुवासनके समय अनुवासनवस्ति करना हितकर होता है। (परन्तु भेलावेके तेलसे अनुवासनवस्ति नहीं करना) ॥ ३० ॥
बिडंगतैलम् । अथाहरेतिब्रूयाच्छारदान्नवास्तिलान्सम्पदुपेतानाहृत्यमुनिष्पूतान्निष्पूयसुशुद्धाञ्छोधयित्वाविडङ्गकषायेसुखोष्णेप्रक्षिप्यसुनिर्वापितान्निर्वापयेदादोषगमनात् । गतदोषानभिसमीक्ष्यमप्रलूनान् प्रलुच्यपुनरेवसुनिष्पूतान्निष्पूयसुशुद्धाञ्छोषयित्वावि. डङ्गकषायणनिःसप्तकत्वःसुपरिभावितान् भावयित्वाऽतपेशोंपयित्वोलूखलेसंक्षुद्यदृषदिपुनःश्लक्ष्णपिष्टान्कारयित्वाद्रोण्यामभ्यवधायविडङ्गकषायणमुहुर्मुहुरवसिञ्चन्पाणिमर्दमर्दयेत् । तस्मिन्खलुप्रपडियमानेयत् तैलमुदियात्तत्पाणियांपर्यादा
यशुचौदृढेकलशेसमासिच्यानुगुसंनिधापयेत्।अथाहरेतिबूयात्ति. ल्वकोदालकयोोंबिल्वमात्रौपिण्डौश्लक्ष्णपिष्टोविडङ्गकषायेण,
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(५८२) चरकसहिता-भा० टी०।
ततोऽर्द्धमात्रौश्यामात्रिवृतयोरईमात्रौदन्तीद्रवन्त्योरतोऽर्द्धमात्रोचव्यचित्रकयोरित्येतत्सम्भारंविडङ्गकषायस्याढिकमात्रेगप्रतिसंसृज्यततस्तैलप्रस्थमावाप्यसर्वमालोडयमहतिउपयो- . गेसमासिच्यानावधिश्रित्यमहत्यासनेसुखोपविष्टःसर्वतःस्नेहमवलोकयन्अजसंमृद्वग्निना साधयेद्दासततमवघयन्। सयदाजानीयाद्विरमातिशब्दः प्रशाम्यति चफेनः,प्रसादमापद्यते स्नेहोयथास्वंगन्धवर्णरसोत्पत्तिःसंवर्त्ततेच, भेषजमंगुलिभ्यां मृद्यमानमनतिमृदुमनतिदारुणमनंगुलिग्राहिचेति । सकालस्तस्यावतारणाय। ततस्तमवतीर्णहृतंशीतीभूतमहतेनवाससापरिपूयशुचौहढेकलशेसमासिच्यपिधानेनपिधायशुक्केनवस्त्रपट्टेनआच्छायसूत्रेणसुवलंसुनिगुप्तंनिधापयेत्। ततोऽस्मात्री प्रयच्छेत्पानाय ॥ ३१ ॥ अब विडंगसैलकी विधि कथन करतेहैं । पहिले रोगीसे कहे कि तू शरदऋतुके अर्थात् नवीन और उत्तम तिलोंको इकटे कर । जब वह तिलोंको इकटे करलेवे तों उन तिलोंको फटक तथा संवार कर एवम् उनमें मट्टी पत्थर आदि चुनकर स्वच्छ बनावे फिर उनको सुन्दर रीतिसे धोकर धूपमें सुखा लेवे । जब सूख जायं फिर उन तिलोंको बायविडंगके क्वाथकी भावना देकर धूपमें सुखाता जावे।इसी प्रकार वायविडंगके क्वाथकी इक्कीस भावना देवे । जव सूख जायं तो ऊखलामें कूटकर फिर सिलपर वारीक पसि डाले । फिर उस वारीक तिलोंके चूर्णको किसी चिकनेपा. त्रमें भरकर उसमें वायविडंगका गर्मगर्म काथ छिडकता जाय और हाथोंसे उन तिलोंको मोडताजाय जो उनमें से तेल हाथोंको लगे अथवा पात्रमें निकले उस , तेलको हाथसे किसी स्वच्छ पात्र में पोंछता जायं जब सब तेल निकल आवे तो उस । तेलको किसी स्वच्छ पात्रमें भरकर रखदेवे । फिर पठानी लोद कोद्रव (कोदाअन्न) यह दोनों चार चार तोला लेवे। इनको वायविडंगके क्वाथके साथ पीसकर दो पिंड बनालेवे । इसके. अनन्तर दो दो तोला. दक्षिणी और पहाडी निशोथ दो दो -बोला,दोनों प्रकारकी दंती एक एक तोला चव्य और चित्रक इन सबको चार सेर वायविडंगके क्वाथमें मिलाकर. पूर्वोक्तं चार सेर तेलमें मिलादेवे । फिर सब औषः घियोंको एक बडी कडाहीमें चढाकर भट्टीपर रक्खे । स्वयं एक ऊंचे आसनपर
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. . विमानस्थान-अ०७. . .(५८३) :. वैठकर उस कडाहीमें तेलको सब तरहसे देखताहुआ मंदमंद अग्निसे पकावे । जक देखे कि पानी जल चुकाहै और औषधियोंके पकनेका शब्द शान्त होगया । फेन भी जाता रहा । तैल स्वच्छ होगया। जैसे-द्रव्यादिक उसमें डाले हैं उन सबका गन्ध,रस,वर्ण तेलमें आगया तब उस तेलमें पड़ी औषधियोंके कल्कको निकालकर अंगुलियोंसे मसलताहुआ बत्ती बनाकर देखे । यदि उस कल्कद्रव्यकी बत्ती बनजाय और तेलको छोडने लगजाय और अंगुलियोंसे न चिपटें तो जाने कि तेल अब सिद्ध होगया और यह समय उस तेलके उतारनेका है । फिर उसको उतारकर जव वह ठंडा हो जाय किसी अच्छे वस्तुसे विधिपूर्वक छानकर शुद्ध और दृढ कलशमें भरकर ऊपरसे किसी पात्रद्वारा ढकदेवे तथा श्वेत और नये वस्त्रसे उसके मुखको बांधकर किसी उत्तम स्थानमें रख देवे फिर जब आवश्यकता हो तो इस तैलमेंसे रोगीको यथोचित्त मात्रा पान करावे ॥ ३१॥
तेनसाधुविरिच्यते । सम्यगपहृतदोषस्यचास्यानुपूर्वीयथोक्ता । ततश्चैनमनुवासयेदनुवासनकाले ॥ ३२॥ इस तैलके उपयोगसे उत्तम विरेचन होताहै । जब उत्तम विरेचन होकर दोष निकलनेसे मनुष्य शुद्धदेह होजाय तब इसको विधिवत् यवागू आदि पथ्य सेवन करावे । और अनुवासनके समय अनुवासन कर्म करे ॥ ३२ ॥
एतेनैवचपाकविधिनासर्षपकरञ्जकोषातकास्नेहानुपकल्प्यपाअयेत्सर्वविशेषानवेक्ष्यमाणस्तेनागदोभवति ॥ ३३ ॥ इसी तैलपाविधिसे-सरसों,करंज और कडवी तोरीके बीजोंका भी तैल बनाना चाहिये । फिर विचार पूर्वक कृमिनाश करने के लिये इन तेलोंका उपयोग. करे। ऐसा करनेसे मनुष्य कृमिरोगसे छूटकर नीरोग होजाताहै ॥ ३३॥ .
इत्येतद्वयानांश्लेष्मपुरीषसम्भवानांक्रिमीणांसमुत्थानस्थानसंस्थानवर्णनामप्रभावचिकित्सितविशेषाव्याख्याताःसामान्यतः ॥ ३४॥ . इसप्रकार-कफजन्य और पुरीषजन्य कृमियों के निदान, लक्षण, वर्ण, प्रभाव, नाम और चिकित्साविशेषका सामान्यरूपसे कथनं कियागया हैं ॥ ३४॥ ..
विशेषतस्तुअल्पमात्रमास्थापनानुवासनांनुलोमहरणभूथि
ठतेष्वौषधिपुरीषजानांक्रिमीणचिकित्सितकार्य्यमात्राधि...
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ह:५८४)
चरकसंहिता-मा० टी० कम्पुनःशिरोविरेचनवमनोपशमनभायष्ठतेष्वौषधेषुश्लेष्मजानांक्रिमीणांचिकित्सितंकार्यम् । इत्येवेंक्रिमिनोभेषजवि. धिरनुव्याख्यातोभवति॥३५॥ विशेषतःसे ध्यान देने योग्य यह वात है कि पुरीषजन्य कृमियोंकी चिकित्सा 'प्राय यही है कि स्वल्पमात्रासे आस्थापन तथा अनुवासनवस्ति करना और अनु लोमताके हरण करनेवाली औषधियोंका प्रयोग करना । यह पुरीषन कृमियोंकी "चिकित्सा है। कफजन्य कृमियोंमें अधिक मात्रासे वमन, शिरोविरेचन तथा उप.
शमन औषधियोंका प्रयोग करना चाहिये।यह कफजनित कृमियोंका चिकित्साका वर्णन कियागया। इस प्रकार कृमिनाशक औषधविधिका वर्णन कियागयाहै३५॥
तमनुतिष्ठतायथास्वंहेतुवर्जनेप्रयतितव्यम् । यथोद्देशमेवमि. दक्रिमिकोष्ठचिकित्सितंयथावदनुव्याख्यातंभवतीति ।। ३६ ॥ कृमिनाशक औषधियों के सेवन करनेवाला मनुष्य कृमियोंके उत्पन्न करनेवाले कारणोंको त्यागने में विशेष यत्नवान् रहे । इस प्रकार यथा उद्देश कृमिकोष्ठकी चिकित्साका क्रमपूर्वक वर्णन कियागया ॥ ३६ ॥
तत्र श्लोकाः। अपकर्षणमेवादौक्रिमीणांभेषजस्मृतम् । ततोविघातःप्रकृतेनिदानस्थचवर्जनम् ॥ ३७॥ एतावद्भिषजाकार्यरोगेरोगेयथाविधि । अयमेवविकाराणांसर्वेषामपिनिग्रहे ॥ ३८ ॥ यहांपर श्लोक हैं कि पाहिले कृमियोंका आकर्षण करनाही उत्तम चिकित्सा है। उसके अनन्तर कृमियोंकी प्रकृतिका नाश करना तथा कृमिकारक पदार्थोंका त्याग देना । इसप्रकार वैद्यको प्रत्येक रोगमें विधिपूर्वक करना चाहिये । संपूर्ण विकारोंके शान्त करनेका यही क्रम है ॥ ३७ ॥ ३८॥
विधिदृष्टस्त्रिधायोऽयंक्रिमीनुद्दिश्यकीर्ततः।
संशोधनंसंशमनंनिदानस्यचवर्जनम् ॥ ३९ ॥ " • कृमियोंके उद्देशसे संशोधन, संशमन और निदानका परिवर्जन इस तीन प्रकारकी विधिका कथन किया है ॥ ३९॥
... अध्यायका संक्षेप । व्याधितोपुरुषोज्ञाज्ञौभिषजोसप्रयोजनों । विंशतिःक्रिमयस्त्वे
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विमानस्थान - भ० ८.
(१८५)
'बांहेत्वादिः सप्तकोगणः ॥ ४० ॥ उक्तोव्याधितरूपीये विमाने 'परमर्षिणा । शिष्य संबोधनार्थञ्चव्याधिप्रशमनाय ॥ ४१ ॥ इति व्याधितरूपीयंविमानं समाप्तम् ॥ ७ ॥
'इस व्याधितरूपीय विमानमें शिष्यके सम्बोधन के लिये और व्याधिको शांतिक लिये दो प्रकारके व्याधितपुरुष, सुज्ञ और अज्ञ दो प्रकारके वैद्य और उनके प्रयोके भेद, वीस प्रकारके कृमि और उनके कारण आदि सातगण, महर्षि आत्रेजीने कथन किये हैं ॥ ४० ॥ ४१ ॥
इति श्रीमहर्षि चरक विमानस्थाने • भाषा • व्याधीतरूपीय विमानं नाम सप्तमोऽध्यायः ७ ॥
अष्टमोऽध्यायः ।
Scaunicor •C
अथातो गंगभिषग्जितीयमध्यायं व्याख्यास्याम इतिहस्माह भगवानात्रेयः ।
अब हम रोग भिषजितीय अध्यायकी व्याख्या करतेहैं इस प्रकार भगवान आयजी कथन करनेलगे ।
शास्त्रपरीक्षा ।
बुद्धिमानात्मनः कार्य्यगुरुलाघवे कर्मफलमनुबन्धं देशकालौच विदित्वायुक्तिदर्शनाद्भिषगबुभूषुः शास्त्रमेवादितः परीक्षेत । विविधानि हिशास्त्राणिभिषजांप्रचरन्तिलोके । तत्रयन्मन्येत महद्यशस्विधीरपुरुषानुमोदितमर्थबहुलमाप्तजन पूजितंत्रिवि - धशिष्यबुद्धिहितमपगतपुनरुक्तदोषमार्षसुप्रणीत सूत्रभाष्यसंग्रहक्रमंस्वाधारमनवपतितशब्दमकष्टशब्दं पुष्कलाभिधानंत्रमागतार्थमर्थतत्त्वनिश्चयप्रधानंसङ्गतार्थमसंकुलप्रकरणमाशु
'प्रबोधकंलक्षणवञ्चोदाहरणवच्चतदभिप्रपद्येतशास्त्रम् । शास्त्रंह्ये
वंविधममलइवादित्यस्तमोविधूयप्रकाशयतिसर्वम् ॥ १ ॥
१ व्याधितरूपभ्रान्तज्ञानं बुद्धि देोषाद्भवति तस्मात् विशुद्धबुद्धयुत्पादनार्थमध्ययनमध्यापन वद्विद्येषम्भाषणां रोगाभेषकूजितीयेऽभिधीयते ।
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(५८६) चरकसंहिता-भा० टी०।
वैद्य होनेकी इच्छावाला बुद्धिमान् मनुष्य प्रथम अपनी कार्यकी गुरुता,लघुता, कर्म,उसका फल तथा सहायता आदि संयोग देश और कालको विचारकर एवम् युक्ति अर्थात् अनुमानसे अपने पूर्वापरको विचारता हुआ इन संपूर्ण भावोंपर दृष्टि देकर जिस शास्त्रको पढना हो पहिले उसकी परीक्षा करे अर्थात् यह देखे कि यह ग्रंथ पढनेयोग्य है या नहीं क्योंकि वैद्यकके अनेक ग्रंथ वैद्यलोगोंके रचेहुए लोकमें प्रचलित हैं। उन सबमें जिस ग्रंथका लोकमें यश छाया हुआहो और योग्य पुरुष उसकी प्रशंसा करतेहों, जिसके पढनेसे वैद्यकका यथोचित ज्ञान प्राप्त होता हो, जिसमें अर्थ बहुत हों जो प्रामाणिक पुरुषोंका मानाहोय, उत्तम,मध्यम, अधम इन तीनों प्रकारके शिष्योंकी बुद्धिमें आसकता हो, पुनरुक्त दोषसे रहित हो, ऋषिप्रणीत हो, सूत्र, भाष्य, संग्रहक्रम विधिवत् बना हुआहो, अपने आधार हो अर्थात् उसमें ऐसी बातें न हों जिनको जाननेके लिये अन्य ग्रंथोंके देखनेकी आवश्यकता होतीहो, जिसमें भ्रष्टशब्द न हों तथा कठिन शब्द न हों, जिसका कथन स्पष्ट,और बहुत अर्थको बतानेवाला हो, जिसमें क्रमपूर्वक विषय चलताहो और अर्थ,तत्वका निश्चय ही मुख्य मानाहो,सब विषय संगत हों,शीघ्र वोधको करानेवाला हो एवम् लक्षण और उदाहरण देकर विषयको स्पष्टरूपसे वर्णन करता हो ऐसे ग्रंथको पढः नके लिये ग्रहण करना चाहिये। ऐसा शास्त्र सूर्यके समान अंधकारको दूर कर सक अर्थोंका अर्थात् अर्थ, धर्म, यश आदिकोंका प्रकाश करता है ॥ १॥ .
आचार्यकी परीक्षा । ततोऽनन्तरमाचार्यपरीक्षेत । तद्यथा-पर्यवदातश्रुतंपरिदृष्टकमाणंदक्षदक्षिणशुचिंजितहस्तमुपकरणवन्तंसन्द्रियोपपन्नं प्रकृतिज्ञंप्रतिपत्तिज्ञमनुपस्कृतविद्यमनहंकृतमनसूयकमकोपनं क्लेशक्षमंशिष्यवत्सलमध्यापकंज्ञापनासमर्थश्चइत्येवंगुणोह्याचार्य सुक्षेत्रमार्त्तवोमेघश्वशस्यगुणैःसुशिष्यमाशुवैद्यगुणैःसम्पादयति । तमुपसृत्यारिराधयिषुरुपचरेदभिवच्चदेववञ्चराजव. चपितृवच्चभर्तृवच्चाप्रमत्तस्ततस्तत्प्रसादात्कृत्स्नंशास्त्रमधिगम्य शास्त्रस्यदृढतायामाभिधानसौष्ठवस्यार्थस्यविज्ञानेवचनशक्ती
चभूयःप्रयतेतसम्यक् ॥ २॥ : इसके अनन्तर पढानेवाले आचार्यकी परीक्षा करना चाहिये । वह इस प्रकार है, जो वेदोंके अथवा आयुर्वेदके संपूर्ण रूपसे सर्वाशको जाननेवाला हो, जिसने
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विमानस्थान - अ० ८.
(iv)
आयुर्वेद संबंधी संपूर्ण कमाँको गुरुसे सीखा हो और स्वयं भी यथोचित रीतिपर संपूर्ण कमको अनेक वार किया हुआ हो । सब कमोंमें चतुर हो, संपूर्ण आयुर्वेद विद्याको जाननेवाला हो, पवित्र हो, जिसका हाथ हरएक कार्यके करनेमें हल्का और स्पष्ट हो, जो आयुर्वेदीय यंत्र, शस्त्र, क्षार, औषध आदि संपूर्ण सामग्री रखता हो, सर्वेन्द्रियसम्पन्न हो, जिसके शररिके संपूर्ण अंग उत्तम हों। सव मनुष्योंकी प्रवृत्ति तथा भेदका जाननवाला हो आयुर्वेद के संपूर्ण सिद्धान्तोको ठीक जाननेवाला हो, जिसने संपूर्ण शास्त्र पढे हों, वह याद हों अहंकार रहित हो, निंदक और क्रोधी नहो, क्लेशों को सहन करनेवाला हो, शिष्यपर प्रेम करनेवाला हो और प्रेमपूर्वक पढानेवाला हो, जिस विषयको पढ़ावे उसको उदाहरण आदि द्वारा स्पष्टरूपसे समझानेवाला हो। इस प्रकार आचार्य जैसे ऋतुकालमें अच्छी भूमिमें मेघ वरस - कर उत्तम खेतीको उत्पन्न करता है उसीप्रकार अपने शिष्यको शीघ्र वैद्यकके गुणोंसे सम्पन्न कर देता है । वैद्य होनेकी इच्छावाले शिष्यको उचित है कि ऐसे गुरुके समीप जाकर उसको अग्नि के समान, देवता के समान, राजाकै समान, पिताके समान तथा स्वामीके समान जानकर अप्रमत्त होकर सेवा करे । ऐसे गुरुकी कृपासे. संपूर्ण शास्त्रको पटकर शास्त्रमें दृढता उत्पन्न करने के लिये तथा कथन करनेमें चतुराई उत्पन्न करनेके लिये शास्त्रीय विषयका यथोचित ज्ञान प्राप्त करनेके लिये और जाने हुए विषयको वर्णन करने के लिये उत्तम शक्ति उत्पन्न करने का यत्नवान् रहे ॥ २ ॥
तत्रोपायाव्याख्यास्यन्ते । अध्ययनमध्यापनंतद्विद्यालम्भाषेत्युपायाः ॥ ३ ॥
अव उन उपायोंका अर्थात् योग्य वैद्य बनने के उपायोंका कथन करते हैं। जैसे पढना ( अध्ययन करना ) पढाना और उसी शास्त्रमें शास्त्रार्थ आदि सम्भाषण करना यह तीन उपाय शास्त्रमें व्युत्पन्न होने के हैं ॥ ३ ॥
अध्ययनकी विधि |
तत्रायमध्ययनविधिः कल्ये कृतक्षणः प्रातरुत्थायोपव्युषं वा कृत्वावश्यकमुपस्पृश्योदकंदेवगोब्राह्मण गुरुवृद्धसिद्धाचार्येभ्योनम - स्कृत्य समेशुचौ देशेसुखोपविष्टोमनःपुरःसराभिर्वाग्भिःसूत्रमनुक्रामन्पुनःपुनरावर्त्तयेद्बुद्ध्यासम्यगनुप्रविश्यार्थतत्त्वस्वदोषपार
१ उपव्युपमिति किचिच्छेषायां रात्रो ।
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(५८८.)
चरकसंहिता-भा० टी०। हारपरदोषप्रमाणार्थमेवंमध्यन्दिनेऽपरालेरात्रीचशश्वदपरिहापयन्नध्ययनमभ्यसदित्यध्ययनविधिः॥४॥
अब प्रथम अध्ययन विधि अर्थात् पढने के क्रमको कयन करते हैं पढनेकी इच्छावाला आरोग्य ब्रह्मचारी नियत समयपर प्रातःकाल अथवा सूर्य उदय होनेके चार घडी प्रथम उठकर परमेश्वरका स्मरण करे और मलमूत्रादि त्यागन करनेके अनन्तर स्नान आदि कर पवित्र हो देवता, गौ, ब्राह्मण, गुरु, वृद्ध, सिद्ध और आचार्य आदिकोंको प्रणाम कर शुद्ध, समान, पवित्र स्थानमें सुखपूर्वक बैठाहुआ शास्त्रमें मन लगाये हुए जिन सूत्रोंको पढाहो उन सूत्रोंमें चित्त लगाकर स्पष्ट स्वरसे उनको उच्चारण करताहुआ वारवार पाठ करता जाय फिर उस सब पाठको अपनी बुद्धिमें जमाकर उस पाठमें अथवा उस विषयमें जो दोष अथवा अदोष एवम् तर्क वितर्क जो कुछ उत्पन्न हो उसको निश्चय करनेके लिये मध्यदिनमें अथवा अपराहमें या रात्रिके समय अथवा उसी समय गुरुके समीपजा अपनी शंकाओंको निवृत्त कर लेवे । और इसी विधिस नित्य पढता रहे ।यह अध्ययनकी विधि है॥४॥
अध्यापनविधि । अथाध्यापनविधिः,अध्यापनेकृतबुद्धिराचार्य:शिष्यमादितःपरीक्षेततद्यथा--प्रशान्तमार्यप्रकृतिकमक्षुद्रकर्माणमृजुचक्षुर्मु. खनासावंशंतनुरक्तविशदजिह्वमविकृतदन्तौष्ठम्अभिन्मिणं धृतिमन्तम्अलंकृतमेधाविनंवितर्कस्मृतिसम्पन्नमुदारसत्वंतद्विद्यकुलजमथवातत्त्वाभिनिवेशिनमव्यङ्गमव्यापन्नेन्द्रियंनिभृतमनुदतमव्यसनिनशीलशौचाचारानुरागदाक्ष्यप्रादक्षिण्योपपन्नमध्ययनाभिकाममत्यर्थविज्ञानकर्मदर्शनेचानन्यकार्य्यमलुब्धमनलसंसर्वभूतहितैषिणमाचा_सर्वानुशिष्टिप्रतिकरमनुरक्तमेवंगुणसमुदितमध्याप्यमेवमाहुः। एवंचिरमाचार्यश्चाध्ययनार्थमुपस्थितमारिराधयिषुमनुभाषेत ॥५॥ अब अध्यापन (पढाने) की विधिका कथन करते हैं । पढानेकी इच्छावाला वैद्य प्रथम शिष्यकी परीक्षा करे शिष्य ऐसा होना चाहिये । जो शान्तचित्त और श्रेष्ठ स्वभाववाला हो, नीच कर्मोंको करनेवाला तथा नीच आशयाला न हो, जिसके नेत्र, मुख, नासिका यह सब सुन्दर और सुडौल हों,जिसकी पतली, राल,
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विमानस्थान-अ०० (५८९) सुन्दर जीभ हो, दंतपंक्ति और ओष्ठ उत्तम हों तथा धारण शक्तिवाला हो, अहंकार रहित हो मेधायुक्त हो, तर्क शक्ति और स्मरण शक्तिवाला हो, उदार स्वभा. ववाला हो और उनके कुलमें परम्परासे विद्या पढने, पढानेकी प्रथा चली आती हो अथवा उस विद्याको पढना चाहता हो । उस विद्यासे अपने लाभकी इच्छा करता हो, जो विद्याके तत्वको जाननेमें चित्त लगाये हुए हो, जिसके शरीरके. सम्पूर्ण अङ्ग उत्तम हो, सर्वेन्द्रिय सम्पन्न हो, विनीत हो, अकड रहित हो,दुर्व्यसन रहित हो, सुशील हो, पवित्र हो, अनुरागी हो, चतुर हो, हरएक कार्य बुद्धिमत्तासे करनेवाला हो, पढनेमें वित्त लगाये हुए हो, अर्थके जानने और वैद्यकर्म सखिनेमें तथा देखनेमें चित्त लगाये हुए हो, गुरुकी आज्ञा पालन करनेवाला हो और गुरुमें प्रेमभाव रखनेवाला हो। इस प्रकारके गुणोंसे सम्पन्न शिष्य पढाने योग्य होता है । इन सम्पूर्ण गुणोंयुक्त शिष्य बहुत कालतक पढनेकी इच्छासे आवे तो ऐसे शिष्यको गुरु विधिवत् शास्त्रका उपदेश कर देवे ॥५॥
उपदेश । उदगयने शुक्लपक्षेप्रशस्तेऽहनिपुष्यहस्तश्रवणाश्वयुजामन्यतमेननक्षत्रेणयोगमुपगतेभगवतिशशिनिकल्याणेमुहूर्तेस्त्रातःकृ. तोपवासामुण्ड कषायवस्त्रसंवीतः समिधोऽग्निमाज्यमुपलेपन- . मुदककुम्भांश्चसुगन्धिहस्तमाल्यदामहिरण्यान्हेमरजतमाणमुक्ताविद्रुमक्षौमपरिधींश्चकुशलाजसर्षपाक्षतांश्चशुक्लांश्चसुमनसोग्रथिताग्रथितांश्चमेध्यांश्चभक्ष्यान्गन्धाश्चपिष्टापिष्टानादायोपतिष्ठस्वेति । सतथाकुर्यात् ॥६॥ जब शिष्यको अध्ययन कराना हो तो आचार्य कहे कि तुम उत्तरायणमें, शक्ल । पक्षमें और शुभदिनमें पुष्य,हस्त, श्रवण, अश्विनी इन नक्षत्रों में से किसी नक्षत्रयुक्तचन्द्रमा होनेपर सुमुहूर्त और शुभलग्नमें स्नान और उपवास करके मुण्डन करा, कषाय वस्त्रोंको धारणकर यज्ञकी समिधा, अग्नि, घृत, उपलेपन द्रव्य, जल, घट, सुगन्धित द्रव्य, खुक, माला, नेती, मृगछाला, सुवर्ण, रजत, मणि, मुक्ता, मूंगा, रेशमी धोती, कुशा, लाजा, सरसों,अक्षत, श्वेतपुष्प, और पुष्पोंकी माला, पवित्र . भक्ष्य पदार्थ, केशर चन्दनादि उत्तम गन्ध पिसे हुए और विना पिसे हुए लेकर हमारे पास आवो । शिष्य उसीप्रकार करे ॥६॥
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१९९०)
चरकसंहिता-भा० टी०। तमुपस्थितमाज्ञायसमेशुचौदेशेषाप्रवणेवाचतुष्किकुमात्रं .चतुरस्रस्थण्डिलंगोमयोदकेनोपलिप्तकुशास्तीर्णसुपरिहितंप- - - रिधिभिश्चतुर्दिशयथोक्तचन्दनोदककुम्भक्षौसहेमहिरण्यरजतमाणिमुक्ताविद्मालंकतंमेध्य-भक्ष्य- गन्धशुक्लपुष्पलाजासषपाक्षतोपशोभितंकृत्वातत्रपालाशीभिरैगुदीभिरौदुम्बरीभिर्माधुकीसिसिसिद्भिरग्निमुपसमाधायप्रामुखःशुचिरध्ययनविधिमनुविधायमधुसपियांत्रिस्त्रिर्जुहुयादग्निम् । आशीःसंप्रयुतमन्त्राह्मणमनिंधन्वन्तरिप्रजापतिमश्विनाविन्द्रमृर्षीश्चसत्रकारानभिमन्त्रयमाणः । पूर्वस्वाहेतिशिष्यंश्चैनमन्वारभेतहुत्याचप्रदक्षिणमनिसनुपरिकामेत् । ततोऽनुपरिकाम्यब्राह्मणान्स्वस्तिवाचयेत् । सिषजश्चामिपूजयेत् ॥७॥ जब इन सम्पूर्ण वस्तुओंको लेफर शिष्य गुरुके पास आये तब गुरु उस आये हुएको देखकर सम और पवित्र भूमिम,पूर्व अथवा उत्तरकी ओर चार हाथकी चौको. नी वेदी बनाये उसको गोबर और जलसे लिपाकर उसके ऊपर विधिवत् कुशाको विछावे और वेदीके चारों ओर चार परिधि बनाये फिर शास्त्रोक्त गीतिसे चंदन जलके कुंभ, रेशमी वस्त्र, सुनहरीवस्तु, हिरण्य, रजत, मणि, मोती, मूंगा,इनसे यथाविधि स्थानको विभूषित करे फिर पवित्र, भक्ष्य पदार्थ,कर्पूर केशर चन्दनादि गंधद्रव्य श्वेतपुष्प, लाजा (धानकी रखील), सरसों, अक्षत आदिको यथाक्रम स्थापन करे तथा पलाश,इंगुदी, गूलर, महुआ इनकी समिधाओंसे अग्निको विधिवत् प्रज्वलित करे फिर पूर्वाभिमुखहोकर शिष्यको शुद्धभावसे अध्ययन विधिके अनुसार विठाकर शहद और घोसे तीनतीन आहुतिये आनिमें हवन करे । फिर वेदोक्त आशीर्वादके मंत्रोंद्वारा ब्रह्मा, अग्नि,धन्वन्तरि, प्रजापति,अश्विनीकुमार,इन्द्र,ऋषियों तथा सूत्रकारोंको आवाहन करताहुआ पहिले आप स्वाहा कहकर आहुति देवे फिर शिष्य भी उसीप्रकार हवन करे । हवन करनेके अनन्तर अग्निकी प्रदक्षिणा करे और ब्राह्मणोंसे स्वस्तिवाचन करावे तया वैद्योंका पूजन करे ॥ ७॥ . अथैनमग्निसकाशेब्राह्मणलकाशेभिषक्सकाशेचानुशिष्यात् । " ब्रह्मचारिणाश्मश्रुधारिणासत्यवादिनाअमांसादेनमेध्यसेविना - १ प्रारुप्लवने इति पाठान्तरम् प्लवनं निम्नमिति संस्कारसन्ने। .
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विमानस्थान- अ०४... (५९१), निर्मत्सरेणशास्त्रधारिणाभवितव्यम् । नचतेमद्वचनात्किञ्चिदकार्य्यस्यादन्यत्रराजद्विष्टात्प्राणहराद्विपुलादधादनर्थसंप्रयुक्ताद्वाप्यर्थात् ।मदर्पणेनमत्प्रधानेनमदधीनेनमत्प्रियहितानुवर्तिनाचशश्वद्भवितव्यम् । पुत्रवदासवदर्थिवच्चोपचरतानुसर्तव्योऽहम् । अनुत्सुकेनावाहितेनअनन्यमनसाविनातनावेक्ष्यावेक्ष्यकारिणाअनसूयकेनचाभ्यनुज्ञातेनप्रविचरितव्यम् अनुज्ञातेनचप्रविचरता ॥८॥ फिर शिष्यको अग्निके समर्माप, ब्राह्मणोंके समीप और वैद्योंके समीप बिठाकर इसप्रकार शिक्षा देवे कि हे शिष्य ! तुमको ब्रह्मचारी वनकर श्मश्रु धारणकर, सत्यवादी रहना होगा तथा निरामिषभोगी और पवित्र भोजन करना मत्सर (ईर्षा, देष) रहित और शास्त्रोंको धारण करना होगा, मेरी आज्ञासे बाहर किंचित् काम
भी नहीं करना । राजाका द्वेष,हिंसा,अधर्म,अनर्थ,अनर्थसे धन माप्त करना इनको - छोडकर और संपूर्ण काम मेरी आज्ञानुसार करना । मेरे आगे नम्रतापूर्वक हरएक काममें मुझे प्रधान मानताहुआ मेरे आधीन, और मेरी मियता, मेरा हित तथा मेरा अनुवर्ती वनकर निरन्तर रहनाचाहिये । जैसे पिताकी सेवा पुत्र करताहै, मालिककी सेवा नौकर करताहै, जैसे अर्थकी इच्छासे अर्थीपुरुष धनिककी आज्ञा पालन करता है उसी प्रकार संघ स्थानमें तुमको मेरा अनुसरण करनाहोगा। उत्सु. कतारहित होकर सावधानीसे अनन्यमन होकर विनीतभावसे हरएक कामको विचार विचारकर करतेहुए ईर्षा,अभिमान,निंदा आदिको त्यागकर भेरी आज्ञाके अनुसार सब काम करने होंगे । मेरी आज्ञा लेकर इधरउधर जानाहोगा ।। ८॥ ..
वैधको उपदेश । पूर्वगुर्वर्थोपाहरणेयथाशक्तिप्रयतितव्यम्। कर्मसिद्धिमर्थसिद्धि यशोलामञ्चप्रेत्यचसर्वमिच्छताभिषजा । गोब्राह्मणमादौ कृत्वासर्वप्राणभृतांशमण्याशासितव्यम्।अहरहरुत्तिष्ठलाचोपविशताचसर्वात्मनाचातुराणामारोग्येप्रयतिवव्यम् । जीवितहेतोरपिचातुरेभ्योनातिदोग्धव्यमामनसापिचपरस्त्रियोलाभिगमनीयाः । तथासर्वमेवपरस्वम्। निभृतवेशपारच्छेदेनचभवितव्यमः। अशौण्डेनअपापेनअपापसहायेनचश्लक्ष्णशुक्लध
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(५९२) चरकसंहिता-भा० टी०।
यशHधन्यसत्यहितमितवचसादेशकालविचारिणास्मृतिमताज्ञानोत्थानोपकरणसंम्पत्सुनित्यंयत्नवता नचकदाचिद्राजद्विष्टानांराजद्वेषिणांवामहाजनद्विष्टानांमहाजनद्वेषिणांवाओषधमनुविधातव्यमाएवंसर्वेषामत्यर्थविकृतदुष्टदुःखशीलाचारोपचाराणामनपवादप्रतिकरादीनांमुमधूताश्चतथैवासन्निहितेश्वराणांस्त्रीणामनध्यक्षाणांवा ॥९॥ पहिले गुरुके लिये धन इकटा करनेमें यत्न करनाहोगा कर्मसिद्धि के लिये, अर्थ: सिद्धिके लिये,यश प्राप्त करनेके लिये,मरकर मोक्ष प्राप्तिके लिये इच्छा करनेवाला वैद्य पहिलेगौब्राह्मणोंको आदि लेकर संपूर्ण प्राणियों के कल्याण करने में यत्नवान् रहना। नित्यम्प्रति उठता बैठता संपूर्णरूपसे रोगियोंके आरोग्य करनमें यत्नवान रहना । अपने आजीवनके लिये भी रोगियोंको दिक्क कर द्रव्य प्राप्त न करना। मनसे भी परस्त्रीकी इच्छा न करना तथा किसी भी पराई वस्तुके लेनेकी इच्छा न करना । स्वच्छ, साधारण, उत्तम वेश धारण रखना, मद्य न पीना, पापी न बनना, पापरहित मनुष्योंके साथ रहना, पवित्र, उत्तम, धर्मात्माओंकी संगति करना, शरण आयेहुएकी रक्षा करना, धन्य, सत्य,हित और देश, काल विचार कर मितभाषण करना, देशकालसे विचारवान रहना, स्मृतिमान होकर ज्ञान साधन नकी सामग्रीको नित्य संग्रह करना और राजद्रोही तथा जिनसे राजा द्वेष करताहो, जो बडे पुरुषों के द्वेषी हों अथवा जिनसे बडे पुरुष द्वेष रखतेहों ऐसे पुरुषोंकों औषधि नहीं देना।इसी प्रकार सवका बुरा करनेवाले दुष्ट तथा खोटे आचारवालें. पुरुषोंको भी औषधि न देना एवम् जो स्वयं मरना चाहताहै, जिसको अपने अपवादका भय नहीं, जो कुपथ्यकारी है उनकी तथा जिन स्त्रियोंके पति, पुत्र आदि. कोई समीप न हों ऐसी अकेली स्त्रियोंकी चिकित्सा नहीं करना ॥९॥
नचकदाचित्वीदत्तमामिषमादातव्यमननुज्ञातंभनाअथवाअध्यक्षेण आतुरकुलश्चानुप्रविशतात्त्रयाविदितेनानुमतप्रवेशिनासा पुरुषेणसुसंवीतेनावाशिरसास्मृतिमतास्तिमितनअवेक्ष्यावेक्ष्यबुद्ध्यामनसासर्वमाचरतासम्यगनुप्रवेष्टव्यमाअनुप्रविश्यचवाङ्मनोबुद्धीन्द्रियाणिनक्कचित्प्रणिधातव्यानिअन्यत्रातुरोपकारार्थावाआतुरगतेष्वन्येषुवाभावेषु । नचातुरकु
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(६९३)
विमानस्थान-०८ लप्रवृत्तयोबहिर्निश्चारयितव्याः ।ह्वासितश्चायुषःप्रमाणमातु-., रस्यनवर्णयितव्यंजानतापिच । तत्रयत्रोच्यमानमातुरस्यअन्यस्यवाप्युपघातायसम्पद्यते । ज्ञानवतापिचनात्यर्थमात्म- " नोज्ञानेनविकथितव्यम् । आमादपिहि । आतादपिविकत्थमानादत्यर्थमुद्विजन्तिअनेके ॥ १०॥ याद कोई स्त्री अपने पति अथवा अध्यक्षकी आज्ञा विना आमिष अथवा कोई अन्य वस्तुएं देवे ता “लेना चाहिये । जब किसी रोगीको देखनेके लिये जावे तो जो मनुष्य उनके घरमें आनेजानेवाला हो उसके संगमें अथवा पहिले खबर वैद्यके आनेकी देकर जानकार पुरुषके साथ स्वच्छ वस्त्रोंको पहिनेहुए,सिरकों नीचा किये हुए, विना कुछ वोले स्मृतिमान होकर सावधान से पूर्वापरको विचारते हुए बुद्धि और मनसे उत्तम विधिका विचार करतेहुए नोगीके घरमें प्रवेश फरना। फिर घरमें जाकरभी अपने मन,वाणी, बुद्धि और इन्द्रियों को रोगीके उपकार तथा उसके निदान,कारणादि द्वारा रोगके सम्पूर्ण भावोंको जाननेमें लगावे। किन्तु अन्य उनके घरकी किसी वस्तु तथा स्त्री आदिकोंपर न तो दृष्टि डाले और न उनका विचारतक करे । रोगकि कुलके योग्य पुरुषोंको उसके समीपसे बाहर न निकाले।यदि देखे कि रोगीकी आयु बहुत कम शेष है अर्थात् मरजानेवालाहै तब भी अपने मुखसे न कहे क्योंकि इधर उधरसे अपने मरनकी बात सुनकर रोगी शघ्रि वडाकर मृत्युके.वश होजाताहै एवम् उनके कटुम्बी आदि सुनकर भी वडा भारी दुःख मानहैं ।स्वयं बुद्धिमान होते हुए भी और वैद्यकका योग्य ज्ञानी होते. हुए भी अपने मुखसे अपनी प्रशंसा न करे । यदि योग्य बुद्धिमान भी अपने मुखसे अपनी बडाई करने लगजाता है तो उसको सुनकर बहुतसे लोगोंको उसमें: अश्रद्धा उत्पन्न होजातीहै ॥ १० ॥ नचैवहिअस्तिआयुर्वेदस्यपारं, तस्मादप्रमत्तःशश्वदभियोगमस्मिन् गच्छेत् । तदेवकार्यमेवंभयश्चप्रवृत्तस्यसाठेवमनसूयतापरेयोऽप्यगमयितव्यम् ।कृत्स्नोहिलोकोबुद्धिमतामाचा
र्यः शत्रुश्चाबुद्धिमतामेतच्चाभिसमीक्ष्यबुद्धिमताआमित्रस्यापि धन्ययशस्यमायुष्यंपोष्टिकलौकिकमभ्युपदिशतोवचाश्रोतव्यमनुविधातव्यञ्चेति ॥ ११ ॥ . . .
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चरकसंहिता - भा० टी० 1
आयुर्वेद शास्त्रका पार नहीं है । इसलिये सदैव अप्रमत्त होकर इसमें चित्तं लगा योग्यता प्राप्त करे। और यह जानकर कि अमुकस्थलमें अमुकप्रकारसे रोग शान्ति करनाचाहिये इत्यादि वैद्यकशास्त्र के प्रकारों को अपने गुरुके सिवाय और योग्य वैद्योंसे भी सखितारहे तथा निंदा आदिको त्याग देवे । बुद्धिमान् मनुष्य के लिये सम्पूर्ण संसार ही शिक्षा देनेवाला गुरु है और मूखों के लिये शत्रु है। ऐसा विचारकर बुद्धिमान् मनुष्यको चाहिये कि शत्रुका कहाहुआ भी वाक्य सुनना यदि प्रशंसा के योग्य हो, हितकारी हो और यशको बढानेवाला हो तथा आयुवर्द्धक हो, तो उसको विचार कर मान लेना और उसके अनुकूल आचरण करना चाहिये ॥ ११ ॥ अतः परमिदंच्याद्देवताग्निद्विजातिगुरुवृद्धसिद्धाचार्येषुतेसम्यग्वर्त्तितव्यम् । तेषु सम्यग्वर्त्तमानस्यायमग्निः सर्वगन्धरसरत्नबीजानियथेरिताश्च देवताः शिवायस्युः अतोऽन्यथा चावर्त्तमानस्याशिवायेति । एवं ब्रुवतिचाचाय्र्य्येशिष्यस्तथेतिब्रूयात् । यथोपदेशञ्चकुर्वन्नध्याप्योज्ञेयअतोऽन्यथातुअनध्याप्यः अध्यायमध्यापयनहिआचार्य्योयथोक्तैश्चाध्यापन फलैयोगमा तेअन्यैश्वानुक्तैःश्रेयस्करैर्गुणैः शिष्यमात्मानञ्च युनक्ति । इति अध्यापनविधिरुक्तः ॥ १२ ॥
(५९४ )
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इसके अनन्तर आचार्य शिष्यसे यह और कहे कि देवता, आग्न, ब्राह्मण, गुरु, वृद्धजन सिद्ध और आचार्य इनसे सदैव भले प्रकार विनीतभावसे वर्ताव रखना । इन सबके साथ विनयपूर्वक उत्तम वर्ताव करने से यह सब तथा आने और सब प्रकारके गंध रस, रत्नादिक और देवता तथा वृद्ध, सिद्ध, आचार्य आदिक तेरे कल्याणको करेंगे | इसके विपरीत करनेसे तुम्हारा अमंगल होंगा । शिष्य यह सुनकर हाथ जोडकर कहे बहुत अच्छा महाराज ऐसा ही करूंगा तथा जैसे गुरुने उपदेश किया है उसीके अनुसार सम्पूर्ण कार्यों को करे। ऐसा शिष्य पढानेके योग्य है इससे विपरीत - पढानेके योग्य नहीं है । पढानेके योग्य शिष्यको पढाताहुआ आचार्य अध्यापन के संपूर्ण फलों को प्राप्त होता है । शिष्यको चाहिये कि इनके सिवाय अन्य भी जो हितकर कल्याणकारी गुण हों उनको ग्रहण करे । इसप्रकार अध्यापन विधिका कथन कियागया ॥ १२ ॥
'सम्भाषणविधि |
अध्ययनाध्यापनविधिवत्सम्भाषाविधिमतऊर्द्धव्याख्यास्यामः ।
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विमानस्थान-अ. (६९९५) भिषभिषजासहसम्भाषेत । तद्विद्यसम्भाषाहिज्ञानाभियोग
सहर्षकरीभवति । वैशारद्यमपिचाभिनिवर्त्तयतिवचनशक्तिमपिचाधत्तेयशश्चाभिदीपयति। पूर्वश्रुतेचसन्देहवतःपुनःश्रवणा-. 'छुतसंशयमपकर्षति । श्रुतेचासन्देहवतोभूयोऽध्यवसायमभिनिवर्तयति । अश्रुतमपिचकश्चिदर्थश्रोत्रविषयमापादयति । यच्चाचार्य:शिष्यायशुश्रूषवेप्रसंन्नक्रमेणोपदिशतिगुह्यांभिमतमर्थजातम्, तत्परस्परेणसहजल्पपिण्डेनविजिगीषुराहसंह
र्षात्तस्मात्तद्विद्यसम्भाषामभिप्रशंसन्तिंकुशलाः॥ १३ ॥ . इसके उपरान्त अध्ययन और अध्यापन विधिके समान अव संभाषण विधिका कथन करते हैं । वैद्यको वैद्यसे संभाषण करना चाहिये क्योंकि वैद्यसे वैद्य संभाषण करता हुआ आयुर्वेदके संबंध तर्क वितर्ककी सामर्थ्यवाला होजाता है और उसकी ज्ञानशक्ति तथा कथनशक्ति बढजाती है एवम् बोलनेकी चतुराई उत्पन्न होजाताहै यश बढता है, पहिले सुने हुए विषय जिनमें संदेह होगया हो वह परस्पर शास्त्रार्थ द्वारा मुननेसे उनका संशय दूर होजाताहै और संदेह रहित वाक्य भी बोले और •सुने जानेसे निश्चयात्मक और याद होजाते हैं। जो विषय कभी सुनने नहीं भी
आये वह भी शास्त्रार्थमें श्रवणगोचर होजाते हैं । जिन गुह्य विषयोंको आचार्य शिष्यसे प्रसन्न होकर भी क्रमपूर्वक कथन करते हुए इस विचारमें रहता है कि किसी समय योग्य शिष्यको बतलावेंगे या बडे प्रेमी शिष्यको और अत्यन्त शुश्रूषा कर. नेवालेको क्रमसे बतलाताहै वह गुह्य विषय भी शास्त्रार्थके समय एक दूसरेको जीत. नेकी इच्छा करता हुआ और अपने पक्षको पुष्ट करने के लिये तथा अपने पांडि. त्यको दिखाता हुआ झट आवेशमें आ प्रगट करदेता है। इसलिये तद्विद्य संभाषा अर्थात् वैद्यको वैद्यसे वैद्यक विषयमें संभाषण करनेकी बुद्धिमान् प्रशंसा करते हैं ॥१३॥ . . . द्विविधातुखलुतद्विद्यसम्भाषाभवति सन्धायसम्भाषा विगृह्य- . सम्भाषाच । तत्रज्ञानविज्ञानवचनप्रतिवचनशक्तिसम्पन्नेनाकोपनेनअनुपस्कृतविद्यनानसूयकेनअनुनयकोविदेनक्लेश-.
क्षमेणं प्रियसम्भाषणेनचसहसवायसम्भाषाविधीयते। तथावि. ___.. धेनसहकथयन्विन्धःकथयत् पृच्छेदपिचविश्रब्धःच्छतेचा.
.
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(९९६),
चरकसंहिता-मा० टी०। स्मैविश्रब्धायविशदमर्थब्रूयात् । नचनिग्रहभयादुद्विजेत । निगृह्यचैनंनहृष्येत्, नचपरेषुविकत्थेत। नचमोहादेकान्तयाहीस्यात्, नचाप्रस्तुतमर्थमनुवर्णयेत् । सम्यक् चानुनयेनानुनीयेत, अनुनयाच्चपरंतत्रचावहितःस्यादित्यनुलोमसम्भाषाविधिः ॥१४॥ वह तद्विद्य संभाषा दो प्रकारकी होतीहै ।१ संधायसंभाषा ।२ विगृह्यसभाषा। उनमें ज्ञान और विज्ञानयुक्त वचन और प्रतिवचनमें सम्पन्न क्रोधरहित, बहुत विद्याको जाननेवाला, निंदारहित,नम्रतायुक्त,कष्टको सहनेवाला, एवम् प्रिय भाषण करनेवाला जो विद्वान हो उसके साथ ऐसे ही गुणोंवाला योग्य वैद्य मिलकर मित्रताके भावसे प्रीतिपूर्वक संभाषण करे। ऐसे वैद्यके साथ शास्त्रार्थ करते हुए शान्तिपूर्वक भाषण करे और शान्तस्वभावसे उसके प्रश्नोंका उत्तर देवे तथा स्पष्ट अर्थों वाले शब्दोंको उच्चारण करे और हारनेके भयसे उद्विग्न न होवे एवम् उसको जीत. कर मनमें प्रसन्न भी न होवे तथा दूसरोंके पास कथन न को और तर्क वितर्कके समय मोहसे उन्मत्त न होजाय अर्थात् एकान्तग्राही न बने एवम् झूठे तथा जिनकी आवश्यकता न हो ऐसे शब्दोंको उच्चारण न करे और दोनों आपसमें नम्रतापूर्वक प्रेमसे भाषण करें। इस प्रकारको प्रेममयी संभाषाको अनुलोम (संधाय )संभाषा कहतेहैं ।। १४ ॥
विगृह्यसंभाषणविधि । अतऊर्द्धमितरेणसहविगृह्यसम्भाषेतश्रेयसायोगमात्मनःपश्यन् । प्रागेवचजल्पाजल्पान्तरंपरावरान्तरपरिषद्विशेषांश्च सम्यक्परीक्षेतसम्यक्परीक्षाहिबुद्धिमतांकार्यप्रवृत्तिनिवृत्तिकालौचशंसति । तस्मात्परीक्षामतिप्रशंसन्तिकुशलाः । परीक्षमाणस्तुखलुपरावरान्तरमिमाञ्जल्पकगुणाञ्छेयस्करांश्च दोषवतश्चपरीक्षेतसम्यक् । तद्यथा-श्रुतंविज्ञानंधारणप्रतिभानवचनशक्तिरित्येतान्गुणाञ्छ्रेयस्करानाहुः । इमान्पुनर्दोपवतःकोपनत्वमवैशारयंभीरुत्वमनवहितत्वमिति । एतान्दयानपिनुणान्गुरुलाघववतःपरस्यचैवात्मनश्चतोलयेत् ॥ १५॥
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_ विमानस्थान-अ०८. १९७) इसके उपरान्त विगृह्य संभाषाका कथन करतेहैं । जब वैद्य दूसरे वैद्योंसे अपने कल्याण अर्थात् जीतनेकी इच्छासे एवम् दूसरे वैद्यको पराजय करनेकी इच्छासे शास्त्रार्थ करना चाहे तो प्रथम संभाषण करनेसे पहिले ही परावरान्तर ( अपना और दूसरे वैद्यका शास्त्रमें बल) तथा परिषद् (सभा) विशेषको उचित रीतिपर परीक्षा कर लेवे । प्रथम भले प्रकार परीक्षा करलेनाही बुद्धिमानोंको कार्यमें प्रवृत्त होनेका तथा निवृत्त होनेका समय दिखादेताहै । इसलिये प्रथम परीक्षा करलेनेकी प्रशंसा करतेहैं । परीक्षा करतेहुए अपने और दूसरेके शास्त्रबलमें अन्तरको तथा जल्प (जीतनेकी इच्छासे शास्त्रार्थ ) करनेवाले के गुणोंको उसके और अपने कल्याणकारी भावोंको एवम् दोषोंको भलेप्रकार परीक्षा करे । वह गुण और दोष इस प्रकार होतेहै । जैसे श्रुत, विज्ञान, धारणा, स्फुरणा, तेजस्विता, वाक्यशक्ति यह शास्त्रार्थ करनेवालके श्रेयस्कर अर्थात् कल्याणकारी गुण कहेजाते हैं। क्रोधित होना, बोलनमें.चतुराई न होना, डरना, असावधान रहना यह शास्त्रार्थ करनेवालेके दोष होतेहैं। प्रथम अपने और दूसरेके इन दोनों प्रकारके गुणदोषोंको बुद्धिमें तौल लेवे ॥ १९ ॥ . तत्रत्रिविधःपरःसम्पद्यते,प्रवरःप्रत्यवरःसमोवागुणविनिक्षेपतो . नत्वेवकात्स्यै न ॥ १६ ॥ . प्रतिवादी तीन प्रकारका होता है । १ अपनेसे उत्तम गुणवाला । २ अपनेसे हीन गुणवाला।३ अपनेसे समान गुणवाला । यह तीन प्रकारका भेद केवल गुण निक्षेपसे ही कहा है संपूर्ण विषयोंमें नहीं ॥ १६ ॥
सभाके भेद । परिषच्चखलुद्विविधा,ज्ञानवतीमूढपरिषञ्च, सैवद्विविधासतीत्रिविधापुनरनेनकारणविभागेनसुहृत्परिषत्, उदासीनपरिषत्प्रतिानिविष्टपरिषञ्चेति ॥ १७॥ परिषद् अर्थात् सभा दो प्रकारकी होती है । १ ज्ञानवती सभा । २ मूढसभा । यह दो प्रकारकी होतीहुई भी इस प्रकार कारणभेदसे प्रत्येक सभा तीनतीन प्रका. रकी होती है । जैसे-सुहृद परिषद् ( अपने मित्रोंकी सभा) उदासीन परिषद् (सामान्य पुरुषोंकी संभा) और प्रतिनिविष्ट (पंडितों अथवा बडे पुरुषोंकी)
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प्रतिवादीके भेद ।
परिषद् ॥ १७॥
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चरकसंहिता - भा० टी०- 1
तंत्रप्रतिर्निविष्टायां परिषदिज्ञानविज्ञान वचन प्रतिवचनशक्तिसम्पन्नायां मूढायां वा न कथञ्चित् केनचित् सह जल्पोंविधीयते । मूढायान्तु सुहृत्परिषदि उदासीनायां वा ज्ञानविज्ञानमन्तरेणाप्यदीप्तयशसा महाजन द्विष्टेन सहजल्पोविषयते । तद्विधेनचसहकथयताआविद्वदीर्घसूत्रसंकुलैर्वाक्य दण्डकैः कथयित - व्यम् । अतिहृष्टंमुहुर्मुहुरुप हसता परंनिरूपयताचपरिषदमाकारैब्रुवतश्चास्यवाक्यावकाशोनदेयः । काष्ठशब्दञ्चनुवन्वक्तव्यो नोच्यतइति । अथवा पुनर्ही नातेप्रतिज्ञेतिपुनश्चाह्वयमानः प्रतिवक्तव्यः । परिसंवत्सरंभवानशिक्षतांतावत् ॥ अथवा पर्याप्त - मेतावन्ते । सकृदेवहिपारिक्षेपिकंनिहितंनिहतमाहुरिति । नास्ययोगः कर्त्तव्यः कथञ्चिदप्येवं श्रेयसास हविगृह्यवक्तव्यमित्याहुरेके । नत्वेवंज्यायसासहविग्रहप्रशंसन्ति कुशलाः ॥ १८॥
(५९८ )
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ज्ञान, विज्ञान, प्रतिवचन, शक्तिसंपन्न प्रतिनिविष्ट परिषद् में अर्थात अपनेसे बहुत बडे २ विद्वानों की सभामें तथा मूखाँकी सभामें किसीसे किसी प्रकारका जल्प करना उचित नही है | सुहृद्सभा और उदासीन सभा यदि मूढ भी हो तो उसमें कोई दूसरा वैद्य अपने ऊपर जीतनेकी इच्छासे आवे तो ज्ञान, विज्ञानके विना भी अपने यशकी इच्छा से उसको जीतने के लिये शास्त्रार्थ करे । ऐसे पुरुषके साथ संभाषण करते हुए कठिन तथा दीर्घ संकुलीदार गूढार्थ सूत्रोंद्वारा पेचीदा बातों से उसको जीतनेका यत्न करे और अति प्रसन्न मुख होकर हंसता हुआ प्रतिवादीसे मसखरी करता हुआ सभाके आकारको जानकर उसको बोलनेका अवकाश न दे और यदि वह कठिन शब्दों को वोले तो उसको कहे भाई अन्टसन्ट क्या बकते हो फिर तो कहो क्या कहते हो याद वह उत्तर देवे तो कहे कि भाई ऐसा मत कहो इसमें तो तुम्होर ही पक्षका खण्डन होगया अभी तुम एकवर्ष और पढो फिर आकर शास्त्रार्थ करना अथवा ऐसा कहे कि बस हमने जान लिया आपको जो कुछ आता है। हमने आपकी भले प्रकार परीक्षा करली है इतना ही बहुत है। यदि वह अपने ऊपर कोई आक्षेप करे तो झट कठिन संस्कृतः बोलकर यह लो तुम्हारा यह पक्ष भी खण्डन होगया। मित्र अभी और पाढये । परन्तु इस प्रकारका प्रयोग विद्वानोंकी सभामें अथवा किसी भले पुरुषके साथ नहीं करना चाहिये। इस प्रकारके संभाषण,
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विमानस्थान-अ०८.. करनेका किसी २ आचार्यका मृत है। हमारे मतमें यह अन्याय है । बुद्धिमानको इस प्रकारका शास्त्रार्थ पंडितोंके सन्मुख और किसी योग्य पुरुषसे नहीं करना. चाहिये ऐसा बुद्धिमानोंका मत है ॥ १८॥
प्रत्यवरेणतुससमानाभिमतेनवाविगृह्मजल्पतासुहृत्परिषदिकथायतव्यम् । अथवाप्युदासीनपरिषदिअनवधानश्रवणज्ञानविज्ञानोपधारणवचनशक्तिसम्पन्नायांकथयताचावहितेनपरस्यसाद्गुण्यदोषबलमवेक्षितव्यम् । समवेक्ष्यचयनश्रेष्ठमन्येतनास्यतत्रजल्पोजयत्अनाविष्कतमयोगंकुर्वन । यत्रत्वेनमवरमन्येततत्रैवैनमाशुनिगृह्णीयात् ॥१९॥ सुहृद् सभामें हीन समान और उत्तम गुणवालोंसे अर्थात् तीनों प्रकारके पुरुषों से शास्त्रार्थ कर लेना अनुचित नहीं । अथवा उदासीन सभामें अर्थात् जिस सभामें अप्रमत्त, श्रवण, ज्ञान, विज्ञान, उपधारण और वचन शक्ति सम्पन्न पुरुष बैठे हुए: हों ऐसी सभामें प्रतिवादीके सद्गुणों और दोषोंको सावधानीसे परीक्षा कर लेवे। यदि प्रतिवादी गुणों में अपनेसे बलवान हो तो उससे शास्त्रार्थ न करे और एकाधा शास्त्रकी बात इस प्रकार कहकर चुप होजावे जिससे सभाके मनुष्य इसको प्रति-- वादार्स हीन न समझें यदि प्रतिवादी गुणोंमें अपनेसे हीन प्रतीत हो तो उसको झट शास्त्रार्थमें दबालेवे ॥ १९॥
तत्रनुखल्विमेप्रत्यवराणामाशुनिग्रहेभवन्तिउपायाः। तद्यथा,, . श्रुतहीनंमहतासत्रपाठेनाभिभवेत्विज्ञानहीनंपुन:कष्टशब्देन
वाक्येन, वाक्यधारणाहीनमाविद्धदीर्घसंकुलैवाक्यदण्डकैः, . प्रतिभाहीनंपुनर्वचनेनानेकविधानानेकार्थवाचिना,वचनशक्तिहीनमक्तिस्यवाक्यस्याक्षेपेण, आविशारदमपत्रपणेन, कोपनमायासनेन, भीरुवित्रासेन, अनवहितंनियमनेनइत्येवमेतै-- रुपायैरवरमभिभवेत् ॥ २० ॥ विगृह्यकथयेयुत्यायुक्तञ्चन
निवारयन् । विगृह्यभाषातीवहिकेषाञ्चिद्बोहमावहेत् ॥ २१ ॥ ... नाकार्यमस्तिकुद्धस्यनावाच्यमपिविद्यतोकुशलानाभिनन्द
न्तिकलहसमितोसताम् ॥ २२ ॥ . . . . . . ....
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चरक संहिता - भा० टी० ।
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(६०० )
शास्त्रार्थ में प्रतिपक्षीको जीतने के लिय ये उपाय हैं। जैसे यदि वह शास्त्रमें होन हं तो उसके आगे वडे २ सूत्र और बहुतसा संस्कृतका पाठ उच्चारण करे। यदि वह विज्ञान शक्तिमें हीन हो तो कठिन शब्दों से उसको जीते। यदि उसमें वाक्य धारण करनेकी शक्ति न हो तो बंधेहुए संकुलीदार बहुत लम्बे २ दण्डकवाक्यों द्वारा शास्त्रार्थ करे। यदि वह तेजहीन और स्फुरणाहीन हो तो अनेक प्रकारसे अनेकार्थ शब्दों द्वारा पराजय करे । और वक्रताशक्तिहीनको उपरोक्त वाक्योंके आक्षेपद्वारा अर्थात् एक पंक्तिपर दूसरी पंक्ति बोलबोलकर मुग्ध वनादेवे । चातुर्य रहितको लज्जित करनेवाले वाक्योंद्वारा पराजित करे । यदि वह काधी हो तो उसके आगे इसप्रकार के कटाक्ष करे जिससे वह बोलना ही छोड देवे । डरनेवालेको शास्त्रीय धर्षणाद्वारा परास्त करे । असावधानको नियममें फंसाकर परास्त करे। इन उपायोंद्वारा प्रतिवादीको पराजय करनाचाहिये ॥ २० ॥ शास्त्रार्थ करते समय युक्तियुक्त वाक्योंको बोलना चाहिये अर्थात् अन्टसन्ट झूठा पक्ष न लेवे औरं प्रतिपक्षीके कहे हुए युक्तिसंगत सच्चे वाक्यको भी न माननेका झगडा न करे क्योंकि परस्पर जीतने की इच्छा से शास्त्रार्थ करते समय बहुत से पुरुषों के चित्तमें तीव्र द्रोह उत्पन्न हो जाता है। कोधित मनुष्य के लिये कुछ भी, अवाच्य और अकार्य नहीं होता अर्थात् क्रोधमें भरा हुआ मनुष्य जो कुछ आगे आये सो उचितानुचित वक देता है और लडाई आदि वृथा उपद्रव उत्पन्न होजाता है। इसलिये बुद्धिमान् मनुष्य कलहको अच्छा नहीं समझते क्योंकि कलह करना सज्जन पुरुषोंका काम नहीं है॥ २१ ॥ २२ ॥ एवंप्रवृत्तेतुवादेप्रागेववादात्तावदिदं कर्त्तयतेत । सन्धायपरिषदाऽयनभूतमात्मनः प्रकरणमादेशयितव्यम् । यद्वापरस्य भृशदुर्गस्यात् । पक्षमथवापरस्य भृशंविमखमानयेत् । परिषदिचोपसंहितायामशक्यमस्माभिर्वक्तुमितितूष्णीमासीदेषैव चते परिषद्यथेष्टंयथायोग्यंयथाभिप्रायंवा दंवादमर्य्यादाञ्चस्था • पयिष्यतीत्युक्ता ॥ २३ ॥
जब प्रतिवादीसे शास्त्रार्थ करनेके लिये प्रवृत्त हो तो शास्त्रार्थ करनेस प्रथम ही सभामें जो सभासद बैठे हों उनकी अनुमतिसे जिस विषयमें अपना अभ्यास और वल हो उस विषय में शास्त्रार्थ करना प्रारम्भ करना चाहिये अर्थात् सभासदोंकी. अनुमतिसे अपना पूर्वपक्ष करना चाहिये अथवा ऐसे पक्षको छेडे जो प्रतिवादीको अत्यन्त कठिन प्रतीत हो अथवा पूर्वपक्ष द्वारा प्रतिवादीको अत्यन्त विमुख बनादेवे जब देखे कि यह समासे विमुख है, अथवा सभा उससे विमुख हो तब सभामें
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• विमानस्थान-अ०८.
(६०१) इस प्रकार प्रतिवाद उठावे कि मैं आपसे बोलनेकी ताकत नहीं रखता यह सज्जन पुरुषोंकी सभा ही तुम्हारे अभिप्रायके अनुसार अथवा जैसा उचित, समझेगी वैसा हमारे तुम्हारे वादकी मर्यादाको स्थापनकर देगी । यह कहकर बुष्ठ 2 जाय ॥ २३ ॥
वादमर्यादाके लक्षण । तत्रेदंवादमर्यादालक्षणंभवतिइदंवाच्यमिदमवाच्यमेवसतिपु-DEO राजितोभवतीति इमानिखलुपदानिभिषग्वादमार्गज्ञानार्थमधिगम्यानिभवन्ति । तद्यथा वादो, द्रव्यं गुणाः, कर्म, सामान्यं, विशेषः, समवायः, प्रतिज्ञा, स्थापना, प्रतिष्ठापना, हेतुः, उपनयः, निगमनम्, उत्तरं, दृष्टान्तः, सिद्धान्तः, शब्दः, प्रत्यक्षम्, अनुमानम्, औपम्यम्, ऐतिचं, संशयः, प्रयोजनं, सव्यभिचारं, जिज्ञासा, व्यवसायः, अर्थप्राप्तिः, :. सम्भवः, अनुयोज्यम्, अननुयोज्यम, अनुयोगः, प्रत्यनु. योगः, वाक्यदोषः, वाक्यप्रशंस., छलम्, अहेतुः,अतीतकालम्, उपालम्भः; परिहारः, प्रतिज्ञाहानिः, अभ्यनुज्ञा, हे. त्वन्तरम्, अन्तरं, निग्रहस्थानमिति ॥ २४ ॥ वाद प्रतिवादमें अर्थात शास्त्रार्थ करते समय प्रथम शास्त्रार्थकी मर्यादाको स्थापितकर लेना चाहिये कि यह बात कहना और यह नहीं कहना । इसप्रकार मर्यादामें बांध लेनेसे प्रतिवादी परास्त होजाताहै । वैद्यको शास्त्रार्थका मार्ग जाननेकै लिये इन आगे कहेहुए वाक्योंको भलीप्रकार याद करलेना चाहिये । जैसे-वाद, द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष, समवाय, प्रतिज्ञा, स्थापना, प्रतिष्ठापना, हेतु, उपनय, निगमन, उत्तर, दृष्टांत, सिद्धांत, शब्द, प्रत्यक्ष, अनुमान,
औपम्य, ऐतिह्य. संशय, प्रयोजनं, सव्यभिचार, जिज्ञासा, व्यवसाय, अर्थप्राप्ति, संभव, अनुयोज्य, अननुयोज्य, अनुयोग, प्रत्यनुयोग, वाक्पदोष, वाक्यप्रशंसा, छल, अहेतु, अतिकाल, उपालंभ, परिहार, प्रतिज्ञाहानि, अभ्यनुज्ञा, हेत्वंतर, अर्थातर, निग्रहस्थान । इन सब शब्दाथाको यथोचित गीतिपर जानलेना चाहिये। आगे इन प्रत्येकका कथन करते हैं ॥ २४॥ . १ वादशन्देन चेह विगृह्य पक्षप्रतिपक्षवचनमात्रमुच्यते, सन्यायसम्भाषयैव तत्त्वबुभुत्सोवादउक्त:
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(६०२)
वरकसंहिता - भा०टी० ।
वादका लक्षण ।
तत्र वादोनामयत्परस्परेणसहशास्त्रपूर्वकं विगृह्यकथयति । स . वादोद्विविधः संग्रहेण, जल्पवितण्डाच । तत्रपक्षाश्रितयोर्वच नंजल्पः । जल्पविपर्य्ययोवितण्डा । यथैकस्यपक्षः पुनर्भवोऽस्तीतिनास्तीत्यपरस्य । तौच स्वपक्षस्वहेतुभिः स्वस्वपक्ष स्थापयतः परपक्षमुद्भावयतः एष जल्पोजल्पविपर्य्ययोवितण्डा | वितण्डानामपरपक्षेदोषवचनमात्रमेवमेव ॥ २५ ॥
जीतने की इच्छा से शास्त्रार्थंमें क्रमपूर्वक परस्पर तर्क वितर्क करनेको वाद कहते हैं । उसवाद के संग्रहक्रमसे दो भेद हैं । १ जल्प । २ वितण्डा । उनमें अपने पक्षको लेकर शास्त्रसम्मत उक्तिद्वारा अपने २ पक्षके जयकी इच्छासे संभाषण करना जल्प कहाता है जल्पसे विपरीत अर्थात् अपने पक्षको स्थापन न करके दूसरक पक्ष में दोष देते जानेको वितण्डा कहते हैं । जैसे- एकका पक्ष है कि पुनर्जन्म होता है दूसरेका पक्ष है कि पुनर्जन्म नहीं होता । यह दोनों अपने २ पक्षको स्थापन करते हुए और हेतुओं द्वारा पुष्ट करते हुए परस्पर दूसरे के पक्ष में दोष दिखातेहुए जो शास्त्रार्थ होता है उसको जल्प कहते हैं। इससे विपरीत वितण्डा होती है । वितण्डा केवल दूसरे के पक्ष में दोष निकालनेका ही नाम है अर्थात् दूसरेमें दोष निकालने के सिवाय अपना कोई खास पक्ष न रखना वितण्डा कहाती है ॥ २५ ॥ द्रव्यादि लक्षण | द्रव्यगुणकर्मसामान्यविशेषसमवायाः स्वलक्षणैः श्लोकस्थाने
पूर्वमुक्ताः ॥ २६ ॥
द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष और समवाय इन सबको इनके लक्षणोंकें द्वारा पहिले सूत्रस्थानमें कथन कर चुके हैं ॥ २६ ॥
अथ प्रतिज्ञा । प्रतिज्ञानामसाध्यवचनंयथानित्यः पुरुषइति ॥ २७ ॥
अब प्रतिज्ञादिकोंका कथन करते हैं । साध्यवचनका कथन करना प्रतिज्ञा कहा जाता है। जैसे- पुरुष नित्य है इस जगह किसी हेतु आदिसे प्रथम जिस बातकों सिद्ध करना हो उसको दृढतासे कथन करना प्रतिज्ञा कहता है। इस स्थानमें" पुरुष " नित्य है" । इस वाक्यके कथन करनेको प्रतिज्ञा कहते हैं ॥ २७ ॥
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विमानस्थान-अ०८
(६०३ अथ स्थापना। स्थापनानामतस्याएवप्रतिज्ञाया हेतुदृष्टान्तोपनयनिगमैःस्था- . पना, पूर्वहिप्रतिज्ञा, पश्चात्स्थापनाकिंह्यप्रतिज्ञातस्थापयिष्यतियथानित्यःपुरुषइतिप्रतिज्ञाहेतुरकृतकत्वादिति । दृष्टान्तोयथाकाशंतच्चानित्यम् । उपनयोयथाचाकृतकमाकाशंतथापुरुषः। निगमनंतस्मान्नित्य इति ॥२८॥ पाहले कीहुई प्रतिज्ञाको-हेतु, दृष्टांत, उपमा और निगमन द्वारा सिद्ध करना स्थापना कहाता है । पहिले प्रतिज्ञा कहकर पीछे उसको स्थापना किया जाता है क्योंकि प्रतिज्ञा किये विना स्थापना होही नहीं सकती । जैसे पुरुष नित्य है यह प्रतिज्ञाकी अकृत होनेसे अर्थात् किसीका बनायाहुआ न होनेसे, यह हेतु हुआ । जैसे-आकाश अकृत होनेसे अर्थात् किसीका बनाया हुआ न होनेसे नित्य है, यह दृष्टान्त हुआ। जैसे-आकाश किसीका बनाया न होनेसे नित्य है उसी प्रकार पुरुष भी किसीका बनाया न होनेसे नित्य है यह उपनय हुवा ॥ इसालये पुरुष नित्यहै यह निगमन हुआ ॥ २८ ॥
अथ प्रतिष्ठापना । प्रतिष्ठापना नाम या परप्रतिज्ञायाःप्रतिविपरीतार्थस्थापना। यथाअनित्यपुरुषइतिप्रतिज्ञाहेतुन्द्रियकत्वात् । दृष्टान्तोयथा घटऐन्द्रियक संचानित्यः। उपनयोयथाघटस्तथापुरुषःतस्मादनित्यइति ॥ २९॥ जो पर प्रतिज्ञासे विपरीत अर्थवाली प्रतिज्ञाका स्थापन करना है उसको प्रतिष्ठा पना कहते हैं । जैसे-पुरुष नित्य नहीं अनित्य है यह प्रतिज्ञा हुई । इसके अनित्य होनेमें हेतु यह है कि यह इन्द्रियों द्वारा प्रत्यक्ष होता है । दृष्टान्त यह है कि जैसेइन्द्रियों द्वारा घटका ज्ञान होताहै सो घट अनित्य है। जैसे घट अनित्य है वैसेही पुरुष भी आनित्य है यह उपमान हुआ । इसालये पुरुष अनित्य है यह निगमन हुआ ॥ २९ ॥
. अथ हेतुः। हेतुर्नामोपलब्धिकारणंतत्प्रत्यक्षमनुमानमैतिह्यमौपम्यमित्येभिहेतुभिर्यदुपलभ्यतेतत्तत्त्वम् ॥ ३०॥ . . १ हेतुअन्दनात्र लिंगप्रवाहकाणि प्रत्यक्षादिप्रमाणान्येव। . ...
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(.६०४ )
चरकसंहिता - भा० टी० ।
जिसके द्वारा उपलब्धि हो उसको हेतु कहते हैं । हेतुओं द्वारा जो प्राप्त हो वह -तत्त्व है । वह तत्त्व - प्रत्यक्ष, अनुमान, ऐतिह्य और उपमान द्वारा प्राप्त होता है ॥ ३० ॥ उपनयोनिगमनञ्चोक्तंस्थापनाप्रतिष्ठापनाव्याख्यायाम् ॥ ३१ ॥
उपनय अर्थात् उपमान और निगमनको स्थापनाको व्याख्यामें कथनकर चुके हैं ॥ ३१ ॥
अथ उत्तरम् । उत्तरंनामसाधम्म्योपदिष्टेवाहेतौवैधर्म्यवचनंवैधयोंपदिष्टेवा साधर्म्यवचनं यथाहेतुसधर्माणोविकाराः शीतकस्या हव्याधेर्हेतुसाधर्म्यवचनंहिमशिशिरवात संस्पर्शाइतिब्रुवतः परोब्रूयाद्धेतुविधर्माणोविकारायथाशरीरावयवानां दा हौष्ण्यकोथ प्रपंचनेहेतुवैधम्र्म्य हिमशिशिरवातसंस्पर्शाइति । एतत्सविपर्य्ययमुत्तरम् ॥ ३२ ॥
साधर्म्य में कहे हुए हेतुसे विपरीत हेतुको दिखाना अर्थात् उससे विपरीत वचनको कहना वैधर्म्यसे कहे हुए हेतुओंके विपरीत साधर्म्य वचनको कथन करना उत्तर कहा जाता है जैसे- किसने कहा कि जो धर्म हेतुके होते हैं व्याधिके भी वही धर्म होते हैं। जैसे- शीतसे उत्पन्न हुई वातव्याधिक जो धर्म होते हैं उसके हेतुभूत हिम, शारीर और वायुके संस्पर्शक भी वही धर्म होते हैं। इसप्रकार कहतेहुएको प्रतिवादी कहे कि जिस हेतुसे व्याध उत्पन्न होती है उस हेतुके जो धर्म होते हैं वह व्याधिके नहीं होते क्योंकि देखने में आता है कि दाह, उष्णता, कोथ (सडन ) शीतके धर्म न होनेपर भी शरीर के अवयवोंमें दाह, उष्णता आदि उत्पन्न करते हैं । और उन दाह उष्णतादिकोंके हिम शिशिर आदि विधमों गुणवाले कारण होते हैं । . इसलिये हेतु और व्याधिके गुणों में साधर्म्यता नहीं होती । इस प्रकार विपरीतवा: क्र्यके कथन करनेको "उत्तर" कहते हैं ॥ ३२ ॥
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अथ दृष्टान्तः ।
दृष्टान्तोनामयत्र मर्खविदुषां बुद्धिसाम्यं योवर्ण्यवर्णयति यथाग्निरुष्णो द्रवमुदकंस्थिरापृथिवीआदित्यः प्रकाशक इतियथावादित्यःप्रकाशकस्तथासांख्यवचनंप्रकाशकमिति ॥ ३३ ॥
१- अत्र उचरशब्देन - जोत्युं तरमु तराभासमतिम् । " साधम्येवैषम्यम्यां प्रत्यवस्थानं जातिः "
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विमानस्थान - अ० ८. .
(६०५
- जिस कथनमें मूर्ख और विद्वानोंकी बुद्धिकी साम्यता हो अर्थात् जिसका मूख और पंडित दोनों एकरूपसे मानजांय इस प्रकारके कथनको दृष्टान्त कहते हैं जैसेअनि उष्ण है, जल पतला है, पृथ्वी स्थिर होती है, आदित्य प्रकाशमान है अथवा यों कहिये जैसे आदित्य प्रकाशमान है वैसे ही सांख्यके वचन भी प्रकाशको करनेवाले हैं । इसको दृष्टान्त कहते हैं ॥ ३३ ॥
अथ सिद्धान्तः ।
सिद्धान्तो नामयः परीक्ष कैर्बहुविध परीक्ष्य हेतुभिः साधयित्वा स्थाप्यतेनिर्णयःससिद्धान्तः । सचोक्तश्चतुर्विधः । सर्वतन्त्रसिद्धान्तः। प्रतितन्त्रसिद्धान्तोऽधिकरणसिद्धान्तोऽभ्युपगमसिद्धान्त इति ॥ ३४ ॥
जो परीक्षकोंने अनेक प्रकारसे परीक्षा कर हेतुओंद्वारा साधन करके स्थापन किया हो अर्थात् निर्णय किया हो उसको सिद्धान्त कहते हैं। वह सिद्धान्त - सर्वंतंत्र सिद्धान्त, प्रतितंत्र सिद्धान्त, अधिकरण सिद्धान्त और अभ्युपगमसिद्धान्त इन भेदोंसे चार प्रकारका कहा है ॥ ३४ ॥
सर्वतन्त्रसिद्धान्तः ।
तत्र सर्वतन्त्रसिद्धान्तानामतस्मिंस्तस्मिन् सर्वस्मिंस्तन्त्रेतत्प्रसिद्धंसन्तिनिदानानिसंतिव्याधयः सन्तिसिद्धयुपायाः साध्यानामिति ॥ ३५ ॥
उनमें जो सिद्धान्त संपूर्ण तंत्रों (ग्रंथों) में एक समान हो और उसको सब मानते हों उसको सर्वत्र सिद्धान्त कहते हैं । जैसे - व्याधिका कारण और व्याधि तथा साध्यव्याधिक चिकित्सा इसको सब तन्त्रों में कहा है और सब मानते हैं । इसलिये यह सर्वतंत्र सिद्धान्त है ॥ ३५ ॥
प्रतितन्त्रसिद्धान्तः । प्रतितन्त्रसिद्धान्तानामतस्मिंस्तस्मिंस्तन्त्रेतत्तत्प्रसिद्धयथान्यत्राष्टौरसाः षडन्यत्र । पञ्चेन्द्रियाणियथान्यत्र षडिन्द्रियाणि । वातादिक्कताःसर्वविकारायथान्यत्र वातादिकता भूतकृताश्च प्रसिद्धाः ॥ ३६ ॥
प्रतितंत्र सिद्धान्त उसको कहते हैं. जो एक. २. तंत्रमें अपने अपने रूपसे प्रसिद्ध हो और उसको वही वही तंत्रकार मानते हों। जैसे- किसीके मतमें रस आठ प्रकारक
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चरकसंहिता-भा० टी०। हैं आर कोई रसको छाप्रकारका कहते हैं एवम् कोई कहते हैं कि इन्द्रियें पांच हैं और किसी तंत्रमें इन्द्रियोंको छः माना है । कोई मानता है कि संपूर्ण व्याधियें वातादिकोस उत्पन्न होती हैं और किसीके मतमें संपूर्ण रोग भूत प्रेत आदिकोंके किये होते हैं इस प्रकार अपने २ तंत्रमें माने हुए सिद्धान्तको प्रतितंत्र सिद्धान्त कहते हैं ॥ ३६॥
अधिकरणसिद्धान्तः । अधिकरणसिद्धान्तोनामसयस्मिन्नधिकरणेसंस्तूयमानेसिद्धान्यन्यान्यपिआधिकरणानिभवन्ति । ययानमुक्तःकम्मा ब'न्धिकंकुरुतनिस्पृहत्वादितिप्रस्तुतोसद्धाःकर्मफलमोक्षपुरुष
प्रेत्यभावाभवन्ति ॥ ३७॥ किसीएक पक्षको लेकर निर्णय करते करते वीचमें किसी अन्य विषयका निश्चय होजाना अधिकरण सिद्धान्त कहाताहै । जैसे-जिन मनुष्योंकी मोक्ष हो चुकी है। वह निस्पृही मनुष्य आगेको होनेवाले जन्मके अनुबंध करनेवाले कर्मको नहीं करते क्योंकि वह आगेके लिये अपने किसी कर्मके फलकी इच्छा नहीं रखते इस प्रका.. रके प्रस्तावमें कर्मका फल, मोक्ष,पुरुष और उसके होनेवाले जन्मादिकोंका निश्चय होजाना यह अधिकरण सिद्धान्त कहा जाता है ॥ ३७ ॥
अभ्युपगमसिद्धान्तः। अभ्युपगमसिद्धान्तोनामयमर्थमसिद्धमपरीक्षितमनुपदिष्टमहेतुकंवावादकालेऽभ्युपगच्छन्तिभिषजः। तद्यथा-द्रव्यंनप्र. धानमितिकृत्वावक्ष्यामः। गुणःप्रधानम् इति कृत्वावक्ष्यामइ
त्येवमादिश्चतुर्विधः सिद्धान्तः ॥ ३८ ॥
शास्त्रार्थके समय किसी असिद्ध विना परीक्षा किये तथा आप्तजनोंके विना 'उपदेश किये अर्थको बिना ही हेतुसे थोडी देरके लिये मानलेना अभ्युपगम "सिद्धान्त कहा जाता है। जैसे-द्रव्य प्रधान नहीं है इसका कथन करते हुए गुण प्रधान है यह मानकर फिर अपने असली कथनपर आजाना अभ्युपगम सिद्धान्त' कहाता है । इस प्रकार चतुर्विध सिद्धान्त होते हैं ॥ ३८ ॥
शब्दः । शब्दोनामवर्णसमाम्नायःसचतुर्विधःदृष्टार्थश्चादृष्टार्थश्चसत्य..श्वानृतश्चेति । तत्रदृष्टार्थस्त्रिभिहेतुभिर्दोषाःप्रकुप्यन्तिषड्भि-.
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- विमानस्थान - अ० ८.
- रुपक्रमैश्चप्रशाम्यन्ति । श्रोत्रादिसद्भावेशब्दादिग्रहणामात अदृष्टार्थः पुनरस्तिप्रेत्यभावोऽस्तिमोक्षइति सत्योनामयथार्थ: भूतः । सन्त्यायुर्वेदोपदेशाः । सन्त्युपायाः साध्यानाम्।सन्त्या-:.: रम्भफलानीति । सत्यविपर्य्ययाच्चानृतम् ॥ ३९ ॥
शब्द- इस स्थान में वर्णके उच्चारणको कहते हैं। वह शब्द दृष्टार्थक, अदृष्टार्थक, सत्य और अनृत इन भेदोंसे चार प्रकारका है । दृष्टार्थक उस शब्दको कहते हैं जो स्पष्ट और प्रत्यक्ष अर्थको बोध करे जैसे - प्रज्ञापराधादि तीन हेतुओंसे तीन दोष -कुपित होते हैं और लंघनादि छः प्रकार के उपक्रमोंसे शान्त होते हैं । कर्णादि द्वारा शब्दादिका ग्रहण होना अदृष्टार्थक शब्द कहा जाता है । जैसे- फिर जन्म होता है, ज्ञानसे मोक्ष होजाता है यह अदृष्टार्थक शब्द है । यथार्थ शब्दको सत्य शब्द कहते हैं जैसे- आयुर्वेद के उपदेश सत्य हैं साध्य रोग उपाय द्वारा शान्त हो सकते हैं, आरम्भका फल अवश्य होताहे । इन सबको सत्य शब्द कहते हैं । सत्यसे विपरीत अर्थात् मिथ्या शब्दको अनृत शब्द कहते हैं ।। ३९ ।।
१९६०७)
अथ प्रत्यक्षम् । प्रत्यक्षनामतद्यदात्मनापञ्चेन्द्रियैश्चस्वयमुपलभ्यते । तत्रात्मप्रत्यक्षाः सुखदुःखेच्छाद्वेषादयः । शब्दादयस्त्विन्द्रियप्रत्यक्षाः॥४०॥ जो विषय आत्मद्वारा अथवा पंचेन्द्रिय द्वारा निश्चयात्मकरूपसे जाना जाय उसको प्रत्यक्ष कहते हैं । सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, आदिक आत्माके प्रत्यक्ष हैं - और शब्दादिक इन्द्रियोंके प्रत्यक्ष हैं ॥ ४० ॥
अनुमानम् । अनुमानंनामतकयुक्त्यपेक्षोयथोक्तमग्निंजरणशक्त्याबलंव्या-यामशक्त्या श्रोत्रादीनिशब्दादिग्रहणेनेन्द्रियाणीत्येवमादिः ॥४१॥ युक्तियुक्त: तर्कको अनुमान कहते हैं। जैसे- पाचनशक्तिसे जठराग्निका अनुमान -करना, व्यायामकी शक्तिसे बलका अनुभव करना, शब्दादिक ग्रहणसे श्रोत्रादिक . इन्द्रियोंका अनुमान करना ॥ ४१ ॥
अथ औपम्यम् । औपम्यंनामयदन्येनान्यस्य सादृश्य मधिकृत्यं प्रकाशनंयथाद
१ आत्मनेति मनसा अनेन मानस प्रत्यक्षमुखाद्यमवरुध्यत इति चक्रपाणिः ।
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। ६०८)
चरकसंहिता-भा० ट। ण्डेनदण्डकस्यधनुषाधनुष्टम्भस्यइष्वसिनाआरोग्यदस्योत॥४२॥ जो विषय दूसरेसे दूसरेकी सादृश्यताको प्रकाश करता है उपमान कहा जाता है। जैसे-दण्डक रोग-दण्डेके समान होता है । धनुष्टंभ रोगमें मनुष्य धनुषके आकार टेढ़ा होजाता है। जो औषधी रोगको शीघ्र नष्ट कर डाले उसको तीरकी उपमा दी जाती है । इसको उपमान कहते हैं ॥ ४२ ॥
अथ ऐतिह्यम्। ऐतिानामआतोपदेशोवेदादिः॥४३॥ ऐतिह्य-आप्तोपदेशको एतिह्य कहते हैं जैसे वेद और आर्ष ग्रंथ आप्त प्रमाणा.
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अथ संशयः। .. संशयोनामसन्दिग्धेष्वर्थेष्वनिश्चयः।
यथाकिमकालमृत्युरस्तिनास्तीति ॥४४॥ . संदिग्ध अर्थों के अनिश्चयको संशय कहते हैं। जैसे-अकालमृत्यु है या नहीं। इस संशयात्मक अनिश्चित ज्ञानको संशय कहते हैं ॥ ४४ ॥
अथ प्रयोजनम् । । 'प्रयोजनंनामयदर्थमारभ्यन्तआरम्भाः । यथायद्यकालमृत्युर. स्तिततोऽहमात्मानमायुप्यरुपचरिष्यामिअनायुष्याणिचपरिह- रिष्यामिकथंमामकालमृत्युःप्रसहेतेति ॥४५॥
जिस अर्थके लिये आरम्भ कियाजाताहै उस अर्थको प्रयोजन कहते हैं। जैसेयाद अकालमृत्यु है तो मैं अपनेको आयुवर्द्धक उपचारों द्वारा रक्षित रक्तूंगा और आयुनाशक पदार्थोंका त्याग करूंगा। क्योंकि मैं अकालमृत्युको सहन करना नहीं चाहता । इस स्थानमें दीर्घायु होनेके लिये प्रयत्न करना “प्रयोजन" कहाताहै ॥ ४५ ॥
अथ सव्यभिचारम् । सव्यभिचारनामयद्वयभिचरणयथाभवेदिदमौषधंतस्मिन्व्याधोयौगिकमथवानेति ॥४६॥ किसी विषयका एक जगहसे दूसरी जगह भी व्यापक होजाना सव्यभिचार कहाता है । जैसे-यह औषधी इस रोगमें हितकारक है और नहीं भी है ॥
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विमानस्थान-अ० ६. ६.६०९) ....... ... ... अथ जिज्ञासा.। . ... .... 'जिज्ञासानामपरीक्षायथाभेषजपरीक्षोत्तरकालमुपदेक्ष्यते l
किसी विषयकी परीक्षा करना अर्थात् उसके जाननेका यल करना . जिज्ञासा कहाती है । जैसे-औषधकी परीक्षा आगे कथन करेंगे ॥ ४७ ॥
। अथ व्यवसायः । व्यवसायोनामनिश्चय यथावातिकएवायंव्याधीरदमेवास्यभेषजमिति ॥४८॥ निश्चयात्मक अर्थका कथन करना अथवा निश्चय कर लेना व्यवसाय, कहा जाता है। जैसे-यह व्याधि वायुसेही उत्पन्न हुई है और इसकी यही औषधि है ॥१८॥
अथार्थप्राप्तिः। अर्थप्राप्ति मयत्रैकेनार्थेनोक्तनापरस्थार्थस्यानुक्तस्यासद्धिः । यथानायंसंतर्पणसाध्योव्याधिरित्युक्तेभवत्यर्थप्रातिरतर्पणमा ध्योऽयमिति । नानेनदिवाभोक्तव्यमित्युक्तभवत्यर्थप्रातिनि- : शिभोक्तव्यमिति ॥ १९॥ कहे हुए अर्थसे विना कहेहुए दूसरे अर्थकी सिद्धि हाजाना अर्थप्राप्ति कहानाग है। जैसे यह व्याधि संतर्पणद्वारा साध्य नहीं हो सकती इससे यह अर्थ निकल आया कि अपतर्पणद्वारा साध्य हो सकती है । इस मनुष्यको दिनमें भोजन नहीं करना चाहिये इससे यह अर्थ निकल आया कि रात्रिको करना चाहिये इसको. अर्थप्राप्ति कहते हैं ॥ ४९ ॥
अथ सम्भवः । सम्भवोनामयोयतःसम्भवतिसतस्यसम्भवः । यथाषड्भात-- बोगर्भस्यव्याधरहितं हितमारोग्यस्योति ॥ ५० ॥ जो जिससे होसकताहो उसको संभव कहते हैं । जैसे षड्धातु गर्भशा संभव अर्थात् गर्भ होनेका कारण है। तात्पर्य यह हुआ कि छः धातुओंसे गर्भ हो सकता है।अहितसेवनसे व्याधिका होना संभव है और हितपदार्थक सेवनसे आरोग्य रहना, संभव है ॥५०॥
. .. अथानुयोज्यम्। . : . . : .: .. अनुयोज्यनामयद्वाक्यवाक्यदोषयुक्तंतदनुयोज्यमुच्यते । सा
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१६१०)
घरकसंहिता-भा० टी०॥ मान्योदाहृतेष्वर्थेषुवाविशेषग्रहणार्थतद्वाक्यमनुयोज्यमायथा संशोधनसाध्योऽयंव्याधिरित्युक्तकिंवमनासाध्याकिविरेचनसा
ध्यइत्यनुयुज्यते ॥५१॥ · जो वाक्य दोषयुक्त हो उसको अनुयोज्य कहतेहैं । जहां सामान्यतासे थोडासा कहना उचित हो उस स्थानमें बडीलम्वी कथाको छेडदेना अनुयोज्य कहाताहै। जैसे किसीको कहागया कि यह रोगी संशोधन द्वारा साध्य होसकताहै उसमें यह यूछना क्या इसको वमन और विरेचन भी कराना होगा इत्यादि वाक्योंको पूछना अनुयोज्य कहाताहै ॥५१॥
__ अथाननुयोज्यम्। अननुयोज्यनामातोविपर्ययेणयथायमसाध्यः ॥ ५२ ॥ अनुयोज्यसे विपरीतको अननुयोज्य कहतेहैं ।जैसे यह मनुष्य असाध्य है ॥५२॥
अथाऽनुयोगः। अनुयोगोनामयत्तद्विद्यानांतद्विद्यैरेवसाद्धतन्त्रेतन्त्रैकदेशेवा . प्रश्न प्रश्नैकदेशोवाज्ञानविज्ञानवचनपरीक्षार्थमादिश्यते । अथवानित्यःपुरुषइतिप्रतिज्ञातेयत्परःकोहेतुरित्याहसोऽनुयोगः॥५३॥ . वैद्य वैद्यके साथ परस्पर वैद्यकशास्त्रमें अथवा वैद्यकशास्त्र के एक अंशमें प्रश्न करे अथवा प्रश्तके एकदेशको करता हुआ ज्ञान, विज्ञान,वचन इनकी परीक्षाके लिये बराबरीवालेसे जो प्रवृत्ति करे उसको अनुयोग कहते हैं । अथवा एकने कहा कि पुरुष नित्य है उसमें यह कहना कि पुरुषके नित्य होनेमें हेतु क्या है अनुयोग कहाता है ॥ ५३॥
अथ प्रत्यनुयोगः। : प्रत्यनुयोगोनामानुयोगस्यानुयोगः। यथाऽनुयोगस्यपुनः कोहे
तुरिति ॥ ५४॥
अनुयोगमें अनुयोग करनेको प्रत्यनुयोग कहते हैं जैसे आप ऐसा प्रश्न हमारे ऊपर कैसे करसकते हैं यह कहना प्रत्यनुयोग कहाजावा. है ॥ ५४॥
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विमानस्थान - अ०८
अथ वाक्यदोषः । वाक्यदोषोनामयथाखल्वस्मिन्नर्थेन्यूनमधिकमनर्थकम पार्थक
(६११-).
विरुद्धञ्चेति ॥ ५५ ॥
जिस विषय में कथन करनेलगे उसमें न्यून, अधिक, अनर्थक, अपार्थक और विरुद्धताका कथन करना वाक्यदोष कहाता है छल हेत्वाभासादि सब वाक्यदोष: मेंही जानने ॥ ५५ ॥
वाक्यन्यूनता ।
अत्र हेतूदाहरणोपनयनिगमनानामन्यतमेनापिन्यूनन्यूनं भवतियद्वा बहूपदिष्टहेतुकमेकेनसाध्यतेहेतुनातच्चन्यूनम् एतानि ह्यन्तरेणप्रकृतोप्यर्थः प्रणश्येत् ॥ ५६ ॥
"
उदाहरण, उपमा, निगमन इनमेंसे किसी एकका अभाव होना न्यून कहाता है। अथवा जिस विषयको बहुतसे हेतुओंसे पुष्ट करना उचित हो उसको अल्पहेतु द्वारा कथन करना न्यून कहाता है । न्यूनतासे अर्थका कथन करना प्रकृत अर्थको भी नष्ट करदेता है ॥ ५६ ॥
अथाधिक्यम् ।
आधिक्यंनामयदायुर्वेदे भाष्य माणे बार्हस्पत्यमौशन समन्यद्वाप्रतिसम्बद्धार्थमुच्यतेयद्वापुनः प्रतिसम्बद्धार्थमपिद्दिरभिधीयते, तत्पुनरुक्तत्वादधिकं तच्चपुनरुक्तंद्विविधमर्थपुनरुक्तंशब्दपुनरुक्तञ्च । तत्रार्थपुनरुक्तंनामयथा भेषज मौषधंसाधनमिति, शब्दपुनरुक्तञ्च भेषजं भेषजमिति ॥ ५७ ॥
.
आयुर्वेद में संभाषण करते हुए वार्हस्पत्य तथा औशनस अथवा अन्य प्रासंगिक इधर उधरकी कथा कहानियोंको छेड देना तथा एक वाक्यको अनेक प्रकारसे कईचार उच्चारण करना अथवा एक वाक्यको दोहराकर कहना वाक्यकी अधिकता कही जाती है । उनमें एक बातको दोहराकर कहना पुनरुक्त कहाता है। उसके दो भेद हैं । १ अर्थसे पुनरुक्त । २ शब्दपुनरुक्त । जैसे- औषधको भेषज, औषध, साधन इन तीन नामोंसे उच्चारण करना यह अर्थपुनरुक्त कहा जाता है तथा भेषज भेषज बारबार कहना शब्दपुनरुक्त कहा जाता है ॥ ५७ ॥
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(६१२) . चरकसंहिता-भा० टी० ।
अनर्थक। . अनर्थकनामयद्वचनमक्षरग्राममात्रमेवस्यात्पञ्चवर्गवन्नचार्थतोगृह्यते ॥ ५८॥ जिस वचनसे किसी भी अर्थकी प्राप्ति न हो केवल जिह्वासे उच्चारण तो किया. जाय परन्तु उसमेंसे अर्थ कुछ न निकले उसको अनर्थक कहते हैं । जैसे, क,च,ट, आदि वाँका उच्चारण करना कुछ भी अर्थवाला नहीं होता ॥ ५८॥ .
अपार्थक। अपार्थकनामयदर्थवच्च परस्परेणचायुज्यमानार्थयथातकनक्रवंशवज्रनिशाकराइति ॥ ५९॥ पृथक् र अर्थोंवाले शब्दोंको वाक्यक्रमसे न मिलते . हुए भी उच्चारण कर देना अपार्थक कहाता है। जैसे-तक्र, नक; 'वंश, वज्र, निशाकर आदि ॥१९॥
विरुद्ध। 'विरुदनामयदृष्टान्तसिद्धान्तसमयैर्विरुद्धंतत्रपूर्वदृष्टान्तसिद्धान्तायुक्तौ। समयःपुनस्त्रिधाभवतियथायुर्वैदिकसमयोयाज्ञिकसमयोमोक्षशास्त्रिकसमयइति। तत्रायुर्वैदिकसमयश्चतुष्पादसिद्धिः। आलभ्यायजमानैःपशवइतियाज्ञिकसमयः। सर्व भूतेष्वहिंसेतिमोक्षशास्त्रिकसमयस्तत्रस्वसमयविपरीतमुच्यमानविरुद्धामतिवाक्यदोषाः ॥ ६॥
जो वाक्य दृष्टान्त और सिद्धांत तथा समयसे विरुद्ध हो उसको विरुद्ध अथवा विरुद्धता दोषयुक्त कहते हैं। इनमें दृष्टान्त और सिद्धान्तको पहिले कथन कर चुके हैं। समय-तीन प्रकारका होता है। जैसे आयुर्वेदिक समय, याज्ञिक समय और 'मोक्षशांत्रिक समय । आयुर्वेदिक समयकी-चार पदोंसे सिद्धि है । जैसे-वैध!-- रोगी, परिचारक और औषधी ॥ यजमानों द्वारा पशु आलेभनीय है यह याज्ञिक समय है ।। संपूर्ण जीवमात्रकी हिंसा नहीं करना यह मोशशाखिक समय है । अपने संमयमें दूसरेके समयका उच्चारण कर देना अर्थात् आयुर्वेदिक चतुष्पाद सिद्धिमें याज्ञिक, यजमान, पशु आदिकोंका प्रयोग करना समयाविरुद्ध वाक्यदोष कहाजाता है ॥ ६॥
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· विमानस्थान-अ०८ (६१३१
वाक्यप्रशंसा। वाक्यप्रशंसानामयथाऽन्यूनमनधिकमर्थवदनपार्थकमाविरुद्धमविगतपदार्थश्चतद्वाक्यमननुयोज्यामितिप्रशस्यते ॥ ६१॥
जो न्यूनतारहित, अनधिक, अर्थवाला, अनपार्थक, अविरुद्ध, पदार्थके अर्थको यथार्थ कथन करनेवाला वाक्य हो उसको वाक्यप्रशंसा:अर्थात् प्रशंसनीय वाक्य कहते हैं ॥६१॥
वाक्छल। छलंनामपरिशठमर्थाभासमनर्थकंवाग्वस्तुमात्रमेवातद्विविधंवाक्छलंसामान्यछलञ्चा वाक्छलनामयथाकश्चिद्व्यात्नवतन्त्रोऽयंभिषगिति,भिषब्रयान्नाहनवतन्त्रएकतन्त्रोऽहमिति। परोयानाहंबचीसिनवतन्त्राणितवति, अथतुनवाल्यस्तंतेतन्त्रमिति, भिषक्यान्नमयानवाभ्यस्ततन्त्रमनेकशताभ्यस्तं
मयातन्त्रामतिवाक्छलम् ॥ १२॥ 'किसी अर्थको शठतासे दूसरे रूपमें प्रकाश करके वादीके लक्ष्य विषयका दूसरी और अर्थ लेजाना छल कहाता है छल वाणीके फेर मात्रको कहते हैं । वह छल दो प्रकारका है । १ वाक् छल । २ सामान्य छल । वाक्छल जैसे-कोई कहे कि यह वैद्य नरंतंत्र है अर्थात् नवीन शास्त्रका जाननेवाला है इस जगह नवशब्दका अर्थ छलपूर्वक नौ संख्याका बाचक बनाकर कहे कि मैं नौ तंत्र नहीं केवल एकही तंत्र हूं अर्थात् नौ तंत्रों को नहीं जानता, एक ही तंत्रको जानता हूं । फिर पूर्वपक्षवाला कहे कि मैंने यह नहीं कहा कि आप नौ तंत्रोंको जानते हैं मैंने तो यही कहा है कि आपने नया शास्त्र पढा है अर्थात् आपने नवीन अभ्यास किया है उसपर वैद्य फिर कहे कि मैंने शास्त्रको नौवार अभ्यास नहीं किया किन्तु अनेक सौवार अभ्यास किया है इस प्रकार दूसरेके लक्ष्यको छलसे दूसरी ओर डाल देना वाक्छल कहाजाताहै ।६२॥
सामान्यछल ।' . . . सामान्यच्छलनामयथाव्याधिप्रशमनायोषधमित्युक्तेपरोवूयासत्सत्प्रशमनायेतिकिन्नुभवानाहसद्रोगः लदोषधयदिचस
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१६१४)
चरकसंहिता-भा० टी०॥ सत्प्रशमनायभवीततत्रसत्कासःसत्क्षयःसत्सामान्यात्कासः क्षयप्रशमनायभविष्यतीतिएतत्सामान्यच्छलम् ॥ ६३ ॥ जैसे किसी वैद्यने कहा कि व्याधीकी शान्तिके लिये औषध होती है अर्थात औषधसे रोगनाश होता है । इसपर प्रतिवादी मनुष्य कहे कि क्या सत्-सत्को शान्त करता है आप ऐसा कहते हैं ? यदि सत्को सत् शान्त करताहै अर्थात् सत् वस्तुद्वारा सत्की शान्ति होती है तो रोग भी सत् है और औषधी भी सत् है सो सत्रोगको सत् औषधी शान्त करती है ऐसा आप कहते हैं तो खांसी भी सत् हैं और क्षयरोग भी सत् है।बस सत् सामान्य खांसी सत् क्षयरोगको शान्त करनेवाली आपके मतसे सिद्ध होगई। इस प्रकारके कथनको सामान्यछल कहते है ॥ ६३ ॥
अहेतु। अहेतुर्नामप्रकरणसमः संशयसमोवर्ण्यसमइति । तत्रप्रकरणसमोनामाहेतुर्यथान्यः शरीरादात्मानित्वइतिपक्षेपरोयाच्छरीरादन्यआत्मातस्मान्नित्य शरीरमनित्यमतोविधर्मिणानेनचभवितव्यम्एषचाहेतुर्नहियएवपक्षःसएवहेतुः ॥६४ ॥
प्रकरणसम, संशयसम, वर्ण्यसम, इन भेदोंसे तीन प्रकारका होता है । प्रक. रणसम अहेतु-जैसे-किसीने कहा कि आत्मा शरीरसे भिन्न है और नित्य है उस. पर प्रतिवादी यह कहे कि-आत्मा शरीरसे भिन्न है इसलिये नित्य है और शरीर अनित्य है तो आत्मा विधर्मी होनेसे अर्थात् शरीरसे विरुद्धधर्मवाला होनेसे शरीर जो अनित्य होना ही चाहिये । इस प्रकारका कथन अहेतु कहाता है। क्योंकि जो पक्ष है वहीं हेतु नहीं होसकता ॥ ६४ ॥
संशयसमोनामाहेतुर्थएवसंशयहेतुःलएवसंशयच्छेदहेतुर्यथा । अयमायुर्वेदैकदेशमाहकिन्वयंचिकित्सकस्यान्नवेतिसंशयेपरो ब्रूयाद्यस्मादयमायुर्वेदैकदेशमाहतस्माच्चिकित्सकोऽयमिति। नचसंशयस्थेहेतुविशेषयत्येषचाहेतुःनहियएवसंशयहेतुःसएव संशयच्छेदहेतुः ॥६५॥ संशयके हेतुको संशयके छेदनका हेतु कर लेना संशयसम अहेतु कहाता है। जैसे-यह आयुर्वेदका एकदेश. कथन कर रहा है इसलिये यह वैद्य है कि नहीं ऐस संशय उत्पन्न होनेपर कोई कहे कि जिससे यह आयुर्वेदका एकदेश कथन कर.
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वयंमकार बुद्धि भी स्पर्शवा नहीं किया जाता वह स्पर्श न होनेसे बुद्धिाया जाय
विमानस्थान-अ०८. ताहै इसीसे यह सिद्ध होगया कि यह वैद्य है। इस स्थानमें संशयमें जो हेतु थ. उसको ही संशय छेद करनेमें हेतु बनाया गया । जो संशयमें हेतु होताहै वह संश' यके छेद करने हेतु नहीं होसकता इसलिये यह संशयसम अहेतु हुआ ॥६॥ वर्ण्यसमोनासाहेतुर्योहेतुर्वा विशिष्टःयथापरोब्रूयादस्पर्शत्वा- :
बुद्धिरनित्याशब्दवदितितत्रवर्ण्यःशब्दोबुद्धिरपिवातदुभयवाविशिष्टत्वाद्वयंसमोऽप्यहेतुः ॥६६॥
दो वस्तुओंको समानरूपसे वर्णन किया गया फिर उनमें अभेद दिखाया जाय उसको वर्ण्यसम अहेतु कहते हैं । जैसे कोई कहे कि स्पर्श न होनेसे बुद्धि अनित्य है क्योंकि शब्दका भी स्पर्श नहीं किया जाता वह स्पर्शवाला न होनेसे अनित्य हैं उसी प्रकार बुद्धि भी स्पर्शवाली न होनेसे अनित्य है । इस प्रकार कथन करना वर्ण्यसम अहेतु होता है ।। ६६ ॥
अतीतकालम् । , अतीतकालंनामयत्पूर्ववाच्यंतत्पश्चादुच्यतेतत्कालातीतत्वाद
ग्राह्यभवतिपरंवानिग्रहप्राप्तमनिगृह्यपरिगृह्यपक्षान्तरितंपश्चानिगृहीतेतत्तस्यातीतकालत्वान्निग्रहवचनसमर्थभवतीति ॥६॥ जिस विषयको पहिले कथन करना हो उसका पीछे कथन किया जाना अतीतकाल होता है । अतीतकाल होनेसे वह वचन अग्राह्य होजाता है । अथवा निग्रहस्थानको प्राप्त होकर दूसरे पक्षको मान लेना फिर अपने पहिले पक्षकी पुष्टिके लिये कथन करना कालातीत होताहै।इस लिये वह निग्रहमें ही गिनाजाताहै ॥ ६७॥
उपालम्भ । उपालम्भोनामहेतोदोषवचनंयथापूर्वमहेतवाहेत्वाभासाव्याख्याताः॥ ६८॥ हेतुमें दोष वर्णन करना उपालम्भ कहाताहै । यह अहेतुमें वर्णन कियाज.चु. काहै । इसको हेत्वाभास भी कहतेहैं ॥ १८॥
. परिहार। परिहारोनामतस्यैवदोषवचनस्यपरिहरणयथानित्यमात्मनिश.
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(६१६)
चरकसंहिता - मा० टी० ।
रस्थेजीवलिङ्गान्युपलभ्यन्तेतस्य चापगमान्नोपलभ्यन्ते तस्मादन्यः शरीरादात्मा नित्यः शरीराच्चेति ॥ ६९ ॥
प्रतिवादी दोषयुक्त वाक्यको परिहरण करतेहुए जो सत्यताका प्रतिपादन कियाजय उसको परिहार कहते हैं। जैसे कहाजाय कि शरीरमें स्थित हुआ आत्मा जीवके लक्षणोंसे उपलब्ध होताहै, जब आत्मा शरीरको त्यागकर अलग होजाता है तव जीवन लक्षण नहीं दिखाई देते। इससे सिद्ध है कि आत्मा नित्य है और शरीर से भिन्न है । इसप्रकार प्रतिवादीके वाक्यदोषका परिहार किया जाता है ॥ ६९ ॥ प्रतिज्ञाहानिः ।
प्रतिज्ञाहानिर्नामयः पूर्वप्रतिगृहीतांप्रतिज्ञां पर्य्यनुयुक्तः परित्यजतियथाप्राक्प्रतिज्ञांकृत्वानित्यः पुरुषइतिपर्य्यनुयुक्तस्त्वाह अनित्यइति ॥ ७० ॥
दूसरे के दोषों को दिखाते हुए अपनी प्रतिज्ञाको त्याग देना प्रतिज्ञाहानि कही जाती है । जैसे पहिले यह प्रतिज्ञा करे कि पुरुष नित्य है फिर प्रतिपक्षीको युक्तियों द्वारा दूषित होकर यह कहदेवे कि हां पुरुष अनित्य होता है । इसको प्रतिज्ञाहानि कहतेहै ॥ ७० ॥
अभ्यनुज्ञा । अभ्यनुज्ञानामयद्दष्टानिष्टाभ्युपगमः ॥ ७१ ॥
प्रतिवादीके इष्ट अनिष्ट वाक्योंको स्वीकार करलेना अर्थात् वादिके कहे इष्ट अनिष्ट वाक्यको मानना अभ्यनुज्ञा कहता है ॥ ७१ ॥
'हत्वन्तर । हेत्वन्तरनामंप्रकृतहेतौ वाच्येयद्विकारहेतुमाह ॥ ७२ ॥
प्रकृति हेतुको कथन करते समय विकारहेतुको कथन कर देना हेत्वन्तर कहा है७२ अर्थान्तर । अर्थान्तरंनामज्वरलक्षणेवाच्यप्रमेहलक्षणमाह ॥ ७३ ॥
ज्वरके लक्षणोंको कथन करनेके समय प्रमेहके लक्षणोंको कथन करना अर्थान्तर कहाताहै ॥ ७३ ॥
निग्रहस्थान | निग्रहस्थानंनामपराजयप्राप्तिस्तञ्च्चत्रिरुक्तस्य वाक्यस्य अवि
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विमानस्थान-अ०८.
.६६१७). ज्ञानपरिषदिविज्ञानवत्याम, यद्वाअननुयोज्यस्यानुयोगोअनु..
योज्यस्यचाननुयोगः ॥ ७४॥ : सभामें बैठकर जो वाक्य तीनवार उच्चारण कियाजाय उसको भी वह न समझें और सभासद समझते हों इसप्रकार उस (प्रतिपक्षी)को सभामें बात नहीं करनेदेना अर्थात् पराजित करदेना निग्रहस्थान कहाताहै। अथवा अनुयोज्य वाक्योंक अनुयोग न करना और अननुयोज्योंका अनुयोग करना भी निग्रहस्थान (हार जाना ) कहाताहै ॥ ७४॥
प्रतिज्ञाहानिरभ्यनुज्ञाकालातीतवचनमहेतुःन्यूनमतिरिक्तंव्य
र्थमनर्थकंपुनरुक्तविरुद्ध हेत्वन्तरमर्थान्तरं निग्रहस्थानमितिवा: दमादापदानयथादेशमभिनिर्दिष्टानि । ७५॥
प्रतिज्ञाहानि, अभ्यनुज्ञा, कालातीत, वचन, अहेतु; न्यूनता, अधिकता, व्यर्य, अपार्थक, पुनरुक्त, विरुद्ध, हेवन्तर, अर्थान्तर, और निग्रहस्थान यह सव वादमाके पदोंको यथोद्देश निर्दिष्ट करचुके हैं अर्थात् निर्देश करचुके हैं ।। ७५॥
वादविषयकं उपदेश । वादस्तुखलुलिषजांवर्तमानोवत्तायुर्वेदएवनान्यत्र ॥७६ ॥ . बादानुवाद वैद्योंको आयुर्वेद शास्त्र में ही करना चाहिये अन्यशास्त्रोंमें नहीं७६॥ तंत्रहिवाक्यप्रतिवाक्यविस्तारावलाश्चोपपत्तयश्चलवाधिकरणेषुताःसर्वाःसम्यगवेक्ष्यावेक्ष्यसवाक्यंबूयाना कतिकमशास्त्रमपरीक्षितमसाधकमाकुलमज्ञापकंवासर्वञ्चहेतुमद्ध्याहेतुमन्तोडकलुषाःसर्वएक्वादविग्रहाश्चिकित्सितकारणभूताः। प्रशस्तबुद्धिवईकत्वात्सर्वारम्भसिदिह्यावहतिअनुपहताबुद्धिः७७ इस स्थानमें वाक्य प्रतिवाक्यका ही विस्तार कियागया है। इनके सिवाय शास्त्र में जो २ उपपत्तिये हैं उन सबको अच्छीतरह विचार कर वादानुवाद करना चाहिये । अर्थात् सव उपपत्तियोंको भले प्रकार.विचारकर ही सभामें बोलना चाहिये । तथा अप्रकृत, अशास्त्र, अपरीक्षित, अप्रमाण, आकुल और अज्ञापक शब्दों को कभी उच्चारण करना नहीं चाहिये । सब शब्द हेतुमान वोलना चाहिये हेतुयुक्त शब्दोंका बोलना, निदोष शब्दोंका उच्चारण, करना शास्त्रार्थ करना यह सब वैद्यकी बुद्धिके बढानेवाले होते है। बुद्धि निर्मल तथा अनुपहत एवं स्वच्छ होनेसे सम्पूर्ण कार्योंकी सिद्धि होती है ।। ७७ ॥
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(६१८) चरकसंहिता-भा० टी० ॥
इमानिखलुतावदिहकानिचित्प्रकरणानिमः।
ज्ञानपूर्वकर्मणांसमारम्भप्रशंसन्तिकुशलाः ॥७८ ॥ यहाँपर हम इन और प्रकरणोंका कथन करते हैं। क्योंकि बुद्धिमान् सव कोंके आरम्भका ज्ञानपूर्वक करनेकी ही प्रशंसा करते हैं ॥ ७८ ॥
ज्ञात्वाहिकारणकरणकार्ययोनिकार्यकार्यफलानुबन्धदेशकालप्रवृत्त्युपायान्सम्यगभिनिर्वय॑मानःकार्याभिनिवृत्ताविष्टफ लानुबन्धककार्यमभिनिर्वतयत्यनतिमहताप्रयत्नेनकर्ता ॥७९॥ कारण, करण, कार्ययोनि, कार्य, कार्यफल, अनुबन्ध, देश, काल,प्रवृत्ति और उपाय इन सबको भले प्रकार जानकर,कार्यके करने में प्रवृत्त होनेसे इष्टफलकी प्राप्ति होती है और कर्ता थोडा ही यत्न करनेपर कार्यकी सिद्धिको प्राप्त होताहै ॥७९॥ .
कारण। तत्रकारणंनामतयत्करोतिसएवहेतुःसकर्ता ॥ ८०॥ कार्यके करनेवालेको कारण कहते हैं। और उसीको हेतु तथा कर्ता भी कहते हैं। ८०॥
करण। करणंपुनस्तबदुपकरणायोपकल्पतेकर्तुःकार्याभिनिवृत्तप्रियतमानस्य ॥ ८१॥ कार्यसिद्धि का जिस उपकरणद्वारा कार्यको करे उसको करण कहते हैं।अर्थात् कर्ता जिस सामग्रीको लेकर कार्यसिद्धि में प्रवृत्त हो उस सामग्रीका नाम करण
कार्ययोनि । कार्ययोनिस्तुसायाविक्रियमाणाकायंत्वमापद्यते ॥ ८२ ॥ जो पदार्थ विकृत होकर कार्यरूपमें परिणत होजाय उसको कार्ययोनि कहते
कार्य । कार्यन्तुतद्यस्याभिनिवृत्तिमभिसन्धायप्रवर्ततेका ॥ ८३॥ . १ कारणशब्देनात्र स्वतन्त्रकारणं कर्तृलक्षणम् इति चक्रपाणिः ।
हैं। ८२॥
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विमानस्थान अ०
(६१९) जिसकी उत्पत्तिको लक्ष्यकर फर्ता प्रवृत्त होताहै उसको कार्य कहतेहैं ॥ ८३ ।
___ कार्यफलम्। कार्यफलंपुनस्तद्यत्प्रयोजनाकार्याभिनिवृत्तिरिष्यते ॥ ८४ ॥ जिस प्रयोजनसे कार्य कियाजाय उसी प्रयोजनकी सिद्धिको कार्यफल कहते
अनुबन्ध। . अनुबन्धस्तुकारमवश्यमनुबध्नातिकार्यादुत्तरकालंकार्यनि
मित्तःशुभोवाप्यशुभोवाभावः॥८५॥ ___ कर्ताको अवश्य बंधन में लानेवाला कार्यके अंतमें होनेवाला अवश्यंभावी 'शुभाशुभभाव अनुबंध कहाजाताहै ॥ ८ ॥
देश। देशस्त्वधिष्ठानम् ॥ ८६॥ कार्यके (स्थान) अधिष्ठानको देश कहतेहैं ॥ ८६ ॥
काल. कालःपुनःपरिणामः ॥ ८७॥ और ऋत्वादिरूप परिणामको काल कहतेहैं ॥ ८७॥
प्रवृत्ति । प्रवृत्तिस्तुखलचेष्टाकाार्थासैवक्रियाकर्मयत्नःकार्यसमार. ' म्भश्च ॥ ८८॥
कार्यके सम्पादन करनेके लिये जो काकी चेष्टा है उसको प्रवृत्ति कहतेहैं ।। वही क्रिया, कर्म, यल और कार्यसमारंभ भी कहीजातीहै ।। ८८ ॥
उपाय। उपायाःपुनःकारणादीनांसौष्ठवमभिसन्धानञ्चसम्यक्कार्यफलानुबन्धोपायवानांकार्याणामभिनिवर्त्तकइत्यतोऽभ्युपायःकृतेनोपायाथोंऽस्तिनचविद्यतेतदात्वेकताचोचरकालंफलं फलान्चानुबन्धइतिव्याख्यातंदशविधम् ॥ ८९॥ . कार्यके उत्पादन करनेमें कारण, करण,समवायिकारण, देश,काल और प्रवृत्ति
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(६२०)
चरकसंहिता-भा० टी०॥ आदिकोंकी कार्यफल उत्पन्न करने में जिसकी जिस प्रकार जिससे अनुकूलता हो उसको उपाय कहते हैं । और कारणादिकोंको भी उपाय कहते हैं क्योंकि कारणादिक न होनेसे भी कार्यसिद्धि नहीं होती। फल और अनुबंध उपाय कहे नहीं जा सकते क्योंकि यह कार्य होजानेपर उत्पन्न होते हैं । इस दश प्रकारके कारणादि कोंका वर्णन किया गया ॥ ८९॥
परीक्ष्य। अग्रेपरीक्ष्यंततोऽनन्तरकाव्र्थाप्रवृत्तिारष्टातस्माद्भिषक्कार्यचिकीर्ष:प्राक्कार्यसमारम्भात्परीक्षयाकेवलंपरीक्ष्यपरीक्ष्यार्थ. कर्मसमारभेतकर्तुम् ॥ ९०॥
पहिले परीक्षा करके तदनन्तर कार्यार्थ के लिये प्रवृत्ति करना चाहिये । इसलिये चिकित्सा करनेकी इच्छावाला वैद्य चिकित्सा आरम्भ करनेसे प्रथम परीक्ष्य विष. यको परीक्षा करके फिर चिकित्सा करनेमें प्रवृत्त हो । ९० ॥
तत्रचेद्भिषगाभिषग्वाभिषजंकश्चित्पृच्छेद्वलनविरचनास्थापनानुवासनशिरोविरेचनानियोक्तकामेलभिषजाकतिविधया परीक्षयाकतिविधमेवपरीक्ष्यकश्चात्रपक्ष्यिविशेषःकथञ्चपरीक्षितव्यकिप्रयोजनाचपरीक्षाकचवसनादीनांप्रवृत्तिःवचनिवृत्तिः प्रवृत्तिनिवृत्तिसंयोगेचकिनैष्ठिकंकानिचवमनादीनांभेषजद्रव्याणिउपयोगंगच्छन्तीति ॥ एवंपृष्टोयदिसोहयितुमिच्छेद् ब्रूयादेनंबहुविधाहिपरीक्षातथापरक्ष्यिविधिलेदः । कतमेनविधिभेदप्रकत्यन्तरेणपरीक्ष्यस्यभिन्नस्यभेदाभवान्पृच्छतिआख्यायमानमानेदानीसवतोऽन्येनविधिभेदप्रकत्यन्तरेणभिनया 'परीक्षयाअन्येनवाविधिभेदप्रकृत्यन्तरणपरीक्ष्यस्यभिन्नस्याभिलाषितमर्थश्रोतुमहमन्येलपरीक्षाविधिभेदेनअन्येनवाविधिभेदप्रकत्यन्तरणपरीक्ष्यभित्त्वार्थमाचक्षाणइच्छांप्रपूरयेयामिति ॥ ९१॥ याद वैद्य अथवा कोई अन्य मनुष्य प्रश्न करे कि-वमन, विरेचन, भास्थापन अनुवासन और शिरोविरेचन इनका प्रयोग करनेकी इच्छावाले वैद्यको कितने
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( ६२१) प्रकारकी परीक्षासे कितने प्रकारके परीक्ष्य विषय परीक्षा करने चाहिये । और इस स्थानमें परीक्ष्य विशेष क्या है कैसे परीक्षा करनी चाहिये परीक्षाका प्रयोजन क्या है और वमनादिकों की कहां २ प्रवृत्ति और निवृत्ति है । प्रवृत्ति और निवृत्तिके लक्षण दिखाई देने पर क्या करना चाहिये, वमन, विरेचनादिकोंमें कौन २ द्रव्य उपयोगी होते हैं। इस प्रकार प्रश्न करनेपर यदि देखे कि प्रश्नकर्त्ताको परास्त कर देना और मुग्ध कर देना उचित है तो उससे कहे कि परीक्षा बहुत प्रकारकी होती है और परीक्षणीय विषय भी अनेक प्रकारके होते हैं । आप किस प्रकारकी परीक्षाके भेदको पूछना चाहते हैं और परीक्षाके एवम् परीक्षणीय विषयके किन २. भेदोंको जानना चाहते हैं। क्योंकि यदि आप जिस परीक्ष्य विषयको जिस प्रकार जानना चाहते हैं हम उस विधि भेद प्रकारसे कथन न करके यदि अन्य प्रकारसे कथन करनेलगेंगे तो आपकी इच्छा परिपूर्ण न होगी ॥ ९१ ॥
सयद्युत्तरंब्रूयात्तत्परीक्ष्योत्तरंवाच्यंस्याद्यथोक्तं प्रतिवचनमवेक्ष्य सम्यग्यदितुद्यान्नचैनं मोहयितुमिच्छेत्प्राप्तन्तुवचनकालंमन्ये: तकाममस्मैब्रूयादाप्तमेवानिखिलेन ॥ ९२ ॥
·
इस प्रकार कथन करने से वह जो कुछ उत्तर देवै उसकी परीक्षा कर लेना चाहिये। यदि वह पराजय करनेकी इच्छासे उत्तर देवे तो पूर्वोक्त विधानसे निरुत्तर कर डाले यदि यह यथार्थ भलाई के साथ उत्तर देवे तो उसको मुग्ध न करके उससे: यथार्थ विधिवत् प्रमाणिक रीतिसे संपूर्ण कथनको करे ॥ ९२ ॥
परीक्षांके भेद |
द्विविधापरीक्षाज्ञानवतां प्रत्यक्षमनुमानञ्च, एतत्तद्वयमुपदेशश्च परीक्षात्रयमेवमेषाद्विविधापरीक्षात्रिविधावासहोपदेशेन ॥ ९३ ॥ परीक्षा दो प्रकारकी होती है । १ प्रत्यक्ष । २ अनुमान और आप्तोपदेशके मिल देनेसे तीन प्रकारको होजाती है ॥ ९३ ॥ दशविधन्तुपरीक्ष्यकारणादियदुक्तमप्रेतदिहभिषगादिषुसंसा
सन्दर्शयिष्यामः । इहकार्य्यप्राप्तौ कारणभिषक् करणंपुनभेषजम् । कार्ययोनिर्षातुवैषम्यम् । कार्यधातुसाम्यम् । कार्य्यफलं सुखावातिः। अनुबन्धआयुः । देशोभूमिरातुरश्च । कालः संवत्सरश्वातुरावस्थाच। प्रवृत्तिः प्रतिकर्मसमारम्भः । उपायोभिषगादीनांसौष्ठवमभिसन्धानञ्चसम्यगिहापि अस्योपायस्याविषयः पर्वें
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चरकसंहिता-भा० टी०। गैवोपायविशेषेणव्याख्यात इतिकारणादीनिदश । दशसुभिषगादिषुसंसार्यसन्दर्शितानि, तथैवानुपूाएतद्दशविधंपरीक्ष्यमुक्तञ्च ॥ ९४॥ परीक्ष्य विषय दश प्रकारके होतेहैं । उन दश प्रकारके कारणादिकोंको पहिले कथन कर चुकेहैं । अव उन्हींको विस्तारपूर्वक वैद्य आदिकोंमें दिखातेहैं । वैद्यकशास्त्रमें चिकित्सारूपी कार्यका कारण अथवा कर्ता वैद्य है और औषधी करण है। धातुओंकी विषमता कार्ययोनि कहाती है। धातुओंकी साम्यावस्था कार्य है । आरोग्यताके सुखकी प्राप्ति होना कार्यफल है। आयु अनुबंध है। देश भूमि और रोगीका शरीर है। काल संवत्सर और अवस्थाको कहतेहैं । प्रत्येक कर्मके आरभको प्रवृत्ति कहतेहैं । कार्य करनेकी इच्छासे वैद्यादिकोंका उचित भावसे योग होना उपाय कहाजाताहै । तथा औषधादिकोंका प्रयोग करना भी उपाय कहाजाताहै । विषय पहिले उपाय विशेषसे कथन करचुके इस प्रकार यह करणादिक दश परीक्षणीय विषय वैद्यादिकोंमें संभार करके दिखादिये गये है इसप्रकार आनु: पूर्व्या दशविध परीक्षणीय विषयोंका कथन कियागयाहै ॥ ९४ ॥
वैद्यपरीक्षा। तस्ययोयोपरीक्ष्यविशेषोयथायथाचपरीक्षितव्यःससतथातथा व्याख्यास्यते। कारणभिषागत्युक्तमतस्यपरीक्षाभिषनामसयोभिषज्यतियःसूत्रार्थप्रयोगकुशल यस्यचायुःसर्वथाविदितम् ॥ ९५॥ उन परीक्ष्य विषयोंमें जो २ परीक्षणीय विषय जैसे २ परीक्षा करनी चाहिये उसका वैसा २ वर्णन करतेहैं। उनमें कारण वैद्य कहा गयाहै । सो उस वैद्यकी परक्षिा यह है कि जो भेषज अर्थात् औषध क्रिया करताहै उसको भिषक् अर्थात वैद्य कहतेहैं । वह वैद्य सूत्र, अर्थ और प्रयोगमें कुशल तथा आयुका सम्पूर्णरूपसे ज्ञाता होनाचाहिये ॥ १५॥
यथावत्सर्वधातुसाम्यचिकीर्षन्नात्मानमेवादितःपरीक्षेत । गुणिषुगुणतःकार्याभिनिवत्तिपश्यन्कच्चिदहमस्यकार्यस्यअ. भिनिर्वर्तनेसमर्थोनवति ॥ ९६ ॥ वैद्यको चाहिये कि संपूर्ण धातुओंको साम्यावस्थामें करनेकी इच्छा करताहुआ
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(६२३) प्रथम अपनी परीक्षा करे। गुणोंमें गुणसे कार्यकी सफलता देखताहुआ यह विचार करे कि मैं इस कार्यको समर्थन करनेके योग्य हूं या नहीं ॥ ९६॥
तत्रेमेभिषगगुणायैरुपपन्नोभिषग्धातुसायाभिनिवर्त्तनेसमर्थों भवतितद्यथापर्यवदातश्रुततापरिदृष्टकर्मतादाक्ष्यंशोचंजितहस्तताउपकरणवत्तासर्वेन्द्रियोपपन्नताप्रतिज्ञताप्रविपत्तिज्ञता
चेति ॥ ९७॥ जिस वैद्यमें यह आगे कहहुए संपूर्ण गुण विद्यमान हों वह ही धातुओंको साम्यावस्थामें लानेके लिये समर्थ होता है वह गुण इस प्रकार हैं। जैसे-शास्त्रमें पारंगत होना, बहुश्रुत होना,आयुर्वेदीय कर्मों में चतुर होना, बहुदर्शी होना, पवित्र होना, जितहस्त होना, औषधादि संपूर्ण उपकरणयुक्त ( सामग्रीयुक्त) होना । सर्वेन्द्रियसम्पन्न होना, प्रकृति विशेषका ज्ञाता होना,चिकित्सा कर्मके फल विशेष जाननेमें तथा चिकित्सा क्रमके जाननमें चतुर होना इन गुणोंसे युक्त वैद्य उत्तम होता है ॥ ९७ ॥
भेषजपरक्षिा। करणपुनर्भेषजम् । भेषजनामतद्यदुपकरणायोपकल्प्यते, भिषजोधातुसाम्याभिनिवृत्तप्रियतमानस्य, विशेषतश्चोपायान्तरेभ्यः तद्विविधव्यपाश्रयभेदादेवव्यपाश्रययुक्तिव्यपाश्रयञ्च । तत्रदेवव्यपाश्रयमन्त्रौषधिमणिमङ्गलबल्युपहारहोमनियमप्रायश्चित्तोपवासदानस्वस्त्ययनप्रणिपातगमनादि । यु. क्तिव्यपाश्रयंसंशोधनोपशमनेचेष्टाश्चदृष्टफला:एतच्चैवभेषजमङ्गभेदादपिद्विविधंद्रव्यभूतमद्रव्यभूतञ्चतत्रयदद्रव्यभूतंतदुपायाभिप्लुतम् । उपायोनामभयदर्शनविस्मापनक्षोभणहर्षगभर्त्सनवधबन्धस्वप्नसंवाहनादिरमूत्तोंभावोयथोक्ताःसिद्धयु. पायाश्च । यत्तुद्रव्यभूतंतद्वमनादिषुयोगमुपौत ॥ ९८ ॥ करण औषधिही है। आषध-चिकित्सा कार्यके उपकरणार्थ होती है । इसलिये औषधकी परीक्षा करनी चाहिये । जव वैद्य धातुसाम्य करनेके लिये प्रवृत्त हो तो उपायांतरसे औषधकी विशेष परीक्षा करे वह औषध दो प्रकारके होतेहैं।१ दैवव्य. पाश्रय । २ युक्तिव्यपाश्रय। उनमें-मणि, मंत्र,औषध, मंगलक्रिया, बलिदान, उप
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चरकसंहिता-भा० टी०॥ हार, होम, नियम, प्रायश्चित्त,उपवास, स्वस्त्ययन, प्रणिपातन और देवयात्रा आदि दैवव्यपाश्रय औषध कहा जाता है । और संशोधन, संशमन तथा दृष्टफलकी चेष्टा आदिको युक्तिव्यपाश्रय औषध कहते हैं। वह औषध अंगभेदसे भी दो प्रकारकी होतीहै १ द्रव्यभूत । २ अद्रव्यभूत (उपायभूत) । उनमें-जो अद्रव्यभूत औषधी है वह उपाययुक्त होती है । जैसे-भय दिखाना विस्मापन, क्षोभण, हर्षण, भर्त्सन, प्रहार, बंधन, निद्रा और संवाहन आदि । यह सब प्रत्यक्षरूपसे चिकित्साकी सिद्धिके उपाय हैं । जो द्रव्यभूत हैं उनका वमनादि कार्यों में उपयोग किया जाता है ॥ ९८॥
औषधपरीक्षा। तस्यापिइयंपरीक्षाइदमेवंप्रकृत्याएंवंगुणमेवंप्रभावमस्मिन्देशे जातमस्मिन्नृतौएवंगृहीतमेवंनिहितमेवमुपस्कृतमनयामात्रयायुक्तमस्मिन् रोगेएवंविधस्यपुरुषस्यैतावन्तंदोषमपकर्षयति उपशमयतिवान्यदपिचैवंविधंभेषजभवैत्तच्चानेनोन्थेनवाविशेषणयुक्तमिति ॥ ९९ ॥ -उसकी इस प्रकार परीक्षा करनी चाहिये । जैसे-इस द्रव्यकी प्रकृति ऐसी है इसमें यह गुण होतेहैं और इसका यह प्रभाव है इसके उत्पन्न होनेका यह स्थान है इस ऋतु -यह उत्पन्न होती तथा उसके उखाडेनका समय यह है । सयोग विशेषसे ऐसा गुण करती है, मात्रा उतनी है, ऐसे रोगोंमें ऐसे समयमें एवम् ऐसे पुरुषके लिये तथा ऐसे दोषोंको अपकर्षण करनेके लिये एवम् ऐसे दोषोंको शान्त करनेके लिये इसका उपयोग कियाजाता है। इत्यादिक और भी औषध सम्बन्धी जों विचार हैं अथवा इस प्रकारके अन्य · द्रव्य इसके समान हैं.अथवाः इससे गुणोंमें न्यून और अधिक हैं इत्यादिक विषयोंकी समालोचना करतेहुए द्रव्यको परीक्षा करनी चाहिये ।। ९९ ॥
कार्ययोनिपरीक्षा। कार्ययोनिर्धातुवैषम्यतस्यलक्षणावकारागमःपरीक्षात्वस्यविकारप्रकतेश्चैवोनातिरिक्तलिङ्गविशेषावेक्षणविकारस्यचसाध्या साध्यमृदुदारुणलिङ्गविशेषावक्षणमिति ॥ १००॥ .. कार्ययोनि-धातुओंकी विषमताको कहते हैं । रोगोंका प्रगट होना धातुओंकी विषमंताका लक्षण है । विकार प्रकृति अर्थात् विकारोंके कारणीभूत वात, पित्त,
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(६२५.. कफ़ जो हैं उनकी हीनता और अधिकताको परीक्षा द्वारा इनको परीक्षा होती है... एवम् विकारोंकी साध्यता, असाध्यता, मृदुता और दारुणताको भी लक्षण- विशेष षसे परीक्षा करनी चाहिये ॥ १० ॥
कार्यपरीक्षा। · कार्यधातुसाम्यं, तस्यलक्षणविकारोपशमः, परीक्षात्वस्यरुन- पशमनंस्वरवर्णयोगःशरीरोपचयःवलवृद्धिरभ्यवहाामिला
षोरुचिराहारकालेभ्यवहृतस्यचाहृतस्यचाहारस्यसम्यग्जरणं निद्रालाभोयथाकालंकारिकाणांस्वप्नानामदर्शनंसुखेनचनतिवोधनवातमूत्रपुरीषरेतसामुक्तिः।सर्वाकारैर्मनोबुद्धीन्द्रियाणाञ्चाव्यापत्तिरिति ॥ १०१॥ धातुओंकी साम्यावस्था रखना या होना अथवा साम्यावस्था उत्पन्न करना चिकित्साका कार्य है। तथा विकारोंकी शान्ति होना उसका लक्षण है।पीडा आदिका शान्त होना, स्वर,वर्णका पूर्ववतु उत्तम होना,शरीरका पुष्ट होना एवम् वलकी वृद्धि, आहारकी अभिलाषा, आहारकी रुचि,भोजनका समयपर पचजाना,समयपर क्षुधा लगना. सुखपूर्वक निद्रा आना,बुरे स्वमोंका न दीखना,सुखपूर्वक इच्छा नुसार जागृत होना समयपर मुखपूर्वक वात, मूत्र,पुरीष और वीर्यका मुक्त उचित
रीतिपर होना । संपूर्ण आकारोंसे मन, बुद्धि और इन्द्रियोंका स्वास्थ्य अर्थात् . विकार रहित होना यह सव विकार शान्तिके लक्षण होते हैं । १०१॥
कार्यफलपरीक्षा । कार्यफलंसुखावाप्तिस्तस्यलक्षणंसनोबुद्धीन्द्रियशरीरतुष्टिः१०२।। चिकित्सा कार्यका फल-सुख अर्थात् आरोग्यताकी प्राप्ति है ।मन, बुद्धि,इंद्रिया और शरीरको तुष्टि ही उसका लक्षण है ॥ १० ॥
अनुबन्धस्तुखल्बायुस्तस्यलक्षणंप्राणैःसंयोगः ॥ १०३ ॥ अनुबंध-अर्थात् आरोग्यताका फल दीर्घायु होना है। प्राणोंका शरीरके साथः संयोग रहना आयुका लक्षण है ॥ १०३ ॥
देशलक्षण। देशस्तुभूमिरातुरश्वतत्रभूमिपरीक्षाआतुरस्यपरिज्ञानहेतोर्वा
स्यादौषधपरिज्ञानहेतोर्वा । तत्रतावदियमातुरपरिज्ञानहेतोः। : . तद्यथा-अयंकस्मिन्भमिदेशेजातःसंवृद्धोव्याधितोवेतितस्मि
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चरकसंहिता - भा० टी० । श्चभूमिदेशेमनुष्याणामिदमाहारजातमिदंविहारजातमेतद्दल
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मेवंविधंसत्त्वमेवंविधंसात्म्यमेवंविधोदोष भक्तिरियमिमेव्याध - योहितमिदमहितमिदमितिप्रायोग्रहणेन ॥ १०४ ॥
देश - भूमिको और रोगी के शरीरको कहते हैं । उनमें भूमिकी परीक्षा करना आतुर के परिज्ञान के लिये और औषधके परिज्ञानके लिये होता है । उनमें भूमिकी 'परीक्षा और रोगीकी परिक्षा इस प्रकार करना । जैसे-यह किस भूमि अर्थात् किस देशमें उत्पन्न हुआ, किस देशमें वृद्धिको प्राप्त हुआ, किस देशमें रोगग्रस्त हुआ, जिस देशमें यह उत्पन्न हुआ और पला है उस देशके मनुष्यों का आहार, विहार और बल तथा सत्त्व एवम् सात्म्य किस प्रकार के होते हैं । उस देशमें दोष भेद इस प्रकार होतेहैं । इस प्रकार के पदार्थ इनको हितकर होते हैं, व्याधियें इस प्रकारकी होती हैं ये पदार्थ हितकर और अहितकर होते हैं। इसप्रकार रोग परिज्ञानके लिये भूमिकी परीक्षा करना चाहिये ॥ १०४ ॥ औषधपरिज्ञानहेतोस्तुकल्पेषुभूमिपरीक्षावक्ष्यते ॥ १०५ ॥
औषध परिज्ञानके लिये भूमिकी परीक्षा करना चाहिये सो कल्पस्थान में कथन करेंगे ॥ १०५ ॥
रोगिपरीक्षा ।
आतुरस्तुखलुकादेशस्तस्य परीक्षा आयुषः प्रमाणज्ञानहेतोर्वां स्वाइलदोषप्रमाणज्ञानहेतोर्वा ॥ १०६ ॥
चिकित्साका देश - अर्थात् चिकित्सा कार्यकी भूमि रोगी कथन किया है सो उस - रोगीकी आयु, बल, दोषोंका प्रमाण आदिकी परीक्षा करना आतुरपरीक्षा है१०६ तत्रतावदियं बलदोषविशेषप्रमाणापेक्षासह साहिअतिबलमौषधमपरीक्षकंप्रयुक्त मल्पबलमातुरमभिघातयेत्, नह्यतिबलान्याग्नेय सौम्य वायवीयान्यौषधान्यग्निक्षारशस्त्रकर्माणि वा शक्यन्तेऽल्पबलैः सोढ मविषह्यातितीक्ष्णवेगत्वाद्धिसयः प्राणहराणिस्युः ॥ १०७ ॥
चिकित्सा - रोगी के बल तथा दोषविशेषके प्रमाणकी अपेक्षा रखती है । जब वैद्य अल्प बलवाले रोगीको बिनाही परीक्षा किये बलवान् औषधीका प्रयोग करता है तो उसके प्राणोंको नष्ट कर देता है । बलहीन रोगीको अतिबलवान्, अत्यंत उष्ण, अत्यंतशीतल तथा अत्यंत्तवातप्रधान औषध प्रयोग करना तथा जो रोगी सहन नहीं
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विमानस्थान-अं०८ . (२) करसकता उसको दागना, शस्त्रकर्म करना और क्षारकर्म ( तेजाब आदिसे दग्ध करना) आदि तीक्षणकर्म और तीक्ष्ण औषध असह्य और तीक्ष्ण होनेसे. उसके प्राणोंको शीघ्र नष्ट करदेतीहै ॥ १०७॥
दुर्बलरोगीको औषध । एतच्चैवकारणमवेक्ष्यमाणाहीनबलमातुरमविषादकरै दुसुकुमारप्रायैरुत्तरोत्तरगुरुभिरविभ्रमैरनात्ययिकैश्चोपचरन्त्यौष- . धैःविशेषतश्चनारीस्ताहनवस्थितमृदुविकृतविकृवहृदया:प्रा. यःसुकुमारानार्योऽबलाःपरमसंस्तभ्याश्च ॥ १०८ ॥ इसलिये इन सब कारणोंकी अपेक्षा करताहुआ वैद्य हीनवल रोगीको कष्ट न देनेवाली मृदु तथा सुकुमार औषधों द्वारा साधन करे । यदि प्रबल औषधीकी भी आवश्यकता हो तो उसको क्रमपूर्वक जैसे वह सहन करसके वैसे उपयोग करे । जिससे वह कोई उपद्रव न करसके विशेषतासे स्त्रियोंकी नर्म औषधीद्वारा चिकि
सा करनी चाहिये। क्योंकि उनका हृदय अस्थिर, नर्म, विवृत्त, विकल(डरपोक) होताहै । प्रायः सुकुमार स्त्रिये निर्बल होती हैं और परकृत सांत्वनाकी अपेक्षा रखती हैं ॥ १०८ ॥.
___अल्पवल औषधको व्यर्थता। तथाबलवतिबलवद्वयाधिपरिगतेस्वल्पबलमौषधमपरीक्षकप्रयुक्तमसाधकं भवतितस्मादातुरंपरीक्षेतप्रकृतितश्चविकृतितश्वसारतश्चसंहननतश्चप्रमाणतश्चसात्म्यतश्चसत्त्वतश्चाहारशक्तितश्चव्यायामशक्तितश्चवयस्तश्चेति ॥ १०९ ॥ इसीप्रकार बलवान् व्याधि एवम् बलवान् रोगीको विना परीक्षा किये अल्पचल औषधीका प्रयोग हानिकारक होताहै इसलिये रोगीकी प्रकृतिसे, विकृतिसे, सारसे, शरीरसे सब प्रकार परीक्षा करे एवम् साम्य,सत्त्व, आहारशक्ति, परिश्रमशक्ति और अवस्था इन सबकी परीक्षा करनी चाहिये ॥ १०९ ॥
बलप्रमाण ग्रहणके कारण। बलप्रमाणविशेषग्रहणहेतोः तत्रामीप्रकृत्यादयोभावाः तद्यथा-शुक्रशोणितप्रकृतिकालगर्भाशयप्रकृतिमातुराहारविहारप्रकृतिमहाभूतविकारप्रकृतिञ्चगर्भशरीरमपेक्षते । ए: ताहियेनयेनदोषेणाधिकतमनैकेनानेकतमेनवासमनुबध्यन्ते ।
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(६२८) . चरकसंहिता-भा० टी० ।
तेन तेन दोषेणगर्भोऽनुबध्यते । ततःसासादोषप्रकतिरुच्यते . मनुष्याणांगादिप्रवृत्ता। तस्माद्वातला.प्रकृत्याकेचिपित्त
ला:केचिच्छ्रेष्मला केचित्संसृष्टाःसमधातवःप्रकृत्याकेचित्भवन्ति । तेषांहिलक्षणानिव्याख्यास्यामः ॥ ११० ॥ बलका प्रमाण जानने के लिये प्रकृति आदि भावोंकी इस प्रकार परीक्षा करे । जैसे शुक्र और शोणितकी प्रकृति,कालप्रकृति गर्भाशयकी प्रकृति, रोगीके आहार विहारकी प्रकृति,पंचमहाभूतों के विकारकी प्रकृतिकी परीक्षा करे । यह सब प्रकृति गर्भशरीरकी अपेक्षा करतीहैं । जैसे पिताके शुक्र और माताके रुधिरमें गर्भाधानके समय जिस जिस दोषकी अधिकता होतीहै गर्भमें भी उन्हीं उन्हीं दोषोंकी अधिकता अर्थात् अनुबंध होताहै । इसीलिये गर्भसे ही लेकर अर्थात् जन्मकालसे ही किसीरकी वातप्रकृति, किसीकी पित्तप्रकृति और किसीकी कफप्रकृति, किसीकी मिली हुई प्रकृति एवम् किसी २ को समधातु प्रकृति होतीहै । उन सब वातादि प्रकृतिवाले मनुष्योंके लक्षणोंको कथन करतेहैं ॥ ११० ॥
कफप्रकृति । श्लेष्माहि स्निग्धश्लक्ष्णमूदुमधुरसारसान्द्रमंदस्तिमितगुरुशीतविजलाच्छः । अस्यस्नेहाच्छ्लेष्मलाःस्निग्धाङ्गाः,श्लक्ष्णस्वाच्छक्ष्णाङ्गाः, मृदुत्वाट्टाष्टिसुखलुकुमारावदातशरीराः माधुर्याप्रभूतशुक्रव्यवायापत्याः, सारत्वात् सारसंहतस्थिरशरीराः, सान्द्रत्वादुपचितपरिपूर्णसर्वगात्राः,मन्दत्वान्मन्दचेष्टाहारविहाराः, स्तैमित्यादशीघारम्भक्षोभविकाराः, गुरुत्वात्साराधिष्ठितगतयः,शैत्यादल्पक्षुत्तृष्णासन्तापस्वेदोषाः, विजलत्वात्सुश्लिष्टसारबन्धसन्धानाः,तथाच्छत्वात्प्रसन्नदर्शनानना प्रसन्नस्निग्धवर्णस्वराश्वभवन्ति । तएवंगुणयोगाच्छेष्मलाबलवन्तोवसुमन्तोविद्यावन्तओजस्विनःशान्ताआयुष्मन्तश्चभ-.. वन्ति ॥ १११ ॥ कफप्रकृति-कफ-चिकना, श्लक्षण, मधुर, मृदु, सार,सांद्र, मंद,स्तिमित,भारी, शीतल,पिच्छल और स्वच्छ गुणवाला होताहै।कफ प्रकृति मनुष्यका शरीर कफके चिकने गुणसे चिकना होताहै,श्लक्षणसे गठनदार . होताहै,मृदु होनेसे नम्र होताहे.
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. विमानस्थान-अ०८.
(६२९) और सुन्दर तथा सुकुमार और खूबसूरत होताहै । सार होनेसे संहत और स्थिर होताहै सांद्र होनेसे सर्वांग परिपूर्ण और पुष्ट होते हैं । कफके मंद स्वभावसे मंद चेष्टा और आहार विहार मंद होतेहैं । स्तैमित्य होनेसे-उद्योग, क्षोभ और विकार यह सव विलंबसे होतेहैं।भारी होनेसे सारवान् और स्थिरगति होताहै।शैत्य होनेसेक्षुधा, तृषा, संताप, स्वेद और दोष यह अल्प होते हैं । पिच्छलगुण होनेसे शरीरके सव बंधन दृढ होतेहैं एवम् कफका स्वच्छ गुण होनेसे कफ प्रकृति मनुष्यकेदृष्टि, मुख, वर्ण, और स्वर यह सव निग्ध तथा प्रसन्न होतेहैं । इस प्रकार इन गुणों के कारण कफप्रकृति मनुष्य-वलवान्, विद्यावाला, ओजस्वी, शान्तस्वभाव तथा दीघायु होतेहैं ॥ १११ ॥
पितप्रकृतिके लक्षण । पित्तमुष्णंतीक्ष्णंद्रवंवित्रमम्लंकटकञ्च। तस्यौष्ण्यापित्तला भवन्तिउष्णासहाः उष्णमुखाः सुकुमारावदातगात्राःप्रभूतपिप्लव्यगतिलकपिडकाःक्षुत्पिपासावन्तःक्षिप्रवलीपलितखा'लित्यदोषाः । प्रायोमृद्वल्पकपिलश्मश्रुलोमकेशाःतैष्ण्यात्तीक्ष्णपराक्रमाःतीक्ष्णाग्नयःप्रभूताशनपानाःक्लेशसहिष्णवोदन्दशूकाद्रवत्वाच्छिथिलमृदुसन्धिबन्धमांसाःप्रभूतसृष्टस्वेदमूत्रपुरीषाश्चविस्रत्वात् । प्रभूतपूतिवक्षःकक्षस्कन्धास्यशिर शरीरगन्धाः कटुम्लत्वादल्पशुक्रव्यवायापत्याः। तएवंगुणयोगात्पित्तलामध्यवलामध्यायुषोमध्यज्ञानविज्ञानवित्तोपकरणव. न्तश्चभवन्ति ॥ ११२॥ पित्तप्रकृति-पित्तका स्वभाव गर्म,तक्षिण,द्रव,विन, अम्ल और चरपरे गुणवाला होताहै । पित्तप्रकृति मनुष्य-पित्तके उष्णगुण होनेसे गर्मी सहन नहीं करसकता तथा मुख मस्तक गरम रहताहै । और उनका शरीर कोमल और स्वच्छ होताहै । शरीरमें पिपलू, झाई, तिल तथा फुनसी आदि अधिक होतेहैं।क्षुधा,प्यास अधिक लगतीहै।शरीरमें सलवट पडना,वालोंका सफेद होजाना,सिरमें गंज होजाना यह सब छोटी ही अवस्थामें होजातेहैं.डाढी,मूछ,रोम और केश पायानरम,छोटेरऔर भूरेगके होते, पित्तके तीक्ष्ण गुण होनसे पित्तप्रकृति मनुष्य तक्षिण पराक्रमवाले,तीक्ष्ण अग्निवाले अन्नजलको शीघ्र पचाजानेवाले या अधिक खानेवाले, क्लेश सहन करनेकी सामर्थ्यवाले तथा दंदशक अर्थात् खानेके लोभी होतेहैं । पित्तके पतले स्वभाववाले
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(६३०)
चरकसंहिता-भान्टी०। होनेसे उनके संधि और मांस नरम तथा शिथिल होतेहैं और मल, मूत्र तथा. पसीना अधिक आतेहैं पित्तफे विन अर्थात् दुर्गंधयुक्त होनेसे उनके वक्षस्थल, कांख, मुख, मस्तक और शरीरसे दुर्गंध आतीहै । पित्तके चरपरे गुणसे और अम्लताके कारण अल्पशुक्र और अल्प मैथुन एवम् अल्प संतान होतीहै। इसप्रकार इन गुणोंवाले होनेसे पित्तप्रकृति मनुष्य मध्य आयु तथा: मध्यम बलवाले और ज्ञान, विज्ञान तथा धनसामग्रीवाले होते हैं ॥ ११२॥
वातप्रकृतिके लक्षण । वातस्तुरूक्षलघुचलबहुशीघ्रशीतपरुषविशदस्तस्यरौक्ष्यादातलारूक्षापचिताल्पशरीराःप्रततरूक्षक्षामभिन्नसक्तजर्जरस्वरा जागरूकाश्चभवन्तिलघुत्वाच्चलघुचपलगतिचेष्टाहारविहाराः, चलत्वादनवस्थितसन्ध्यक्षिभ्रूहन्वोष्ठजिह्वाशिरःस्कन्धपाणपादाःबहुत्वाइहप्रलापकण्डराशिराप्रतानाःशीघ्रत्वाच्छीघ्रसमारम्भक्षोभविकाराःशीघोत्रासरागविरागाःश्रुतग्राहिणःअल्पस्मृतयश्च,शैत्याच्छीतासहिष्णवःप्रततशीतकोद्वेपकस्तम्भाः पारुष्यात्परुषकेशश्मश्रुरोमनखदशनवदनपाणिपादाङ्गावैशद्यास्फुटिताडावयवाःसततसन्धिशब्दगामिनश्चभवन्ति । तएवं गुणयोगाद्वातलाःप्रायेणाल्पबलाश्चाल्पायुषश्चाल्पापत्याश्वाल्पसाधनाश्चाधन्याश्च ॥ ११३ ॥ वातप्रकृति-वायुका स्वभाव रूक्ष, हलका, चल, बहुल, शीघ्र, शीत, परुष और विशद गुणवाला होताहै। वातप्रकृति मनुष्यका शरीर वायुके रूक्षगुण होनेसे रूखा गिराहुआसा और कृश होताहै । स्वर अत्यंत रूक्ष, तीक्ष्ण, सक्त, भिन्न और जर्जरसा होताहै। निद्रा कम आतीहै । वायुका हलका गुण होनेसे उनकी गति,चेष्टा, आहार और व्यवहार लघु, तथा चपल होतेहैं। वायुके चलगुण होनेसे उनकी संधि,. आस्थ, भौहें, ठोडी, होठ, जिह्वा, शिर, कंधे, हाथ, पांव यह अस्थिर अर्थात् ताकः । नवर नहीं होते तथा कभी फडकते हैं। वायुके बहुत्व गुण होनेसे बहुत बोल नेवाला होताहै तथा कंडरा और नसोंके जालसे संपूर्ण शरीर व्याप्त होताहै । वायुकी. शीघ्र गति होनेसे आरम्भ, क्षोभ, विकार यह चित्तमें शीघ्र उत्पन्न होतेहैं एवम् त्रास,. रोग, वैराग्य यह शीघ्र उत्पन्न होतेहैं। तथा शीघ्र श्रुतको शीघ्र ग्रहण करना और भूलजाना यह गुण होतेहैं । वायुके शीतगुण होनेसे शीतको सहन न करसके
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विमानस्थान-अ०८.
(६३१) तथा उनके शरीरमें शीत, कम्प और जडता अधिक होतेहैं । वायुके परुष अर्थात् कठोर गुण होनेसे केश, श्मश्रु, गेम, नख, दांत,मुख,हाथ पांव,अंग यह सब कठोर होतेहैं । तथा वायुके विशद गुणसे अंगावयव फटेहुए होतेहैं । एवम् नित्य संघिय मटका करतीहैं । यह सब गुण होनेसे वातप्रधान मनुष्य अल्पायु अल्पसंतानवालें और अल्पसाधनवाले तथा निर्धन होतेहैं ॥ ११३ ॥
मिलीहुई तथा समप्रकृति । संसर्गात्सृष्टलक्षणाःसर्वगुणसमुदितास्तुसमधातवः इत्येवंप्रकृतितःपरीक्षेत ॥ ११४॥ दो दोषोंक संसर्गसे दो दोषोंके मिले जुले लक्षण होते हैं । सम्पूर्ण दोषोंके. समान होनेसे मनुष्य समधातु अर्थात् सम प्रकृतिवाला कहा जाताहै । इस नकार पुरुषकी प्रकृतिकी परीक्षा करनी चाहिये ॥ ११४ ॥
विकृतिपरीक्षा । विकृतितश्चेति। विकतिरुच्यते विकारः । तत्रविकारहेतुदोष- । दूष्यप्रकृतिदेशकालबलविशेषर्लिङ्गतश्चपरीक्षेत । नान्तरण हेत्वादीनांबलविशेषव्याधिबलविशेषोपलब्धिः । यस्यहि व्याधेर्दूष्यदोषप्रकृतिदेशकालसाम्यंभवतिमहच्चहेतुलिङ्गबलं सव्याधिर्बलवान्तद्विपर्यायाञ्चाल्पवल। मध्यवलस्तुदूष्यादी. नामन्यतमसामान्याद्धेतुलिङ्गमध्यबलत्वाञ्चउपलभ्यते॥११५॥
अव विकृतिकी परीक्षाको कथन करते हैं विकृति विकारको कहते हैं सो विदः. रको हेतु, दूष्य,दोष, प्रकृति,देश और काल तथा बल इनसे एवम् लक्षणसे पर करे। क्याोंके हेतु आदिकोंके वलविशेषको विनाजाने व्याधिक बलविशेषकी उपलब्धि नहीं होसकती। इनमें जिस व्याधिके दूष्य, दोष, प्रकृति, देश और काल समान हों अर्थात् एकही स्वभाववाले हों तथा हेतु आदिकोंके लक्षण बलवान् हों तो उस व्याधिको बलवान् व्याधि जानना । इससे विपरीत लक्षण होनसा
अल्पवल जानना । हेतु और दृष्य आदिकोंकी तुल्यता न होनेसे अन्य दोषोंकी · किंचित् साम्यता होतेहुए भी हेतुओंके लक्षण, मध्यवल होनेसे व्याधिको मध्यबल
जानना चाहिये ॥ ११५ ॥ . १ सर्वगुणसमुदिताः सर्वप्रकृतियुक्ताः प्रशस्तगुणयुक्ता इत्यर्थः ।
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चरकसंहिता-भा० टी०।
सारद्वारा परीक्षा। सारतश्चेतिसाराण्यष्टौपुरुषाणांबलमानविशेषज्ञानार्थमुपदि. श्यन्ते। तद्या-त्वपक्तमांसमेदोऽस्थिमज्जाशक्रसत्त्वानि । तत्रास्निग्धश्लक्ष्णमृदुप्रसन्नसूक्ष्माल्पगम्भीरसुकुमारलोमासप्रभाचत्वक्साराणाम्। सासारतासुखसौभाग्यैश्वय्योपभोगबुद्धिविद्यारोग्यमहर्षणान्यायुष्यत्वञ्चाचष्टे ॥ ११६ ॥ अब सारसे परीक्षा कहते हैं । मनुष्योंका सार आठ प्रकारका होता है ।पुरुषके बलविशेषको जाननेके लिये आठप्रकारके सारोंकी परीक्षा करे । वह इसप्रकार हैं। जैसे त्वचा, रक्त, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा, शुक्र और सत्व यह आठ प्रकारके 'सार हैं । इनमें त्वचासारखाले पुरुषकी त्वचा चिकनी, श्लक्ष्ण, मृदु,प्रसन्न, सूक्ष्म, किंचित् गंभीर, सुकुमार, रोम तथा कांतियुक्त होती है । इस सारताके होनेसे मनुष्य सुखी, सौभाग्ययुक्त, ऐश्वर्य तथा भोग और बुद्धियुक्त होता है । एवम् • विद्वान्, निरोग, हर्षयुक्त और दीर्घायु होता है ॥ ११६ ॥
रक्तसार। कर्णाक्षि-मुखजिहानासौष्ठपाणिपादतल- नख--ललाटमेहनानिस्निग्धरक्तानिश्रीमन्तिभ्राजिष्णानरक्तसाराणामासा सारतासुखमुदग्रतांमेधांमनस्वित्वंसाकुमार्यमनतिवलमक्लेशसहिष्णुत्वञ्चाचष्टे ॥ ११७॥ रक्तमें सारता होनेस मनुष्योंके कान, नेत्र, मुख, जीभ, नाक, मोठ, हाथ, पांव, नख, मस्तक,लिंग ये सब चिकने और लालवर्णके होतेहैं तथा शोभा और कांति. युक्त होतेहैं । रक्तमें सारता होनेसे मनुष्य सुख, उन्नति और मेधायुक्त तथा मनस्वी सुकुमार, साधारण बलवाला और क्लेशके न सहनेवाला होताहै ।। ११७ ॥
मांससार। . शंख-ललाट-कृकाटिकाक्षिगण्डहनुग्रीवास्कन्धोरःकक्षवक्षः. पाणिपादसंघयःस्थिरगुरुशुभमांसोपचितामांससाराणाम् । · सासारताक्षमांधृतिमलौल्यवित्तविद्यासुखमाजवमारोग्यंबल.
मायुश्चदीर्घमाचष्टे ॥११८॥
मांसमें सारता होनेसे मनुष्योंके कनपटी, मस्तक, गर्दनका पिछलाभाग, नेत्र, 'कपोल, ठोडी, गर्दन, कंधे,छाती,वक्षस्थल,कारख, हाथ, पांव और सांधियें दृढ, तथा - १ सारशब्देन विशुद्धतरो घातुरुच्यते इति चक्रपाणिः ।
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विमानस्थान - अ० ८.
- ( ६३३) मांसयुक्त पुष्ट होती हैं । और मांससार होनेसे मनुष्य क्षमा, धृति, निर्लोभ, धन, विद्या, सुख, नम्रता, आरोग्यता और बल तथा दीर्घायुवाला होता है ॥ ११८ ॥
मेदःसार । वर्णस्वरनेत्र केशला मनख दंतौष्ठमत्रपुरीषेषु विशेषतः स्नेहो मेदः - साराणाम् । सासारतावित्तैश्वर्य्य सुखोपभोगप्रदानान्यार्जवं सुकुमारोपचारतामाचष्टे ॥ ११९ ॥
मेदसार मनुष्योंकि वर्ण, स्वर, नेत्र, केश, लोम, नख, दंत, होठ, मूत्र और मल ये सव विशेष चिकने होते हैं और यह पुरुष धन, ऐश्वर्य, सुख, भोग, दातृभाववाला होता है तथा सरलतायुक्त, सुकुमार और उपकरणयुक्त होता है ॥ ११९ ॥
अस्थिसार ।
पाणिगुल्फजान्वरत्निजत्रुचिवुकाशिरः पर्वस्थलाःस्थूलास्थिनखदन्ताश्चास्थितारास्तेमहोत्साहाः क्रियावन्तश्चक्लेश सहाः सारस्थिरशरीराभवन्तिआयुष्मन्तश्च ॥ १२० ॥
अस्थिसार मनुष्यों के गुल्फ, जानु, अरत्नी, अश, चिवुक, मस्तक और संपूर्ण संधियें तथा अस्थि, नख और दांत यह सब स्थूल होते हैं । वह मनुष्य महोत्साही, क्रियावान्, क्लेश सहन करनेवाला, सारयुक्त तथा दृढ शरीरखाला और दीर्घायु होता है ॥ १२० ॥
मज्जासार ।
तन्वङ्गाबलवन्तः स्निग्धवर्णस्वरास्थूल दीर्घवृत्तसन्धयश्चमज्जासारास्ते दीर्घायुषोबलवन्तः ॥ १२१ ॥
मज्जासार मनुष्य पतली देहवाले, बलवान् चिकनेवर्ण और स्वरवाले होतेहैं इनकी संपूर्ण संधियें दृढ, स्थूल, लम्बी और गोल होती हैं । यह मनुष्य दीर्घाय और वलवान् होते हैं ॥ १२१ ॥
शुक्रसार ।
श्रुतविज्ञान वित्तापत्य सम्मान भाजश्च सौम्याः सौम्यप्रेक्षिणश्च क्षीरपर्णलोचना इवप्रहर्षबहुलाः स्निग्धवृत्तसारसम संहतशिखरिदशनाः प्रसन्नस्निग्धवर्णस्वराभ्राजिष्णवो महास्फिजश्चशुक्रसाराः तेस्त्रीप्रियाःप्रियोपभोगावलवन्तः ॥ १.२२ ॥ १ अरनिकफोणिका ।
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(६३४)
चरकसंहिता-भा० टी०। • शुक्रसार मनुष्य शास्त्र, ज्ञान, धन, संतानयुक्त और सन्मानके योग्य होताहै। तथा सौम्य, सुन्दरस्वरूप,दूधकोसी कांतिवाला,पूर्ण और प्रसन्न नेत्रोंवाला होताहै चिकने शरीरवाला, धनयुक्त, सुन्दर, सुडौल शरीर, तथा खूबसूरत दंतपंक्तीवाला होताहै । एवम् स्वर, वर्ण, उत्तम, चिकने होतेहैं तथा यह कांतिवान् और बड़े नितम्वोंवाला अधिक वीर्ययुक्त स्त्रियोंका प्यारा,कामी तथा बलवान होताहै१२२].
सत्त्वसार। सुखैश्वर्यारोग्यवित्तसम्मानापत्यभाजःस्मृतिमन्तोभक्तिमन्तःकतज्ञाःप्राज्ञाःशुचयोमहोत्साहादक्षाधीराःसमरविक्रान्तयोधिनःत्यक्तविषादाःसुव्यवस्थितागम्भीरबुद्धिचेतसःकल्याणाभिनिवेशिनश्चसत्त्वसाराः ॥ १२३॥ सत्त्वसार मनुष्य सुख, ऐश्वर्य, आरोग्यता, वित्त, सन्मान और संतानवाला होताहै तथा स्मृतिवान्, भक्तिवान्, कृतज्ञ, बुद्धिमान, शुद्ध, महोत्साही,चतुर और धीर होतेहैं । एवम् युद्ध के समय पराक्रमके साथ युद्ध करनेवाले,विषादरहित,स्थिरस्वभाव, गंभीरबुद्धि और गंभीरचित्त तथा कल्याणकी इच्छावाले होतेहैं ॥१२३।
तेषांस्वलक्षणैरेवगुणाव्याख्याताः ॥ १२४ ॥ इसपकार लक्षणों सहित त्वक्, सार आदि आठ प्रकारके सारवाले पुरुषोंके लक्षण और गुणोंका वर्णन कर दिया गयाहै ॥ १२४ ।।
सर्वसार। तत्रसर्वैःसारैरुपेताःपुरुषाभवन्त्यतिबलाःपरंगौरवयुक्ताः क्लेशसहाःसारभेष्वात्मनिजातप्रत्ययाः कल्याणाभिनिवेशिनः स्थिरसमाहितशरीराःसुसमाहितगतयःसानुनादस्निग्धगम्भीरमहास्वराःसुखैश्वर्यवित्तोपभोगसम्मानभाजामन्दजरसोमन्दविकाराःप्रायस्तुल्यगुणविस्तीर्णापत्याचिरजीविनश्च॥१२५॥ .
जो मनुष्य इन संपूर्ण सारोंस युक्त होते हैं वह अत्यन्त बलवान्, गौरवयुक्त, क्लेश सहन करनेकी सामर्थ्यवाले,संपूर्ण कामोंको अपने आप करनेकी इच्छावाले, कल्याण करनेकी इच्छावाले, स्थिर और दृढशरीरवाले मुसमाहित गतिवाले, अनुः नादसहित स्निग्ध, गंभीर और महास्वरवाले, सुख, ऐश्वर्य, वित्त उपभोगवाले, सम्मान पात्र और उनको बुढापा शीघ्र नहीं आता, विकार शीघ्र उत्पन्न नहीं
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विमानस्थान-अ०८. होते उनकी संतान उन्होंके समान गुणवाली,वंशके विस्तार करनेवाली और चिरंजीवी होती है ।। १२५ ॥
अतविपरीतास्त्वसाराः ॥ १२६ ॥ इससे विपरीत गुणोंवाले मनुष्य असार अर्थात् सारहीन होतेहैं ॥ १२६ ॥. मध्यानांमध्यःसारविशेषैर्गुणविशेषाव्याख्याताः। इतिसाराण्यष्टौपुरुषाणांबलप्रमाणविशेषज्ञानार्थानि ॥ १२७॥ मध्यमसार मनुष्यके शरीरमें संपूर्ण लक्षण मध्यम होते हैं ।इस प्रकार मनुष्योंके. वल, प्रमाण, विशेषके ज्ञान के लिये आठ प्रकारके सारोंका वर्णन कियागया१२७॥
कथंनुशरीरमात्रदर्शनादेवभिषमुह्येदयमुपचितत्वाइलवानयमल्पबलाकृशत्वान्महाबलवानयंमहाशरीरत्वादयमल्पशरी. रत्वादल्पबलइति । दृश्यन्तेह्यल्पशरीराःकृशाश्चैकेबलवन्तःतत्रपिपीलिकाभारहरणवसिद्धिः ।अतश्चसारतःपरीक्षेतइत्यु. क्तम् ॥ १२८॥ वद्य रोगीके शरीरमात्रकोही देखकर मोहित न होजाय । जैसे-हृष्टपुष्ट शरीरको देखकर यह बलवान है । कृश शरीरको देखकर यह दुर्वल है । बडे शरीरको देखकर वडा शरीर हानेसे वलवान समझ लेना, छोटा शरीर देखकर निर्बल समझ लेना इत्यादि मोहको न प्राप्त होजाय । क्योंकि छोटे शरीरवाले और कृश शरी: खाले भी बहुतसे बलवान् देखनेमें आतेहैं। जैसे पिपीलिका (चींटी विशेष)बहुत छोटी और कृश शरीर होते हुए भी अपनेसे अधिक भारको उठालेती है । इसी प्रकार सारवान् मनुष्य भी जानना । इसलिये सारद्वारा मनुष्यकी परीक्षा करनी चाहिये यह वर्णन कियागया है ॥ १२८॥
समुदायद्वारा परीक्षा । संहननतश्चतिसंहननसंघातःसंयोजनमित्यकोर्थः ॥ १२९ ॥ वैद्यको चाहिये कि शरीरकी संहननतासे भी परीक्षा करे । संहनन, संघातक. और संयोजन इन तीनों शब्दोंका एक ही अर्थ है । यह शब्द शरीरके संगठनके वाचक हैं ॥ १२९ ॥
तत्रसमसुविभक्तास्थिसुबद्धसन्धिसुनिविष्टमांसशोणितंसुसंहतंशरीरमित्युच्यते । तत्रसुसंहतशरीराः पुरुषाबलवन्तविप
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(६३६) चरकसंहिता-मा० टी०।
ययेणाल्पबला प्रवरावरमध्यत्वात् संहननस्यमध्यबलाभवन्ति ॥ १३०॥ जिसके शरीर में हड्डिये सब बरावर और सुविभक्त और संधियों में भले प्रकार सुबन्ध हों और मांस तथा रुधिर शरीरमें सुडौल और उचित रीतिपर पूरित हो उस शरीरको सुसंगत कहते हैं । वह सुसंगत शरीरवाले पुरुष बलवान् होतेहैं । इससे विपरीत गुणवाले दुर्बल होते हैं । मध्यम लक्षणवाले मध्य वल होते हैं ॥ १३०॥
प्रमाणसे परीक्षा । प्रमाणतश्चेतिशरीरप्रमाणंपुनर्यथास्वेलांगुलिप्रमाणेनोपदेक्ष्यते । उत्सेधविस्तारायामैर्यथाक्रमम् ॥ १३१ ।। 'शरीरके प्रमाणके अनुसार भी परीक्षा करनी चाहिये । प्रत्येक मनुष्यका प्रमाण उसकी अंगुलियों द्वारा प्रमाण कियाजाताहै । अर्थात् प्रत्येक मनुष्यकी लंबाई, चौडाई और ऊंचाईको उसकी अंगुलियों द्वारा प्रमाणित जानना। उसको यथाक्रम वर्णन करते हैं ॥ १३१ ॥
तत्रपादौचत्वारिषट्चतुर्दशचाङ्गलानि, जंघेत्वष्टादशांगुले 'षोडशांगुलिपरिक्षेपे, जानुनीचतुरंगुलेषोडशांगुलिपरिक्षेपे, त्रिंशदंगुलपरिक्षेपावष्टादशांगुलावूरू, वृषणोषडंगुलदीर्घावष्टांगुलपरिणाही, शेफःषडंगुलदर्घिपञ्चांगुलपरिणाहं, द्वादशांगुलपरिणाहोभगः,षोडशांगुलविस्ताराकटी,दशांगुलंबास्त'शरः,दशांगुलविस्तारद्वादशांगुलमुदरं,दशांगुलविस्तीर्णेद्वादशांगुलायामेपार्श्वद्वादशांगुलविस्तारंस्तनान्तरंद्वयंगुलंस्तनपय॑न्तं, चतुर्विंशत्यंगुलविशालंद्वादशांगुलोत्सेधमुरःद्वयंगुलं हृदयम्, अष्टांगुलोस्कन्धौ, षडंगुलावंसौ, षोडशांगुलौवाहू, पञ्चदशांगुलौपाणी, हस्तोद्वादशांगुलौ, कक्षावष्टांगुली, त्रिक द्वादशांगुलोत्सेधम्,अष्टादशांगुलोत्सेधंपृष्ठं, चतुरंगुलोत्सेधा द्वाविंशत्यंगुलपरिणाहाशिरोधरा,द्वादशांगुलोत्सेधंचतुर्विशत्यंगुलपरिणाहमाननं,पञ्चांगुलमास्य,चिबुकोष्ठकर्णाक्षिमध्यना(१) प्रमाणतश्चेति प्रशस्त प्रमाणमगानाम्।
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विमानस्थान - अ० ८.
सिकाललाटानि, चतुरंगुलानि, षोडशांगुलोत्सेधंद्वात्रिंश-दंगुलपरिणाहंशिरइति पृथक्त्वेनाङ्गावयवानांमानमुक्तं केवलं - पनःशरीरमंगुलिपर्वणिचतुरशीतिस्तदायामविस्तारसमंसमु :
( ६३७ )
च्यते ॥ १३२ ॥
पैरोंकी - : चाई चार अंगुल चौडाई छः अंगुल और लंबाई चौदह अंगुल होती है घुटने से नाचे - टांगों पिंडलियों) की लंबाई - अठारह अंगुल और घेर सोलह अंगुल होता है । जानुकी लंबाई- चार अंगुल और वेष्टन सोलह अंगुल होता है । जानुसे ऊपर ऊरूस्थल अर्थात् मोटी जांघकी लंबाई तीस अंगुल, और घेर अठारह अंगुल होता है । वृषण अर्थात् फोतके नसोंकी लंबाई छः अंगुल और वेष्टन आठ अंगुलका होताहै । शिश्न इंद्रियकी लंबाई छः अंगुल और वेष्टन पांच. अंगुलका होता है । भगकी गहराई - बारह अंगुल होती है। कमर सोलह अंगुल चाड' होती हैं । मूत्रवस्ती दश अंगुलके विस्तारवाली होती है । उदरका बारह अंगुल विस्तार है । दोनों पार्श्वका दशदश अंगुल विस्तार, और बारह बारह अंगुल लम्बाई है। दोनों स्तनोंका बारह अंगुलका अन्तर और दोदो अंगुलकी सीमा होती है । छाती चौवीस मंगुल चौडी और बारह अंगुल लम्बी होती है । हृदय - दो अंगुल कन्धे - आठ २ अंगुल | दोनों अंस-छः अंगुल होते हैं। सोलह अंगुल बाहोंका ऊपरका भाग । पन्द्रह अंगुल कोहनी से नीचेका भाग । दश अंगुल हाथ और आठ अंगुल कांख होती है । त्रिकस्थान - वारह अंगुल ऊंचा । पृष्ठस्थान- आठ अंगुलऊंचा। गर्दन चार अंगुल ऊंची आर बारह अगुल घेरमें होती है । बारह अंगुल ऊंचा और चौवीस अंगुल में चेहरा होताह। पांच अंगुलका मुख । चिबुक, ओष्ठ, दोनों कान दोनों नेत्र, नाक और मस्तक चार अंगुल विस्तारमें होते हैं। शिरका लवाब. सोलह अंगुल और वेर बत्तीस अंगुल होता है । इस प्रकार शरीर के पृथक् २ अवयवोंका परिमाण वर्णन किया गया है । सम्पूर्ण शरीरकी ऊंचाई चौरासी अंगुल होती है शरीरकी ऊंचाई और घेर प्रायः बराबर होता है । यह लक्षण सामान्यता से कथन. किया गया है ॥ १३२ ॥
तत्रायुर्बुल मोजः सुखमैश्वर्य्यवित्तमिष्टाश्चापरेभावाभवन्त्यायत्ताः प्रमाणवतिशरीरे विपर्य्ययस्तुहीनेऽधिकेवा ॥ १३३ ॥
( १ ) यश्व मानविरोधः सुश्रुतेन सोत्राङ्गुलेमानभेदात् शमयितव्यः । तत्र हि सविंशमंगुलिशवं पुरुषमानंम्, तेन तत्राङ्गुलिमानमेवाल्यं ज्ञेयम् । आयाम विस्तारसममिति यथोक्तप्रत्यवयवायामविस्तार-युक्तम् ।
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(६३८)
चरकसंहिता - भा० टी० ।
1. जो शरीर प्रमाणयुक्त यथार्थ होता है उस शरीखाले मनुष्यकी, आयु, बल, ओज, सुख, ऐश्वर्य, वित्त और अन्य भी सम्पूर्ण भाव स्वाधीन होते हैं । हीन वा अधिक होनेसे विपरीत होते हैं ॥ १३३ ॥
सात्म्यद्वारा पररीक्षा । सात्म्यतश्चेति । सात्म्यंनामतद्यत्सातत्येनेोपयुज्यमानमुपशेते तत्रयेघृत क्षीरतैलमांसरससात्म्याः सर्वरससात्म्याश्च तेवलवन्तः क्लेशसहाश्चिरजीविनश्चभवन्ति । रूक्षनित्याः पुनरेकरससात्म्याश्चयेते प्रायेणाल्पबलाश्चाक्लेशसहा अल्पायुषोऽल्पसाधनाश्च भवन्ति ॥ १३४ ॥
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मनुष्योंके सात्यकी भी परीक्षा करनी चाहिये। जो पदार्थ निरन्तर सेवन किया जानेपरभी शरीरके अनुकूल अर्थात् हितकारी प्रतीत हो उसको सात्म्य कहते हैं। जिन मनुष्यों को घृत, दूध, तेल, मांसरस तथा मधुर आदि सम्पूर्ण रस सात्म्य होते हैं वह मनुष्य बलवान् और क्लेश सहन करने में समर्थ तथा दीर्घजीवी होते हैं । जो मनुष्य निरन्तर रूक्ष पदार्थोंको सेवन करते हैं तथा जिनको एक रस ही सात्म्य "है वह मनुष्य प्रायः अल्पवलवाले क्लेश सहन करने में असमर्थ, अल्पायु और अल्पसाधनवाले होते हैं ॥ १३४ ॥
व्यामिश्रतात्म्यास्तु येते मध्यबलाः सात्म्यनिमित्ततः ॥ १३५ ॥
जिन मनुष्यों को मिले जुले रस सात्म्य हों और पृथक् २ सात्म्य न हों अथवा उपरोक्त दोनों प्रकारके मनुष्यके कुछ २ लक्षण मिलते हों वह मनुष्य मध्यवल साम्यके निमित्त मध्यमवलवाले होतेहैं ॥ १३५ ॥
सत्व परीक्षा ।
सच्चतश्चेति । सत्वमुच्यते मनस्तच्छरीरस्यतन्त्र के मात्मयोगातत्त्रिविधंबलभेदेनप्रवरंमध्यमवरामति । अतश्चप्रवरमध्यावरसत्त्वाश्चपुरुषाभवन्ति । तत्रप्रवरसत्त्वाः सत्त्वसाराःसारे'बुउपदिष्टाः स्वल्पशरीराद्यपि ते निजागन्तुनिमित्तासुमहतीष्वपि पीडास्वव्यग्रादृश्यन्तेसत्त्वगुणवैशेष्यात् ॥ १३६ ॥ मनुष्य के सत्वकी भी परीक्षा करनी चाहिये। सत्व नाम मनका है। वह मन आत्मा. के संयोगसे शरीरका तंत्रक है अर्थात शरीरको अपने भावोंसे तंत्रण और धारण १ तन्त्रकमिति प्रेरकं धारकं च ।
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'विमानस्थान-अ०८.
(६३९) करनेवाला होताहै वह बलके भेदसे उत्तम मध्यम और कनिष्ठ इन तीन प्रकारका होताहै इसीलिये मनुष्य उत्तमसत्त्व,मध्यमसत्त्व और अधमसत्त्व होतेहैं उनमें उत्तमसत्त्व पुरुष सत्वसारों में कथन कर चुकेहैं वह उत्तमसत्वसार मनुष्य अल्प शरीर होनेपर तथा निज और आगन्तुक महाकष्ट उपस्थित होनेपर भी व्यग्रचित्त नहीं होते क्योंकि इनमें सत्त्वगुणकी विशेषता होती है ॥ १३६ ॥
मध्यसत्त्वादिपुरुष । मध्यसत्त्वास्तुपरानात्मन्युपनिधायसंस्तम्भयन्त्यात्मनात्मानं परैर्वापिसंस्तभ्यन्तहीनसत्त्वास्तुनात्मनानचपरैःसत्त्वबलंशक्यन्ते उपस्तम्भयितुंमहाशरीराह्यपिते स्वल्पानामपिंवेदनानामसहादृश्यन्ते । सन्निहितभयशोकलोभमोहमाना रौद्रभैरवद्विष्टबीभत्सविकृतसंकथास्वपिचपशुपुरुषमांसशोणितानिचावेक्ष्य विषादवैवर्ण्यमूछोन्मादभ्रमप्रपतनानामन्यतमसाप्नु वन्त्यथवामरणमिति ॥ १३७ ॥ मध्यमसत्त्ववाले मनुष्य-अन्य मनुष्योंको कष्ट सहते देखकर स्वयं भी उनके सहारेसे अथवा दूसरोंकी सहायतासे या दूसरोंके धैर्य देने आदिपर किसी प्रकार कष्ट सहन कर सकतेहैं।हानसत्त्व पुरुष-न तो स्वयं कष्ट सहनकरसकते हैं और न दूसरकी सहायता देनेपर भी धैर्य धारण करते हैं । यह मनुष्य बड़े भारी शरीरवाले अल्पकष्टको सहन नहीं कर सकते । और सदैव इनके चित्तमें भय, शोक, लोभ, मोह स्थित रहते हैं । एवम् लंडाई अथवा डरावनी बात एवं भयानक बात और देषकारक बातोंको सुनकर तथा पशु, पुरुषादिकोंके मांस रक्त आदि देखकर ही विषाद, विवर्णवा, मूर्च्छता, उन्माद, गिरजाना अथवा अन्य किसी प्रकारका 'विकार होना या मृत्युतकको प्राप्त होना ऐसे उपद्रव होते हैं ।। १३७ ॥
भोजनशक्तिद्वारा परीक्षा । . आहारशक्तितश्चोत । आहारशक्तिरस्यवहरणशक्त्याजरणशतयाचपरीक्ष्यबलायुषीह्याहारायत्ते ॥ १३८॥ मनुष्यकी आहारशाक्ति से भी परीक्षा करनी चाहिये । भोजन करनेकी शक्तिसे • आहारके परिमाणसे, आहारकी परिपाक शक्तिसे आहार शक्तिकी परक्षिा की जानी है , मनुष्योंका बल और आयु आहारके ही आधीन है ।। १३८॥ .
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(६४०) चरकसंहिता-भा० टी०।
- ब्यायामशक्तिद्वारा परीक्षा । व्यायामशक्तितश्चेति। व्यायामशक्तिमपिकर्मशक्यापरीक्ष्याः कर्मशक्क्यायनुमीयतेबलं त्रिविधम् ॥ १३९ ॥ व्यायाम शक्तिद्वारा भी परीक्षा करनी चाहिये । कर्मशक्तिसे व्यायाम शक्तिकी परक्षिा हो सकती है । कर्मशक्तिसे ही मनुष्यके उत्तम मध्यम और होनबलकी. परीक्षा कीजासकती है ॥ १३९ ।।
अवस्थासे परीक्षा । वयस्तश्चेति । कालप्रमाणविशेषापक्षिणीहिशरीरावस्थावयोऽभिधीयते । तद्वयोयथावस्थानभेदेनत्रिविधंवालंमध्यंजीर्णमिति ॥ १४०॥ वय अर्थात् अवस्था विशेषकी भी परीक्षा करनी चाहिये।कालप्रमाणकी अपेक्षा करनेवाली जो शरीरकी अवस्था है उसको वय कहते हैं । वह वय स्थूल भेदसे बाल मध्य और जीर्ण अर्थात् वाल्यावस्था,तरुणावस्था और वृद्धावस्था इन तीन भेदों: वाली होती है ॥ १४० ॥
वाल आदि अवस्था। तत्रबालसपरिपक्वधातुगुणमजातव्यञ्जनसुकमारमक्लेशसहमसम्पूर्णबलं श्लेष्मधातुप्रायमाषोडशवर्षम् । विवर्द्धमानधातुगुणपुनःप्रायेणानवस्थितसत्त्वमात्रिंशद्वर्षमुपदिष्टम् ।मध्यं नः समर्थागतबलवीर्यपौरुषपराक्रसग्रहणधारणस्मरणवचनविज्ञानसर्वधातुगुणं बलस्थितमवस्थितसत्त्वम्माविशीयमाणधातुगुणं पित्तधातुप्रायमाषष्टिवर्षमुद्दिष्टम्।अतः परं परिहीयमाणधात्विन्द्रियबलपौरुषपराक्रमग्रहणधारणस्मरणवचनविज्ञानंभ्रश्यमानधातुगुणंवातधातुप्रायंक्रमेणप्रजीर्णमुच्यते आवर्षशतम् ॥ १४१ ॥ उनमें बाल्यावस्थामें सब धातु विना पकी होतीहैं और मोछ, दाढी, आदि धातुओंके गुण प्रगट नहीं होते । शरीर सुकुमार,कष्ट सहनेके अयोग्य असंपूर्ण वल और कफ प्रधान होताहै । सोलह वर्ष पर्यन्त बाल्यावस्था होतीहै ॥ सोलह वर्षसेः तीसवर्ष पर्यन्त सम्पूर्ण धातुओंके वल और गुण बढते हैं और मन प्रायः अनव..
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विमानस्थान-अ०८ (६४१) स्थित होताहै (इस अवस्थाको युवावस्था तथा किसीके मवमवाल,वृदि,सम्पूर्णता
और हानि यह चार अवस्थाह)। तीसवर्षके उपरान्त साठवर्षकी अवस्थांतक मध्यअवस्था होतीहै । इस अवस्थामें बल, वीर्य, पुरुषार्थ, पराक्रम, ग्रहणशक्ति, धारणा, स्मरणशक्ति, वचनशक्ति और विज्ञान परिपूर्ण होतेहैं तथा सम्पूर्ण धातु
ओंके गुण भी पूर्णतायुक्त होते हैं। यह अवस्था पित्तप्रधान होतीहै । इसके उपरान्त मनुष्यकी धातु,इन्द्रिय,वल,पुरुषार्थ,पराक्रम,ग्रहणशक्ति, स्मरणशक्ति, वचनशक्ति
और विज्ञानशक्ति घटने लगजातीहै।सम्पूर्ण धातुयें अपने गुणोंसे भ्रश्यमान होजाती हैं इस अवस्थाको वृद्धावस्था कहते हैं। इसमें वायुको प्रधानता होती है । साठसे सौवर्षतक वृद्धावस्था कहीजातीहै ॥ १४१॥
वयाक्रमसे औषधप्रयोग । वर्षशतंखल्वायुषःप्रमाणमस्मिन्काले । सन्तिपुनरधिकोनवर्षशतजीविनोमनुष्याः। तेषांविकृतिवज्यै प्रकृत्यादिबलविशेषैरायुषोलक्षणतश्चप्रमाणमुपलभ्यवयसस्त्रित्वविभजेत । एवंप्र. कृत्यादीनांविकृतिवानांभावानां प्रवरमध्यावरावभागेनबलविशेषंविभजेत् । विकृतिबलत्रविध्येनतु दोषबलंत्रिविधमनुमीयते । ततोभैषज्यस्यतीक्ष्णमृदुमध्यविभागेनत्रित्वंविभ
ज्ययथादोभैषज्यमवचारयेदिति ॥ १४२॥ . . आयुका प्रमाण इस कालमें प्रायः सौवर्षका होताहै । किन्तु बहुतसे मनुष्य सत्वादि गुणविशेषसे और पुण्यशाली होनेसे सौवर्षसे अधिक भी जीतेहैं । परन्तु आयुका प्रमाण सौवर्षसे अधिक नहीं है ।मनुष्यके जीवनकी विकृतिको त्यागकरः प्रकृति आदिके बल विशेषसे और आयुके लक्षणोंसे आयुके प्रमाणको जानकर अवस्थाके तीन भेद करनेचाहिये । इसीप्रकार विकृतिको त्यागकर प्रकृत्यादिक मावोंका उत्तम,मध्यम और अधम विभाग करनसे तीन प्रकारका बलविशेष जानना चाहिये । विकृतिक तीन प्रकारके बलसे दोषोंके बलका तीनप्रकारका अनुमान कियाजाताहै । इसीप्रकार इन सबका विचार करनेके अनन्तर औषधीको तीक्ष्ण मध्यम और मृदु विभागकर बलवान् दोषमें तीक्ष्ण औषधी, मध्यम दोषमें मध्य
औषधी और थोडे दोषमें मृदु औषधीका उपयोग करना चाहिये ॥ १४२ ॥ ___आयुषःप्रमाणज्ञानहेतोःपुनरिन्द्रियेषुजातिसूत्रीयेचलक्षणान्यु
पदेश्यन्ते ॥ १४३ ॥
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(
२)
चरकसंहिता-भा० टी०॥ .... मायुका प्रमाण जानने के लिये, इन्द्रिय स्थानके मावित्रीवाध्यायमें लक्षणोंकों -अमन करेंगे ॥१३॥
कालभेद । कालःपुनःसंवत्सरश्चातुरावस्थाच । वत्रसंवत्सरोद्विधात्रिधा. . बोटाद्वादशधाभवश्चातः प्रविभज्यते तत्चत्कार्यमाभस
मोक्ष्य ॥१४४॥ . .. काल, संवत्सर और आतुरकी अवस्थाको कहते हैं। इनमें संवत्सर काल अपन विभागसे दो प्रकारका,और सदी, गर्मी,वर्षा इन भेदोंसे तीन प्रकारका, ऋतुभेदसे छ प्रकारका,महीनों के विभागसे बारह भागोंमें विभक्त होताहै । इसके उपरान्त कार्यविभागसे और भी विभागोंमें विभक होता जाताहै ॥ १४४ ॥
षड्ऋतुविभाग। तत्रखलुतावत्षोढाप्रविभज्यकार्यमुपदेक्ष्यते । हेमन्तोग्रीष्मो वर्षाश्चेतिशीतोष्णवर्षलक्षणास्त्रयःऋतवोभवन्ति । तेषामन्तरेवितरेसाधारणलक्षणास्त्रयःऋतवःप्रावृटशरद्वसन्ताइति । प्रावृट्इतिप्रथमःप्रवृष्टेःकालस्तस्यानुबन्धोवर्षाएवमेतेसंशोध
नमधिकृत्यषड्विभज्यन्तेऋतवः ॥ १४५॥ __ . उस संवत्सर कालके.छः विभागकर कार्योंको कथन करतेहैं ।उन छः ऋतुओंमें
हेमन्स, ग्रीष्म और वर्षा यह तीन सर्दी, गर्मी और वर्षात इन तीन लक्षणोंवाली तीन ऋतुएँ होती हैं। इनके अन्तरमें प्रावृट्, शरद् और वसन्त यह तीन ऋतुएँ साधारण.लक्षणोंवाली होती है । प्रावृट् ऋतु-ग्रीष्म और वर्षाऋतके साधारण लक्षणवाली होती है। शरदऋतु-वर्षा और सर्दीके साधारण लक्षणवाली होती है। बसन्तऋतु-सदी और गम के लक्षणाली. होतीहै । संशोधन क्रिया करने के लिये 'हन छ। ऋतुओंके विधानका कथन कियाहै ॥ १४६ ॥ .
तत्रसाधारणलक्षणेष्वृतुषुवमनादीनांप्रवृत्तिर्विधीयतेनिवृषिरितरेषुः । साधारणलक्षणाहिमन्दशीतोष्णवर्णत्वात्सुख़तमा. . · श्वभवन्त्यविकल्पकाश्चशरीरोषधानामितरेपुनरत्यर्थशीतोष्ण
पर्षत्वादुःखतमाश्चभवंतिविकल्पाश्चशरीरोषधानाम् ॥ १४ ॥
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विमानस्थान-अ०८. .इन छ: ऋतुर्थीम साधारण लक्षणोंवाली तीन ऋतुओंमें वमनादि संशोधनक्रिया करनी चाहिये । साधारणसे विपरीत तीन ऋतुओंमें वमनादि नहीं करने चाहिया साधारण लक्षणांवाली ऋतुयें-अल्प शीतगुणवाली, अल्प गर्मोवाली और अल्पवर्षागुणवाली होनेसे मुखदायी होती हैं । इन प्रावृट् और शरद् तथा वसन्त ऋतुमें
औषधिये सब कार्य सिद्ध करनेवाली होती हैं तथा शरीर भी शोधनके योग्य होते हैं । इनसे विपरीत ऋतुओंमें अधिक:सर्दी, अधिक गर्मी और अधिक वर्षा होनेसे ये ऋतुयें दुःखदायक होती हैं । उस समय शरीरसंशोधन करनेके योग्य नहीं होते और औषधियें अपना यथोचित कार्य नहीं कर सकीं ॥ १४६ ॥
शीतमें संशोधननिषेध। तनहेमन्तेह्यतिमात्रशीतोपहंतंत्वाच्छरीरमसुखोपपन्नं भवति । .. अतिशीतवाताध्मातमतिदारुणीभूतमवनदोषम् । भेषजं पुनः संशोधनार्थमुष्णस्वभावमन्तेशीतोपहतत्वान्मन्दवीर्यत्वमापद्यते । तस्मात्तयोः संयोगेसंशोधनमयोगायोपपद्यते .. शरीरञ्चवातोपद्रवाय ॥ १४७ ॥ हेमन्त ऋतुम-शीतके अत्यन्त पडनेसे शरीरको दु:ख प्राप्त होता है। शीतल पवनके लगनेसे शरीर अत्यन्त रूक्ष होजाताहै रोम मार्गके संकुचित होनानेसे पसीना नहीं आता और दोष अत्यन्त वन्धा हुआ होता है।उस समय उष्ण स्वभाववाली संशोधन औषधी दी जानेपर शीतसे उपहत होकर मंदवीर्य होजाती है। इसलिये उस समय शरीर और औषधीका संयोग होनेसे संशोधनका अयोग होजाता और शरीरमें वायुके उपद्रव होनेलगजाते हैं ।। १४७ ॥
ग्रीष्ममें निषध । प्रीष्मेपुन शोष्णोपहतत्वाच्छरीरमसुखोपपन्नं भवति । उष्ण- . घातातपाध्मातमातिशिथिलमत्यन्तप्रविलीनदोषभेषजंपुनःसंशोधनार्थमुष्णस्वभावमेवात्युष्णानुगमनात्तीक्ष्णवरत्वमापद्य-. तोतस्मात्तयोःसंयोगेसंशोधनमतियोगायोपपद्यतेशरिमपि। पिपासोपद्रवाय ॥ १४८॥. प्रोममें अत्यन्त गौके ' पडनेस शरीर दुखित होजाताहै. ग. वायके जाने से शरीर शियि होजाता है। दोष सब विलीन होजाते। उस समय संगो धन औषयी. उष्णर्य होनेसे गर्मी की सहायता पाकर और भी अधिक
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(६४४ )
चरकसंहिता - भा० डी० ॥
तक्ष्ण होजाती है । उस समय दोषों के अत्यन्त नर्म होनेसे और औषधका तीक्ष्ण स्वभाव होजानेसे तथा शरीरके मृदु होनेसे संशोधनका अतियोग होजाता है। शरीरमें भी पिपासा आदि उपद्रव उत्पन्न होजाते हैं ॥ १४८ ॥
वर्षामें निषेध | वर्षासुतुमेघजालावतते गूढार्कचन्द्रतारेधाराकुलेवियतिभूमौ पङ्कजलपटलसंवृत्तायामत्यथों पक्लिन्नशरीरेषु भूतेषुविहतस्वभावेषुचकेवलेष्वोषधग्रामेषुतोयदानुगतमारुतसंसगापहतेषुगुरुप्रवृत्तीनिवमनादीनि भवन्ति । गुरुसमुत्थानानिशरीराणि । तस्माद्वमनादीनांनिवृत्तिर्विधीयतेवर्षान्तेषुऋतुषुनचेदात्ययि
केकर्म ॥ १४९ ॥
वर्षाऋतु आकाश मेघजालसे सदैव आच्छादित रहता है, सूर्य, चन्द्रमा, तारागण मेघोंसे ढके रहते हैं । पृथ्वी कीचड और जलसे संवृत्त होती हैं, उस समय मनुष्यों के शरीर अत्यन्त आर्द्रतायुक्त होते हैं तथा औषधियों के स्वभाव विहत होजाते हैं तथा वर्षा जल और वायुसे उपहत स्वभाव होजाती हैं उससमय वमनादिक कर्म करनेसे उनकी अधिक प्रवृत्ति होती है । इसलिये वर्षाऋतु में किसी अत्यावश्यकता के विना चमन आदि कर्म नहीं करने चाहिये ॥ १४९ ॥
आत्ययिकेपुनः कर्म्मणिकाममृतुंविकल्प्यकृत्रिम गुणोपधानेन यथर्त्तुगुणविपरीतेन भैषज्यंसंयोगसंस्कारप्रमाणविकल्पेनोपपाद्यप्रमाणवीर्य्यससंकृत्वा ततः प्रयोजयेदुत्तमे नयत्नेनावहितः १५०
ป
यदि ऐसी ऋतुओं में शोधन करानेकी किसीप्रकार आवश्यकता पडजाय ता युक्तिपूर्वक उस ऋतुके गुणोंके विपरीत भाव उत्पन्न कर संयोग, संस्कार और प्रमाण विकल्पते औषध कल्पनाकर सब भावको समान बना सावधानीसे औषध. प्रयोग करनाचाहिये ॥ १५० ॥
कार्यकालनिर्णय | आतुरावस्थास्वपितृकार्याकार्य प्रतिकालाकाल संज्ञातद्यथा अस्यामवस्थायामस्य भेषजस्यकालोऽकालः पुनरस्यति ॥ १५१ ॥
.N.
. रोगीको अवस्थामैभी कार्य, अकार्य, काल और अकालकी संज्ञा जाननी चाहिये जैसे इस अवस्थामें इस औषधका समय है अथवा नहीं है ॥ १५१ ॥
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विमानस्थान-अ०८.
(६४५) एतदपिभवत्यवस्थाविशेषेणतस्मादातुरावस्थास्वपिहिकाला- . कालसंज्ञा।तस्यपरीक्षामुहुर्मुहुरातुरस्यसर्वावस्थाविशेषावेक्षणं यथावत्भेषजप्रयोगार्थम्। नातिपतितकालमप्राप्तकालंकाभेपजमुपयुज्यमानंयौगिकंभवति कालोहिभपज्यप्रयोगपातिमभिनिर्वर्त्तयति ॥ १५२ ॥
इसप्रकार विचारपूर्वक कार्य करना अथवा न करना चाहिये इस प्रकारको परीक्षा रोगीके अवस्थाविशेषसे होती है । इस लिये रोगीकी अवस्था में भी समय
और असमयकी संज्ञा होती है उसकी परीक्षा वारम्वार रोगीको सम्पूर्ण अवस्थाविशेषकी अपेक्षा करती है । जैसे औषधप्रयोग के लिये भी अवस्थाविशेष विचार: नेकी आवश्यकता पड़ती है। जिस समय औषधका काल न हो अर्थात् औषध देनेका समय व्यतीत होचुकाहो और उस औषधीके लिये दूसरा समय कुसमय हो या औषध देनका समय न आया हो तो औषधका प्रयोग नहीं करना चाहिये । ठीकसमयपर औषधका प्रयोग करनाही उत्तम योग कहाजाता है ।काल ही औषधके योगकी परिपूर्णता करताहै ॥ १५२ ॥
प्रवृत्ति । प्रवृत्तिस्तुप्रतिकर्मसमारंभातस्यलक्षणभिषगातुरोषधपारचारकाणांक्रियासमायोगः ॥ १५३ ॥ प्रवृत्ति प्रत्येक कर्मके समारंभको कहतेहैं । वैद्य, रोगी, औषध और परिचारक इनकी क्रियाका समायोग होना प्रवृत्तिका लक्षण है ॥ १५३ ॥
उपाय । उपायः पुनर्भिषगादीनांसौष्टवमभिसन्धानञ्चसम्यक् । तस्यलक्षणंभिषगादीनांयथोक्तगुणसंपद्देशकालप्रमाणसात्म्यक्रियादिभिश्चसिद्धिकारणैःसम्यगुपपादितस्यौषधस्यावचारणमिति । एवमेतदशपरीक्ष्यविशेषा:पृथक्पृथकपरीक्षितव्याभवन्ति । परीक्षायास्तुखलुप्रयोजनप्रतिपत्तिज्ञानम् ॥ १५४॥: वैद्यादिकोंका चिकित्साके उद्देश्यसे अनुकूल रीतिपर उपस्थित होना उपाय कहाजाताहै । वैद्य आदिक चिकित्साके चारों पादोंका यथोचित गुणसम्पन्न होकर देश, काल, प्रमाण, साल्य और क्रिया सिद्धि आदि कारणोंसे उत्तम रीतिपर
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चरकसंहिता-भा० टी०॥ औषधका आचरण करना उपायका लक्षण होताहै । इन दश प्रकारके लक्षणोंकी परीक्षा करनेका प्रयोजन प्रतिपत्तिज्ञान है ॥ १५४ ॥
प्रतिपत्ति। . प्रतिपत्तिनामसयस्तुविकार यथाप्रतिपत्तव्यस्तस्यतथानुष्ठान
ज्ञानम् ॥ १५५ ॥ जो विकार जिस प्रकार जिस स्थान प्राप्त हो उसका उसी प्रकार ठीक समझकर यल करने के लिये प्रवृत्त होना प्रतिपत्ति कहाजाताहै ॥ १५ ॥
यत्रतुखलुवमानादीनांप्रवृत्तिर्यत्रचनिवृत्तिस्तव्यासतः सिद्धि . " पूचरकालमुपदेक्ष्यते । प्रवृत्तिनिवृत्तिलक्षणसंयोगेतुखलुगुरु, लाघवंसंप्रधा>सम्यगध्यवस्येदन्यतरनिष्ठायाम् । संतिहिं व्याधयशास्त्रेणूत्लापवादैरुपक्रमंप्रतिनिर्दिष्टाः । तस्माद्गुरुः । लाघवसम्प्रधार्थसम्यगध्यवस्थेदित्युक्तम् ॥ १५६ ॥ . . जिस जिस स्थानमें वमन विरेचनका प्रयोग करना चाहिये और जिस स्थान । नहीं करनाचाहिये उन सबका वर्णन सिद्धिस्थानमें करेंगे । वमन विरेचनादिकोंकी प्रवृत्ति (प्रयोग करना) और निवृत्ति (प्रयोग न करने) के लक्षणके विषयमे गुरु और लाघवको विचारकर जिस जगह जिसकी आवश्यकता हो अर्थात जिस स्थानमें कराने हों और जिसमें न कराने हों या उनमेंसे केवल वमन ही या केवल विरेचन ही कराना हो और उनके करानमें लाभ है या हानि है उनको भले प्रकार विचार लेना चाहिये । क्योंकि शास्त्र में व्याधियोंकी सामान्य चिकित्सा और विशेष चिकित्सा इन दोनों प्रकारका वर्णन कियागया है। इसलिये उनके गुरु
और लाघवंको विचारकर और भले प्रकार निश्चय करके तब उनमें प्रवृच होना चाहिये। १९६ ॥
वमनद्रव्य। यानितुखलुवमनादिषुभेषजद्रव्याण्युपयोगंगच्छन्तितान्यानु-.
व्याख्यास्यन्ते । तद्यथा-फलजीमूतकेक्ष्वाकुधामागेवकुटज. काण्डिकाकृतवेधनफलानि । जीमूतकेक्ष्वाकुकुटजकृतवेधन:
पत्रपुष्पाणिाआरग्वधवृक्षकमदनस्वादुकण्टकपाठापाटलाशा ..."टामूसिवर्णनक्तमालपिचुमर्दपटोलसुषवीगुडूचीसोमद-: ..
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¿
विमानस्थान- भ० ८०.
·
·ल्क चित्रकद्वीपिशिग्रुमूलकषायैश्च । मधुमधूककोविदारकर्युदारनी पनि चुलविम्बीशणपुष्पीस दापुष्पी प्रत्यकूपुष्प कषार्यश्चेलाहरेणुप्रियङ्गु पृथ्वीका कुस्तुम्बुरुतगरनलदह बिरतालीशोपीरकषायैश्च । इक्षुकाण्डेक्ष्विक्षुवालिका दर्भपोटगलकालङ्कतकषायैश्च । सुमनाः सौमनसायिनीहरिद्रादारुहरिद्रावृश्चीरपुनर्न-वामहासहाक्षुद्रसहाकषायैश्च । शाल्मलिशात्मक भद्रपण्येंलाप
पोदिकोद्दालकधन्वनराजादनोपचित्रागोपी शृङ्गाटिकाकपिकच्छुकषायैश्च । पिप्पलीपिप्पलीमूठ चव्यचित्रकशृङ्गवेरसपफाणित क्षीरक्षारलवणोदकैश्वयथोपला संयथेष्टंवाप्युपसंस्कृत्यवर्तिक्रिया चूर्णावलेहस्नेहकषायम सरलय वागूयूषकाम्बलिकक्षीरोपधेयान्मोदकानन्यांश्चयोगान्विविधाननुविधाययथार्ह वमनाहीयदद्याद्विधिवद्वमनमितिकल्पसंग्रहोत्रमनद्रव्याणां कल्पस्त्वेषांविस्तरेणोत्तरकालमुपदेक्ष्यते ॥ १५७ ॥
•
it औषध द्रव्य वमन आदिकोंमें उपयोग किये जाते हैं उनका वर्णन करते हैं । जैसे मैनफल, देवदाली, कडवीघीआ, कडवी तोरी, इन्द्रयव, काण्डिका, कृतवेधनतोरी इनके फल वननकारक होते हैं । देवदाली के पत्र, फूल | कडवी घीओ के पत्र फूल । कुडाके पत्र, फूल। कडवी तोरीके पत्र, फूल वमनकारक होते हैं। अमल नास, कुडाकी छाल, मैनफल, स्वादुकण्टक, पाठा, पाढ, घुंघुची (रक्तक) मुरंबा, सप्तपर्ण, करंज, नीम, पटोलपत्र, सुखवि, गिलोय इनके क्वाथ, सोमनलकल, चित्रक, एरंड, सतावर, सहांजने की जड, मुलैठी, महुआ, कचनार, सफेद कचनार, कदंब, निचूल, तंदूरी, शणपुष्पी, आक, अपामार्ग इन सबके काथमनके उपयोग में आते हैं। बडी इलायची, रेणुका, प्रियगु, छोटी इलायची, कुस्तुम्वरी, जटामांसी, नेत्रवाला, तालीसपत्र और रूस इनके काथ भी बमनके उपयोग में आते हैं । ईख, तालमखाना, रामसर, कुशा, कास, कसौंदी इन संवका-रस और क्वाथ वमनमें उपयोग किया जाता है। जायफल, जावित्री, हल्दी, दारुहल्दी. दोनों पुनर्नवा, माषपर्णी, मुग्धपर्णी, इनका काय वमनमें उपयोग किये जाते हैं । सेमल, रोहितृण, प्रसारणी, रासना, उद्दालक, धान्यं, ढामणवृक्ष, खिरनी, मूसाकर्णी, सारिवा, अतीस, कौंच इनका कल्क अथवा काथ. वमनमें उपयोग
'
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१६४८).
चरकसंहिता-मा० टी०। कियाजाताहै।पिप्पली,पीपलामूलं,चव्य,चित्रक,अदरख,ससौ,फाणित,दूध,क्षार और लवणयुक्त जल इनमेंसे जिस समय जो मिलसके और जिसप्रकार प्रयोग करनेसे हितकर होसके उस प्रकार इनका उपयोग करे।इनमें कोई चि बनाकर उपयोग करनेमें ‘काम आतेहैं । कोई चूर्ण,कोई अवलेह,कोई स्नेह,कोई काथ,कोई मांस रसमें, कोई यवागूमें,कोई यूपमें,कांवलिक,तथा क्षीरके संयोगसे काममें आतेहैं।कोई सूंघनेके पदामें,कोई मोदकमें,कोई अन्य उपयोगी द्रव्यके संयोगसे वमनसंबंधी कार्योंमें प्रयोग की जाती हैं। इनमेंसे जो औषधी जिस समय जिसप्रकार जिस वमन योग्य मनु. ज्यको देना हो उसको विधिपूर्वक प्रयोग करे । यह वमनोपयोगी द्रव्योंका कल्प -संग्रह कियागया है इसको विस्तार पूर्वक कल्पस्थानमें कथन करेंगे ।। १५७ ॥ .
विरेचनके द्रव्य । विरेचनद्रव्याणितुझ्यामात्रिवृचतुरंगुलतिल्वकमहावृक्षसप्तला. . शंखिनीदन्तीद्रवन्तीनांक्षीरमूलत्वपत्रपुष्पफलानियथायो. गमेतैश्चैवक्षीरमूलत्वपत्रफलपुष्पफलेविकृताविकृतैरंगन्धाश्वगन्धाजशङ्गीक्षारिणीनीलिनीक्लीतककषायैश्चप्रकीर्योदकी-मसूरविंदलाकम्पिल्लकविडङ्गगवाक्षीकषायैश्चपीलुप्रियालमृद्वीकाकाश्मर्यापरूषकबदरदाडिमामलकहरीतकीविभीतकवृश्चीरपुनर्नवाविदारिगन्धादिकषायैश्चशीधुसुरासौवीरकतुषोदकमेरेयमेदकमदिरामधुमधूलकधान्याम्लकुवलबदरखर्जूरकर्कन्धुभिश्चदधिदधिमण्डोदश्विद्भिश्चगोमहिष्यजावीनाचक्षीरमूत्रैर्यथोपला यथेष्टंवाप्युपसंस्कृत्यवार्तक्रियाचूर्णाः । बलेहस्नेहकषायमांसरसयूषकाम्बालिकयवागूक्षीरोपधेयान्मो. दकानन्यांश्चभक्ष्यविकारान्विविधांश्चयोगानभिविधाययथा- . हविरेचनाायदद्याद्विरेचनमितिकल्पसंग्रहोवरेचनद्रव्याणां कल्पस्त्वेषांविस्तरेणोपदेक्ष्यतेउत्तरकालम् ॥.१५८॥ . . अब विरेचनोपयोगी औषधयोंको कथन करते हैं। जैसे-श्यामा, निशोथ, अमलतास, लोध्र, थोहर, सातला, शखिनी, देती, द्रवंती, इनके दूध, जड, छाल, : पत्रु, पुष्प, फल, जैसे जिस स्थानमें उचित हों विरेचनके लिये उपयोग किये भावहैं । . तथा-अजवायन, असगंध, मेढासिंगी,दूधली, नीलनी, भुलहठी, इनके
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विमानस्थान-अ०८,
(६४९) छाथ विरेचनोपयोगी होतेहैं । पूतीकरंज, करंज, मसूर, अनारका छिलका, कमीला, 'विंडग, इन्द्रायन इनके क्वाथ विरेचनोंके योग्य होते हैं। पीलू, चिरोंजी, किसमिस, 'कंभारी, फालसा, बेर, अनार, आम्ले, हरड, बहेडा, दोनों पुनर्नवा, विदारीगंधा, इनके कषाय विरेचनोंके योग्य होते हैं। सीधू, सुरा, सौवीरक, तुषोदक, मैरेय, मैदक,मदिरा,मधु,मधूलक,धान्याम्ल,पेवंदी वेर,छोटावेरखजूर,जंगलीबेर,दही, दधिमण्ड, घोल यह सब विरेचनके उपयोगी होते हैं । गौ, भैंस, बकरी और भेडका दूध तथा मूत्र विरेचनोपयोगी होता है। इनमेंसे जिस समय जो मिल सके
और जिसमकार जिस स्थानमें जैसे उपयोग करना उचित हो उस प्रकार इनको बची बनाकर अथवा चूर्ण या अवलेह, स्नेह, क्वाथ, मांसरस, यूष, तांबलिक, यवागू, दूध, नस्य, मोदक आदिमें तथा अन्य द्रव्यके उपयोगसे जैसे उपयोग करना उचित हो उसप्रकार योग बनाकर उचित रीतिसे विरेचन योग्य मनुष्यको देवे। यह विरेचनद्रव्योंके कल्पका संग्रह कथन कियागया और विस्तारपूर्वक इनका वर्णन कल्पस्थानमें करेंगे ॥ १५८ ॥
आस्थापनका वर्णन । आस्थापनेषुतुभूयिष्ठकल्पानिस्युर्द्रव्याणिनामतोविस्तरणोपदिश्यमानान्यपरिसंख्येयानिस्युरतिबहुत्वात् । इष्टश्वानतिसंक्षेपविस्तरोपदेशस्तन्त्रइष्टश्चकेवलंज्ञानंतस्माद्रसतएवतान्यनुव्याख्यास्यन्ते ॥ १५९ ॥
आस्थापन द्रव्योंके अनेक नाम होतेहैं।उन संपूर्ण द्रव्य नामको विस्तारसे वर्णन करें तो वह बहुत होनेसे असंख्य होजातेहैं । और शास्त्रमें अत्यन्त विस्तारसे और अतिसंक्षेपसे कथन करना इष्ट नहीं है केवल उन संपूर्ण द्रव्योंका ज्ञान होना इष्ट है। इसलिये उनके ज्ञानको रसके अनुसार वर्णन करतहैं ॥ १५९ ॥
रसानुसार भास्थापन । रससंसर्गविकल्पविस्तारोाषामपरिसंख्येयासमवेतानारसानामंशांशबलविकल्पातिबहुत्वात्तस्माद्रव्याणाञ्चैकदेशमुदाहरणाथरसेष्वनुविभज्यरसैकैकदेशेनचनामलक्षणार्थश्चषडास्थापनस्कन्धारसतोऽनुविभज्यव्याख्यास्यन्ते । यत्तुषड्विधमास्थापनमाचक्षतभिषजस्तदुर्लभतरंसंसृष्टरसभूयिष्ठत्वाद्र्व्याणाम् । तस्मान्मधुराणिमधुरप्रायाणिमधुरप्रभावाणिमधुरप्रभावप्रा-.":.
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(६६०) चरकसंहिता-भा० टी० । याण्यापिचमधुरस्कन्धेमधुराण्येवकृत्वोपदेक्ष्यन्तेतथेतराणिद- . व्याण्यपि। रसोंके संसर्ग और विकल्पसे अलग अलग वर्णन करें तो रस असंख्य होमा हैं क्योंकि मिलेहुए रसोंके अंशांश वल और विकल्प बहुत होतेहैं।इसलिये एकदेशी उदाहरणके लिये संपूर्ण द्रव्योंको छ: रसोंमें विभागकर रसके एक २ देशसे नाम और लक्षणोंको वर्णन करनेके लिये रसके छः आस्थापनस्कन्धोंको विभागपू ईक वर्णन करतेहैं । जो छ: प्रकारका आस्थापन कथन कियाहै । वैद्यलोग उसको यथोचित रीतिपर नहीं जान सकते क्योंकि वहुतसे द्रव्य ऐसे हैं जिनमें कई एक रसोंका संसर्ग पायाजाताहै। इसलिये मधुर और मधुरप्रायः तथा मधुरप्रभाव एवम् मधुरप्रभावप्रायः द्रव्य मधुर मान करके मधुर स्कंध कथन कियेजात । उसी प्रकार और द्रव्योंको भी जानना ॥
मधुरस्कन्ध। तद्यथा-जीवकर्षभको जीवन्तीवीरातामलकोकाकोलीक्षीरताको लीसुद्धपीमाषपर्णीशालपर्णीपचिपर्ण्यसनपमेदामहामेदाक. कटशृङ्गशृङ्गाटिकाछिन्नरुहाच्छनातिच्छनाश्रावणीमहाश्रावणी अलम्बुषासहदेवाविश्वदेवाशुक्लाक्षीरशुक्लावलातिबलाविदारी क्षीरविदारी क्षुद्रसहामहालहाऋष्यगन्धाश्वगन्धापयस्या वृश्चीरपुनर्नवाबृहतीकण्टकारिकैरण्डमोरटश्वदंष्ट्रासह शतावरीशतपुष्पामधूकपुष्पीयष्टिमधुमधूलिकाद्वीकाखजूरपरूप- : জানুৱাৰীলঙ্কাকঙ্কালঙ্কহীতাকুন্ডশক্ষার
र्यशीतपाक्योदनपाकीतालखर्जूरमस्तकेक्ष्विक्षुवालिकादर्भकुशकाशशालिगुन्द्रोत्कटकशरमूलराजक्षवकर्यप्रोक्ताद्वारदा भारद्वाजीवनत्रपुष्यभीरुपत्रीहंसपदीकाकनासाकलिंगाक्षी : क्षीरवल्लीकपोतवल्लीगोपवल्लीमधुवल्लीसोमवल्लीति । ए , षामेवंविधानामन्येषाञ्चमधुरवर्गपरिसंख्यातानामौषधद्रव्या•णांछेद्यानिखण्डशश्छेदयित्वाभेद्यानिचाणुशोभेदयित्वाप्रक्षात्यपानीयेनप्रक्षालितायांस्थाल्यांसमवाप्यपयसाअोदके, ..
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विमानस्थान अ०८.
(६५१) नाभ्यासिच्यसाधयेद्दासततमुपवट्टयन्तदुपयुक्तभूयिष्ठेऽम्भसिगतरसेष्वौषधेषु पयसिचानुपदग्धेस्थालीमुपहृत्यपारनु संपूर्तपयःसुखोष्णंघृततैलवसामज्जालवणफाणितोपहितंब. .
स्तिवातविकारिणविधिज्ञो विधिवद्दद्यात् । शीतन्तुमधुसर्पि. यामुपसंसृज्यपित्तविकारिणे दद्यादितिमधुरस्कन्धः ॥ १६० ।। __ अव मधुर स्कन्धका वर्णन करतेहैं । जैसे जीवक, ऋषभक, जीवन्ती, शतावर, . भूईआमला, काकोली, क्षीरकाकोली, माषपर्णी, मुद्रपर्णी,शालिपर्णी, पृष्णपर्णी, सणपर्णी, मेदा, महामेदा; काकडासिंगी, सिंघाडा,गिलोय, धनियां, बडीधनियां,. मुण्डी, महामुण्डी, सहदेवी, विश्वेदेवा, मिश्री, खरहटी, अतिवला, विदारीकंद, वाराहीकंद,क्षुद्रसहा, महासहा विधायरा, दोनों प्रकारकी पुनर्नवा, अश्वगंधा, दोनों कटेली, लाल और सफेद एरंड, गोखरू,वंदा, शतावरी,सौंफ,सोय,मुलहठी, गेहूं, किसमिस, छोहारा, फालसा, कौंचके वीज,कमलगट्टे,कसेरू,राजकसेरू,कालं कत, काश्मरीफल, शीतपाकी, नीले रंगकी कटसरैया, तालखजूर, खजूर, ईख, इक्षुवालिकादर्भ, कुशा, कांस, शालिचावल,गुंद्रपटेर, सर्पता, सरमूल, सरसों गंगे: रन, पालक, वनकपास खीरा, महाशतावरी, हंसपदी, काकजंघा,कुलिंगा, क्षीरवि दारी, कपोतबल्ली,सारिवा,मधुवल्ली,सोमलता और भी अन्यान्य मधुवर्गमें कहेहुए द्रव्योंको लेकर पहिले शुद्धजलसे धो डाले फिर टुकडे करके वारीक कूट दूध, मिलाकर किसी पात्रमें डाल अग्निपर पकावे तथा मंदमंद आंचसे पकाताजावे। जब देखे कि औषधियोंका रस दूधमें आगया है तो उस दूधको उतारकर सुखोज्ण होनेपर उस दूधमें घी,तेल,चो,मज्जा,लवण,फाणित इनसे सव अथवा जो उचित हो वह मिलाकर बस्तिकर्मको जाननेवालावैद्य वात विकारवाले मनुष्यको वस्तिलर्म करे । यदि पित्तविकारवालेकोबस्तिकर्म करना हो तो शीतल होनेपर शहद और घृत मिलाकर पस्तिकर्म करोवस्तिकर्मके लिये उपरोक्त संपूर्ण द्रव्योंको एकही समर्ष एकत्रित करनेकी आवश्यकता नहीं उनमेंसे जिस समय जिसको वैद्य जिसमकार उपयोग करना चाहे वैसे-उचित रीतिपर करें । इतिमधुरस्कन्धः ॥ १६० ।।
. अम्लस्कन्ध। . आम्राम्रातकलकुचकरमर्दवृक्षाम्लाम्लवेतसकुवलबदरदाडिममातुलुङ्गकण्डीरामलकनन्दीतकलालतिकाशीतदन्तशटैरावतककोषाम्रधन्वनानां फलानि पत्राणिचाश्मन्तकचाङ्के-..
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६५२ )
चरकसंहिता - भा० टी० |
रोणांचतुर्विधानांचाम्लिकानांद्वयोः कोलयोर्द्वयोश्चामशुष्कयो
ईयोश्चशुष्काम्लिकयोर्ग्राम्यारण्ययोश्वासवद्रव्याणिचसुरासौवीरतुषोदकमैरेय मेदक मदिरामधुशीधुशक्तिदधिदधिमण्डो
दश्विद्वान्याम्लादीन्येषामेवंविधानाञ्चान्येषाञ्चाम्लवर्गपरिसंख्यातानामौषधद्रव्याणांछेयानिखण्डशश्छेदयित्वाभेद्यानिचाणुशो भेदयित्वाद्रवैः स्थितान्यव सिच्यसाधायित्वोपसंस्कृत्ययथावत्तैलवसामधुमज्जालवणफाणितोपहितसुखोष्णंवस्तिवातविकारिणेविधिवद्दद्यादित्यम्लस्कन्धः ॥ १६९ ॥
व्यव अम्लस्कंधका कथन करते हैं जैसे- आम, आंबाडा, वडहर, करौंदा, अम्लवेत, अम्लवेद, दोनों प्रकार के बेर, अनार, विजौरा, कण्डीर, आमले, नन्दीतक, इमली, शीतक, जंभीरी नींबू, संतरा, कोशाम, धन्वन इनके फल और पत्र तथा असमंतक, चांगेरी, चार प्रकार के अमली, दो प्रकारके जामुन, तथा सूखी हुई अमली एवम् आमके और जंगलके सब आसव द्रव्य, सुरा, सौवीर, तुषोदक, मैरेय, मेदक, मदिरा, मधु, सीधू, सुक्तीमधू, दही, दहीका मंड, दहीका तोड, कांजी अथवा अन्य अम्लवगमें कहेहुए द्रव्योंके टुकडेकर कूटकर, साफजल से धो, किसी उाचत पतले पदार्थोंमें सिद्ध कर छान लेवे | फिर उसमें तेल, वसा, शहद, मज्जा और फाणित मिलाकर • बावाले मनुष्य के विधिपूर्वक आस्थापन वस्ति करे । इति अम्लस्कन्धः ॥ १६९॥ लवण स्कन्ध |
सैन्धवसो वर्च्चलकालविडपाक्यानूपकूप्यबाल कैलमूलक सामुद्ररोमकोद्भिदौषरपाटेयकपांशजानीतिएवंप्रकाराणिचान्यानि
' लवणवर्गपरिसंख्यातानि एतानिअम्लोपहितानिउष्णोदकोपहितानिवास्नेहवन्तिसुखोष्णं बस्तिवातविकारिणविधिज्ञोविधिवदद्यादितिलवणस्कन्धः ॥ १६२ ॥
अव लवणस्कन्धको कहते हैं। जैसे - सेंधानमक, संचरनमक, कालनमक, रिडनमक, तथा पाक्य, आनूप, कृप्य, बालक, एलमूलक, सामुद्र, रोमक, उद्भिद, -और, पाटेयक, पांसुज यह सब प्रकार के लवण तथा अन्य लवणं वर्गोक्त द्रव्य, पंजी अथवा गर्भजल में मिलाकर घृत, तैलादि चिकनाई के संयोग से सुखाष्ण
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विमानस्थान-म०८.
(६५३) बस्तिकी विधिको जाननेवाला वैद्य विधिपूर्वक वातविकारी मनुष्यको देनी चाहिये। इति लवणस्कन्धः ॥ १६२।।
कटुकस्कन्ध। पिप्पलीपिप्पलीमूलहस्तिपिप्पलाचव्याचत्रकशृङ्गवेरमरिचाजमोदाकविडङ्गकुस्तुम्बुरुपीलुतेजोवत्येलाकुष्ठभल्लातकास्थिहिंगुकिलिममूलकसर्षप--लशुन-करअशिग्रुकमधुराशिघुकखरपुष्पाभूस्तृणसुमखसुरस-कुठेरक--काण्डीरकालमालवापासक्षवकफणिज्जकक्षारमूत्रपित्तानामेषामेवंविधानाचान्येषांकटुकवर्गपरिसंख्यातानामौषधद्रव्याणांछेद्यानिखण्डशश्छेदयित्वाभेद्यानिचाणुशोभेदयित्वागोमूत्रेणसहसाधयित्वोपसंस्कृत्ययथावन्मधुतललवणोपहितंसुखोष्णंबस्तिश्लेष्मवि- . कारिणेविधिज्ञोविधिवदद्यात्, इतिकटुकस्कन्धः ॥ १६३॥
अब कटुस्कन्धको कहते हैं पीपल, पिपलामूल, गजपीपल, चव्य, चित्ता, सोंठ, मिर्च, अजमोद, बायविडंग, नैपालीधनियां, अखरोट, तेजवल, इलायची, कूठ,. भेलावेकी गुठली, हींग, देवदार, मूली, सरसों, लहसुन, करंज, सोहांजना, मीण सोहांजना, वनतुलसी, गन्धतण, सुमुखतुलसी, सुरस, कुठेरक, काण्डीर, कालमा.. लक, पर्णास, क्षवक यह सब तुलसीकी जातियें, और मरुआ, क्षार, मूत्र, पित्त एवम् अन्य कटुवर्गमें कहे द्रव्य लेकर छोटे २ टुकडेफर शुद्धजलसे धो बारीक कर-- लेवे। फिर गोमूत्रमें पकाकर शुद्धवस्त्रद्वारा छान लेवे । मुखोष्ण रहनेपर मधु,तेल:
और लवण मिलाकर कफविकारी मनुष्यके आस्थापन बस्ति करे। इति कटु (चर परा) स्कन्धः॥ १६३ ॥
तिक्तस्कन्ध । चन्दननलदकृतमालनक्तमालनिम्बतुम्बुरुकुटजहरिद्रादारुहरिद्रामुस्तमूर्वाकिरातत्तिक्तककटुरोहिणीत्रायमाणाकरवीरके, वुककटिल्लकवृषमण्डूकपर्णीककर्कोटकवा कुकर्कशकाकमाचीकारवेल्लंकाकोदुम्बरीकासुषव्यतिविषापटोलकुणकपाठागुडूचीवेत्रावतसविककतबकुलसोमवल्कसप्तपर्णसुमनोऽर्कावल्गुजवचातगरागुरुवालकोशीराणाम् ॥ एषामेवंविधानाचान्येषां
लेवेफिर गवर्गमे कहे द्रव्य लकाकी जातिथे, और रिक, काण्डीर, का
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चरकसंहिता - मा० सं० विक्तवर्गपरिसंख्यातानामौषधद्रव्याणां छेद्या निखण्डशश्छेदयित्वां भेद्यानिचाणुशोभेदयित्वाप्रक्षाल्यपानीयेनाभ्यासिच्य साधयित्वोपसंस्कृत्ययथावन्मधुतैल लवणोपहितं सुखाष्णंबस्ति श्लेष्मविकारिणेविधिज्ञेोविधिवद्दद्यात् । शीतन्तुमधुसर्पिभ्यमुपसंस्कृत्य पित्तविकारिणेदद्यादितितिक्तस्कन्धः ॥ १६४ ॥
अब तिक्तस्कंधको कहतेहैं चंदन, खस, अमलतास, करंजुवा, नीम, नेपाली धनियां, कुडा, हल्दी, दारूहल्दी, नागरमोथे, मुर्वा, चिरायता, कुटकी, त्रायमाण, -कनेर, केबुक, करैला, अडूसा, मण्डूकपर्णी, फकौडा, बैंगन, कमीला, मकौह, छोटा करैला, कडूमर, कालाजीरां, अतीस, पटालपत्र, परवल, पाढ, गिलोय, वेतकी कोपल, वेतस मजनू, विकेकत, मौलसरी, सफेदकत्था, सतवन, धतूरा, आक - बावची, वच, तगर, अगर, नेत्रवाला और खस तथा तिक्तवर्ग में कहे हुए सब द्रव्यों को जलसे घोकर तथा कूटछानकर जलमें पकावे । फिर छानकर जब सुखोष्ण रहे तो सेंधानमक और शहद मिलाकर कफरोगीको आस्थापन वस्ति करना चाहिये यदि पित्तरोगीको आस्थापनवस्ति करना हो तो शीतल होनेपर शहद और वृद मला आस्थापनबस्ति करे || इवितिक्कस्कंधः ॥ १६४ ॥
कषायस्कन्ध |
प्रियङ्ग्वनन्ताम्रास्थ्यम्बष्ठकीकट्टुङ्ग लोध्र मोचरससमङ्गाधातकीपुष्पपद्मापद्मकेशरजम्ब्वाम्रप्लक्षवटकपीतनोदुम्बराश्वत्थभछातकाश्मन्तकाशिरीषाशंशपासोमवल्कातिन्दुकृपियालबबर
खदिरसप्तपर्णाश्वकर्णस्यन्दवार्जुनासनारिमेदैलवालुकपरिपे
लवकदम्बशल्लकी जिङ्गिनीकाशकशेरुकाराजकशेरुकाकट्फलवशपद्मकाशोकशालधवसर्जभूर्जराणपुष्पीशमी माचीकवर कतु-
द्वाजकर्णाश्वकर्ण स्फुर्जकविभीतककुम्भीकपुष्करबीजबिसनूगाल - तालखर्जूरतरुणीनामेषामेवंविधानाञ्चान्येषां कषायवर्गपरिसंख्यातानामौषधद्रव्याणांछेद्यानिखण्डशश्छेदयित्वा भद्या
६५४)
निचाणुशोभेदयित्वाप्रक्षाल्यपानयिन सहसाधयित्वापसंस्कृत्य यथावन्मधु तैललवणोपहितं सुखोष्णं वस्तिश्लेष्मविकारिणेद
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सरस, सौसम,सफेदकस्यदन, अर्जुन, विजयसार कायफल, वांस, पर
. विमानस्थान-अ०८. चादिति । शीतन्तुमधुसर्पिामुपसंस्कत्यपित्तविकारणेददितिकषायस्कन्धः ॥ १६५॥ भव कषायस्कंधको कथन करते हैं प्रियंगु, शारिवा, आमकी गुठली, पाटला, सटमडंगा, लोध्र, मोचरस, मंजीठ, धावेके फूल, कमलकी केशर, भारङ्गी, जामुन आमकी छाल, पाखर, कपीतन, गूलर, पीपल,भेलावेकी वृक्षकी छाल, अश्मंतक, सिरस, सौसम,सफेदकत्था,तेंदु,चिरौंजी और वेर इनःसव वृक्षोंकी छाल इसीप्रकार खदिर, सववन, तिनस, स्पंदन, अर्जुन, विजयसार, अरिमेद, एलवाल, फेवटीमोथा, कदंब, शल्लकी,जींगन, कांस; कसेरू, राजकसेरू,कायफल, वांस, पझाख, अशोक, शाल, घावी, भोजपत्र, खापुष्प, जण्डीवृक्ष, माचिका, उन्नाव, अजकर्ण, अश्वकर्णः स्फूरजत, बहेडा, कुम्भीक,कमलगट्टे, विस (कमलकी जड), मृणाल, वालखतूर, डिकवार, इन सबको अथवा अन्य कषायवर्गमें कहेहुए औषधद्रव्योंको कूट छानकर पानीसे धोकर पानी में थोडासा पकाकर और वनसे छानकर इसमें शहद और घृत मिला पित्तज रोगीको आस्थापनवस्ति देवे । इति कषायस्कन्धः ॥ १६५ ॥
तत्र श्लोकाः। षड्वर्गाःपरिसंख्यातायएतेरसभेदतः।आस्थापनमभिप्रेत्यतानं विद्यात्सायौगिकान् ॥ १६६ ॥ ॥ सर्वतोहिप्रणिहिताः सर्वरोगेषुजानता । सर्वात्रोगान्नियच्छन्तिभ्यआस्थापन हितम् ॥ १६७ ॥ यहां पर श्लोक हैं रस भेदसे जो उपरोक्त छः वर्गाका कथन किया है यह आस्थापनबस्तिकर्ममें सब प्रकार हितकारी होतेहैं । यदि भास्थापनवस्तिके क्रमको जाननेवाला वैद्य जिनके लिये आस्थापनवस्ति हितकारी हो इन सार्वयोगिक द्रव्यो द्वारा बस्विकर्म करनेसे रोगियों के सम्पूर्ण रोगोंको नाश करदेवाहै ॥१६६॥१६७४
येषांयेषांप्रशान्त्यर्थयेयेनपरिकीर्तिताः। . . . . . द्रव्यवर्गाविकाराणांतेषांतेपरिकोपकाः ॥ १६ ॥ परन्तु यह ध्यान रखना चाहिये कि जो द्रव्य जिस १ विकारको शान्त नहीं करता उसके द्वारा आस्थापन करना विकारोंको' उलटा कुपित करता है। जैसे चातप्रधान मनुष्यको रूक्ष पदार्थों द्वारा स्विकर्म करना हानिकारक होताहै। और कारधान मनुष्पको रूक्ष पदाथो दाग बस्विकर्म हितकर होताहै ।।.१६८
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( ६५६ )
चरकसंहिता - भा० टी० ।
इत्येतेषडास्थापन स्कन्धारसतोऽनुविभज्यव्याख्याताः । तेभ्याभिषग्बुद्धिमान्परिसंख्यातमपियद्द्रव्यमयौगिकंमन्येत तद्पकर्षयेत् । यद्यच्चानुक्तमपियौगिकंवा मन्येततद्दद्यात् । वर्गमपिवर्गेणउपसंसृजेदेकमेकेनअनेकेन वायुक्ति प्रमाणीकृत्य । प्रचरणमिवभिक्षुकस्यबीजमिवकर्षकस्य सूत्र बुद्धिमतामल्पमपि अनल्पज्ञानाय भवति ॥ १६९ ॥
इस प्रकार रसभेदसे छः प्रकारके आस्थापनके स्कंधों को कथन किया है । इन ऊपर कहे हुए छः प्रकारके स्कंधोंमें जो द्रव्य कथन किये भी हों परन्तु आस्थापन - योगमें हानिकारक समझें उनको बुद्धिमान् वैद्य निकालडाले और जो कथन नहीं भी किये गये उनको यदि उचित समझे तो प्रयोग करे। बुद्धिपूर्वक विचार एकवर्गकें द्रव्योंको यदि उचित समझे तो उनमें से एक अथवा अनेक द्रव्य दूसरे द्रव्यमें भी मिला सकता है । जैसे भिक्षा मांगनेवालेको एक मुष्टि चावलोंकी और वर्गाचके मालीको एक बीज भी उसके काम में वडा भारी लाभदायक होता है उसी प्रकार युक्ति और प्रमाणके आश्रित बुद्धिमान् वैद्यको वैद्यकका एक छोटासा सूत्र भी. डे ज्ञानको करनेवाला होता है ॥ १६९ ॥ तस्माद्बुद्धिमतामूहापोहवितर्का मन्दबुद्धेस्तुयथोक्तानु गमनमेव
श्रेयः॥ १७० ॥
इसलिये बुद्धिमान् वैद्यको विचारपूर्वक द्रव्य ग्रहण करना चाहिये। और मूर्ख वैद्य जितनी बातें सीखी हुई हैं उसके सिवाय अन्य किसी पदार्थसे कुछ लाभ नहीं उठा सकता ॥ १७० ॥
यथोक्तंहि मार्गमनुगच्छन्भिषक्संसाधयतिवाकार्य्यमनतिमहत्त्वादन तिह्रस्वत्वादुदाहरणस्येति ॥ १७१ ॥
जिस प्रकार यहां पर कथन किया है यह न बहुत विस्तारसे है और न अधिक संक्षेपसे कथन किया गया है। इसको उदाहरणमात्र जानकर बुद्धिमान् वैद्य कार्यकों सिद्ध करसकता है ॥ १७१ ॥
अनुवासन द्रव्य |
अतः परंमनुवासनद्रव्याणिअनुव्याख्यास्यन्ते । अनुवासनन्तु : स्नेहएव । स्नेहस्तुद्विविधः । स्थावरोजङ्गमात्मकश्चतत्रस्थाव
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विमानस्थान-अ०८,
(६५७) : रात्मक लेहातैलमतलञ्च । तत्रतैलमेवकृत्वोपदिश्यतेसर्वत
स्तैलप्राधान्यात् । जङ्गमात्मकस्तुवसामज्जासपिरिति ॥ १७२॥ .
भव अनुवासन द्रव्योंका वर्णन करतेहैं । भनुवासन बेह द्रव्य ही होताहै। वह । स्नेह दो प्रकारका है । १ स्थावर । २ जंगम । स्थावर नेहोंसे तिलोंका तेल अन्य
सरसों आदि स्थावर द्रव्यों के तेल ग्रहण किये जाने । सम्पूर्ण स्थावर स्नेहोंमें विलोंका तेल प्रधान होनेसे सबको वैल ही कहाजाताहै । वसा,मज्जा और घृतकों जंगमनेह कहतेहैं ॥ १७२ ॥ .
तेषांतैलवसामज्जासर्पिषांतुयथापूर्वश्रेष्ठम् ।वातश्लेष्मविकारेषुअनुवासनीयेषुयथोत्तरंपित्तविकारेषुसर्वएववासर्वेषुयोगमायान्तिसंस्कारविधिविशेषादिति ॥ १७३॥ वात और कफके विकारों में अनुवासन करनेके लिये-वैल, वसा, मज्जा और वृत इन चतुर्विध स्नेहोंमें क्रमपूर्वक परकी अपेक्षा पूर्ववाला श्रेष्ठ माना जाता है । जैसे वात और कफके विकारोंमें घृतकी अपेक्षा मज्जा मज्जाकी अपेक्षा वसा और वसाकी अपेक्षा तैल श्रेष्ठ होता है एवम् पिचके विकारोंमें-तैलसे वसा,वसासे मज्जा मज्जासे घृत अनुवासन कर्म करनेकेलिये श्रेष्ठ माना जाताहै ।अथवा संस्कार विधि विशेषसे सब दोषों के विकारों में सवप्रकार स्नेह हितकारक होतेहैं। जैसे-चातनाशक द्रव्याद्वारा सिद्ध किये वातविकारमें तथा पित्तकारक द्रव्योंद्वारा सिद किये पिच विकारोंमें एवम् कफनाशक द्रव्योंद्वारा सिद्ध किये कफीवकारमें सब प्रकारसे हिव कर होते हैं ॥१७३॥
शिरोविरेचनद्रव्य । शिरोविरेचनद्रव्याणिपुनःअपामार्गपिप्पलीमरिचविडङ्गशिग्रुशिरीष-कुस्तुम्बुरु-बिल्वाजाज्यजमोदावार्ताकीपृथ्वीकेलाहरेणुफलानिच । सुमुखसुरसकुठेरकगण्डीरककालमालकपर्णासक्षवकफणिज्जकहरिद्राशृङ्गवेरमूलकलशुनतारीसर्षपपत्राणिच । अर्कालर्ककुष्ठनागदन्तीवचाभार्गीश्वेताज्योतिष्मतीग: वाक्षीगण्डीरावाकूपुष्पीवृश्चिकालीवयस्थातिविषामूलानिच । हरिद्राशृङ्गवेरमूलकलशुनकन्दाश्चलोभमदनसप्तपर्णनिम्बार्क
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4:६५८)
चरकसंहिता-भा० टी०॥ पुष्पाणिचं । देवदार्वगुरुसरलशल्लकीजिङ्गिन्यसनहिंगुनिर्यासाश्चतेजोवराङ्गुदीशोभाञ्जनबृहतीकण्टकारिकात्वाति । शिरोविरेचनंसप्तविधंफलपत्रमूलकन्दपुष्पनि-सत्वगाश्रयः . भेदात् ॥ १७४ ॥
अब शिरोविरेचन द्रव्योंको कथन करते हैं । जैसे-अपामार्ग, पीपल,मिर्च,वायविडंग, सोहांजना, सिरस, धनियां, विल्वफल, कालाजीरा, अजमोद,वडी केटेरीके ‘फल, काश्मीरी जीरा, इलायची, रेणुका वीज और सुमुख, कुठेरक, सुरस,गण्डीर, कालमालक, पर्णाश तथा क्षेवक यह तुलसीकी जातियें, मरुआ, हल्दी, अदरख, मूली, लहसुन, अर्णी, सरसों इनके पत्र तथा आक, कूट, नागदंती, वच, भारंगी, अपराजिता, मालकांगुनी, इन्द्रायण,गण्डीर,अवाक्पुष्पी,वृश्चिका, वयस्था,अतीस, इन सबके मूल और हल्दी, अदरख, मूली इनके कंद । लोध, मैनफल, सतवन, नीम और आक इनके फूल एवम् देवदारु, अगर, सरल,शल्लकी,जाँगन पीवमाला
और हाँग इनका गोंद लेना चाहिये । इस प्रकार चव्य, दालचीनी, गोंदनी,सोहाजना, दोनों कटेरी इनकी छाल लेना चाहिये । इस प्रकार फल, पत्र, मूल, कैद 'फूल, गोंद और त्वचाके भेदसे शिरोविरेचन (नस्य ) सात प्रकार के होतेहैं१७४॥ .. लवणकटुतिक्तकषायाणिचइन्द्रियोपशयानितथापराण्यनुक्ता
न्यपिद्रव्याणियथायोगविहितानिशिराोवरेचनार्थमुपदिश्यन्ते इति ॥ १७५॥ लवण,कटु,तिक्त तथा कषाय रसवाले द्रव्य-और जो इन्द्रियों को उपशय अर्थात हितकारक हों उन द्रव्योंके प्रयोगको शिरोविरेचनके अर्थ कथन किया है। १७॥
___ अध्यायका संक्षिप्तवर्णन। .. लक्षणाचार्यशिष्याणांपरीक्षाकारणञ्चयत् । अध्येयाध्यापनविधिःसम्भाषाविधिरेवच ॥१७॥षभिर्म्युनानिपञ्चाशद्वादशाथपदानिच । पदानिदशचान्यानिकारणादीनितत्त्वतः ॥१७७॥सम्प्रश्नश्चपरीक्षादेवकोवमनादिषु । भिषग्जितीयेरोगाणांविमानेसम्प्रदार्शतः॥ १७॥
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विमानस्थान-अ०.८... (६५९), ' यहाँपर अध्यायके उपसंहारमें श्लोक हैं गुरु और शिष्यों के लक्षण,परीक्षा,कारण, ‘पढने और पढ़ानेकी विधि,संभाषण विधि, छि आलीस और बारह अर्थपद, इनके सिवाय तत्वसे दश प्रकारके अन्य कारणादि कथन और दश प्रकारके परीक्ष्य विषयोंमें प्रश्न,वमनादि विषयमें नौ प्रकारकी परीक्षाको रोगभिषगाजितीय अध्या'यमें कथन किया गया है ॥ १७६ ॥ १७७ ॥ १७८ ॥
बहुविधमिदमुक्तमर्थजातंबहुविधवाक्यविचित्रमर्थजातम् । ' वहुविधशुभशब्दसन्धियुक्तंबहुविधवादनिषूदनपरेषाम् ॥ १७९॥
अनेक प्रकारके अर्थोंका समूह और अनेक अर्थोंवाले विचित्र वाक्य तथा अर्थजात, सुन्दर शब्द, संधियुक्त अर्थ, अनेक प्रकारके वाद और प्रतिपक्षीके 'यक्षका खण्डनका वर्णन कियागयाहै ॥ १७९ ॥
इममितिबहुविधहेतुसंश्रयांविजज्ञिवान्परमतवादसूदनीम् । निलीयतेपरवचनावमर्दनेनशक्यतपेरवचनश्चमर्दितुम् ॥१८०.॥ . जो वैद्य इन बहु प्रकारके हेतुओंसे युक्त तथा प्रतिपक्षीके मत और वादके. -खण्डन करनेवाली इस मतिको जान लेता है । वह प्रतिपक्षीके संपूर्ण वचनोंको. 'मर्दन करनेको समर्थ होताह और प्रतिपक्षीके वचनोंसे अपने पक्षको कभी खण्डन होने नहीं देता ॥ १८० ॥
दोषादीनांतुभावानांसर्वेषामेवहेतुना। . .मानात्समस्तमानानिनिरुक्तानिविभागशः ॥ १८१॥ इत्यग्निवेशकते तन्त्रेचरकप्रतिसंस्कृते विमानस्थानं समातम्। इस प्रकार इस विमानस्थान, वात, पित्त कफ आदिक दोषोंका और संपूर्ण आगेका हेतु विशेषसे तथा परिमाण विशेषसे विभागपूर्वक संपूर्ण मान (परिमा, .
का) कथन कियागयाहै ॥ १८१॥ . इति श्रीमहर्षिचरकप्रणीतायुर्वेदसंहितायां विमानस्थाने पं०रामप्रसादवैयोपाध्यायविरचित- - भाषाटीकायां रोगभिवग्विज्ञानीयविमानं नामाष्टमोऽध्यायः ॥ ८॥
संहित चरक विमान, जानहि विधिवत जे भिषक् । . . . सदसि पावहीं मान, विजय होहि वैद्यनविषे ॥
__ . इति विमानस्थानम् । . . . .
वडेतना।
. . . . ...
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शारीरस्थानम्।
प्रथमोऽध्यायः। अथातःकतिषापुरुषीयव्याख्यास्यामइतिहस्माहभगवानानेयः ।
अब हम कतिषापुरुषीय शारीरकी व्याख्या करते हैं इस प्रकार भगवान् आत्रे व्यजी कथन करने लगे।
अग्निवेशके पुरुषविषयक प्रश्न । कतिधापुरुषोधीमन् धातुभेदेनभिद्यते । पुरुषःकारणंकस्मा
प्रभवःपुरुषस्यकः॥ १॥ किमज्ञोऽज्ञःसनित्याकिकिमानत्यो निदर्शितः। प्रकृतिःकाविकाराककिलिङ्गंपुरुषस्यच ॥२॥
अग्निवेश बोले कि हे धीमन् ! धातुभेदसे पुरुष कितने प्रकारके होतेहैं । पुरुषको कारण किसलिये कहाजाता है । पुरुषके कारण कौन हैं । पुरुष यज्ञ है। अथवा ज्ञाता है । नित्य है अथवा अनित्य है । प्रकृति क्या है । विकार क्या हैं । पुरुषके क्या लक्षण हैं ॥ १॥२॥
निष्क्रियश्चस्वतन्त्रञ्चवशिनसर्वगविभुम् । वदन्त्यत्मानमा-: त्मज्ञाःक्षेत्रशंसाक्षिणतथा ॥३॥ निष्क्रियस्यक्रियातस्यभगवन् ! विद्यतेकथम् । स्वतन्त्रश्चेदनिष्टासुकथंयोनिषुजायते ॥. .
॥४॥ वशीयद्यसुखै कस्माद्भावैराकम्यतेवलात् । सर्वाःसर्व. गतत्वाचवेदना निवेत्तिसः॥५॥ ' आत्माके जाननेवाले पुरुष आत्माको क्रिया रहित, स्वतन्त्र,वशी, सर्वग,विभु.. क्षेत्रज्ञ और साक्षी कहते हैं सो हे भगवन् ! क्रिया रहित पुरुषमें क्रिया किसप्रकार .. है। विना इच्छासे अनिष्ट योनियोंको किसप्रकार धारण करता है । वशी पुरुष, इन्द्रियोंके सुखके वशमें बलात्कार क्यों फँसजाता है। संर्वज्ञ होनेसे सम्पूर्ण विकारोंको क्यों नहीं जानसकता ॥ ३॥ ४॥ ॥
नपश्यतिविभुःकस्माच्छैलकुडयतिरस्कृतम् । क्षेत्रज्ञाक्षेत्रसथ
वार्किपूर्वमितिसंशयः॥ ६ ॥ ज्ञेयक्षेत्रविनापूर्वक्षेत्रज्ञोहिनयु: . ज्यते । क्षेत्रत्रयदिपूर्वस्यारक्षेत्रज्ञःस्थादशाश्वतः ॥७॥
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शारीरस्थान-अ० १.
(६६१) यदि वह विभु है तो पर्वत और दीवार आदि उसकी दृष्टिको रोककर पदार्थको क्यों नहीं देखने देते। यदि वह क्षेत्रज्ञ है तो प्रथम क्षेत्र था, या यह पुरुष था। क्योंकि इस स्थानमें ज्ञेय विषय क्षेत्र है । सो ज्ञेय क्षेत्र-क्षेत्रज्ञसे पीछे उत्पन्न नहीं हो सकता । यदि क्षेत्र प्रथम था तो क्षेत्रज्ञ नित्य नहीं हो सकता ॥६॥७॥
साक्षिभूतश्चकस्यायकर्ताह्यन्योनविद्यते।
स्यात्कथञ्चाविकारस्यविशेषोवेदनाकृतः॥८॥ जब अन्य कोई कर्ता नहीं है वो यह साक्षी किसका है। और यादि निर्विकार है तो इस निर्विकार पुरुषको अनेक प्रकारको पीडा कैसे होती है ।। ८॥
अथचार्तस्यभगवस्तिसृणांकांचिकित्सति । अतीतांवेदनांवद्योवर्तमानांभविष्यतीम् ॥ ९ ॥ भविप्यन्त्याअसंप्रानि-- रतीतायाअनागमः । साम्प्रतिक्याअपिस्थानंनास्त्यतैःसंशयोह्यतः ॥१०॥ हे भगवन् ! व्याधियोंके लक्षण क्षणक्षणमें पलटते रहते हैं और रोग तीन विमागोंमें (भूत, भविष्य, वर्तमान कालमें) विभक्त हैं । ऐसे स्थानमें रोगीकी किस अवस्थाका निश्चय कर चिकित्सा करनी चाहिये। क्योंकि भविष्यत् व्याधि तो उस समय है ही नहीं और भूतव्याधि व्यतीत हो चुकी है वह फिर नहीं सकती
और जो वर्तमान व्याधि है वह क्षणक्षणमें बदलती जाती है । इसलिये इन तीनों भकारकी व्याधियों में किसको स्थिरकर चिकित्सा करनी चाहिये । यह संशय उत्पन्न होता है ॥१॥१०॥ . कारणवेदनानांकिंकिमधिष्ठानमुच्यते ।
क्कचैतावेदनाः सर्वानिवृत्तियान्त्यशेषतः ॥ ११ ॥ हे प्रभो ! व्याधियोंका कारण क्या है । और अधिष्ठान किसको कहते हैं। यह सम्पूर्ण व्याधिय किस स्थानमें किस प्रकार सम्पूर्णरूपसे निवृत्त होतीहै।।११॥
सर्ववित्सर्वसन्न्यासीसर्वसंयोगनिःसृतः।
एंकःप्रशान्तोभूतात्माकैलि रुपलभ्यते ॥ १२॥ सर्वज्ञ, सम्पूर्णभावोंसे विरक्त और सर्वसंयोगवजित एक शान्तिपरायण जी: वात्मा किन लक्षणोंसे जानाजाता है ॥ १२ ॥
क्चइत्यग्निवेशस्यश्रुत्वामतिमतांवरः॥.. सर्वयथावत्प्रोवाचप्रशान्तात्मापुनर्वसुः ॥ १३॥..
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(६६२)
चरकसंहिता-भा०टी०। इसप्रकार अग्निवेशके प्रश्नों को सुनकर बुद्धिमानों में श्रेष्ठ, प्रशान्तचित्त, भगवान्दः पुनर्वसुजी सर्वको यथाविधि वर्णन करनेलगे ॥ १३ ॥ . .
पुनर्वसुजाके पुरुषविषयक उत्तर । खादयश्चेतनाष्टाधातवःपुरुषःस्मृतः।
चेतनाधातुरप्येकःस्मृतःपुरुषसंज्ञकः ॥ १४ ॥ हे अग्निवेश ! यद्यपि केवल चेतनाधातुरूपही सर्वशास्त्रसंमत पुरुष है परन्तु. चिकित्सा साधनके लिए पृथ्वी, आप, तेज, वायु, आकाश और चेतना इनके मिलेहुए संबंधको पुरुष कहतेहैं ॥ १४ ॥ . पुनश्चधातुभेदेनचतुर्विशतिकः स्मृतः।
मनोदशेन्द्रियाण्याःप्रकृतिश्चाष्टधातुकी ॥ १५॥ फिर वह पुरुष पांच ज्ञानेन्द्रिय, पांच कर्मेन्द्रिय, पांचमहाभूत, प्रकृति, महत्तत्व, अहंकार, पंचतन्मात्रा और एक मन । इनके संयोगसे चौबीसतत्वका कहा जाताहै ॥ १५ ॥
मनका वर्णन। लक्षणंमनसोज्ञानस्याभावोभावएववा । सतिगात्मेन्द्रिया
र्थानांसन्निकर्षणवर्त्तते ॥ १६ ॥ वैधृत्यान्मनसोज्ञानंसान्निध्या. . चच्चवर्त्तते । अणुत्वमथचैकत्वद्वौगुणौमनलःस्मृतौ ॥ १७ ॥.
ज्ञान होना और ज्ञानका न होना मनका लक्षण है अर्थात् एक कालमें एक वस्तुका ज्ञान होना और दूसरेका न होना, या यों कहिये कि दो ज्ञानोंका एकही कालमें उत्पन्न न होना मनका लक्षण है । आत्मा, इन्द्रिय और इन्द्रियोंका विषय इनका संयोग होनेपर भी मनके सन्निकर्षके विना किसी इन्द्रियके विषयका ज्ञान नहीं होता, अर्थात् आत्मा, इन्द्रिय और इन्द्रियार्थ रहतेहुए भी मनके सनिक
सही ज्ञानकी उत्पत्ति होतीहै । इन्द्रिय और अर्थके सन्निकर्ष होनेपर भी यदि मनका संयोग हो तव ज्ञान उत्पन्न होसकताहै । मनके संयोग न होनेसे ज्ञान उत्पन्न नहीं हो सकता । इससे यह सिद्ध हुआ कि मन इन्द्रियोंसे भिन्न कोई अलग वस्तु ह जिसका इन्द्रियोंसे संयोग होनेपर ज्ञान उत्पन्न होताहै। एकत्व और. अणुत्व मनके ये दो गुण हैं अर्थात् मन असंक्लिष्ट और सूक्ष्म है ॥ १६ ॥ १७ ॥ . : १ अत्र चेतनाशब्देन समनस्क आत्मा गृह्यते । खादिग्रहणेन चन्द्रियाणि खादिमयान्यवरुद्धानि। १ पुरुषसंज्ञकः चेतनाधातुरूपोऽत्र कायचिकित्सायामनभिप्रेतः । पातु आध्यात्मिकचिकित्सायान्तुः अभिप्रेत एवेति रामप्रसादः।
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शारीरस्थान-अ० १. . चिन्त्यविचार्यमूह्यञ्चध्येयंसङ्कल्प्यमवच। . - यत्किञ्चिन्मनसोज्ञेयंतत्सर्वार्थसंज्ञकम् ॥ १८॥ . . ...
चिन्ता, विचार, तर्क,ध्यान और संकल्प तथा जाननेयोग्य जो कुछ वस्तु है सब अनका अर्थ (विषय) है ॥ १८ ॥
बुद्धिको प्रवृति। इन्द्रियाभिग्रहःकर्ममनसस्त्वस्यनिग्रहः ।
ऊहविचारश्चततःपरंखुदिःप्रवर्तते ॥ १९ ॥ 'झन्द्रियोंकी गति कराना और स्वयम् गमनशील रहना अथवा इन्द्रियोंके वेगको रोकना और अपनी अनिष्ट गतिको रोकना । यह मनके दो कर्म होते हैं। उहा'तर्क और विचार उत्पन्न हानेके अनन्तर बुद्धिकी प्रवृत्ति होती है ॥ १९ ॥
इन्द्रियेणेन्द्रियार्थोहिसमनस्केनगृह्यते। .
कल्प्यतेमनसाप्यूदगुणतोदोषतोयथा ॥ २०॥ इन्द्रियें अपने अर्थको मनकी सहायतासे ही ग्रहण करती हैं। और इन्द्रियों द्वारा अर्थज्ञान होनेके अनन्तर भी उसके गुण दोषको मनही कल्पना करताहै२०॥
जायतेविषयेतत्रयाबुद्धिनिश्चयात्मिका ।
व्यवस्यतेतयावक्तुंक वाबुद्धिपूर्वकम् ॥ २१॥ फिर उस विषयमें जिस प्रकारको निश्चयात्मिका बुद्धि होतीहै उसको उसः निश्चयात्मिका बुद्धिद्वारा कहनेको अथवा बुद्धिपूर्वक करनेको निश्चयं करताहै२१३.
ज्ञानेंद्रिय । एकैकाधिकयुक्तानिखादीनामिन्द्रियाणितु। ..
पञ्चकर्मानुमेयानियेभ्योबुद्धिःप्रवर्त्तते ॥ २२॥ . .. शब्दगुणवाला आकाश,शब्द और स्पर्शगुणवाला वायु, शब्द, स्पर्श और रूप गुणवाला अग्नि । शब्द, स्पर्श, रूप और रस गुणवाला जल । शब्द, स्पर्श, रूप, रस, और गंध गुणवाली पृथ्वी होती है । इसप्रकार एकएक महाभूत एकएक गुण
चित्य-कतव्याकर्तव्यतया यचित्यते। विचार्यमुपपत्त्यनुपपचिभ्यां यदिभृश्यते ऊर्जा-यत्सम्भावनया जह्यते। ध्येयं-भावनाशांनविषयम् । सँकल्प्य-गुणवत्तया दोषवत्ता वाऽवधारणविषयम् । २ निर्विकल्पालोचनज्ञानमूह।। हेयोपादेयतया विकल्पनं विचारः। ३ बुद्धौ हि सर्वकरणव्यापा: रार्पणं भवति।
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१६६४) चरकसंहिता-भा० टी.। 'पूर्ववाले महाभूतका लेताजाताहै। यद्यपि आकाश,वायु,अनि,जल और पृथ्वी इनके
शब्द, स्पर्श, रूप, रस भौर गंध यह क्रमसे एकएकका एकएक गुण है परन्तु यह 'एकएक गुण क्रमपूर्वक दूसरेका लेते जातेहैं । इन पंचमहाभूतोंकी भवण, स्पर्शन, दर्शन, रसन और वाण ये पांच इंद्रिये हैं । सुनना, छूना, देखना, सादलेना और मुंबना ये इन पांचोंके कर्म हैं। इन पांच कोसे ही इनका अनुमान कियाजाता । इन इन्द्रियों द्वारा ही बुदिकी प्रवृत्ति होती है ॥ २२ ॥
. कर्मेन्द्रिय।। हस्तपादगुदोपस्थांजद्रियमथापिवा । कर्मेन्द्रियाणिपञ्चैवपा- . दोगमनकर्मणि ॥२३॥ पायपस्थाविसहस्तीग्रहणधारणे । जिह्वावागिन्द्रियवाक्चसत्याज्योतिस्तमोऽनृता ॥२४॥ हाप, पांव, बुदा, गृह्य और जिहा ये पांच कर्मेन्द्रिय हैं । पाका चलना, अदाका मलत्याग, मुझका मूत्रत्याग, और हाथोंका ग्रहण करना कर्म है एवं जिताका उच्चारण करना कार्य है । वह उच्चारण करना दो प्रकारका है। १ सत्य, २ असत्य । सत्य ज्योतिःस्वरूप है .और असत्य तमःस्वरूप है ॥ २३ ॥ २४॥
- पञ्चमहाभूत । ., महाभूतानिखवायुरनिरापःक्षितिस्तथा । शब्दःस्पर्शश्वरूपञ्चरसोगन्धश्चतद्गुणाः ॥ २५ ॥ तेषामेकोगुणःपूर्वोगुणवृद्धिः परेपरे। पूर्व:पूर्वोगुणश्चैवक्रमशोगुणिषुस्मृतः ॥ २६ ॥ आकाश,गायु, अग्नि, जल और पृथ्वी ये पांच महाभूत हैं। शन्द, स्पर्श,, स और गंध ये इनके पांच मुण हैं । इनमें पहिलेमें, एक दूसरेमें दो,तीसरेमें दीन चौथेमें चार और पांचमें पांच ये गुण हैं। (इनको २२ के श्लोककी व्याख्या लिख चुके हैं)॥ २६ ॥ २६ ॥ .
पृथ्वी आदिके गुण । .. खरद्रवचलोष्णत्वंभूजलानिलतेजसाम् । आकाशस्याप्रतीषा
तोदृष्टंलिंगंयथाक्रमम् ॥ २७ ॥ लक्षणंसर्वमेवैतत्स्पर्शनेन्द्रियगोचरः। स्पर्शनेन्द्रियविज्ञेयास्पशाहिसविपर्ययः । १ ज्योतिषियोतिषम्मकतृत्वेन उमरंकप्रसारित्वात् ।
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. शारीरस्थान-अ० १.
(६६५) • पृथ्वीका खर, मलका द्रव, वायुका चल और अग्निका उष्ण लक्षण होता है। इसी प्रकार आकाक्ष प्रतिघात लक्षण है। यह सम्पूर्ण लक्षण स्पर्शनेन्द्रियके गोचर हैं। स्पर्शनेन्द्रियसे ही स्पर्श और स्पर्शाभावका ज्ञान होता है ॥२७॥२६॥
गुणादिवर्णन। गुणाःशरीरेगुणिनांनिर्दिष्टाश्चिमेवच ।
अर्थाशब्दादयोज्ञेयागोचराविषयागुणाः ॥ १९ ॥ जिसमें गुण होते हैं उसको गुणी कहते हैं शरीरमें गुण जो हैं वह गुणीक चत हैं अर्थात् लक्षण हैं । और शब्दादिक इन्द्रियों के विषय हैं.।।२९ ॥
यायदिन्द्रियमाश्रित्यजन्तोर्बुद्धिः प्रवर्तते ।
यातिसातेननिर्देशंमनसाचमनोभवा ॥३०॥ जिस इंद्रियके आश्रयसे जो ज्ञान उत्पन्न होता है उसको उस इन्द्रियको बुदि कहते हैं । जो मनसे ज्ञान उत्पन्न होता है उसे मनोभवबुद्धि अथवामानसिक ज्ञान कहने ॥३०॥
ज्ञानोंकी अनेकता। भेदात्कायेन्द्रियानांबवयोवैबुद्धयःस्मृताः।आत्मेन्द्रियम. __.. नोऽर्थानामेकैकासन्निकर्षजा ॥ ३१॥ अंगुल्यंगुष्टतलजस्त.
बीवीणानखोद्भवः । दृष्टाःशब्दोयधावुद्धिदृष्टासंयोगजा तथा॥३२॥ कार्यभेदसे और इन्द्रियों के विषयभेदसे अनेक प्रकारकी बुद्धि प्राप्त होती हैं। आत्मा,इंद्रिय, मन और अर्थों के संनिकर्षसे पृथक र बुद्धि उत्पन्न होतीहै । जैसेअंगुली अंगूठा, हवेली, तंत्री, वीणा नख इनके संयोगसे पृथक् २ शन्द उत्पन्न होते हैं। उसी प्रकार जैसे जैसे अर्थसे संयोग होता है वैसे वैसे संयोग भेदस पृथक र बुद्धि उत्पन्न होतीहै ॥ ३१ ॥ ३२ ॥
बुद्धीन्द्रियमनोऽर्थानांविद्याद्योगधरंपरम् ।
चतुर्विशकइत्येषराशिःपुरुषसंज्ञकः ॥३३॥ बुदि, इन्द्रियं, मन और इनके विषयों के योगको धारण करनेवाला चौवीस बालकी राशिवाला पुरुष कहा जाताहै ।.३३ ॥ .
रजस्तमोभ्यायुक्तस्यसंयोगोऽयमनन्तवान् । ताभ्यांनिराकृताभ्यान्तुसत्वबुद्धयानिवर्तते ॥ ३४॥.
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( ६६६ )
चरकसंहिता - भा० टी० ।
: यह अनन्तवान् पुरुष रजोगुण और तमोगुणके संयोग से अनादि काल से बंधा है परन्तु अभ्यास, वैराग्य और ज्ञान द्वारा रज और तमका संयोग निवृत्त होजाने पर गुणका प्रकाश होने से शुद्ध ज्ञान होकर मोक्षको प्राप्त होता है ॥ ३४ ॥ . पुरुषकी प्रधानता । अत्रकर्मफलञ्चात्रज्ञानञ्चात्रप्रतिष्ठितम् ।
अत्रमोहः सुखं दुःखंजीवितं मरणस्वतः ॥ ३५ ॥
इस पुरुष कर्मफल तथा ज्ञान यह दोनों प्रतिष्ठित हैं । और मोह, सुख, दुःख, जीवन और मरण यह चतुर्विंशति तत्त्वात्मक पुरुषके आश्रित हैं ॥ ३५ ॥ एवयोवेदतत्त्वेन सवेदप्रलयोदयौ ॥ ३६ ॥
जिस पुरुषको इस प्रकार तत्त्वका ज्ञान है वह उत्पत्ति और प्रलयको जानता है ।। ३६ ।।
पुरुषकी कारणता । .
पारम्पर्य्यचिकित्साचज्ञातव्यंयच्चकिञ्चन ॥ ३७ ॥ भास्तमः सत्यमनृतं वेदः कर्मशुभाशुभम् । नस्यात्कर्त्तावेदिताचपुरुषो नभवेद्यदि ॥ ३८॥
यदि पुरुष ज्ञाता न होता तो लोक परम्परा, चिकित्सा, जानने योग्य विषय, तम, ज्योतिः, सत्य, अनृत, वेद, कर्म, शुभ, अशुभ, कर्ता और ज्ञाता, यह कुछ भी न होते ॥ ३७ ॥ ३८ ॥
नाश्रयोन सुखनार्त्तिर्नगतिर्नागतिर्नवाक् । नविज्ञानंनशास्त्राणि नज़न्ममरणंनच ॥ ३९॥नवन्धोनचमोक्षः स्यात्पुरुषोनभवेद्यदि । कारणंपुरुषस्तस्मात्कारणज्ञैरुदाहृतः ॥ ४० ॥
एवम् आश्रय, सुख, रोग, गति, अगति, वाणी, विज्ञान, शास्त्र, जन्म, मरण, बंध और मोक्ष यह भी न होते । इसलिये कारणके जाननेवाले बुद्धिमानोंने पुरु: को कारण कहा है ॥ ३९ ॥ ४० ॥
नचेत्कारणमात्मास्यात्खादयः स्युरहेतुकाः ।
नचैषु सम्भवेज्ज्ञानंनश्वतैः स्यात्प्रयोजनम् ॥ ४१ ॥
याद आत्मा कारण न हो तो आकाश आदि अहेतुक हो जायेंगे । आकाशादिकों में जडत्व होनेसे ज्ञान तो होताही नहीं। इसलिये उन जडोंसे चैतन्यकी उत्पत्ति नहीं हो सकती । अथवा यो कहिये कि वह जड होनेसे चैतन्य पुरुषको अथवा
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शारीरस्यान-अ.'१.
(६६७) जगत्को बना नहीं सकते और भोक्ता न होनेसे उनका कोई प्रयोजन भी नहीं रहसकता ॥४१॥
पुरुषकी कारणताका दृष्टान्त । मृदण्डचक्रैश्चकृतंकुम्भकाराहतेघटम् । कृतंमृत्तृणकाष्टैश्चगृहकाराद्विनागृहम् ॥ ४२॥योवदेत्सवदेदेहंसम्भूयकरणैःकतम् । विनाक रमज्ञानायुक्त्यागमवहिष्कृतः । कारणपुरुषःसर्वैः प्रमाणैरुपलभ्यते ॥४३॥येभ्यःप्रमेयंसर्वेश्यआगमेश्यःप्रती
यते ॥४४॥ . जैसे मट्टी,दंड, चक्र यह सब उपस्थित होते हुए भी घट कुम्हारके विना उत्पन्नः . नहीं होसकता । इसी प्रकार मट्टी, पत्थर, लकडी आदि सब समान होनेपर भी विना बनानेवालेके घर स्वयं तैय्यार नहीं होसकता । जो मनुष्य यह कहे कि विना कुम्हारके घट उत्पन्न होसकता है और विना वनानेवालेके घर स्वयं बन सकता है। वह अज्ञानी मनुष्य युक्ति और शास्त्रसे विरुद यह भी कह सकता है कि आकाशादि जड पदार्थोंने ही इस देहको रचा है । जिन सर्व प्रकारके शास्त्रीय प्रमाणोंसेः प्रमेयकी उपलब्धि होतीहै,उन सबसे सिद्ध है कि कारण पुरुषही है॥४२॥४३॥४४.
___कर्तव्यपर विचार। . नतेतत्सदृशास्त्वन्यपारम्पर्धेसमुत्थिताः । सारूप्यायेतएवेतिनिर्दिश्यन्तेनरान्नराः॥४५॥भावास्त्वेषांसमुदयोनिरशिः सत्त्वसंज्ञकः । कर्त्ताभोक्तानसपुमानितिकेचिद्व्यवस्थिताः ॥ ॥४६॥तेषामन्यैः कृतस्यान्येभावाभावैर्नराःफलम् । भुञ्जतेसहशाःप्रातरात्मानोपदिश्यते ॥४७॥ कोई कहतेहैं कि इसका कर्ता कोई नहींहै यह परम्परासे ऐसाही चलाआताहै. मनुष्यसे मनुष्य, पशुसे पशु सानुरूप होता चलाआताहै । यह ईश्वरने उत्पन्न नहीं कियाहै । संपूर्णभाव पृथ्वी, आकाश, अप, तेज, वायुके समानहीः शरीरकी साहः श्यताहै । उस ईश्वरके समान सृष्टि दिखाई नहीं देती । इसलिये ईश्वरने इसको नहीं बनाया यह निरीश्वरवादियोंका पक्ष हैं। अनात्मवादी कहतेहैं कि पुरुष न कर्ता है न भोक्ता है, यह स्वयं ऐसाही चलाआताहै । उनके मतमें करनेवाला और होताहै,फल और भोगताहै।देखिये खानेके लिये दूसरा पुरुष बनाता, खाता दूसराहें
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( ६६८ )
चरकसंहिता - भा० टी० ।
इसलिये न कोई करता है और न कोई फल भोग ताहै और न कोई आत्मा है ॥ ४५ ॥ ४६ ॥ ४७ ॥
कारणानन्यतादृष्टाकर्त्तुः कर्त्तासएवतु । कर्त्ताहिकरणेर्युक्तः कारणसर्वकर्मणाम् ॥ ४८ ॥ निमेषकालाद्भावानां कालःशीतरोऽत्यये । भग्नानांचपुनर्भावः कर्तनान्यमुपैति ॥ ४९ ॥
आत्मवादी कहते हैं कि कर्त्ताही करणोंकी सहायतासे' कर्मको करता है क्योंकि शारीरके किये हुए कर्मो का फल कर्ता अर्थात् आत्माही भोगता है। देखने में भी आता है कि परोपकारतादि जितने काम किये जाते हैं सबको आत्माही भोगता है। जिस शरी- जो कार्य किया जाता है वह शरीर विनाशको प्राप्त होता तथा होसकता है परन्तु - करनेवाला आत्मा वही रहता है । वह कर्त्ताही अपने करणोंसे युक्तदुआ संपूर्ण कायको करता है । निमिषमात्रमें शरीरादि संपूर्ण भाव शीघ्र नष्ट हो जाते हैं और उन नष्टहुए शरीर आदि भावोंका पुनर्भाव नहीं होता। जो कर्म किया जाता है उसका फल दूसरा नहीं भोग सकता वह कर्त्ताही कर्मों के फलको भोगनेवाला है । क्योंकि यदि ऐसा न हो तो जिस शरीरसे यज्ञादि किये जाते हैं वह तो इसी लोकमें नष्ट होजा
फिर उसके किये कमोंको भोगनेवाला कौन मानाजायगा । इसलिये आत्मा- कोही कर्ता और कर्मका फल भोगनेवाला मानना चाहिये ॥ ४८ ॥ ४९ ॥ मततत्त्वविदामेतद्यस्मात्कर्त्तासकारणम् । क्रियोपभोगेभूतानांनित्यः पुरुषसंज्ञकः ॥ ५० ॥ अहङ्कारः फलंकर्मदेहान्तरगतिः स्मृतिः । विद्यते सतिभूतानां कारणदेहमन्तरा ॥ ५१ ॥
रावके जाननेवाले इसप्रकार कहते हैं कि जिसलिये आत्मा कर्चा है इसीलिंब इसको कारण कहते हैं । वह कारण आत्माही मनुष्योंके कियेहुए कमाको भोगनेबाला है, और नित्य है तथा उसीको पुरुष कहतेहैं । अहंकार, कर्मफल, पुनर्जन्म और स्मृति तथा अन्य धर्माधर्म यह सब मनुष्यों के उस कारणरूप अन्तरात्मामेंही अवस्थित हैं देहमें नहीं ॥ ५० ॥ ५१ ॥
प्रभवोनह्यनादित्वाद्विद्यतेपरमात्मनः ।
पुरुषोराशिसंज्ञस्तुमाहेच्छाद्वेष कर्मजः ॥ ५२ ॥
वह परम आत्मा अनादि है इसलिये उसको करनेवाला कारण कोई नहीं । परन्तु चौबीस तत्वकी राशिभूत जो पुरुष है वह मोह इच्छा और द्वेषजनित कमसे उत्पन्न होताहे ॥ ५२ ॥
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शारीरस्थान-अ० १. (६६९) आत्मज्ञःकरणैयोंगाज्ज्ञानंतस्यप्रवर्तते । करणानामवैमल्या. दयोगाद्वानवर्त्तते ॥ ५३॥ पश्यताऽपियथादर्शसंक्लिष्टेनास्तिदर्शनम् । तद्वज्जलेवाकलुषेचेतस्युपहतेतथा ॥ ५४॥
आत्मा अज्ञ नहीं है अर्थात् ज्ञानवान् है । करणोंके संयोगसे इसको ज्ञान उत्पन्न होताहै । वह करण, मन, बुद्धि और ज्ञानेंद्रियोंको कहतेहैं । इन करणों के निर्मल न होनेसे तथा इनका अयोग होनेसे ज्ञान उत्पन्न नहीं होता। जैसे दर्पणमें धूल जमरिहनसे प्रतिबिंब दिखाई नहीं देता,काई आदि जमीरहनेसेजलमें कुछ दिखाई. नहीं देता। उसी प्रकार मन आदि करणोंके मलयुक्त होनेसे ज्ञान उत्पन्न नहीं होता ॥ ५३ ॥५४॥
करणाके नाम और कर्म । करणानिमनोबुद्धिर्बुद्धिकौन्द्रियाणिच ।
कर्तुःसयोगकर्मवेदनाबुदिरेवच ॥ ५५॥ मन, बुद्धि और बुद्धीन्द्रिय तथा कर्मेन्द्रिय इन सवको करण कहतेहैं । कर्ताके. साथ करणका संयोग होनेसे कर्म, दुःख और ज्ञान आदि उत्पन्न होते हैं ॥१५॥.
नैकाप्रवर्ततेकर्तुभूतात्मानाश्नुतेफलम्। संयोगाद्वचैतेसर्वत- . मृतेनास्तिार्कचन ॥ ५६ ॥ नोकोवर्ततेभावोवर्ततेनाप्यहेतुकः। शीघ्रगत्वात्स्वभावातुभावोनव्यतिवर्तते ॥ ५७ ॥ मात्मा अकेलाही किसी कर्ममें प्रवृत्त नहीं होता और न मकेला होनेपर फल भोगता है । सबका संयोग होनेसेही सब कुछ करता है और करणादिकोका संयोग नं हानेसे कुछ नहीं करता । इसी प्रकार पंचभूतादिभाव भी अकेले कुछ नहीं करते.
और न विना हेतु कुछ कर सकतेहैं अथवा यो कहिये किआकाशादिभाव अकेले होनसे कुछ कर नहीं सकते और कार्य विना हेतुके नहीं होता । भाव शीघ्रगामी स्वभाववाला होनेसे अपने क्रमका उलंघन नहीं कर सकता ॥ ५६ ॥५७॥.. .
अनादिःपुरुषानित्याविपरतिस्तुहेतुजः। सदाकारणवन्नित्यंदृष्टं हेतुमदन्यथा ॥ ५८॥ तदेवभावादग्राह्यनित्यत्वान्नकुतश्चन |
भावाज्ज्ञेयंतदव्यक्तमचिन्त्यव्यक्तसन्यथा ॥ ५९॥ 'अनादि पुरुष नित्य है । जो किसी हेतुसे उत्पन्न होताहै वह अनित्य होता है । और कारणरहित पदार्थ नित्य देखनेमें आताहै । हेतुओंसे उत्पन्न हुआ अनिक
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(६७०)
चरकसंहिता - भा० टी० ।
- होता है । इसीलिये जिसका कारण नहीं उसको अनित्य मानना सर्वथा भूल है । उत्पन्न नहीं होता । वह नित्य आत्मा अव्यक्त अन्यथा अर्थात् राशिरूप पुरुष अनित्य और
नित्य पदार्थ किसी अन्य पदार्थ से और अचित्य है । उससे अगट है ॥ ५८ ॥ ५९ ॥
आत्माका वर्णन |
अव्यक्तमात्माक्षेत्रज्ञः शाश्वतोविभुरव्ययः । तस्माद्यदन्यत्तद्वयक्तंवक्ष्यतचापरंद्वयम् ॥ ६० ॥ व्यक्तञ्चेन्द्रियकञ्चैव गृह्यते. तद्यदिन्द्रियेः । अतोऽन्यत्पुनरव्य कलिङ्गग्राह्यम तान्द्रियम् ॥ ६१॥ आत्मा अव्यक्त, क्षेत्रज्ञ, नित्य, विभु और अव्यय है । उससे विपरीत जो है - वह व्यक्त प्रकट कहा जाता है | व्यक्त पदार्थ इन्द्रिय द्वारा ग्रहण किया जाता है तथा अव्यक्त अतीन्द्रिय है अर्थात् इन्द्रियों द्वारा ग्रहण नहीं होसकता । जो पदार्थ इन्द्रियों द्वारा ग्रहण न किया जाकर केवल लक्षणों द्वारा जाना जाय उसको अतीन्द्रिय तथा अव्यक्त कहते हैं ॥ ६० ॥ ६१ ॥
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प्रकृतियों आर क्षेत्रज्ञका वर्णन | खादीनिबुद्धिव्य तमहङ्कारस्तथाष्टमः । भूतप्रकृतिरुद्दिष्टावि'काराश्चैवषोडश ॥ ६२ ॥ बुद्धीन्द्रियाणिपञ्चैवपञ्चकर्मेन्द्रिया - णिच । समनस्काश्चपञ्चार्थाविकाराइतिसंज्ञिताः ॥ ६३ ॥ इतिक्षेत्रसमुद्दिष्टं सर्वमव्यक्तवर्जितम् । अव्यक्तमस्यक्षेत्रस्यक्षेत्रज्ञमृषयोविदुः ॥ ६४ H -
आकाशादि पंचतन्मात्रा ( परमाणुरूप महाभूत ) महत् तत्त्वं, बुद्धि, मूल प्रकृति और अहंकार यह आठ भूत प्रकृति कहेजातहैं । मन, पांच ज्ञानेन्द्रिय, पांच -कर्मेन्द्रिय और पांचमहाभूत इनको सोलह विकार कहते हैं क्योंकि यह आठ प्रकृपति कार्य हैं उनसे विकार भावको प्राप्त होकर उत्पन्न हुए हैं इसलिये उनको विकार कहते हैं । अव्यक्तको छोड़कर अन्य सवको क्षेत्र कहते हैं और ऋषिलोग - अव्यक्त आत्माको इस क्षेत्रको जाननेवाला ( क्षेत्रज्ञ ) कहते हैं ॥ ६२ ॥ ६३ ॥ ६४ ॥ पुरुषका वर्णन ।.
जायते बुद्धिरव्यक्ताद्बुद्ध्यामिति मन्यते । परंखादीन्यहंकार 'उपादत्तेयथाक्रमम् ॥ ६५ ॥ ततःसम्पूर्ण सवांगोजातोऽभ्युदि'तउच्यते । पुरुषः प्रलये चेष्टैः पुनर्भावैर्नियुज्यते ॥ ६६ ॥ अव्य
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शारीरस्थान - अ० १.
(६७१)
: काइयक्ततांयातिव्यक्तादव्यक्ततांपुनः । रजस्तमोभ्यामाविष्ट - चक्रवत्परिवर्त्तते ॥ ६७ ॥
अव्यक्त प्रकृतिते बुद्धि, बुद्धिसे महंकार, अहंकारसे पंच तन्मात्रा, और मन
इन्द्रियोंकी क्रमपूर्वक उत्पत्ति होती है । उसके उपरान्त संपूर्ण सर्वांग पुरुष राशि उत्पन्न होती है । इस चतुर्विंशतितत्त्वों के पुतलेसे कर्माधीन अनादि काल से मिलाहुआ चैतन्य आत्मा पुरुष कहा जाता है । यह पुरुष प्रलय समयमें इच्छित वस्तुओंसे पृथक् होजाता है फिर इसी प्रकार अव्यक्तसे व्यक्तभावको और व्यक्तसे अव्यक्तताको पुनःपुनः प्राप्त होता रहता है, यह पुरुष रजोगुण और तमोगुणसे आवेष्टित हुआ चक्के समान घूमता रहता है ॥ ६५ ॥ ६६ ॥ ६७ ॥ येषांद्वन्द्वेपरासक्तिरहङ्कारपराश्चय ।
उदयप्रलयौ तेषां तेषां येत्वतोऽन्यथा ॥ ६८ ॥
•
जिन मनुष्यों की द्वन्द्वमें परम शक्ति है अर्थात् रजोगुण और तमोगुणते आवे - 'ष्टिंत होकर द्वेष, काम, अहंकार आदिमें चित्तवृत्ति लगी रहती है वह मनुष्य ५ वारंवार जन्म लेते हैं और मरते हैं परन्तु इनसे विपरीत अर्थात् सतोगुणवाले मनुयोंको ज्ञान प्राप्त होनेसे इस जन्म मरण के चक्रमें नहीं आना पडता ॥ ६८ ॥ - जीवनमरणके लक्षण | प्राणापानौनिमेषाद्या जीवनंमनसोगतिः । इन्द्रियान्तरसञ्चाराप्रेरणंधारणञ्चयत् ॥ ६९ ॥ देशान्तरगतिःस्वप्नेपञ्चत्वग्रहणं तथा । दृष्टस्य दक्षिणेनाक्ष्णासव्येनापगमस्तथा ॥ ७० ॥ इच्छाद्वेषः सुखं दुःखं यत्नश्चेतनाधृतिः । बुद्धिः स्मृतिरहङ्कारो लिंगानिपरमात्मनः ॥ ७१ ॥ यस्मात्समुपलभ्यते लिंगान्येतानिजीवतः । नमृतस्यात्मलिंगा नितस्मादाहुर्महर्षयः॥७२॥ शरीरहिगते नास्मिञ्छून्यागारमचेतनम् । पञ्चभूतावशेषत्वात्पञ्चत्वंगतमुच्यते ॥ ७३ ॥
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श्वास लेना और छोडना, आंखका झपकना, जीवन, मनकी गति, एक इन्द्रियसे दूसरी इन्द्रिय सञ्चार करना इन्द्रियोंका इधरउधर प्रेरण करना, देशांतर आदिकमें गमन करना, स्वमें अनेक प्रकारका ज्ञान होना, पंचभूतोंके तत्वोंको जानना दक्षिण ने देखे हुए पदार्थको वामनेत्र से पहिचानलेना, इच्छा, द्वेष, सुख, दुःख
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(६७२)
चरकसंहिता-मा० टी०॥ प्रयत्न, चेतना, धृति, बुद्धि,स्मृति और अहंकार यह सब लक्षण जीवित मनुष्यकें. हैं। मृत मनुष्यमें यह लक्षण नहीं होते इसीलिये आत्माके जाननेवाले महर्षि इन सबको आत्माके लक्षण कथन करतेहैं । इन लक्षणोंवाली आत्माके निकलजानेसे शरीर भयानक, चेतनारहित,शून्य वरके समान दिखाई देने लगताहै । मात्माके निकल जानेपर केवल पंचभूतमात्रका पुतला पडा रहता है। इसीलिये इसको पंचत. (मरण) को प्राप्त होगया ऐसा कहतेहैं ।। ६९॥ ७० ॥ ७१ ॥ ७२ ॥ ७३ ।।
आत्माको कर्तृत्व । अचेतनंक्रियावञ्चमनश्चेतयितापरः। युक्तस्यमनसातस्यनिदिश्यतेविभोःक्रियाः ॥ ७४ ॥ चेतनावान्यतश्चात्माततः
कानिरुच्यते । अचेतनत्वाच्चमनःक्रियावदपिनोच्यते ॥ ७५ मन अचेतन है और आत्मा चैतन्य है। वह आत्माही मनको चैतन्य करनेवाला है। आत्माके आश्रयही मनकी संपूर्ण क्रियायें होती हैं। क्योंकि आत्मा चेतनावान है इसलिये मनकी क्रियाओंका वही कर्ता माना जाताहै । मन अचेतन होनेसे क्रिया करता हुआ भी कर्ता नहीं कहा जाता ॥ ७४ ॥ ५ ॥
यथास्वेनात्मनःसर्वमनःसर्वासुयोनिषु।
प्राणैस्तन्त्रयतेप्राणीनह्यन्योऽन्यस्यतन्त्रकः॥७६ ॥ जो जिस प्रकारका कर्म करता है वह अपनी इच्छा न होनेपर भी अपने किये हुए कर्मके आधीन होकर सवप्रकारकी योनियों में प्राप्त होताहै।मनुष्य अपने कर्मोंद्वाराही अपनी आत्माको अनेक प्रकारफी योनियों में लेजाताहै इसको और कोई किसी योनिमें प्राप्त नहीं करतां ७६ ॥
__आत्माको वशित्व। क्शीतत्कुरुतेकर्मयत्कृत्वाफलमश्नुते।
वशीचेतःसमाधत्तेवशासनिरस्यति ॥ ७७ ॥ अपनी इच्छाके अनुसार प्रवृत्त होनेवाला आत्मा शुभाशुभ कर्मको करताहें और उस कर्मके करनेसे शुंभ और अशुभ फलोंको भोगताहै । और अपने आधीनहीं होकर योग,समाधि आदिमें प्रवृत्त हो संपूर्ण जालको छोडकर मोक्षको प्राप्त होजाआई इसीलये उसको वशी कहते हैं । ७७॥ . . .
देहीसर्वगतोह्यात्मास्वेस्वेसंस्पर्शनेन्द्रिये। . . . . . सर्वाःसर्वाश्रयस्थास्तुनामातोवेत्तिवेदनाः ॥ ७८ ।।...
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शारीरस्थान ०१.
(६७३) : देहेको धारण करनेवाला आत्मा सम्पूर्ण शरीरमें गमन करनेवाला होनेसे स्पर्श युक्त शरीरकेही सुख दुःखको जानता है । केश, नख, आदि जो स्पर्शयुक्त नहीं हैं 'अर्थात् मनुष्यके शरीरकी स्पर्शनेन्द्रिय जिस स्थानमें प्राप्त नहीं हैं उसके सुख दुःखको नहीं जानसकता ॥ ७८ ॥
आत्माको विभुत्वं । विभुत्वमतएवास्ययस्मात्सर्वगतोमहान्ः मनसश्चसमाधानात्पश्यत्यात्मातिरस्कृतम् ॥ ७९ ॥ नित्यानुबन्धमनसादेहकमानुपातिना सर्वयोनिगतंविद्यादेकयोनावापस्थितम् ॥८॥ क्योंकि आत्मा सर्वगत है और महान है इसलिये इसको विभु कहतेहैं । यह आत्मा योग, समाधीक बलसे दीवार और पर्वतसे छिपी हुई वस्तुको भी देखसकताहै । कर्म देहका अनुवर्ती होनेसे देहान्तरमें गमन कर सकताहै । मनके साथ आत्माका नित्य सम्बन्ध होनेसे वह नाना योनियोंमें गमन करता हुआ भी एक योनिमें रहनेके समान ही मानताहै ॥ ७९ ॥ ८० ॥
आत्माका अनादित्व। आदि स्त्यात्मनःक्षेत्रपारम्पर्य्यमनादिकम् । • अतस्तयोरनादित्वात्किंपर्वमितिनोच्यते ॥ १॥ 'आत्मा अनादि है और क्षेत्र परम्परा भी अनादि है । जब दोनों अनादि हैं फिर उनमें पहिले और पीछेका प्रश्नही नहीं होसकता ॥ ८१॥
आत्माका सर्वसाक्षित्व । ज्ञःसाक्षीत्युच्यतेनाज्ञःसाक्षीह्यात्माह्यतःस्मृतः ।
सर्वभावाहिसर्वेषांभूतानामात्मसाक्षिकाः ॥ ८२ ॥ आत्मा ज्ञाता होनेसे साक्षी कहा जाताहै क्योंकि अज्ञ साक्षी नहीं होसकता। मनुष्यके सम्पूर्ण भावोंका साक्षी आत्माही हैं ॥ ८२ ॥ .
नैकःकदाचिद्भूतात्मालक्षणैरुपलभ्यते।विशेषोऽलुपलायस्यतस्यनैकस्यविद्यते ॥ ८३ ॥ संयोगःपुरुषस्येष्टोविशेषोवेदनाकृतः । वेदनायत्रनियताविशेषस्तत्रतत्कृतः॥८॥ . पुरुष (आत्मा) एकही है.यह किसी लक्षणद्वारा सिद्ध नहीं होसकता अर्थात् पुरुष अनेक हैं । तात्पर्य यह हुआ कि चैतन्य आत्मी सम्पूर्ण संसारमें एकही हैं ऐसा नहीं, किन्तु अनन्त और अनेक आत्मा हैं। इसीलिये दूसरे आत्माके सुखदुः
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(६७४)
चरकसंहिता-भा० टी०। खादिकोंको अथवा पीडाको दूसरा आत्मा नहीं जानसकता । पुरुष (आत्मा) - का जिस स्थानतक संयोग होता है वहांतककी पीडाको जान सकताहै । इसलिये शरीरमें होनेवाली पीडाको तथा ज्ञानद्वारा जहांतक गति है वहांतक जानसक है ॥ ८३ ॥ ८४ ॥
अतीतरोगकी चिकित्सा। चिकित्सतिभिषक्सस्त्रिकालावेदनाइति ।
ययायुक्त्यावदन्त्येकेसायुक्तिरुपधार्यताम् ॥ ८५ ॥ चिकित्सक भूत,भविष्य और वर्तमान इन तीनों प्रकारकी व्याधियोंकी चिकिसा कर सकता है। इनकी चिकित्सा करनेकी जिस युक्तिको आचार्योने कथन किया है उसको तुम श्रवण करो। ८५ ॥
पुनस्तच्छिरसःशूलंज्वरःसपुनरागतः। पुनःसकालोबलवांश्छ. दिसापुनरागता॥ ८६ ॥ एभिःप्रपन्नर्वचनैरतीतागमनंमतम्।
कालश्चायमतीतानामातीनांपुनरागतः ॥ ८७ ॥ तमर्तिका- . लमुद्दिश्यलेषजंयत्प्रयुज्यते। अतीतानांप्रशमनंवेदनानांतदु. च्यते ॥ ८८ ॥ शिरकी पीडाका एकवार शान्त होकर उसी प्रकार फिर प्रगट होजाना बथा ज्वर, खांसी और वमनका एकवार शान्त होकर फिर . उसी प्रकार प्रगट होजाना । अतीतागमन कहाजाता है । अतीत(भूतकालकी) व्याधिये फिर पहिलेकी समान आकर उपस्थित होजातीहैं । इस लिये उनका दौरा होनेसे प्रथम उनके अतीतकालके लक्षणोंको विचारकर औषथीका प्रयोग करना अतीतव्याधियोंकी चिकित्सा कही जातीहै।जैसे नित्य दोपहरके समय किसीके शिग्में पीडा होतीहो और सायंकालमें शान्त होजाय उस शान्तावस्थामें चिकित्सा करते समय जो पीडा व्यतीत होचुकीहै उसकाही लक्ष्य रखकर औषध प्रयोग कियाजाताहै । इसीमकार चातुर्थिकज्वर आदिमें जानना चाहिये इसको अतीतव्याधिको चिकित्सा कहतेहैं ।। ८६ ॥ ८७.॥ ८८.. .
भविष्यत्गेगकी चिकित्सा। आपस्ताःपुनरागुर्यायाभिःशस्यपुराहतम् । तथाप्रक्रियतेसेतुः प्रतिकर्मतथाश्रयेत् ॥ ८९ ॥ पूर्वरूपंविकाराणांदृष्ट्राप्रादुर्भविष्यताम् । याक्रियात्रियतसाचवेदनांहन्त्यनागताम् ॥ ९०॥ .
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शारीरस्थान-१० १.
(६७५) जिस जलकी बाढने पहिले खेतीको नष्टकर डालाथा वह फिर आकर खेतीको नष्ट न करदेवे उसके बचावके लिये खेतकी रक्षाकारक सेतु आदि वना रखना अथवा नदीक वेगको देखकर खेतीके नष्टताका अनुमान करके वाढआनेसे पाहिले -रक्षाका प्रबंध करलेना,जिसप्रकार भविष्यत् हानिकी रक्षाका उपाय है उसीप्रकार. विकारोंके पूर्वरूपको देखकर उनके प्रकट होनेके पहिले क्रिया करना अनागतव्याधि. अर्थात् भविष्यव्याधिको चिकित्सा कहीजातीहै ॥ ८९ ॥ ९० ॥
वर्तमान व्याधिको चिकित्सा । पारम्पानुवन्धस्तुदुःखानांविनिवर्तते । सुखहेतूपचारेणसुसञ्चापिप्रवर्तते ॥ ९१ ॥नलमायान्तिवैषम्यंविषमाःसमतां नच । हेतुभिःसहशानित्यंजायन्तेदेहधातवः ॥ ९२ ॥ वर्तमान व्याधिको चिकित्सा कोई आक्षेप नहीं होसकता क्योंकि रोगका 'परस्परासे जोअनुवंध चलाआताहै अर्थात क्रमपूर्वक क्षणक्षणमें रोग जो कष्ट आदि देरहाहै वह चिकित्साद्वारा निवृत्त होनेसे रोगीको सुख प्राप्त होताहै और सुखके लियेही चिकित्साकी प्रवृत्ति है तथा समधातुयें विषमताको प्राप्त नहीं होती और -संपूर्ण धातुयें सम भी नहीं होती क्योंकिजैसे हेतुओं का संयोग होताहै वैसी शरीरकी 'धातुयें होतीजातीहैं।इसलिये धातुओंकी अवस्थाका ध्यान रखतेहुए संपूर्ण औषधी तथा आहारादिकोंका प्रयोग वर्तमान व्याधिकी चिकित्सा कहीजातीहै ९१॥९॥
युक्तिमतांपुरस्कृत्यत्रिकालांवेदनांभिषक् ।
हन्तीत्युक्त्वाचिकित्सासानैष्ठिकीयाविनोपधाम् ॥ ९३॥ वैद्य इस युक्तिका आश्रय लेकर तीनोंकालकी व्याधियोंको नष्ट कर सकताहै ।। इस चिकित्साकोही नैष्ठिकी अर्थात् रोगनाशनी चिकित्सा कहतेहैं जो विना अनु:: चित लोभसे कीजाती है ॥ ९३ ॥
उपधाहिपरोहेतर्दुःखदुःखाश्रयप्रदः। त्यागःसर्वोपधानाञ्चस-: . वैदुःखव्यपोहकः ॥ ९४ ॥ कोषकारोयथााशूनुपादत्तेवधप्रदान । उपादचेतथार्थेभ्यस्तृष्णामज्ञःसदातुरः॥९५॥ यस्त्वनिकल्पानीझोज्ञात्वातेभ्योनिवर्तते । अनारम्भादसंयोगातंदुश्खनोपतिष्ठते ॥ १६॥ जिस चिकित्सामें किसीप्रकारका लोभ, आदिक उपाधि न हो वह चिकित्सा मुखदायक होतीहै । क्योंकि उपाधिही दुखका कारण है . । सबमकारकी उपाधि
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चरकसंहिता-मा० टी०॥ योंको त्यागदेनाही परमसुखका अवलंबन है । जैसे कोषकार ( पट्टकीट रेशमका कीडा) अपने सूत्रसे बंधकर आपही प्राणोंको त्यागदेतीहै वैसेही मूर्ख मनुष्य भी अतिलोभ आदि उपाधिसे ग्रसित हो अपनेको आपही नष्टकर डालताहै। जो मनुष्य काम, लोभादिक विषयोंको अग्निके समान समझकर उनसे निवृत्त रहतेहैं अर्थात् विषयोंकी उपाधियोंमें नहीं फंसते वह रागद्वेषसे किसी काममें प्रवृत्त न होकर दुःखके संयोगसे बचे रहतेहैं ।। ९४ ॥ ९५ ॥ ९६ ॥
दुःखके हेतु ।। धीधुतिस्मृतिविभ्रंशःसम्माप्तिःकालकर्मणाम् । असात्म्यार्थागमश्चेतिज्ञातव्यादुःखहेतवः ॥९७ विषमाभिनिवेशोयोनित्यानित्येहिताहिते।ज्ञेयःसबुद्धिविभ्रंशः समंबुद्धिहिपश्यति ॥ ॥९८ ॥ विषयप्रवणचित्तंधतिभ्रंशानशक्यते । नियन्तुमहितादर्थावृतिहिनियमात्मिका ॥ ९९ ॥ तत्त्वज्ञानस्मृतिर्यस्यरजोमोहावतात्मनः । भ्रश्यतेसस्मृतिभ्रंशःस्मर्त्तव्यंहिस्मृतो स्थितम् ॥ १०॥
बुद्धि, धृति और स्मृति इनका नष्ट होना अयोग्य काल और अयोग्य कर्मोंका संयोग होना तथा असात्म्य पदार्थोंका संयोग होना यह सब दुःखके हेतु हैं । नित्य. और अनित्य,हित और आहित इनको उल्टी रीतिसे देखना अर्थात् हितको आहित जानना और अहितको हित जानना, नित्यको अनित्य, अनित्यको नित्य जानना इत्यादि सब बुद्धिका विभ्रंश कहाजाताहै । यथोचित रीतिपर जो पदार्थ जैसा हो उसको वैसाही जानना उसको सद्बुद्धि कहते हैं । विषयोंमें चित्तको लगाना अपः
१ धीविभ्रंशम्-विषमाभिनिवेशोऽयथाभूतत्वेनाध्यवसानम्-नित्यत्वे-अनित्यामति, एवं हितेs. हितमहिते च हितमिति या बुद्धिः स जुद्धिभ्रंशः, अथ कथमयं बुद्धिविभ्रंशशब्देनोच्यत इत्याह"समं बुद्धिर्हि पश्यति" उचिता शुद्धः समं यथाभूतं यस्मात् पश्यति, नत्मादसमदर्शनं बुद्धिविभ्रश उचित एवेत्यर्थः ॥ ६॥
धृतिभ्रंशम्-विपयप्रवणं विपयेपु सङ्गतम्, नियन्तुमिति व्यावयितुं, धृतिहि नियमात्मकेति,. यस्मात् धृशिरकार्यप्रसक्तं मनो निवर्तयति स्वरूपेण, तस्मात् मनोनियम कत्तुंमशक्ता कृतिः स्वकर्मनष्टा भवतीत्यर्थः ।। ६१ ॥
स्मृतिभ्रंशम्-तत्त्वज्ञ:ने स्मृतिर्यस्य भ्रश्यते इति योजना, कर्तव्यं हि स्मृतौ स्थितम् इति स्मतव्येन सम्मतस्यार्थस्य स्मरणं प्रशस्तस्मृतिधर्मः, तत्र तत्त्वज्ञानस्य शिष्टानां स्मर्तव्येन त्मतव्यस्य यदस्मरणम्, तत् स्मृत्यपराधाद् भवतीत्यर्थः ।। ६२ ।।
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शारीरस्थान-अ० १.
(६८७) नेको विषयोंसे न हटासकना धृतिभ्रंश कहाजाताहै । क्योंकि धृतिही महत् अर्थोंको नियममें लानेवाली होनेसे नियमात्मिका कहीजातीहै । रजोगुणसे और मोहसे आवृत हुए मनुष्यकी स्मरणशक्तिका नष्ट होजाना स्मृतिभ्रंश कहाजाताहै। ज्ञानका स्मरण रहनाही स्मर्तव्य विषय है और उस स्मर्त्तव्य विषयके धारण करनेवाली स्मृति होतीहै ॥ ९७॥ ९८ ॥ ९९ ।। १०० ॥
प्रज्ञापराध । धीधृतिस्मृतिविभ्रष्टःकर्मयस्कुरुतेऽशुभम् । प्रज्ञापराधतविद्यात्सवदोषप्रकोपणम्॥१०१।।उदीरणंगतिमतामुदीर्णानाञ्चनिग्रहः । सेवनंसाहसानाञ्चनारीणाञ्चातिसेवनम् ॥ १०२ ॥ कर्मकालातिपातश्चमिथ्यारम्भश्चकर्मणाम् । विनयाचारलोपश्चपूज्यानाञ्चाभिधर्षणम् ॥ १०३ ॥ ज्ञातानांस्वयमर्थानामहितानांनिषेवणम् । परमौन्मादिकानाञ्चप्रत्ययानांनिषेवणम् ॥ १०४ ॥ अकालादेशसञ्चारोमैत्रीसंक्लिष्टकभिः । इन्द्रियोपक्रमोक्तस्यसदृत्तस्यचवर्जनम् ॥ १०५ ॥ ईर्ष्यामानमदक्रोधलोभमोहमदभ्रमाः । तज्जंवाकर्मयक्लिष्टंक्लिष्टंयदेहकर्मच॥१०६॥ यच्चान्यदीदृशंकर्मरजोमोहसमुत्थितम् । प्रज्ञापराधंतशिष्टाबुवतेव्याधिकारणम् ॥१०७॥ वुद्धयाविषमविज्ञानविषमञ्चप्रवतनम् । प्रज्ञापरा,जानीयान्मनसोगोचरहितत् ॥ १०८ ॥ . बुद्धि, धृति और स्मृतिके नष्ट होनेसे यह मनुष्य जिन अशुभ कर्मोंको करताहै उसको प्रज्ञापराध अर्थात् बुद्धिका दोष कहते हैं। और वह बुद्धिका दोष सव दोषोंको कुपित करनेवाला होताहै। जैसे-काम, क्रोधादि वेगोंको न रोकना और मल मूत्रादि वेगोंको रोकलेना अयोग्य साहस करना, अति स्त्रीसंग करना, संपूर्ण कोंको यथासमय न करना, कर्मोंका मिथ्यारंभ करना, विनय और आचार त्यागेदना, माता पिता गुरुजन आदिकोंका अपमान करना, जानबूझकर बुरे काँका सेवन करना, परम उन्मादकेसे कर्मोंका करना, बेसमय निंदित स्थानमें डोलना, फिरना,खोटे कमोंमें प्रेम रखना,इन्द्रियोपक्रम अर्थात् इन्द्रियोपयोगी श्रेष्ठ आचरणका त्यागदेना, ईषः, मान, मद, क्रोध, लोभ, मोह और भ्रम उनका धारण करना और इनसे उत्पन्न होनेवाले निंदित कर्मों का सेवन करना एवम् देहजनित और मनके सब खोटे काका सेवन तथा इसी प्रकारके अन्य कर्म जोरजो;
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(६७८)
चरकसंहिता--भा० टी० गुण और तमोगुणसे उत्पन्न होते हैं उनका सेवन करना भद्रपुरुष इन सब कर्मीको प्रज्ञापराध कहते हैं प्रज्ञापराधही व्याधियोंके उत्पन्न करनेका हेतु है। योग्य विषयको विपरीत भावस समझना और अयोग्यको योग्य समझना इस प्रकार जो बुद्धिका दोष है उसीको प्रज्ञापराध कहतेहैं । वह प्रज्ञापराध मनके आधीन है. ॥ ॥ १०१ ॥ १०२ ॥ १०३ ॥ १०४ ॥ १०५ ॥ १०६ ॥ १०७॥१०८।।
कालजनित रोग। . निर्दिष्टाकालसम्प्राप्तिाधीना हेतुसंग्रहे। चयप्रकोपशमाः पित्तादीनांयथापुरा ॥ १०९ ॥ मिथ्यातिहीनलिंगाश्चवर्षान्ता रोगहेतवः । जीर्णअक्तप्रजीणानकालाकालस्थितिश्चया॥११०॥ पूर्वमध्यापराह्नाश्चराव्यायामास्वयंश्चये। येषुकालेषुनियतायेरोगास्ते च कालजाः ॥ १११ ॥ अन्येशुष्कोद्वयमाहीतृतयिकचतुर्थको । स्वेस्वेकालेप्रवर्तन्तेकाले ह्यषांवलागमः ॥ ११२ ॥ एतेचान्येचयेकचित्कालजाविविधागदाः । अनागते चिकि.
स्यास्तेवलकालीविजानता ॥ ११३ ॥ जिसप्रकार काल सम्प्राप्ति तथा व्याधियोंके हेतु संग्रह (कियंतः शिरसाय अध्याय) में पित्त आदिकोंका चय, प्रकोप और प्रशमन पहिले कथनकर आयें हैं तथा शीत आदिक वर्षापर्यन्त ऋतुओंका-मिथ्यायोग, अतियोग, हीनयोग हानेसे रोग उत्पन्न होतेहैं । भोजनके जीर्ण होनेपर भोजनके समय, भोजनके पाककालमें दोषोंकी जिसप्रकार स्थिति होतीहै, पूर्वाड, मध्याह्न और अपराहमें इसी. प्रकार रात्रिके तीनोंभागोंमें और जिनकालेगमें जो रोग जिसप्रकार नियत है तथा जो जिसकालमें उत्पन्न होतेहैं एवम् इकतरा, ट्याहिक, तृतीयक और चातुर्थिक ज्वर जिसप्रकार अपनेरकालमें आकर स्थित होतेहैं इन सबको कालजन्य व्याधिये कहतेहैं । बुद्धिमानू वैद्य इन व्याधियोंके प्रगट होनेके कालसे पहिलेही चिकित्सा द्वारा बल काल विचारकर उसका उपाय करे १०९॥२१०॥११॥११२॥११॥
स्वाभाविकरोगोंका वर्णन । . कालस्यपरिणामेनजरामृत्युनिमित्तजाः।
रोगा:स्वाभाविकांदृष्टाःस्वभावोनिष्प्रतिक्रियः॥ ११४॥ कालके परिणामसे बुढापे और मृत्युके निमित्तसे.जो रोग उत्पन्न होतेहैं.उनको स्वाभाविकरोग कहतेहैं । स्वाभाविकरोगोंकी कोई चिकित्सा नहीं है ॥ ११४ ॥
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(६७९)
शारीरस्थान-अ० १. निर्दिष्टंदैवशब्देनकर्मयत्पौर्वदेहिकम् ।
हेतुस्तदपिकालेनरोगाणामुपलभ्यते ॥ ११५॥ पूर्वजन्मके कियेहुए कर्माको दैव अथवा प्रारब्ध कहतेहैं । वह देव भी काल पाकर रोगोंका कारण प्रतीत होताहै ॥ ११५ ॥
कर्मजरोगोंकी शान्ति । नहिकर्ममहत्किञ्चित्फलंयस्यनभुज्यते।
क्रियानाकर्मजारोगाःप्रशमंयान्तितरक्षयात् ॥ ११६ ॥. ऐसा कोईभी सूक्ष्मसे सूक्ष्म और महानसे महान् कर्म नहीं है जिसका फल ना भोगना पडता हो । वह कर्मसे उत्पन्न हुए रोग क्रिया अथवा प्रायश्चित्त करने शान्त होजातेहैं ॥ ११६ ॥
अवणेन्द्रियका मिथ्यायोग। अत्युपशब्दश्रवणाच्छ्रवणात्सर्वशोनच । शब्दानाञ्चातिहीनानांभवन्तिश्रवणाज्जडा॥११७॥परुषोद्भीषणाशस्ताप्रियव्यस.
नसूचकैः । शब्दैःश्रवणसंयोगोमिथ्यायोगःसउच्यते ॥११॥ • अत्यन्त उग्र शब्द सुनना और बहुत कालपर्यन्त तीक्ष्ण आवाजका सुनतेरहना श्रवणेन्द्रियका अतियोग है ।सर्वथा न सुनना अथवा अत्यन्त हीन शब्दोंका सुनना यह श्रवणेन्द्रियका अयोग है । कठोर शब्द, निंदित शब्द, अप्रिय शब्द और विपत्तिके याद दिलानेवाले शब्दोंका सुनना श्रवणेन्द्रियका मिथ्यायोग है । इन बीनों योगोंके संयोगसे श्रवणेन्द्रियमें जडता उत्पन्न होती है ॥ ११७ ॥ १९८७
त्वगिन्द्रियका मिथ्यायोग। असंस्पशोऽतिसंस्पर्शोहीनसंस्पर्शएवच स्पृश्यानांसंग्रहेणातः स्पर्शनेन्द्रियबाधकः ॥ ११९॥योमूतविश्वातानामकालेनागतश्चयः । स्नेहशीतोष्णसंस्पशॉमिथ्यायोगः सउच्यते ॥ १२० ॥ किसी वस्तुका भी स्पर्श न करना, अत्यंत स्पर्श करना,बहुत हीन स्पर्श करना भूतसंस्पर्श होना, विषसंस्पर्श, तीक्ष्णवायुका संस्पर्श, वेसमपके स्नेह, शीत और 'उष्णका संस्पर्श मिथ्यायोग कहाजाताहै । स्पर्शनेन्द्रियका मिथ्यायोग होने स्पर्शशाक्त हीन होजातीहै ॥ ११९ ॥ १२० ।
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(६८०) चरकसंहिता-भा० टी०।
दर्शनेन्द्रियका मिथ्यायोग। रूपाणांभास्वतांदृष्टिविनश्यतिचदर्शनात् ॥१२१॥दर्शनाचातिसूक्ष्माणांसर्वशश्चाप्यदर्शनात्। द्विष्टभैरवबभित्सदूरातिक्कि'ष्टदर्शनात् । तामसानाञ्चरूपाणांमिथ्यासंयोगउच्यते॥१२२॥
अत्यन्त प्रकाशवान वस्तुओंको देखना,अत्यन्त सूक्ष्म पदार्थोंका देखना,सर्वथा किसी वस्तुको भी न देखना, द्वेषयुक्त, भयानक बीभत्स पदार्थोंका देखना बहुत दुरसे बडी देरतक देखना और जिसके देखनेसे कष्ट हो उसको देखना,तथा तामसरूपोंका देखना यह सब दृष्टिका मिथ्यायोग कहाजाताहै ॥ १२१ ॥ १२२ ।।
रसनन्द्रियका मिथ्यायोग । अत्यदानमनादानमोकप्तात्म्यादिभिश्चयत् ।
रसानांविषमादानमल्पादानश्चदूषणम् ॥ १२३॥ रसविशेषोंको अत्यन्त ग्रहण करना, अथवा कोई रस भी बिलकुल ग्रहण न करना, विपरीततासे ग्रहण करना, या अत्यन्तही हीनतासे ग्रहण करना, अत्यंत तीक्ष्णरसोंका ग्रहण करना रसनेन्द्रियका मिथ्यायोग कहाताहै । रसनेन्द्रियका मिथ्यायोग होनेसे जिह्वाकी शक्ति हीन होजातीहै ॥ १२३ ॥
घ्राणेन्द्रियका मिथ्यायोग । अतिमद्वतितीक्ष्णानांगन्धानामुपसेवनम् ॥ १२४॥ असेवनं सर्वशश्चनाणेन्द्रियविनाशनम् । पूतिसूतविषद्विष्टागन्धाये
चाप्यनातवाः ॥, १२५ ॥ तैर्गन्धैाणसंयोगोमिथ्यायोगः । स उच्यते ॥ १२६ ॥ __ अति मृदु और अत्यन्त तीक्ष्ण गंधके सूंघनेसे या सर्वथा किसी गंधके न सूंघनेसे और दुर्गध तथा विषदूषित अथवा जो बुरी प्रतीत हो उस गंधके सूंघनेसे, और अकालमें प्रगटहुई गंधके संघनसे घ्राणेन्द्रियका मिथ्यायोग हानेसे घ्राणशक्ति हीन होजातीहै ॥ १२४ ॥ १२५ ॥ १२६ ॥ ..
असात्म्यके लक्षण ।। इत्यसात्म्यार्थसयोगस्त्रिविधोदोषकोपनः।
असात्म्यमितितद्विद्याद्यन्नयातिसहात्मताम् ॥ १२७॥ ... .इसप्रकार इन्द्रियोंका अयोग, अतियोग और मिथ्यायोग यह तीन प्रकारका असात्म्य संयोग होनेसे दोष कुपित होकर इन्द्रियोंको नष्ट करदेतेहैं । जो पदार्थ
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शारीरस्थान-अ० १. (६८१) अथवा जो विषय आत्मांके साथ न मिले अर्थात् अपने स्वभावके अनुकूल न हो उसको असाम्य कहते हैं । १२७ ।।
मिथ्यातहीनयोगेभ्योयोव्याधिरुपजायते
शब्दादीनांसविज्ञेयोव्याधिरैन्द्रियकोबुधैः ॥ १२८ ॥ .. शब्दादिक विषयोंका श्रवणादि इन्द्रियोंसे मिथ्यायोग, अतियोग और हीनयोग होनेसे जो व्याधियें उत्पन्न होतीहैं उनको बुद्धिमान् लोग ऐन्द्रियकव्याधि कहते है।। १२८ ॥
वेदनानामशातानामित्यतेहेतवःस्पृताः ।
सुखहेतुर्मतस्त्वेकःसमयोगःसुदुर्लभः ॥ १२९ इसप्रकार असात्म्य पदार्थोंका सेवन अथवा मिथ्यायोगसे सेवन व्याधि उत्पन्न करनेका कारण होता है । और विधिवत् समानयोगसे सेवन करना सुखका हेतु होता है परन्तु सम्पूर्ण पदार्थोंका समयोगसे सेवन करना भी दुर्लभ है॥ १२९ ॥
सुखदुःखोंके प्रधानहेतु । नेन्द्रियाणिनचैवार्थाःसुखदुःखस्यहेतवः। हेतुस्तुसुखदुःखस्य योगोदृष्टश्चतुर्विधः ॥ १३०॥ सन्तीन्द्रियाणिसन्त्यायोगोन चनचास्तिरुक् । नसुखकारणं तस्माद्योगएवचतुर्विधः ॥१३१ ।। सुख और दुःखके हेतु न तो सम्पूर्ण इन्द्रिय है और न अर्थही(इन्द्रियों के विषय) हैं। किन्तु चतुर्विध योगका होनाही सुखदुःखका हेतु होताहै।अर्थात् तीन प्रकारके असाम्य बोगोंका होना दुःखका कारण होताहै और केवल समयोगका होनाही सुखका कारण होताहै।सम्पूर्ण इन्द्रिय भी हों और इन्द्रियों के विषय भी हों परंतु पूर्वोक्त चारप्रकारका योग न होनेसे न सुख होताहै और न ब्याधिही होसकती है इसलिए सम्पूर्ण सुखदुःखोंका कारण यह चतुर्विध योगही होताहै ॥१३०॥१३॥
नात्मेन्द्रियमनोबुद्धिगाचरंकमवाविन
सुखंदुःखंयथायच्चबोद्धव्यतत्तथोच्यते ॥ १३२ ॥ यद्यपि सुख और दुःख आत्मा, इंद्रिय,मन और बुद्धिक गोचर हैं परंतु कर्मके संयोग विना वह नहीं होसकते कर्मही सुख और दुःखका इनके साथ संयोग कराताहै जिसप्रकार कर्म मुखदुःखके संयोगको कराताहै उसका कथन करतेहैं।१३२॥ . . स्पर्शनेन्द्रियसंस्पर्शःस्पर्णीमानसएवच द्विविधःसुखदुःखानां ।
वेदनानांप्रवर्तकः ॥ १३३ ॥इच्छाद्वेषात्मिकातृष्णासुखदुःखा
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( ६८२ )
चरकसंहिता - भा० टी० 1
प्रवर्त्तते । तृष्णाच सुखदुःखानां कारणंपुनरुच्यते ॥ १३४ ॥ उपादतेहिसाभावान्वेदनाश्रयसंज्ञकान् स्पृश्यतेचानुपादाजोनास्पृष्टोवेत्ति वेदनाः ॥ १३५ ॥
जैसे - स्पर्शनेन्द्रिय संस्पर्श और मानससंस्पर्श यह दो प्रकार के संस्पर्शरूपी जो कर्म हैं यही सुखदुःखके ज्ञानके प्रवर्त्तक हैं । फिर सुखदुःखसे इच्छा द्वेपमयी तृष्णां उत्पन्न होती है । वह तृष्णाही सुखदुःखका कारण कही जाती है क्योंकि वह तृष्णांही वेदनाश्रय भावको ग्रहण करती है। जिसका ग्रहण नहीं किया जाता उसका स्पर्श भी नहीं होता किसीमकारका भी स्पर्श न होनेसे पीडाकी उत्पत्ति नहीं होती ॥ १३३ ॥ १३४ ॥ १३५ ॥
वेदनाके स्थान |
वेदनानामधिष्ठानंमनोदेहश्च सेन्द्रियः । केशलोमनखाग्रान्नमलद्रवगुणैर्विना ॥ १३६ ॥
मन और इन्द्रिययुक्त शरीर पीडाका अधिष्ठान है । स्पर्शइन्द्रियरहित, केश, रोम, नख, मल, मूत्र और शरीरमें होनेवाले शब्द आदिक यह कोई भी वेदना अधिष्ठान नहीं हैं ॥। १३६ ।।
योग और मोक्ष |
योगे मोक्षेचसर्वासांवेदनानामवर्त्तनम् । मोक्षोनिवृत्तिर्निः शेषायोगोमोक्षप्रवर्त्तकः ॥ १३७ ॥ आत्मेन्द्रियमनोऽर्थानां सन्निकर्षात्प्रवर्त्तते । सुखं दुःखमनारम्भादात्मस्थेमनासेस्थिते ॥ ॥ १३८ ॥ निवर्त्ततेतदुभयं वशित्वञ्चापजायते । सशरीरस्ययोगज्ञास्तंयोगमृषयोविदुः ॥ १३९ ॥
योग और मोक्षमें किस प्रकार के दुःखादिक उत्पन्न नहीं होते। और मोक्षमें तो. निःशेषरूपसे दुःखकी निवृत्चिही होती है और योगद्वाराही मोक्षकी प्राप्ति होती है ।' आत्मा, इंद्रिय मन और इंद्रियोंके विषय इनका संयोग होनेसेही मुखदुःखकी प्रवृत्तिः है। योगावस्था में मन निष्क्रिय होकर आत्मामें स्थित होजाता है। इसलिये उस अ..स्था में सुखदुःख की निवृत्ति होजाती है और वशित्व उत्पन्न होजाता है । सब इंद्रियोंकों तथा मनको वश में करलेनाही ऋषिलोग योग कथन करते हैं ॥ १३७ ॥ १३८ ॥ १३९१.
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शारीरस्थान-१० १. . (६८३), .
अष्टविध योगवल। आवेशश्चेतलोज्ञानमर्थानांछन्दतः किया। घष्टिःश्रोत्रस्मृतिः कान्तिरिटतश्चाप्यदर्शनम् ॥ १४० ॥ इत्यष्टविधमाख्यातं योगिनांवलसैश्वरम् । शुद्धसत्वसमाधानात्तत्सर्वमुपजायते १४॥ सत्त्वगुणके प्रगट होनेसे योगियोंमें आठ प्रकारका ईश्वरीयवल आजाता है अथवा योगके प्रभावसे प्राप्त हुए ऐश्वर्यकृत बल आजाताहै,जैसे-आवेश अर्थात् परशरीरमें प्रवेश करना अथवा चित्तको परचित्तमें प्रवेश करदेना संपूर्ण भूत भाव: यतका जानलेना, इच्छानुसार क्रिया करना, योगदृष्टिसे संपूर्ण पदार्थोंको देख. लेना, दूरकी वातोंको श्रवण करलेना, पूर्वजन्मके विषयोंको अथवा अन्य सर्व भावोंको स्मरण करलेना, दिव्य कान्तिका होना, प्रकट होना और अन्तर्धान हो जाना । यह ईश्वरीयवल योगाभ्याससे शुद्धसत्त्वगुणके प्रकट होजाने पर उत्पन हो जाते हैं ॥ १४० ॥ १४१॥
___ मोक्षप्राप्तिके उपाय। मोक्षोरजस्तमोऽभावाइलवकर्मसंक्षयात् ।
वियोगःकर्मसंयोगैरपुनर्भावउच्यते ॥ १४२ ॥ रजोगुण और तमोगुणका अभाव होनसे और योगद्वारा बलवान् कर्मके क्षाहोनेसे तथा कर्मके संयोगोंसे वियोग होनेसे जो अपुनर्भाव होताहै अर्थात फिर जन्म - लेनेका अभाव होजाता है उसको मोक्ष कहते हैं ॥ १४२ ॥
दुःखोंसे निवृत्तिके उपाय । लतामुपासनंसम्यगसतापरिवर्जनम् ।
व्रतचोपवासश्चनियमाश्चपृथग्विधाः ॥ १४३ ॥ श्रेष्ठ पुरुषोंका सेवन, दुर्जनोंके संगका त्याग, ब्रह्मचर्यपालन और उपवास इन सबको धारण करना नियम कहाजाताहै ॥ १४३ ॥
धृतिके लक्षण धारणधर्मशास्त्राणांविज्ञानविजनेतिः।
विषयेष्वरतिर्मोक्षेव्यवसायःपराधृतिः ॥ १४४ ॥ धर्मका धारण करना, विज्ञान, निर्जनस्थानमें रात ( प्रीति), विषयोंमें वैराभ्यः मोक्षसाधनमें तत्परता यह सव धृतिक लक्षण हैं॥ १४४ ॥
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(६८४) चरकसंहिता-भा० टी०।
स्मृतिके लक्षण । कर्मणामसमारंभःकतानाञ्चपरिक्षयः। नैष्कर्व्यसनहंकारःसंयोगेभयदर्शनम् ॥ १४५॥ मनोवुद्धिसमाधानमर्थतत्त्वपरीक्षणम् । तत्त्वस्मृतरुपस्थानात्सर्वमेतत्प्रवर्तते ॥ १४६ ॥ कर्मका अनारंभ, किये हुए कर्मोंका क्षय, गृहादिकोंका त्याग, निरहंकार,विषचोंमें भयदर्शन,मन और बुद्धिका समाधान, अर्थतत्त्वकी परीक्षा यह सव आत्मतसकी उत्कर्षतासे उत्पन्न होतेहैं।अर्थात् यह यौगिक स्मृतिके लक्षण हैं१४५॥१४६
स्मृतिःसत्सेवनायैश्चधृत्यन्तैरुपलभ्यते। स्मृत्यास्वभावभावानांस्मरन्दुःखात्प्रमुच्यते ॥ १४७॥
महात्मादिकोंके सेवन आदि नियमोंसे, और संपूर्ण धृतिके गुणोंके उत्कर्षसे -स्मृतिकी उपलब्धि होतीहै । उसी यौगिकस्मृतिद्वारा संपूर्ण भावोंका स्मरण होनेसे मनुष्य दुःखसुखसे छूट मोक्षका अधिकारी होजाताहै ॥ १४७ ॥
वक्ष्यन्तेकारणान्यष्टोस्मृतिरुपजायते । निमित्तरूपग्रहणात्सादृश्यात्सविपर्ययात् ॥१४८ ॥ सत्त्वानुबन्धादभ्यासाज्ज्ञानयोगात्पुनःश्रुतात् । दृष्टश्रुतानुभतानांस्मरणात्स्मृतिरुच्यते ॥१४९॥ जिन आठकारणोंसे स्मृतिकी उत्पत्ति होतीहै उन आठ कारणोंका कथन कर• तेहैं । जैसे-निमित्त,रूपग्रहण,सादृश्य,विपर्यय, सत्त्वानुवंध, अभ्यास,ज्ञानयोग और पुनःश्रवण करना यह स्मृतिके उत्पन्न होने के कारण हैं। देखेहुए, सुनेहुए, अनुभव कियेहुए भूतोंको स्मरण करनेसे इसको स्मृति कहतेहैं ॥ १४८ ॥ १४९ ॥
एतत्तदेकमयनमुक्तैर्मोक्षस्यदर्शितम् । तत्त्वस्मृतिबलयेनगतानपुनरागताः ॥ १५० ॥ अयनंपुनराख्यातमेतद्योगस्ययो. गिभिः। संख्यातधर्मःसांख्यैश्चमुक्तैमोक्षस्यचायनम् ॥१५१॥ योगीजनोंने यही मोक्षसाधनका एकमात्र मार्ग दिखायाहै।जो महात्मा तत्त्वस्मृतिके बलसे मोक्षको प्राप्त हुए हैं वह फिर कभी जन्मको धारण नहीं करते । इसीको -योगियोंने योगका स्थान कथन किया है और विख्यातधर्मा सांख्यवादियोंने इसीको मोक्षका मार्ग कथन कियाहै ॥ १५० ॥ १५१ ॥ . सर्वकारणवदुःखमस्वञ्चानित्यमेवचानचात्माकतकताद्धवत्र
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शारीरस्थान-अ० १. (६८५). चोत्पद्यतस्वता ॥ १५२ ॥ यावन्नोत्पद्यतेसत्यावुद्धि तदहंय. या। नैतन्ममचावेज्ञायज्ञःसर्वमतिवर्तते ॥ १५३ ॥ यह जो संपूर्ण भावहैं यह सब दुःखके कारण हैं । अपना कुछ नहीं है यह सब अनित्य है।आत्मा उदासीनहै इसलिये यह आत्माका कियाहुआ नहीं है।शरीरादिकोंमें ममता होना वृथाहै इत्यादिक सत्या बुद्धिकी जबतक उत्पत्ति नहीं होती तवतक. अहंबुद्धि आदि नष्ट नहीं होते । जब सानिकी बुद्धि उत्पन्न हानेसे यह मेरा नहीं मैं इन सबसे अलग हूं इत्यादि यथावत् विज्ञान प्राप्त होजाताहै तब यह आत्मा ज्ञानी होनेसे संपूर्णका त्याग कर देताहै ॥ १५२ ॥ १५३ ॥
मोक्षका रूप । तस्मैिश्चरमसंन्याससमूलाःसर्ववेदनाः । लमज्ञाज्ञानविज्ञाना. निवृत्तियान्त्यशेषतः ॥ १५४ ॥ अतःपरब्रह्मसूतोभूतात्मानोपलभ्यते । निःसृतःसर्वभावेभ्यश्चिद्वंयस्यनविद्यते ॥ १५५ ॥ गतिब्रह्मविदांब्रह्मतश्चाक्षरमलक्षणम् । ज्ञानब्रह्मविदाश्चात्रनाज्ञस्तज्ज्ञातुमर्हति ॥ १५६ ॥
जब आत्मामें इसप्रकार यथावत् ज्ञान होनेसे संन्यास उत्पन्न होजाता है तक संपूर्ण कामादिकवेदना अज्ञता, ज्ञान, विज्ञान यह सब निःशेषतासे निवृत्त होजातेहैं । फिर यह परब्रह्मभावको प्राप्त होकर शरीरआदिकोंको प्राप्त नहीं होता । इसप्रकार संपूर्ण भावोंसे मुक्त होनेपर इस पुरुषका कोई चिह्न बाकी नहीं रहता । वह ब्रह्म ब्रह्मके जाननेवालाकी गति है अर्थात् ब्रह्मके जाननेवालेही उस अवस्थाकों जान सकतेहैं और प्राप्त होसकतेहैं । वह अक्षर है और लक्षणरहित है। ब्रह्मज्ञानरहित मनुष्य उसको किसी प्रकार भी नहीं जान सकते ॥ १५४ ।। १६६ ॥ १५६ ॥
१ चरमसन्न्यास इति पश्चाद्भाविसकलसन्न्यासे, प्रथमं हि मोक्षोपयोगित्वेन गुरुवचनात् क्रियासन्न्यासः कृत एव, परं स्वानुभावविरतन न कृतः, अभ्यासादुद्भतेन लाक्षादृष्टभावस्वभावेन यः सर्वसन्न्यासः क्रियते, तत्र समूला, सर्ववेदना ज्ञानादयश्च शरीरोपरमादेवोपरमन्ते; समूला इति सकारणाः, कारणञ्च बुद्धयाश्यः, संज्ञा आलोचनं निर्विकल्पकम्, ज्ञानं सविकल्पकम; विज्ञानं बुद्धयवसाय:, किम्श, संज्ञया नामोल्लेखेन ज्ञानम्, विज्ञान शास्त्रज्ञानम्, तत्त्वज्ञानमपि हि मोक्षं जनयित्वा निवर्तत एव कारणाभावात् ॥ सर्वविद्, इत्यादि प्रश्नस्योत्तरम्-अतः परमित्यादि। ब्रह्मभूत हात प्रकृत्यादिरहितः 'चिहं यस्य न विद्यते, इत्यनेन मुक्तात्मनः प्राणापानाद्यात्मलिंगाभावाद्गमकं चिह्न नात्येवेति दर्शयाते । न क्षरत्यन्यथात्वं न गच्छतीत्यनक्षरम्, आविद्यमान लक्षणं यस्येत्यलक्षणम्, एतस्यैव मोक्षस्यतरपुरुषाशेयतां दर्शयति-ज्ञयमित्यादि । ब्रह्मविदामेवाना मनास प्रत्येति, नाशानामहंकारादिगृहीतानामित्यर्थः । संग्रहो व्यक्तः ।
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चरकसंहिता - भा० टी० |
अध्यायका संक्षिप्त वर्णनं ।
प्रश्नाः पुरुषमाश्रित्यन्त्रयोविंशतिरुत्तमाः । कतिधापुरुषीयेऽस्मिन्निर्णीतास्तत्त्वदर्शिना ॥ १५७ ॥ -इत्यग्निवेशकृतेतन्त्रे चरकप्रतिसंस्कृते कतिधः पुरुषीयंशाररिसमाप्तम् १ यहां अध्यायकी पूर्त्तिमें कहते हैं कि इस कविधापुरुषीय अध्याय में तत्त्वज्ञाता महर्षि आयजीने पुरुषका आश्रय लेकर तेईसप्रकार के उत्तम प्रश्नों के उत्तररूप र्णयको विधिपूर्वक कथन किया है ॥ १५७ ॥
इति श्रीमहाचर • शा० स्था० भा० टी० कतिधापुरुषीयशारीरं नाम प्रथमोऽध्यायः ॥ १ ॥
( ६८६ )
द्वितीयोऽध्यायः ।
अथातोऽतुल्यगोत्रीयं शारीर व्याख्यास्याम इति हस्माह भगवानात्रेयः ।
अब हम अतुल्यगोत्रीय शारीरनामक अध्यायकी व्याख्या करते हैं इस प्रकार -अगवान आत्रेयजी कथन करने लगे ।
गर्भके चतुष्पाद में प्रश्न । अतुल्यगोत्रस्यरजःक्षयान्तेरहोथिंसृष्टं मिथुनी कृतस्य । किंस्याचतुष्पात्प्रभवञ्च षड्भ्योयत्स्त्री गर्भत्वमुपैति पुंसः ॥ १ ॥
}
जब स्त्री रजोधर्म से शुद्ध हो लेवे अर्थात् रजोदर्शनके चार दिन उपरांत अपनेसे अन्य गोत्र वाले पुरुषके संयोगसे एकान्तस्थान में रात्रि के समय गर्भाधान करनेसे उस ऋतुसे शुद्धद्धई खोक गर्भाशय में जो शारीरिक द्रव्य गिरता है तथा चतुष्पाद् और छः रसोंसे प्रगट होनेवाला तो जो द्रव्य है अर्थात् जो चतुष्पाद् गर्भ कहा जाता है और गर्भत्वको प्राप्त होता है वह क्या पदार्थ है ॥ १ ॥
.
सम्प्रति गर्भादिसर्गमभिधातुमतुल्य
१ शरीरस्यादिवर्ग आध्यत्मिक चिकित्सां वर्णयित्वा गोत्रीयोभिधोयते । २ रहो विसृष्टमिति विजनेविसृष्टम् ।
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शारीरस्थान - अ० २.
उत्तर ।
( ६८७ )
शुकंतदस्यप्रवदन्तिधीरायद्वीयते गर्भसमुद्भवाय । वाय्वग्निभूस्यब्गुणपादवत्तंषड्भ्योर सेभ्यः प्रभवश्चतस्य ॥ २ ॥
इसप्रकार अग्निवेशके प्रश्नको सुनकर भगवान् आत्रेयजी कहते हैं कि, छः रसोंका अन्तिम परिणामभूत जो वर्यि है उसको बुद्धिमान् शुक्र कहते हैं । वह पुरुषका शुकही स्त्रीकी योनिमें प्राप्तहो शुद्ध आतवसे मिलकर गर्भको प्रगट करता है क्योंकि छः रसोंसे इसकी उत्पत्ति होती है इसलिये इसकी छ:रसोंसे उत्पत्ति मानते हैं । वह · वायु, अग्नि, पृथ्वी और जल इनके गुणोंसे युक्त होता है इसलिये इसको चतुष्पाद् कहते हैं ॥ २ ॥
गर्भके विषय में प्रश्न |
सम्पूर्ण देहः समयेसुखञ्च गर्भः कथं केन चजायतेत्री । गर्भचिराद्विन्दतिसप्रजापिभूत्वाथवानश्यति केनगर्भः ॥ ३ ॥
(प्रश्न ) वह वायु, अग्नि, पृथ्वी और जलसे युक्त हुआ गर्भ किससमय संपूर्ण देहको प्राप्त होता है ? और स्त्री किसप्रकार कैसे सुखपूर्वक प्रगट करती है । और जो स्त्रिये वंध्या दोषयुक्त नहीं भी हैं वह भी कभी कभी बहुत समय में अर्थात् विलम्बसे गर्भको क्यों धारण करती हैं बहुतसी स्त्रियों को गर्भ होकर फिर वह नष्ट क्यों हो जाता है ॥ ३ ॥
यथाक्रम उत्तर ।
" शुक्रासृगात्माशय कालैसम्पद्यस्योपचाराश्चाहितैस्तथार्थैः । गर्भश्चकाले चसुखी सुखञ्चसञ्जायते सम्पारम्पूर्णदेहः ॥ ४ ॥
(उत्तर) शुद्ध शुक्र और शुद्ध रक्त, आत्मा, जरायु और काल इन सबके उत्तम होनेसे तथा हितकारक पदार्थों के सेवन से एवम् हितकारक भावोंके होनेसे अपने -समय पर संपूर्णदेह हुआ वह सुखी गर्भ सुखपूर्वक उत्पन्न होता है ॥ ४ ॥
·
१ अन्न वाय्वादिपादवति वक्तव्ये यद्गुणपदमधिक विहितं तेन प्रशस्तगुणवतामेवं वाय्वादीन विशुद्धशुक्रारम्भकत्वामेति दर्शयति । वाय्वादिषु शुक्रारम्भकेषु "पादव्यपदेशेन चतुर्ध्वेव शुभारम् -करवं” विद्यते । आकाशन्तु यद्यपि शुक्रं पाञ्चभोतिकेऽस्ति, तथापि न पुरुषशरीरान्निर्गत्य गर्भाशय -राच्छीत किन्तु भूनचतुष्टयमेव क्रियावद् भवतेि आकाशन्तु व्यापकमेव तत्रागतेन शुक्रेण सम्बद्धं मचाते आकाशस्य गमनाभावादिद्द गर्भाशयगमनाभिधानप्रस्तावे ' शुक्रगतत्वेनानभिधानम् अन्यन्त्रापि च भूतानां गमनमस्वावे आकाश मनभिधानत्वात् यथा 'भूतेस्तुर्भिः सहितः सुसूक्ष्मैमनोजवो देहदुरेटि देहादिति । २ 'सम्पत् शब्दः शक्रादिभिः प्रत्येकमा सम्बध्यते ।
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(.६८८)
चरकसंहिता-भा० टी०॥ योनिप्रदोषान्मनसोऽभितापाच्छुकासृगाहारविहारदोषात् । अकालयोगाइलसंक्षयाचगभचिराद्विन्दातसप्रजापि ॥ ५॥ योनिके दोषसे और मनके अभितापसे शुक्र और रजके दोषसे, अहित आहार विहारके सेवनसे,अकालका योग होनेसे और बलके क्षीण होनेसे इत्यादि कारणों से जो स्त्रिये वंध्या नहीं भी हैं वह भी गर्भको बहुत विलंबसे धारण करती हैं ॥ ५॥
मिथ्याकल्पित गर्भ । असृनिरुदंपवनेननाऱ्यांग व्यवस्यन्त्यबुधाःकदाचित् । गर्भस्यरूपंहिकरोतितस्यास्तदासृगस्राविविवईमानम् ॥ ६॥ तदग्निसूर्याश्रमशोकरोगैरुष्णान्नपानैरथवाप्रवृत्तम् । दृष्ट्वासृगेकेनचगर्भमज्ञा केचिन्नराभूतहृतंवदन्ति ॥ ७॥ जब गुल्म आदिका याग होनेसे वायु स्त्रीके रजोधर्मको रोकदेताहै तव बहुतसे मूर्खलोग यह समझ लेतेहैं कि यह गर्भ है और वह मासिकऋतुके स्राव न होनेसें वृद्धिको प्राप्त हो गर्भकेसे रूपोंको धारण कर लेताहै।जब कभी अचानक अग्नि अथवा सूर्यके संतापसे वा किसी शोक या रोगसे अथवा-गर्मअन्नपानके सेवनसे स्त्राव होने लगताहै तो उस रुधिरको देखकर और शरीरमें पहिलेके समान गर्भकेसे चिह्न न पाकर कोई २ कहनेलगतीहै कि इस गर्भको भूतोंने नष्ट करडाला है ॥६॥७॥
ओजोऽशनानांरजनीचराणामाहारहेतार्नशरीरभिष्टम् । गर्भहरेयुदितेनमातुर्लब्धावकाशनहरेयुरोजः ॥८॥ परन्तु यह सब विश्वास उनका मूर्खताका होता है क्योंकि भूत, प्रेत केवल ओज-- कोही अशन करनेवाले हैं शररिको वह नहीं खाते यदि वह वीके शरीरमें प्रवेश होकर गर्भको नष्ट करते तो माताके ओजको पीकर उसको नष्ट क्यों न कर डालतो. इस लिये यह सब उनका विश्वास मूर्खताका जानना ॥८॥
____एक गर्भ में अनेक सन्तान होनेके विषयमें प्रश्न । कन्यांसुवासहितोपृथग्वामुतोमुतेवातन्क्यावहून्दा ।
कस्मात्प्रसूतेसुचिरेणगर्भमेकोभिवृद्धिञ्चयोऽभ्युपैति ॥९॥ (प्रश्न ) गर्भसे कन्या किस प्रकार उत्पन्न होती है। पुत्र कैसे होताहै। दो पुत्र या दो कन्या किस तरह होते हैं । अथवा कन्या और पुत्र मिलकर दो कैसे होतेहैं।' एकही गर्भसे बहुत पुत्र कैले प्रगट होते हैं। प्रशूरा होने में अधिक विलंब किस प्रकार होताहै और एक गर्भसे यदि दो बोलक उत्पन्न हों तो उनमें एक हृष्टपुष्ट और एफके कृश होनेका क्या कारण है ॥ ९॥
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. शारीरस्थान-अ० २. (६८९)
___ उत्तर । रक्तेनकन्यामधिकेनपुत्रंशुक्रेणतेनद्विविधीकृतेन । .
बीजेनकन्याञ्चसुतञ्चसूतेयथास्वबीजान्यतराधिकेन ॥ १० ॥ · शुक्राधिकंवैधमुपैतिबीजंयस्यासुतौसासाहतोप्रसूते । ... रक्ताधिकंवायदिभेदमेतिद्विधासुतेसासहितेप्रसूते ॥ ११॥
(उत्तर ) गर्भाधानके समय स्त्रीके रक्तकी अधिकता होनेसे कन्या उत्पन्न होता है,और पुरुषके शुक्रकी अधिकता होनेसे पुत्र उत्पन्न होता है।यदि वह दोनों मिलते समय गर्भाशयकी वायुसे दो विभागको प्राप्त होजाय तो उनमें एक भागमें रक्तकी अधिकता एकमें वीर्यकी अधिकता होनेसे एक कन्या और एक पुत्र उत्सम होताहै । यदि उस समय शुक्रकी अधिकता हो फिर शुक्र और रज मिलकर दो विभाग होजाय तो दो पुत्र उत्पन्न होतेहैं । इसी प्रकार रजकी अधिकता होनेसे दो कन्या उत्पन्न होती हैं ॥ १० ॥११॥ .. भिनत्तियावहहुधाप्रपन्नःशुक्राचैवंवायुरतिप्रवृद्धः।। :: तावन्त्यपत्यानियथाविभागंकात्मकान्यस्ववशात्प्रसूते॥१२॥ याद गर्भाशयमें अत्यन्त बढा हुआ वायु उस रज वीर्यके पांच चार विभाग वना वे तो कर्माधीन उतने बालक गर्भसे प्रगट होते हैं ॥ १२॥
आहारमाप्नोतियदानगर्भःशोषंसमाप्नोतिपरिमृतिवा। .. तंत्रीप्रसूतेमुचिरेणगर्भपुष्टोयदावर्षगणैरपिस्यातू ॥१३॥ 'जब गर्भको आहार नहीं मिलता या गर्भवती स्त्री अत्यन्त हानिकारक रूक्ष. आदिपदार्थोंका सेवन करती है तव गर्भ सूखजाताहै अथवा गिर भी जाताहै।यदि वह गर्भसुखजाताहे तो बहुत कालमें पुष्ट होता और बहुत विलंबसे उत्पन्न होताहै । कभी २ उस गर्भके प्रगट होनेमें एकवर्षसेभी अधिक समय लगजाताहै ॥ १३ ॥ :
कर्मात्मकत्वाद्विषसांशभेदाच्छुकास्तृवृद्धिमुपैतिकुक्षौ। ।
एकोधिकोन्यूनतरोद्वितीयएवंयोऽप्यभ्यधिकोविशेषः॥ १४॥ कर्माधीन रज औरवीर्यके वडे छोटे दो अंश होजानेसे वह दोनों भाग कुक्षीमें वृद्धिको प्राप्त होकर जब समयपर उत्पन्न होते तो उनमें एक बडा और एक छोटा होताहै ॥ ॥ १४॥
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चरकसंहिता-भा० टी०।
गर्भसे नपुंसकादि होनेके हेतु । कस्माद्विरेताःपवनेन्द्रियोवासंस्कारवाहीनरनारिषण्डः। वक्रीतयाभिरतिःकथंवासञ्जायतेवातिकपण्डकोवा ॥१५॥ (प्रश्न ) द्विरेता--द्विरेता किसप्रकार होता है । पवनेन्द्रिय कैसे होताहै । और संस्कारवाही किस कारणसे होताहै । नरखंण्ड किस कारणसे होताहै। नारीखण्ट किस कारणसे होताहै । नारीखण्ड कैसे होताहै । वक्री कैसे होताहै।ईर्षक किसम कार होताहै । वाविकखण्ड होनेके क्या कारण हैं ॥ १५ ॥
बीजात्समांशादुपतमवीजात्स्त्रीपुंसलिङ्गीभवतिद्विरेताः।शुकाशयंगर्भगतस्पहत्वाकरोतिवायुःपवनेन्द्रियत्वम् ॥ १६ ॥ शुक्राशयद्वारविघटनेनसंस्कारवाहंहिकरोतिवायुमन्दाल्पबीजावंबलावहाँक्लीबोचहेतुर्विकृतिद्वयस्य ॥१७॥ मातुर्यवा'यप्रतिधेनवक्रीस्याद्वीजदौर्बल्यतयापितुश्च । ईष्याभिभूतावपि
मन्दहर्षावी-रतेरेववदन्तिहेतुम् ॥१८॥ वाय्वग्निदोषावृषगौतुयस्यनाशंगतोवातिकपण्डकःसः। इत्येवमष्टौविरुतिप्रकारे राःकर्मात्मकानामुपलक्षणीयाः॥ १९ ॥ (उत्तर) गर्भाधानके समय रज और वीर्य दोनों समांश अर्थात् वरावर होनेसे गर्भ हो जो संवान होती है उसको द्विरेता नपुंसक कहतेहैं । यह स्त्री और पुरुषकैसे लक्षणवाला होताहै । जब वायु गर्भके शुक्राशयको नष्ट करदेताहै उससे जो बालक प्रगट होताहै उसको पवनेंद्रिय (नपुंसक) कहते हैं इसको वीर्य नहीं होता। यदि वायु गर्भ में शुक्राशयके द्वारको रोकदेवे तो उस गर्भसे उत्पन्नहुए सन्तानको शुक्रवाह कहते हैं । इस पुरुषके शरीरमें वीयाँश होतेहुए भी वीर्य निकल नहीं सकता।माता पिताके अत्यन्त अल्प और दुर्वल वीर्य होनेसे तथा अप्रसन्न होकर भैथुन करनेसेजो गर्भ होताहै उससे यदि पुरुषकेसे लक्षणवाला उत्पन्न हो तो नरषण्ड कहते हैं और . स्त्रकि लक्षणवाला हो तो नारीषण्ड कहते हैं । स्त्री पुरुषके समान ऊपर हो और पुरुषस्त्रीके समान नीचे हो उस अवस्थामें गर्भ रहनसे और पुरुषका वीर्य कम होनेसे जो संतान होती है उसको वक्री कहतेहैं। यदि वह पुरुष हो तो स्त्रीके लक्षणवाला होताहै और स्त्री हो तो पुरुषके लक्षणवाली होतीहै । गर्भाधानके समयमें मातापिताके ईर्षायुक्त तथा मन्दहर्ष होनेसे जो सन्तान होतीहै उसको ईर्षक कहतेहैं। बायु और अग्निके दोषसे जिसके दोनों फोते नष्ट होगयेहों उसको वातिकपण्ड
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'शारीरस्थान - अ० २.
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कहते हैं इस प्रकार अपने कर्मदोष से यह आठ प्रकारके गर्भकी विकृतियोंसे उत्पन्न होनेवाले नपुंसक कजाते हैं ॥ १६ ॥ १७ ॥ १८ ॥ १९ ॥
गर्भस्यसद्योऽनुगतस्यकुक्षौत्रीपुंनपुंसामुदर स्थितानाम् । किंलक्षणंकारणमिष्यतेकिंसरूपतायेनचयात्यपत्यम् ॥ २० ॥
( · प्रश्न ) तत्काल हुए गर्भके क्या लक्षण होते हैं गर्भमें कन्या है अथवा पुरुष है या नपुंसक है इनके पृथक २ जाननेके क्या लक्षण होते हैं । सब संतानोंका एकसा -स्वरूप न होनेमें क्या कारण है ॥ २० ॥
सद्योगर्भ के लक्षण |
निष्ठीविका गौरवमङ्गसादस्तन्द्राप्रहर्षोहृदयव्यथाच । तृप्तिश्वबीजग्रहणञ्चयोन्यागर्भस्यसद्योऽनुगतस्यलिङ्गम् ॥२१॥
(उत्तर) सद्योगृहीतगर्भा के लक्षण ये हैं जैसे- मुखसे थूकका आना, शरीर भारी होना, जांघों का रहसा जाना, ग्लानि, तन्द्रा, अमहर्ष, हृदयमें व्यथा, विनाही भोजन तृप्ति, योनिका फड़कना यह सब योनिद्वारा बीज ग्रहण करनेके अर्थात् तत्काल गर्भ होने के लक्षण हैं ॥ २१ ॥
गर्भस्थ बालकादिका परिचय ।
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सव्यांग चेष्टापुरुषार्थिनीस्त्री स्त्री स्वप्नपानाशनशीलचेष्टा । सव्यांगगर्भानच वृत्तगर्भा सव्यप्रदुग्धास्त्रियमेवसूते ॥ २२ ॥ पुत्रन्त्व-. तोलिङ्गविपर्ययेण व्यामिश्रलिङ्गाप्रकृतिंतृतीयाम् । गर्भोपपत्तौ तुमनः स्त्रियायं जन्तुंत्र जे तत्सदृशंप्रसूते ॥ २३ ॥
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गर्भधारण होजानेके अनन्तर जो स्त्री वाम अंग से अधिक वर्ताव करे अथवा जिसका वाम अंग भारी हो जिसको पुरुषसंगकी इच्छा हो, निद्रा अधिक आतीहो खानेपीने की अधिक इच्छा हो, अधिक चेष्टा करती हो, जिसके वामभागमें गर्भके लक्षण हों और गर्भ लम्बासा प्रतीत होताहो, वामस्तनमें प्रथम दूधका संचार हो उस स्त्रीके गर्भ से कन्या उत्पन्न होती है । इससे विपरीत अर्थात् दहिना अंग भारी हो दाने स्तन में दूधकी प्रवृत्ति हो, दाहिनी ओर गर्भस्थत प्रतीत हो इत्यादि लक्षणोंसे पुत्रवाला गर्भ जानना चाहिये । जिस गर्भमें दोनों के लक्षण वराबर हों उसमें नपुंसक जानना चाहिये । गर्भाधान के समय स्त्रोका मन जैसे पुरुषमें होता है वैसी स्वरूपवाली संतान उत्पन्न होती है ॥ २२ ॥ २३ ॥
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१६९२)
चरकसंहिता-भा० टी०। गर्भस्यचत्वारिचतुर्विधानिभूतानिमातापितृसम्भवानि । आहारजन्यात्मकृतानिचैवसर्वस्यसर्वाणिभवन्तिदेहे ॥ २४ ॥ तेषांविशेषाद्वलवन्तियानिभवन्तिमातापितृकर्मजानि । तानि
व्यवस्येत्सहशत्वालिङसत्त्वंयथानकमपिव्यवस्येत् ॥ २५॥ . ..आत्मा और इन चार महाभूतोंसे गर्भ प्रगट होताहै । वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी.यह गर्भके चारों महाभूत मातापिताके चार महाभूतोंसेही उत्पन्न होते हैं फिर वह गर्भशरीर माताके आहारसे पुष्ट होताहै । उस गर्भशरीरके स्वरूप आदि कल्पनामें उसके किये शुभाशुभ कर्मोकोही कारण मानना चाहिये। उपरोक्त चारमहाभूत संपूर्ण देहधारियोंके शरीरमें मातापिताकी सादृश्यता आदिहोने के कारण होते. हैं। उन चार महाभूतोंमें पिताके अंश बलवान् होनेसे पिताके समान,माताके अंश बलवान होनेसे माताके समान अथवा इन चारोंमें भी जो बलवान हो उस गुण: वाली संतान होतीहै ॥ २४ ॥ २५ ॥
कस्मात्प्रजांस्त्रीविकृतांप्रसूतेहीनाधिकाङ्गीविकलेन्द्रियाञ्च । देहात्कथंदेहमुपैतिचान्यमात्मासदाकैरनुबध्यतेच. ॥ २६ ॥ (प्रश्न ) विकृत संतान होनेमें क्या कारण है । हीनांग तथा अधिकांग संतान किस कारणसे प्रगट होतीहै, विकलेन्द्रिय संतान क्यों होतीहै । एक देहसे दूसरी देहमें आत्मा कैसे पहुंच सकतीहै। और आत्मा किन बंधनोंसे बंधीहई दूसरे शरीरमें प्रवेश करती है ।। २६ ॥
गर्भको विकृतिका कारण । बीजात्मकमाशयकालदोषैर्मातुस्तदाहारविहारदोषैः । कुर्वन्तिदोषाविविधानिदृष्टाःसंस्थानवणेन्द्रियकृतानि ॥ २७ ॥ वर्षासुकाष्ठाश्मघनाम्बुवेगास्तरोःसरित्स्रोतसिसंस्थितस्य । यथैवकुर्यविकृतितथैवगर्भस्यकुक्षौनियतस्यदोषाः ॥ २८ ॥ (उत्तर) बीजके विकारसे अथवा अपने किये हुये कमाके दोषले माताके किये आहित आहार विहारके दोषसे कुपितहुए वातादि दोष गर्भके आकार, वर्ण, तथा इन्द्रियोंको बिगाड देतेहैं । फिर वह दोष शरीरके अंग और वर्ण,तथा इन्द्रियोंको न्यून अधिक, कुरूप तथा विकल कर देतेहैं । जैसे-वर्सातमें,काष्ठ, पत्थर,मेघ और जल इकठे होकर नदीके किनारेके वृक्षोंको टेढे कुरूपादि कर देतेहैं उसीप्रकार दोष कुपित होकर कुक्षीमें स्थित हो गर्भको विगाड देतेहैं ॥ २७ ॥ २८ ॥
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शारीरस्थान-अ० २.
आत्माके देहभर में प्राप्त होनेका कारण । भूतश्चतुर्भिःसहितःसुसूक्ष्मेमनोजवोदेहमुपतिदेहात् । कर्मा त्मकत्वान्नतुतस्यदृश्यंदिव्यंविनादर्शनमस्तिरूपम् ॥ २९ ॥ ससर्वगःसर्वशरीरभृञ्चसविश्वकम्मसिचविश्वरूपः । सवेत । नाधातुरतीन्द्रियश्वसनित्ययुक्तानुशयःसएव ॥ ३०॥ प्रथम देह त्याग देनेके अनन्तर सूक्ष्मरूपसे चारों भूतोंके साथ संयुक्त हुआ आत्मा अपने कियेहुए कर्मों के आधीन होकर मनके वेगके समान शीघ्र गर्भ में प्राप्त होजाताहै । जिस समय सूक्ष्म अशोसहित आत्मा गर्भमें आकर प्रवेश करताहै उसको प्राणी दिव्यदृष्टिके विना नहीं देख सकताहै । वह आत्माही सर्वगामी,सर्वशरीरभृत्, विश्वकर्मा एवं विश्वरूप है । पही आत्मा शरीरमें चेतनारूप धातु है,. अतीन्द्रिय है, शरीरसे नित्य संबंध रखनेवाला है। (मोक्ष होनेपर शरीरसे सम्बन्ध छोडदेताहै ) सुखदुःखको जाननेवाला है॥ २९ ॥ ३० ॥
रसात्मलातापितलम्सनानिमतानिविद्यादशषट्चदेहे । चत्वा· रितमात्सालिसंश्रितानस्थितस्तथालाचचतुतेषु ॥३१॥ .
रस, आत्मा, मातापितासे प्राप्त चारभूत, दश इन्द्रिय तथा छ। धातुएँ यह सब तत्व देहमें स्थित रहतेहैं ।इनमें सूक्ष्म चतुर्भूत आत्माके आश्रित है और आत्मा उन चतुर्भूतोंके आश्रित है।इस प्रकार इनका परस्पर मोक्षपर्यन्त नित्य संबंध रहताहै ३१॥
सूतानिमातापितृसत्सवानिरजश्वशकञ्चवदन्तिगर्थे ।आप्याप्यतेशुंक्रमलचसूतैयस्तानिभूतानिरसोद्भवानि ॥ ३२ ॥ भूतानिचत्वारितुकर्मजानियान्याललीलानिविशन्तिगर्भस् । सहजधर्माह्यपरापराणिदेहान्तराण्यात्मनिथानियानि ॥३॥ गर्भमें माताकारज और पिवाका वीर्य.जो है इन्ही दोनोंको मातापितासे उत्पन्न हुए चतुर्भूत कहतेहै । यह सबभूत उस रक्त शुक्रकाही पालन करतेहैं । यद्यपि यह चारों भूत छः रसोंसे मातापिताके शरीरमें उत्पन्न होतेहैं। परन्तु यह चतुर्भूत अपने 'पूर्वजन्मके किये कर्मके आधीनही होकर आत्मसंसृत हुए गर्भ में प्रवेश करते हैं । यह
१ आकाश व्यापक होनेसे. गर्भ में स्वय सम्मिलित होताहे आकाशमें गमनशीलता न होने और "चारभूतोंके समानं शुक्रजनक न होनेसे तथा. शुक्रमें चारभूतक समान न जानेसे यहां आकाशको गैना गया इनमें आकाश मिलने का क्रम चौथे अध्यायके पांचवें सूत्र में वर्णन किया । ..
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(६९)
चरकसंहिता-भा० टी०। आत्मायुक्त भूतसमुदाय अपने किये कर्म के आधान बीजस्वरूप होतेहुए वारम्वार अच्छे और बुरे शरीरोंको धारण करतेह ॥ ३२॥ ३३ ॥
रूपाद्विरूपप्रभवःप्रसिद्धःकात्मकानांमनसोमनस्तः । भवन्तियेत्वाकृतिबुद्धिभेदारजस्तमस्तत्रचकर्महेतुः ॥३४॥ अतीन्द्रियस्तैरतिसूक्ष्मरूपैरास्माकदाचिन्नवियुक्तरूपः । नकर्मणानैवमनोमतियांनचाप्यहंकारविकारदोषैः॥ ३५॥ रजस्तमो यान्तुमनोऽनुबद्धज्ञानविनातत्रहिसर्वदोषाः। गति-. प्रवृत्त्योस्तुनिमित्तमुक्तंमनःसदोषबलवच्चकर्म ॥ ३६॥ जैसे बीज अपने समानही अंकुरको उत्पन्न करनेवाला होताहै। उसीप्रकार गर्भका . स्वरूप भी उसके बीजके समान होताहै । पूर्वजन्मके कियेहुए कर्मके आधीन मनसेही गर्मका मन उत्पन्न होताहै । आकृतिका भेद आर बुद्धिकी विशेषता तया कर्मादि: कोंकी विशेषतामें भी रजोगुण और तमोगुण कारण होते हैं उन अतीन्द्रिय तथा अत्यंत सूक्ष्मभूत समूहसे आत्मा कभी पृथक् नहीं होसकता और वह भूतगण कर्म, मन, बुद्धि और महंकारसे अलग नहीं होसकते । मनका रजोगुण और तमोगु. णसे नित्यसंबंध है इसीलिये ज्ञानके विना अन्य इसमें संपूर्ण दोपही दोप होतेहैं । दोषयुक्त मन और बलवान् कर्म मनुष्यकी गति और प्रवृत्तिके निमित्त
रोगाःकुतःसंशमनंकिमषांहर्षस्यशोकस्यचकिनिमित्तम् । शरीर. सवप्रभवाविकाराःकथनशान्ताःपुनरापतेयुः ॥३७॥
(प्रश्न) रोग किसप्रकार कहांसे उत्पन्न होतेहैं । उनका शान्तकर्ता उपायः क्या है आनन्द और शोक होनेका कारण क्या है । शारीरिक तथा मानसिक संपूर्ण विकार कैसे शान्त होकर फिर उत्पन्न नहीं होते ॥ ३७॥ . . प्रज्ञापराधोविषमास्तदर्था हेतुस्तृतीयःपरिणामकालः। सर्वां
मयानांत्रिविधाचशान्तिर्ज्ञानार्थकालाःसमयोगयुक्ताः ॥ ३८॥ धाःक्रियाहर्षनिमित्तमुक्तास्ततोऽन्यथाशोकवनियन्ति ।
शरीरसत्त्वप्रभवास्तुदोषास्तयोरवृत्त्यानभवन्तिभूयः॥ ३९ ॥ । रूपस्यसत्त्वस्यचसन्ततियानोक्तस्तदादिनहिसोऽस्तिकश्चित्। . ... . तयोरवृत्तिःक्रियतेपराभ्याधुतिस्मृतिभ्यांपरयाधियाच ॥ ४० ॥
दोषयुक्त मन ॥ ३५ ॥ ३६ ॥
स्यशोकस्यचा
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शारीरस्थान-०२. . (९५) . (उचर ) रोग तीन प्रकारके कारणों से उत्पन्न होताहै जैसे प्रज्ञापराध और मेमा
स्प इन्द्रियासयोग तथा परिणाम काल । यह तीन रोगके उत्पत्तिके कारण हैं। इसीप्रकार संपूर्ण रोमोंकी शान्तिके भी तीनही उपाय हैं। जैसे ज्ञान सात्म्य, इन्द्रियार्थसंयोग, और कालका उचिवयोग । धर्मके काम करना आनन्दके देत हैं।
और यावन्मात्र पापकर्म दुःखके कारण हैं। शारीरिक और मानसिक रोग रजोगुण और तमोगुणकी निवृत्ति होजानेपर शरीर और मनकी निवृत्ति होकर फिर उत्पन्न नहीं होते क्योंकि शरीर और मनकी जो धारावाही संतति है वह कहांसें हुई मोर कव उत्पन्न हुई इसप्रकार उसका कोई भादि क्रम नहीं है। परंतु परसंधृति भौर यौगिक स्मृति तथा बुदिकी विमलता होनेसे उन शारीरिक और मानसिक रोगोंकी सदाके.. हिये निवृत्ति . होजातीहै अर्थात् मोक्ष होजानेसे वह फिर कभी दु:खमुख नहीं भोगता ॥ ३८ ॥ ३९॥४०॥
दैवका लक्षण । सत्याश्रयेवाद्विविधेयथोक्तपूर्वगभ्यःप्रतिकर्म नित्वम् । . : जितेन्द्रियनानुपतन्तिरोगास्तत्कालयुक्तयादनास्तिदेवम्॥४१॥
देवपुरायत्कृतमुच्यतेतुतत्यौरुषंयत्त्विहकमदृष्टम् । प्रवृत्तिहेतुविषमःसदृष्टोनिवात्तहेतुस्तुसमःसएव ॥ ४॥ शरीर और, मन. यह दो प्रकारके रोगोंके स्थान कथन कियेहैं । अर्थात् संपूर्ण रोग शरीर और मनके आश्रय हैं। यदि मनुष्य जितेन्द्रिय और अपनेको वंशमें रखवा हुआ रोगोंसे प्रथमही यलवान रहे-मर्थात अहितका सेवन न करे तो प्रारब्धके आधीन आवश्यक कालमें होनेवाली व्यापिके.सिवाय और कोई रोग उत्प नहीं नहीं होसकता । पूर्वजन्मके.कियेहुए कर्मको प्रारब्ध कहते हैं । इस जन्ममें जो पुरुषार्थ कियाजाताहै उसको कर्म कहतेहैं । धर्मका सेवन करना रोगोंके निवृत्त होनेका कारण है और अधर्मका सेवन रोगोंकी प्रवृत्तिका कारण है अथवा विषम संयोगसे रोगोंकी प्रवृत्ति मौर. समसंयोगले आरोग्यताकी प्राप्ति होती हैं४१५४२॥
ऋतुओंके रोगोंका शमन । हैमन्तिकंदोषवयंवंसन्तप्रवाहयन्यैष्मिकमभ्रकाले। .. . धनात्यये वार्षिकमाशुसम्यक्प्राप्नोविरागानृतुजान्नजातु ॥४३॥ हेमन्तकालमें संचिवहर दोषोंको वसन्तकारमें शोधन कर देना चाहिया और श्रीमकालमें संचितहुए दोषोंको प्रावृटकाल में तथा वर्षाकालके संचिवहुए दोपोंकों
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६ ६९६)
चरकसंहिता-मा० टी०। शरदऋतुमें संशोधन अर्थात्-वमन,विरेचन द्वारा शुद्ध कर देना चाहिये । ऐसा कर जेसे ऋतुजन्य दोष उत्पन्न नहीं होने ।। ४३ ।। . नरोहिताहारविहारसेवसिमीक्ष्यकारीविषयेण्वसक्तः । दाता. .. ___ समःसत्यपरःक्षमावानाप्तोपसेवीचभवत्यरोगः ॥ ४४ ... ... .
जो मनुष्य हित आहार और हितविहारोंका सेवन करताहै तथा संपूर्ण कार्योंकों विचार कर करताहै और विषयोंमें आसक्त नहीं होता तथा दान,समता,सत्य और क्षमापरायण होताहै तथा आप्तजनोंका सेवन करताहै वह सदा रोगरहित रहताहै ॥४४॥
मतिर्वचःकर्मसुखानुबन्धिसत्त्वंविधेयंविशदाचबुद्धिः । ज्ञानं . तपस्तत्परताचयोगेयस्यास्तितंनानुपतन्तिरोगाः ॥४५॥ जिस मनुष्यकी मति, वचन, कर्म यह हितकारक हों और मन अपने आधीन हो, बुद्धि स्वच्छ हो, एवम् ज्ञान, तपस्या तथा योगमें चित्त लगा हुआ हो ऐसे मनुष्यों के ऊपर रोग आक्रमण नहीं कर सकते ॥ ४५ ॥ -
___ अध्यायका उपसंहार । । इहाधिवेशस्यमहार्थयुक्तंपत्रिंशकंप्रश्नगणमहर्षिः। अतुल्यगोनेभगवान्यायनिर्णीतवाज्ञानाविवर्द्धनार्थम् ॥ ४६ ॥ . इति चरकसंहितायां शारीरस्थानेऽतुल्यगोत्रीयंशारिं ..
- समाप्तम् ॥ २॥
यहां अध्यायशी पूर्तिमें श्लोक है
दिइस अतुल्यगोत्रीय शारीराध्यायमें अग्निवेशके महान् अर्थवाले छब्बीस ३६ प्रश्नों का निर्णय भगवान् आत्रेयजीने वैद्योंके ज्ञानकी वृद्धिके लिये कथन कियाहै ॥ ४६॥ इति श्रीमहर्पिचरक शारी०स्था भाषाटी अनुल्यगोत्रीयशारीरं नाम द्वितीयोऽध्यायः ॥२॥
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शारीरस्थान-अ०.३.... (६९७)
तृतीयोऽध्यायः। अथातः खुड्डीकागर्भाऽवक्रान्तिंशारीरं व्याख्यास्याम इति. हस्माह भगवानात्रेयः। . . अब हम खुड्डीकागर्भावक्रान्ति शारीरकी व्याख्या करतेहैं इसप्रकार भगवान मात्रेयजी कथत करनेलगे।
गर्भकी उत्पत्ति .। पुरुषस्यानुपहतरेतसःस्त्रियाश्चाप्रदुष्टयोनिशोणितगाशयाया सदाभवतिसंसर्गऋतुकाले। यदाचानयोस्तथैवयुक्तयोःसंसर्गे तुशुकशोणितसंसर्गमन्तर्गर्भाशयगतंजीवोऽवकासतिसत्त्वस
प्रयोगात्तदागोऽभिनिवर्तते ॥ १॥ अनुपहत अर्थात् पुष्ट और शुद्धवीर्यवाले पुरुषका ऋतुसे शुद्ध हुई शुद्ध योनि,शुद्ध रज और दोषरहित गर्भाशयाली स्त्रीसे संयोग होनेसे पुरुषका वीर्य और स्त्रीका रज यह दोनों मिलकर जब गर्भाशयमें पहुंचतेहैं उसीसमय जीवात्मा भी मनोवैगसे झट उस शुक्रशोणितके साथही गर्भाशयमें प्रवेश करजाता है फिर वह गर्भ कहा नाताहै ॥ १॥
लसात्म्यरसोपयोगादरोगोऽभिसंबद्धतेसम्यगुपचारेश्वोपवर्यमाणः । ततःप्राप्तकालःसर्वेन्द्रियोपपन्न परिपूर्णसर्वहारीरोवलवर्णसत्त्वसंहलनसम्पदपेतःसुखेलजायतेसमुदायादेषां मावानाम् ॥२॥. . वह गर्भ माता साम्यरसके सेवन करनेसे और उत्तम हितकर उपचारके आच. रणसे वृद्धिको प्राप्त होताजावाहै । फिर इसप्रकार संपूर्ण इन्द्रियों से सम्पन्न साँग संपूर्ण वल, वर्ण, और सत्वयुक्त होकर गठनको प्राप्त हुआ अपने ठीकसमयपर इन . सव भावोंके पूर्ण होनेसे सुखपूर्वक जन्म लेताहै ॥ २॥
. . गर्भोके भेद। . . . : मातृजश्चायंगःपितजश्चात्लजश्चलात्स्यजश्चरसजश्चास्तिच. : सत्त्वसंज्ञमौपपादिकामत्तिहांवाचभगवानात्रेयः॥३॥ . . . - १ पूर्वाध्याये शुक्रशोणिते गर्भकारणत्वेनोक्त, नतु कृत्स्नं गर्भकारणमुक्तम् अत.सम्पूर्णगर्भकार... माभिधाना खंड्डिका गंभविक्रांतिरुच्यते खुड्किांमित्यल्पाम् । ।
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चरकसंहिवा-मा. टी. इसके उपरान्त भगवान् आत्रेयजी कहनेलगे कि यह गर्भ मातृज है और पितृज है. तया भात्मज और सात्म्यज एवम् रसज है और सत्त्वसंज्ञक मन इस गठनके. संबंधको उत्पन्न करताहै ॥३॥
नेतिभरद्वाजः । किंकारणहिनमातानपितानात्मानंसात्म्यंनपा नाशनभक्ष्यलेह्योपयोगागर्भजनयन्तिनचपरलोकादेत्यगर्भसखसंज्ञकमवकामति । यदिहिमातापितरोग जनयेतांभूयस्यश्चस्त्रियःपुमांसश्चभूयांसःपुत्रकामा,तेसर्वेपुत्रजन्माभिसन्धायमैथुनधर्ममापद्यमानाःपुत्रानेवजनयेयु हितर्वादुहितकामाः। नचकाश्चिस्त्रिय केचिद्वापुरुषानिरपत्याः स्युःअपत्यकामांश्चपरिदेवेरन् । नचात्मात्मानंजनयति । यदिह्यात्मात्मानंजनयेज्जातोवाजनयेदात्मानमजातोवाजनयति तच्चउभयथाप्ययुकम् । नहिजातोजनयतिसत्त्वान्नचैववाजातोजनयेत्सत्त्वात्तस्मादुभयथाप्यनुपपत्तिस्तिष्ठतु । अथतावदेतयदिअयमात्मानंशक्तोजनयितुंस्यान्नतुएनमिष्टास्वेवकथंयोनिषुजनयेद-: : शिनमप्रतिहतगतिकामरूपिणतेजोबळजववर्णसत्त्वसंहनन·
समुदितमजरमरुजममरमेवंविधहिआत्मात्मानमिच्छन्नित्य. तोवाभ्यः ॥४॥ . . . ....
भरद्वाज कहनेलगे कि ऐसा नहीं होता ।गर्भके कारण मावा,पिता, आत्मा और सात्म्म इनमेंसे कोई नहीं तथा न पान, अशन, भंश, लेह्य पदार्थही.गर्भकों उत्पन्न कर सकतेहै.। एवम् परलोकसे भाकर सत्त्वसंज्ञक मनं भी गर्भको. उत्पन्न नहीं कर सकता । यदि मातापिताही गर्भको उत्पन्न कर. सकते वो बहुत से सवानकी इच्छा . वाले स्त्री पुरुष पुत्रकी कामनासे मैथुनधर्मको प्रवृत्त होकर बहुतसे पुत्र उतन्त्र । करलेते और कन्याकी इच्छावाले कन्या उत्पन्न करलेते । और जगदमें कोई स्त्री और कोई पुरुष भी संतानरहित न रहता संतान के लिये उनको किसी मकारके देव भादिक मनाने अथवा व्याकुल रहनेकी आवश्यकता न पडती । संपूर्ण जगवहीं. : अपनी इच्छानुसार संवानवाला होजाता। आस्मा भी आत्माको उत्पन्न नहीं कर संकर मार न स्वयं उत्पन्न होता है। यदि आत्मा · आत्माको उत्पन्न करे तो जन्म किसको हुआ। वह आत्मा मात्माको प्रगट करता है जिसका जन्म होचुका । अथवा
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शारीरस्थान-०३. '
(६९९). जिस आत्माका जन्म नहीं हुआ वह आत्माको प्रगट करताहै। यदि कहो कि आत्मा स्वयं अपने आपको प्रगट करताहै तो जो आत्मा एकबार जन्म लेंचुकाहै वह फिर किसमकार अपनेको प्रगट:कर सकताहै अर्थात् नहीं प्रगट कर सकता और अजात
आत्मा भी आत्माको प्रगट नहीं करसकता क्योंकि वह अजात है।मजात होनेसे वह अपनेको जन्म देही नहीं सकता । याद उसमें स्वयं यह शक्ति होती तो अपनी इच्छानुसार श्रेष्ठ २ शरीरोंमें प्रवेश करता । इसलिये दोनों प्रकार होना अयुक्त है. अर्थात् नहीं होसकता । याद ऐसा होता तो सत्तावान् आत्मा वशी, अप्रतिहतगति, कामरूपी, तेजसम्पन्न और बल, वेग, वर्ण तथा सत्व एवं दृढतासम्पन्न होनेसे तथा अजर,अमर, रोगरहित एवं इससेभी अधिक र उत्तम २ गुणोंकी इच्छा करताहुअर आत्माको कहीं बहुतही उत्तम शरीरों में प्रगट करता ॥४॥
गर्भकी असात्म्यनवा। असात्म्यजश्चासंग यदिहिसात्म्यजःस्यातहिंसात्म्यसेविना. मेवैकान्तेनव्यक्तंप्रजास्यात् । असात्म्यसेविनश्चनिखिलेनानपत्याःस्युस्तच्चोभयमुभयत्रैवदृश्यते॥५॥ सात्म्यसे भी गर्भकी उत्पत्ति नहीं होती यदि सात्म्य पदार्थोंके सेवनसेही गर्भ उत्पन्न होता तो जो मनुष्य सात्म्य पदार्थोंका सेवन करते हैं केवल उन्होंके संतान हुआ करती और असात्म्य, पदार्थोंके सेवन करनेवाले संपूर्ण मनुष्योंके वंशही न चलते अति उनकी संतानही न हुआ करती । परंतु देखने में ऐसा आता है. कि सात्म्य पदाथोंके सेवन करनेवालोंमें भी संतान बहुतोंको नहीं होती और असात्म्य सेवन करनेवालोंको संतान होती है । इसलिये सात्म्यसेवनसे नभ उत्पन्न होताहै यह. कहना वृथा है ॥ ५॥ ..
. . . गर्भका रससे उत्पन्न न होना। 'अरसजश्चायंग यदिहिरसजः स्यान्नकेचित्स्त्रीपुरुषेषुअनपत्याः स्युनहिकाचदस्त्येषांयोरसान्नोपयुङ्क्ते। श्रेष्ठरसोपयोगिनांचेदर्भाजायन्तेइत्यतोऽभिप्रेतमित्येवं सति, आजारेभ्रमार्गमायूरगोक्षीर-दधि-घृत-मधु-तैल-सैन्धवेक्षुरसमुद्गशालिभूतानामेवएकान्तनप्रजास्यात् । श्यामाकवरकोदालककौरदूषककन्दमूलभक्ष्याश्चनिखिलेनानपत्याः स्युः तच्चोभयमुभयोवदृश्यते ॥६॥
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चरकसंहिता-भा०टी०। __रससे भी गर्भकी उत्पत्ति नहीं होती है। यदि रसजगर्भ होता तो भी याव
मात्र प्राणियोंमें कोई भी संतानरहित देखने में नहीं आता । क्योंकि ऐसा कोई भी पुरुष और स्त्री नहीं है जो रसोंका सेवन न करता हो । यदि कहें कि उत्तम रस -सेवनसे संतान होती है तो जो मनुष्य निरंतर वकरां, मेंढा, मृग और मोर
आदिका मांसरस खाते हैं तथा गौओंका दूध, दही, घृत एवं मधु, तैल, लवण, इक्षुरस (खांड, मिसरी), मूंग, चावल आदिका उत्तम भोजन करतेहैं और हृष्ट, 'पुष्ट शरीर हैं उन्हींको संतान होनी चाहिये थी और जो मनुष्य श्यामाक, क्षुद्र जव, कोदो, कोढेसक, कंद, मूल तथा अन्य रूक्ष भोजन करते हैं वह सव संतानरहित होते । परन्तु दोनों प्रकार देखनेमें नहीं आता । जो मनुष्य उत्तम रसोंका भोजन करते हैं और जो रूक्ष भोजन करतेहैं इन दोनोंकाही संतानयुक्त होना और नि:सं. सान होना बराबर दिखाई देता है। इसलिये गर्भ रसज होता है यह भी सिद्ध नहीं होता ।। ६॥ .
गर्भका सत्त्वगुणी न होना। नखलुअपिपरलोकादेत्यसत्त्वंगर्भसवकामति । बदित्वेनसवक्रामेनास्याकिञ्चिदेवपार्वदेहिकस्यादविदितमश्रुतमष्टं वा । सचकिञ्चिदपिनस्मरतितस्मादेतलहे अमातृजপ্রাণিজঞ্জালালভাবালাহলম্বা ছিল ।
सत्त्वमीपपादिकमिविहोवाच सरद्वाजः ॥७॥ . . परलोकसे आकर सत्त्वसंज्ञक मन भी गर्भके संबंधको उत्पन्न नहीं करता। यदि. -वह परलोकसे आकर गर्भ में मिलनाता तो उसको पहिले देहके सम्पूर्ण व्यापार जाने सुने और देखे याद रहने चाहिये थे । परन्तु वह किसीको भी स्मरण नहीं करता। इसलिये सत्त्वसंज्ञक मन भी गर्भसे सम्बन्ध नहीं रखता। इस कारणसही हम कहते हैं कि गर्भ न मात्रज है, न पितृज है ने आत्मज है,न सात्स्यज़ है,और न रसज है तथा सत्त्व संज्ञक यन भी उसके सम्बन्धका उत्पादक नहीं है ।जब इसप्रकार कुमारशिरा भरद्वाजने कहा ।। ७ ।।
. . . . . . ' : आत्रेयका मत। तिभगवानात्रेयः। सर्वेभ्यएभ्यो भावयासमुदितेभ्योगभोऽभिनिवर्तते। मातृजश्चायंगर्मोनहि मातुर्विनागर्भोपपत्तिः: स्यान्नचजन्मजरायुजानाम् । यानिखलुअस्यगंभस्य मातृजा
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शारीरस्थान-अ०३.
(७०१ ) नियानिचास्य. मातृतःसम्भवतःसम्भवन्तितानि अनुव्या-.. ख्यास्यामः । तद्यथा-त्वकचलोहितश्चमांसश्चमेदश्चनाभिश्च हृदयञ्च क्लोम च यकच्च प्लीहा च बुक्कौ च बस्तिश्च पुरीषाधानञ्चामाशयश्च पक्वाशयश्चोत्तरगुदञ्चाधरगुदश्चक्षुद्रान्त्रञ्च
स्थूलान्त्रञ्च वपा च वयावहनश्चेतिमातृजानि ॥८॥ - तब भगवान् आत्रेयजीने कहा कि ऐसा नहीं होता । गर्भ इन संपूर्ण भावाक होनेसे ही प्रगट होता है। यह गर्भ मातासे भी उत्पन्न होताहै क्योंके माताके विनाः गर्भ उत्पन्न होही नहीं सकता और जितने जरायुज प्राणी हैं वह विना माताके जन्म लेही नहीं सकते और इस गर्भ में मातासे जो २ अवयव उत्पन्न होते हैं उनको वर्णन करते हैं । जैसे-त्वचा, रक्त, मांस, मेद, नाभि, हृदय, क्लोम, प्लीहा, यकृत,दोनों बुक्क, वस्ती, आमाशय, मलाशय, पक्वाशय, उत्तरगुद, अधःशुद, क्षुद्रअन्तर्डिये, वसा, वसाके वहनस्थान, यह सब मातासे उत्पन्न होतेहैं तथा इनको मातृज अवयक कहते हैं । इसलिये गर्भको मावज कहना चाहिये ॥ ८॥
पितासे होनेवाले अवयव । पितृजश्चायंग नहिपितुतेग त्पत्तिःस्यान्नचजन्मजरायुजानाम् । यानिखलुअस्यगर्भस्यपितृजानियानिचास्यपिततः सम्भवतःसम्भवन्तितानिअनुव्याख्यास्यामः । तद्यथा--केशश्मश्रनखलोमदन्तास्थिशिरास्नायुधमन्य शुक्रमितिपितृजानि ९॥ गर्भ पितृजभी है। क्योंकि पिताके विना गर्भकी उत्पत्तिही नहीं होती। दिनाः पिताके जरायुजोंका जन्मही नहीं होसकता । अव गर्भके जो २ अंग गर्भमें पितासे उत्पन्न होते हैं उनका कथन करते हैं । जैसे केश, श्मश्रु, नख,रोम दांत, अस्थियां, शिरा और स्नायु तथा धमानियें एवम् शुक्र पितासे उत्पन्न होते हैं । इसलिये; गर्भको पितृज भी कहना चाहिये ॥ ९॥ .
मात्मासे उत्पन्न हुए गर्भावयव । आत्मज़श्चायंगमोंगआत्मान्तरात्मायस्तमेनंजीवइत्याचक्ष- . तेशाश्वतमरुजमजरममरमक्षयमभेचमच्छेद्यामलाविश्वरूपं विश्वकर्माणमव्यक्तमनादिमनिधनमक्षरमपि । सगर्भाशय- .
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६:५०१) चरकसंहिता-भा० टी०॥
मनुपविश्यशुकशोणितास्यांसंयोगमेत्यगर्भवेनजनयत्यात्म- ... • नात्मानमात्मसंज्ञाहिग तस्यपुनरात्मनोजन्मादिसत्त्वान्नो:
पपद्यत तस्मादजातएवायंजातंग जनयति जातोऽप्यजातञ्चगर्भजनयति । सचेवगर्भकालान्तरेणवालयवस्थविरभावानवाप्नोति ॥ १०॥ यह गर्भ आत्मज भी है क्योंकि गर्भात्माही अन्तरात्मा और जीवके नामसे उच्चारण किया जाताहै।यह अन्तरात्मा नित्य, निरोग, अजर, अमर, अक्षय,अभेय, अच्छेद्य, अलेह्य, विश्वरूप, विश्वकर्मा, अव्यक्त, अनादि, मृत्युरहित अक्षर कहा जाताहै । यह गर्भाशयमें अनुप्रवेश कर शुक्रशोणितके साथ मिलजाताहै तवही गर्भ उत्पन्न होजाता है । आत्माही मात्माको उत्पन्न करताहै । गर्भही. इसकी आत्मा संज्ञा होती है । यदि अजात आत्माही स्वयं अपनेको गर्भमें प्रगट न करता तो अनादि और नित्य होनेसे इसका जन्म लेना किसीप्रकार सिद्ध नहीं होसकता। इस लिये यह अजात होताहुआ भी जातगर्भको उत्पन्न करताहै । और जात होकर भी अजात रहता है। वह गर्भ समय पाकर प्रगट होनेसे वाल्पावस्था यौवनावस्था और वृद्धावस्थाको प्राप्त होताहै ॥ १०॥ सयस्यांयस्यामवस्थायां वर्तते तस्यांतस्यांजातोभवतियात्वस्यपुरस्कृतातस्यांजनिष्यमाणश्चतस्मात्सएवजातश्चाजातश्च युगपद्भवतितस्मिश्चैतदुभयंसम्भवतिजातत्वञ्चैवजनिष्यमाणत्वञ्च । सजातोजन्यतेसचैवानागतेष्ववस्थान्तरेषुअजातो जनयत्यात्मनात्मानम् ।सतोह्यवस्थानुगमनमात्रामवहिजन्म चोच्यतेतत्रतत्रवयसितस्यांतस्यामवस्थायाम् । यथासतामेव शुक्रशोणितजीवानांप्रासंयोगादर्भत्वंनभवतितचसंयोगाद्भवति। यथासतस्तस्यैवपुरुषस्यप्रागपत्यात्पितत्वंनभवतितच्चा-य पत्याद्भवति । तथासतस्तस्यैवगर्भस्यतस्यांतस्यामवस्थायां जातत्वमजातत्वञ्चोच्यते ॥११॥ वह गर्भ जिस२ अवस्थामें जैसेररहताहै उसीउसी अवस्थामें जात मानाजाताहै। जो अवस्था इसकी आनेवाली है उस अवस्थाको जानिष्यमाण कहते हैं । इसलिये एककालमेंही इसमें जात और अजात दोनों धर्म रहतेहैं।अतएव इसमें जातत्व और
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शारीरस्थान-१०३. जनिष्यमाणत्व दोनोंही हैं। वह गर्भात्मा जात होकरभा अर्थात् गर्भावस्थामें उत्पन्न होकर भी गर्भको उत्पन्न करताहै और वही अपनी आनेवाली अवस्थान्तरको भी उत्पन्न करता है । नित्य पदार्थका अवस्थान्तरही जन्म कहाजाताहै । वह जिसजिस अवस्थामें पहुंचताहै वहीं उसका जन्म है । जैसे-शुक्र, शोणित और जीवके पृथकू सहवेहुए भी संयोग होने विना जीवत्व उत्पन्न नहीं होता । और जैसे पुत्र उत्पन्न होनेसे पहिले पिता रहतेहुए भी उसमें पितृत्वधर्म नहीं आता उसीप्रकार आत्मा भी उसंउस अवस्थामें रहताहुया जातत्व और अजातत्वको प्राप्त नहीं होता॥१॥
नतुखलुगर्भस्यमातुर्नपितु त्मनःसर्वभावषुयथेष्टकारित्वम
स्ति । तेकिञ्चित्स्ववशाकुर्वन्तिकिञ्चित्कर्मवशात्वचिच्चैषांकर. णशक्तर्भवतिक्कचिनभवतिायनसत्त्वादिकरणसम्पत्तत्रयथाव- ।
लमेवयथेष्टकारित्वमतोऽन्यथाविपर्ययः। नचकरणदोषादका-- • रणमात्मागर्भजननेसम्भवति ॥ १२ ॥
माता पिता और आत्मा इन सबमें से कोई एक संपूर्णभावसे गर्भको उत्पन्न करनेमें यथेष्टकारी नहीं होसकताअर्थात् अपने आधीन होकर अपने वशसे)माता या पिता या आत्मा अकेला कोई गर्भको प्रगट नहीं करसकता। इनमें कोई अपने वशसे गर्भ में इष्टकारी होतेहैं,कोई कर्मवशसे इष्टकारी होतेहैं।कहीं इनकी करणशाक्त कार्य करने में सामर्थ्यवान् होती है और कहीं नहीं भी होती । इसालये जिस जगह सत्त्वादि करणशक्तिकी उत्कृष्टता होतीहै उसजगह यथावल यथेष्टकारिता होजातीहै । जिसजगह सवादि करणशक्तिकी उत्कृष्टता नहीं होती वहांपर कार्यसिद्धि नहीं होसकती । करणके दोषसे आत्मा गर्भोत्पन्न करनेमें कारण नहीं होता, ऐसा नहीं अर्थात् आत्मा. संपूर्णसंयोग मिलनसे गर्भको उत्पन्न करनेमें कारण होताहै ॥ १२॥
दृष्टश्चचेष्टायोनिरैश्वर्थमोक्षश्चात्मविद्भिरात्मायत्तम्। नान्यः सुखदुःखयोः कर्त्तानचान्यतोगर्भजायतेजायमानोनचअंकु. रोत्पत्तिरबीजात् ॥१३॥
आत्मज्ञानी महात्मा चेष्टा, योनि, ऐश्वर्य और मोक्ष इनसवको अपने आधीन रखतेहैं ऐसा देखने में आताहै। आत्माके सिवाय सुखदुःखका और कोई कर्ता नहीं है । आत्माके सिवाय और कोई गर्भको उत्पन्न नहीं कर सकता । आत्मासेही गर्भकी उत्पत्ति है । कारणके समानही कार्यकी उत्पत्ति देखने में आतीहै । ऐसा नहीं होता कि विना वीजके अंकुर पैदा हो ॥ १३ ॥
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चरकसंहिता - मा० टी० ।
आत्मासे हुए भाव | यानितुखलुअस्य गर्भस्यात्मजानियानिचअस्यात्मतः सम्भवतः सम्भवन्तितानिअनव्याख्यास्यामः । तद्यथा - तासुतासुयोनिषु उत्पत्तिरायुरात्मज्ञानंमनइन्द्रियाणिप्राणापानौप्रेरणंधार
( ७०४ )
णमाकृतिस्वरवर्णविशेषाःसुखदुःखेइच्छा द्वेषाचेतनाधृतिबुद्धि-स्मृतिरहंकारः यत्नश्चेत्यात्मजानि ॥ १४ ॥
गर्भमें जो जो भाव आत्मासे उत्पन्न होते हैं उनउन आत्मजभावों को वर्णन कर• ते हैं। यह आत्मा जिस जिस समय जिस जिस योनिमें जन्म धारण करता है उस समय उसी योनिमें इसका जन्म, आयु, आत्मज्ञान, मन, संपूर्ण इन्द्रियें, प्राण, अपान, प्रेरणा शक्ति, धारणा, आकृति, स्वर, वर्ण, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, चेतना, धृति, बुद्धि, स्मृति, अहंकार, प्रयत्न, यह सब उत्पन्न होते हैं । यह सव आत्मा केही लक्षणह इसलिये गर्भ आत्मज होता है ॥ १४ ॥
सात्म्यजश्चायं गर्भः नहिअ सात्म्य सेवित्वमन्तरेण स्त्रीपुरुषयोर्वन्ध्यत्वमस्तिगर्भेषुवाअनिष्टोभावः । यावत्खलुअसात्म्यसेविनांस्त्रीपुरुषाणां त्रयोदोषाः प्रकुपिताः शरीरमुपसर्पन्तोन शुक्रशोणितगर्भाशयेोपघातायोपपद्यन्ते तावत्समर्थगर्भजननायभवन्ति । सात्म्यसेविनां पुनःस्त्रीपुरुषाणामनुपहत शुक्रशोणितगर्भाशयाना मृतुकाले सन्निपातितानां जीवस्थान वक्रमणाद्गर्भान प्रादुर्भवन्ति । नहिकेवलंसात्म्यजएवायंगर्भः समुदायोऽत्रकारणमुच्यते ॥ १५ ॥
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यह गर्भ सात्म्यज भी है।यदि स्त्री पुरुष असात्म्य पदार्थों को सेवन न करें तो उनमें वन्ध्यादोष तथा गर्भ में अनिष्टभाव कभी उत्पन्न न होवे। जबतक कसात्म्यसेचनसे दोष कुंपित होकर स्त्रीपुरुषों के शरीर में उपसर्पण करतेहुए और शुकशोणितसे मिल कर गर्भाशय में उपघात नहीं करते तभतिक गर्भाधान होसकता है तथा अतारम्यसेवन से दोष कुपित होजानेपर गर्भाधान नहीं होने देते । सात्म्यसेवन करनेवाले. स्त्री पुरुषों का रज और वीर्य शुद्ध होता हुआ ऋतुकालमै मिलापद्वारा गर्भाशयः प्रवेश करनेपर भी यदि जीवात्मा अणु प्रवेश न करे तो गर्भ नहीं रहता । केवल
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शारीरस्थान-अ० ३.
(७०५३ सात्स्यसेवनसेही गर्भ उत्पन्न होताहै यह बात नहीं है। किंतु गर्भके उत्पन्न करने बाले सम्पूर्ण भावों में सात्म्यसेवन भी एक कारण मानाजासाहै ॥ १५ ॥
सात्म्यसे हुए गर्भके अवयव । यानितुखल्वस्यगर्भस्यसात्स्यजानियानिचअस्यसात्म्यतःलम्भवतःसम्भवन्तितानिअनुव्याख्यास्यामः। तद्यथा-आरोग्यमनालस्यमलोलुपत्वमिन्द्रियप्रसादःस्वरवर्णबीजसम्पत्प्रहर्षभूयस्त्वञ्चतिसात्स्यजानि ॥ १६ ॥ सात्म्यसेवनसे गर्भमें जो भाव पैदा होतेहैं उनका वर्णन करतेहैं।जैसे आरोग्यता, अनालस्य, निर्लोभता, इन्द्रियोंका प्रसाद, स्वर, वर्ण और वीर्यका उत्तम होना, चित्त प्रसन्न रहना यह सब सात्म्यसेवनके फल हैं । इसलिये गर्भकी उत्पत्ति, सात्म्यको भी कारण मानाजाताहै ॥ १६ ॥
गर्भकी रसन उत्पत्रि । रसजश्चायंम नहिरसादृतेमातुः प्राणयात्रापिस्याकिंपुनर्ग- .. भजन्म,नचैवास्यसम्यगुपयुज्यमानारसागर्भमभिनिवर्तयन्ति नचकेवलंसम्यगुपयोगादेवरसानांगर्भाभिनिवृचिर्भवविसमुदायोऽप्यत्रकारणमुच्यते ॥ १७ ॥ यह गर्भ रसज भी है। याद रसोंको सेवन न कियाजाय तो माताकें प्राण भी नहीं रहसकते मोर गर्भके उत्पन्न होनेको तो कहनाही क्या है । रसही उत्तमरूपसे सेवन किये जानपर गर्भको उत्पन्न करतेहैं यद्यपि केवल रसोंकाही उत्तमरीतिसे प्रयोग कियानाना गर्भको उत्पन्न नहीं कर सकता परन्तु गर्भके उत्पन्न करनेवाले कारणोंमें रस भी एक कारण होताहे ॥ १७॥
गर्भके रसज अवयव । यानितुखल्वस्यगर्भस्यरसजानियानिचास्यरसतःसम्भवतः सम्भवन्तितान्यनुव्याख्यास्यामः । तद्यथा-शरीरस्याभिनिर्वृत्तिरभिवृद्धिःप्राणानुबन्धस्तृप्तिःपुष्टिरुत्साहश्चेतिरसजानि१८ इस गर्भके नो नो भाव रससे उत्पन्न होते हैं उनका वर्णन करते हैं। जैसे शरीरका उत्पन्न होना और बढना, प्राणोंका अनुबन्ध तृप्तिः और पुष्टि तथा उत्साह यह सब रससेही होते हैं। इसलिये गर्भके प्रगट होनमें रसको भी कारण मानाजा ताहै ॥१८॥
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(७०६)
चरकसंहिता-भा० टी०।
सत्वका उत्पादकत्व । अस्तिखल्वापसत्त्वमौपपादिकं यजीवस्यकशरीरेणाभिसम्ब- " नाति-। परिसन्नपगलनपुरस्कृतेशीलमस्यव्यावर्त्ततेभक्तिर्विए-. ! संस्थत लर्वेन्द्रियाण्युपत्तप्यन्तेबलहीयतेव्याधय आप्यायन्ते।। यस्माद्धीनःप्राणाञ्जहातियदिन्द्रियाणामभिग्राहकञ्चमनइत्य : भिधीयततत्रिविधमाख्यायतेशुद्धराजरंतामलञ्चइति ॥ १९ ॥ सत्व भी गर्भके सम्बन्धको उत्पन्न करनेवाला होताहै । यही सूक्ष्मभावोंसहित आत्माका स्थूल शरीरके साथ सम्वन्ध कराताहै । जब यह सत्त्व शरीरसे अलग होनेलगताहै ता इसके अलग होनेसे प्रथमही शरीरका स्वभाव भी बदलजाताहै । इच्छा विपरीत होजातीहै, इन्द्रिये लेशित होजाती हैं, शरीरमेंसे वल क्षय होजाताहै रोग बढने लगतेहैं । जब यह सत्त्वसंज्ञक मन शरीरको त्यागताहै उसी समय प्राणोंका परित्याग होजाताहै । यह सत्त्वही इन्द्रियोंका अभिग्राहक मन कहाजाताहै । यह सत्त्व, रज, और तमके भेदसे तीनप्रकारका होताहै ॥ १९ ॥
येनास्यखलुप्रयतोभूयिष्ठंतेनद्वितीयायामाजातौसम्प्रयोगोभवतिायदातुतेनैवशुद्धनसंयुज्यतेतदाजातेरतिकान्तायाश्चस्मरति। स्मातहिज्ञानमात्मनस्तस्यैवमनसोऽनुबन्धादनुवर्तते यस्यानुवृत्तिंपुरस्कृत्यपुरुषोजातिरित्युच्यतेइतिसत्त्वमुक्तम् ॥२०॥ मनमें सतोगुण,रजोगुण,और तमोगुण इन तीनों गुणोंमेंसे जो गुण अधिक होता है उसका दूसरे जन्मतक संयोग रहताहै । यदि सतोगुणके साथ संयोग होताहै तो इसको पूर्वजन्मका भी स्मरण आताहै । स्मार्तज्ञानयुक्त मनके साथ जब आत्माका संयोग होताहै तब आत्माको अपने जन्मांतरका भी स्मरण आने लगताहै । उस पुरुषको जातिस्मर कहते हैं यह गुण सतोगुण प्रधान मनोंके संयोगसे होताहै२०॥
थानिखल्वस्यगर्भस्यसत्त्वजानियानिचअस्यसत्त्वतःसम्भवतः सम्भवतितानिअनुव्याख्यास्यामः। तद्यथा-अक्तिःशीलंशोचंद्वेष:स्कृतिोहस्त्यागोमात्सर्यशौर्यलयंत्रोधस्तन्द्राउल्लाहस्तक्ष्ण्यंमार्दवंगाम्भीर्य्यमनवस्थितत्वमित्येवमादयश्चान्यते सत्त्वजाविकारायानुत्तरकालंसत्त्वभेदमधिकृत्यउपदेक्ष्यामइति सत्त्वजानि । नानाविधानितखलुसत्वानितानिसर्वाणिएक
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(७०७
शारीरस्थान-अ०.३. पुरुषभवन्तिनचभवन्तिएककालम्, एकन्तुप्रायोऽनुवृत्त्याह । एवमलानाविधानालेषांगर्सकराणांमावानांसमुदायादाभिनिवर्ततेगर्सः ॥ २१॥
गर्भके वीचमें सत्यसे उत्पन्न होनेवाले जो भाव होतेहैं उनको वर्णन करतेहैं।भक्ति, सुशीलता, शौच, वेष, स्मृति, मोह, त्याग, मात्सर्य, शूरता, भय, क्रोध, तंद्रा, उत्साह, क्षीणता, मृदुता, गंभीरता, चंचलता तथा अन्य भी. इसीप्रकारके गुण सात्त्विक, राजस और तामस मनके भेदसे अनेक प्रकारके उत्तहं होत. । इनसवको आगे वर्णन करेंगे। सबसे उत्पन्न होनेवाले अनेक प्रकारके गुण होतेहैं। वह सब गुण एकही मनुष्यमें पायेजातेहैं परन्तु एककालमें सतोगुण तमोगुण
और रजोगुण एकही पुरुषमें नहीं होसकते । यद्यपि सब मनुष्योंमें प्रायः तीनगुणज्ञा संयोग होताही है परन्तु जिसमें जिसगुणकी अधिकता होती है उसको उसी गुणसे प्रधान मानाजाताहै । (सतोगुणके केवल प्रकाश होनेसे रजोगुण और तमोगुण नष्ट होकर मोक्ष होजाताहै । ) इसप्रकार गर्भकर्ता भावोंके समुदायसेही गर्भकी उत्पत्ति होतीहै ॥ २१ ॥
यथाकूटागारंजानाद्रव्यसमुदायाद्यथावारथोनानारथाङ्गसमुदायात्तस्मादेतदवोचाममातृजश्चायंगर्भ:पितृजश्चात्मजश्चसाल्यजश्चरसजश्च । अस्तिसत्त्वमापपादिकमितिहोवाचभगवानात्रेयः ॥ २२॥ जैसे-कूयगार (घर विशेष) अनेक द्रव्योंके होनेसे बनाया जाताहै और रथ अनेक अंगोंके समुदायसे बनताहै उसीप्रकार गर्भभी गर्भोत्पादक संपूर्णभावोंके संबंधसेही उत्पन्न होताहै इसलिये कहते हैं कि गर्भ मातृज, पितृज, आत्मज, साल्स्यज तथा रसज होताहै। एवम् सत्त्वसंज्ञक मन उसके संबंधको उत्पन्न करनेबाला होताहै इसप्रकार भगवान आत्रेयजीने कथन कियाहै ॥ २२ ॥
भरद्वाजका प्रस्ताव । भरद्वाजउवाच । यद्ययमेषांनानाविधानांगर्भकराणांभांवानां समुदायादसिनिर्वर्त्ततेगर्म कथमयंसन्धीयते । यदिचापित न्धीयतेकस्मात्समुदायप्रभवःसन्गोमनुष्यविग्रहणजायतेमा नुष्यश्चमनुष्यप्रभवउच्यते । तत्रचेदिष्टमेतद्यस्मोन्मुनुष्योमा
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चरकसंहिता - भा० टी० !
नुष्यप्रभवस्तस्मान्मनुष्यविग्रहेणजायते । यथागगप्रभवः यथाचाश्वोऽश्वप्रभवइत्येवंयदुक्तसप्रेस सुदायात्मकइतितदयु - क्कंयदिचमनुष्योमनुष्यप्रभवः कस्ता जडान्ध कुन्ज सूकवा मन - मिन्मिनव्यङ्गोन्मत्त कुष्ठकिलासिभ्याजाताः पितृसदृशरूपानभ: वन्ति । अथात्रापिबुद्धिरेवंस्यात्स्वेनैवायमात्माचक्षुषारूपाणि
( ७०८ )
चेत्तिश्रोत्रेणशब्दान्प्राणेनगन्धान्रसनेन रसान्स्पर्शनेन स्पर्शान बुद्धबा बोद्धव्यमित्यनेन हेतुनाजडादिभ्योजाताः पितृसदृशाः भवन्ति । अत्रापिप्रतिज्ञाहानि दोषः स्यादेवमुक्केह्यात्मासत्स्विन्द्रियेषुज्ञः स्यादसत्स्वज्ञोयत्रचैतदुभयं सम्भवतिज्ञत्वमज्ञत्वञ्च सविकारप्रकृतिकश्चात्मनिर्विकारोज्ञश्च । यदिचदशनादभिरात्माविषयान्वेत्तिनिरिन्द्रियोदर्शनादिविरहादज्ञः स्यादज्ञत्वाञ्चकारणमकारणत्वाच्चानात्मेतिवाग्वस्तुमात्रमेतद्वचनमनर्थकंस्यादितिहोवाच भरद्वाजः ॥ २३ ॥
यह सुनकर भरद्वाज कहने लगे कि यदि अनेक प्रकारके गर्भकारक भावोंके समु दायसेही गर्भकी उत्पत्ति होती है तो यह गर्भ सबसे मिलाहुआ किसप्रकार होता है - अर्थात् यह सब भाव गर्भ में किसप्रकार मिलजाते हैं । और मिलजानेपर भी इनके समुदाय से मनुष्य के आकारका किस प्रकार होजाता है अर्थात् वह गर्भ मनुष्यरूपमें किस प्रकार प्रगट होता है । और इन संपूर्ण भावों से उत्पन्न हुआ गर्भ मनुष्यसे मनुष्य हुआ कैसे कहा जाता है। यदि आप ऐसा मानते हैं कि मनुष्यसे मनुष्य प्रगट होता है यह मनुष्य विग्रहसे अर्थात् जैसे- गौसे गौ, घोडेसे घोडा, पशु जगतमें उत्पन्न होता है । इसीप्रकार मनुष्यसे मनुष्यके आकारवाला गर्भ होता है । तो जो पहिले आत्मादिक समुदायले गर्भकी उत्पत्ति कह आये हैं वह अयुक्त होजायगा और मनुष्यसे मनुष्य - मनुष्य के आकारही पैदा होता है तो क्या कारण है कि माता पिता उस प्रकारके न होतेहुए भी संतान उनके आकारकी नहीं होती । जैसे जड, अधा, कुवडा, गूंगा, बवना, मिनमिनाह, व्यंग, उन्मत्त, कुष्ठी और किलास आदि रोगवाले मनुष्यों की संतान अपने मातापिताके समान अंधी, कुबडी आदि क्यों नहीं होती यदि इनमें भी आपका ऐसा भाव हो कि मातापिताके किसी इन्द्रियहीन होनेसे संतानके मनुष्यत्वमें फर्क नहीं पडता आत्मा अपने नेत्रद्वारा रूपको देखता
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शारीरस्थान-अ० ६. (७०९) है, कानसे शब्द सुनताहै, नासिकास गंधको सूंघताहै, जिज्ञासे रसको लेताहै, स्पर्शनेन्द्रियसे स्पर्शका ज्ञान फरताहै, बुद्धिसे वोध करताहै अर्थात् जानताहै इसलिये जडआदिकोंकी संतान मातापिताके समान जडसादि दोषोंवाली नहीं होती तो इस तरह कहनेसे भी आपके पक्षी हानि होतीहै । और प्रतिज्ञाहानिका दोष आताहै। क्योंकि ऐसा कहनेसे यह सिद्ध होजायगा कि इन्द्रियें होनेसे आत्मज्ञानी है तथा किसी इन्द्रिय नष्ट होनेसे आत्मा सूर्ख होजायगा। जिसमें ज्ञान उत्पन्न हाना और ज्ञान नष्ट होना यह दो भाव आजायेंगे तो आत्मा निर्विकार न कहा जाकर विकार प्रकृति अथवा प्रकृतिका विकार सिद्ध होजायगा । क्योंकि ज्ञानी आत्माही निर्विकार होताहै । यदि ऐसा कहो कि, दर्शन आदि इन्द्रियों द्वारा आत्मा विषयोंको ग्रहण करता है अर्थात् उनको इन्द्रियोंद्वारा जानताहै तो इन्द्रियोंके विना दर्शनादि ज्ञान न होनेसे आत्माको अज्ञ मानना होगा । आत्मा अज्ञ सिद्ध होजानेसे कारण न माना जायगा। कारण न माना जानेसे अनात्मा सिद्ध होजायगा । फिर आपका यह जितना कथन है सब वकवादमात्र और अनर्थक 'सिद्ध होजायगा । इसमकार कुमारशिरा भरद्वाजने कहा ॥ २३ ॥ .
आत्रेयजीका उत्तर । आत्रेयउवाच । पुरस्तादतत्प्रतिज्ञातंसत्त्वंजीवस्पृक्शरीरेणामिसम्बनातीति । यस्मात्तुसमुदायप्रभवःसन्ग मनुष्यविग्रहे
णजायतेमनुष्यश्चमनुष्यप्रसवइत्युच्यतेतद्वक्ष्यामः ॥ २४ ॥ यह सुनकर आत्रेय भगवान् कहने लगे कि यह तो हम प्रथम ही कथन कर चुके हैं कि सत्त्वसंज्ञक मन-अनेक द्रव्योंके समूहरूप शरीरसे जीवका संबंध उत्पन्न कर देताहै अर्थात् सत्त्व-स भावोंको आत्मासे मिलादेताहै और जिस प्रकार द्रव्योंक समूहसे बने हुए गर्भका मनुष्य देहके साथ जन्म लेता है तथा जिसप्रकार मनुष्यसे मनुष्य उत्पन्न होताहै उसका वर्णन अव करतेहैं ॥ २४॥
सतानांचतुर्विधायोनिर्भवतिजरायबण्डस्वेदोद्भिदः। तासांखः । लुचतसृणामपियोनीनामेकैकायोनिरपरिसंख्येयभेदाभवतिभूतानामाकृतिविशेषापरिसंख्ययत्वात्।तत्रजरायुजानामण्डजानां प्राणिनामतेगर्भकराभावायांयांयोनिमापद्यन्तेतस्यांतस्वांयानो तथातथारूपासवन्ति । तद्यथा कनकरजतताम्रपुंसीसाआ: सिच्यमानास्तेषुतेषुमधूच्छिष्टबिम्वेषुतयेदामनुष्यबिम्बमाप- .
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(७१०)
चरकसहिता-मा० टी० द्यन्तेतदामनुष्यविग्रहेणजायन्ते । तस्मात्समुदायात्मकःसन्याभोमनुष्यविग्रहेणजायतेमनुष्योमनुष्यप्रभवइत्युच्यतेतयोनिद. त्वात् ॥ २५॥
सम्पूर्ण प्राणीमात्रकी जरायुज, अण्डज, स्वेदज और औद्भिद यह चार प्रका. रकी योनि है इन चार प्रकारकी योनियोंके अनेक और असंख्य भेद होतेहैं।क्योंकि प्राणियोंके आकार विशेषभी असंख्य होते हैं। उन चारोंमें जरायुज और अंडज प्राणियोंके यह गर्भकारक भाव जिस जिस योनिमें प्राप्त होतेहैं उसीउसी योनिके अनुरूप अपने अपने गठनको प्राप्त होतेहुए उनके अनुसार बनावटके होजातेहै । जैसे-एक मनुष्यके अनुरूप सांचमें सोना, चांदी, तांबा, रांगा, सीशा अथवा मोम गलाकर ढालदेनेसे मनुष्यके आकारको प्रतिमाको प्राप्त होजातेहैं । उसीमकार गर्भकारक संपूर्ण भावोंका समुदाय-मनुष्य आकारके रचनेवाली योनिमें पडजानेसे मनुष्यसे मनुष्य उत्पन्न होताहै क्योंकि वह मनुष्ययोनि होनेसे मनुष्यही. होसकताहै ॥ २६ ॥
यचोक्तंयदिचमनुष्योमनुष्यप्रभवः कस्यान्नजडादिभ्योजाताः पितृसशरूपाभवन्तीतितत्रउच्यते यस्ययस्यहिअगावयव. स्यबीजेबीजभावउपतप्तोभवतितस्यतस्याजावयवस्यविकृतिरुपजायतेनउपजायतेचअनुतापात्तस्मादुमयोपपत्तिरपिअवस--
वस्यचात्मजानिइन्द्रियाणितेषांसावाभावहेतुर्दैवंतस्मान्नैकान्त... तोजडादिभ्योजाताःपितृसशरूपाभवन्ति ॥ २६ ॥
और यह जो आपने कहा है कि जब मनुष्यसे मनुष्य प्रगट होताहै तो ज़डादिकांकी संतान उनके समान जड, अंधी,कुबडी, आदि क्यों नहीं होती तो उसका यह स्पष्ट उत्तर है कि बीजके संपूर्ण अंगों में बीजकी शक्ति है उस बीजके जो अंश,. अवयव खराब होजातेहैं संतानके भी उन्हीं अंश या अवयवोंमें विकार उत्पन्न होजातेहैं यदि बीजमें किसीप्रकारका · कोई विकार नहीं है तो उससे उत्पन्न होनेवाली संतानमें भी कोई विकार नहीं होते। क्योंकि जड आदिकोंक वीर्यमें विकार न होनेसे उस वीर्यसे उत्पन्न होनेवाली संतानमें भी कोई विकार उत्पन्न नहीं होते। उस वीर्यमेंही प्रमेहादि दोष होनेसे संतानकोभी प्रमेहादि दोष होतेहैं । इससे आपके कहेहुए दोनों प्रश्नोंका उत्तर दिया जाचुका।सबकी सब इंद्रिय आत्मज होतीहैं और उनके साथ पूर्वजन्मके कर्मका संबंध होताहै । वह पूर्वजन्मक. .
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शारीरस्थान-अ० ३.
(७११) कर्मही इन्द्रियों के भावाभावका कारण है ।अर्थात् किसी पूर्वजन्मके पापकर्मके प्रभा बसे वैसाही संयोग मिलकर इन्द्रियोंका विघात होताहै पूर्वजन्मकृत कोई उस प्रका. रका पापकर्म न होनेसे इन्द्रियों में कोई विकार नहीं होसकवा । इसीलिये जड़ादि. कोंसे उत्पन्न हुई संतानके रूप पितामाताक समान नहीं होते ॥ २६ ॥
नचालासस्स्विन्द्रियेषुअज्ञोऽसत्लुवासवत्यज्ञोनालस्वःकदाचिदात्मासंत्वविशेषाचउपलायतज्ञानविशेषति॥ २७॥
आत्मा इन्द्रियों के होनेसे ज्ञाता और इन्द्रियोंके न होनेसे अज्ञाता नहीं होसकता क्योंकि आत्मा मनसे रहित कभी नहीं होता। इसलिये वाह्य इन्द्रियके नष्ट होने पर भी मनयुक्त आत्माको ज्ञानकी उपलब्धी होती रहती है ॥ २७ ॥
भवतिचात्र । नकर्तुरिन्द्रियाभावात्कार्यज्ञानप्रवर्तते। यैः क्रियावततेयातु साविनातनवर्तते ॥ २८॥ जानन्नपिमृदोभावात्कुम्भकृन्नप्रवर्त्तते । श्रूयताश्चेदमध्यात्ममात्मज्ञानवलंमहत् ॥ २९ ॥ यहां कहा कि इन्द्रियोंका अभाव होनेसे कत की कार्यज्ञानमें प्रवृत्ति नहीं होती। क्योंकि जो किया जिसके द्वारा होसकती है वह उसके विना हो ही नहीं सकती जैसे कुम्हार घटके बनानेकी क्रियाको जानता हुआ भी मट्टीके बिना उसके बनाने के लिये प्रवृत्त नहीं होबा । सो तुम इस महत् अध्यात्म ज्ञानके बलको अवण करी ।। २८ ॥ २९ ॥
देहन्द्रियाणिसंक्षिप्यमनःसंग्रह्मचञ्चलम् । प्रविश्याध्यात्ममा- .. त्मज्ञःस्वेज्ञानेपर्य्यवस्थितः ॥ ३० ॥ सर्वत्र विहितज्ञानःसर्वभावान्परीक्षते । गृह्णीष्ववेदमपरंभरद्वाजविनिर्णयम् ॥ ३१॥
आत्माको जाननेवाला बुद्धिमान् देह और इन्द्रियोंको वशमें करके मनकी चंच लताको रोककर अध्यात्म तत्वोंमें प्रवेश करके अपने ज्ञानको अर्थात् आत्मज्ञानकों प्राप्त होजाताहै । फिर वह सर्वज्ञ सवका पूर्णज्ञान रखतेहुए अहवज्ञान द्वारा संपूर्ण भावोंकी परीक्षा करता है।हे भरद्वाज! एक और विनिर्णयको श्रवण करो३०॥३१॥ निवृत्तेन्द्रियवाक्चेष्टःसुप्तःस्वप्नगतोयदा । विषयान्मुखदुःखेच वेत्तिनाज्ञोऽप्यतःस्मतः॥३२॥ नात्माज्ञानाहतेचैकंज्ञानंकिञ्चित्प्रवर्तते । नोकोवर्ततेभावोवततेनाप्यहेतुकः॥३३॥ १ भरद्वाजचन्दनेह नात्रेयगुरुरुच्यते किन्तु अन्य एव भरद्वाजगोत्रः कश्चित् ।
है कि इन्द्रियोकासक द्वारा होतका जानता हुआअध्यान
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( ७१२)
चरकसंहिता - मा० टी० ।
जब मनुष्यकी इन्द्रिय तथा वाक्चेष्टा निवृत्त होजाती हैं और मनुष्य सोजाता है उस अवस्थामें भी सुखदुःखको ग्रहण करता है अर्थात् सोजानेपर इन्द्रिय आदिकोंकी चेष्टा बंद हो जाती है उस समय भी यह सुखदुःखका स्वप्नावस्थामें अनुभव करता है इसलिये इसको अज्ञ नहीं कहना चाहिये | आत्मज्ञानके विना कोई भी ज्ञान स्वतंत्र नहीं है, और कोई भाव बिना किसी हेतुके स्वयं अकेला प्रवृत्त नहीं होता। तात्पर्य यह हुआ कि इन्द्रिय आदि व्यापार और चंचलताको वंशमें करलेनेसे मनुष्यको साक्षात्कार ज्ञानका प्रकाश होजाता है । और इन्द्रियोंके रुक जानेपर भी यह मनुष्य स्वप्नावस्थामें अनेक प्रकारके ज्ञानका अनुभव करता रहता है । इसलिये आत्मा कभी भी अज्ञानी नहीं कहा जासकता ॥ ३२ ॥ ३३ ॥
तस्माज्ज्ञःप्रकृतिश्चात्माद्रष्टाकारणमेवच ।
सर्वमेतद्भरद्वाज ! निर्णीतंजहिसंशयामीति ॥ ३४ ॥
सो इसप्रकार ज्ञेय, प्रकृति, आत्मा, द्रष्टा और कारण इन सबके समुदायका • वर्णन कियागया है । अब तुम संशयको त्यागदो ॥ ३४ ॥
अध्यायका संक्षिप्तवर्णन |
हेतुगर्भस्य निवृत्त वृद्धौजन्मनिचैव यः । पुनर्वसुमतिर्याचभरद्वाजमतिश्वया ॥ ३५ ॥ प्रतिज्ञाप्रतिषेधश्वविशदश्चात्मनिर्णयः । गर्भावक्रान्तिमुद्दिश्यखड्डी कंसम्प्रकाशितम् ॥ ३६ ॥ इतिखुड्डीकागर्भावसंक्रांतिः शारीरः समाप्तः ॥ ३ ॥
: यहां अध्याय की पूर्ति में दो श्लोक हैं कि इस खुड्डीकागर्भावक्रान्ति शारीर नामक अध्यायमें गर्भकी उत्पत्ति, कारण, वृद्धि और जन्म, इन सबके हेतु, आत्रेय भगवान्का मत और भरद्वाजका प्रस्ताव, प्रतिज्ञा, प्रतिबंध, स्पष्ट निर्णय, यह सब विधिवत् दर्शन किये गये हैं ॥ ३५ ॥ ॥ २६ ॥
इति श्रीमहर्षिचरक शारीरस्थाने भाषा • खुड्डी कागर्भावक्रान्तिशारीरं नाम तृतीयोऽध्यायः ॥ ३॥
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शारीरस्थान-अ०४.
. (७१३)
चतुर्थोऽध्यायः।
अथातो सहतींगविक्रांतिशारीरंव्याख्यास्यास इति हस्माहभगवानात्रेयः। यव हम महत्ती गर्भावक्रांति शारीरकी व्याख्या करते हैं इसप्रकार भगवान आने कथन करनेलगे।
आत्रेयजीकी प्रतिज्ञा। यतश्चगर्भःसम्भवतियस्मिंश्चगर्ससंज्ञायद्विकारश्चगोयथाचानुपूर्व्याभिनिवर्ततकुक्षीयश्चास्यवृद्धिहेतुर्यतश्चास्यावृद्धिर्भवतियतश्चजायमानःकुक्षौविनाशंप्राप्नोतियतश्चकात्स्न्येलाविनश्यन्विकृतिमापद्यतेतदनुव्याख्यास्यामः ॥१॥ जिससे गर्भ उत्पन्न होताहै जिसलिये उसकी गर्भसंज्ञाहै, जिन द्रव्योंके रूपान्तर होनेको गर्भ कहतेहैं, जिस प्रकार कुक्षीमें गर्भ प्राप्त होताहै, जो उसके बढनेके हेतु हैं जिप्तप्रकार वह वृद्धिको प्राप्त नहीं होता, निकारणोंसे गर्भ उत्पन्न होकर भी कुक्षीमें ही नष्ट होजाताहै, जिनकारणोंसे सम्पूर्ण नष्ट न होकर विकृत होजाताहै इनसवको हम क्रमपूर्वक वर्णन करतेहैं ॥१॥
गर्भकी उत्पत्तिका कारण । माततापिततआत्मतःलात्स्यतो रसतःसवतइत्येतेभ्योभावेक्यासमुदितेभ्योगर्भःसम्भवति । तस्यययेऽवयवायतोयतः सम्भवतःसम्भवन्तितान्विभज्यसातजादीनवयवान्पृथकपथगुरुमग्रे । शुक्रशोणितजीवसंयोगेतुखलुकुक्षिगतेगर्भसंज्ञा भवति ॥ २॥ यह गर्भ माता, पिता, आत्मा, सात्म्य और रस तथा सत्त्व इन सब भावोंसेही उत्पन्न होताहै । उस गर्भके जो २ अवयव जिसजिस प्रकार जैसे २ उत्पन्न होतेहैं उनसबके मातृज आदि अवयवोंको विभागपूर्वक अलग अलग प्रथम कथन करचुकेहैं । वीर्य और रजके तथा जीवका संयोग होकर कुक्षीमें प्राप्त होनेका नामही: गर्भ है ॥२॥
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1७१४) . चरकसंहिता-भा० टी०।
गर्भके वैकारिक द्रव्य । . गर्भस्तुखलुअन्तरिक्षवावशितोयभूमिविज्ञारश्चेतनाधिष्ठान
भूतएवमनौवयुच्यापञ्चमहाभूतविकारलसुदापासकोगीश्चतनाधावधिष्ठानसूतःलाल्यषष्ठोधातुरुतः ॥३॥
वह गर्भ-आकाश, वायु, आग्ने,जल, पृथ्वी और चेतनाका अधिष्ठानभूत है।इस लिये गर्भ-पञ्चमहाभूतोंके विकारोंका समुदायात्मक है और चेतनाधातुका अधिठानभूत है । वह चेतनाही गर्भकी छठी धातु मानीजातीहै ॥ ३ ॥
गर्भकी आनुपूर्विक उत्पत्ति । यथात्वालुपूाभिनिवर्ततेकुक्षौतदनुव्याख्यास्यामः । गते पुराणेरजलिनवेचअवस्थितप्नःशुद्धस्नातांत्रियमव्यापचयोनिशोणितगर्भाशयामृतुमतीमाचक्ष्महेतयातहतथाभूतयायदा पुमानव्यापनबीजोमिश्रीभावंगच्छतितस्यहषोंदीरितःपरःशरीरधात्वात्माशुक्रभूतोऽङ्गादङ्गात्सम्भवति । स तथाहर्षसूतेनात्मनोदीरितश्चअधिष्ठितचीजधातुःपुरुषशरीरादभिनिष्पद्योदितेनहितेनपथागर्भाशयमनुप्रविश्यातवेनाभिसंसर्गमेति । तत्र पर्वचतनाधातुःसत्त्वकरणोगुणग्रहणायपुनःप्रवर्तते । सहिहेतु:कारणंनिमित्तसक्षरकर्तासन्तावेदिताबोद्धाद्रष्टाधाताब्रह्माविश्वकर्माविश्वरूपःपुरुषःप्रभवोऽव्ययोनित्यःगुणीग्रहणंप्राधान्य. मव्यक्तंजीवोज्ञःप्रकुलश्चेतनावान्विभुर्भूतात्माचेन्द्रियात्माचान्तरात्माचेति॥४॥ जिसप्रकार आनुपूर्विक क्रमसे कुक्षीमें गर्भ उत्पन्न होकर परिणत होताहुआ वृद्धिको प्राप्त होताहै अब उसका वर्णन करतेहैं । जब स्त्री प्राचीन रजके निवृत्त हानेसे नवीन रजोदर्शन होनेके अनन्तर शुद्धस्नान करलेतीहै और रजके साफ होजानसे उसकी योनि स्रावराहत होकर गर्भाशय शुद्ध होताहै । उससमय वह स्त्री गम. नीया अर्थात् पुरुषके सहवासयोग्य होतीहै । उस स्त्रकेि साथ शुद्धवीर्यवाले पुरुषका संयोग होकर शरीरकी सम्पूर्ण धातुओंका सारभूत वीर्य आनन्दके कारण शरीरभेसे प्रचलित होताहै । वह वीर्य आनन्दयुक्त आत्मासे उदीरित हुआ जीवधातु पुरुषके शरीरसे निकलकर उसी रास्तेसे गर्भाशयमें प्रवेश हो शुद्ध आर्तर:
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शारीरस्थान-अ० ४.
(७१५) (मासिक का शुद्धरज) से मिलजाताहै। वह चेतनाधातु सस्वसंज्ञक मनरूप कर• णसे युक्त होकर गुण ग्रहण करने में प्रथम प्रवृत्त होता है । इसीलिये यह कारण, निमित्त, अक्षर, कर्ता, मंता, वेदिता, बोद्धा, द्रष्टा, धाता, ब्रह्मा, विश्वकर्मा, विश्वरूप, प्रभव, अव्यय, नित्य,गुणी, ग्रहणकता. प्रधान, अव्यक्त, जीव, ज्ञाता, . अकुल, चेतनावान, विशु, भूतात्मा इन्द्रियात्मा और अन्तरात्मा कहाजाताहै ॥४॥
सगुणोपादानकालेऽन्तरिक्षपूर्वतरमन्येभ्योगुणेभ्यउपादत्तेयथा प्रलयात्वयसिसृक्षुभूतान्यक्षरभूतःसत्त्वोपादानंपूर्वतरमाकाशे . सृजति । ततःक्रमेणव्यक्ततरगुणान्धातून् वाम्बादश्चितुरः । तथादेहग्रहणेऽपिप्रवर्त्तमानःपूर्वतरमाकाशमेवोपादत्तेततःकले. णव्यक्ततरगुणान्धातून्वाय्यादींश्चतुरः। सर्वमपितुखल्वेतद्गुगोपादानमणुनाकालेनभवति ॥ ५॥ वह चेतनाधातु गुण ग्रहण करनेके समय और अन्य गुण ग्रहण करनेसे प्रथम आकाशको ग्रहण करके रहताहै । जैसे-विधाता प्रलयके अनन्तर सृष्टि रचना कर.. नेकी इच्छासे सत्त्वोत्पादन करनेसे प्रथम आकाशको रचताहै फिर उस आकाशमें क्रमपूर्वक वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी इन व्यक्तगुणोंवाली धातुओंको रचताहै । उसीप्रकार देहको ग्रहण करने में प्रवृत्त होनेकी इच्छावाला आत्मापहिले आकाशको ग्रहण करताहै फिर क्रमसे वायु,आदि चार व्यक्तधातुओंके गुणोंको ग्रहण करताहै। यह संपूर्णही गुणोंका उपादान अर्थात् ग्रहण करना अणुकाल द्वारा होताहै ॥५॥
गर्भकी पहिली अवस्था । ससर्गगुणवान्गर्भत्वमापन्नःप्रथमेमासिसंमूर्छितःसर्वधातुकलुषीकृतःखेटभूतोभवतिअव्यक्तविग्रहःसचसदसद्भूतांगाव
यवः॥६॥ . वह चेतनाधातु 'इसप्रकार गुणोंको ग्रहण कर गर्भवको प्राप्त होजाताहै।
है। जो जन्म महनिमें संमूच्छित हुआ संपूर्ण धानुओंसे कलुषित होकर कफके समान, होताहै । इस अवस्थामें इसका शरीर दिखाई नहीं देता । वह प्रथम म
मन्द्रयहानि आदि लभूत गाढासा क्लेद अंगावयवकी सूक्ष्म सत्तासे युक्त होताहै ॥ ६॥
" १ "से अनित्य होतेहैं। द्वितीयेमासिघनःसम्पद्यतेपिण्डंपेक्ष्यर्बुदेवातत्रधनः लक्षण दिखाई देते पेशीअर्बुदनपुंसकम् ॥७॥
। होतेहैं ॥ १६ ॥
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( ७१६ )
चरकसंहिता - भा० टी० ।
दूसरे महीने में धन होकर पिंडके आकारका वनजाता है । यदि पुरुपका शरीर होना हो तो वह पिंड गोल होजाता है । और स्त्रीका हो तो लम्बी मांसपेशीसी हो जा सीहै । और नपुंसक होना हो तो अर्बुद (बुलबुला ) के समान होता है ॥ ७ ॥ तृतीये मासि सर्वेन्द्रियाणि सर्वाङ्गावयवाश्च यौगपद्येन अभिनिर्वर्त्तन्ते ॥ ८ ॥
तीसरे महीने में सम्पूर्ण इन्द्रियां और सर्वांगावयव एककालमें ही प्रगट जाते हैं ॥ ८ ॥
तत्रास्य केचिदङ्गावयवा मातृजादी नवयवान्विभज्यपूर्वमुक्कायथावन्महाभूतविकारप्रविभागेन तुइदानीमस्यतांश्चैव अङ्गावयवान्कांश्चित्पर्य्यायान्तरेणपरांश्चअनुव्याख्यास्यामः ॥ ९ ॥
उसव अंगावयवों में जो मातृज आदिक अंगावयव होते हैं उनको तो हम क्रमपूर्वक प्रथमदी कथन करचुकेहैं । अन पांचमहाभूतोंके क्रमसे आकाशादिकोंकें जो धी अंग उत्पन्न होते हैं तथा अन्य भी जो अंग जिसप्रकार उत्पन्न होते हैं उनका वर्णन करते हैं ॥ ९ ॥
गर्भका आकाशात्मक अवयव । मातृजादयोऽप्यस्य महाभूतविकाराएवतत्रास्थाकाशात्मकंशब्दःश्रोत्रंलाघवं सौक्ष्म्यंविवेकश्च ॥ १० ॥
मातृज आदिक जितने गर्भके अंग होते हैं वह सब पांचमहाभूतोंकेही विकार हैं उन पांचो में शब्द, श्रोत्र, लघुता, सूक्ष्मता और विभाग अथवा छिद्र यह सब व्याकाशके विकार होते हैं । अर्थात् आकाशसे उत्पन्न होते हैं ॥ १० ॥
गर्भका वाय्वात्मक अवयव ।
वोय्वात्मकं स्पर्शः स्पर्शनञ्च रौक्ष्यं प्रेरणंधातृव्यूहनंचेष्टाश्चशा: रयिः ॥ ११ ॥
स्पर्श, स्पर्शनेंद्रिय, रूक्षता, प्रेरणा, धातुओंकी रचना और शरीरकी चेष्टा यह सब वायुके विकार हैं ॥ ११ ॥
गर्भका अग्न्यात्मक अवयव । अग्न्यात्मकरूपं दर्शनंप्रकाशः पक्तिरौष्ण्यञ्च ॥ १२ ॥
रूप, चक्षुन्द्रि प्रकाश, जठराग्नि और गर्मी यह सब अग्निके विकार हैं ॥ १२ ॥
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शारीरस्थान - अ० ४.
गर्भका जलात्मक अवयव ।
अवात्मकंरसोरसनंशैत्यंमादेवः स्नेहः क्लेदश्च ॥ १३ ॥
( ७१७ )
रस, जिह्वा, शीतलता, मृदुता, चिकनाई और गीलापन यह सब जलके विकार होते ॥ १३ ॥
गर्भका पृथिव्यात्मक अवयव । पथिव्यात्मकोगन्धः घाणंगौरवस्थैय्यं मूर्त्तिश्च ॥ १४ ॥
गन्ध, घ्राणेन्द्रिय, भारीपन, स्थिरता और मूर्त्तता यह सब पृथिव्यात्मक विकार हैं ॥ १४ ॥
एवमंय लोकसम्मतःपुरुपः । यावन्तोहि लोके भावविशेषाःतावन्तः पुरुषेयावन्तः पुरुषेतावन्तोला केइतिबुधास्त्वेवं द्रष्टुमिच्छंति ॥ १५ ॥
इसप्रकार यावन्मात्र लोकसंमित पुरुष हैं और जितने भाव विशेष जिस जिस्स प्रकार जिस जिस महाभूतके पूर्व में होते हैं वह सव वाह्यजगत् में देखेजातें हैं । ज्ञानि योंने इस प्रकार पंचभौतिक विकारोंका दृश्य कथन किया है ॥ १५ ॥
एवमस्येन्द्रियाणिअङ्गावयवाश्च यौगपद्येनाभिनिर्वर्त्तन्ते अन्यत्र तेभ्यो भावेभ्योयेऽस्यजातस्योत्तरकालंजायन्तेतद्यथा, दन्ता. व्यञ्जनानिव्यक्तीभावः तथायुक्तानि चापराणिएषाप्रकृतिविकतिः पुनरतोऽन्यथा । संतिखलअस्मिन्गर्भेनित्याभावाःसंतिचा-नित्याः तस्ययएवाङ्गावयवाः संतिष्ठन्तेतएव स्त्रीलिङ्गं पुरुषलिङ्गनपुंसकलिङ्गवाबिभ्रति ॥ १६ ॥
इसप्रकार सम्पूर्ण इन्द्रियां और अंगावयव एकही कालमें उत्पन्न होजातेहैं परन्तु कुछ भाव इसप्रकार के होते हैं जो इसके जन्म लेनेके अनन्तर होते हैं। उन भावोंके सिवाय और सम्पूर्ण अंगावयव क्रमपूर्वक गर्भमेंही परिपूर्ण होजाते हैं । जो जन्म लेने उपरान्त भाव उत्पन्न होते हैं वह इसप्रकार हैं जैसे दांत, दाढी, मूंछ आदि। इनके सिवाय अन्य भी प्राकृतिकभाव उत्पन्न होते हैं । इससे विपरीत इन्द्रियहानि आदि विकृतभाव उत्पन्न होते हैं । गर्भके बहुतसे भाव नित्य होते हैं। बहुतसे अनित्य होते हैं। जिस अंगावयवोंसे स्त्रीके लक्षण पुरुषके लक्षण और नपुंसकके लक्षण दिखाई देते हैं । वह गर्भके भाव नित्य हैं और दांत आदि भाव अनित्य होते हैं ॥ १६ ॥
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( ७१८) चरकसंहिता-मा० टी०।
कन्या आदिका विशेषभाव।। ततःस्त्रीपुरुषयोपैवैशेषिकामानाःप्रधानसंश्रयागुणसंश्रयाश्चतेषां यतोमयस्त्वंततोऽन्यतरमावाल्यथालयंसीरुत्वमशारखंमो. होऽवस्थानसाधोगुरुत्वमसंहनशैथिल्यमार्दवंगर्भाशयवीजभागस्तथायुक्तानिचापराणिनीकराणि । अतविपरीतानिपुरुषकराणिउभयभागभावानिलपुंहककराणि । यत्ययकालमेवइद्रियाणिसतिष्ठन्तेतत्काललेवास्यचेतलिवेदनानिबंधनातो. ति। तस्मात्तदाप्रसुतिर्भःस्पन्दतेधार्थयतेचजन्मान्तरानुभ-. तमिहयत्किञ्चित्तद्वैहृदय्यमाचक्षतेवृद्धाः।मातृजञ्चास्यहदयंसातहृदयाभिलम्बद्धंरसवाहिनीभिःसंवाहिनामिस्तस्मात्तयोस्ताभिक्तिःसम्पद्यते । तचैवकारणमवेक्षमाणानद्वैतदय्यंविमानितंगर्भमिच्छन्तिकतुविमानेह्यस्यदृश्यतेविनाशो विकात्तिर्वा ॥१७॥ गर्भमें स्त्रीपुरुषके रज और वीयाश्रित भावोंमें स्त्रीके भावोंकी अधिकता होनेसे कन्या उत्पन्न होतीहै और पुरुषके भावोंकी अधिकता होनेसे पुत्र उत्पन्न होता। एवं दोनोंके बरावर होनेसे नपुंसक सन्तान होती है। उनमें कन्याके उत्पन्न करनेवाले ये भाव होतेहैं । जैसे कातरता,भीरुता, अचतुरता, मोह, चञ्चलता, अधोगुरु-ता, अदृढता, शिथिलता, मृदुता, और रजकी आधिक्यता आदिक भाव कन्याके उत्पन्न करनेवाले होतेहैं । इससे विपरीत सव भाव जैसे शौर्यता, शुक्राधिक्यता,
धैर्य, दृढता आदि पुत्र उत्पन्न करनेवाले भाव होतेहैं। दोनोंके बराबर होनेसे नपुं. •सक सन्तान होतीहै।जब गर्भ में इन्द्रिय उत्पन्न होजाती हैं उसी समयसे चित्तमें पीडा
आदि जाननेका संबंध उत्पन्न होजाताहै । जबसे इसको गर्भमैं पीडा आदि प्रतीत होने लगतीहै औरगर्भ फडकने लगजाताहै उसी समयसे यह जन्मांतरमें होनेवाले सुख दुःखोंका अनुभव करने लगजाताहै और जिस२ प्रकारकी इच्छा करताहै वह इच्छा माताके हृदय में पहुंचकर मातासेही उसी प्रकारकी इच्छाको उत्पन्न करताहै। गर्भका हृदय मात के हृदयके साथ रसवाहिनी नाडियाद्वारा संबंध रखताहै उन्ही रसवाहिनी नाडियोंके संयोगसे गर्भके हृदयकी इच्छा माताके हृदयमें पहुंचतीहै । उन भावोंको देखकरही गर्भवती स्त्रीको दौहृद (दोहृदयोंवाली) कहाजाताहै ! जिप्त प्रकारकी गर्भ के हृदयमें इच्छा उत्पन्न होती है माता उसी प्रकारकी इच्छाको
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शारीरस्थान- अ० ४.
(७१९) अगट करतीहै।इसलिये बुद्धिमान गर्भकी इच्छाका व्याघात कभी नहीं करते अर्थात् गर्भवती जिस पदार्थको चाहतीहै उसको वही देतेहैं । दौहिदके समय माताके इच्छित पदार्थ न मिलनचे गर्भमें विकार उत्पन्न होताहै।अथवा गर्भनाश होजाताहै ॥१७॥
समानयोगक्षेमाहिलातातदागसेंणकेचिदई तस्माप्रियहितास्यांगर्भिणीविशेषेणोएचरान्तकुशलाः॥१८॥ माता और गर्भ यह दोनों समान योगक्षेम हैं अर्थात् माताका हित होनेसे गर्भका भी हित होता है और माताका अहित होनेसे गर्भ में भी विकार उत्पन्न होजा. ताहै । इसलिये बुद्धिमान मनुष्य गर्भवती स्त्रीके प्रियकर्ता पदार्थोसे और हित उप. पारसे इच्छा पूर्ण करते रहते हैं ॥ १८ ॥
दौदलक्षण । तस्याहृदय्यस्यचविज्ञानालिङ्गानिसमासलउपदेक्ष्यामः १९॥ उस स्त्रीके दौहृद जानने के लिये लक्षण और उसकी रक्षाके लिये हितउपा--- योंका संक्षेपसे वर्णन करतहैं ॥ १९ ॥
उपचारसंवोधनंह्यस्याज्ञानेदोषज्ञालश्चलिङ्गतस्तस्मादिष्टोलि. झोपदेशस्तद्यथाआवादर्शनमास्यसंलवणमनन्नामिलापश्छ- . दिररोचकोऽम्लकामताचविशेषेण । श्रद्धाप्रणयनञ्चोच्चावचेषु भावेषुगुरुगावत्वंचक्षुषोग्लोनिःस्तनयोःस्तन्यमोष्ठयोःस्तनसण्डलयोश्चकाष्र्ण्यमत्यर्थश्वयथुः पादयोरीषल्लोमराज्युगमायोत्याश्चाटालत्वमितिगर्भपागतरूपाणिभवांत ॥ २०॥ क्योंकि गर्भवतीके लक्षणोंको न जाननेसे और उपचारको न जाननेसे गर्भ में अनेक प्रकारकी वाधा होसकतीहैं। इसलिये लक्षणोंसे ज्ञानकी उत्पत्ति के लिये उन लक्षणोंका वर्णन करतेहै अर्थात् गर्भवती स्त्रीके यह लक्षण होत । जैसे-मालि. कऋतुका न दीखना, मुखले पानीका गिरना, अन्न अच्छा न लगना, छर्दी होना, अरुचि और खट्टे पदार्थों की इच्छा होना, ऊंच और नीचभावों में श्रद्धा होना और इच्छा होना, शरीरका भारी होना, नेत्रों में ग्लानि होना, स्तनोंमें दूधकी प्रवृत्ति होना, दोनों ओष्ठ और स्तनोंके मुख काले होना, पावोंपर सूजन होना, योनिका बंद होना, किंचित् रोमांच होना यह सब लक्षण पूर्णगर्भवतीक होतेहैं ॥२०॥
गर्भनाशक भाव । सा यद्यदिच्छेत्तत्तदस्यदद्यादन्यत्र गर्भोपघातकर याभाडे- '
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• ७२०) चरकसंहिता-भा० टी०
श्यः न पधातकरास्त्विमे भावाः तयथासर्वसतिगुरूष्णतीक्ष्णदारुणाश्चचेष्टाइमांश्चान्यानुपदिशन्तिवृद्धाः । देवतारक्षोऽनुचरपरिरक्षणार्थनरक्तानिवासालिबिभृयात्रसदकराणि चाद्यान्नाभ्यवहरेन्नयानमधिराहेन्नमांसमश्नीयात्सर्वेन्द्रियप्रतिकलांश्चभावान्दूरतःपरिवर्जयेत् ॥ २१ ॥ वह गर्भवती जिनजिन पदार्थोंकी इच्छा करे उसको वही पदार्थ देने चाहिये । परन्तु जो द्रव्य गर्भको हानि पहुंचानेवाले हों वह नहीं देने चाहिये । गर्भको हान्नि पहुंचानवाले यह भाव हैं । जैसे अत्यन्तभारी, तीक्ष्ण और दारुण द्रव्योंका सेवन
और उल्टीपुल्टी चेष्टा करना । इनके सिवाय और भी भावोंको गर्भके हानिकारक कथन कियाहै । जैसे देवता और राक्षस तथा उनके अनुचर भी गर्भमें हानि पहुं. चातेहैं । इसलिये वृद्धजनोंने कहा है कि गर्भवती स्त्रीको रक्तवस्त्र धारण नहीं करने चाहिये और मदकारक द्रव्योंका सेवन नहीं करना चाहिये तथा सवारी आदिमें चढना, अतिवेगसे चलना, मांस खाना, एवम् इन्द्रियों के प्रतिकूल संपूर्ण भावोंको दूरसेही त्याग देना चाहिये ॥ २१॥
यच्चान्यदपिकिञ्चिस्त्रियोविदुस्तीबायान्तुखलुप्रार्थनावांकाममहितमप्यस्यहितेनोपसहितदद्यात्प्रार्थनाविलयनार्थम् । प्रा. र्थनासन्धारणाद्धिवायुःकुपितोऽन्तःशरीरमनुचर मानस्यविनाशंवैरूप्यंवाकुर्यात् ॥ २२॥ ... यदि किसी अहितकारक द्रव्यके ऊपर स्त्रीकी बहुत इच्छा चलती हो तो उसको वह द्रव्य किसी हितकारी द्रव्यके संयोगसे जिसप्रकार वह हानि न करसके दें देना चाहिये। क्योंकि गर्भवती स्त्रीकी तीव्र इच्छाको रोकनेसे गर्भमें दोष उत्पन्न होताहै और वायु कुपित हाकर बिगाड देताहै ॥ २२ ॥
चौथे महीनेमें गर्भके लक्षण । चतुर्थेमासिस्थिरत्वमापद्यतेगर्भस्तस्मात्तदार्भिणीगुरुगात्रत्वमधिकमापद्यतेविशेषेण ॥ २३ ॥ चौथे महीने में वह गर्भ दृढ होजासहै इसलिये गर्भवती स्त्रीका विशेषरूपसे शरीर भी भारी होजाताहै ॥ २३ ॥
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शारीरस्थान-अ०४.
(७२१) पांचवें महीनमें गर्भका लक्षण । पञ्चमेसालिगर्भस्यमांसशोणितोपचयोभवतिआधिकमन्येभ्यो मासेभ्यस्तस्मात्तनागर्भिणीकार्यमापयतेविशेषेण ॥ २४ ॥ पांचवें महीने में गर्भके मांस और रक्तकी वृद्धि अन्य महीनों से अधिक होती। इसलिये गर्भवती लीका शरीर विशेषतासे कृश होनेलगताहै ।।.२४ ।।
छठे महीने में गर्भका लक्षण ।। पष्ठेसालिगर्भस्यवलवर्णोपचयोभवतिअधिकमन्येभ्योमासेभ्यस्तस्मात्तदागर्भिणीवलवर्णहानिमापद्यतेविशेषेण ॥२५॥
छटवें महीने में गर्भके बल और वर्णकी अन्य महीनों से अधिक वृद्धि होतीहै । इसलिये गर्भवती स्त्री वल और वर्णकी हानि विशेषरूपसे होतीहै ॥ २५ ॥
सातवें महीने में गर्भलक्षण। सप्तमेमासिगर्भःसर्वभावराप्यायतेऽस्याः।
तस्मात्तदागर्भिणीसर्वाकारे क्लान्ततमाभवति ॥२६॥ सातवें महीने में संपूर्ण भाषोंसे गर्भ पुष्ट होजाताहै । इसलिये गर्भिणी सवप्रकारसे क्लान्त अर्थात् व्याकुलसी रहतीह ।। २६ ॥
आठवें महीनेमें गर्भके लक्षण । अष्टमेमासिगर्भश्चमातृतोगर्भतश्चमातारसवाहिनीभिःसंवाहिनीभिर्मुहुर्मुहुरोजःपरस्परतआददातिगर्भस्यासम्पूर्णत्वात्तस्मात्तदागर्भिणीमुहर्मुहुःसुदायुक्ताभवतिसुहुर्मुहुश्चग्लानातस्मात्तदागर्भस्यजन्सव्यापत्तिमद्भवत्योजलोनवस्थितत्वात्तश्चैवमः भिसमीक्ष्याप्टमंमासागर्भण्यमित्याचक्षतेकुशलाः ॥ २७॥
आठवें महीने में गर्भ गात से और माला गर्भसे सस वहन करनेवाली नाडियों द्वारा परस्पर ओलको ग्रहण करते । और गर्भ संपूर्ण होताह । इसलिये गर्भवती स्त्री वारंवार यानन्दयुक्त और वारंवार ग्लानियुक्तोगी जातीहै। उससमय गर्भ ओज.स्थिरभावसे नहीं होता । इमी.लये चुदिमानोंने अष्टग महीना बालकके उत्पन्न होने का नहीं माना है। क्योंकि आटो महीनेका उत्तन्न हुआ बाल गीत नहीं है ।। २७॥
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( ७२२ )
चरकसंहिता - भा० टी० 1
प्रसवका समय ।
तस्मिन्नेकदिवसातिक्रान्तेऽपिनवममा समुपादाय प्रसवकालमित्याहुरा दशमान्मासादेतावान्कालोवैकारिकम् ॥ २८ ॥
आठवें महीनेके उपरान्त नवम महोनेका एकदिन व्यतीत होनेपर भी नवां अहीनाही गिनाजाता है और वह प्रसवका समय मानाजाता है । नवमें मासके प्रथम दिनसे लेकर दशम महीने के अंततक प्रसूतका प्राकृत (ठीक) अर्थात् योग्य समय मानाजाताहै । फिर दशवेंके उपरान्त सव दिन वैकारिक समय माना जाता है ॥ २८ ॥
अतः परंकुक्षौस्थानंगर्भस्य । एवमनयानुपूर्व्याभिनिर्वर्तते कुक्षों ॥ २९ ॥
'गर्भका निवासस्थान कुक्षी है और उस कुक्षीमेंही इस पूर्वोक्त क्रमसे गर्भ प्रकट होता ॥ २९ ॥
मात्रादीनान्तुखलुगर्भकराणां भावानांसम्पदस्तथातिवृत्तस्य सौष्ठवान्मातृतश्चैवोपस्नेहो पस्वेदाभ्यां कालपरिणामात्स्वभाव
संसिद्धेश्च कुक्षौवृद्धिंप्राप्नोति । मात्रादीनान्तुखलुगर्भ कराणां भावानांव्यापत्तिनिमित्तमस्याजन्मभवति ॥ ३० ॥
माता आदि गर्भकारक भावका सम्पन्न होनेसे तथा हित आचारादिकों के सेवनसे, उपस्नेह और उपस्वेद के योगसे, तथा काल और स्वभावके प्रभावसे गर्भ कुक्षी में वृद्धिको प्राप्त होता है। और माता आदिके भावों केही संपन्न न होनेसे अथवा अनाचार के होनेसे गर्भका जन्म नहीं होता ॥ ३० ॥
येत्वस्य कुक्षौ वृद्धि हेतुसमाख्याताभावास्तेषां विपर्य्यया दुदरेविनाशमापद्यतेऽथवाप्यचिरजातः स्यात् ॥ ३१ ॥
गर्भको बढानेवाले भावों की प्राप्ति न होनेसे गर्म पेटमेंही नष्ट हो जाता है । याहूँ नष्ट न हो तो बहुत विलंब से उत्पन्न होता है ॥ ३१ ॥ यतस्तुकात्स्न्येनाविनश्यन्त्रिकति मापद्यते तदनुव्याख्यास्यामः ३२० जिन कारणों से गर्भ सर्वथा नष्ट न होकर विकारको प्राप्त होजाता है उनको कथन करते हैं ॥ ३५ ॥
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दूषित रक्तजन्य विकृतावयव ।
यदा. स्त्रियादोष प्रकोपनोकान्यास व माना या दोषाः प्रकुपिताःश
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शारीरस्थान - अ० ४.
( ७२३ )
रीरमुपसर्पन्तः शोणितगर्भाशय दूषयन्तितदायं गर्भलभतेत्री वदागर्भस्य मातृजानामवयवानामन्यतमोऽवयवोविकृतिमापद्य - ते एकोथवानेकः ॥ ३३ ॥
जव स्त्री दोषोंके कुपित करनेवाले पदार्थों को सेवन करती है तब उसके शरीरमें दोष कुपित होकर रक्तको और गर्भाशयको दूषित कर देते हैं। फिर जब वह गर्भकों - धारण करती है तो उस गर्भके मातृज अवयव अथवा अन्य अवयव एक अथवा - अनेक अवयव विकृत होजाते हैं ॥ ३३ ॥
यस्ययस्यह्यवयवस्यवीजेवीजभागेवादोपाः प्रकोपमापद्यन्तेतंतमवयवविकृतिराविशति ॥ ३४ ॥
गर्भके जिस २ वीजावयवको दोष दूषित करते हैं वही २ व्यवयव अर्थात् वही२ "हिस्सा विगड जाता है | ॥ ३४ ॥
यदाह्यस्याः शोणितगर्भाशयवजिभागः प्रदोषमापद्यतेतदावन्ध्यांजनयति । यदापुनरस्याः शोणिते गर्भाशयवजिभागावयवः प्रदोषमापद्यते तदापूतिप्रजांजनयति ॥ ३५ ॥
जब गर्भ में दोष वीर्यके रजभाग और गर्भाशयकर्त्ता वीजके भागको दोष दूषि तकर देते हैं तो इसको बन्ध्या कन्या उत्पन्न होती हैं। जब दोष स्त्रीके रजमें गर्भाशयके वीजभाव अवयवको दूषित कर देता है तब उस स्त्रीको दुर्गंधित संतान उत्पन्न होती है अथवा सड़ी गली होती है ॥ ३५ ॥
:
यदात्वस्याः शोणितगर्भाशयवीज भागावयवः स्त्रीकराणाञ्चशरीरवीजभागानामेकदेशःप्रदोषमापद्यते तदाख्यारूतिभूयिष्ठामस्त्रियंवतीनामजनयतितांस्त्रीव्यापदमाचक्षते ॥ ३६ ॥
जब उसके रजमें गर्भाशय वीजभाग को दूषित कर स्त्रीके शरीर के एक देश भागको दूषित कर देता तो योनिरहित स्त्रीके आकारवाली वार्तीक नामकी सन्तान उत्पन्न होती है इसप्रकार वीके गर्भाशयमें दोष कृपित होकर गर्भको हानि पहुंचाते हैं ॥ ३६ ॥८ दूषित शुक्रजन्य विकृतावयव ।
एवमेवपुरुषस्यबीजदोषेपितृजावयवविकृतिविद्याद्यदा पुनरस्य वीजेबीजभागावयवः प्रदोषमापद्यते तदापूतिप्रजांजनयति ॥३७॥
१ रान्ता इतिपाठान्तरम्
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(७२४)
चरकसंहिता-मा० टी०। इसीप्रकार पिताके बीज दोषसे पितृज अवयवों में विकृति होती है ।जब पुरुषके वीजमें बीजभागके अवयव दूषित होजाते हैं तब दुगंधित, सडीहुई, अथवा मरीहुई संतान उत्पन्न होतीहै ॥ ३७॥
यदात्वस्यबीजेबीजभागावयवःपुरुषकराणाञ्चशरीरवीजमानानामेकदेशःप्रदोषमापचतेतदापुरुषाकातिभूयिष्ठमपुरुषतणपूलिकनामजनयतितांपुरुषव्यापदमाचक्षते ॥३८॥ जब मनुष्यके बीजमें पुरुषकारक शरीरके बीजभागके एकदेशको दोष द्वारेवे कर देतेहैं तब इस पुरुषके चिह्नरहित और वर्यिरहित पुरुषके आकारवाला तृणपू.
लक नामकी संतान उत्पन्न होती है। इसप्रकार पुरुषके बीजावयवसे गर्भ में विकार. ' होनेका कथन कियागया । पुरुषके वीजका जो अंश दूषित होता है सन्तानके शरीरमें उसी २ भागमें विकृति होजाती है ॥ ३८॥
एतेनमातृजानांपितृजानाञ्चावयवानांविकृतिव्याख्यानेनसा. त्म्यजानारसजानांसत्त्वजानाचावयवानांविकृतियाख्याता ३९॥..
इस कथनसे माता और पिताके वीजमें होनेवाले विकार आदिकोंका वर्णन कियागया और सात्म्यन रसज तथा सत्खन विकृतियोंका भी निदेश किया. गया ॥ ३९ ॥ निर्विकारःपरस्त्वात्मासवभूतानांनिर्विशेषःसत्त्वशरीरयोस्तुविशेषाद्विशेषोपलब्धिः ॥ ४० ॥ परमात्मा निर्विकार है वह आत्मा सर्वभूतोंमें समानभावसे वर्तमान है । इसलिये उसमें किसी प्रकारकी विकृति नहीं होती। मन और शरीर सबके एक बराबर नहीं होते इसलिये उनमें दोषादिकोंकी उपलब्धि है ॥४०॥
तत्रत्रयस्तुशारीरदोषावातपित्तश्लेष्माणरतेशरीरंदूषयन्ति॥४१॥ द्वौपुनःसत्तदोषौरजस्तमश्चातौसत्त्वंदूषयतस्ताभ्याञ्चसत्त्वश
रीराभ्यांदुष्टायांविरुतिरुपजायतेनोपजायतेचाप्रदुष्टाभ्याम् ४२ वात, पित्त और कफ यह तीनों शारीरिक दोपहैं । यह दोष शारीरिक होनेसे शरीरावयवोंको अथवा शरीरको दूषित करते हैं । रज और तम यह दो मनके दोष हैं । यह दोनों मनको दूषित करतेहैं । इसप्रकार शारीरिक और मानसिक भेदसे दो प्रकारके दोष होतेहैं। यह दोनों प्रकारके दोष दुष्ट होनेसे शरीर और मनको विकृत करदेतेहैं। और दुष्ट न हानेसे विकृत नहीं करते । तात्पर्य यह हुआ
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शारीरस्थान-अ० ४.. (७२५). कि आत्मा तो निर्दोष है इसलिये आत्मगमें कोई विकृति भी नहीं होती । परन्तु शारीरिक और मानसिक दो प्रकारके दोष होते हैं। सो शरीर और मनको दूषित करते हैं यदि उनका कोई गर्भसे सम्बन्ध होगाताहै, तो जिसप्रकार जिस अवयव और जिस अंशमें उनका दुष्ट होकर प्रवेश होताहै उसीको विगाड देते हैं।याद वह कुपित नहीं होते किंवा दुष्ट नहीं होते तो किसी प्रकारके उपद्रवको भी नहीं करते ॥४१॥ ४२ ॥
तत्रशरीरंयोनिविशेषाचतुर्विधमुक्तंमत्रिविधंखलुसत्त्वंशुद्धं राजसतामसमिति । तत्रशद्धमदोषमाख्यातंकल्याणांशत्वात्। राजसंसदोषमाख्यातंरोषांशत्वात् । तथातामसमापिसदोषमाख्यातंमोहांशत्वात् ॥४३॥ शरीरकी चार प्रकारकी योनिका पहिले कथन करचुकेहैं । मन तीन प्रकार• का होताहै । सात्तिक, राजस और तामल । इनमें सात्त्विक मन निर्दोष होताहै। इसलिये वह कल्याणयुक्त कहाजाताहै। और यह मोक्षसाधनादि कार्यको करनेवाला होताहै रानस मन रोषका अंशवाला होनेसे दोषयुक्त कहाजाताहै । तामस मन -मोहका अंश अधिक होनेसे अतिदोषयुक्त होताहै ॥ ४३ ॥
. सत्त्वके अनेक भेद । तेषान्तत्रयाणामपिलस्वानामेकैकस्यभेदायमपरिसंख्येयंतरतमयोगाच्छरीरयोनिविशेषेण्यश्चान्योन्याविधानत्वाच्च। शरीरमपिसत्त्वसनुविधीयतेसत्त्वञ्चशरीरंतस्मात्कतिचिच्चसत्त्वभेदालनुकसादृश्याभिनिर्देशेननिदर्शलार्थमनुव्याख्यास्यामः॥४४॥ इन तीनों प्रकारके मनोंमें एकएकका भेद भी असंख्य होताहै । क्योंकि एकएककी अधिकता और न्यूनता आदि भेदसे और शररियोनि विशेषसे तथा इनके परस्पर अनुसंधान विशेषसे असंख्य होजातेहैं । शरीर भी सत्यकेही अनुरूप होताहै और सत्त्व शरीरके अनुरूप होताहै । इन दोनोंक साश्यके अनुसार कितने प्रकारके पुरुष विशेष होतेहैं उनके निदर्शनके लिये वर्णन करतेहैं ॥ ४४ ॥
ब्राह्मका लक्षण । तद्यथाशचिंलत्याभिलन्बंजितासानंसंविभागिज्ञानविज्ञान१ जरायुज अण्डन उद्भिज स्वेदज ।
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(७२६)
चरकसंहिता-माल्टी। वचनप्रतिवचनशक्तिसम्पन्नंस्कृतिमन्तंकामक्रोधलोभमानमो-. हेाहर्षोपेतंसमंसर्वभूतेषुब्राझविद्यात् ॥ ४५ ॥ जिस मनुष्यमें पवित्रता,सत्यता, जितात्मता, विचार, ज्ञान, विज्ञान, वचनशक्ति.. प्रतिवचनशक्ति, स्मृति यह सव सम्पत्तियें होतीहैं तथा काम, क्रोध, लोभ, मान, मोह, राग, और देष यह नहीं होते और सम्पूर्ण जीवमात्रमें एकसी दृष्टि रखते हैं उनको ब्रायमनुष्य कहतेहैं ॥ ४५ ॥
आर्षका लक्षण । इज्याध्ययनवतहोमब्रह्मचर्यमतिथित्रतमुपशान्तमदमानरागद्वेषमोहलोभरोषप्रतिभावचनविज्ञानोपधारणशक्तिसम्पन्नमाविद्यात् ॥४६॥ जो मनुष्य-यजन, अध्ययन, व्रत, होम, ब्रह्मचर्य, अतिथिव्रतका पालन करते हैं। और मद, मान, द्वेष, राग, मोह, लोभ,रोष रहित हों तथा प्रतिवचन, विज्ञान, उपधारणशक्तिसंपन्न होतेहैं उनको आर्ष जानना ॥ ४६ ।।
ऐन्द्रका लक्षण । ऐश्वर्यवन्तमादेयवाक्यंयज्वानशूरसोजस्विनंतेजसोपेतमाक्लिष्टकर्माणदीर्घदार्शनंधमार्थकामाभिरतसैन्द्रविद्यात्॥४७॥
जो मनुष्य ऐश्वर्ययुक्त हों, जिनकी आज्ञाको लोग मानतेहों, यज्ञ आदि करतेहों एवम् शूर, ओजस्वी, तेजस्वी, अनिन्दितकर्मा, दीर्घदशी, धर्म अर्थ और काममें प्रवृत्त हों उनको ऐन्द्र जानना ॥४७॥
याम्यके लक्षण । लेखास्थवृत्तंप्राप्तकारिणमसंहार्यमुत्थानवन्तस्मृतिमन्तमैश्व
ालम्बिनंव्यपगतरागद्वेषसोहंयास्यविद्यात् ॥४८॥ जो मनुष्य शास्त्रके माननेवाले हों, कर्त्तव्य, अकर्तव्यको विचारकर करनेवाले हों, समयपर चूकनेवाले न हों, जिनका कार्य अप्रतिहत हो । उत्थानवान् हों,स्मृ. तियुक्त हों, ऐश्वर्यावलम्बी हों और राग, द्वेष तथा मोहसे रहित हों उनको यास्यशरीर कहतेहैं ॥४८॥
वारुणके. लक्षण। · शूरंधीरंशुचिमशुचिद्वेषिणयज्वानमम्मोविहाररतिमलिष्टकर्मा
गंस्थानकोपप्रसादंवारुणंविद्यात् ॥ ४९ .
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शारीरस्थान - अ० ४.
( ७२७)
जो मनुष्य शूरवीर हों, शुद्ध हों, अपवित्रतासे द्वेष करनेवाले हों, यजन करनेवाले si, moमें विहार करनेवाले हों, अनिन्दितकर्मा हों, उचित समयपर क्रोध और प्रसन्नता करनेवाले हों उनको वारुणशरीर कहते हैं ॥ ४९ ॥
कौबेरका लक्षण | स्थानमानोपभोगं परिवारसम्पन्नंसुखविहारं धर्मार्थकामनित्यंशुचिंव्यक्तकोपप्रसादकौबेरं विद्यात् ॥ ५० ॥
जो मनुष्य यथास्थानमें मान, और भोगको सेवन करनेवाले हों परिवारयुक्त हों, सुखपूर्वक बिहार करनेवाले हों, धर्म, अर्थ और कामसाधन में तत्पर हों, पवित्र हों," जिनका क्रोध और प्रसन्नता प्रगट हो उनको कौबेरशरीर जानना ॥ ५० ॥ गांधर्वका लक्षण |
प्रिय नृत्यगीतवादित्रोल्लापकंश्लोकाख्यायिकेतिहासपुराणेषुकुशलंगन्धमाल्यानुलेपनवसन स्त्रीविहारकामनित्यमन सूयकंगान्धर्वविद्यात् ॥ ५१ ॥
जिन मनुष्यों को नाचना, गाना, बाजा बजाना और स्तुति करना यह सव प्यारा लगता हो, जो श्लोक, कहानियां, इतिहास और पुराणमें कुशल हों, गंध, माला, अनुलेपन, वस्त्र, स्त्री इनमें नित्य आसक्त रहतेहों, निन्दारहित हों उनको गांधर्वकाय कहतेहैं ॥ ५१ ॥
ब्राह्मकी उत्कृष्टता । इत्येवशुद्धस्य सत्त्वस्य सप्तविधभेदांशविद्यात्कल्याणांशत्वात्संयोगातुब्राह्ममत्यन्तशुद्धं व्यवस्येत् ॥ ५२ ॥
इसप्रकार सतोगुणप्रधान मनके सातभेदके अंशविशेषसे सातप्रकारके मनुष्योंका वर्णन किया है । उनमें कल्याणका अंश होने से यह सातों साविक मनुष्य कहेजाते. हैं । सतोगुणका अधिक संबंध होनेसे ब्राहृयशरीर सबसे उत्तम है ॥ ५२ ॥ आसुरके लक्षण । शूरंचण्डमसूयकमैश्वर्य्यवन्तमौदरिकरोद्रमननुक्रोश कमात्मपूजकमासुरविद्यात् ॥ ५३ ॥
शूर, चण्ड, साहसी, निंदक, ऐश्वर्यवान्, पेटपालक, उग्रस्वभाववाला, निर्दयीं और अपनेको पूजन करने तथा करानेवाला अर्थात् आत्मश्लाघी, आसुर मनुष्य जानना ॥ ५३ ॥
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(७२८)
चरकसंहिता-मा० टी०॥
राक्षसके लक्षण । अमर्षिणमनुबन्धकोपच्छिन्द्रनहारिणदूरलाहारातिमात्ररुचिमामिषप्रियतसंस्वप्नायालबहुलसीपुंराक्षसंविद्यात् ॥ ५४॥
जो मनुष्य अपने अपमानको न सह सके, जिसके शरीरमें बहुत कालतक क्रोध अनारहे, जो छिद्र पाकर प्रहार करनेवाला हो, कूर स्वभाव हो बहुत आहार करने बाला हो, मांस खानेमें प्रेम रखनेवाला हो, अधिक सोनेवाला हो, अधिक परिश्रम कर सकता हो और ईर्षायुक्त हो उसको राक्षसकाय जानना ॥ ५४॥
पिशाच के लक्षण । महालसंस्त्रैणस्त्रीरहस्कामनशुचिंशुचिषिगंभीरुभीषपितारविकृतिविहाराहारशीलपैशाचंविद्यात् ॥ ५५ ॥
जो मनुष्य अत्यन्त आलसीहो, स्त्रियों में बैठा रहता हो, स्त्री भोगकी इच्छाबाला हो, अपवित्र हो, शुद्धतासे द्वेष रखनेवाला हो,डरनेवालेको डराता हो, विकृत आहार विहारका सेवन करनेवाला हो, उसको पैशाचकाय कहते हैं ॥ ६५ ॥
सापके लक्षण।। जुद्धशूरंप्रकृच्छूमीसंतीक्ष्णनाथालवहुलंलन्त्रशुगोचरमाहारवि हारपरंसापविद्यात् ॥ ५६ ॥ जो मनुष्य क्रोधी, शूर, कठोर, डरपोक, तीक्ष्णस्वभाववाला, अधिक परिश्रम करनेवाला,थोडा कहेको समझ जानेवाला, आहार और विहारसे युक्त हो उसको सार्प काय कहते हैं ॥ ५ ॥
प्रैतके लक्षण। आहारकाममतिदुःखशीलाचारोपचारसयकसविसागिनमतिलोलुपमकर्मशीलप्रैतविद्यात् ॥ ५७ ॥ जो मनुष्य अत्यन्त भोजनकी इच्छा रखता हो, जिसका स्वभार,आचार और उपचार यह सब हाखितसे हों एवम् निन्दक विना विचारे फरनेशाला अतिलोलुप और अकर्मोको करनेवाला हो उसको मेतकाय जानना ॥१७॥
शाकुनके लक्षण । अनुषक्तकालसजस्त्रमाहारविहारपरमनस्थितममर्षिणमसञ्चयंशाकुंनंविधात् ॥ ५८ ॥
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शारीरस्थान - अ० ४.
(७२९)
जो मनुष्य निरन्तर इच्छावाला हो, कामनामें आसक्त हो, हरसमय अपने खाने कमानेकी चिन्तामें लगा रहताहो, अनवस्थित चित्त हो, क्रोधी हो और संचय न करता हो उसको शाकुन अर्थात् पक्षीकाय कहते हैं ॥ ५८ ॥
इत्येवंखलराजलस्य सत्त्वस्यपविषभेदांशंविद्याद्रोषांशत्वात् ९९ ॥
इसप्रकार शेषांशयुक्त होनेसे राजस मनके छः भेद अंशभेदसे जानने ॥ ५९ ॥ पाशवके लक्षण |
निराकरिष्णुमधमवेषस जुगुप्सितारम् ।
आहारविहार मैथुनपरं स्वप्नशीलंपाशवंविधात् ॥ ६० ॥
हरएकको तुच्छ समझनेवाला, अधमवेष धारण करनेवाला, निन्दारहित, आहार विहार और मैथुनमें आसक्त रहनेवाला एवम् अधिक सोनेवाला पाशव शरीर जानना ॥ ६० ॥
मात्स्यके लक्षण । भीरुमबुषमाहारलुग्धमनवस्थितमनुषक्तकाम क्रोधंसरणशीलतोयकाममात्स्यविद्यात् ॥ ६१ ॥
डरपोक, मूर्ख, आहारलोभी, असावधान, कामक्रोधमें आसक्त, इधर उधर फिरने के स्वभाववाला, जलमें फिरनेकी इच्छावाला मनुष्य मत्स्यकाव जानना ६१वानस्पत्यके लक्षण |
अलसंकेवलमभिनिविष्टमाहारे सर्व बुद्धयङ्गहीनं वानस्पत्यवि
द्यात् ॥ ६२ ॥
आलसी, केवल भोजन में ही चित्त लगानेवाला, सब मकारसे बुद्धिहीन मनुष्य वानस्पत्यकाय जानना ॥ ६२ ॥
"
इत्येवंखलुतामतस्य तत्त्वस्यत्रिविधं भेदांशविद्यान्माहांशत्यात्३। इसप्रकार तामस सुखके विधिभेदसे, और मोहांशयुक्त होने से तीन प्रकार के वामसी मनुष्य होते हैं ॥ ६३ ॥
इत्यपरिसंख्येय भेदानांखलुत्रयाणामपि सत्त्वानां भेदेकदेशोव्या
ख्यातः ॥ ६४ ॥
इसप्रकार तीनों प्रकारके सवोंके अंश भेदसे असंख्य भेद होजाते हैं । इस - स्थानमें केवल निदर्शन मात्र कथन कियाहै ॥ ६४ ॥
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चरकसंहिता - भा० टी० १ सत्त्वके भेदोंका संक्षिप्त वर्णन |
शुद्धस्य सत्वस्य सप्तविधोत्रह्मर्षिशक्रवरुणयम कुवेर गन्धर्वसत्वानुकारेण । राजसस्यषविधोदैत्यराक्षसपिशाचसर्पप्रेतशकुनि - सच्चानुकारेण । तामसस्यत्रिविधःपशुमत्स्यवनस्पतिसत्त्वानुकारेण । कथञ्चयथासत्त्वमुपचारः स्यादिति । केवलश्चायमुद्दे - शः यथोदेशमभिनिर्दिष्टो भवति । गर्भावकान्तिसंप्रयुक्तस्यार्थस्यविज्ञाने सामर्थ्यगर्भकराणाञ्च भावानामनुसमाधिर्विघातश्च विघातकराणां भावानामिति ॥ ६५ ॥
शुद्ध सत्त्वके- ब्रह्म, ऋषि, इन्द्र, वरुण, यम, कुवेर और गंधर्व सन्धानुक्रमसे सच्चके मतभेद कथन किये हैं । रजोगुण प्रधान दैत्य, राक्षस, पिशाच, सर्प, प्रेत, पक्षी यह छः प्रकारके भेद राजसमनके कथन किये हैं । तामस सत्त्वके अनुक्रम से पशु, मत्स्य, वनस्पति यह तीन भेद कथन किये हैं । जिस गर्भमें जिस सत्त्वके लक्षण पाये जायँ उसका उसी प्रकार पालन पोषण आदि उपचार करना चाहिये । यह उपरोक्त लक्षण यदि दौहृदकी समय गर्भवती खोमें हो तो जिस प्रकार के लक्षण हों उसको उसी प्रकार की संतान होगी । इस स्थानमें इन तीनप्रकारके सत्त्वों का इसी उद्देशसे वर्णन कियागया है। इस संपूर्ण विवरणके जान लेने से किस समय गर्भमें किस प्रकारक द्रव्योंका प्रयोग करना और गर्भ में हितकारक तथा गर्भकारण द्रव्योंका अनुयोजन एवम् गर्भविघातक कारणोंके प्रतिविधान में योग्यता उत्पन्न 'होजाती है ॥ ६५ ॥
•
( ७३० )
अध्यायका उपसंहार । तत्रश्लोकाः । निमित्तमात्माप्रकृतिर्वृद्धिः कुक्षौक्रमेणच । वृद्धिहेतुश्वगर्भस्यपञ्चार्थाः शुभसंज्ञिताः ॥ ६६ ॥
यहां पर श्लोक हैं- कि निमित्त, आत्मा, प्रकृति, गर्मक्रम और गर्भका कुक्षीमें क्रमपूर्वक बढना, उसके बढने के हेतु, गर्भ के उत्पन्न करनेवाले पांच शुभ अर्थ, वर्ण कियेगये ॥ ६६ ॥
यज्जन्मनिचयो हेतुर्विनाशेविकृतावपि ।
इमांस्त्रीन शुभान्भावाना हुर्गर्भविघातकान् ॥ ६७ ॥
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शारीरस्थान-अ०.५. .
(७३१) तथा जन्मके न होनेमें एवम् गर्भके नाश होजानेमें और विकृत होजानेमें जो हेतु हैं उन गर्भविनाशक तीन प्रकारके अशुभ हेतुओंको वर्णन कियागया ॥ ६७ १६
शुभाशुभससाख्यातानष्टौभावानिमान्भषक् ।
सर्वथावेदयःसर्वान्सराज्ञःकर्तुमर्हति ॥ ६८ ॥ जो वैद्य इन शुभ और अशुभ आठमावोंको संपूर्णरूपसे जानलेताहै वही राजा ओंके चिकित्सा करने योग्य उत्तम वैद्य होताहै ॥ ६८ ॥
अवाप्युपायान्गर्भस्यसएवंज्ञातुमर्हति ।
येचगर्भविघातोक्ताभावास्तांश्चाप्युदारधीः॥६९ ॥ इतिचरकसंहितायांशारीरस्थानमहतीगर्भावक्रान्तिःशारीरंसमातम
योग्य वैद्यको चाहिये कि गर्भक उत्पन्न करनेके उपाय तथा गर्भके उत्पन्न करने वाले भाव एवम् गर्भविघातक भाव इन सवको बुद्धिपूर्वक पूर्णरूपसे जानलेवे॥१९॥.. इति श्रीचरक० आ. वे० सं० शारीरस्थाने भाषाटीकायां महीगर्भावक्रांतिः शारीरं नाम
चतुर्थोध्यायः ॥ ४ ॥
पञ्चमोऽध्यायः।
अथातःपुरुषविचयंशारीरं व्याख्यास्याम इति हस्माह भगवानात्रेयः।
अब हम पुरुषविचय शारीरकी व्याख्या करते हैं इसप्रकार भगवान् आत्रेयनी - कथन करनेलगे।
पुरुषोऽयंलोकसम्मितइत्युवाचभगवान्पुनर्वसुरात्रेयायावन्तो हिमूर्तिमन्तोलोकभावविशेषास्तावन्तःपुरुषे यावन्तः पुरुष, तावन्तोलोके ॥१॥ यह पुरुष लोकसंमित अर्थात् जगत्के समान है। इसप्रकार भगवान् पुनर्वसु आत्रेयजी कथन करनेलगे।यह जिवना मूर्तिमान् लोकमें भावानिशेष है वह सवपुरुष, होताहै और जो पुरुषों है वह इस मूर्तिमान् जगत्में पायाजाताहै ॥ १॥
इत्येवंवादिनभगवन्तमात्रेयमग्निवेशउवाच । नैतावतावास्येनोकंवाक्यार्थमनगाहामहे । भगवताबुद्ध्याभूयस्तरमतोऽनुव्याख्यायमानशुश्रूषामहे ॥२॥
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(७३२)
चरकसंहिता-मा० टी०। इसप्रकार कहतेहुये भगवान् आत्रेयजीसे अग्निवेश वोले कि हे भगवन् ! इतनेहीं -कथनसे आपके वाक्यके अर्थको नहीं जानसकरे । इसलिये आप कृपाकरके इस विषयकी विस्तारपूर्वक व्याख्या कीजिये हमको इसके सुननेकी इच्छा है ॥ २ ॥
और जगत् तथा पुरुषकी तुल्यता। इति तमुवाचभगवानात्रेयः । अपरिसंख्येयालोकाश्यवाविशेपाःपुरुषावयवाविशेषाअप्यपरिसंख्येयाायथायथाप्रधानञ्चतेपायथास्थूलंभावान्सामान्यमाभिप्रेत्योदाहरिष्यामःतालेकमनानिबोधसम्यगुपवर्ण्यमानाननिवेश ! पत्रातबालमुदिता लोकइतिशब्दलभन्ते । तद्यथा-पृथिव्यापस्तेजोवायुराकाशं ब्रह्मचाव्यक्तमित्येतएवचषड्धातवःसमुदिता पुरुषइतिशब्दं लभन्ते । तस्यपुरुषस्यपृथिवीमूर्तिरापःक्लदस्तेजोऽसिलन्ता- .. पोवायुःप्रागोवियच्छिद्राणिब्रह्मान्तरात्मा ॥३॥ यह सुनकर भगवान् आत्रेयजी बोले कि जगत्के अवयवविशेष और पुरुषके अवयव विशेष अपरिसंख्येय हैं अर्थात् गणनामें नहीं सकताउनमें जो र जैसे २ प्रधान और स्थूल भाव हैं उनको सामान्यतासे उदाहरणके लिये वर्णन करतेहैं । हेअग्निवेश ! उन भलेप्रकार वर्णन कियेहुए भावोंको एकाग्रचित्त होकर श्रवण करो। छ: धातुओंसे मिलाहुआ जगत् है ऐसा सुनने आता है वह छ' धातुएँ इसप्रकार हैं। जैसे-पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश और अव्यक्तब्रह्म इनसे सम्मिलित मूर्तिमान जगत है इसीप्रकार पुरुष भी यही छः धातुओंसे सम्मिलित है । जैसेपृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश तथा आत्मा यह दोनों धारा बराबर देखनमें आती हैं । जैसे मूत्तिमान् जगत्में यह मूर्तिमान पृथ्वी देखने में आतीहै उसीप्रकार दूसरीओर पुरुषका शरीर पृथ्वी है । जैसे एकओर जगत्में जलका प्रवाह है वैसेही पुरुषके शरीरमें क्लेदरूप जल है । जैसे जगत्में एकओर अग्नि है उसीप्रकार दूसरीऔर पुरुषमें जठरामि है जैसे जगतमें एकओर पूर्वपश्चिमकी वायुका गमन है वैसही दूसरी ओर पुरुषके शरीरमें प्राण और अपानवायुला गमन होताहै। जैसे . भर्चिमान् जगत्में एकओर आकाश है ऐसे ही दूसरीओर शरीरमें छिद्रसमूहरूपी आकाश है । जैसे मूर्तिमान जगत्में एकओर जगत्का प्रकाशक ब्रह्म है उसीप्रकार दूसरीओर शरीररूपी जगत्को प्रकाश करनेवाला आला है। इसमकार दोनोंओर दोनों धारा देखने में बरावर आती हैं ॥३॥
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शारीरस्थान-अ० ५. . (७३३)। यथाखलुब्राह्मीविभूतिलोंकेतथापुरुषेऽप्यान्तरास्मिकीविभूतिब्रह्मणोविभूतिलोंकेप्रजापतिरन्तरात्मनोविभूतिःपुरुषेसत्यम्। यस्त्विन्द्रोलोकसपुरुषेऽहङ्कारःआदित्यास्तुआदानरुद्रोरोजः सोमःप्रसादोवसवःसुखमाश्विनौकान्तिमरुंदुत्साहोविश्वेदेवाः सर्वेन्द्रियाणिलवेन्द्रियार्थाश्चतमोमोहोज्योतिज्ञानम् । यथा
लोकस्यस्वर्गादिस्तथापुरुषस्यगर्भाधानंयथाकतयुगमेवंबाल्य.म् । यथात्रेतातथायौवनं यथाद्वापरस्तथास्थाविय॑यथाकलिरेवमातुर्थयथायुगान्तस्तथामरणमित्येवमनुमानेनानुक्तानामंपिलोकपुरुषयोरवयवविशेषाणामग्निवेश ! सामान्यविद्याताया जैसे जगत्में ब्राह्मीविभूति है उसी प्रकार पुरुषमें भी आत्मिकी विभूति है।जैसे जगत्में ब्रह्मकी विभूति प्रजापति है उसी प्रकार अन्तरात्माकी विभूति सत्त्व है। जगत्में जैसे इन्द्र है उसीप्रकार पुरुषमें अहंकार है जैसे जगत्में सूर्य है वैसेही पुरुषमें आदान (ग्रहणशाक्त) है । जैसे जगत्में रुद्र है वैसेही पुरुषमें क्रोध है ।जैसे जगत्में चन्द्रमा है उसीप्रकार पुरुषमें प्रसन्नता है जैसे जगदमें वसु है उसीप्रकार पुरुषमें मुख है।जैसे जगतमें अश्विनीकुमार हैं वैसे दूसरी ओर पुरुषमें कांति है। जैसे एक
ओर जगत्में वायु देवता है वैसेही दूसरी ओर पुरुषमें उत्साह है । जैसे जगत्में देवता हैं उसीप्रकार पुरुषमें इन्द्रियें और इंद्रियार्थ हैं । जैसे जगतमें तम है उसी कार पुरुषमें मोह है। जैसे एकओर जगदमें ज्योति है उसीप्रकार दूसरीओर पुरुषमें ज्ञान है । जैसे जगत्में स्वर्गादि हैं वैसेही पुरुषमें रतिसुख है । जैसे जगत्में सत्ययुग है उसीप्रकार पुरुषमें बाल्यावस्था है । जैसे जगत्में त्रेतायुग है वैसेही पुरुष यौवनावस्था है जैसे जगत्में द्वापर है उसीप्रकार पुरुषमें बुढापा है । जैसे जगदमें कलियुग है उसीप्रकार पुरुषमें रोगग्रस्त अवस्या है । जैसे एकओर जगत्की प्रलय होताहै पैसेही दूसरीओर पुरुषका मरण होताहै। हे अग्निवेश!यह दोनों धारा पुरुष - और जगदमें वरावर देखने में आती हैं इनके सिवाय और भी सम्पूर्णभाको इसीप्रकार जगत् और पुरुषमें समान जानलेना चाहिये ॥ ४ ॥
अग्निवेशका प्रश्न । इत्येवंवादिनभगवन्तमात्रेयमग्निवेशउवाच। एवमेतत्सर्वमन१ अनुक्सानामित्यनेन मतिसतिः कामो गन्धर्व इत्यादि।
देवता हैं उसी वायु देवता लोकमार है और जैसे जगम कक्ष में कोध है की पुरुष में
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१९७३४)
चरकसंहिता-भा० टी०। पवादंयथोक्तंसगवतालोकपुरुषयोः सामान्यंकिन्तुअस्यसामान्योपदेशस्यप्रयोजनमिति ॥ ५॥
इसप्रकार कथन करतेहुए भगवान् आत्रेयजीसे अग्निवेश कहने लगे कि हे भग. • वन् ! आपने जिसप्रकार जगत् और पुरुषकी समानताको वर्णन कियाहै यह
सर्वथा यथार्थ है और निर्विवाद है । परन्तु इन दोनोंकी समानता वर्णन करनेसे -यहां आयुर्वेदमें क्या प्रयोजन सिद्ध हुआ सो कृपा कर वर्णन कीजिये ॥ ५॥
आत्रेयजीका उत्तर । भगवानुवाच । कथमग्निवेश! सर्वलोकमात्मन्यात्मानञ्चसर्वलोकेसमनुपश्यतस्तस्यात्मबुद्धिरुत्पद्यतेइति । सर्वलोकहिआत्मनिपश्यतोभवतिआत्मैवसुखदुःखयोः कर्त्तानान्यइतिकर्मा स्मकत्वाच्च । हेत्वादिभिरयुक्तसर्वलोकोऽहमितिविदित्वाज्ञानं पूर्वमुत्थाप्यतेऽपवर्गायेति ॥६॥
आत्रेयजी कहनेलगे कि हे अग्निवेश! जो मनुष्य सम्पूर्ण जगत् के भावोंको अपने “शरीरमें देखता है और अपने शरीरके सम्पूर्णभावोंको जगत्में देखता है उस मनु · व्यको आत्मबुद्धि उत्पन्न होजातीहै,सम्पूर्णजगत्को आत्मामें देखता हुआ आत्मा : ही सुखदुःखका कर्ता है और कोई कर्ता नहीं है। क्योंकि कर्म आत्माही करता है। सम्पूर्ण हेतु आदिकोंसे आत्मा अलग है केवल कर्मवंशसे जगत् में मिलाहुआ है। कर्मक्षय होनेसे आत्मा इन सब भावोंसे अलग होजाताहै । इसप्रकारका ज्ञान उत्प. न होकर में इन संपूर्णभावों से अलग हूं यह ज्ञान उत्पन्न होजाताहै और साक्षात् आत्मज्ञान प्राप्त होजानेसे मोक्षको प्राप्त होजाताहै ॥ ६॥
तत्रसंयोगापेक्षीलोकशब्दःषड्धातुसमुदायाहिंसामान्यतःसवलोकातस्यहेतुरुत्पत्तिवृद्धिरुपप्लवोवियोगश्च । त–हेतुरुत्पत्तिकारणमुत्पत्तिर्जन्मवृद्धिराप्यायनमुपप्लवो दुःखागमः षड्धातु
१ सर्वलोकमात्मनि पश्यत इति आत्मनोऽभेदेन पश्यतः आत्मशन्दे षड्धातुसमुदायात्मकः पुरुप इहोच्यते । यत्किञ्चिल्लोकगत सुखदुःखजनकं तदप्यात्मस्वरूरमित्यनेने वाह्यलोकभूतमप्यात्मकृतमेव वैषयिकं नित्यदुःखानुयुकं सुखं हेय, तथा निसर्गाद्वयं दुःखश्च पश्यन् रागद्वेधीनर्मुकः सन् सत्यज्ञानवान् भवति अथ सत्यज्ञानस्यादावरवर्गानुष्ठानप्रयोजनमिति । २ कमर्वशः सन् देवादिभियुक्तोऽयमात्मा प्रवर्तते, कर्मातत्वज्ञानात् प्रवृत्त्युरमे सति कारगाभावानोरायो । तद त्वंसिककर्मक्षया आत्यंतिककर्मफलामावरून मोक्षा भवतीति भाव:1
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शारीरस्थान-अ० ५.
(७३९) वियोगः । सजीवापगमासप्राणानिराधःसभंगः सलोकस्वभावः ॥ ७॥ इस स्थानमें लोकशब्द संयोगकी अपेक्षा करताहै।सामान्यतासे छः धातुओंका समुदाय संपूर्ण लोक है।इस जगह लोकशब्दसे पुरुष और जगत् दोनोंका ग्रहण है। उस लोकके हेतु, उत्पत्ति, वृद्धि, उपप्लवं और वियोग यह सब होतेहैं । इसजगह हेतुशब्द उत्पत्तिमें कारण जानना|जन्मको उत्पत्ति कहतेहैं। वृद्धिशब्दसे बढना और पुष्ट होना जानना।उपप्लव शब्द दुःखकी प्राप्तिका वाचकहै । छ: धातुओंका पृथकर होजाना वियोग कहाजाताहै । वह वियोग नीवापगम, (जीवनत्याग) प्राणनिरोध, अंग, लोकस्वभाव, नामसे उच्चारण कियाजाताहै ॥ ७ ॥
वियोगका कथन । तस्यमूलंसर्वोपप्लवानाञ्चप्रवृत्तिनिवृत्तिरुपरमश्चप्रवृत्तिदुःखंनिवृत्तिःसुखमितियज्ज्ञानमुत्पद्यतेतत्सत्यम्। तस्यहेतुःसर्वलोक
सामान्यज्ञानमेतत्प्रयोजनसामान्योपदेशस्येति ॥८॥ इस वियोगका मूल प्रवृत्तिही है। प्रवृति ही संपूर्ण दुःखोंका मूल है और निवृत्ति संपूर्ण सुखोंका मूल है। तब यह सिद्ध हुआ कि प्रवृत्ति दुःख और निवृत्ति सुख है। इसप्रकारका जो ज्ञान उत्पन्न होताहै वह सत्य है। इस सत्यज्ञानके उत्पन्न होनेका कारण संपूणजगत् और पुरुषकी समानताका ज्ञान होनाही है । सो समानतासे जगत और पुरुषको तुल्यताके वर्णनका प्रयोजन कथन कर दियाहै ॥ ८॥
अग्निवेशका प्रश्न । अथाग्निवेशउवाच । किंमूला भगवन् । प्रवृत्तिनिवृत्तीवाउपाय इति ॥९॥
यह सुनकर अग्निवेश कहनेलगे कि हे भगवन् ! प्रवृत्तिका क्या कारण है और निवृत्तिका क्या उपाय है।॥ ९॥
प्रवृत्ति के मूलका वर्णन । भगवानुवाच । मोहेच्छाद्वेषकर्ममूलाप्रवृत्तिस्तजाह्यहङ्कारसनसन्देहाभिसंनुवाश्यवपातविप्रत्ययाविशेषानुपायाः । तरुणमिवद्रुतमतिविपुल शाखास्तरवोऽभिभूयपुरुषमवतत्योत्तिष्ठन्ते यैरभिभूतोनसत्तामतिवर्तते ॥ १० ॥
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(७३६)
चरकसंहिता-भा० टी०। यह सुनकर भगवान् आत्रेयजी कहनेलगे कि मोह,इच्छा, द्वेष और कर्मही प्रकृ० त्तिका मूल अर्थात कारण हैं। उस प्रवृत्तिके होनेसे अहंकार, संग,संदेह,अभिसंप्लव अभ्यवपात, विप्रत्यय, विशेष और अनुपाय यह उपस्थित होजातेहै । जैसे-तरुणः वृक्षमें शाखा आदि निकलकर बडी २ टहनी बढकर होजाती है और वृक्षसे सद टहनी व्याप्त रहती है उसीप्रकार अहंकारादि बढकर पुरुषसे व्याप्त रहतेहै । उन अहंकार आदिकोसे व्याप्त हुआ पुरुष आत्मज्ञानको नहीं जानसकता ॥ १० ॥
अहंकारका लक्षण। तत्रैवजातिरूपवित्तबदिशालविद्याभिजनवयोवीर्यप्रभावलम्पन्नोऽहमित्यहङ्कारः॥ ११ ॥ मैं अच्छी जातिका हूं, मेरा रूप बहुत उत्तम है एवम् मैं बुद्धि, शील, विद्या, कुल, यौवन, वीर्य और प्रभाववाला हूं इस प्रकार चित्तमें अहंभाव आनेको अहं: कार कहतेहैं ॥११॥
संगलक्षण । यन्मनोवाकायकर्मलापवायससङ्गः ॥ १२॥ मन, वाणी, देह और कर्म इनका इसप्रकार उपयोग करना जिसमें मोक्षको. प्राप्त न होसके उसको संग कहतेहैं ॥ १२ ॥
संदेहका लक्षण । कर्मफलमोक्षपुरुषप्रेत्यभावादयःसन्तिवानेतिसंशयः॥ १३॥ कर्मका फल और मोक्ष तथा आत्मा एवं पुनर्जन्म है या नहीं इसप्रकार बुद्धि होनेको संशय कहतेहैं ॥ १३ ॥
आभिसंप्लवका लक्षण। . सर्वास्ववस्थास्वतन्योऽहमहंस्रष्टास्वभावसंसिद्धोऽहमहंशरीरेन्द्रियबुद्धिस्मृतिविशेषराशिरितिग्रहणासमिसंप्लवः ॥ १४॥ जो कुछ हूं सो मैंही हूं, सव अवस्थाओं में अनन्य हूं अर्थात् मेरे समान फोई नहीं मैं श्रेष्ठ हूं मेरा स्वभाव बहुत अच्छा और ठीक है, मैं शरीर, इन्द्रिय, बुधि और स्मृति विशेषका राशि हूं ऐसी बुद्धि होनेका नाम संप्लव है ।। १४॥
- अस्यवपातका लक्षण । . मनमातृपितु दारापत्यवन्धविनत्यगणोगणत्यवाहानित्यस्यवपातः॥१५॥
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शारीरस्थान अ०५.
(७३७) - माता, पिता, भाई, स्त्री, संतान, बंधु, मित्र, नौकर आदि सब मेरे हैं और मैं उनका हूं इसप्रकारकी बुद्धि होनेको अभ्यवपात कहतेहैं ॥ १५॥
विप्रत्ययका लक्षण । कार्याकाय्यहिताहितेशुभाशुभेषविपरीताभिनिवेशोविप्रत्ययः१६
कार्य और अकार्य,हित और आहित शुभ और अशुभ,इन सबमें विपरीतभावसे प्रवृत्त होना । जैसे अकार्यको कार्य हितको अहित और यहितको हित मानना आदि इस बुद्धिको विप्रत्यय कहतेहैं ॥ १६ ॥
विशेषका लक्षण । ज्ञाज्ञयो प्रकृतिविकारयोःप्रवृत्तिनिवृत्त्योश्चासामान्यदर्शनंवि. शेषः॥ १७ यह अज्ञ है,यह ज्ञानी है, यह प्रकृति है यह विकार है,यह प्रवृत्ति है,यह निवृत्ति है, इनसवको असामान्यदृष्टि से देखना विशेष कहाजाताहै ॥ १७ ॥
: अनुपायका लक्षण । प्रोक्षणानशनाग्निहोत्रत्रिषवणाभ्युक्षणवाहनयजनयाजनयाचनसलिलहुताशनप्रवेशनादयःसमारम्भाः प्रोच्यन्तेह्यनुपायाः ॥ १८॥ मोक्षण, उपवास, अग्निहोत्र, त्रिषवण, अभ्युक्षण, आवाहन, यजन, याजन, याचन, इनका करना तथा जल वा अनिमें प्रवेश आदि यह मोक्षलाभका अनुपा य है । अर्थात् मोक्षकी ओरसे हटकर स्वर्गादिकोंकी कामनासे प्रवृत्त होना मनुपाय कहाजाताहै ॥ १८॥
एवमयमधीधृतिस्मृतिरहङ्काराभिनिविष्टःसंसक्तःससंशयोऽभिसंप्लुतबुद्धिरभ्यवपतितोऽन्यथाहष्टिविशेषग्राहीविमार्गगतिनिवासवृक्षःसत्त्वशरीरदोषमूलानांमूलंसर्वदुःखानांभवति ॥१९॥ यह पुरुष इसप्रकार बुद्धि,धृति और स्मृतिसे रहित होकर अहंकारी, आसक्त, संशयी,प्लुतचित्तवृत्ति,अभ्यवपतित,अन्यथादृष्टि, विशेषग्राही कुमार्गगामी होनाता है। सत्त्वदोष अर्थात् मनके दोष और शरीरके दोषसे बढेहुए दुःखरूपी वृक्षका मूल होजाताहै । इसप्रकार अहंकार आदिकोंसे दुःखोंकी उत्पत्ति होतीहै ॥ १९ ॥
इत्येवमहंकारादिभिदोषाम्यमाणोनातिवर्ततेप्रवृत्तिःसा . मूलमघस्य ॥ २०॥ .
१७
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( ७३८)
चरकसंहिता - मा० टी० ।
इसप्रकार अहंकार आदि दोषोंसे भ्रमवाला हुआ मनुष्य निवृत्त नहीं होसकता और प्रवृत्तिमें आकर स्थित होजाता है । यह प्रवृचिही सम्पूर्ण दु:खोंका मूल है ॥ २० ॥
मोक्षसाधनका क्रम । निवृत्तिरपवर्गस्तत्परंप्रशान्तंतदक्षरंतद्ब्रह्मसमोक्षः । तत्रमुमुक्षू - णामुदयनानिव्याख्यास्यामः । तत्रलोकदोषदार्शिनो मुमुक्षोरादितएवाचार्य्याभिगमनं तस्योपदेशानुष्ठानम् ॥ २१ ॥
निवृत्तिही मोक्ष है, निवृत्तिही अपवर्ग और शान्ति है, और अक्षर है, निवृत्तिही ब्रह्म है । मोक्षके इच्छावालोंके उपयोगी विषयका वर्णन करते हैं । जगतु दोषदृष्टि से देखनेवाला मुमुक्षु अर्थात् मोक्षकी इच्छा करताहुआ गुरुके पास - जाय और उसके उपदेशको श्रवण करके तदनुसार वर्ताव करे ॥ २१ ॥ अग्नेरेवोपचर्य्याधर्मशास्त्रानुगमनंतदर्थावद्येोधस्तेनावष्टम्भःत
त्रयथोक्ताःक्रियाःसत।मुपासनमसतां परिवर्जनंनसङ्गतिदुर्जनेनसत्यं सर्वभूतहितमपरुषमन तिकालेपरीक्ष्यवचनं सर्वप्राणिषु आत्मनीवावेक्षासर्वासामस्मरणमसंकल्पनमप्रार्थनाअनभिभाषणञ्चस्त्रीणांसर्वपरिग्रहत्यागः कौपीनं प्रच्छादनार्थधातुरागनिवसनकन्थासीवनहेतोःसूचीपिप्पल कंशौचाधान हेतोः जलकुण्डकादण्डधारणं भैक्ष्यचर्य्यार्थपात्रंप्राणधारणार्थमेककाल मयाम्योयथोपपन्नएवाव्यवहारः । श्रमापनयनाथैशीर्णशुष्कपर्णतणास्तरणोपधानं ध्यान हेतोः कायनिबन्धनं वनेषुअनिकेतवासस्तन्द्रानिद्रालस्यादिकर्म वर्जनमिन्द्रियार्थेषु अनुरागोपतापनि - ग्रहः सुप्तस्थितगतप्रेक्षिताहारविहारप्रत्यङ्गचेष्टादिकेषुआरम्भेषुस्मृतिपूर्विका प्रवृत्तिः सत्कारस्तुतिगवमानक्षमत्वंक्षुत्पिपासायासश्रमशीतोष्णवातवर्षा सुखदुःखसंस्पर्श सहत्वं शोकदैन्यद्वेषमदमानलोभरागेर्ष्याभयक्रोधादिभिरसञ्चलन महङ्कारादिषूपसर्गसंज्ञा लोकपुरुषयोःसर्गादिसामान्यावेक्षणकार्यकालात्ययभ्रयंयोगारम्भेसततमनिर्वेदः सत्वोत्साहापवर्गाय धीधृात
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- शारीरस्थान-म०५.
(७९) स्मृतिवलाधाननियमनमिन्द्रियाणांचेतसिचेतसआत्मन्यात्मनश्चधातुभेदेनशरीरावयवसंख्यानामभीक्ष्णंसर्वकारणवदुःख-: मस्वमनित्यमित्यभ्युपगमः । सर्वप्रवृत्तिषुदुःखसंज्ञासर्वसंन्यासेसुखमित्यभिानवेशएषमार्गोऽपवर्गायअतोऽन्यथाबध्यतेइत्युदयनानिव्याख्यातानि ॥ २२ ॥
और अग्निसेवन धर्मशास्त्रका पढना और उसके अर्थको जानना तथा धर्मशास्त्रका आश्रय लेना और जो २ उसमें क्रिया कथन की हों उनको करना । श्रेष्ठ पुरुषोंकी सेवा करना । खोटे पुरुषोंको त्याग देना, दुर्जनोंसे संगति न करना, सत्य बोलना, संपूर्ण जीवोंका हित चाहना,विनासमय विनाविचारे तथा कठोर वाक्योंको नबोलना, सब प्राणियोंको अपनी आत्माके समान जानना, विषयोंका स्मरण न करना, विषयोंका संकल्प तथा इच्छा न करना, स्त्रियोंसे भाषण और प्रेम न करना तथा स्त्रियोंसे सब प्रकारके संबंधोंको त्यागदेना । गुह्यस्थान ढकनेके लिये कौपीन, गेरुए कपडे, गुदडी, सूई सीने के लिये तुंबा (जलपात्र) शौच के लिये,दण्डधारण, दांतन, भिक्षा मांगनेका पात्र, प्राणधारणके लिये एकसमय वनके कंद मूलादिक सेवन, यथाप्राप्ति भोजन, थकावट दूर करनेको ऊपरसे सूखकर गिरेहुए पत्रोंक आश्रय तथा घासका आसनाध्यान लगाने के लिये योगपट्ट,वनवृक्षोंकेनांचे निवास तंद्रा, निद्रा और आलस्यादि कर्मोंका वर्जन, इन्द्रियोंके विषयोंसे उपताप रखना तथा इंद्रियोंको वशमें रखना,निद्रा,स्थिति, गति, हष्टि, आहार, विहार तथा अंगा. दिकोंकी चेष्टामें विचारपूर्वक प्रवृत्त होना । तथा सत्कार, स्तुति, निन्दा और अपमान आदिकोंमें प्रसन्न तथा रंज न होना। श्रम, सर्दी, गर्मी, पवन, वृष्टि, मुख और दुःखको सहन करना । शोक, दीनता, द्वेष, मद, मान, लोभ, राग, इर्षा, भय, और क्रोध आदिकोंसे चलायमान न होना । अहंकारादिकाको उप. द्रव समझकर त्याग देना । आत्मामें और लोकपुरुषमें तुल्य दृष्टिसे देखना, अपने योगादिक या समाधि आदिक किसी कालको बिगडने नहीं देना। योगके आरम्भमें सदैव प्रेम लगाये रहे । अपने मनको सदैव सात्त्विक बनाता रहे । मोक्षके लिये बुद्धि, धृति, स्मृति इनके बलको ग्रहण करे । इन्द्रियोंका नियमन करे अर्थात जीते । अथवा इन्द्रियोंको चित्तमें और चित्तको आत्मामें स्थापन करे। शरीरावयवोंको धातु भेदसे जाने । यह शरीर धातुभेदसे बनाया है और निरतर संपूर्ण कार्य, कारण इसीसे होतेहैं । यह संयोगही : दुःखका कारण है । यह शरीर मनित्य है । सब प्रकारकी प्रवृत्ति दुःखको देनेवाली है और संपूर्ण सुखोंका
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(७०)
चरकसंहिता-भा० टी०। अभिनिवेष त्यागमें है । इसप्रकारका निश्चय करे । यही मक्षिका सीधा मार्ग है। इससे विपरीत प्रवृत्तिमार्ग है। उससे मनुष्य दुःखसे बंधजाता है मोक्षका सुख प्राप्त करनेके लिये इन निवृत्ति मार्गोंका कथन किया है ॥ २२॥
भवन्तिचात्र । एतैरविमलसत्त्वशुद्धयुपायैर्विशुध्यति । मृज्यमानइवादर्शस्तैलचैलकचादिभिः॥२३॥ ग्रहाम्बुदरजोधूमनीहारैरसमावृतम् । यथार्कमण्डलंभातिभातिसत्त्वंतथामलम् ॥२४॥ज्वलत्यात्मनिसंरुद्धंतत्सत्त्वंसंवृतायने । शुद्धःस्थिरःप्रसन्नाचिर्दीपोदीपाशयेयथा ॥ २५॥ इन सब शुद्ध उपायोंद्वारा मन निर्मल होजाताहै । जैसे-तैल, वस्त्र और वाल आदिकोंसे साफ कियाजानेपर शीशा निर्मल होजाताहै तथा घर, वादल, धूल, धूम, निहार इनसे ढका हुआ सूर्यमण्डल प्रतीत नहीं होता उसीप्रकार अहंकारादिकोंसे व्याप्त हुआ मन होनेपर ज्ञानका प्रकाश नहीं होता।और उन वादलादिकोंके उडजानेसे सूर्यका स्वच्छ प्रकाश दिखाई देने लगताहै उसीप्रकार अहंकार आदिकोके चले जानेसे मन स्वच्छ होजाताहै । जिस प्रकार स्थिर और प्रसन्न दीपक्की ज्योति शुद्ध रीतिसे टिकाई जानेपर निर्मल टिका हुआ प्रकाश करतीहै उसीप्रकार शुद्धसत्व आत्मामें ज्ञानका प्रकाश करता है ॥ २३ ॥ २४ ॥ २५ ॥
शुद्धसत्वबुद्धिका कथन । शुद्धसत्त्वस्ययाशुद्धासत्याबुद्धिःप्रवर्तते। ययाभिनत्यतिबलंमहामोहमयंतमः ॥ २६ ॥ शुद्ध सत्त्वसे शुद्ध सत्य जो बुद्धि उत्पन्न होतीहै । जिस बुद्धिसे महामोहरूपी अतिबलवान् अंधकार दूर होजाताहै ॥ २६ ॥
सर्वभावस्वभावज्ञोययाभवतिनिस्पृहः। योगेययासाधयतेसांख्यःसम्पद्यतेयया ॥ २७॥ यया नोपैत्यहकारंनोपास्तकारणं,
यया । ययानालम्बतकिञ्चित्सर्वसंन्यस्यतेयया ॥ २८ ॥ . यातिब्रह्मययानित्यमजरःशान्तमक्षरम् । विद्यासिद्धिर्मतिमें:: : धाप्रज्ञाज्ञानश्चसामता ॥ २९॥ . .
जिस बुद्धिके द्वारा मनुष्य संपूर्ण भावोंके स्वभावोंको जानताहुमा निष्क्रिक
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(७४१)
शारीरस्थान-अ०५. होजाताह । जिस बुद्धिके द्वारा योग साधन कियाजाता है तथा सांख्यके जाननेवाले सांख्यके ज्ञाता होतेहैं । जिससे अहंकार उत्पन्न नहीं होता और दुःखसुखके कारण आकर प्राप्त नहीं होते । जिस बुद्धिके होनेसे अन्य किसी विषयकी इच्छा नहीं रहती है जिस बुद्धिसे मनुष्य संपूर्ण त्याग करताहै और नित्य, अजर, शान्त, अक्षर ब्रह्मको प्राप्त होजाता है। वह बुद्धिही विद्या, सिद्धि, मति, मेधा, प्रज्ञा, ज्ञान, स्वरूप कही जाती है ।। २७ ॥ २८ ॥ २९ ॥
लोकेविततमात्मानंलोकश्चात्मनिपश्यतः।
परावरहशःशान्तिर्ज्ञानमूलाननश्यति ॥३०॥ जो मनुष्य संपूर्ण जगत्में अपने आपको देखता है और अपनेमें संपूर्ण जगत्को देखताहै उस मनुष्यकी परावरदृष्टि और ज्ञानमूला शान्ति कभी नष्ट नहीं होती है ।। ३० ॥
पश्यतःसर्वभूतानिसर्वावस्थासुसर्वदा ।
ब्रह्मभूतस्यसंयोगोनशुद्धस्योपपद्यते ॥ ३१ ॥ संपूर्ण माणियों में ब्रह्ममयी दृष्टिस देखताहुआ और संपूर्ण अवस्था तथा संपूर्ण कालोंमें उस ब्रह्मभूत ज्ञानीको पुनर्जन्मके कारण उपस्थित नहीं होतेहैं ॥ ३१ ॥
मुक्तका लक्षण। नात्मनःकारणाभावाल्लिमप्युपलभ्यते । ससर्वकारणटागान्मुक्तइत्यभिधीयते ॥३२॥ विपापविरजःशान्तंपरमक्षरमव्ययम् । अमृतंब्रह्मनिवाणंपायैःशान्तिरुच्यते ॥३३॥ जब आत्माके कारण भावसे और कोई चिह्न प्रतीत नहीं होता तो वह सम्पूर्ण कारणोंके त्यागसे मुक्त है ऐसा कहाजाताहै । विपाक, विरज, शान्त, पर, अक्षर, अव्यय, अमृत, ब्रह्म और निर्वाण यह सब शान्ति अर्थात् मोक्षके पर्यायवाचक शब्द हैं ॥ ३२ ॥ ३३ ॥
एतत्तत्सौम्यविज्ञानयज्ज्ञात्वामुक्तसंशयाः।
मुनयःप्रशमंजग्मुवीतमोहरजःस्पृहाः ॥ ३४ ॥ हे सौम्य ! इस विज्ञानके जाननेसे ही मुनीश्वर संशयरहित और मोह राग तथा स्पृहारहित हुए हैं। और मोक्षको प्राप्त हुए हैं ॥३४॥
____ अध्यायका उपसंहार। सप्रयोजनमुद्दिष्टलोकस्यपुरुषस्य च । सामान्यमलमुत्पत्तौनि
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(७४२)
चरकसंहिता-भा० टी०। वृत्तौमार्गएवच ॥ ३५ ॥ शुद्धसत्त्वसमाधानं सत्याबुद्धिश्चनेष्ठिकी । विचयेपुरुषस्योक्तानिष्ठाचपरमर्षिणा ॥३६ ॥ इति चरकसंहितायां शारीरस्थाने पुरुषविचयं शारीरं समाप्तम् ॥५॥
यहां अध्यायके उपसंहारमें श्लोक हैं-इस पुरुषविचयशारीरनामक अध्याय, जगत् और पुरुषकी सामान्यताका विचार तथा उसका प्रयोजन, दुःखोंकी उत्प, त्तिका मूल और निवृत्ति मार्ग, शुद्ध सत्त्वका समाधान, मोक्ष प्राप्त करनेवाली सत्यबुद्धि तथा मोक्ष इन सबका महर्षि आत्रेयंजीने वर्णन किया है ॥ ३५ ॥ ३६॥ इति श्रीमहर्षिचरक शारीरस्थाने भाषा कायां पुरुषविचयशारीरंनाम पंचमोऽध्यायः ॥५॥
षष्ठोऽध्यायः। अथातः शरीरविचयशारीरंव्याख्यास्याम इति हस्माह भगवानात्रेयः। अब हम शरीरविचय नामक शारीरकी व्याख्या करते हैं इसप्रकार भगवान आत्रेयजी कहने लगे।
शरीरविचयका प्रयोजन। शरीरविचयःशरीरोपकारामिष्यतभिषग्विद्यायाम् । ज्ञात्वा हिशरीरतत्वंशरीरोपकारकरेषुभावेषज्ञानमुत्पद्यतेतस्माच्छरीरविचयंप्रशंसन्तिकुशलाः ॥१॥ हे अग्निवेश ! वैद्यक शास्त्रमें शरीरके उपकारके लिये शरीर विचय जानना चाहिये शरीरतत्त्वको जाननेसेही शरीरके उपकारक भावोंमें ज्ञान उत्पन्न हो सकता. है। इसलिये शरीरविचयके जाननेकी विद्वान्लोग प्रशंसा करते हैं ॥१॥
शरीरका वर्णन। तत्रशरीरंनामचेतनाधिष्ठानभतपञ्चभूतविकारसमुदायात्मकम्॥ शरीरं चेतनाके आधिष्ठानभूत पांच महाभूतोंके विकारोंका समुदाय है ॥ २ ॥ समयोगवाहिनोयदाह्यस्मिञ्च्छरीरेधातवोवैषम्यमापद्यन्तेतः । दायंक्लेशंविनाशवाप्राप्नोतिवैषम्यगमनवापुनर्धातूनांवृद्धिहासंगमनमकात्स्न्ये न ॥३॥ . . . . . . . . ...
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शारीरस्थान-अ. ६.. (७४३)। शरीरकी सम्पूर्ण धातुएँ समयोगवाही हैं।जब यह धातुएँ शरीरमें विषमताकों प्राप्त होजाती हैं। तब यह मनुष्य कष्टको पाताहै अथवा विनाशको प्राप्त होजाताहै धातुओंका अपने परिमाणसे बढजाना या कम होजानाही विषमताको प्राप्त होना । कहा जाताहै ॥ ३॥
प्रकृत्याचयोगपद्यनतुविरोधिनांधातूनांवृदिहासौभवतः ॥४॥ प्रायः यह स्वभावसेही धातुओंका गुण है कि जब एक धातु वृद्धिको प्राप्त होती है तो उससे विपरति दूसरी धातु हीनताको प्राप्त होजातीहै ॥ ४॥
यदियस्यधातोवृद्धिकरंतत्ततोविपरीतगुणस्यधातोःप्रत्यवायकरन्तुसम्पद्यते । तदेवतस्माद्भेषजसम्यगवधार्यमाणंयुगपन्यूनातिरिक्तानांधातूनांसाम्यकरभवतिअधिकमपकर्षतिन्यूनमाप्याययतिाएतावदेवहिभैषज्यप्रयोगफलमिष्टंस्वस्थवृत्ता नुष्ठानञ्चयावद्धातूनांसाम्यस्यात् ॥ ५ ॥
जो द्रव्य एक धातुको वढानेवाला होताहै वह उससे विपरीत गुणवाली दूसरी । धातुको हीन करनेवाला होताहै । इसलिये वह एकही औषधी विधिवत् सेवन की.
हुई न्यून और अधिकहुई धातुओंको साम्यावस्थामें करदेती है क्योंकि जो धातु वहीं हुई होती है उसको अपकर्षण करके घटा देती है और घटीहुईको बढा देतीहै । इसप्रकार औषधीका प्रयोग करनेका श्रेष्ठ फल है। और मनुष्यको स्वस्थवृत्तका अनुष्ठान करना चाहिये जिससे सम्पूर्ण धातुओंकी साम्यता बनीरहे ॥५॥
धातुसाम्यकी विधि । स्वस्थस्यापिसमधातूनांसाम्यानुग्रहार्थमेवकुशलारसगुणानाहा,. रविकारांश्चपर्यायेणेच्छन्तिउपयोक्तुम् । सात्म्यसमाख्यातानेकप्रकारभूयिष्ठांश्चोपयुञ्जानास्तद्विपरीतकरणलक्षणसमाख्यातचेष्टयासममिच्छन्तिकर्तुम् ॥६॥ स्वस्थ मनुष्यों की भी समधातुओंकी साम्यता रखनेके लिये रस, गुण आदि आहारके विकारोंको उनके पर्यायक्रमसे निश्चय कर देना उचित समझतेहैं। क्योंकि एक प्रकारका रस सात्म्य होनेपर भी बहुत .खायाजाय तो. उससे जो धातुओंमें विषमता होनेवाली हो उसके विपरीत कार्य करनेवाले द्रव्यके उपयोगसे धातुओं में समता रहती है और सात्म्पतामें कोई विघ्न उपस्थित नहीं होता । इसलिये अनेक प्रकारक रसोंका भोजन करतेहुए उनके गुणादिकोंसे उनको धातुसाम्य बना,सेवन ..
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( ७४४)
चरकसंहिता-भा० टी०। करना अथवा जिंसप्रकार सेवन करनेसे धातुएं साम्य रहें उसप्रकार साधन करना उचित है । तथा जिसके सेवनसे जो धातु अधिक होनेवाली हो उससे विपरीत व्यका सेवन करना और चेष्टा करना धातुओंको सात्म्य रखताहै ॥ ६ ॥
स्वस्थके धातुसाम्य रखनेका उपदेश । देशकालात्मगुणविपरतिानांहिकर्मणामाहारविकाराणाञ्चक्रमणोपयोगःसम्यक् । सर्वाभियोगोनुदीर्णानांसन्धारणमसन्धारणमुदीर्णानाञ्चगतिमतांसाहसानाञ्चवर्जनम् । स्वस्थवृत्तमेतावद्धातूनांसाम्यानुग्रहार्थमुपदिश्यते ॥ ७॥ देश, काल और आत्मगुणसे विपरीतकर्मीका तथा आहारसमूहोंका क्रमपूर्वक उपयोग करना अर्थात् शीतदेशमें गर्म वस्तुओंका उपयोग और उष्णदेशमें शीत वस्तुओंका उपयोग करना । इसीप्रकार शीतकालमें उष्णपदार्थोंका सेवन और उष्णकालमें शीतपदार्थोंका सेवन एवम् रूक्ष प्रकृतिको स्निग्ध द्रव्योंका सेवन करना और स्निग्धको रूक्षका सेवन करना इत्यादि कर्म तथा जो वेग आयेहुए हैं उनको धारण न करना और नहीं आयेहुए वेगोंको धारण करना,साहसीकोको छोडदेना यह सब स्वस्थ मनुष्योंकी धातुओंको सात्म्य रखने के लिये कथन कियगयेहैं ॥७॥
___ धातुओंकी वृद्धि और ह्रासका कारण । . धातवःपुनःशारीराःसमानगुणैःसमानगुणभूयिष्ठैवापिआहारविहारैरत्यस्यमा वृद्धि प्राप्नुवन्तिह्रासन्तुविपरीतगुणैर्विपरीतगुणभूयिष्ठेप्यिाहारैश्यस्यमानैः ॥ ८॥ शरीरकी धातुएँ अपने समान गुणाले तथा समानगुणविशेषवाले आहारवि. हारोंके सेवनसे वृद्धिको प्राप्त होती हैं । और विपरीतगुणवाले तथा विपरीतप्रभाववाले आहार, विहारसे धातुएँ ह्रासको प्राप्त होती हैं ॥ ८ ॥
धातुओंके गुण । तोमेशरीरधातुगुणाःसंख्यासामर्थ्यरूपकरास्तद्यथागुरुलघुशीतोष्णस्निग्धरूक्षमन्दतीक्ष्णस्थिरसरमृदुकठिनविशदपिच्छिलश्लक्ष्णखरसूक्ष्मस्थूलसान्द्रद्रवाः ॥९॥ उन शारीरिक धातुओंके गुण इसप्रकार हैं और वह संख्या, सामर्थ्य और रूपके विभागसे जानने चाहियोजैसे गुरु,लघु,शीत,उष्ण,स्निग्ध,रूक्ष,मंद, तीक्ष्ण, स्थिर,सर,मृदु, कठिन, विशद,पिच्छिल,श्लक्ष्ण,खर,सूक्ष्म,सान्द्र स्थूल और द्रव॥९॥
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शारीरस्थान-अ०. ६. . (७४५).
गुरु और लघुधातुओंका वर्णन। . तेषयेगुरवोधातवोगुरुभिराहारविकारगुणैरभ्यस्यमानराप्या: य्यन्तेलघवश्चह्नसन्ति । लघवस्तुलघुभिरेवाप्याय्यन्तेगुरवश्चह्नसन्त्येवमेवसर्वधातुगुणांनांसामान्ययोगावृद्धिविपर्ययाद्रासः ॥ १०॥ उनमें जो गुरु धातु हैं वह गुरुगुगवाले आहारके सेवनसे बढतेहैं और लघुधातुएं भास होती हैं । इसप्रकार लघुगुणवाले द्रव्योंके सेवन करनेसे लघुधातुएँ पुष्ट होतीहैं । और गुरुधातुएँ हास होती हैं । इसप्रकार सम्पूर्ण धातुओंकी समानगुणवाले द्रव्यसे वृद्धि और विपरीत गुणवाले द्रव्योंसे हास होताहै ।। १० ।।
प्रतिधातुओंकी वृद्धिका हेतु । तस्मान्मांसमाप्याय्यतेमांसेनसूयोन्येश्यःशरीरधातुभ्यः। तथा लोहितंलोहितेनमेदोमेदसावलावसयाअस्थितरुगास्थनाम
जासज्जयाशुक्रंशुक्रेणगर्भस्वामगर्भेण ॥ ११ ॥ इसलिये और धातुओंकी अपेक्षा मांसके खानेले मांस । रुधिरसे रुधिर। चौसे चढे । कोमल अस्थियोंसे अस्थिय । मज्जासे मज्जा । वार्यसं वीर्य बढताहै। इसी प्रकार गर्भ-आमगर्भके सेवनसे पढताहै ॥ ११ ॥
समानकी अप्राप्तिमें उपाय । यनतएवंलक्षणेनसामान्येनलामान्यवतामाहारविकाराणामसान्निध्यस्यात् । सन्निहितानांवापिअयुक्तत्वानोपयोगोघृणित्वादन्यस्माद्वाकारणात्सवधातुरभिवयितव्यास्यात् ।तस्य येसमानगुणाःस्युः आहारविकारा. असेव्याश्चतत्रसमानगणमूयिष्ठानामन्यंप्रकृतीनामपिआहारविकाराणामुपयोगःस्यात् इस स्थानमें इस सामान्य निर्देशसे संपूर्ण आहार आदिकोंका. भाव जानना । शरीरके धातुओंके समानगुणवाले मांसआदि आहारसे मांस आदिकोंकाही आव. श्यक कथन नहीं है किन्तु मांस आदिआहार बढानेवाले जो आहारविशेष हैं उनका प्रयोजन है । जिनको मांस आदिकोंसे घृणा है अथवा न मिलनेसे वा अन्य किसी कारणसे वह असेवनीय है उनको मांस आदिके बढानेवाले अन्य दूध, दाल भादि पदार्थ सेवन करने चाहिये ॥ १२॥ ।
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(७४६). चरकसंहिता-मा० टी०। तद्यथा--शुक्रक्षयेक्षीरसर्पिषोरुपयोगोमधुरस्निग्धसमाख्याता नाश्चापरेषामेवद्रव्याणाम् मूत्रक्षयेपुनरिक्षुरसवारुणीमण्डद्र वमधुराम्ललवणोपवेदिनाम् । पुरीषक्षयेकुल्माषमाषकष्मा . ण्डाजमध्ययवशाकधान्याम्लानाम् । वातक्षयकटुतिक्तकषायरूक्षलघुशीतानाश्च । पित्तक्षयेम्ललवणकटुकक्षारोष्णतीक्ष्णानाम् ।श्लेष्मक्षयस्निग्धगुरुमधुरसान्द्रापिच्छिलानांद्रव्या.णांकापिचयद्यद्यस्यधातोवृद्धिकरंतत्तदनुसेव्यम् ॥ १३ ॥ वह इसप्रकार जानना । जैसे शुक्रके क्षीण होनेपर दूध, घृतका उपयोग करना, मधुर तथा चिकने एवम् अन्य वीर्यवर्द्धक पदार्थों का सेवन करना उचित है।मूत्रक्षय होनेपर ईखका रस, वारुणी, मण्ड तथा पतले और मधुर,अम्ल,लवण,एवम् मूत्रके लानेवाले अन्य पदार्थ सेवन करने चाहिये । मलके क्षय होनेपर कुल्माष (मटर) उडद, कूष्माण्ड,बडी सेमफली, यव, शाक, धान्याम्ल सेवन करना चाहिये।वातके क्षीण होनेपर कडुवे, चरपरे, कसैले, रूक्ष, हलके तथा शीतल द्रव्य सेवन करना चाहिये । पित्तके क्षय होनेपर खट्टे, नमकीन, चरपरे, क्षार, उष्ण तथा तीक्ष्ण द्रव्योंका सेवन करना चाहिये । कफ के क्षीण होनेपर निग्ध, भारी, मधुर, सान्द्र पिच्छिल द्रव्योंका सेवन करना चाहिये । इसी प्रकार जो कर्म भी जिस २ धातुको वढानेवाला हो उसका सेवन करना चाहिये ॥ १३॥
एवमन्येषामपिशरीरधातूनांसामान्यविपर्ययाश्यांवृद्धिहासौ यथाकालंकाविति । सर्वधातूनामेकैकशोऽतिदेशतश्चवृद्धिहासकराणिव्याख्यातानिभवन्ति ॥ १४ ॥ एवम् अन्य भी जो शरीरकी धातुएँ हैं उनके समान और विपर्यय करनेवाले द्रव्योंसे धातुओंका वृद्धि और हास होताहै। उनसबका धातुओंको साम्य रखनेके लिये यथासमय सेवन करना चाहिये । इसप्रकार संक्षेपसे संपूर्ण धातुओंके वृद्धि और हास करनेवाले भावोंका एकएक करके वर्णन कियागयाहै ॥ १४ ॥ कुत्तशरीरपुष्टिकरास्त्विमेभावाःकालयोगःस्वभावसिद्धिराहार- . सौष्ठवमविघातश्चोतबलवृद्धिकरास्त्विमेभावाभवन्ति । तयथा- . बलवत्पुरुषेदेशेजन्मबलवत्पुरुषेचकाले ..। सुखश्चकालयोगो ...
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(580).
शारीरस्थान - अ० ६. बीजक्षेत्र गुणसम्पञ्च्चाहार संपञ्चशरीरसंम्पञ्चसात्म्य संपञ्चसः स्वसंपच्चस्वभावसंसिद्धिश्चयौवनञ्चकर्मचसंहर्षश्चेति ॥ १५ ॥
संपूर्ण मनुष्योंके सब धातुओं को पुष्ट करनेवाले यह भाव होते हैं। जैसे- समयका उत्तमयोग स्वभावसिद्धि, आहारकी उत्तमता, किसीप्रकारका विघात न पहुंचना यह मनुष्यों के बलके बढानेवाले भाव होते हैं। जैसे - वलवान् पुरुषसे बलवान् स्त्रीमें और बलवान् देशमें, तथा बलवान् समयमें जन्म होना । सुखकारक कालका योग, वीज और क्षेत्रकी उत्तमता, सत्त्वकी उत्तमता, व्यायाम आदि बलकारक कर्म, यौवनाव स्था, अपना किया कर्म और प्रसन्नता यह सब मनुष्यों के शरीरको पुष्ट तथा बलऔर धातुओंकी वृद्धि करनेवाले भाव हैं ॥ १५ ॥
आहारपरिणामकरास्तुइमेभावाभवन्ति । तद्यथा - उष्मा, वायुः, क्लेदः, स्नेहः, कालः, संयोगश्चेति ॥ १६ ॥ तत्रतुखत्वेषामुमादीनामाहारपरिणामकराणां भावानामिमे कर्मविशेषाभव -- न्तितद्यथा । उष्मापचतिवायुरपकर्षतिक्लेदः शैथिल्यमापादयतिस्नेहोमार्दवंजनयतिकालः पर्य्यातिमभिनिर्वर्त्तयति संयोगस्तुएषां परिणामधातुसाम्यकरः सम्पद्यते ॥ १७ ॥
आहारको पाचन करनेवाले यह भाव होते हैं । जैसे- गर्मी, वायु, क्लेद, स्नेह, काल, और संयोग इन गर्मी आदि आहारके पाचन करनेवाले भावोंके आहारके पाचन करनेमें पृथक २ कर्म हैं। जैसे- गर्मी पचानेवाली है। वायु आकर्षण करती है । क्लेद · आहारको शिथिल करता है । खेह मृदु अर्थात् आहारको नरम बनाता है । काल पर्याप्त करता है अर्थात् ठीक समयपर उचित २ कार्यों को करताहै । समयपर भोजन न होने से परिपाकम भी विघ्न होता है । संयोग इन सबके परिणामसे धातुओंको साम्य करता है ॥ १६ ॥ १७ ॥
परिणामतस्त्वाहारस्यगुणाः शरीरगुणभावमापद्यन्तेयथास्वमविरुद्धाविरुद्धाश्च विहन्युर्विहताश्वविरोधिभिःशरीरम् ॥ १८ ॥ जब आहार पाचन होजाता है तो उसके गुण शरीरके गुण भावों में प्राप्त हो जाते हैं यदि आहार अविरुद्ध गुणवाला हो तो शरीरको पुष्ट करता है और विरोधी गुणवाला. हानेसे शरीरको नष्ट करदेता है ॥ १८ ॥
शरीरधातुके भेद | शरीरधातवस्त्ववंद्विविधाः संग्रहेणमलभूताः प्रसादभूताश्च ।
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( ७४८)
चरकसंहिता-भा० टी०। . तत्रमलभूतास्तेशरीरस्ययेबाधकराःस्युस्तद्यथाशरीरच्छिद्रेषुउ. पदेहाःपृथग्जन्मानोबहिर्मुखाःपरिपक्वाश्चधातवः । प्रकुपिताश्चवातपित्तलेष्माणोयेचान्येऽपिकचिच्छरीरेतिष्ठन्तिभावाः शरीरस्योपघातायोपपद्यन्तेसर्वांस्तान्मलान्संप्रचक्ष्महे.। इतरांस्तुप्रसादेगुर्दादींश्चद्रव्यान्तान्गुणभेदेनरसादींश्चशुक्रान्तान्द्र. व्यभेदेन ॥ १९॥ शारीरिक धातुएं सामान्यतासे दो प्रकारको होती हैं। १ मलभूत २ प्रसादभूत उनमें जो शरीरको वाधा करनेवाली हैं उनको मलभूत धातु कहतेहैं । वह इस प्रकार हैं । जैसे-शरीरछिद्रों में भरा हुआ क्लेद और जो शरीरसे पृथक् उत्पन्न होनेवाले हो अर्थात् शरीरमें न मिलकर फोकट रूपसे अलग निकल जानेवाली हों और परि. पाकको प्राप्त हो अपने छिद्रोद्वारा वाहर निकल जानेवाली हों विष्ठाआदि) इनको मल कहते हैं तथा कुपित हुए वात, पित, कफ और इनके सिवाय भी जो शरीरको बिगाडनेवाले भाव है उन सबको मलभूत धातु कहते हैं । इनके सिवाय गुरु आदि गुणसे लेकर द्रव पर्यन्त गुण भेदसे, और रससे लेकर शुक्रपर्यन्त द्रवभेदसे सब धातुयें प्रसादसंज्ञक होती हैं ॥ १९ ॥
तेषांसर्वेषामेववातपित्तश्लेष्माणोदुष्टादूषयितारोभवंतिदोषत्वाद्वातादीनांपुनर्धात्वन्तरेकालान्तरेप्रदुष्टानांविविधाशितपीतीयेऽध्यायेविज्ञानान्युक्तानिएतावत्येवदुष्टदोषगतिविसंस्पर्शना. • च्छरीरधातूनाम् । प्रकृतिभूतानान्तुखलुवातादीनांफलमारो
ग्यंतस्मादेषांप्रतिभावेप्रयतितव्यंबुद्धिमाद्भः ॥२०॥ उन सब धातुओंकोही दुष्ट हुए वात, पित्त, कफ दूषित करनेवाले होतेहैं । दोष होनेसे वातादिकोंद्वारा जो संपूर्ण धातु दूषित होकर जिन २ लक्षणों को धारण करती हैं वह सब विविधाशितपतिीयाध्यायमें विशेषरूपसे कथन कर चुकेहैं।दोष दुष्ट होकर शरीरकी धातुओंको संस्पर्श करतेही दूषित करदेतेहैं । जब यह वातादि दोष अपनी प्रकृतिमें स्थिर रहें तो इनका फल आरोग्यता होताहै । इसलिये बुद्धिमान, दोषोंको प्रकृतिस्थ रखनेमें यलवान् रहते हैं ॥ २०॥
पूर्णवैद्यके लक्षण । 1 सर्वदासर्वथासर्वशरीरंवेदयोभिषक् । 1. आयुर्वेदसकात्स्न्ये नवेदलोकमुखप्रदम् ॥ २१॥ .. ;
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शारीरस्थान-अ०६.
(७४९) यहांपर श्लोक हैं । जो वैद्य सवमकारसे सबकालमें संपूर्ण शरीरके संपूर्णभावोंकों यथावत् जानताहै वह लोकको सुख देनेवाले आयुर्वेदको संपूर्णरूपसे जानताहै॥२१॥
तमेवमुक्तवन्तंभगवन्तमात्रेयमग्निवेशउवाच । श्रुतमेतद्यदुकंभगवताशरीराधिकारेवचः। किन्नखलुगर्भस्याङ्गंपूर्वमभिनिवर्ततेकुक्षौकुतोमुखकथंवाचान्तर्गतस्तिष्ठति । किमाहारश्चवतयतिकथंभूतश्चनिष्कामतिकैश्वायमाहारोपचारैर्जातस्त्वव्याधिरभिवर्द्धतेसोहन्यतेकैःकथञ्चास्यदेवादिप्रकोपनिमित्ताविकाराउपलभ्यन्तेआहोस्विन्नकिश्चास्यकालाकालमृत्योर्भावाभावयोर्भगवानध्यवस्यति । किञ्चास्यपरमायुःकानिचास्यपरमायुषेनिमित्तानीति ॥ २२ ॥ इसप्रकार कहतेहुए भगवान् आत्रेयजीसे अग्निवेशकहनेलगे कि हेभगवन् ! शरीरसंबंधी जो विषय आपने कथन कियाहै वह हमने श्रवण किया । अब कृपा कर यह कथन कीजिये कि गर्भका प्रथम कौनसा अंग उत्पन्न होताहै और गर्भमें बालक फिसओर मुखकरके किस प्रकार गर्भाशयके भीतर रहताहै । और क्या आहारकर जीताहै,किसप्रकार निकलताहै,कैसे आहार और उपचारके होनेसे आरोग्य रहकर वृद्धिको प्राप्त होताहै । किन कारणोंस शीघ्र नष्ट होजाताहै । देव आदिकोंके कोपसे उत्पन्न हुए विकार कैसे जाने जातेहैं । हे भगवन् ! आप इसके काल और अकालमृत्युके भाव और अभावका क्या निश्चय करतहो अर्थात् भावाभावमें कौनसी अकालमृत्यु और कौनसी कालमृत्यु होती है तथा उनके कारण क्या है । इसकी परमआयु कितनी है और उसक निमित्त क्या हैं ॥ २२ ॥
तमेवमुक्तवन्तमग्निवेशंभगवानपुनर्वसुरात्रेयउवाच। पूर्वमुक्तमेतद्गर्भावक्रान्तीयथायमाभिनिवर्ततेकुक्षीयञ्चास्ययदासन्तिष्ठतेऽङजातम् । विप्रतिपत्तिवादास्त्वत्रबहुविधाःसूत्रकारिणामृषीणांसन्तिसर्वेषांतानपिनिबोधउच्यमानान् । शिरःपूर्वमभिनिर्वततेकुक्षावितिकुमारशिराभरद्वाजः पश्यतिसन्द्रियाणांतदाधिष्ठानमितिहृदयमितिकाङ्कायनोबाहीकभिषक्चेतनाधिष्ठानत्वात् । नाभिारतिभद्रकाप्यआहारागमतिरुत्वा पक्कगुदमितिभद्रशौनकोमारुताधिष्ठानत्वात् । हस्तपादमितिबडि- :
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(७२०)
चरकसंहिता-भा० टी०। शस्तत्करणत्वात्पुरुषस्य इन्द्रियाणांतिजनकोवैदेहस्तान्यस्यबुदयधिष्ठानानीतिकृत्वा । परोक्षत्वादचिन्त्यमितिमारीचिः कश्यपः सर्वाङ्गनिवृत्तियुगपदितिधन्वंतरिः । तदुपपन्नंस. वङ्गिानांतुल्यकालाभिनिवृत्तत्वाद्धृदयप्रभृतीनांसवाङ्गानांह्यस्यहृदयंमलमाधिष्ठानश्चकषाश्चिद्भावानांनचतस्मात्पाभिनिवृत्तिरेषान्तस्माद्धृदयपूर्वाणांसवाङ्गानांतुल्यकालाभिनिवृत्तिः सर्वभावाह्यन्योन्यप्रतिबदास्तस्माद्यथाभूतंदर्शनम् ॥ २३॥ इसप्रकार अग्निवेशके कथनको सुनकर भगवान् आत्रेयजी कहनेलगे कि हे अग्निबेश ! जिसप्रकार कुक्षीमें गर्भ उत्पन्न होता है. उसका वर्णन तो हम गर्भावक्रांति अध्यायमें करही चुकेहैं और गर्भका जो अंग जिससमय उत्पन्न होताहै यह भी उसीस्थानमें कहचुकेहैं परन्तु जिसप्रकार वहुतसे सूत्रकार ऋषियोंका इस विषयमें पृथक २ मत है उसको श्रवण करो। कुमारशिरा भरद्वाज कहते हैं कि पहिले गर्भमें मस्तक उत्पन्न होताहै । क्योंकि मस्तक संपूर्ण इन्द्रियों का निवासस्थान है।कांकायनबालीक वैद्यका मत है कि प्रथम हृदय उत्पन्न होताहै । क्योंकि चेतनाशक्तिका स्थान हृदयही है भद्रकाप्य कहतेहैं कि पहिले नाभि उत्पन्न होतीहै। क्योंक गर्भको पालनकरनेके लिये आहार नाभिद्वाराही पहुंचताहै । भद्रशौनक कहनेलगे कि पहिले पक्वाशय उत्पन्न हुआ क्योंकि शारीरिक वायुका प्रधान स्थान पक्का. शयही है।बडिश ऋषिका मत है कि पाहिले हाथपैर उत्पन्न होतेहैं क्योंकि हायपरही मनुष्यके करण अर्थात् कार्य करनेवाले हैं । विदेह देशके पति जनकका मत है कि पहिले इंद्रिये उत्पन्न होतीहैं क्योंकि इन्द्रियही बुद्धिके अधिष्ठान हैं। मारीच कश्यप कहते हैं कि यह सब अपरोक्ष है इसके विषयमें यह जाना नहीं जाता कि कौन पहिले तथा कौन पीछे उत्पन्न होतेहैं।और धन्वतरीजी कहते हैं कि संपूर्ण अंग एकही समयमें उत्पन्न होतेहैं सो-हमारे मतम भी हृदय प्रभृति संपूर्ण अंग एकहीसाथ उत्पन्न होतेहैं । संपूर्ण अंगोंका मूल अधिष्ठान हृदय है । किसी भावकी भी हृदयसे प्रथम उत्पत्ति नहीं होती।संपूर्णभावही आपसमें परस्पर उत्पत्तिके विषयमें अपेक्षा रखतेहैं । इसलिये हे अग्निवेश!सब अंगोंका एकही कालमें उत्पन्न होना युक्तिसिद्ध . गभस्तुखलुमातुःपृष्ठाभिमुखऊर्द्धशिराः संकुच्याङ्गान्यास्तेजरा:
युवृतःकुक्षौ । व्यप्रगतपिपासाबुभुक्षुस्तुखलुगर्भःपरतन्त्रवृत्ति- ::
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' शारीरस्थान-अ०६. (७५१) तिरमाश्रित्यवर्त्तयतिउपस्नेहोपस्वेदाभ्यामागर्भस्तुसदसद्भूतांगावयवस्तदन्तरंह्यस्यलोमकूपायनरुपस्नेहःकश्चिन्नाभिनाड्ययनैःनाभ्यांह्यस्यनाडीप्रसक्तासानाभ्याञ्चामराचास्यमातुः प्रसकाहृदयेमातृहृदयंह्यस्यताममरामाभिसंप्लवतेशिराभि:स्यन्दमानाभिः॥ २४ ॥ गर्भ माताके पीठकी ओर मुखकरके ऊपरको सिर कियेहुए सब अंगोंको संकोच करके जरायुसे लिपटाहुआ कुक्षीमें रहताहै । और यह भूख प्याससे रहित रहताहै। यह गर्भ परतंत्रवृत्ति है।माताके कियेहुए आहारके उपस्वेद और उपस्नेहसे पलताहै। तथा इसका जीवन माताके आहारके आश्रय है । गर्भके अंगावयव जबतक नहीं होते तबतक माताके गर्भाशयके सूक्ष्म रूपसे उपस्नेहको प्राप्त होता रहता है। फिर रोममार्गद्वारा गर्भका उपस्नेह होताहै । गर्भकी नाभिप्ते एक नाडी लगी हुई है जिसको नालवा कहते हैं। यही नाडी माताकी नाडियोंसे मिली हुई है। यह गर्भकी नाभिकी नाल माताके हृदय और गर्भके हृदयसे मिलीहुई है। इस नाडाको अमरा कहते हैं। रसके स्पंदन करनेवाली नाडियोंसे यह नाभिकी नाडी रस लेकर गर्भको पुष्ट करती रहती है ॥ २४ ॥
सतस्यरसासर्वबलवर्णकरःसम्पद्यतेच। सचसर्वरसवानाहारः ' स्त्रियाह्यापन्नगर्भायास्त्रिधारसःप्रतिपद्यते स्वशरीरपुष्टयेस्तन्यायगर्भवृद्धयेचसतेनाहारेणोपस्तब्धोवर्त्तयतिअन्तर्गतः ॥२५॥ दही रस गर्भको सब प्रकार बल और वर्ण उत्पन्न करताहै । गर्भवती स्त्री सब प्रकारक रस जो आहार करतीहै उसका तीन प्रकारका रस होताहै । उनमेंसे एक रससे गर्भवतीके शरीरकी पुष्टि होतीहै दूसरे प्रकारके रस स्तनोंमें दूध प्रकट करते हैं। तीसरे प्रकारका रस अंतर्गत हो गर्भको पालन करता है ॥ २५ ॥
गर्भके बाहर आनेका वृत्तांत । सचोपस्थितकालेजन्मनिप्रसूतिमारुतयोगात्परिवृत्त्याऽवाक्-. शिरानिष्क्रामत्यपत्यपथेन । एषाप्रकतिर्वितिरंतोऽन्यथापरन्वतएवस्वतन्त्रवृत्तिर्भवति ॥ २६ ॥ फिर वह गर्भ पूर्ण हो सर्वांगसम्पन्न होकर जन्मके.समय प्रसूत वायुके वेगसे परिव हो नाचेको सिर किंपे सतानमार्ग द्वारा बाहर गिरजाताहै । यह गर्भकी
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(७५२)
चरकसंहिता-मा० टी०। प्रकृति (स्वाभाविक धर्म ) है । इससे अन्यथा विकृति (वैकारिक धर्म ) होती हैं । गर्भाशयसे बाहर होकर अर्थात् जन्मलेनेके 'अनन्तर इस वालककी वृत्ति स्वतंत्र होजातीहै ॥ २६॥
__ बालकके आहार व उपचार। तस्याहारोपचारौजातिसूत्रीयोपदिष्टौअविकारकरॊचाभिवृद्धि कराभवतः । ताभ्यामेवचसेविताभ्यांविषमाभ्यांजातसय अपहन्यते तरिवाचिरव्यपरोपितोवातातपाभ्यामप्रतिष्ठित-- मूलः ॥२७॥ गभका जिसप्रकार आहार और उपचार करना चाहिये उसको आगे जातिसू. त्रीय नामक आठवें अध्यायमें कथन करेंगे । फिसप्रकारका आहार और प्राचार करनेसे आहार और उपचार निर्विकार होते हुए गर्भको बढानेवाले होतेहैं । उन्हीं आहार और उपचारोंके विषम होनेसे गर्भ अथवा जन्महुआ वालक इसप्रकार नष्ट होजाताहै जैसे-नया लगाया हुआ छोटासा वृक्ष जिसकी जडोंको पृथ्वीने पकडा न हो वह अधिक वायुके लगनेसे और तेज धूपके पडनेसे जडसे नष्ट होजाताहै ॥२७॥
आप्तोपदेशादद्भुतरूपदर्शनात्समुत्थानलिङ्गचिकित्सितविशे. षाच्चदोषप्रकोपानुरूपाश्चदेवादिप्रकोपनिमित्ताश्चविकाराः समुपलभ्यन्ते ॥ २८॥
आप्तपुरुषों के रचे हुए वालतंत्रोंके उपदेशसे और अद्भुतरूपोंके देखनेसे विचित्र रूपके अर्थात् दैवी कारण और लक्षणोंके देखनसे,यथोचित रीतिपर निदान,लक्षण
और चिकित्साका ज्ञान होनेसे,दोषोंके कोपसे और देवादिकोंके कोपसे उत्पन्न हुए. विकार जानेजासकतेहैं ॥ २८ ॥
. कालाकाल मृत्युवर्णन । कालाकालमृत्योस्तुखलुभावाभावयोरिदमध्यवसितंनः। यःका श्चिम्रियतेसर्वःकालएवसम्रियतेनहिकालच्छिद्रमस्तीत्येके भाषन्ते । तच्च सम्यकूनहच्छिद्रतासच्छिद्रतावाकालस्योपप:
द्यते कालस्यलक्षणभावात् ॥ २९ ॥ · कालमृत्यु और अकालमृत्युके होने न होने में हमारा मंतव्य सुनो कोई कहता है कि जब मनुष्य मारता है वह किसी प्रकारसे भी कभी मरे परन्तु उसका वही..
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शारीरस्थान - अं०.६
(७५३ )
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काल है | कोई कहता है कि काल छिद्र प्राप्त होनेसे घात पाकर आक्रमण करता है अर्थात् मृत्युके लिये मनुष्यमें जब जो अवकाश होता है वही उसका मृत्युकाल है । परन्तु यह कथन सत्य नहीं क्योंकि कालके लिये कोई छिद्रता और अच्छिद्रता नहीं है । काल तो स्वयं स्वलक्षण सिद्ध है । उसमें कोई छिद्रता और अंच्छिद्रता नहीं हो सकती ॥ २९ ॥
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तथाहुरपरेयोयदाम्रियते स तस्य नियतामृत्युकालः ससर्वभूतानां सत्यः समक्रियत्वादिति । तदपिचान्यथार्थग्रहणंनहिकश्चिन म्रियतेइतिसमक्रियः कालः पुनरायुषः प्रमाणमधिकत्योच्यने ॥३०॥
अन्य इसप्रकार कहते हैं कि जो जब मरता है उसका वही मृत्युकाल है। क्योंकि काल सत्य है और रागद्वेष रहित है। सबके लिये एकसी क्रिया करनेवाला है। परंतु यह भी ठीक नहीं देखने में आता है कि बहुतसे मरजाते हैं और बहुतसे नहीं मरते. इसलिये काल समक्रिय अर्थात् एकसी क्रिया करनेवाला नहीं है। यदि सबके लिये एककाल एकसाही होय तो उस कालमें या तो सवकी मृत्युही होजाती अथवा कोई भी न मरता । यदि आयुके प्रमाणसे काल मानाजाय तो सौवर्ष से पहिल किसी को मनाही नहीं चाहिये इसलिये कालको आयुके प्रमाणसे भी समक्रिय नहींकहा जासकता ॥ ३० ॥
यस्यचेष्टयोयदाम्रियतेतस्य सनियत मृत्युकालइतितस्य सर्वे भावायथास्वनियतकालाभविष्यन्ति । तञ्चनोपपद्यते प्रत्यक्षंह्यकालाहारवचनकर्मणां फलमनिष्टविपर्य्ययेचेष्टम् । प्रत्यक्षतश्चोपलभ्यतेखलुकालाकालयुक्तिस्तासुतासुअवस्थासुतं तमर्थ - मभिसमीक्ष्य । तद्यथाकालोऽयमस्य तुव्याधेराहारस्योषधस्य प्रतिकर्मणोविसर्गस्य चाकालोवेतिलोकेऽप्येतद्भवति । काले. देवोवर्षत्यकाले देवोवर्षतिका लेशी तमकाले शीतकालेत प्रत्यकालेतपतिकालेपुष्पफलमका लेपुष्पफलमिति। तस्मादुभयमस्ति कालमृत्युरकाले चनैकान्तिकमत्र । यदिहांकाले मृत्युर्नस्यान्नि-: यतकालप्रमाणमायुः सर्वस्यात् ॥ ३१ ॥
१
याद कहो कि जो जिससमय मरे उसका वही मृत्युकाल निश्चित है। तो उसके जितने भाव हैं वह सबही मृत्युंके सम्बन्ध में निश्चित काल मानने पडेंगे तो ऐसा भी.
४८
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( ७५४)
चरकसंहिता - भा० टी० ।
नहीं होसकता । क्योंकि प्रत्यक्ष देखने में आता है कि काल और अकालकी व्यव स्थामें जिस २ समय जैसे २ भले या बुरे आहारविहारादि किये जाते हैं उनका वैसाही बैसा फल होता है । जैसे इस व्याधीमें आहारे अथवा औषधका यह काल है, चिकित्साका यह समय है, व्याधीका यह समय हैं अथवा असमय है । इसीप्रकार लोक में भी देखा जाता है कि अपने ठीक समयपर ऋतुकालमें वर्षा होना और अकालमें वर्षा होना, शीतकालमें शीतपडना और अकालमें शीत पडना, उष्णकालमें उष्णता होनी तथा अकालमें उष्णता होनी । समयपर फूलफल आना और बेसमय फूलफल आना । इस प्रकार काल और अकाल युक्तिसिद्ध है। इसलिये दोनों हो सकते हैं । कालमें भी मृत्यु होती है और अकाल मृत्यु भी होसकयह दोनों एक नहीं मानी जासकती । यदि अकालमृत्यु न होती तो सबही अनुष्य आयुके प्रमाणसे निश्चित समयपर मराकरते ॥ ३१ ॥
एवं गते हिताहितज्ञानमकारणं स्यात्प्रत्यक्षानुमानोपदेशाश्चाप्रमाणस्युःयेप्रमाणभूताः सर्वतन्त्रेषुयैरायुष्याण्यनायुष्याणिचोपलभ्यन्तेवाग्वस्तुमेतद्वादमृषयो मन्यन्तेनाकालमृत्युरस्तीति३२॥ यदि अकालमृत्यु न होती तो हिताहित जानने की कोई आवश्यकता न रहती और प्रत्यक्ष तथा अनुमान एवम् आप्तोपदेश इन तीनों प्रमाणोंकी भी प्रमाणता नहीं रहेगी । तथा ऋषियोंके शास्त्रों में जो आयुष्य और अनायुष्यकर्त्ता प्रयोग आदि कथन किये गये हैं वह सब बकवादमात्र होजायगे । इसलिय कालमृत्यु और अकाल मृत्यु दोनों होती हैं ऐसा निश्चय है ॥ ३२ ॥
आयुका प्रमाण ।
| वर्षशतंखलुआयुषः प्रमाणमस्मिन् कालेतस्यानिमित्तंप्रकृतिगु'णात्मसम्पत्सात्म्योपसेवनञ्चेति ॥ ३३ ॥
वह कालमृत्यु आर अकालमृत्यु इसप्रकार है कि इससमय आयुका प्रमाण १०० वर्षका है उस सौवर्षकी आयु होने का कारण मातापिताके रज वीर्यकी उत्तमता, प्रकृतिके गुण और आत्मकृत कर्मोंका उत्तम होना, सात्म्यका सेवन है अर्थात् इन सबके उत्तम होनेसे आयु सौवर्षकी होती है । उस सौवर्षकी आयुको भोगकर मरनेको कालमृत्यु कहते हैं। इससे विपरीत अकालमृत्यु होती है ॥ ३३ ॥ अध्यायका उपसंहार |
शरीरंयद्यथा तच्चवर्तते क्लिष्टमामयैः । यथाक्लेशविनाशश्ञ्चयातियेचास्पधातवः॥ ३४ ॥ वृद्धिहासोतथाचैषांक्षीणानामौषध
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: - शारीरस्थान - अ० ७. (-७५५८); ञ्चयत् । देहवृद्धिकराभावाचलवृद्धिकराश्चये ॥ ३५ ॥ परिणामकराभावायाचतेषां पृथक्रिया । मलाख्याः सम्प्रसादाख्यां धातवः प्रश्न एवच ॥३६॥ नवकोनिर्णयश्चास्यविधिवत्सम्प्रकाशितः । तथाशरीरविचयेशारीरेपरमर्षिणा ॥ ३७ ॥ इतिचरकसंहितायांशारीरस्थाने शरीर विचयः शारीरः समाप्तः ॥ ६ ॥ यहांपर श्लोक हैं कि इस शरीरविचयशारीर अध्याय में शरीरका रूप तथा जो - गर्भ जिसप्रकार जीता है जिसप्रकार रोगोंसे केशित होता है, जिसप्रकार क्लेश तथा विनाशको प्राप्त होता है और इसके सम्पूर्णधातुओंकी वृद्धि और हास, क्षीण धातु-. ओक बढानेकी औषधी, देह वृद्धि करनेवाले भाव तथा बलवृद्धि करनेवाले भाव, - भोजन के परिणाम करनेवाले भाव और उनकी भिन्न २ क्रिया मल संज्ञक धातुयें तथा प्रसाद संज्ञक धातुयें, नौ प्रश्न, उन प्रश्नोंका निर्णय यह सब महर्षि आत्रेयजीने वर्णन किया है || ३४ ॥ ३५ ॥ ३६ ॥ ३७ ॥
• इति श्रीमहर्षि चरकप्रणीतायुर्वेदसंहितायां शारीरस्थाने पं० रामप्रसादवैद्योपाध्याय विरचितप्रसादन्याख्यभाषाटीकायामपस्मारनिदानं नामषष्ठोऽध्यायः ॥ ६ ॥
सप्तमोऽध्यायः ।
अथातः शारीरसंख्यानाम शारीराध्यायं व्याख्यास्याम इति हस्माह भगवानात्रेयः ।
अब हम शरीरसंख्या नामक शारीराध्यायकी व्याख्या करते हैं. इसप्रकार भगचान् आत्रेयजी कथन करने लग ।
शरीरसंख्यामवयवशः कृत्स्त्रंशरीरंप्रविभज्य सर्वशरीरसंख्यानप्रमाणज्ञानहेतोर्भगवन्तमात्रेयमग्निवेशः पप्रच्छ ॥ १ ॥
संपूर्ण शरीर के अवयवोंके विभागसे संपूर्ण शरीरके अवयवोंकी संख्याको निवेश आत्रेयजीसे पूछने लगे ॥ १ ॥
तमुवाच भगवानात्रेयः । शृणुमत्तोऽग्निवेश ! सर्वशरीरमभिचक्षाणाद्यथाप्रश्नमेकमनाः ॥ २ ॥
भगवान आत्रेयजी कथन करनेलगे कि हे अग्निवेश ! संपूर्ण शरीर के अवयवों की व्याख्या एकाग्रचित होकर मुझसे यया प्रश्न श्रवण करो ॥ २ ॥
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· ·
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(.७६६)
चरकसंहिता-भा० टी०॥
. .. त्वचाके भेद । यथावच्छरीरेषट्त्वचस्तद्यथा-उदकधरात्वग्वाह्याद्वितीयास्वगसृग्धरातृतीयासिध्मकिलाससम्भवाधिष्ठानाचतुर्थीकुष्ठसम्भवाधिष्ठानापञ्चमीअलजीवद्रधीसम्भवाधिष्ठानाषष्ठीतुयस्यां छिन्नायांताम्यत्यन्धइवचतमःप्रविशतियांचाप्याधिष्ठायारूषि .. जायन्तेपर्वसन्धिषुकृष्णरक्तानिस्थूलमूलानिदुश्चिकित्स्यतमानीतिषट्त्वचएताःषडङ्गशरीरमवतत्यतिष्ठन्ति ॥ ३ ॥ यथावत् शरीरमें छात्वचा होती हैं। वह इसप्रकार हैं। जैसे-पहिली उदकधरा त्वचा अर्थात् ऊपरवाली बाहरी त्वचा,दूसरी असृग्धरा, तीसरी त्वचा सिध्म(छीम) यह फिलास रोगके उत्पन्न होनेका स्थान है, चौथी त्वचामें कुष्ठ आदि रोग उत्पन्न होतेहैं, पांचवी त्वचामें अलजी, विद्रधी आदि रोग उत्पन्न होतेहैं,छठी त्वचा वह है जिसके फटजानेसे मनुष्यको मूर्छा उत्पन्न होजातीहै, नेत्रोंमें अंधकार आजा: ताहै । इसीके आश्रयसे जोडोंकी संधियोंमें काला, तथा लालवर्णके अत्यंत दुश्चिः कित्स्य व्रण प्रगट होतेहै । यह त्वचा षडंग शरीरको लपेटकर रहतीहै ॥३॥
शारीरके अंगविभाग । तत्रायंशरीरस्याङ्गविभागातद्यथा--द्वौबाहद्वसस्थिनशिरोविमन्तराधिरितिषडङ्गमङ्गम् ॥ ४ ॥ यह शरीर.छ. अंगोंमें विभक्त है । जैसे-दो बाहें और दो ऊरू ( टांगें) तपः एक गर्दनसहित शिर एवम् छठा मध्यभाग ॥४॥
शरीरकी हड्डियोंकी संख्या। त्रीणिषष्टयधिकानिशतान्यस्थनांसहदन्तोलूखललखैस्तद्यथा-- द्वात्रिंशद्दन्तोलूखलानिद्वात्रिंशदन्ताविंशतिर्नखाविंशतिः पाणिपादशलांकाश्चत्वार्याधिष्ठानान्यासांचत्वारिपाणिपादपृष्ठानिषष्टिरंगुल्यस्थीनिवपाष्ण्योढेकूर्चाधश्चत्वारःपाण्योमणिकाश्चत्वारःपादयोर्गुल्फाःचत्वार्य्यरत्न्योरस्थीनिचत्वारिजंघयोबैजानुनोर्द्वकपरयोऊवाबाह्वोःसांसयोःद्वावक्षकौद्वेतालूनिटे श्रोणिफलकेएकंभगास्थिपुंसमिद्रास्थिएकत्रिकसंश्रितमेकंगुः ।
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'शारीरस्थान - अ० ७.
(७५७)
दांस्थिपृष्ठगतानि पञ्चत्रिंशत्पञ्चदशास्थीनिग्रीवायां द्वेजत्रुप्येकं हन्वस्थिद्वेहनुमूलबन्धनेद्वेललाटेद्वे अक्ष्णोद्वेगण्डयोर्नासिकायां त्रीणिघोणाख्यानिद्वयोः पाश्र्श्वयोश्चतुर्विंशतिश्चतुर्विंशतिः पञ्जरास्थीनिचपार्श्वकानि । तावन्तिचैषां स्थालिकान्यर्बुदाकाराणि तानिद्विसप्तति शंख कौ चत्वारिशिरः कपालानिवक्षसिसप्तद्| शेतित्रीणिषष्ट्यधिकानिशतान्यस्थनामिति ॥ ५ ॥
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दांतों और उलूखलों (जिसमें दांत जडे रहते हैं ) सहित संपूर्ण शरीर में तीन सौ साठ ३६० हड्डियें हैं । जैसे बत्तीस ३२दांत ३२ बर्चास उलूखल | २० बीस नख २० बीस हाथपावोंकी शलाका । ४ चार उन शलाकाओंके अधिष्ठान | ४ चार हाथ पावके पृष्ठस्थान | ६० साठ अंगुलियोंकी हड्डियें । २ पार्श्वणी । २दो कूर्चके अघो भाग । दोनों हाथोंकी ४ चार मानिका । दोनों पैरोंके ४ चार गुल्फ । ४ चार - अरली | चार जंघाकी हड्डियें । २ दो जानुको हड्डियें । २ दो कोहनी की हड्डियें | दो २ ऊरूकी हड्डियें । २ दो बाहुकी हड्डियें । दो २ कंधेकी हड्डियें । दो २ दोनों जत्रुसंधियों में अक्षक (कीलक ) । दो २ तालुकी हड्डियें । दो २ श्रोणी फलक (दोनों चूतडों के ऊपरकी हड्डी ) | १एक भगकी हड्डी | १ पुरुषके लिंगकी हड्डी । एक १ त्रिकस्थानकी हड्डी । १ एक गुदाकी हड्डी । ३५ पैंतीस पीठकी हड्डियें । १५ पंद्रह -गर्दन की हड्डियें । २ दो जनुकी हडियें । १ एक ठोडीकी हड्डी । २ दो ठोडीके मूलबंधकी । दो २ ललाटकी हड्डियें । दो २ नेत्रोंकी हड्डियें । दो गण्डस्थलकी इडियें । ३ तीन नासिकाकी हड्डिये । २४ चौबीस दोनों पार्श्वभागकी हड्डियें । २४ चौवीस दोनों तरफ पंजरकी हड्डिये । २४ चौबीस ही इनके अर्बुदाकार स्थालिक । २ दोनों संखोंकी हड्डियां । ४ चार कपालकी हड्डियां । १७ सत्रह वक्षस्थलकी इड्डियां इसप्रकार सब मिलकर संपूर्ण शरीरकी हड्डियें ३६० होती हैं ॥ ५ ॥
इंद्रियें और इंद्रियोंके अधिष्ठान आदि ।
'पञ्चेंद्रियाधिष्ठानानि तद्यथा - त्वग्जिह्वानासिकाक्षिणीकणच ॥ ६ ॥ पांच इंद्रियोंके अधिष्ठान हैं जैसे- त्वचा, जिहा, नासिका, आँख, कान ॥ ६ ॥ पञ्चबुद्धीन्द्रियाणितद्यथा--स्पर्शनंरसनंप्राणंदर्शनंश्रोत्रमिति ॥७॥ पांच बुद्धि इन्द्रियें अर्थात् ज्ञान इन्द्रिय होती हैं । जैसे- स्पर्शन, रसन, प्राण, दर्शन और श्रोत्र इन्द्रियः ॥ ७ ॥
पञ्चकर्मेन्द्रियाणितद्यथाहस्तौ पादौ पायुरुपस्थोजिह्वाचेति ॥ ८
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(.७५८.)
चरकसंहिता - भा० टी० ।
पांच कर्म. इंद्रिय हैं जैसे हाथ, पांव, पायु (गुदा), उपस्थ (भग या लिंग )
और जिह्वा ॥ ८ ॥
हृदयं चेतनाधिष्ठानमेकम् ॥ ९ ॥ चेतनाका अधिष्ठान हृदय है ॥ ९ ॥
I
१० प्राणायतन और मर्म । दशप्राणायतनानितयथामूर्द्धा कण्ठोहृदयंनाभिगुदबस्तिरोजः शुक्रशोणितं मांसमिति । तेषुषट्पूर्वाणिमर्म संख्यातानि ॥ १० ॥ दश प्राणायतन हैं । जैसे मस्तक, कण्ठ, हृदय, नाभि, गुदा, वस्ती, ओज, शुक्र, रुधिर और मांस । इन दश स्थानों में प्राण रहनेसे इनको प्राणायतन अर्थात प्राणों के रहने के स्थान कहते हैं । इनमें कण्ठ, मस्तक, हृदय, नाभि, गुदा, वस्ति इन arat मर्मस्थान भी कहते हैं ॥ १० ॥ १५ कोष्ठ | पञ्चदशकोष्ठांगानितद्यथानाभिश्च हृदयञ्चक्लोमचय कृञ्चपुीहाच वृक्कौ चवस्तिश्चपुरीषाधानञ्चामाशयश्चेतिपक्वाशयश्चोत्तर
गुदञ्चाधरगुदञ्चक्षुद्रान्त्रञ्चस्थूलान्त्रञ्चव पावहनञ्चेति ॥ ११ ॥ कोष्ठांग ( कोठे ) पंद्रह हैं। जैसे - नाभि, हृदय, क्लोम, यकृत, प्लीहा, वृक, वस्ती, मलाशय, आमाशय पक्वाशय, उत्तरगुद, अधोगुद, क्षुद्रांत्र, स्थूलांच, वपावहन ॥११॥ प्रत्यङ्गों के नाम |
षट्पञ्चाशत्प्रत्यङ्गानिषट्सुअंगेषु उपनिबद्धानियान्यपरिसंख्यातानि पूर्व मंगेषुपरिसंख्यायमानेषुतान्यन्यैः पर्य्यायौरिह प्रकाश्य व्याख्यातानिभवन्ति । तद्यथा- द्वेजंघापिण्डिकेद्वेऊरुपिण्डिके द्वौस्फचौ द्वौवृषणौए कंशेफः देउखेद्वौ वंक्षणौद्रो कुकुन्दरौ एकंबस्तिशीर्षमेक मुदरंद्वौ स्तनौ। भुजौ द्वे बाहुपिण्डिकेचिबुकमेकंद्वावोष्ठौ सक्कण्यौ द्वौ दन्तवेष्टको एकतालुए कागलशुण्डिकाद्वेउपजिह्निकेएका गोजिह्विकाद्दौगण्डौद्वे कर्णशष्कुलिकेद्दौ कर्णपत्रको अक्षिकूटेचत्वारिअक्षिवत्मनिद्वेअक्षि कनीनिकेद्वेभ्रुवौ एकमवटुचत्वारिपाणिपादहृदयानिन वमहान्ति छिद्राणिसप्तारी स देवाधः ॥ १२ ॥
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शारीरस्थान-अ०७.
(७९) . छप्पन ५६ प्रत्यंग ( उपांग ) हैं । वह पूर्व कहेहुए छ. अंगोंमें बंधे हैं जिनका पहिले छ: अंगोंका कथन करते समय कथन नहीं कियागयाथा। अब उन छप्पन अंगोंका कथन करते हैं । जैसे-२ जंघाओंकी पिंडलिये। २ ऊरुस्थलकी पिंडलिये २ स्फिकार वृषण । १ लिंग । १ आमाशय । १ ग्रहणी । २ वंक्षण। २ कुकुन्दर । १ बस्तिशर्षि । १ उदर । २ स्तन ।२ भुजा । २ कुहुनियां। १ ठोडी । २ होठ । २ सुक्कणी । २ दंतवेष्टः । १ तालु । १ गलशुण्डिक । २ उपजिह्व । १ गोजिद्विका । २ गण्डस्थल । २ कर्णशष्कुलिका । २ कर्णपंत्र । २ अक्षिकूट । ४ अक्षी। २ अक्षीकनीनिका । २ भौहें । १ गर्दन। २ हथेली । २ तलवे । ९ महाछि। उन नवोंमें सात छिद्र गर्दनसे ऊपर और दो नाचेके भागमें ॥ १२ ॥
अदृश्य अंगोंके नाम । एतावदृश्यशक्यमपिनिर्देष्टुमनिर्देश्यमतःपरंतक्यमेवतद्यथा नवनायुशतानिसप्तशिराशतानिद्वेधमनीशतेपञ्चपेशीशतानि सप्तोत्तरंमर्मशतंद्वेपुनःसन्धिशते ॥ १३ ॥ यह सब अंग दृश्य अर्थात् देखने में आतेहैं और बहुतंसे ऐसे अंग भी हैं जो अदृश्य हैं वह केवल तर्कदाराही जाने जासकतहैं । जैसे-नौसौ ९०० स्नायु । सात सौ ७०० शिरा दोसौ २०० धमनियां पांचसौ ५०० पेशियां। एकसौ साता १०७ मर्म दोसौ २०० संधियां होतीहैं । १३ ।। त्रिंशच्छतसहस्राणिनवचशतानिषट्पञ्चाशत्सहस्राणिशिराधमनीनामणुशःप्रविभज्यमानानांमुखाग्रपरिमाणम् । तावन्ति चैवकेशश्मश्रुलोमानीत्येतद्यथावद्यसंख्यातंत्वक्प्रभृतिदृश्यमतःपरंतळम् ॥ १४॥ इन शिरा और धमनियोंके सूक्ष्म विभाग करनेसे इनके मुखाग्रभागका परिमाण अर्थात् संख्या ३० तीस लाख ५६ छप्पन हजार ९ नौसो होतीहै । उतनेही केश, श्मश्रु और रोम होते हैं । इसप्रकार इनकी यथावत् संख्याका वर्णन किया गयाहै। त्वचा प्रभृति जो दीखने में आतेहैं उनको दृश्य कहतेहैं तथा अन्यको तक्या कहते हैं ॥ १४ ॥
एकेतदुभयमपिनविकल्पयन्तेप्रकृतिभावाच्छरीरस्ययत्त्वञ्जाल
संख्येयंतदुपदेश्याम इत्परंप्रमाणमभिज्ञेयंतच्चवृद्धिहासयोगि: .. - तळमेवतद्यथादशोदकस्याञ्जलयःशरीरेस्वेनाञ्जलिप्रमाणेय ..
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4.७६.).
चरकसंहिता-भा०टी०। , तुप्रच्यवमानपुरीषमनुबध्नातिअतियोगेन । तथासूत्ररुधिर
मन्यांश्चशरीरधातून यत्तुसर्वशरीरचरंबाह्यत्वग्बिभर्तियत्तुत्वगन्तरेत्रणगतलसीकाशब्दलभतेयञ्चोष्मणानुबद्धंलोमकूपेभ्योनिष्पतत्स्वेदशब्दमवाप्नोतितदुदकंदशाञ्जलिप्रमाणम्॥१५॥ नवाजलय-पूर्वस्याहारपरिणामधातोर्यद्रसमित्याचक्षते । अष्टौ शोणितस्यसतपुरीषस्यषट्श्लेष्मणःपञ्चपित्तस्यचत्वारोमूत्रस्य त्रयोवसायाद्वौमेदसःएकोमज्ज्ञः । मास्तष्कस्यअञ्जिलिः शुक्रस्यतावदेवप्रमाणंतावदेवश्लेष्मणश्चोजसइत्येतच्छरीरतत्वमुक्तम् ॥ १६ ॥ कोई कहतेहैं कि अंगोंका विभाग प्रत्यक्ष आर अनुमानद्वारा दोनों प्रकार नहीं होसकता । वह शरीरेक स्वभावसेही है । शरीरके धातुओंका अजली द्वारा परिमाण कथन करतेहैं । वह परिमाण प्रत्येक मनुष्यकी अपनी अंजलीपर निर्भर है। अत्यंत तीक्ष्ण विरेचन देनेस जो जल विरेचन द्वारा पुरीषसे मिलकर निकल जाताहै वह दश अंजली प्रमाण होताहै । तथा जो जल मूत्र द्वारा, रुधिर द्वारा निकलताहै एवम् संपूर्ण शरीरमें विचरण करनेवाला त्वचाको पालन करनेगला, जो त्वचामें व्रण होजानेसे लसीका कहाजाताहै, जो गर्मी के आनेसे गेमकूपों द्वारा निकलताहै । यह सब दश अंजली प्रमाण जल होताहै ।जो आहार किया जाताहै उसका परिमाण 'धातु, रस नौ अंजली होताहै । रक्त आठ अंजली होताहै । पुरीष सात अंजली होताहै ! कफ छ: अंजली होताहै । पित्त पांच अंजली होताहै । मूत्र चारअंजली होताहै। वसा तीन अंजली होताहै । दोअंजली मेद । एक अंजली मन्जा। आधी' अंजली मस्तिष्क । आधी अंजली शुक्र । आधी अंजली श्लेष्मका ओजाइसप्रकार शरीरमें अंजलियोंका प्रमाण जानना ॥ १५ ॥ १६ ॥
__पार्थिव द्रव्योंका वर्णन । तत्रयाविशेषतःस्थलंस्थिरमूर्तिमगुरुखरकाठनमनखास्थिद- . न्तमांसचर्मवर्च केशश्मश्रुनखलोमकण्डरादितत्पार्थिवंगन्धो प्राणश्च ॥ १७॥ उन सब अंगोंमें जो विशेषकरके स्थूल, स्थिर, मूर्तिमान, भारी, खर, कठोर, अग होता है तथा दांत, नख, हड्डी, मांस, चर्म, मल, केश, श्मश्नु,रोम.और कण्डय
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शारीरस्थान-अ० ७.
(७६१)" आदि पार्थिवअंग होतेहैं तथा गंध और घ्राणेन्द्रिय भी पार्थिव अर्थात् पृथ्वीके अंग हैं॥ १७॥ .
आप्पद्रव्योंके नाम । यद्रवसरमन्दस्निग्धमृदुपिच्छिलरसरुधिरवसाकफापत्तमत्रस्वेदादितदाप्यरसोरसनश्च ॥ १८ ॥ जो विशेषरूपसे द्रव, सर,मंद, स्निग्ध, मृदु, पिच्छिल, अवयव हैं तथा रस, रुधिर, वसा, कफ, पित्त, मूत्र स्वेद मादक जलके अंग हैं ।एवम् रस और रसना भी जलके अंग हैं ॥ १८॥
आग्नेयद्रव्योंके नाम। यत्पित्तमुष्माचयोयाचभाःशरीरेतत्सर्वमाग्नेयंरूपंदर्शनश्च॥१९॥ शरीरमें पित्त, उष्णता, प्रकाश, पाचनशक्ति, रूप और दर्शनेन्द्रिय यह सव आग्नेय अर्थात् अग्निक अंग हैं ॥ १९॥
वायवीय द्रव्योंक नाम । यदुच्छासप्रश्वासोन्मेषनिमेषाकुश्चनप्रसारणगमनप्रेरणधारणादितद्वायवीयंस्पर्शःस्पर्शनश्च ॥२०॥
उच्छ्वास,निःश्वास,प्राण,अपान, उन्मेष, निमेष,आकुश्चन,प्रसारण,गमन,प्रेरण, पारण और स्पर्श तथा स्पर्शनोन्द्रिय यह सब वायवीय अर्थात् पवनके अंग हैं२०॥
आन्तरिक्षद्रव्यों के नाम । — यद्विविक्तमुच्यतेमहान्तिचाणूनिचस्रोतांसितदान्तरिक्षंशब्दः ' श्रोत्रश्च ॥२१॥
शरीरके बडे छोटे सब छिद्र, स्रोत, शब्द और श्रोत्रइन्द्रिय यह सब आकाशंके अंग हैं ॥ २१॥
यत्प्रयाक्ततत्तत्प्रधानंबुद्धिमनश्चेतिशरीरावयवसंख्यायथास्थलभेदेनावयवानांनिर्दिष्टा ॥ २२ ॥ जो प्रयोग करनेवाला है उसको प्रयोक्ता कहतेहैं । मन और बुद्धि प्रयोक्ता हैं इसालये प्रधान हैं । इसप्रकार शरीरके अवयवोंकी संख्याका भेद, अवयवोंका स्थूल भेद वर्णन किया गयाहै ।। २२ ॥
शरीरावयवास्तुपरमाणुभेदेनापरिसंख्येयाभवन्त्यतिबहुत्वाद
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(७६२) चरकसंहिता-मा० टी०i तिसौक्ष्म्यादतीन्द्रियत्वाच्च । तेषांसंयोगविभागवायुःपरमाणूनांकारणकर्मस्वभावश्चतदेतच्छरीरसंख्यातमनेकावयवंदृष्टमेकत्वेनसङ्गःसंख्यातम् । पृथक्त्वेनापवर्ग:तत्रप्रधानमशक्तं सर्वसत्त्वातिवृत्तौनिवर्त्तते इति ॥ २३ ॥ परमाणु भेदसे शरीरके अवयव असंख्य होतेहैं क्योंकि वह भेद अत्यन्त अधिक अत्यन्त सूक्ष्म और अतीन्द्रिय होते हैं। उन परमाणुओंके संयोग विभागमें वायु.. कर्म और स्वभावही कारण होताहै। इसप्रकार शरीरको संख्याका वर्णन कियागया। उन अनेक अवयवोंसे बनाहुआ यह शरीर एक दिखाई देताहै और यह कर्माधीन मोहवश एकत्वके संगको प्राप्त हुवा है । इन सब भावोंके पृथक् २ विचा' रनेसे और असंगसे मोक्ष प्राप्त होताहै।सम्पूर्ण अवयवोंमें यथोचित दृष्टि देनेसे ज्ञान उत्पन्न होकर सम्पूर्ण भावोंकी निवृत्ति होजाती है ॥ २३ ॥
अध्यायका उपसंहार ।। शरीरसंख्यांयोवेदसावयवशाभिषक् । तदज्ञाननिमित्तेनसमोहेननयुज्यते ॥ २४ ॥ अमूढोमोहमलैश्चनदोषैरभिभूयते। निदोषोनिःस्पृहःशान्तःप्रशाम्यत्यपुनर्भवः ॥२५॥ इति चरकसं० शारीर० शरीरसंख्यः शारीरः समाप्तः ॥७॥ यहांपर अध्यायके उपसंहारमें श्लोक हैं । जो वैद्य सम्पूर्ण अवयवोंसे शरीरकी संख्याको जान लेताहै वह अज्ञाननिमित्तक मोहसे युक्त नहीं होता । वह बुद्धिमान मूढतारहित मोहमूलक दोषासे दूषित नहीं होसकता तथा निर्दोष नि:स्पृह और शान्तिको प्राप्त होकर मोक्षको प्राप्त होत है ॥ २४ ॥ २५ ॥ । इति श्रीमहर्षिचरक० शारीरस्थाने भाषाटीकायांशरीरसंख्याशारीरं नामसप्तमोऽध्यायः॥७॥
___ अष्टमोऽध्यायः। अथातोजातिसूत्रीयंशारीरंव्याख्यास्यामइतिहस्माहभगवानात्रेयः।
अब हम जातिसूत्रीय शतिरकी व्याख्या करते हैं इसप्रकार भगवान् आत्रेयजी कथन करने लगे।
उत्तम संतान होनेका उपाय । . स्त्रीपुरुषयोरव्यापनशुक्रशोणितयोनिगर्भाशययोःश्रेयसीप्रजामिच्छतोस्तन्निवृत्तिकरंकमोपदेक्ष्यामः ॥१॥
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शारीरस्थान-अ०८ स्त्रों और पुरुषका रज, वीर्य, योनि और गर्भाशय निदोष होनेपर उत्तम संतान उत्पन्न करनेकी इच्छावाले स्त्री पुरुषों को जो कर्म करना चाहिये उसका वर्णन करते हैं ॥१॥
अथाप्येतोस्त्रीपुरुषोस्नेहस्वेदाभ्यामुपपायवमनविरेचनाभ्यांसं-- शोध्यक्रमाप्रतिमापादयेत्संशुद्धौचास्थापनानुवासनाभ्यामुपाचरेदुपाचरेञ्चमधुरौषधसंस्कृताभ्यांघृतक्षीराज्यांपुरुषस्त्रिय- . न्तुतैलमांसाभ्याम् ॥ २॥
प्रथम स्त्री और पुरुष स्नेहन स्वेदनसे शरीरको नरम बनाकर क्रमपूर्वक वमन, विरेचन द्वारा संशोधनकर शरीरको उत्तम बनावे और दोषादिकोंसे शुद्ध शरीर होनेपर मधुर द्रव्योंसे और घृत दूधसे पुरुषको आस्थापन और अनुवासन करे। स्त्रीको तेल और मांसरससे अनुवासन करे ॥२॥
स्त्रीपुरुषका कर्तव्य कर्म। ततःपुष्पात्प्रभृतित्रिरात्रमालीब्रह्मचारिण्यधःशायिनीपाणि. भ्यामन्नमजर्जरपात्रेभुञ्जानानचकाचिदेवमृजामापयेत ॥३॥ इनके अनन्तर जव स्त्री ऋतुमती हो तो जिस समयसे रजोदर्शन हो उसी समयसे तीन रात्रितक ब्रह्मचर्यमें स्थित रहे और पृथ्वीमें शयन करे,पुराने वर्तन अथवा मट्टीके पात्र में या हाथोंपर लेकर भोजन किया करे किसीसे स्पर्श न करे और किसी प्रकारका भी अहित कार्य न करे ॥ ३ ॥
ततश्चतुर्थेऽहन्येनामुत्साद्यसशिरस्कंस्तापयित्वाशुक्लानिवासांस्याच्छादयेत्पुरुषश्च ॥ ४॥ इसके अनन्तर चौथे दिन शरीरमें तैलकी मालिशकर उबटन लगा शिरसहित स्नान करे । स्वच्छ सुन्दर वस्त्र तथा फूलमाला आदि धारण करे । और पुरुषकोभी स्नान करा गंधादि लेपन करा, श्वेत स्वच्छ वखोंको धारण करावे ॥ ४ ॥
ततःशुकवाससौचस्त्रग्विणौसुमनसावन्योन्यमभिकामासंवसेतामितिब्रूयात् ॥ ५॥ ‘फिर वैद्य इन दोनों शुद्ध पवित्र वस्त्र धारण कियेहुए, फूलमालासे विभूषित शुद्धमनवाले, परस्पर संहवासकी इच्छावाले स्त्री पुरुषोंसे कहे कि तुम दोनों संवानकी कामनासे जाकर सहवास करो ॥ ५॥ . .. .. .. ....
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चरकसंहिवा-भा० टी०।
स्त्रीसहवास करनेके दिन.। स्नानात्प्रभृतियुग्मेष्वहःसुसंवसेतांपुत्रकामोतोचायुग्मेषुदुहि-।
तृकामौ ॥ ६॥ ' स्नानके दिनसे अर्थात् चौथेदिनके उपरान्त युग्म (६,८,१२, १४) रात्रिन्योंमें पुत्रकी कामनासे सहवास करे । अर्थाद इन रात्रियोंमें गमन करनेसे पुत्र उत्पन्न होताहै । और अयुग्म अर्थात् (५, ७, ९, ११, १३, १५,) इन रात्रियोंमें गमन करनेसे कन्या उत्पन्न होतीहै ॥६॥
सहवासकी विधि । " नचन्युब्जापार्श्वगतांवासंसेवेत। न्युन्जायावातोबलवान्सयो
निपीडयति। पार्श्वगतायादक्षिणेपार्श्वेश्लेष्मासंच्युतोऽपिदधा'तिगर्भाशयम् । वामेपार्श्वेपित्तदस्यांपीडितविदहतिरक्तशुक्रंतस्मादुत्तानासती जंगृह्णीयात्। तस्याहियथास्थानमवति. धन्तेदोषाप-तेचैनांशीतोदकेनपरिषिश्चेत् ॥७॥ स्त्री औंधी लेटकर अथवा वामे दहिने करवट लेकर सहवास न करे । क्योंकि औंधी होनेसे बलवान् वायु योनिको पीडित करताहै । दहिने पंसवाडे करवट लेकर सहवास करनेसे कफ टपककर गर्भाशयको आच्छादन कर देताहै । और वायीं करवट लेकर सहवास करनेसे पीडितहुआ पित्त रज और शुक्रको दूपित कर देताहै इसलिये सीधी उत्तान लेटकर पुरुषके वीर्य को ग्रहण करे। ऐसा होनेसे संपूर्ण दोष अपनेरस्थानों में स्थित रहतेहैं।गर्भ ग्रहण करनेके एक प्रहर वाद शीतलजलसे अपने नेत्रों, मुख तथा योनिको धोवे ॥ ७॥
गर्भधारण के अयोग्य स्त्री। तत्रात्यशिताक्षुधितापिपासिताभीताविमनाःशोका क्रुद्धा चान्यञ्चपुमांसमिच्छन्तामथनेचातिकामावानारीगर्भनधत्ते विगुणांवाप्रजांजनयति ॥ ८॥ गर्भाधानमें इसप्रकारकी स्त्री निषिद होती है।जिसने अधिक भोजन किया हो अथवा भूखी, तृषातुर, भयभीत, जिसका चित्त मैथुनमें न हो या अन्यप्रकारसे अन विगडा हो, शोक.अथवा क्रोधवाली,दूसरे पुरुषकी इच्छा रखनेवाली एवम् जो मैथुनसे तृप्तही न होतीहो । ऐसी खियें गर्भको धारण नहीं करतीं । अर्थात् इनकों गर्भ नहीं रहता यदि रहे भी तो कुरूप; और विगुंण संतान उत्पन्न होतीहै ॥ ८॥
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शारीरस्थान-१०८ (७६५) अतिवालामतिवृद्धांदर्घिरोगिणीमन्येनवाविकारेणोपसृष्टांवर्जयेत् ॥९॥
अत्यन्त छोटी अवस्थाकी, अत्यन्त वृद्धा, जिसके शरीर और योनिपर अत्यन्त बाल हों अथवा और किसी विकारसे युक्त हो ऐसी स्त्री मैथुनमें त्याज्य है॥ ९॥
पुरुषेऽप्येतएवदोषाः।अतःसर्वदोषवर्जितौस्त्रीपुरुषासंसृज्येया. ताम् ॥ १०॥ पुरुषमें भी यदि इसीप्रकार कोई दोष हो तो उसको भी मैथुनमें त्याज्य जानना इसलिये संपूर्ण दोषोंसे रहित स्त्री पुरुषोंको संतानकी कामनासे मैथुन करना चाहिये ॥ १०॥
स्त्रीगमनविधि। सातहर्षोमैथुनेचानुकूलाविष्टगन्धंसास्तीर्णंसुखंशयनमुपकल्प्यमनोज्ञहितमशनमशित्वादक्षिणपादेनपुमान्वामपादेनन्त्री चारोहेत्तत्रमंत्रप्रयुञ्जीत (अहिरसिआयुरसिसर्वतः प्रतिष्ठासिधातात्वादधातुविधातात्वादधातुब्रह्मवर्चसाभवेदिति ॥त्रझाबृहस्पतिर्विष्णुःसोमःसूर्यस्तथाश्विनौ । भगोऽथमिशवरु गौपुत्रवीरंदधातुमे) इत्युक्त्वासंवसताम् ॥ ११ ॥ १२॥ १३ ॥ 'स्त्री और पुरुष हर्षसहित मैथुनाभिलाषी प्रीतिपूर्वक दोनों सुन्दर सुसजित ऐस'
य्यापर जिसमें तकिया, स्वच्छ चद्दर, तथा गद्दा विछा हो मनको प्यारी लगने. वाली हो ऐसी शय्यापर पुरुष दहिने पांवसे और स्त्री पहिले वामपावसे आरोहित होवे (इन स्त्री पुरुषोंके उसदिन हित भोजन करना चाहिये । फिर उस शय्यापर कानों वैठकर इस मन्त्रको पढे"अहिरास आयुरासे सर्वतः प्राष्टिास" आदि"पुर चार दधातु भे"पर्यन्त। ऊपरके मूलमें लिखेहुए मंत्रको पढकर शयन करे११..१३॥
उत्तम पुत्र उत्पन्न करनेकी विधि । साचेदेवमासीतवहन्तमवदातंहर्यक्षमोजस्विनंशचिंसत्त्वसम्पन्नपुत्रामच्छेयमिति । शुद्धस्नानात् प्रभृत्यस्येमन्थमवदातं यवानांमधुसीपभ्यासंसृज्यश्वेतायागोःसरूपवत्सायाःपयसालोड्यराजतकांस्यवापानेकालेकालेसप्ताहंसततंप्रयच्छेत्पाना
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चरकसंहिता - मा० टी० |
यप्रातश्चशालियवान्नविकारान्दधिमधुसर्पिर्भिः पयोभिर्वासंसृ
७६६)
ज्यभुञ्जीत ॥ १४ ॥
1.
यदि उस स्त्रीको गौरवर्ण, सिंह के समान पराक्रमी, तेजस्वी, पवित्र, सत्वसंपन्न "पुत्र उत्पन्न करनेकी इच्छा हो तो ऋतुस्नान से शुद्ध होकर यवके सत्तुओंका मंथ बना, "मधु घृतयुक्तकर, सफेदरंग के बछडेवाली सफेद गौके दूधके साथ चांदी या कांसेके पात्रमें घोलकर नित्यम्प्रति प्रातःकाल सातरोजतक पीया करे और भोजन भी शालिचावल, यवके मैदसे बनाहुआ पदार्थ, दही, मधु, घृत, दूध इन सबको मिलाकर खाया करे ॥ १४ ॥
:
!
तथासायमवदातशरणशयनासनयानवसन भूषणवेषाचस्यात् १५ फिर सायंकालमें सुन्दर सुसज्जित घर में उत्तम शय्या, आसन आदिपर आराम करे एवम् उत्तम वस्त्र, भूषण और वेषको धारण करे ॥ १५ ॥
सायंप्रातश्वशश्वत् श्वेतंमहान्तं ऋषभम्आजानेयहरिचन्दनाङ्कितं पश्यत् । सौम्याभिश्चैनां कथाभिर्मनोऽनुकूलाभिरुपासीत । सौम्याकृतिवचनोपचारचेष्टांश्चस्त्रीपुरुषानितरानपिचेन्द्रियार्थानवदातान् पश्येत् । सहचर्य्यश्चैनांप्रियहिताभ्यां सततमुपचरेयुः तथाभतीनच मिश्रीभावमापद्येयाताम् ॥ १६ ॥
तथा सायंकाल और प्रातःकाल नित्य सफेदवर्णके वडभारी बैलको और पीले चन्दनसे चर्चित हुए उत्तम सफेद घोडेको देखा करे । और उस स्त्रीके चित्तको सुन्दर मनोहर, पवित्र वचन, उपचार, चेष्टा आदिसे प्रसन्न रक्खे तथा पुरुषका भी ऐसाही आचरण रहना चाहिये । एवं इन दोनोंको सुन्दर दैवी वस्तुओंका दर्शन कराना चाहिये। इस स्त्रीके समीप रहनेवाली उत्तम सहचारिणी स्त्रियें उसको हित और प्रिय आचरण से सेवा करती रहें। और इन सातदिनोंमें उस स्त्रीका पति भी उत्तम आचारोंका सेवन करे परन्तु यह दोनों आपसमें सहवास न करें ॥ १६ ॥ इत्यनेन विधिनासप्तरात्रंस्थित्वाष्टमेऽहन्याप्लुत्याद्भिः सशिरस्कं सहभत्र चाहतानिवस्त्राणिआच्छादयेदवदातानिअवदाताश्च खजोभूषणानिविभृयात् ॥ १७ ॥
इस विधीसे सात रात्रि व्यतीत होने के अनन्तर आठवें दिन प्रातःकाल शिरसहिव स्नानकर यह दोनों स्त्री पुरुष पवित्र सुन्दर नवीन वस्त्रोंको धारण कर उत्तम भूषण और सुन्दर फूलोंकी मालाओंको धारण करें ॥ १७ ॥
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. शारीरस्थान-अ०८.
. (७६७). • उत्तम पुत्रके लिये हवन विधि। ... ... . ततऋत्विक्प्रागुत्तरस्यादिशिअगारस्यप्राक्प्रवणमुदक्प्रवणंवा प्रदेशमभिसमीक्ष्यगोमयोदकाभ्यांस्थण्डिलमुपसंलिप्यप्रोक्ष्य 'चोदकेनवोदिमास्मिन्स्थापयेत् । तापश्चिमेनानाहतवस्त्रसञ्चये श्वेतार्षभवाप्यजिनउपविशेदाह्मणप्रयुक्तोराजन्यप्रयुक्तस्तुवैयाधेचर्मण्यानडुहेवावैश्यप्रयुक्तस्तुरौरवेवास्तेवा । तत्रोपविष्टः . पालाशीभिरैगुदीभिरौदुम्बरीभिर्माधूकीभिर्वा समिद्भिरग्निमुपसमाधायकुशैःपरिस्तीर्य्यपरिधिभिश्चपारधायलाजैःशुक्लाभिश्चगन्धवतीभिः सुमनोभिरूपकिरेत्। तत्रप्रणीतोदपात्रंपवित्रपूतपुपसंस्कृत्यसर्पिराज्यार्थयथोक्तवर्णानाजानेयादीन्समन्ततः स्थापयेत् ॥ १८॥ फिर ऋत्विज(यज्ञकरानेवाला पुरोहित )पूर्वकी दिशामें अथवा उत्तरकी दिशाम या घरसे जिप्त ओर जल पूर्व या उत्तरको ढलताहो उस स्थानमें गोवरस लीपकर वेदीको वनावे । उस वेदीको जलसे छिडकार ग्रहादिकोंको यथास्थान स्थापित करे । फिर उस स्त्रीको वेदीसे पश्चिमकी ओर शुद्ध बिछेहुए वस्त्रके ऊपर या सफेद वृषभके अजिनके ऊपर अथवा मृगछालापर बिठावे । ब्राह्मण हो तो इस विधिसे विठावे, क्षत्री होतो व्याघ्रके चर्मपर,वैश्य होय तो रुरु मृगके चर्मपर अथवा बकरके चर्मपर विठावे । फिर पलाश, इंगुदी, औदुम्बर महुआ आदिकी समिधोंसे अग्निको स्थापन करे और कुशकण्डी कर्म विधिस कुशाको विस्तीर्ण करे । फिर वेदीकी परिधि स्थापन होनेके अनन्तर सफेद धानको खील, सफेद सुगंधित फूलोंसे स्वस्तिवाचनपूर्वक वेदीको सुशोभित करे एवम् प्रणीता पात्र, उदकपात्र, पवित्रा, पवित्र घृतपात्र, तथा पुष्टी यज्ञविधिसे वरण आदि संपूर्ण सामग्रीको विधिवत् स्थापन करे ॥ १८ ॥
ततःपुत्रकामापश्चिमतोऽनिंदक्षिणतोब्राह्मणमुपवेश्यअन्वालभेतसहभायथेष्टंपुत्रमाशासाना । ततः तस्याआशासानाया ऋत्विक्प्रजापतिमभिनिर्दिश्ययोनौतस्याःकामपरिपूरणार्थको
म्यामिाष्टनिपेद्विष्णुयोनिकल्पयस्वित्यन्वयाचतितश्चैवाज्ये
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(६८) चरकसंहिता-भा०टी०। .: नस्थालीपाकमभिसंसा-त्रिर्जुहुयात्। यथाम्नायञ्चोपमन्त्रि
तमुदकपात्रतस्यैदद्यात् सर्वोदकार्थान्कुरुष्वेति ॥ १९ ॥ . इसके अनन्तर इस पुत्रकी कामनावाली स्त्रीको अग्निसे पश्चिमकी ओर और ब्रह्माको अग्निसे दक्षिण ओर स्थापन करे । और उस स्त्रीके भर्चाको यथेष्ट पुत्रके उत्पन्न होनेकी इच्छासे इसके पास बैठावे। फिर आचार्य प्रजापतिके उद्देशसे अथवा "प्रजापति"आदि मंत्रका निर्देशकर उस स्त्रीके पतिका हाथ स्त्रीकी योनिसे स्पर्श कराकर "विष्णुयोनि कल्पयतु" इसको पढतेहुए पुढेष्टी यज्ञ करावे और घृतकें साथ चरुं मिलाकर स्थालीपाक बनाकर तीनवार हवन करावे । फिर वेदोक्त मंत्रोंसे उपमंत्रित किया हुआ जलपूर्ण कलश उस स्त्रीको देवे । और यह कहे कि, संपूर्ण. जलके कार्य इस जलसे करना ॥ १९ ॥
यज्ञके अंतमें कर्म । ततःसमातेकर्मणिपूर्वंदाक्षिणपादमभिहरन्तीप्रदक्षिणमग्निमनुपरिकामेत्ततोब्राह्मणान्स्वस्तिवाचयित्वासहभाऽऽज्यशेषप्राश्रीयात । पर्वपमान्पश्चास्त्रीनचउच्छिष्टमवशेषयेत्ततस्तीसहसंवसेतामष्टरात्रतथाविधपरिच्छदावेवचस्यातांतथेष्टपुत्रंज- .. नयेताम् ॥ २० ॥ फिर इस कर्मकै समाप्त होनके अनन्तर पहिले दक्षिण पावोंको आगे रखतीहुई अग्निकी क्रमपूर्वक प्रदक्षिणा करे।फिर ब्राह्मणोंसे स्वस्तिवाचन कराकर यज्ञसे वचे. हुए घृतको और स्थालीपाक चरुको पतिसहित स्त्री भक्षण करे अर्थात् पहिले. उसको पति भक्षण करे फिर स्त्री भक्षण करे परन्तु उसमेंसे वाकी जूठा न छोडे. फिर वह इस आंठवीं रात्रिमें पूर्वोक्त उत्तम शय्यापर पूवाक्त विधिसे सहवास कराने इ.सप्रकार करनेसे इच्छानुरूप पुत्र उत्पन्न होताहै ॥ २० ॥
यातुस्त्रीश्यामलोहिताक्षंव्यूढोरस्कमहाबाहुपुत्रमाशासीत यावाकृष्णंकष्णमृदुदीर्घकेशंशुक्लाक्षशुक्लदन्तंतेजस्विनमात्म. ... वन्तम् एषएवानयोरपिहोमविधिःकिन्तुपरिबर्हवर्णवज्यस्यात् पुत्रवर्णानुरूपस्तुयथाशीरेवतयोःपरिबोंऽन्यःकार्य स्यात्॥२१॥ जिस स्त्रीको लालनेत्र, श्यामवर्ण, बड़ेरकंधे, विशाल छाती और महावाहु पुत्रके उत्पन्न करनेकी इच्छा हो अथवा कृष्णवर्ण नम्र,दीर्घ कालेकेशोंवाले श्वेत नेत्रोंवाले, श्वेत दंत पंक्तीवाले,तेजस्वी,ज्ञानसंपन्न पुत्र उत्पन्न करनेकी इच्छा हो तो इन दोन
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शारीरस्थान-अ०८.
(७६९) सी पुरुषोंको उपरोक्त विधिसे यज्ञ करना चाहिये । परन्तु क्षेत्रपत्र और वधर्म आदिकोंको त्यागकर जैसा पुत्र उत्पन्न करना हो उसीके अनुरूप भोजन,परिवर्धन, होम आदि करना चाहिये ।। २१॥
द्विजेभ्यःशूद्रातुनमस्कारमेवकुयोदेवगुरुतपखिसिद्धेभ्यश्च॥२२॥ शूद्रकी खीको वेदोक्त मंत्रोंसे यज्ञ करनेका निषेध है इसलिये वह देवता गुरु तपस्वी सिद और ब्राह्मणोंको नमस्कारपूर्वक पुत्रेष्टिको करे ॥२२॥
यायाचयथाविधंपुत्रमाशासीततस्यास्तस्यास्तांतापुत्राशिषम नुनिशम्यतांस्ताञ्जनपदानांमनुष्याणामनुरूपपुत्रमाशासीत सातेषांतेषांजनपदानामाहारविहारोपचारपारच्छदाननुविधी यखेतिवाच्यास्यात् । इत्येतत्सर्वपुत्राशिषांसमृद्धिकरंकर्मव्या- .
ख्यातंभवति ॥ २३॥ जो जो स्त्री पुरुष जैसेजैसे पुत्रोंको उत्पन्न करनेकी इच्छा करतेहों उसी उसी प्रकार ब्राह्मणोंके आशीर्वादोंको श्रवण करें तथा तदनुरूप मनसे स्मरण करें और जिसर देशक मनुष्यों के जैसे पराक्रमी पुत्रोंको उत्पन्न करना चाहे वैसे २ देश, आहार, विहार उपचर्या वस्त्र शय्या आदिकोंका सेवन करे । ऐसा करनेसे उनकी इच्छानुसार संतान उत्पन्न होतीहै इसप्रकार इच्छानुरूप पुत्रके उत्पन्न करनेकी शिक्षा और सम: दिका करनेवाला कर्म कथन कियाजाताहै ।। २३ ॥ .
नतुखलुकेवलमेतदेवकर्मवर्णानांवशेष्यकरमपितुतेजोधातुरप्युदकान्तरिक्षधातुप्रायोऽवदातवर्णकरोभवति । पृथिवीवायु-:: धातुप्रायःकृष्णवर्णकरःसमसर्वधातुप्रायःश्यामवर्णकरः॥२४॥ स्त्रीकी इच्छानुरूप पुत्रका वर्ण रूप होनेमें केवल इतनाही नहीं किन्तु और भी ऐसे भाव होतेहैं जो पुत्रके श्याम गौर आदि वर्णको उत्पन्न करते हैं जैसे-तेजधातु.
और उदकधातु तथा अंतरिक्षधातु अधिक होनेसे गौरवर्ण होताहै । पृथ्वी और वायु धातु अधिक होनेसे कृष्णवर्ण होताहै । सव धातुएँ समान होनेसे श्यामवर्ण होताहै ॥ २४ ॥
सत्त्वभेदका कारण। सत्त्ववैशेष्यकराणिपनस्तेषांतेषांप्राणिनांमातापितृसत्त्वान्थन्तवन्याःश्रुतयश्चाभीक्ष्णस्वोचितञ्चकर्मसत्त्वविशेषाभ्यासश्चेति ॥२५॥
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မြင်း
- चरकसंहिता - मा०टी० ।
'अव गर्भके मनके विषयमें श्रवण करो जैसे माता और पिताका गर्भाधानके समय जैसा मन होता है वैसाही संतानका भी मन होता है । तथा गर्भवती स्त्री जिसप्रकार के नित्यम्प्रति कथा आदि श्रवण किया करे और जिसप्रकारके कमोंमें चित्त लगाय रक्खे प्रायः गर्भका मन उसीप्रकारका होता है ॥ २५ ॥
यथोक्तेन विधिनोपसंस्कृतशरीरयोः स्त्रीपुरुषयोस्तु मिश्रीभाव - · मापन्नयोः शुक्रं शोणितेन सहसंयोगे समेत्या व्यापन्नमव्यापन्नेनं योनावनुपहतायामप्रदुष्टे गर्भाशये गर्भमभिनिर्वत्र्त्तयति एकान्तेनं । यथानिर्मले वाससी सुपरिकल्पतेरञ्जनं समुदितगुणमुपनिपाता देवरागमभिनिर्वर्त्तयतितद्वत् । यथावाक्षीरं दध्नाभियुतमभिषवणाद्विहायस्वभावमापद्यते दधिभावंशुकं तद्वत् ॥ २६ ॥ पूर्वोक्त विधि संस्कार किये हुए शरीरोंवाले खोपुरुषोंका जब विधिवत् आपसमें संयोग होता है तब दोषरहित पुरुषके वीर्य और स्त्रीके रजका संयोग होकर गर्भ उत्पन्न होजाता है। यदि योनिमें किसी प्रकारका विकार न हो और गर्भाशय शुद्ध हो यम् रजवीर्य भी निर्दोष हों तो अवश्यही स्त्री गर्भको धारण कर लेती है । जैसे निर्मल वस्तु में जिस प्रकारका रंग चढाना चाहते हो उसीप्रकारका रंग वस्तुको रंगमें डाल ही चढजाता है । उसीप्रकार शुद्ध शुक्र और रजके संयोगसे गर्भाशय झट गर्भकों धारण कर लेता है । जैसे दूध दहीके साथ मिलजानेसे अपने स्वभावको छोड दही के मनुरूप होजाता है उसी प्रकार वीर्य भी शुद्ध रजके संयोगसे गर्भाशय में प्राप्त हो गर्भको प्रगट कर देता है ॥ २६ ॥
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एवमभिनिर्वर्त्तमानस्यगर्भस्यतुस्त्रीपुरुषत्वेहेतुः
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पूर्वमुक्तः॥२७॥ इसप्रकार गर्भके उत्पन्न करनेमें जिसप्रकार के स्त्रीपुरुष होने चाहिये सो पहिले कथन कर चुकेहैं ॥ २७ ॥
यथाहिबीजमनुपतप्त मुसंस्वांस्वां प्रकृतिमनुविधीय क्षेत्रीहिर्वात्री : हित्वंय वोवायवत्वं तथास्त्रीपुरुषावपियथोक्तं हेतुविभागमनुविधीयते ॥ २८ ॥
जैसे जोर बीज बोया जाय वह अपनी अपनी प्रकृतिकै अनुरूप उत्पन्न होता है । जैसे धानका बीज धानको उत्पन्न करता है | यवसे यव उत्पन्न होता है और वह भी बीज, पृथ्वी तथा समय के अनुरूप होता है उसीप्रकार स्त्रीपुरुषों के बीजके अनुरूप संतान होती ह ॥ २८ ॥
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शारीरस्थान -म० ८.
(७७१)
तयोः कर्मणा वेदोक्तेन विवर्तनमुपदिश्यतेप्राग्व्यक्ती भावात् ॥२९॥ - उन स्त्रीपुरुषको गर्भके प्रगट होने से पहिले जिसप्रकारका वर्ताव करना चाहिये उनको वेदोक्तरीतिसें वर्णन करते हैं ॥ २९ ॥ प्रयुक्तेनसम्यक्कर्मणांहिदेशकालसम्पदुपेतानां नियतमिष्टफल- ": त्वं तथेतरेषामितरत्वम् । तस्मादापन्नगभस्त्रियमभिसमीक्ष्य प्राग्व्यक्तीभावाद्गर्भस्यपुंसवनमस्यैदद्यात् ॥ ३० ॥
जो कर्म जैसे देश, जैसे समयमें जैसी सामग्री से विधिवत् किया जाता है उसका वैसा फल होता है इसलिये जो कर्म उत्तम रीक्षिसे उत्तम सामग्रीद्वारा उत्तम समय पर किया जाता है उसका उत्तम फल प्राप्त होता है तथा इसके विपरीत करनेसे उसका अनिष्ट फल प्राप्त होता है । अतएव गर्भवती स्त्रीको दूसरे महीने में पुंसवन कर्म करना चाहिये ॥ ३० ॥
पुंसवनावधि । 'गोष्ठे जातस्यन्यग्रोधस्य प्रागुत्तराभ्यां शाखाभ्यांशुङ्गेऽनुपहते आदाय द्वाभ्यांधाम्यमाषाभ्यां सम्पदुपेताभ्यां गौरसर्षपाभ्यां वासह दनिप्रक्षिप्यपुष्येऋक्षेपिबेत् ॥ ३१ ॥
o गौओं के विश्राम करने की जगहके वट वृक्षोंका जो टहना पूर्व और उत्तरकी ओर हो उसमें निर्दोष उत्तम दो शुंग (अंकुर या कली ) तोडलावे और दो स्वच्छ मोटे चावल तथा दो उडद उन दोनों अंकुरोंमें मिलाकर अथवा दो सफेद सरसोंके दाने मिलाकर दहीमें मिलाकर वह गर्भवती स्त्री पुष्यनक्षत्रमें पीवे ॥ ३१ ॥ तथैवअपराञ्जीवकर्षभकापामार्गसहचरकल्कांश्चयुगपदेकैक
शोयथेष्टं वाप्युपसंस्कृत्यपयसा ॥ ३२ ॥ कुडयकीटकंमत्स्यकञ्चोदकाञ्जलप्रक्षिप्य पुष्येणापिबेत् ॥ ३३ ॥
अथवा जीवक, ऋषभक, सफेद अपामार्ग, सफेद सहचर, इन सबका कल्क चना अथवा इनमेंसे किसी एकका कल्क वनाकर गौके दूधके संग पुष्यनक्षत्रर्मे पान करे अथवा कुड्य कीट ( दीवार में होनेवाला धन्वी कीट विशेष ) उसको अथवा छोटीसी मछलीको पुष्यनक्षत्र में एक अंजली जलके साथ पीवे ॥ ३२ ॥ ३३ ॥ तथा कनकमयात्राजवानायसांश्चपुरुषकानग्निवर्णाननुप्रमाणान्दनिपयासिउदकाञ्जलावाप्रक्षिप्याविदनवशेषतः पुष्येण ॥३४॥
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(७७२) चरकसंहिता-मा० टी०।
अथवा सुवर्ण, चांदी या लोहेको उत्तम भस्म लेकर अपने अनि वर्णके समान सूक्ष्म मात्रासे दही अथवा दूध या एक अंजली जलके साथ पुष्यनक्षेत्र में पीवे । ( वाग्भटने लिखा है कि सोने चांदी अथवा लोहेका एक छोटासा पुरुष बना उसको अनिमें वपा एक अंजली जलमें अथवा दूध या दहीमें बुझाकर उस जल या दूध दहीको पीवे) ॥३४॥
पुष्योद्धृतलक्ष्मणामूलस्यपयसापुत्रकामोऽस्यदक्षिणनासापुटे कन्याकामस्य वामनासापुटसिंचेत् । एवं श्वेतकंटकार्यारस- सिंचनेनपुत्रावातिः। पुष्यणवचपिष्टस्यपच्यमानस्योष्माणमु- . पनायतस्यैवचपिष्टस्योदकसंसृष्टस्यरसंदेहलीमुपनिधायदक्षिणेनासापुटेस्वयमासिञ्चत्पिचुना ॥ ३५ ॥ इति सवनानि यच्चान्यदपिब्राह्मणाब्युराप्तावापुंसवनमिष्टंतच्चानुष्ठेयम्॥३६॥
अथवा पुण्यनक्षत्रमें उखाडीहुई लक्ष्मणाकी जडको दूधमें घोटकर पुत्रकी इच्छावाली स्त्री नाकके दहिनेनथने और कन्याकी कामनावाली वायें नथने द्वारा पावे। या नस्यके प्रकारसे टपकावे । इसीप्रकार रविवार पुष्पमें उखाडीहुई सफेद कटेलोका रस भी पुत्रको देनेवाला होताहै । लक्ष्मणाकी पुष्य नक्षत्रमें उखाडी हुई जडको दूधमें पीसकर उसके रसको वा दूधमें पकाकर उसकी भांफको सूर्य के सामने प्रातःकाल खडे हो नासिकाद्वारा सूंघे अथवा केवल लक्ष्मणाको पीसं उसका रस निकाल पूर्वको मुख कर अपने दक्षिण नथनेमें घरकी देहलीपर खडे होकर अपने हाथसेही टपकावे । यह सव कर्म अथवा अन्य पुंसवन कर्म ब्राह्मणोंके और आप्न पुरुषों के आज्ञानुसार अनुष्ठान करने चाहिये ॥ ३५ ॥ ३६ ॥
. गर्भस्थापन औषध । अतऊ गर्भस्थापनानिव्याख्यास्यामः ॥ ३७॥ अब गर्भके स्थापन करनेकी विधिको कथन करते हैं ॥ ३७ ॥ ऐन्द्रीब्राह्मीशतवाऱ्यासहस्रवी-अमोघाअव्यथाशिघावला अरिष्टावाट्यपुष्पीविष्वक्सेनाकान्ताचआसामोषधीनांशिरला दक्षिणनेपाणिनाधारणमताभिश्चैवसिद्धस्थपयसालर्पिषोवापानमताभिश्चैवपुष्येपुण्यस्नानंसदाचैताभिः समालभेत ॥३८॥
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शारीरस्थान-अ०८
(७७) तथासर्वासांजीवनीयोक्तानामोषधीनांसदोपयोगस्तैस्तैरुपयोगविधिभिरितिग स्थापनानिव्याख्यातानिभवन्ति ॥ ३९ ॥ इन्द्रायण, ब्राझी, सफेद दूब, काली दूब, अमोघा, अव्यथा (गेंदा), हरड, बला, नीम, कुटकी, गंगरेण, प्रियंगु, शतावर इन औषधों से किसी एक
औषधाको पुष्यनक्षत्र में उखाडकर उसके स्वरसको दक्षिण हाथसे दहिनी नासामें टपकावे और शिरके दहिनी और दाहने हाथसे धारणकर रक्खे तथा इन्हीं सव औषधियोंके साथ सिद्ध किये हुए दूध और घृतको पान करे। एवम् इन्हींसे औटाये जलसे हरएक पुष्य नक्षत्र में स्नान किया करे इनके उपयोगसे गर्भस्थापन होताहै । अथवा जीवनीयगणकी संपूर्ण औषोंके उपयोगसे सिद्ध किये दूध, धृत
आदिक और पूर्वोक्त विधानसे पुष्पनक्षत्रमें सब उपयोग करनेसे गर्भस्थापन होताहै ॥ ३८ ॥ ३९ ॥
गर्भनाशक भाव। गर्भापघातकरास्त्विमेभावाभवन्तितद्यथाउत्कटुकविषमस्थानं कठिनासनसविन्यावातमूत्रपुरीषवेगानुपरुन्धत्यादारुणानुचितव्यायामसेविन्यास्तीक्ष्णोष्णातिमात्रसेविन्या प्रमिताशनसेविन्यागभोम्रियतेऽन्तःकुक्षेरकालेवाख्रसंतेशोषीवाभवति ॥४०॥ गर्भके उपघात करनेवाले यह भाव हैं। जैसे गर्भवती स्त्रीका उत्कट रीतिसे बैठना अथवा ऊंचेनीचे तथा विषमस्थानमें फिरना, कठिन आसन आदिसे बैठना, बात, मूत्र और पुरीषके वेगको रोकना, दारुण और अनुचित परिश्रम आदि करना, तीक्ष्ण तथा उष्ण द्रव्योंका अधिक सेवन करना, बहुत भूखे रहना इत्यादि कारजोसे गर्भ कुक्षीमेंही मरजाताहै अथवा स्राव होजाताहै या सूखजाता है ॥ ४०॥
तथाभिघातप्रपीडनैःश्वभ्रकूपप्रपातदेशावलोकनैर्वाभीक्ष्णंमातुःप्रपतत्यकाले । तथातिमात्रसंक्षोभिभिर्यानैरप्रियातिमात्रश्रवणैर्वा । प्रततोत्तानशायिन्याःपुनर्गर्भस्यनाझ्याश्रयानाडी कण्ठमनुवेष्टयति ॥४१॥ इसप्रकार चोट आदि लगनेसे,किसीमकारसे गर्भके दवजानेसे तथा अत्यंत भयंकर, गढे, कूप, पहाडके विकट गिरेहुए किनारोंका देखना आदि भयकारक स्थानोंको देखनेसे भी गर्भपात होजाताहै । अथवा गर्भवतीके शरीरमें किसीप्रकार 'अत्यन्त हलचल होजानेसे वा किसी विकट सवारीपर चढनेसे एवं अंत्यन्त भयंकर
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(.७७४)
चरकसंहिता-भा० टी० और बहुत ऊंचा शब्द सुननेसे भयंकर अप्रिय शब्दके सुननेसे भी अस्तालमें गर्भअत होजाताहैं । और सदैव सींधी उद्यान पडी रहनेसे गर्भकी नाभिसे आमित नौडी गर्भके कण्ठमें लिपट जातीहै । इसलिये गर्भका उपघात होताहै ॥११॥
विवृतशायिनीनतश्चारिणीचोन्मत्तंजनयत्यपस्मारिणंपुनःकलिंकलंहाचारशीला । व्यवाहीलातुर्वपुषमहीकलणंबासो :. कनित्याभीतमपचितमल्पायुषंवा । अभिध्यात्रीपरोपतापिनमीयुनेणवातेनात्यायालबहुलमतिद्रोहिणमकर्मशीलंका।अ-. • मर्षिणीचण्डमोपाधिकनसूयकंवा स्वप्ननित्यातन्द्रालसबुध. . मल्पानिवा। मद्यनित्यापिपासालुमनवस्थितचित्तंवा । गोधा . मांसप्रियाशरिणमश्मारिणशनहिनंवा। वराहमांसप्रियारकाक्षंकथनमनतिपरुषरोमाणंवा । मत्स्यमांसनित्याचिरनिमिषं स्तब्धाक्षवा । मधुरनित्याप्रमहिणमूकमग्निस्थूलवा । • अम्लनित्यारक्तपित्तिनत्वगक्षिरोगिणंवा । लवणनित्याशीघ्र.: वलीपलितखालित्यरोगिणंवा कटुकनित्यादुर्बलमल्पशुक्रमन'पत्यंवा । तिक्तनित्याशोषिणमवलमपचितंवा । कषायनित्या श्यावमानाहिलमुदावर्तिनंवा ॥४२॥ यदि गर्भवती स्त्री नग्न होकर सोया करे अथवा इधर उधर अधिक फिरे तो उसके. गर्भसे उन्मत्त ( पगली ) संतान होती है । गर्भवती स्त्री यदि अधिक कलह और उपद्रव करनेवाली हो तो मृगीरोगवाली संतान होती है। यदि गर्भवती स्त्री अधिक मैथुन करे तो विकल और निर्लज्ज अथवा स्त्रैण (त्रियोंकेसे कृत्यवाली ) संतान उत्पन्न होती है ।यदि गर्भवती निरन्तर शोकसे व्याकुल रहा करे तो उसकी संतान भयातुर, क्षीण और अल्पायु होती है। यदि गर्भके समय स्त्री परधनके लेनेकी इच्छा रखती हो तो उसकी सन्तान परायी सम्पत्तिको देखकर जलनेवाली और ईयायुक्त क्या स्त्रैण सन्तान होतीहै । अथवा चोर, आलसी, अतिद्रोही, कुकर्म करनेवाली सन्तान होती है । गर्भवती स्त्री, अत्यन्त क्रोध किया करे तो उसकी सन्तान अत्यन्त क्रोधी, छली और चुगलखोर उत्पन्न होती है। अत्यन्त सोनेवाली गर्भवती स्त्रीको सन्तान निद्रालु,आलसी, मूर्ख मन्दाग्निवाली उत्पन्न होती है। यदि : गर्भवती स्त्री मद्य पीये तो तृषार्त और विकलचित्त संतान होती है। जो स्त्री गोका.
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: शारीरस्थान-अ मांस. खाय उसके गर्भसे शर्करा, पथरी और शनैर्महवाली सन्तान उत्पन्न होतीहै।' पराहका मांस खानेवाली गर्भवतीके गर्भसे लालनेत्रोंवाला और हत्यारा तथा कठोर रोमोवाला पुत्र उत्पन्न होता है। मछली खानेवाली गर्भवतीकी संतान बहुत देरमें पलक झपकनेवाली तथा टेढे नेत्रोंवाली होती है । गर्भवतीके अत्यन्त मीठा खानेसे प्रमेही, गूंगी और अधिक स्थूल सन्तान उत्पन्न होतीहै । गर्भवतीके अधिक खट्टा . खानेसे रक्तपित्त रोमवाली, त्वचाके रोग तथा नेत्रगवाली सन्तान होती है।गर्भवतीके अत्यन्त लवणरस सेवनसे अकालमें सफेद बाल होजानेवाली,सलवटवाली तथा गंजी सन्तान उत्पन्न होती है।गर्भवतीके चरपरे रसके अत्यन्त सेवनसे दुर्बल अल्पशुक्र तथा अनपत्य सन्तान उत्पन्न होती है । गर्भवती अत्यन्त कडुआ रस सेवनसे सूखेहुए शरीरवाली अथवा शोथरोगी, निबल और कृश सन्तान उत्पन्न होती है । गर्भवतीके अत्यन्त कषायरस सेवनसे. काले वर्णकी अफारा रोगबाली और उदावर्च रोगवाली सन्तान उत्पन्न होती है ॥ ४ ॥
यद्यच्चयस्ययस्यव्याधेर्निदानमुतत्तदासेंवमानान्तर्वलीतद्धिकारबहुलमपत्यंजनयति ॥ ४३॥ गर्भवती स्त्री जी २.द्रव्य जिन २ रोगों के उत्पन्न करने के कारण कहे गये हैं उनके आधिक सेवनसे उन २ रोगोंसे ग्रसित संतान उत्पन्न करती है ॥४३॥ · · पितृजास्तुशुक्रदोषासातजैरपचारैव्याख्याताइतिगोपघात..'
कराभावाव्याख्याताः॥ १४ ॥ पिताके जो शुक्र दोष हैं माताके अपचारोंसे उनका भी निर्देश जान लेना।इस प्रकार गर्भ उपघातकारक भावोंका वर्णन कियागया ॥ ४४ ॥
गर्भिणीको उपचारविधि । तस्मादहितानाहारविहारान्प्रजासम्पदमिच्छन्तीस्त्रीविशेषेण . वर्जयेत्साध्याचाराचात्मानमुपचरोद्धतापयामाहारविहारा
भ्याम् ॥४५॥ इस लिये संचानक हितकी इच्छा करती हुई गर्भवती स्त्री अहित आहार विहार रोको त्याग देवै तथा श्रेष्टं आचार और हित आहार विहारसे शरीरको रक्षा करती रहे ॥ ४५ ॥
व्याधींश्चास्यामृदुमधुरशिशिरसुखसुकुमारप्रायैरौषधाहारोप. चारैरुपचरेत् । नचास्यावमनविरेचनशिरोविरेचनानिप्रयोज-:
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Fast)
घरकसहिन-मा. टी.। येन्नरकमवसेचयेत् ।सर्वकालञ्चनास्थापनमनुवासनवाकु
दिन्यत्रात्ययिकादचाः । अष्टममासमुपादायवमनादि- . : साध्येषुपुनर्विकोरषुआत्ययिकेषुमृदुभिर्वमनादिभिर्वोपचारः
स्यात् ॥ ४६॥ यदि गर्भवती स्त्रीको किसीप्रकारका रोग उत्पन्न होनायवो वैधको चाहिये कि नरम, मधुर, शीवल, सुखदायक और सुकुमार औषषियोंसे विधिवत् चिकित्सा करे और गर्भवतीको वमन,विरेचन,शिरोविरेचन तथा रक्तमाक्षण कभी न करावे।
और गर्भकी सब अवस्थामें आस्थापन बस्ति तथा अनुवासन बस्ति भी.न करावे -यदि कोई शीघ्र पाणनाशक व्याधि उपस्थित न हो जब गर्भके आठवें महीनेमें प्राप्त होनेपर याद कोई ऐसा विकार हो कि जिसमें बमनादिकोंके विना प्राणही न बच सकतेहों तो युक्तिपूर्वक बहुत नम्र और हितकारी औषधियों द्वारा नरम -वमनादि उपचार करें ॥ ४६॥
. गर्भिणीके उपचारमें मुख्य कर्म । पूर्णमिवतैलपात्रमसंक्षोभ्याऽन्तर्वलीभवत्युचपा ॥४७॥ जिसपकार सैलसे मुखपर्यन्त पूर्ण भराहुया पात्र इधर उधर उठाने धरनेमें ‘उसके मिरनका भय रहताहै उसीप्रकार थोडी भी असावधानी और आहत उप-चार होनेसे गर्भके गिरनेका भय रहताहै ॥ १७ ॥ . साचेदपचाराद्वयोस्त्रिषुमासेषुपुष्पंपश्येन्नास्यागर्भःस्थास्यती
तिविद्यात् । अजातसाराहितस्मिन्कालेभवन्तिगर्भाः॥१८॥
यदि किसी कुपथ्यके करनेसे गर्भवतीको दूसरे या तीसरे महीनेमें मासिकऋतुके -समान रक्तस्त्राव होने लगे तो उसको वह गर्भ नहीं रहसकता क्योंकि इसकालतंक गर्भ साररहित होताहै । इस लिये कुपथ्य आदिसे शीघ्र स्राव होजात है ॥ ४८ ॥
साचेचतुष्प्रभृतिषुमासेषुक्रोधशोकासूयेभियत्रासव्यवायव्यायामसंक्षोभसन्धारणविषमाशनशयनस्थानक्षुत्पिपासाद्यतियोगात्कदाहाराद्वापुष्पंपश्येत्तस्यागर्भस्थापनविधिमुपदे- . ' क्ष्यामः॥४९॥ यदि गर्भपतीखी चौथे आदि महीनों में क्रोध, शोक अथवा असूया,ईर्षा,भय, त्रास, मैथुन, परिश्रम, संक्षाभ, वेगावरोध, विषमाशन और विषमरीतिसे शयन तथा विषमभावसे विषम स्थानों में रहे एवं आधिक भूख प्यासके समय अधिक
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शासरस्थान-०८
(७७७) भोजन करे अथवा भूखी रहे या दुष्ट आहार व्यवहार करे तो इनसे उसके गर्भ पतन होनेका भय है। इसलिये गर्मवती स्त्रीको हित आहार और हित आचार एवं शुद्ध प्रसन्न मन रहना चाहिये । याद ऐसे कार्योंसे गर्भका पात या नाव होनेलगे तो उसमें जो उपाय करने चाहिये उनका वर्णन करते हैं ॥ ४९ ॥
गर्भकी रक्षावधि । पुष्पदर्शनादेवनांब्याच्छयनंतावन्मृदुसखशिशिरास्तरणसं. स्तीर्णमीषदवनतशिरस्कप्रतिपद्यस्वति । ततोयष्टिमधुकसर्पि- . भ्यापरमशिशिरवारिणिसंस्थितान्यांपिचुमाप्लाव्योपस्थसमीपे स्थापयेत् । तस्याः तथाशतधौतसहस्रधौतात्यांसर्पिाम.. धोनाभःसर्वतःप्रदिह्यात् । गव्येनचैनांपयसासुशीतेनमधुका.
मधुनावान्यग्रोधादिकषायेणवापरिषेचयेदधोनाभेः । उदकंवा सुशीतमवगाहयेत्क्षीरिणांकषायगुमाणाञ्चस्वरसपरिपीतानि चेलानिग्राहयेत् । न्यग्रोधादिसिद्धयोर्वाक्षीरसर्पिषों पिचुंग्राहयेदतश्चैवाक्षमाप्राशयेत्प्राशयेद्वाकेवलञ्चक्षीरसार्पिः ॥ ५० ॥ जिससमय गर्भवतीकी योनिसे रजस्राव होने लगे उसको उसीसमय कहे कि तूं नरम सुखकारी शीतल विछीहई शय्यापर मस्तकको कुछ नीचाकर लेटजा । इसके
अनन्तर मुलहठी और घृतको मिलाकर शीतल पानीके संयोनसे शीतलकर एक •रुईका फोहा बना किसी नरमवस्त्रसे भिगोकर और लपेटकर उस फोहेको स्त्रीकी योनिमें रखदे । तथा एकसौ वार या हजारवार धोयेहुए मक्खनको नाभिसे नीचे शतिल २ लेप कर देवे । और शीतल गौका दूध, अथवा मुलहठीका क्वाथ या न्यग्रोधादिगणका क्वाथ शीतलकरके उससे मंदमंद तरडे नाभिके नीचे देवे। अथवा शीतल जलकीही धारा डाले । अथवा वड आदि क्षारी वृक्षोंके कषाय और कसैले रसवाले वृक्षोंके स्वरसमें छोटासा नम्रवस्त्रका टुकडा भिगो योनिमें रक्खे अथवा वड आदिके काथसे सिद्धकिये दूध या घृतमें भिगोया हुआ फोहा योनिमें -रक्खे और इस वृत और दूधमेंसे दो तोला पीनेको भी दे देवे । अथवा इन औष धियोंसे सिद्ध किये घृत और दूध पिलावे ॥५०॥
पद्मोत्पलकुमुदकिञ्जल्कांश्चास्यसमधुशर्कराँल्लेहाथदद्यात् । शृ. काटकपुष्करबीजकशेरुकान्भक्षणार्थम् । गन्धप्रियंग्वसितो.
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(७७८)
चरकसंहिता-मा० टी०॥ .... त्पलशालुकोदुम्बरशलाटुन्यग्रोधशुङ्गालिवापाययेदेनामाजेन . . पयसा ॥ ५१॥
कमल और कमोदनीको केशर अथवा फूलही शहद और मिसरीके साथ पीस: कर चटावे । और सिंघाडे, कमलगट्टे, तथा कसेरूये खाने के लिये देवे अथवा गई. प्रियंगु, नीलोफर, कमलकी जड, गुल्लडक कच्चे-फल, वडके अंकुर इनको बकरीले दूधमें घोटकर पिलावे ॥५१॥
पयसाचैनांचलातिवलाशालियाष्टिकक्षमूलकाकोलीशृतेनसमधुशर्कररक्तशालीनामोदनमहुसुराभिशीतंसोजयेत् । लावकपिञ्जलकुरङ्गशम्बरशशहरिङ्गणकालपुच्छकरलेनवाघृतसलि
लसिद्देनसुखशिशिरोपवातदेशस्थांभोजयेत् ॥ ५२॥ अथवा वला, अतिबला, शालीवाल, साठीके चावल, ईखकी जड, काकोली इनसबसे सिद्धकिये दूध मिसरी मिला सेवन करावे। तथा शालिचावलोंको नर्मसे पकाकर शीतल होनेपर उनमें शहद,मिसरी और दूध मिला भोजन करनेको देने । अथवा लवा, कपिल, कुरंग, सांभर, शशा, हरिण, कालपुच्छक इनके मांसर' सको घृत और जलसे सिद्ध कर सुशीतल हवाके स्थानम उस रसके संग भातका भोजन करावे ॥ १२॥
तथाकोषशोकायासव्यवायव्यायामतश्चाभिरक्षेत्सौम्याभिश्चैनांकथाभिर्मनोऽनुकलाभिरुपासीततथास्यागर्भस्तिष्ठति ॥५३॥
और ऐसी अवस्थामें उस गर्भवती स्त्रीको क्रोध, शोक, परिश्रम, मैथुन, देहका ‘हिलाना मदि कर्म नहीं करना चाहिये । तथा सुन्दर पवित्र मनके हरनेवाली बातोंसे उस गर्भवती स्त्रीके चित्तको प्रसन्न रखना चाहिये । इन उपायोंके करनसे. गर्भ अपने स्थानमें टिका रहताहै ॥ ५३ ।।
आमगर्भमें पुष्पदर्शन । यस्याःपुनरामान्वयात्पुष्यदर्शनस्यात्प्रायस्तस्यास्तदर्भवाधकंभ-' वतिविरुद्धोपक्रमत्वात्तयोः ॥ ५४ जिस गर्भवतीके आमदोषसे रज दिखाईदेने लगजायं उससमय उसकी चिकि सामें विरोधी औषधियोंका उपयोग होनेसे प्रायः गर्भको हानि होती है। परन्तु विधिवत् समयानुकूल उससमय भी उपचार करना चाहिये ॥ ५४ ।।
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, शारीरस्थान-अ० ८. (७७९) यस्याःपुनरुष्णतीक्ष्णोपयोगारगर्भिण्यामहतिसंजातसारेगर्भपुं- .. ज्यदर्शनस्यादन्योवायोनिप्रस्तावः । तस्याग वृद्धिनप्राप्नोति । निःसृतत्वात्सकालान्तरमवतिष्ठतेऽतिमात्रंतमुपविष्टकमित्या
चक्षतकेचित् ॥ ५५॥ . जव गर्भवती स्त्रीके उष्ण तक्षिण पदार्थोंके सेवनसें भातिकतु अथवा अन्य प्रकारसे योनिस्राव होजाय तो उसके होनेसे जातसार गर्भ भी 'अर्थात् चौथे मही. नेका गर्भ भी बढनेसे बंद होजाताहै और अपूर्ण रहताहै इसलिये वह बहुतकाल पेटमही रहताहै यदि यह बहुत रोजतक पेटमेंही रहे तो इस गर्भको कोई आचार्य. उपविष्टक कहतेहैं ॥ ५५ ॥ ..
नागोदरगर्भके लक्षण । "उपवासवतकर्मपरायाःपुनःकदाहारायाःस्लेहद्वषिण्यावातप्रको • पनोक्तान्यासेवमानायागर्मोनवृद्धिप्राप्नोतिपरिशुष्कत्वात् ।
संचापिकालान्तरमवतिष्ठतेऽतिमात्रंस्पन्दनञ्चभवति । तन्तु
नागोदरमित्याचक्षते ॥ ५६ ।। - उपवास, व्रत, कर्मपरायणं स्त्री जब रूक्ष आदि आहारको करतीहै और चिकनाई नहीं खाती और वायुके कुपित करनेवाले रूक्ष पदार्थोंको सेवन करती है तो कुपितहुआ वायु गर्भको वंढने नहीं देता तथा सुखा देताहै।वह सूखाहुआ गर्भ भी बहुतकालतक पेटमें स्थिर रहताहै और अधिक फडकताहै । इस गर्भको नागोदर कहतेहैं ॥१६॥ नायॊस्तयोरुभयोरपिचिकित्सितविशेषमुपदेक्ष्यामः ॥१७॥ अव नागोदर और उपविष्टक गर्भवाली स्त्रियोंकी चिकित्साको कथन करते:
उक्तगर्भमें चिकित्सा । भौतिकजीवनीयवृहणीयमधुरवातहरसिद्धानांसार्षिषामुपयोगः । नागोदरेतुयोनिव्यापन्निर्दिष्टंपयसामामगर्भाणाश्चगर्भवृद्धिकराणाञ्चसम्भोजनमेतैरेवसिद्धैश्चघृतादिभिःसुबुभुक्षाया• मभीक्ष्णयानवाहनापमार्जनावजृम्भणैरुपपादनमिति ॥ ५८ ॥
उपविष्टक गर्भ होनेपर भौतिक अर्थात् गर्भ में पार्थिव आदि गुण बढानेवाले द्रव्य अथवा भूतहर लाक्षादि द्रव्य और जीवनीयगण तथा बृंहणीयगण, मधुरगण
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(७८०) चरकसंहिता-मा० ट। और वातहरगोंसे सिद्धकिया घृत पिलाना चाहिये । नागोदर होजानेपर योनिव्यापद चिकित्सामें कहे फलघृतादि तथा जिन द्रव्योंसे स्निग्ध होकर वह प्रगट होनाय अर्थात् उस बालकका जन्म होजाय वैसी क्रिया करनी चाहिये । और गर्भके बढानेवाले द्रव्योंसे सिद कियेदुए दूध तथा घृत हमेशा भूखके समय देने चाहिये । तथा इस नागोदर गर्भवाली स्त्रीको सदैव पालकी आदि सवारीमें बैठाना, “स्नान कराना, उचम वातोंका सुनाना हितकर होताहै। जो गर्भ वातकारक कार'णासे रूक्ष होकर बहुत कालतक अर्थात् ग्यारहवें या बारहवें महीनेतक प्रगट न हो उसको नागोदर कहतेहैं ) ॥२८॥
प्रसुप्तगर्भ में चिकित्सा । यस्याःपुनर्गर्भप्रसुप्तोनस्पन्दतेतांश्येनमत्स्यगवयातत्तिरताम्रचूडशिखिनामन्यतमस्यसर्पिष्मतारसेनमाषयूषणवाप्रभूतसर्पिषामूलकयूषेणवारक्तशालीनामोदनंमृदुमधुरशीतभोजयेत् । तैलायंगेनास्याश्चाभीक्ष्णमुदरवंक्षणोरुकटिपार्श्वपृष्ठप्रदेशानीषदुष्णेनोपाचरेत् ॥ ५९॥ जिस स्त्रीका गर्भ सायाहुआसा स्थिर रहे और फडके नहीं उस स्त्रीको सिकस, • मछली, रोझ,तीतर,मुर्गा और मोरके मांसरसको घृतयुक्त कर पिलावे अथवा उड. दके यूषको घृतयुक्त करके या सलजमका यूष आधिक घीके संयोगसे पिलाने अथवा लाल शालिवावलोंको मिसरीके साथ वा अन्य मधुर शीतल द्रव्योंके साथ भोजनके लिये देवै । तथा किसी उत्तम उष्ण तेलद्वारा पेट, वंक्षण, पसली और “पीठको सदैव नरमहाथसे मालिश कराया करे ॥ ५९॥
उदावर्तरुद्धगर्भवतीकी चिकित्सा। यस्याःपुनरुदावर्तविबन्ध स्यादष्टमेमासेनचानुवासनसाध्यमन्यतेततस्तस्यास्तद्विकारप्रशमनमुपकल्पयेन्निरूहमुदावतोंद्युपेक्षितः सगर्भसगभौगर्भिणीवानिपातयेत् ॥ ६॥ यदि आठवें महीनेमें स्त्रीको उदावतरोगसे बंध पडजाय और वह अनुवासनवस्ति द्वारा शान्ति होता न दिखाई दे तो निरूहण बस्ति द्वारा विधिवत् चिकित्साकर्म करे क्योंकि उससमय उदावर्तकी चिकित्सा न करनेसे वह उदावर्चरोग गर्भको अथवा गर्भसाहित गर्भवती स्त्रीको भी नष्ट कर डालताहै ॥ ६॥
तत्रवीरणशालिषष्टिककुशकाशेक्षुबालिकावेतसपरिव्याधमूला
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शारीरस्थान- म०...... (७६१) नांभूतौकानन्ताकाश्मर्यापरूषकमधुकमृद्धीकानाञ्चपयसाझे‘दकेनोमय्यरसंप्रियालविभीतकमज्जातिलकल्कसम्प्रयुक्तमी
पल्लवणमनस्युष्णनिरूहंदद्यात् ॥ ६१ ॥ .. ऐसे समयमें वीरणतृण, शाल, और षष्टिक चावल, कुशा, कांस,इक्षुबालिका,, वेवस,ब्यूस इन सबकी जड लेकर अथवा अजवायन,सारिवा, कुम्हार वृक्ष,फालसा मुलहठी,मुनक्का इन सवको बरावरके जलयुक्त दूधमें पकावे फिर उस दूधमें चिरौंजी, बहेडेकी मजा, तिलोंका करक और बहुत थोडा सेंधानमक मिला इससे निरूहणः बस्ति देवे ॥६१॥
व्यपगतविबन्धाश्चैनांसुखसालिलपारषिक्तांगीस्थैर्यकरमविदाहिनमाहारंभुक्तवतींसायमधुरकसिद्धेनतैलेनानुवासयेन्न्युब्जान्वेनामास्थापनानुवासनाभ्यामुपचरेत् ॥ १२ ॥ जब विवध खुलजाय तो उस गर्भवती स्त्रीको सुखोष्ण गर्म जलसे परिसेचन कर शान्तिदायक तथा अविदाही आहारको देवे । और सायंकालके समय मधुरगणसे सिद्ध कियेहुए तैलद्वारा अनुवासन कर्म करे । लथा उस गर्भवतीको जब अनुवासन
और आस्थापन करे तो औंधे (मूधे) लेटाकर करे। क्योंकि अन्य पुरुषों के समान सीधी लेटाकर आस्थापनकर्म करनेसे गर्भ हिलजाताहै ॥ ६२ ॥
- मृतगर्भका लक्षण । यस्याःपुनरतिमात्रदोषोपचयाद्वातीक्ष्णोष्णातिमात्रसेवनाद्वातमूत्रपुरीषवेगधारणैर्वाविषमाशनशयनस्थानसंपीडनैाक्रोधशोकेासूयाभयत्रासादिभिर्वापरैः कर्मभिरन्तःकुक्षौग नियते । तस्या:स्तिमितस्तब्धमुदरमाततंतिमश्मान्तर्गतमिवभवत्यस्पन्दनोगर्भः शूलमधिकमुपजायतेनचाव्यःप्रादुर्भव. न्तियोनिनप्रस्रवत्यक्षिणीचास्या:सस्तेभवतः तास्यतिव्यथते भ्रमतेश्वसित्यरतिबहुलाचभवतिनवास्यावेगप्रादुर्भावावायथावदुपलायतेइत्येवंलक्षणांस्त्रियमृतगर्भेयमितिविद्यात् ॥६३ ॥ . गर्भवतीके शरीरमें दो का अत्यन्त सञ्चय हानेसे अथवा अत्यन्त तीक्ष्ण और गरम व्योंके सेवनसे तथा अधोवात और मलमूत्रके आये वेगोंको रोकनेसे एवम् विषम सीतपर भोजन, शयन और उठने बैंठमे आदिसे ऊंचे नीचे पांव रखनेसे या
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(७८३) चरकसंहिता-भाटी किसी प्रकार गर्भके संपीडन होनेसे अथवा अत्यन्त क्रोध, शोक, भय, हर्षा, असूया
और त्रास आदिसे या अन्य किसी दुष्ट कर्मके योगसे गर्भ कुक्षीमही मरजाताहै। उसके ये लक्षण है । पेट-स्तिमित. 'स्तब्ध और विस्तृतसा होजाय और शीतल पड़जाय तथा ऐसा प्रतीत हो कि पेटमें पत्थरसा रक्खा है, गर्भ फडके नहीं अत्यंत दर्द हो, पीडा अत्यन्त हो पर प्रसूतकालसी न हो, योनिसे पानीका स्राव हो, दोनों नेत्र शिथिल होजाय,गर्भवती स्त्री प्रस्तसी होजाय, शरीरमें अत्यन्त व्यथा हो, भ्रांति हो, श्वास अधिक चलनेलगे, व्याकुलता अत्यन्त बढजाय, मलमूत्र आदि वेगके उपस्थित होनेपर भी यथावत् न आसकै। इन लक्षणोंसे गर्भवतीके गर्भमें . . बालक्रकी मृत्यु हो गई है ऐसा जानना ॥ ६३ ॥
सृतगर्भमें उपाय । । तस्यगर्भशल्यस्यजरायुप्रपातनेकर्मसंशमनमित्याहुरेके । म...न्त्रादिकमथर्ववेदविहितामित्येके । परिदृष्टकर्मणाशल्यहा ... हरणमित्येके ॥१४॥
ऐसे समय किसीर आचार्यका मत है कि औषधों द्वारा वा अन्य प्रकार जरायुको निकालदेनाही उत्तम उपाय है क्योंकि नरायुके साथही मराहुआ गर्भभी बाहर आजाताहै। कोई आचार्य कहते हैं कि अथर्ववेदके मन्त्रोंद्वारा मार्जन करनेसे मराहुआ गर्भ निकल जाता है कोई आचार्य कहते हैं कि जो वैद्य शस्त्रकर्ममें दृष्टकर्मा ( तजुर्वेकार ) हो उससे शस्त्रद्वारा जिसमकार निकल सके मृतगर्भको शीघ्र निकाल देना चाहिये ॥ ६४ ॥
व्यपगतगर्भशल्यान्तुस्त्रियमामगांसुराशीध्वरिष्टमधुमदिरासवानामन्यतममग्रेसामर्थ्यतःपाययेत् गर्भकोष्ठविशुद्धयर्थमार्तविस्मरणार्थप्रहर्षणार्थञ्च ॥६५॥ जब उस स्त्रीका मराहुआ गर्भ निकलनाय तो उसको उसी समय सुरा, सीधु, अरिष्ट, मधुनामक मद्य, मदिरा और आसव सामर्थ्यानुसार पिला देवे । उससमय नशेवाली मयके पिलादेनेसे उसके गर्भ कोष्ठकी शुद्धि होती है और स्त्री दुःखको भूलजाती है और उसको आनन्द उत्पन्न होजाताहै ॥ ६५ ॥
अतःपरंवृहणैलानुरक्षिाभिःस्नेहसम्प्रयुक्तैर्यवाग्वादिभिर्विलेप्यादिभिर्वातत्कालयोगिभिराहारैरुपाचरेद्दोषधातुक्लेदविशोषणमात्रतत्कालम् ॥ ६६ ॥
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शारीरस्थान-अ० ८.. (७८३) " इसके उपरान्त उस स्त्रीको वृहण वलकी रक्षा करनेवाली स्नेहयुक्त यवागू पिलानाः चाहिये। फिर यथाक्रम विलेपी अथवा : उस समय, जो उचित हो उस रस या, आहारका सेवन कराना चाहिये । जबतक उस स्त्रीके शरीरमें दोष और धातुओंके: क्लेद उत्पन्न न हाजांय तबतक स्निग्ध हलके और वलकारक आहारोंसे उसकी रक्षा करनी चाहिये ॥६६॥
अतःपरंस्नेहपानर्वस्तिाभराहारविधिभिश्चदीपनीयजीवनीयबृ- . हणीयमंधुरवातहरसमाख्यातैरुपचारैरुपाचरेत् ॥ ६७ ॥ इसके उपरान्त स्नेहपान द्वारा एवं स्नेहनवस्तिद्वारा तथा दीपनीय, जीवनीय, बृंहणीय और मधुर तथा वातनाशक आहार द्वारा उपचार करना चाहिये ।। ६७ ॥
परिपक्वगर्भशल्यायाःपुनर्विमुक्तगर्भशल्यायास्तदहरेवस्नेहोपचारःस्यात् ॥ ६८॥ यदि गर्भ पूरे दिनोंका पूर्णाग होकर मरे तो उस गर्भके निकालनेके अनन्तर उसी दिन स्नेहद्रव्योंसे उपचार करना चाहिय ॥ ६८॥
परमतोनिर्विकारमाप्यायमानस्यगर्भस्यमासेमालेकोपदे. क्ष्यामः ॥ ६९ ॥
अब इसके उपरान्त जिसमकार गर्भ निर्विकार होकर वृद्धिको प्राप्त हो उस प्रकार प्रथम महीने से लेकर महीने २ जो कर्म करना चाहिये उनका उपदेश
गर्भकी मासपरत्वरक्षणविधि ।। प्रथमेमासेशङ्किताचेदर्भमापन्नाक्षीरमनुपस्कृतमात्रावच्छोतं कालेपिवेत्सात्म्यश्चभोजनंसायंप्रातश्वभुञ्जीत ॥ ७०॥ प्रथम महीनेमें जब स्त्रीको यह प्रतीत होजाय कि गर्भ रहगया तो विना औषधीसे केवल दूध मात्र, शीतल उचित मात्रासे पीयाकरे । और प्रातः तथा सायंकाल दोनों समय साम्य भोजनको कियाकरे ॥ ७० ॥ द्वितीयेमालेक्षीरमेवचमधुरौषधसिद्धम् । तृतीयेमासेक्षीरंमधु
सर्पिामुपसंसृज्या चतुर्थेमासेतुक्षीरनवनीतमक्षमात्रमश्नी। यात् । पञ्चमेमासेक्षीरसर्पिः। षष्ठेमालेक्षीरसर्पिर्मधुरोषधसि. ...तदेवसप्तमेमाले ॥७१॥
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(७८५) चरकसंहिता-भा० टी०॥
दूसरे महीने में मधुरगमको औषधियोंसे सिद्ध कियाहुआ दूध पीना चाहिये। सीसरे महीनेमें शहद और घृतयुक्त दूध पीना चाहिये । चौथे महीने में ताजे दूधमें एकतोला ताना मक्सन मिला पीना चाहिये । पांचवे महीनेमें घो और दूध मिला पीना चाहिये । छठवें महनिमें मधुर आदि गणसे सिदकिये दूध घी मिला पीना चाहिये । और सातवें महीने में भी यही करना चाहिये । ७१॥
सप्तममासमें अन्य उपचार ।। तत्रगर्भस्यकेशाजायमानामातुर्विदाहंजनयन्तीतिस्त्रियोभाषन्ते तन्नतिभगवानात्रेयः । किन्तुगौत्पीडनाद्वातपित्तश्लेष्माण उरःप्राप्यविदहन्तिततःकण्डूरुपजायतेकण्डूमूलाचकिक्काशावातिर्भवतितत्रकोलोदकेननवनीतस्यमधुरौषधसिद्धस्यपाणितलमात्रकालेऽस्यैदद्यात् । चन्दनमृणालकल्कैश्चास्याःस्तनोदरंविमृद्नीयाताशिरीषधातकीसर्षपमधुकचूर्णैःकुटजार्जकवीजमुस्तहरिद्राकल्कैर्वानिम्बकोलसुरसमञ्जिष्ठाकल्कैर्वा । पृषरिणशशरुधिरयुतयात्रिफलयावाकरवीरकपत्रसिद्धेनवातैलेनाभ्यङ्गः । परिषेक पुनर्मालतीमधुकसि नाम्भसाजातकण्डूयाचकण्डूयनंवर्जयेत्त्वग्भेदनवैरूप्यपरिहारार्थमशक्यायान्तु कण्डामुन्मर्दनोद्धर्षणाभ्यांपरिहार स्यात् । मधुरमाहारजातं वातहरमल्पमल्पस्नेहलवणमल्पोदकानुपानञ्चभुञ्जीत ॥ ७२ ।। स्त्रियें कहा करतीहैं कि सातवें महीनेमें गर्भ में बालकको केश उत्पन्न हो जाते हैं उसके कारण माताके कुक्षिमें दाह उत्पन्न हुआ करती है। परन्तु भगवान् आत्रेयजी कहतेहैं कि ऐसा नहीं होता । उससमय गर्भके उत्पीडन होनेसे वात, पित्त, कफ वक्षस्थलमें प्राप्त हो दाहको उत्पन्न करतेहैं । इसीलिये उससमय खाजसी भी प्रतीत होतीहै । और उस खाजके होतेही पेम्के त्वचाको फाडदेनेवाली किकस खाजकी अधिकतासे त्वचाका फटना उत्पन्न होतीहै । उससमय इस स्त्रीको बेरके क्वाथमें मधुरगणकी औषधियोंको सिद्धकर उन औषधियोंसे सिद्ध कियाहुआ मक्खन दो तोला मात्र समयसमयपर खिलाया करे। चंदन और कमलके कल्कको उस स्त्रीके स्तनों तथा पेटपर मालिश करना चाहिये अथवा सिरसका छिलका, धावेके 'फूल, सरसों और मुलहठीक चूर्णसे सिद्ध किया वैल या कुंडा, वनंतुलसीके बीज, नागर
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शारीरस्थान-अ०८.
(७८६) मोथा और हल्के कल्कसे सिद्ध किया हुआ तैल अथवा नीम, बेर, तुलसी और मंजीठके कल्कसे सिद्ध किया तैल अथवा पृषतहरिणं यां खरगोशके रुधियुक्त त्रिफलेके कल्कसे या कनेरके पत्तोंसे सिद्ध कियेहुए तेलकी स्तनों और पेटपर मालिश करावें यदि स्तनों में खुजली होय तो उनको खुजलाना नहीं चाहिये। मालतीके फूल और मुलहठीके क्वाथसे स्तनोंको धो डालना चाहिये । उस समय खुजलानेसे पेटकी चमडी फट जाती है तथा त्वचा बिगड जाती है। यदि उस समय खुजलीको सहन सके तो मर्दन और त्वचाको हाथसे घिसे। परन्तु नाखूनोंसे खाज न करे उस समय मधुर तथा वातनाशक आहारको थोडी चिकनाई मिला.खाया करे और नमक बहुत थोडा खावे । तथा जल भी थोडा २ पीया करे ॥७२॥
आठवें मासमें गर्भरक्षणविधि। अष्टमेतुमासेक्षीरयवाणूसर्पिष्मतीकालेकालेपिबेत् । तन्नतिभद्रकाप्या,पैङ्गल्यावाधोहस्यागर्भमागच्छेदिति । अस्त्वत्रपेङ्गल्यावाधइत्याहभगवान्पुनर्वसुरात्रेयोनह्येतदकार्यमेवंकुर्वती ह्यारोग्यबलवर्णस्वरसंहननसम्पदुपेतंज्ञातीनामपिश्रेष्ठमपत्य जनयति ॥७३॥
आठवें महीनेमें दूधमें सिद्ध की हुई यवागूको घृतयुक्त कर समय समयपर पीया करे । इस विषयमें भद्रकाप्य ऋषि कहनेलगे यदि गर्भवती स्त्री इस प्रकार पथ्य सेवन करने लगेगी तो उसकी संतान पंगुला होगी । यह सुनकर भगवान् पुनर्वस आत्रेयनी कहनेलगे कि ऐसा नहीं होता बल्कि इसप्रकार पथ्य सेवन करनेसे संतान आरोग्य, बलवर्णयुक्त, स्वरयुक्त, दृढ अंगोंवाली तथा अपने अन्य भाइयोंमें भी. . श्रेष्ठ संतान उत्पन्न होती है ॥ ७३ ॥
. नवममासके गर्भकी रक्षणविधि । नवमेतुखलएनांसासमधुरौषधसिद्धेनतेलेनानुवासयेत् । अतश्चास्यास्तैलंपिचमिधयोनौप्रणयगर्भस्थानमार्गस्नेहनार्थम् ॥७४ नवम महीनेमें मधुर द्रव्योंसे सिद्धकिये तैल द्वारा इस स्त्रीको अनुवासन करना चाहिये और गर्भमार्गको चिकना करने के लिये इस तैलका फोहा योनिमें रखना चाहिये ॥ ४॥
यदिदंकर्मप्रथममासमुपादायोपदिष्टमानवमान्मासात् । तेन ।
गभिण्यागर्भसमयेगर्भधारणेकुक्षिकटिपार्श्वपृष्ठंमृदुभवतिवात.
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चरकसंहित-भा० टी०। श्चानुलोमःसम्पद्यतेमूत्रपुरीषेचप्रकृतिभूतेसुखेनमार्गमनुपद्ये. . तचमनखानिचमार्दवमुपयान्तिबलंवर्गौचोपचीयेतेपुत्रंचेष्टस
म्पदुपेतंसुखिनंसुखेनैषाकालेनप्रजायतइति ॥ ७५ ॥ .. इसप्रकार प्रथम महानसे लेकर नवम महीने पर्यन्त जो इस क्रियाका वर्णन किया है इसके करनेसे गर्भवती स्त्रीके कूख, कमर, पसली और पीठ यह नरम रहती हैं। तथा धारण किया गर्भ सुखपूर्वक पुष्ट होता है।एवं वायुका अनुलोम होता है।मल मूत्र का त्याग ठीक समयपर उचित गीतसे होजाताहै नख और त्वचा नरम रहती हैं। बल वर्णकी वृद्धि होती है । और उत्तम सुन्दर शरीरवाले, बलयुक्त पुत्रको मुखपूर्वक ठीकसमयपर प्रसव करती है ॥ ७५ ॥
सूतिकागारकी विधि । प्राक्चैवास्यानवमान्मासात्सूतिकागारंकारयेदपहृतास्थिशर्कराकपालंदेशंप्रशस्तरूपरसगन्धायांभूमौप्रारद्वारमुदग्द्वारंवा॥७॥ गर्भको नवम महीना प्रवेश होनेसे प्रथमही सूतिकागार (प्रसूतिस्थान ) बनाना - चाहिये । वह ऐसी उत्तम भूमिमें हो जिसमें हड्डी, कंकड,ठिकरे आदि न हों तथा ... रूप,रस,गन्धयुक्त पवित्र भूमि हो उस भूमिमें पूर्व या उत्तरको द्वार रखकर प्रस. के लिये घर बनवावे ॥ ७६ ॥
तत्रबैल्वानांकाष्ठानांतिन्दुगुदानांभल्लातकानांवारुणानांखदिराणांवा यानिचान्यान्यपिब्राह्मणाः शंसयुरथर्ववेदविदस्तदूसनालेपनाच्छादनापिधानसम्पदुपेतवास्तुविद्यात् । हृदययोगेनाग्निसलिलोलूखलवर्चःस्थानस्नानभूमिमहानसमृतुमुखञ्च७७ उस स्थानमें बिल्व, तेंदु, गोंदनी, भिलावा,वर्णवृक्ष और खैरकी लकटियें तथा अन्य सर्व प्रकारकी लकड़ियोंको मँगावे । फिर अथर्ववेदको जाननेवाला ब्राह्मण जों २.वस्तुयें बतावे उन सबको संचय करे और वस्त्र, आलेपन तथा बिछानेके कपडे .और ओटनेके कपडे आदि वस्तुओंको उस घरमें स्थापन करे और जिन २ पदा- '
की गर्भवती इच्छा करे अथवा उसके लिये उचित हों उनउनको समयके अनुः ‘सार जिस ऋतुमें जैसे द्रव्योंकी आवश्यकता हो वैसे २ द्रव्य, अग्नि,जल,मोखली मल मूत्रके त्यागनेका स्थान,स्नान करनेका स्थान,भोजन बनानका स्थान इन सब को जिस ऋतुमें जिसप्रकार उचित हो बनावे ॥ ७७ ॥
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(८७)
'शारीरस्थान-म०८. . .. - प्रतिकांग्रहका सामान । .... तत्रपिस्तैलमधुसैन्धवसौवर्चलकाललवणविडङ्गगुडकुष्ठकि- . लिमनागरपिप्पलीमूलहस्तिपिप्पलीमण्डूकपण्येलालाङ्गलीवाचव्यचित्रकचिरबिल्वहिंगुसर्षपलशुनकणकाणकानीपातसीबल्वजभूर्जाःकुलस्थमैरेयसुरासवाःसन्निहिताः स्युः ॥७८ ॥ उस घरमें घी, तेल, शहद, सेंधानमक, संचरनमक, कालानमक, वायविडंग, गुड,कुडा, देवदार, मोठ,पिपलामूल, गजपीपल, मण्डूकपर्णी, इलायची,लांगुलीकंद, बच, चीता, चव्य, लताकरज, हींग,सरसो,लहसुन,कनकवृक्ष, गेहूं,कदम्ब,अलसी, पेठा, भोजपत्र, कुलथी, मैरेय, सुरा और आसव इन सवको संग्रहकरके यथास्थान रक्खे ॥ ७८॥
तथाश्मानौद्वौद्वेचण्डमुसलेद्वेउलूखलेखरोवृषभश्चद्वौचतीक्ष्णौ सूचीपिप्पलकौसौवर्णराजतौदेशस्त्राणिचतीक्ष्णायसानिद्वौचविल्वमयोपय्यकौतेन्दुबैगुदानिचकाष्ठानिअग्निसन्धुक्षणानिस्त्रियश्चवह्वयोबहुशःप्रजाताःसौहार्दयुक्ताःसततमनुरक्ता:प्रदाक्षणाचाराःप्रतिपत्तिकुशलाःप्रकृतिवत्सलास्त्यक्तविषादाक्लेशसहिष्णवोऽभिमताब्राह्मणाश्चाथर्ववेदविदोयच्चान्यदपितत्रसमर्थ मन्येतयच्चब्राह्मणायुःस्त्रियश्चवृद्धास्तत्काय॑म् ॥७९॥ तथा दो पत्थर,दो मूसल,दो उखल,एक गधा,एक बैल,दो तीक्ष्ण सूइयें,सुवर्ण, चांदीकी, धागेकी गोली,लोहेके तीक्ष्ण शस्त्र,सोना,चांदी,बिल्वकी लकडीकी बनी चारपाई, तेंदु और इंगुदीकी लकडिये आगजलाने के लियं । जिन स्त्रियोंनेअनेकवार प्रसव करायाहो ऐसी हितके रखनेवाली जो गर्भवतीसे अत्यन्त प्रेम रखतीहों ऐसी स्त्रिये रखनी चाहिये परन्तु वह स्त्रिये बच्चा पैदा करानेमें अत्यन्त चतुर, चित्तकी बातको समझनेवाली, विषादरहित और स्वभावसे ही दयालु कष्टके सहन करनेवाली होनी चाहिये। तथा अथर्ववेदके जाननेवाले ब्राह्मण तथा अन्य भी जौं २ वस्तुयें आवश्यक प्रतीत हों और जिन वस्तुओंको वह ब्राह्मण कहे सबको उपस्थित करना चाहिये । जिस २ वातको वृद्धविर्य और वह अथर्ववेदी ब्राह्मण कहें सो उस स्थान रखना चाहिये तथा उसीप्रकार करना चाहिये ॥७९॥ .
ततःप्रवृत्तेनवमेमालिपुण्येऽहनिप्रशस्तनक्षत्रयोगमुपगतेभगवतिशशिनिकल्याणेकरणेमैत्रेमुहूर्तेशान्तिदुत्वागोब्राह्मणमाग्नि-...
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(७८८) चरकसंहिता-भा० टो। मुदकश्चादौप्रवेश्यगोभ्यस्तृणोदकंमधुलाजांश्चप्रदायब्राह्मणेभ्योऽक्षतान्सुमनसोनान्दीमुखानिचफलानीष्टानिदत्त्वाउदक्पूर्वमासनस्थेयोऽभिवाद्यपुनराचम्यस्वस्तिवाचयेत्ततःपुण्याहशब्देनगोब्राह्मणमन्वावर्त्तमानाप्रविशेत्सूतिकागारम् । तत्रस्थाचप्रसवकालंप्रतीक्षेत ॥८॥ फिर नवम महीना प्रवेश होतेही उत्तम दिन,नक्षत्र चन्द्रमा और शुभ करण तथा मैत्र मुहूर्तमें शान्तिकर्म कर,गौ, ब्राह्मण,अग्नि और जलके भरेहुए कलशको पहिले प्रवेश कर गौओंको घास जल और शहद तथा धानकी खील दे । फिर ब्राह्मणोंको चावल और फूल देकर नान्दीमुखके योग्य उत्तम फलोंको देकर उत्तर या पूर्वमें मासनोंपर बिठाकर प्रणाम करे।और उनके चरणादि प्रक्षालनकर फिर आचमन करे तदनन्तर स्वस्तिवाचन और पुण्याहवाचनपूर्वक गौ ब्राह्मणोंको आगे कर सूतिका स्थानमें प्रवेश करे । फिर उसी स्थानमें रहतीहुई प्रसवकालकी प्रतीक्षा करे ॥८॥
प्रसवकालके चिह्न। तस्यास्तुखलुइमानिलिङ्गानिप्रजननकालमभितोभवन्तितद्य__.. थाक्लमोगात्राणांग्लानिराननस्यअक्षणोःशैथिल्यविमुक्तबंधन__त्वमिववक्षसःकुक्षेरवलंसनमधोगुरुत्ववंक्षणवस्तिकटिपार्श्व
पृष्ठनिस्तोदोयोनेःप्रस्रवणमनन्नाभिलाषश्चति । ततोऽनन्तर. मावीनांप्रादुर्भावःप्रसेकश्चगोंदकस्य ॥ १॥
प्रसवकालके समय स्त्रीके ये लक्षण होते हैं । जैसे क्लम, अंगोंमें ग्लानि, मुख और नेत्रों की शिथिलता,वक्षस्थलके बन्धन खुलगयेसे प्रतीत होना,कुक्षिका नीचेकी ओर जाना, नीचेका भाग भारी प्रतीत होना, वस्ति, वंक्षण, कमर, पसवाडे और पीठमें चमकके साथ पीडा होना,योनिका स्त्राव होना,अन्नमें रुचि न होना, उसकें . अनन्तर जिस झिल्ली में गर्भ होताहै उस थेलीका दिखाई देना उससे गर्भका जल निकलने लगना ॥ ८१ ॥ ___. . प्रसववेदनामें कर्तव्यकर्म ।
आवीप्रादुर्भावेतुभूमौशयनंविदध्यान्मृद्वास्तरणोपपन्नंतध्या" सीनांतांततः समन्ततःपारवाय॑यथोक्तगुणाःस्त्रियः
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शारीरस्थान-अ०८. (७८९) सीरनाश्वासयन्त्योवाभिग्राहिणीभिरुपदिष्टवदाभिधायिनीभिः ॥ ८॥ प्रसवकी पीडा उत्पन्न होकर जब आवीसे गर्भका जल स्त्राव होने लगे तो उस स्त्रीकों पृथ्वीपर नरम विछीहुई शय्यापर लेटनाना चाहिये और योग्य गुणोंवाली जिनका पाहिले वर्णन किया जा चुकाहै उन सब स्त्रियोंको उसके चारोंओर बैठकर मीठे २ वाक्योंसे धैय देतेहुए उसके चित्तको शान्त करते रहना चाहिये ।। ८२॥ .
साचेदावीभिःसंक्लिश्यमानानप्रजायेताथैनांबूयादुत्तिष्ठमुसलमन्यतरञ्चगृह्णीष्वाननैतदुलूखलंधान्यपूर्णमुहमुहरधिजहिमुहुन
मुहुरवजृम्भस्वचंक्रमस्वचान्तरान्तराइत्येवमुपदिशन्त्यके ॥३॥ . कोई कहते हैं कि याद वह गर्भवती प्रसववेदनासे पीडित होतेहुए भी प्रसव न करे तो उसको कहना चाहिये कि तूं उठकर बैठजा और दो मूसल या एक मूसल लेकर उखलीमें भरेहुए धानोंको कूट और वारवार हाथपावोंको हिला वारवार जंभाई ले इधरउधर फिर ।। ८३ ॥
आत्रेयजीका मत । तन्नेत्याहभगवानानेयः । दारुणव्यायामवर्जनहिगर्भिण्याः । सततमुपदिश्यते । विशेषतश्चप्रजननकालेप्रचलितसर्वधातुदोषायाःसुकुमाऱ्यांना-मुसलव्यायामसमीरितोवायुरन्तर लब्ध्वाप्राणानाहिस्यादुष्प्रतीकारतमाहितस्मिन्कालविशेषेणभवतिगर्भिणी । तस्तान्मुसलग्रहणंपरिहार्यमृषयोमन्यन्ते जम्भणञ्चंक्रमणञ्चपुनरनुष्ठेयामिति ॥ ८४॥ इसपर भगवान् आत्रेयजी कहनेलगे कि ऐसा कभी नहीं करना चाहियोगर्भवती स्त्रीको दारुण परिश्रम करना किसीकालमें भी उचित नहीं है और विशेषकर प्रसबकालमें तो सव धातु और वातादि दोष शीघ्रही प्रचलित होजातेहैं । यदि सुकु. .मार स्त्री ऊखलमें धान कूटने लगेगी तो इस परिश्रमसे कुपितहुआ वायु छिद्रको
प्राप्त हो प्राणोंको नष्टकर देताहै और वह समय भी ऐसा होताहै कि चिकित्सा 'करनेमें वडीभारी कठिनाई पडतीहै। उससमय किसीप्रकारका उपद्रव होजानेसे उसकी
शान्ति नहीं होती।इसलिये ऋषिलोग मूसल लेकर धान कूटना उचित नहीं समझत किन्तु जंभाईलेना और इधर उधर टहलना यह क्रम अच्छा प्रतीत होताहै ॥८॥
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(७९०) चरकसंहिता-मा दी।
· प्रसवकालमें औषध। . अथास्यदद्यात्कुष्ठ्ठलालाङ्गलिकीवचाचित्रकाचरविल्वचूर्णमुपधातुंसातन्मुहुर्मुहुरुपाजप्रेत् । तथाभूर्जपत्रधूमशिंशपासारधूमं तस्याश्चान्तरान्तरा । कटिपार्श्वपृष्ठसक्थिदेशादीषदुष्णेनतेले- .. नाभ्यज्यानुसुखमवमृगीयादित्यनेनतुकर्मणागर्भोऽवाक्प्रतिपाद्यते । सयदाजानीयाद्विमुच्यहृदयमुदरमस्यास्त्वाविशतिबस्तिशिरोऽवगृह्णातित्वरयान्तएनामाव्यःपरिवर्ततेअस्याअवाग्गर्भइत्यस्यामवस्थायांपर्यकमेनामारोप्यप्रवाहितमुपक्रमेत कर्णेचास्यामन्त्रमिममनुकूलास्त्रीजपेत् ॥ ८५॥ ऐसे समय गर्भवती स्त्रीको कूट,इलायची,लागुलीकंद, वच,चित्रक और कंजेका चूर्ण कर वारंवार संघाना चाहिये ।तथा भोजपत्रकी और शीशमकी गोंदकी धूनी थोडे थोडे देरके बाद योनिमें देनी चाहियोतथा कमर, दोनों पसवाडे, पीठ और. नितम्ब आदि स्थानोंको मुखोष्ण तैल लगाकर धीरे २ मालिश करना चाहिये। ऐसा करनेसे गर्भकी नीचेकी ओर प्रवृत्ति होजातीहै । जब ऐसा प्रतीत हो कि गर्भ हृदयकी ओरसे पेटमें आय गयाहै और योनिद्वारमें पहुंचनाही चाहताहै और प्रस. वकी वेदना अत्यंत शीघ्र शीघ्र होने लगती है तव जानना कि इसका गर्भ अधोमुख होकर, बाहर आनाही चाहता है तो इसको शय्यापर बिठाकर कहे कि तू अव भीत. रसे गर्भको बाहर ढकेलनेका यल कर और इधर उधरसे मालिशपूर्वक नरम हाथसे उस गर्भके बाहर निकालनेका यत्न कराना चाहिये।जब देखे कि अव बालक प्रगट होनेहीवाला है तो योग्य स्त्री उसके कानमें यह मंत्र पढे ॥ ८५ ॥
प्रसवकालका मंत्र। (क्षितिर्जलंवियत्तेजोवायुर्विष्णुःप्रजापतिः । सगर्भात्वांसदा पान्तुवैशल्यञ्चदिशन्तुते॥८६॥ प्रसुवत्वमविक्लिष्टमविक्लिष्टा- .. शुभानने ! । कार्तिकेययुतिपुत्रकार्तिकेयाभिरक्षितमिति ॥८॥ ८६ और ८७ का श्लोक मंत्र है। इस मंत्रका यह अर्थ है । हे गर्भवती स्त्री ! पृथ्वी, जल, आकाश,तेज,वायु, विष्णु,और प्रजापति यह तुम्हारी सदा रक्षा करें। और तुम्हारे गर्भ में किसी प्रकारका उपद्रव न होने देवें । हे शुभानने !तू क्लेशरहित पुत्रको उत्पन्न कर तथा स्वामी कार्तिकके समान कान्तिवाला और स्वामीकात्ति: कसे अभिरक्षित पुत्रको प्रगट कर ॥ ८६ ॥ ८७॥
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शारीरस्थान - अ०.८. तार्श्वनांयथोक्तगुणाः स्त्रियोऽनुशिष्युरनागतावीर्माप्रवाहिष्ठाः याह्मनागतावीः प्रवाहयते व्यर्थमेवास्यास्तत्कर्म भवति । प्रजा चास्या विकृतिमापन्नाच श्वासकासशोषष्ठीहप्रसक्तावाभवतिय
.
(७९१)
याहिक्षवथूगारवातमूत्रपुरीषवेगान्प्रयतमानोऽप्यप्राप्तकालानं लभते कृच्छ्रेणव्याप्यवाप्नोतितथानागतकालंगर्भमपिप्रवाहमा - णायथाचैषामेवक्षवश्वादीनां सन्धारणमुपघातायोपपद्यते तथा प्राप्तकालस्य गर्भस्याप्रवहणमिति । सायथानिर्देशं कुरुष्वेतिव क्तव्यास्यात् । तथाचकुर्वतीशनैः शनैः पूर्वप्रवाहेत ततोऽनन्तरं बलवत्तरामतितस्याञ्चप्रवाहमाणायांस्त्रियः शब्दं कुर्युः प्रजाताप्रजाताधन्यधन्यंपुत्रामतितथास्या हर्षेणाप्यायन्तेप्राणाः ॥ ८८ ॥ यदि उससमय बालक प्रगट न हो तो यथोक्त गुणसंपन्न खिये इस गर्भवती स्त्रीको कहें कि यदि इससमय तुम्हारे प्रसवकी पीडा न होती हो तो अधिक जोर लगाकर ढकेलने में यत्न मत कर। क्योंकि प्रसव वेदनाके विनाही जो स्त्री गर्भको ढकेलनेके लिये यत्न करती है तो वह इसका यत्न व्यर्थही जाताहै । और इसकी संतान भी विकृतिको प्राप्त होजाती है । अथवा उस स्त्रीको विकृति होकर श्वास, खांसी, राजयक्ष्मा और प्लीहा रोग उत्पन्न होजाता है । जैसे-छींक, डकार, कात, मूत्र, पुरीष इनका वेग यत्न करनेपर भी विना समय नहीं होसकता अर्थात विना समय पेटको कितनाही दबा दिया जाये परन्तु कभी मल, मूत्र नहीं आता उसीप्रकार विना प्रसव के समय उपस्थित होनेके कितनेही जोरसे प्रसव होनेका यत्न किया जाय परन्तु वह अपने समयके बिना प्रगट नहीं होता। वैसेही आयेहुए छौंक आदि वेगोंको रोकने से जिस प्रकार रोगादि उत्पन्न होते हैं उसी प्रकार प्रसवकाल प्राप्त होनेपर उसको निकालनेका यत्न न करनेसे भयंकर परिणाम होता है । समीपवाली स्त्रियोंको गर्भवतीसे कहना चाहिये कि जिसतरह हम कहें उसीप्रकार तुम करना । और उस गर्भवतीको भी उनकी आज्ञानुसार करना चाहिये। फिर प्रसव वेदना उपस्थित होने पर उसको धीरे २ बालक बाहरको ढकेलना चाहिये। जब बालक प्रकट: होते हुए उसके शरीर में वालकके प्रगट होने की योनिमें पीडा होनेसे व्याकुलता
उत्पन्न होनेलगे तो उससमय उसकी समीपवाली सब खिये कहें कि धन्य है धन्य लड़का पैदा हुआ है। लडका पैदा हुआ है। ऐसा कहनेसे उस स्त्रीके शरीरमें हर्ष उत्पन्न कर प्राण प्रफुल्लित होजाते हैं ॥ ८८ ॥
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(७१२) . चरकसंहिता-भा० टी०।
.. प्रसवके उपरांत कर्म। . यदाचप्रजातास्यात्तदैनामवेक्षेतकाचिदस्याअमराप्रपन्नावाप्र. पन्नानेति । तस्याश्चेदमरानप्रपन्नास्यादथैनामन्यतमात्रीदक्षिणेनपाणिनानाभेरुपरिष्टाइलवन्त्रिपडियसव्येनपाणिनापृष्ठतउपसंगृह्यसुनिघूतंनिधूंनुयात् । अथास्याःपादपायाश्रोणीमाकोटयेदस्याःस्फिचावुपसंगृह्यसुपीडितंपडियेत् । अथास्या बालवण्याकण्ठतालूपरिमृशेत् ॥ ८९ ॥ बालकका जन्म होनेके अनन्तर देखे कि अमरा अर्थात् जेर निकल गई है कि नह। यदि अमरा न निकली हो तो एक स्त्री प्रसूताकी नाभिके ऊपर दहिना हाथ रखकर उससे नाभिको दवावे और वायें हाथ से पीठको बलपूर्वक दवावे और हिलावे फिर पांवकी एडियोंको नामिके समीप लेजाकर उसके दोनों नितम्बोंको अच्छी तरहसे पीडन करे । फिर उस वेणीको (गूयको ) मुखमें प्रवेशकरके कंठ और तालु पर फेरे ॥ ८९॥
भूर्जपत्रकाचमणिसर्पनिमोकैश्चास्यायोनिधूपयेत् । कुष्ठतालीसकल्कंबल्वजयूषेमेरेयसुरामण्डेवाकौलत्थेवामण्डूकपर्णिपिप्पलीकाथेवासप्लाव्यपाययेदेनाम् ॥ ९० ॥ फिर भोजपत्र, कांच, मणि और सांपके कांचुलीकी इसकी योनिमें धूनी देवे तथा वल्वज वूटीके जडका काथ, भैरेय मद्य, सुरामण्ड, कुल्थीका यूष अथवा 'पीपलके काथके साथ कुष्ठ और तालीशपत्रके कल्कको मिलाकर पीनेके लिये देव ॥ ९०॥
अमरा निकालनेकी विधि । तथासूक्ष्मैलांकिलिमकुष्ठनागरविडङ्गकालविडचव्यपिप्पलीचि. त्रकोपकुञ्चिकाकल्कंखरवृषभस्यजरतोवादक्षिणकर्णमुत्कृत्यदृपदिजर्जरीकत्यबल्वजयूषादीनामन्यतममस्मिन्प्रक्षिप्यमुहूर्त... स्थितमुद्धृत्यताप्लावनंपाययेदेनाम् ॥ ९१॥ . * तथा छोटी इलायची, देवदारु, कूट, सोंठ, वायविंडग, विडनमक, चव्य, पीपल, चित्रकं और कालाजीरा इनके कल्कका विल्वजतृणक क्वाथ आदिमें मिलाकर पिलावे । और वृद्ध खर तथा वृषभके दक्षिण-कर्णको जरासा काटकर पत्थरके
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शारीरस्थान-अ०८.. (७५३) ऊपर जरजरी वना वल्वज आदि क्वाथमें दो घडी भिगो रक्खे फिर वह क्वाथ छानकर इस प्रमूतास्त्रीको पिलाना चाहिये ॥ ९१ ॥
शतपुष्पाकुष्ठमदनहिंगुसिद्धस्यचैनांतैलस्यपिचुंग्राहयेदतश्चैवानुवासयेदेतेरेवचाप्लावनैःफलजीमूतकेक्ष्वाकुधामार्गवकुटजकतवेधनहस्तिपर्युपहितरास्थापयेत् ॥ ९२ ॥ फिर सौंफ, कूट, मैनफल, हींग इनसे सिद्धकिया तिलोंके तैलका फोहा प्रमूताकी योनिमें रक्खे । इसके उपरांत भैनफल, नागरमोथा, कडुवी तुंबी, कुडा, कडवी तोरी और हस्तिपणी इन सबके कल्कको उपरोक्त वल्वज आदिके क्वाथमें मिला आस्थापन वस्ति करे ॥ ९२ ॥
तदास्थापनमस्याहिसहवातमूत्रपुरीनिहरत्यमरामासक्तांचायोरनुलोमगमनात् । अमरांहिवातमूत्रभपुरीषाण्यन्यानिचान्तबहिर्मुखानिसृजन्ति ॥ ९३॥ उस आस्थापन वस्तिके करनेमे वायु अनुलोम होकर वात, मूत्र और मल साफ निकलतेहैं और साथही अमरा भी निकल जाती है। क्योंकि वात, मूत्र, पुरीष तथा अन्य भी सब अमराके साथही खिंचहुए होनेसे अन्तर्मुख और बहिर्मुख होतेहैं । आस्थापन द्वारा पुरीष आदिकोंके गहमुख होनेसे अमरा (आंवल ) भी बाहर निकल आतीहै ॥ ९३ ॥
. कुमारके कर्म । तस्यान्तुखल्वमरायाःप्रपतनार्थेखल्वेवमेवकमणिक्रियमाणे जातमात्रेऽस्यैवकुमारस्यकााण्येतानिकर्माणिभवन्तितद्यथा-अश्मनोःसंघनकर्णयोर्मूलशीतोदकेनोष्णोदकेनवासुखपरिषेकः । तथासंक्लेशविहतान्प्राणान्पुनर्लभेतकृष्णकपालिकाशूर्पणचैनमभिनिष्पुष्णीयाद्यच्चेष्टस्याद्यावत्प्राणानांप्रत्यागमनात्तत्तत्सर्व मेवकुय्युः ॥ ९४ ॥ यह सब कर्म तो अमरा (आंवल) गिराने के लिये किये जातेहैं । अव वालकके संबंधमें जो कर्म करने चाहिये उनको वर्णन करतेहैं । जैसे-जब वालक उत्पन्न. हो तो उस बालकके कानके समीप दो पत्थरोंको बजाना और शीतल अथवा गरम जलसे धीरेधीरे मुखको धोना और मुखपर छींटे देना जिससे प्रसवसमयके कष्टसे
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(९४) चरकसहिवा-भान्टी। उत्पन्न हुई मूछो दूर होकर बालकके प्राण प्रफुल्लित हों अर्थात् शरीरमें फिर भाजांय. फिर एक काले बडे शरावसे अथवा छाजसे इस बालकको धीरे २ हवा करे तथा बालककी मूर्छा दूर करने के लिये और उनके शरीरमें प्राणोंका आगमन होनेके लिये जो २ उपाय उचित हों करने चाहिये ॥ ९४ ॥
ततःप्रत्यागतप्राणप्रतिभूतमभिसमाक्ष्यस्नानोदकग्रहणाभ्या
मुपपादयेत्।अथास्यताल्वोष्ठकण्ठजिह्वांप्रमार्जनमारभेतअंगु, ल्यामुपरिलिखितनखयासुप्रक्षालितोपधानकार्पासपिचुमत्या
प्रथमंप्रमाजितस्यास्यचशिरस्तालकासिपिचुनास्नेहगर्भणप्र. तिच्छादयेत् । ततोऽस्यानन्तरंकायंसैन्धवोपहितेनसर्पिषा प्रच्छर्दनम् ॥ ९५॥ जब वालक होशमें आकर रोनेलगे और स्वस्थवृत्ति होजाय फिर उसको स्नान करावे तथा हाथ आदिसे स्वच्छ करे। उसके उपरान्त कोई स्त्री हाथकी अंगुलीको साफकरके उस अंगुलीका नख उत्तमतासें कटाहोना चाहिये फिर उस अंगुलीपर उत्तम साफ धुनीहुई रुईके फोहेको लपेट उस बालकके तालू, होंठ और कण्ठको. साफ करे । फिर रुईके फोहेको तैलमें भिगोकर बालकके तालुवेपर रक्खे। फिर इसके उपरान्त सेंधानमक और घीसे बालकको वमन करावे ॥ ९५ ॥
___ नालुवाछेदन विधि। नाड्यास्तस्या:कल्पनविधिमुपदेक्ष्यामः । नाभिवन्धनात्प्रभृतिहित्वाष्टांगुलमभिज्ञानंकृत्वाछेदनावकाशस्यद्वयोरन्तरयोः शनैर्गृहीत्वातीक्ष्णेनरोक्मराजतायसानांछेदनानामन्यतमेनोर्द्धधारणछेदयेत्तामसूत्रेणोपनिबध्यकण्ठेचास्यशिथिलमवसृजेत् ॥ ९६ ॥ अब बालककी नाल काटनेकी विधि कथन करतेहैं । नाभिसे आठ अंगुल लम्बी छोडकर जिस स्थानपरसे काटनी हो उसके दोनों ओर ऊपर और नीचेसे धागेके. साथ बांधदेना चाहिये । फिर उन दोनों बंधनोंके वीचमेंसे सोना,चांदी अथवा लोहेकी तीक्ष्ण (पैनी) धारवाली छुरीसे नालको काटदेना चाहिये। फिर ज़ो. नाल नाभिसे आठ अंगुल लगीहुई है उसको सूतके डोरेसे बांधकर वालकके गलेमें इसप्रकार ढीली बांधदेनी चाहिये जिससे वह खिंचे नहीं और डोरा भी ऐसी युक्तिसे
इसके उपरान्ता के काकोडेको लपेटा कटाहोना चाक
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शारीरस्थान-अ०८.
(७९५)
और नरम बांधना चाहिये कि जिससे उस बालकके नरम शरीरमें कहीं अपना असर न दिखावे ॥ ९६॥
नाभिपाकका यल। तस्यचेन्नाभिःपच्येत्तालोध्रमधुकप्रियंगुदारुहरिद्राकल्कसिद्देन तैलेनाभ्यज्यादेषामेवतैलौषधानांचूर्णेनावचूर्णयेदेषनाडौंकल्पनविधिरुक्तःसम्यक् ॥ ९७॥ यदि बालककी नाभि पकजाय तो पठानी लोध, मुलहठी, प्रियंगु, हल्दी और दारुहल्दी इनके कल्क द्वारा सिद्ध कियाहुआ तैल उस नाभिपर लगाना चाहिये अथवा इन उपरोक्त औषधियोंके बारीक चूर्णको तैलमें मिलाकर नाभिपर लगादेना चाहिये इसप्रकार नालवाकल्पनविधि कथन की गई है ॥ ९७ ॥ । असम्यकल्पेनहिनाडयाआयामव्यायामोत्तुण्डितपिण्डालिकावि
नामिकाविजृम्भिकाबाधेभ्योभयम्॥९८॥तत्राविदाहिभिर्वात. पित्तप्रशमनैरभ्यङ्गोत्सादनपरिषकैः सपिर्भिश्चोपक्रमेतगुरुलाघवमभिसमीक्ष्यकुमारस्य ॥ ९९॥ याद नालवेका उत्तमप्रकारसे छेदन न कियाजायगा तो उस बालकको आया, मक, व्यायाम उत्तुण्डिका,पिण्डालिका,विमानिका और विजृम्भिका नामक व्या धियोंके उस नाभीमें उत्पन्न होनेका भय है ॥ ९८ ॥ इनके उत्पन्न होनेपर इन व्याधियोंकी लघुता, गुरुता आदि देखकर अविदाही वातपिचनाशक, उत्सादन
और परिषेकों द्वारा तथा सिद्ध घृत द्वारा चिकित्सा करना चाहिये।(इसकी विशेष चिकित्सा चिकित्सास्थान १२ वें अध्यायमें देखना ॥ ९९ ॥
जातकर्मविधि। . . प्रागतोजातकर्मकार्यततोमधुसर्पिषीमन्त्रोपमन्त्रितेयथान्यायं प्राशितुमस्मैदद्यात् । स्तनमतऊर्द्धमनेनैवविधिनादक्षिणंपातुपुं. रस्तात्प्रयच्छेत् । अथातःशीर्षतःस्थापयेदुदकुम्भंमन्त्रोपमन्त्रितम् ॥१०॥
प्रथम बालकका जातकर्म करना चाहिये । वेदोक्त मन्त्रोंद्वारा मंत्रित कियाहुआ घृत और मधु विषमभाग मिलाकर बालकंको चटानाचाहियोइसके उपरान्त इसी विधिसे पहिले दाहिना स्तन पनिके लिये देना चाहिये । फिर उसके सिरके समीप मंत्रोंसे मन्त्रित किया जलका कलश रखना चाहिये ॥ १०० ॥
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(७९६)
चरकसंहिता-मा० टी०।
रक्षाविधि। ' अथास्यरक्षांविदध्यादादानीखदिरकर्कन्धूपीलुपरूषकशाखाभरस्यागृहभिषक्लमन्ततःपरिवारयेत्।सर्वतश्चसूतिकागारस्यसर्षपातसातण्डुलकणिकाःप्रकिरेत्।तथातण्डुलवलिमङ्गलहामःसततमुभयकालंक्रियतेप्राङ्नामकर्मणोरचमुसलमनुतिरश्चीनंन्यस्तंकुर्यात् ।वचाकुष्टक्षोमकहिंगुसर्षपातसीलशुनकणकणिकानां रक्षोनसमाख्यातानाञ्चऔषधीनांपोहलिकांबद्धासूतिकागारस्यो 'त्तरदेहल्यामासजेतातथासूतिकाया कण्ठेसपुत्रायाःस्थाल्युदककुम्भपर्यङ्केष्वपितथैवचद्वयोरपक्षयोःसकणकुम्भकेन्धनाग्निस्तिन्दुककाष्ठेन्धनश्चाग्निःसूतिकागारस्याभ्यन्तरतोनित्यस्यात् । स्त्रियश्चैनांयथोक्तगणाःसुहृदश्चानुजागयर्दशाहद्वादशाहवानुपरतप्रदानमङ्गलाशीःस्तुतिगीतवादित्रमन्नपानविशदमनुरक्तप्रहृष्टजन
सम्पूर्णतद्वेश्मकार्यम्। ब्राह्मणश्चाथर्ववेदवित्सततमुभयकालेशा“न्तिजहुयात्स्वस्त्ययनार्थसुकुमारस्यतथासूतिकायाइत्येतद्रक्षावि
धानमुक्तम् ॥ १०१॥ इसके उपरान्त इस बालककी रक्षा करे।उस रक्षाविधिका वर्णन करते हैं।जैसेआदानी (घोषक) खैर, वेर पीलू,फालसा इन सब वृक्षोंकी शाखाओंको घरके चारों ओर लटका देवे।और उस प्रसूत घरमें सफेद सरसों,अलसी और चावलोंके दाने बखेरदेवे । प्रातःकाल और सायंकाल दोनों समय चावलोंका बलिदान और मंगलकर्म, हवन, आदि नित्यम्प्रति करना चाहिये। तथा नामकरण संस्कार होनेसे प्रथम द्वारमें एक लोहेका मूसल टेढाकर रखदेना चाहिये। और वच, कूट, अजवायन, हींग, सफेद सरसों, अलसी, लहसुन,चावल इनसवकी पोटली वांधकर तथा भूतादिनाशकऔषधियोंकी पोटली बांधकर प्रसूतघरके उत्तरके द्वारकी देहलीपर रख देना चाहिये। या चौकटमें बांधकर लटका देना चाहिये।इसीप्रकार इन भूतनाशक व्याकी छोटीपोटली बना प्रसूता स्त्री और वालकके गलेसे वांधदेना चाहियाएवं प्रसूताके भोजनकरनेके पात्र में और जल पनि घटमें तथा चारपाईमें और दोनों ओरके किवांडोंमें भी बांधना चाहिये । इस प्रसूताके घरमें सरसों आदिके कणके, चावल, जलका घडा, लकडियें, अग्नि, तेंदुकी लकडीसे प्रज्वलित हुई अग्नि सदेव
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शारीरस्थान-१० ८.
(७९७) रखनी चाहिये । और यथोक्तगुणसंपन्न तथा इससे स्नेह रखनेवाली स्त्रियें और सुहद्गण इसकी सवप्रकारसे सेवामें सावधानांसें लगे रहें । इस प्रकार दश वारह दिन व्यतीत करना चाहिये । इसके अनन्तर भी दान देना, मंगलकर्म, आशीर्वाद लेना, वेदध्वनि,गीत और वाजे आदि शुभकर्मीको करतरेहना चाहिये । अथर्ववेदके जाननेवाले ब्राह्मण दोनों समय इस बालककी रक्षाके लिये और प्रसूताकी रक्षाके लिये दोनों समय कल्याणकारी शान्तिपाठ और हो मादिक किया करें।इस प्रकार रक्षा. विधिका कथन कियागया ॥ १०१॥
प्रसूतिकाका आहारविहार वर्णन । सूतिकान्तुखलबुभुक्षितांविदित्वास्नेहपाययेत्प्रथमपरमयाशच्या सर्पिस्तैलंवसांमज्जानवासात्म्दीभावमभिसमीक्ष्यभिषकापिप्पलीपिप्पलीमूलचव्यचित्रकशृङ्गवेरचूर्णसहितस्नेहपीतवत्याश्चत. पिस्तैलाभ्यामभ्यज्यवेष्टयेदुदरंमहतावाससातथातस्यानवायुरुदविकृतिमुत्पादयत्यनवकाशत्वात् । जीणेतुस्त्रहपिप्पल्यादिभिरेवासद्धांयवागूसुस्निग्धांद्रवांमात्रशःपाययेतोभयकालचोष्णोदकनपरिषेचयेत्प्राक्नेहयवागूपानाभ्यामाएवंपञ्चरात्रंसप्तरात्रञ्चानुपाल्यततःक्रमेणाप्ययेत्स्वस्थवृत्तमतत्सूतिकायाः॥ १०२.॥ प्रसूता स्त्रीको जिससमय क्षुधा लगे तो उसको उसकी सामर्थ्यानुसार उत्तम मात्रासे स्नेहपान करावे।और उसका सात्म्य विचार करके जिस देशमैं उसके लिये जो हितकारी हो सो घृत तेल अथवा वसा या मज्जा पान करावे । तथा पीपलामूल, चव्य चित्रक और सोंठ इनका चूर्ण मिलाकर स्नेहपान कराना चाहिये ।और उस स्त्रीके पेटपर घृत और लैल दोनों मिलाकर चोपड देवे । इसके उपरान्त पेटपर कोई लम्बा कपडा लपेट देवे। ऐसा करनेसे उसके पेटमें वायु प्रवेश होकर अवकाश न मिलनेसे विकार नहीं करसकता। जब स्नेहपान कियाहुआ जीर्ण होजाय फिर पीपल, पिपलामूल, चव्य, चित्रक और सोंठ यह मिलाकर सिद्ध कीहुई चिकनी यवागू. पतलीसी बनाकर मात्रानुसार दोनों समय पीनेको देवे । स्नेह और यवागू पान करनेके पहिलेही प्रसूता स्त्रीको गर्मजलसे परिषेक करादेना चाहिये । फिर पांच या सात रात्रिपर्यन्त इसी नियमको पालन करे और फिर क्रमसे इसको पुष्ट करताजाय । यह प्रसूताके स्वास्थ्य अर्थात् तन्दुरुस्त अवस्थाके क्रममा वर्णन किया है॥ १०२॥
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चरकसंहिता - मा० टी० । प्रसूताका रोगावस्थामें उपाय । - तस्यास्तुखलुयोव्याधिरुत्पद्यते सकृच्छ्रसाध्यो भवत्यसाध्योवा । गर्भवृद्धिक्षयितशिथिल सर्वशरीरधातुत्वात्प्रवाहण वेदना क्लेदन रक्तं-" निःसृतिविशेषशून्यशरीरत्वाच्चतस्मात्तांयथोक्तेनविधिनोपचरेद्रोतिकजीवनीय बृंहणीयमधुरवात हर सिद्धैरभ्यङ्गोत्सादन परिषेकावगाहनान्नपानविधिभिर्विशेषतश्चोपचरेद्विशेषतो हिशून्यशरीराः खियः प्रजाताभवन्ति ॥ १०३ ॥
यदि प्रसूता स्त्रीको किसीमकारकी व्याधि उत्पन्न होजाय तो वह व्याधि कष्टसाध्य अथवा असाध्य होजाती है । क्योंकि उससमय गर्भके वढने के कारण स्त्रीका शरीर और संपूर्ण धातुएँ क्षीण और शिथिल होती हैं और प्रसव के समय प्रसूतकी पीडा और शरीर से क्लेद और रक्त के निकलजानेसे शरीर और भी विशेषरूप से शून्य हो जाता है । इसलिये सावधान होकर प्रभूतके समय पूर्वोक्त विधिका पालन करे । और विशेषकर भूतनाशकगण, जीवनीयगण, बृंहणीयगण और वातनाशक द्रव्योंसे सिद्ध किये तैलकी मालिश, उत्सादन, परिषेचन अवगाहन और अन्नपानोंका उपयोग करे। क्योंकि प्रसव होने से स्त्रियोंका शरीर विशेषरूपसे शून्य (खाली) होता है ॥ १०३ ॥
बालक होनेपर दशमादेनकी विधि |
- दशम्यांनिश्यतीतायां सपुत्रास्त्रीसर्वगन्धौषधैगौर सर्षपलोत्रैश्चस्नातालध्वहतवस्त्रं परिधायपवित्रेष्ट लघुविचित्रभूषणवतीसंस्पृश्यमङ्गलान्युचितामर्चयित्वाचदेवतांशिखिनःशुक्लवाससोव्यङ्गाश्वब्राह्म
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णान्स्वस्तिवाचयित्वाकुमारमह तेनशुचिवाससाच्छादयेत् । प्राक् शिरसमुदशिरसंवासंवेश्यदेवतापूर्वंद्विजातिभ्यः प्रणमतीत्युक्त्वा कुमारस्य पिताद्वे नामनी कारयेत्नाक्षत्रिकंनामाभिप्रायिकञ्च । तत्राभिप्रायिकंनामघोषवदाद्यन्तस्थान्तमूष्मान्तञ्चवृद्धंत्रिपुरुषान्तरमनवप्रतिष्ठितम् । नाक्षत्रिकन्तुनक्षत्र देवतासंयुक्तं कृतं द्वयक्षरंचतुरक्षरंवा ॥ १०४ ॥
दशरात्रि व्यतीत होनेके अनन्तर ग्यारहवें दिन प्रसूता स्त्री और उस बालकका
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'शारीरस्थान-अ०८.
'(७९९) -सौंषधी तथा सर्वगंध, सफेद सरसों और पठानी लोध इनसबका कल्क शरीरमें लगा फिर उष्णजलसे स्नान करावे । तदनंतर स्वच्छ,हल्के और नये वस्त्रोंको धारण करकै मंगलद्रव्योंका स्पर्श करावे । और इष्टदेवताओंका पूजन करावे । फिर शिखासुत्र धारणकिये श्वेत वस्त्रोंवाले सर्वांगसंपन्न योग्य ब्राह्मणोंसे स्वस्तिवाचन करावे तथा उस बालकको निर्मल कोमल नवीन सफेद वस्त्र धारण करावे। फिर उस बालकको पूर्व अथवा उत्तरकी ओर मुख कर लेटादेवे । फिर उस बालकका पिता प्रथम देवता और ब्राह्मणोंको प्रणाम करके उस लडकेके नक्षत्रसंबंधी और अपना इच्छित दो नाम रक्खे । उनमें बोलनेका अर्थात् अपनी इच्छानुसार जो नाम रक्खा जाय उस नामके आदि और अन्वमें क्रमसे घोषवान् और अन्तस्थ अक्षर होने चाहिये। अथवा अन्तमें ऊष्मा अक्षर होना चाहिये । पुत्रका नाम रखते समय अपने पिता पितामह आदि तीन पीढीके नाम बचाकर और अपने गुरु
आदिका नाम बचा और कोई नाम रखना चाहिये । वह नाम भी वर्तमान समन्यका कल्पना किया न होना चाहिये किन्तु पुराने समयके देवता या ऋषियोंकासा नाम होना चाहिये । तथा नाक्षत्रिक अर्थात जन्म नक्षत्रके चरणगत अक्षरसे जो नाम रक्खाजाय वह दो अक्षरोंवाला अथवा चार अक्षरोंवाला होना चाहिये ॥ १०४ ॥ कृतेचनामकर्मणिकुमारंपरीक्षितुमुपकामेदायुषःप्रमाणज्ञानहतो।। तत्रेमानिआयुष्मताकुमाराणांलक्षणानिभवन्ति। तद्यथा-एकैकजामृदवोऽल्पा:स्निग्धाःसुबद्धमूला छष्णा केशा प्रशस्यते स्थिरा बहलात्वक्प्रत्याकृतिसुसम्पन्नमीषत्प्रमाणातिरिक्तमनुरूपमातपत्रोपमंशिरःप्रशस्यते । व्यूढदृढसमसुश्लिष्टशंखसन्ध्यर्द्धव्यञ्जनमुपचितंवलिनमर्दचन्द्राकृतिललाटंबहलौविपुलसमपीठौसमौनी-- चौवृद्धौपृष्ठतोऽवनतौसुश्लिष्टकर्णपुटकौमहाच्छिद्रौकोईषत्प्रल- : म्बिन्यावसङ्गतेसमेसंहतेमहत्याध्रुवौ । समेसमाहितदर्शनेव्य- . क्तभागविभागेबलवतितेजसोपपन्नेस्वाङ्गोपाङ्गचक्षुषी। ऋज्वीमहोच्छासावंशसम्पन्नषदवततामानासिकामहजुसुनिविष्टदन्तमास्यमायामविस्तरोपपन्नाश्लक्ष्णातन्वी प्रतियुक्तापाटलवर्णाजि ह्वा । श्लक्ष्णंयुक्तोपचयमूष्मोपपन्नंरक्ततालुमहानदीनःस्निग्धोऽ
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चरकसंहिता - भा० टी० ।
नुनादीगम्भीरसमुत्थोधीरः स्वरः। नातिस्थूलाना तिकृशौविस्तारो - पपन्नावास्यप्रच्छादनौरक्ता वोष्ठा । महत्यौहनूवृत्तौना । तमहतीग्री: वाव्यूढमुपचितपुरोदृढं जत्रुपृष्ठवंशश्च । विकृष्टान्तरौ स्तनाअंसपातिनस्थिरेपाश्चैवृत्तपरिपूर्णाायतौबाहु सक्थिनी अंगुलयश्च महदुपचितंपाणिपादम् । स्थिरावृत्ताः स्निग्धास्ताम्रास्तुङ्गाः कूर्माकाराः करजाः । प्रदक्षिणावर्त्तासोत्सङ्गाचनाभिः । नाभ्युरास्त्रे भागहीना समासमुपचितमां साकटवित्तौस्थिरोपचितमांसौनात्युन्नतौनात्यवनतौस्फिचावनुपूर्ववृत्तौ उपचययुक्तावूरू। नात्युपचितनात्यपचिएर्णापदेप्रगूढशिरास्थिसन्धीज े | नात्युपचितौनात्यपचितौगुल्फौ पूर्वोपदिष्टगुणौ पादौ कूर्माकारौ । प्रकृतियुक्तानिवातमूत्रपुरीषगुह्यानितथास्वप्नजागरणायासस्मितरुदितस्तनग्रहणानि यच्चकिञ्चिदन्यदपि अनुक्तमस्तितदापि सर्वप्रकृतिसम्पन्नमिष्टंविपरीतंपुनरनिष्टमितिदीर्घायुर्लक्षणानि ॥ १०५ ॥
नामकरण करनेके अनन्तर उस वालककी आयुका प्रमाण जानने के लिये उसकी परीक्षा करे। उनमें दीर्घजीवी अर्थात् दीर्घायु होनेवाले वालकों के यह लक्षण होते हैं । जैसे सिरके वाल अलग २ नरम, चिकने, थोडे, काले और दृढ, बद्धमूल, अच्छे होते हैं वा स्थिर और पुष्ट उत्तम होती है । शिर स्वभावसेही सुन्दर आकारका प्रमाणसे किंचित् बडा, सुन्दर, लक्षणोंवाला, अनुरूप, तथा छत्रके समान उत्तम होता है । ललाट विशाल, दृढ, सुडौल, सुन्दर, उत्तम कनपटियोंकी संधियुक्त, कुछ ऊँचा और कुछ ढला हुआसा उत्तम आकारवाला उपचित, वलियुक्त और अर्धचन्द्र के समान आकारवाला होना श्रेष्ठ होता है। दोनों कान पुष्ट, कानोंके पीछेका भाग विपुल और सुडौल तथा दोनों कान ऊंचे नीचे समान और पीछेको नवेहुएसे दोनों कर्णपुष्टि तथा कानों के छिंद्र अर्थात कोकरू बडे होना श्रेष्ठ माने जाते हैं। भौहें लंबी परस्पर मिलीहुई एकसी घनकी और बडीर होना उत्तम होता है। दोन नेत्र एकसे देखने वाले सुडौल, अलग २ सीधे, तेजयुक्त, पलक आदि सुन्दर उपांगयुक्त उत्तम होते हैं । नाक, सुडौल, लम्बी श्वासयुक्त, लम्बे बांसवाल, कुछ कुछ आगेको झुकी हुई उत्तम होती है । मुख बडा सुडौल, सुन्दर जिसके दोनों ओर सुन्दरतायुक्त हो तथा दैतपंक्ति सुन्दरतायुक्त हो वह मुख उत्तम होता है । जिह्वा
( ८०० )
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शारीरस्थान-य०.८. (८०१) लम्बी, चिकनी, पतली, सुडौल, गुलाबी रंगकी और अपने गुणोंसे संपन्न उत्तमा, होतीहै । तालु मसूण, पुष्ट, ऊंचा, तथा, लालवर्णका उत्तम होताहै । स्वर बडा, दीनता रहित, चिकना, प्रतिध्वनियुक्त, गंभीर तथा धीर उत्तम होता है । होठ न बहुत मोठे न अधिक पतले, विस्तारयुक्त, मुखको ढकेहुए और लालवर्णके उत्तम होते हैं । ठोडी गोल अधिक लम्बी न होना उत्तम होता है। गर्दन दृढ और थोडी लम्बी उत्तम होती है।दोनों कंधे, व्यूढ और दृढ तथा ऊंचे उत्तम होते हैं । इंसुली दृढ और छाती में मिली हुई उत्तम होता है। पीठका बांस मांसमें छिपाहुआ उत्तम होता है । स्तनोंके वीचका भाग फैलाहुआ चौडा अच्छा होता है ।दोनों पार्थ दोनों कंधोंकी और ढलेहुए और दृढ उत्तम होते हैं । दोनों बाहु, नितम्ब और अंगुलिये लम्बी, गोल, परिपूर्ण और दृढ होना उत्तम है। हाथ और परि-पुष्ट, दृढ, और लम्बे उत्तम होते हैं। नख चिकने, ताम्रवर्ण, ऊंचे कलएकी पीठके समान, सुडौल उत्तम होते हैं। नाभि-दक्षिणावर्त और वीचमेंसे गरी किनारसे ऊंची उत्तम होती है।नाभि और उरस्थलके बीच में चौथा भाग प्रमाणसे सुडौल
और पुष्ट कमर उत्तम होती है।दोनों नितम्ब गोल,दृढ मांससे पुष्ट न भति ऊंचे और न अधिक नांचे उत्तम होते हैं, दोनों उरुस्थल गोल, पुष्ट और मोटे उत्तम होते हैं। दोनों जानु गोल और पुष्ट उत्तम होती हैं दोनों जांघ-हिरणीके पैरके समान और पुष्ट छिपीहुई हड्डियोंवाली जिनमें कोई नाडी दिखाई न देताहो और उनकी संधिर्य: भी छिपाहों ऐसी उत्तम होती हैं।दोनों गुल्फ न बहु पुष्ट और न अधिक कृश उत्तम होते हैं। दोनों पांव पूर्वोक्त लक्षणवाले कछुएकी पीठक समान सुडौल उत्तम होतेहै इनके सिवाय वायु, मूत्र, मल, गुह्यावयव, निद्रा, जागरण आदि अन्य व्यवहार । तथा हास्य और रोदन तथा स्तनोंका पीना स्वाभाविक ठीक होने उत्तम होते है । यह लक्षण दीर्घायु कुमारके होते हैं इससे विपरीत लक्षण अल्पायु बालकोंके होते हैं। इसप्रकार दीर्घजीवी वालकोंके लक्षण कथन कियेगये ॥ १०५ ॥
धात्रीपरीक्षा। - अतोधात्रीपरीक्षामुपदेक्ष्यामः ॥ १०६ ॥
अव धात्रिकी परीक्षाका वर्णन करते हैं ॥ १०६ ॥ . अथव्यादात्रीमानयोतिसमानवणायौवनस्थांनिभृतामनातुरामव्यङ्गामव्यसनामविरूपामजुगुप्सितांदेशजातीयामक्षुद्रामक्षुद्रक मिणीकुलेजातांवत्सलामरोगजीवद्वत्तापूवत्सांदोग्धीमप्रमत्तामशायिनीमनुच्चारशायिनीमनंन्तावशायिनीकुशलोपंचारांशुचिमशुचिद्वेषिस्तिन्यसम्पदुपेतामिति ॥ १०७॥ .
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(८०२) चरकसंहिता-मा० टी०।
इसके अनन्तर एक मनुष्यको कहे कि धात्री(धाय)को लावो । वह धात्री अपर्ने समान वर्णकी हो,युवा हो, अयोग्य न हो, रोगरहित हो, सर्वांगसंपन्न हो, कुरूप
और कुचरित्र न हो,निंदनीय न हो, अपने देशकी हो, नीच न हो, उत्तम स्वभाव व कर्मवाली हो,अच्छे कुलकी हो,वालकको प्यार करनेवाली हो,जिसको अपने बच्चे जीते हों अर्थात मृतवत्सा न हो और लडकेवाली हो, जिसके स्तनों में बहुतसा दूध हो, असावधान न हो, बहुत सोनेवाली न हो तथा विना कहे कहीं एकान्तमें सोनेवाली न हो, जातिसे पतित न हो, चतुर उपचार करनेवाली हो, पवित्र हो,अप; वित्रतासे द्वेष रखतीहो, जिसका दूध उत्तम हो ऐसे गुणोंवाली धात्री उत्तम हो. बीहे. ॥ १०७.॥
उत्तम स्तनके लक्षण । नत्रेयंस्तनसम्पन्नात्यूछौनातिलम्बौअनतिकशौअनतिपीनीयुक्तपिप्पलकोसुखप्रपानौचेतिस्तनलम्पत् ॥ १०८ ॥ स्तनों? यह लक्षण उत्तम होतेहैं। अर्थात् धायके स्तन ऐसे होने चाहिये । मधिक ऊँचे, अधिक लम्बे, अधिक कृश और अधिक मोटे न हों । अनुरूप लक्षणवाले खूबसूरत पीपल के पत्ते के समान पीछेसे चौडे और आगेसे नोंकीले जिनमेंसे बालक सूखपूर्वक दूध पी सके ऐसे उत्तम होतेहैं ॥ १०८ ॥
उत्तमदूधके लक्षण ।। स्तन्यसम्पत्तुप्रकृतिवर्णगन्धरसस्पर्शसुदपानेचदुह्यमानंदुग्धमुदकं वेतिप्रकृतिभतत्वात्तत्पुष्टिकरमारोग्यकरञ्चेतिस्तन्यसम्पदतोऽन्यथाव्यापन्नंज्ञेयम् ॥ १०९ ॥
अब दूधके लक्षणोंका वर्णन करतेहैं । स्तनोंका दूध वर्ण, गंध, रस और स्पर्शमें स्वाभाविक गुणोंवाला होना चाहिये । स्वाभाविक गुणके ये लक्षण हैं कि जो दूध जलके पात्रमें डालनेसे जलके साथही मिलजाय वही दूध पुष्टिकारक, आरोग्य रख. नेवाला तथा उत्तम होताहै । इन लक्षणोसे विपरीत लक्षणावाला दूध दूषित जा. जना ॥ १०९॥
वातदूषित दूध । तस्यविशेषाःश्यावारुणवर्णकषायानुरसंविशदमनातलक्ष्यगन्धं रूक्षंद्रवंफेनिलंलघुअतृतिकरंकर्षणंवातविकाराणांकर्तवात टक्षीरमभिज्ञेयम् ॥ ११० ॥
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शारीरस्थान-अ.८
(८०३) दूषित दूधके ये लक्षण हैं। जो दूध काले या लालवर्णका हो कसैले रसयुक्त हो रजिसमेंसे कुछ २ गंध आतीहो, जो अत्यंत रूखा हो, चंचल तथा झागयुक्त हो, जिसके पीनेसे तृप्ति न होतीहो,बहुत हल्का हो, जिसके पानेसे बालक कृश होजाय तथा वायुके विकारोंको उत्पन्न करताहो वह वातदूषित दूध जानना ॥ ११० ॥
पित्तदूषित दूध। कृष्णनीलपीतताम्रावभासंतिक्ताम्लकटुकानुरसंकुणपरुधिरगंधि भृशोष्णंपित्तविकाराणांकर्तपिचोपसृष्टंक्षीरमाभिज्ञेयम् ॥१११॥
जो दूध कृष्ण तथा नीलवर्णका अथवा पीले या तांबेके वर्णका हो और उस दूधका कड्डआ, खट्टा, अथवा चरपरा अनुरस हो, मुर्देकीसी गंध आतीहो,अथवा रुधिरकीसी गंध हो और अत्यंत गरम हो एवम् पित्तके रोगोंको उत्पन्न करनेवाला हो उसको पित्तदूषित जानना ॥ १११ ॥
कफदूषित दूध । अत्यर्थशुक्लमतिमाधुर्योपपन्नलवणानुरसंघृततेलवसामज्जगंधि पिच्छिलतन्तुमदुदकपात्रेऽवसीदतिश्लेष्मावकाराणांकर्तृश्ले'मोपसृष्टंक्षीरलाभज्ञेयम् ॥ ११२ ॥
जो दूध अत्यन्त श्वेतवर्ण हो, अधिक मीठा हो, लवण अनुरसयुक्त हो,घृत,तैल, बसा,मज्जाकीसी गंधवाला हो,गाढा हो, तारयुक्त हो,जल में डालनेसे डूब जालाहो एवम् कफरोगोंको उत्पन्न करनेवाला हो उसको कफदूषित जानना ॥ ११२ ॥
तेषान्तुत्रयाणामपिक्षीरदोषाणांप्रकृतिविशेषमाभिसमीक्ष्ययथास्वं यथादोषञ्चवमनविरेचनास्थापनानुवासनानिविभज्य कृतानिप्रशमनायभवन्ति ॥ ११३ ॥ उन तीनों प्रकारके दूषिव दूधोंको शुद्ध करने के लिये धायको वमन, विरेचन और आस्थापन तथा अनुवासन कर्म यथायोग्य रीतिपर दोषानुसार विभागपूर्वक करना चाहिये ॥ १३ ॥
धात्रीके खानेपीनेकी विधि । पानाशनविधिस्तुदुष्टक्षीरायायवगोधूमशालिषष्टिकमुद्गहरेणुककु. उत्थासुरासौवीरकतुषोदकसैरेयमेदकलशुनकरअप्रायःस्यात्॥११४॥
उस दूषित दूधबाली धायको खानेपीनेके लिये प्राय: यव,गेहूं,उत्तम शालिचा. वल, साठीचावल,मूंग, हरणु, कुल्थी, सुरा, सावौर,मैरेय, तुपोदक, मेदक, लहसुन और करंज आदि द्रव्योंको देना चाहिये ॥ ११४ ॥
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(८०४) चरकसंहिता-भा० टी।
क्षीरदोषविशेषांश्चावेक्ष्यावश्यतत्तद्विधानकायस्यात् ॥११५॥ क्षीर (दूध) के दोषोंको विशेषरूपसे विचारकर और उनमें वाताद दोषोंकी पृथकू २ परीक्षा कर चिकित्सा करनी चाहिये ॥ ११५ ॥
मुग्धशोधक उपाय । पांठांमहौषध-सुरदारु-मुस्तमूर्वागुडूची--वत्सकफल-किराततितकटुरोहिणीशारिवाकषायाणाञ्चपानंप्रशस्यते । तथान्येषांतिक्तकषायकटुमधुराणांद्रयाणांप्रयोगः । इतिक्षीरशोधनान्यु. तानिभवन्ति । क्षीरविकारविशेषानभिसमीक्ष्यमात्राकालञ्चेति क्षीरविशोधनानि ॥ ११६ ॥ धात्रीके दूधको शुद्ध करनेके लिये पाठा,सोंठ,देवदारु,नागरमोथा,मूर्वा,गिलोय, इन्द्रयव, चिरायता, कुटकी और सारिवाका काथ बना पिलाना चाहिये । तथा दोषोंके अनुसार विचारपूर्वक कडवे, कसैले, चरपरे तथा मधुर द्रव्योंका प्रयोग करना चाहिये । इसप्रकार क्षीरके शोधने के उपाय कहेगये। और क्षीरके विकारोंको पृथक पृथक् विचार कर मात्रा तथा कालका ध्यान रखकर उचित रातिसे उचित द्रव्योंद्वारा शोधन करना चाहिये यह दूधशोधनकी विधि कहीगई ॥ ११६ ॥
दुग्धोत्पादकविधि । क्षीरजननानितुमानिसीधुवानिग्राम्यानूपौदकानिचशाकधान्य. मांसानिद्रवमधुराम्लभूयिष्ठाश्चाहाराःक्षीरिण्यश्चौषधयः क्षीरपानञ्चानायासश्चेतिवारणषष्टिशालिकेक्षुबालिकादर्भकुशकाशगुन्द्रोकंटमूलकषायाणाञ्चपानमितिक्षीरजननान्युक्तानि ॥ ११७॥ स्तन्य अर्थात् स्तनों में दूध बढानेवाले यह द्रव्य हैं । जैसे शीधुमद्यके सिवाय अन्य सब प्रकारके मद्य,ग्राम्य और अनूप तथा जलमें होनेवाले शाक धान्य और मांस, पतले पदार्थ,मधुरऔर खटमीठे द्रव्य,गुल्लड आदि क्षीरीगण,दूधका पीना, परिश्रम न करना,वीरणतृण,साठीचावल,इक्षुबालिका दर्भ,कुशा,काश,गुन्द्रपटेर और . उत्कट इन सबकी जडोंका काथ बना मिसरी मिला पीना स्तनोंमें दूधको बढाताहै ॥ ११७ ॥ . :
शुद्धदूधवालीका कर्त्तव्य कर्म । धात्रीतुयदास्वादुबहुलशुखदुग्धास्यात्तदानातानुलिप्ताशुक्लवस्त्रंप.... रिचायेन्द्रींबाहीशतवीय्यांसहस्रवय्यिामाघासव्यथांशिवामरि
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शारीरस्थान - अ० ८
( ८०५ )
ष्टांवाठ्यपुष्पविष्वक्सेनकान्तामितिविभ्रत्योषधीः कुमारं प्रामुखंप्रथमं दक्षिणस्तनं पाययेदितिधात्रीकर्म ॥ ११८ ॥
जब देखे कि धांयका दूध स्वादिष्ट, बहुत और शुद्ध होगया है तब इस धापको नान कराकर चन्दनादिसे. सुशोभित करा स्वच्छ निर्मले वस्त्र पंहिना इन्द्रायण, ब्राह्मी, सफेद और हरी दूब, पाढ, हरड, आमले, नीम, बला, प्रियंगु, रेडुका, इन सब artist एक धागे में मालाके समान बांध गलेमें धारण करे फिर पूर्वकी ओर मुरखकर बालकको पहिले दाहिना स्तन पान करावे ॥ ११८ ॥ कुमारागारविधि |
अतोऽनन्तरं कुमारागारविधिमनुव्याख्यास्यामः । वास्तुविद्याकुश-लः प्रशस्तरम्यमतमस्कंनिवातंप्रवातैकदेशं दृढमपगतश्वापदपशुदंष्ट्रिमूषिक पतंगं सुसंविभक्तसलिलोलूखलमूत्रवर्चः स्थानस्नानभूमिमहान समृतुसुखंयथर्तुशयनास्तरणसम्पन्नकुर्य्यात्। तथासुविहितरक्षाविधानबलिमङ्गलहोमप्रायश्चित्तंशा चवृद्धवैद्यानुरक्तजन सम्पूर्णमिति कुमारागारविधिः ॥ ११९ ॥
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इसके उपरान्त अब बालकके रहनेका स्थान बनानेकी विधिका कथन करते हैं। उत्तम वास्तुविद्याको जाननेवाला चतुर पुरुष उत्तम इधर उधर फिरने योग्य अंधकार रहित, जिसस्थानमें अधिक वायु न आतीहो तथा एक ओर सुन्दर पवन आती भीं हो ऐसा दृढ अर्थात् पक्का मकान बनावे। जिस मकानमें कुत्ते काटनेवाले पशु, अन्य दांतोंवाले जानवर तथा हिंसक जीव, मच्छर, मूषक, पतंग आदिन व्यासकें। और उस घर में विधिपूर्वक यथास्थान जल, ऊखल मलमूत्र त्यागनका स्थान, स्नान करनेका स्थान भोजन बनानेका स्थान यथाऋतु शयन करने और बैठनेके लिये तथा बिछाने और ओटने के लिये सुखदायी वस्त्र एवं इस घर में संपूर्ण रक्षा के विधान बलिदान, मंगल कर्म, होम और प्रायश्चित्त की सामग्री तथा पवित्र, वृद्धवैद्य और बालकसे प्रीति रखनेवाले मनुष्य रहने चाहिये। इस प्रकार कुमारागारकी विधि वर्णन कीगई ॥ ११९ ॥
शयनास्तरणप्रावर गानि कुमारस्य मृदु लघु गुचिसुगन्धीनि स्यु:स्वेदमलजन्तुमन्तिमूत्रपुरीषोपसृष्टानिचवनिः ॥ १२० ॥
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: बालकके सोनेकी शय्या और विछाने के वस्त्र ओर ओढने व इल के सुन्दर
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१८०६) चरकसहिता-मा० टी०। नरम, पवित्र और सुगंधित होने चाहिये । उनमें पसीना, मल, मूत्र, जीव, विष्ठा आदि किसीसमय भी न रहना चाहिये ॥ १२० ॥
असतिसम्भवेऽन्येषांतान्येवचसुप्रक्षालितोपधानानिसुधूपितानि. सुशुद्धशुष्काण्युपयोगंगच्छेयुः ॥ १२१॥ यदि बारबार नय और स्वच्छ वस्त्र प्राप्त न करसकें तो उन्हीं वस्त्रोंको उत्तम गीतसे धोकर स्वच्छ करे और अच्छीतरह सुखा शुद्ध सूखे होनेपर सुगंधित धूप आदि दे उन्हींका वर्ताव करे । अर्थात् पहिले बदल दिया करे और दूसरे धुलेहु: ओंको उपयोग किया करे ॥ १२१ ॥
वस्त्रोंमें धूप देनेवाली औषधी । धूपनानिपुनलिसांशयनास्तरणप्रावरणानाञ्चयवसर्षपातसीहि गु-गुग्गुलु-वचाचोरकवय-स्थागोलोमीजटिला-पलङ्कषाशोक--
रोहिणीसपनिमोंकाणितेसपृक्तानिस्युः ॥ १२२ ॥ 'धूपनद्रव्य अर्थात् बालकोंके वस्त्रोंको धुनी देनेके यह द्रव्य हैं । जैसे यब, सरसों, अलसी, हींग, गूगल, वच, गठविन, हरड, बालछड, जटामांसी, लाख, अशोक, कुटकी और सांपकी कांचुली इनसबके बारीक चूर्णको घृतमें मिला वालकके वस्त्र, शय्या आदि सबको धुनी देनीचाहिये ॥ १२२ ॥
कुमारकी अन्यरक्षा विधि।। मणयश्चधारणीयाःकुमारस्यखड्गरुरुगवयवृषभाणांजवितामेवदः । क्षिणेभ्योविषाणेभ्योऽग्राणिगृहीतान्निस्युः। मन्त्रायाश्चौषधयोजीवकर्षभकोचयान्यपिअन्यानिब्राह्मणाःप्रशंसयुः ॥ १२३॥ . . इस बालकको मणि धारण कराना चाहिये । और गैंडा, रु, गज, अथवा रोझ या वृषभ इन जीतेहुओं में से किसीका दहिनी सींगका अग्रभाग या इनसबकेही दहिनी सींगका अग्रभाग और मंत्रादिकोंसे अभिमंत्रित औषधिये, जीवक, ऋष.. भक, अन्य वच, सीप आदि जिन द्रव्योंको ब्राह्मण अच्छा कहतेहों वह सब इस बालकको धारण कराना चाहिये ॥ १२३ ॥
बालकके खिलौने। क्रीडनक्रानिखल्वस्यतुविचित्राणिघोषवन्त्यभिरामाणिअगुरूण्यती. क्ष्णाग्राणिअनास्यप्रवेशीनिअप्राणहराणिअवित्रासिनानिस्युः १२४॥ इस बालकके खेलने के लिये चित्र विचित्र शब्द करनेवाले अर्थात् बजनेवाले
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शारीरस्थान- अ०८.
(८०) सुन्दर खिलौने रखने चाहिये । वह खिलौने हलके, जिनके हाथ पावोंपर गिरजानेसे चोट न लगे तथा आगेसे पैने न हों एवं मुखमें न चुभजांय, ऐसे तीक्ष्ण न हों जो बालकके प्राणोंको लेलें या कष्ट देवें । इसप्रकारके हलके खिलौने होने चाहिये १२४ नहिअस्थावत्रासनंसाधुतस्मात्तस्मिन्नुदत्यभुञ्जानेवाअन्यत्रविधेयतामगच्छतिराक्षसपिशाचपूतनाद्यानांनामान्याह्वयताकुमारस्य वित्रासनाथनामग्रहणंनकायस्यात् ॥ १२१ ॥
वालकको कमी भी डराना नहीं चाहिये । यदि बालक रोता हो और खाता न हो वा अन्य उपद्रव करताहो तौभा उसको भयभीत नहीं करना चाहिये और उसको डराने के लिये किसी राक्षस, पिशाच, पूतना आदिका नामतक नहीं लेना चाहिये । तथा उस वालकको डरानेके लिये वह देख ! भूत आया इत्यादि शब्द कभी भी नहीं कहना चाहिये ॥ १२५॥
कुमारके रोगोंका उपचार । यदितुआतुकिञ्चित्कुमारमागच्छेत्तत्प्रकृतिनिमित्तपूर्वरूपलिङ्गपशयविशेषैस्तत्वतोनबुध्यसवीवशेषानातुरौषधदेशकालाश्रयान.. वेक्षमाणश्चिकित्सितुमारभेतैमधुरमृदुलघुसुराभिशीतसङ्ककर्म प्रवर्तयन्नवसात्म्याहिकुमाराभवन्तितथातशमलभन्तेअचिराय रोगेतुअरोगवृत्तमातिष्ठद्देशकालारमगुणविपर्ययेणवर्तमानः १२६॥
यदि बालक को किसीप्रकारको व्याधि उत्पन्न होजाय तो उस रोगकी प्रकृ. , निमित्त, पूर्वरूप, रूप; उपशयके भेदसे रोगके तत्त्वको निश्चय करके फिर रोगी
औषधी, देश, काल और याश्रय इनको विशेषरूपसे विचारकर मधुर, नरम, लघु, सुगंधित,तया शीतल द्रव्ययुक्त कर विधिपूर्वक चिकित्सा करे । इसप्रकारको धिकित्सा करना वालकोंको सात्म्य होतीहै । और इमकारकी चिकित्सासे बालकको शीन आराम होजाताहै । जब बालकको व्याधि हो तो देश, काल और शारीरिक स्वभाव देखकर उनसे विपरीत गुण करनेवाली जैसे शीतकाल में उष्ण, उष्णमें शीवलक्रिया व्याधिको शीघ्र नाश करनेके लिये युक्तिपूर्वक करना चाहिये ।। १२६॥.. क्रमेणासात्म्यानिपरिवत्योपयुञ्जानःसर्वाणिहितानिजयेत्तथा. , बलवर्णशरीरायुषांसम्पदमवाप्नोतीति ॥ १२७॥. असात्म्यद्रव्य तथा अहितका सबपदार्थाका बालकसे क्रमपूर्वक त्याग करादेना चाहियोऐसा करनेसे बालकके बल, वर्ण,शरीर और आयुकी वृद्धि होती है।। १२७॥
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(८०८) घरकसंहिता-मा० टी० ।
एवमेनकुमारमायोवनप्राप्तधर्मार्थकुशलागमनाच्चानुपालयेदिति पुत्राशिषांसमृद्धिकरंकर्मव्याख्यातमातदाचरन्यथोक्तैर्विधिमिः पूजायथेष्टलभतेऽनसूयकइति ॥ १२८ ॥ जबतक यह बालक युग न हो जाय तबतक इस वालकको धर्म और अर्थकी योग्यता प्राप्त करने के लिये इस विधिसे पालन करना चाहिये।वालकके हित और शुभकी इच्छाके लिये तथा समृद्धिके करनेवाले यह कर्म कहेगयेहैं । जो मनुष्य निन्दा द्वेष मादिको त्यागकर इस कथन कीहुई विधिका पालन करतेहैं वह अपनी इच्छानुरूप प्रतिष्ठाको प्राप्त होतेहैं ॥ १२८॥
अध्यायका उपसंहार। युत्राशिषांकर्मसमृद्धिकारकंबटुक्तमतन्महदर्थसंहितम्।तदाचरज्ञाविधिभिर्यथातथंपूजांयथेष्टंलभतेऽनसूयकः ॥१२१॥ शरीर चिन्त्यतेसर्वदेवमानुषसम्पदासर्वभावैर्यतस्तस्माच्छारीरंस्थानमुच्यते ॥ १३०॥ इति श्रीमहर्षिचरकप्रगीतायुर्वेदसंहितायां शारीरस्थानं समाप्तम्।।
व अध्यायके उपसंहारमें दो श्लोक हैं कि पुत्रके हितके लिये और पुत्रकी समृद्धि के करनेवाला जो यह महान् अर्थका संग्रह कथन कियाहै इस विधिको इंगों, द्वेष तथा निन्दागहत ज्ञानी वैद्यके करनेसे अपनी इच्छानुरूप प्रतिष्ठाको भात होताहै । शरीरको लक्ष्य रखकर देवी और मानुषी संपत्तिका संपूर्णमावोंसे इस स्थानमही सबप्रकारसे चिन्तन कियागयाहै इसलिये इस स्थानको शारीरस्थान पहवेह ॥ १२९ ॥ १३० ॥ इति श्रीमहर्षिचरकप्रणीतायुर्वेदीयसहितायां शारीरस्थाने टकसालनिवासिरामप्रसाद.. बंद्योपाध्यायविरचितभापाटीकायां जातिसूत्रीयशारीरं नामाऽटमोऽध्यायः ॥ ८॥
शारीरिक निर्देशसों, मनुज सृष्टि विज्ञान ॥ संख्या नाडी मर्मयुत, यथा शरीर विधान ॥१॥
आत्मजगत् अध्यात्म यह, द्विविध विश्व सामान ॥
साधन मोक्ष शरीर सब, कथन कियो भगवान् ॥ २॥ . .. चरकरचित शुभतंत्र में, भयो चतुर्थस्थान ॥ ... ,
सो प्रसादनीयुत कियो, रामप्रसाद सुजान ॥ ३॥ . . ॥ समाप्तमिदं शारीरस्थानम् ।।
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इन्द्रियस्थानम्।
प्रथमोऽध्यायः। अथातोवर्णस्वरीयमिद्रियंव्याख्यास्याम इतिहस्माहभगवानात्रेयः। • अव हम वर्णस्वरीय इन्द्रियकी व्याख्या करते हैं इसप्रकार भगवान् आत्रेयजी कथन करनेलगे। शारीरस्थानमें चिकित्साका अधिकरण शारीर कथन कर अब चिकित्सास्थानसे पहिले रोगीकी साध्यासाध्य अवस्थाका वर्णन करतेहैं । क्योंकि असाध्यरागकी चिकित्सा करनेसे यशादिकी हानि होकर क्रिया निष्फल होती है इसलिये पहले साध्यासाध्य विज्ञानके लिये इन्द्रियस्थानका वर्णन करतेहैं।
__आयुके प्रमाण जाननेकी रीति । इहखलुवर्णश्चस्वरश्चगन्धश्चरसश्चस्पर्शश्चचक्षुश्चोत्रञ्चघाणञ्चर
१ इन्द्रियस्थानप्रतिपाद्यं कृत्स्नं विषयमाह इह इन्द्रियस्थाने, 'खलु' शब्दो वाक्यालंकारे, इह पद्यपीन्द्रियाण्येव विषयवर्णादिग्राहकतया अग्रे वक्तुं युज्यते, तथापि तेषामतीन्द्रियत्वेन न तदाश्रय
रष्टानां व्यक्तत्वम्, तेन प्रव्यकानि वर्णादीन्येवेति प्रत्यकरिष्टाधिकरणान्यग्रेऽभिधीयन्ते, वर्णा'दिष्वपि च यथाः व्यक्तत्वम् तथा पूर्वनिपातः, मेघादिशब्दस्तु यद्यपि वर्णादपि व्यकस्तथापि
शन्दीवशेष एवह चात्मादिसमायः 'स्वरशब्दाभिषेयो रिष्टाधिकरणत्वेनाभिमतः, स..च वर्णापेक्षयाऽव्यक्त एव, इत्यादावसमासेन प्रत्येकमा वर्णादीनां रिष्टाधिकरणलं दर्शयति, समासे हि समुदायस्य रिष्टाधिकरणकतया परीक्षितव्यत्वं शङ्केत, वर्णशब्देन च वर्णसहचारताश्चक्षुर्लाह्या शैक्षादयोपि गृह्यन्ते,अतएव वर्णप्रस्ताव एव वक्ष्यति-यत्-'वर्णग्रहणेन ग्लानिहर्षरोक्षस्नेहा व्याख्याता' हात,स्वरादिग्रहणेनच स्वराद्यमावोऽपि गृह्यते,तेन अंगुलिगर्वशब्दाभावगन्धाभावादयो रिष्टान्यवरुध्यन्ते, स्पर्शग्रहणेन च स्पर्शोपलभ्यकाठिन्याचबरोधः, सत्वं मनः,सत्त्वविकृतेरुदाहरणम्-यथा,"औत्सुक्यं भजते सत्त्वं चेतोभिराविशत्यपि" इत्यादि, मतिरिच्छा, शोलं सहजवृतम्, आंचार: शास्त्रशिक्षाकृतो व्यवहारः, भक्त्यादयो यद्यपि सत्वविकारत्वेन सत्वग्रहणेनैव लम्पन्ने, यदुक्तम्."भाक्तः शीलं शौचं द्वेषः स्मृतिर्मोहस्त्यागो मात्सर्य भयं क्रोधस्तन्द्रोत्साहस्तक्ष्ण्यं मार्दवं
गाम्भीर्यमनवास्थितत्वामित्येवमादयः सत्त्वावकाराः" इति तथापि भक्त्यादीनामपि पृथगरि.याधिकरणत्वेन इह पृथक्करणम्,निद्रादौर्बल्याचन्द्रेति "तन्द्राशब्देन निद्रोच्यते,अत्र च रिष्टमुक्तम्,
यथा-"निद्रा नित्या भवति न वा इति,आरम्भ इतिाआरष्टव्याध्युत्पादारम्भः,यदुक्तम् - "श्वयथुर्यस्य ... • कुक्षिस्थो हस्तपादं तु धावति' इत्यादि, गौरवे रिष्टं यथा-"निष्ठयूतञ्च पुरीषञ्च रेतश्चाम्भास . मजाति' इत्यादि, लाघवे रेष्टं-गुरूणामंगानां लाघवं शेयम्, गुणारिष्टम् . यथा-"गुणाः . शरीरदेशानां शीतोष्णमृदुदारुणाः। विपासन लक्ष्यन्ते स्थानेष्वन्येषु तद्विघा इति, आहारारिष्टं यथा-"आहारमुपयुञ्जानो मिषना सूपकाल्पितम्" इत्यादि, आहारपरिणामारिष्टं यथा-"दुर्बको वहु भउके प्रागमु क्त्वान्नमातुरः। अल्पमूत्रपुरीषश्च"इति, उपाय उपगमनं व्याधिमेलक इत्यर्थः- .
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(८१०)
चरकसंहिता-मा० टी०। सनञ्चस्पर्शनश्चसत्त्वञ्चभक्तिश्चशौचञ्चशीलञ्चाचारश्चस्मृतिश्चाकृतिश्चबलञ्चग्लानिश्चतन्द्राचारम्भश्वगौरवञ्चलाघवञ्चआहारश्च विहारश्चाहारपरिणामश्चोपायश्चापायश्चव्याधिश्चव्याधिपूर्वरूपञ्चवेदनाश्चोपद्रवाश्चछायाचप्रतिच्छायाचस्वप्नदर्शनञ्चदूताधिकारश्चपथिचौत्पातिकश्चातुरकुलभावावस्थान्तराणिचभेषजसंवृत्तिश्चभेषजविकारयुक्तिश्चेतिपरीक्ष्याणिप्रत्यक्षानुमानोपदेशैरायुषःप्रमाणविशेषंजिज्ञासमानेनभिषजा ॥ १॥
वैद्यको रोगीके वर्ण, स्वर, गंध, स्पर्श, नेत्र, कान, नासिका,जि ,त्वचा,सत्त्व, इच्छा शौच, शील, आचार, स्मृति, आकृति, वल, ग्लानि, तंद्रा, कर्म,शरीरकी गौरवता और लाघवता, आहार, विहार, आहारका परिणाम, रोगकी शान्तिका उपाय, अपाय, व्याधि, व्याधिके पूर्वरूप, वेदना, उपद्रव,छाया, प्रतिच्छाया,स्वप्न देखना, दूतकी योग्यता, रोगीको देखनेके लिये जातेहुए रास्ते औत्पादिक भाव,. रोगीके घरवालोंकी अवस्था विशेष, तथा अन्य अवस्था, औषधीके गुण विशेष, औषधीक दोष, रोगमें किसप्रकारसे किस औषधका प्रयोग करना इन सबको -यदुक्तम्-"सहसा ज्वरसन्तापस्तृष्णा मूर्छा बलक्षयः । विश्लेषणं च सन्धीनाम्" इति, व्याध्यपगमनमपायः यदुक्तम्-"यं नरं सहसा रोगो दुर्बल परिमुञ्चति' इत्यादि, व्याधिश्चेति व्याधिरेव. रिष्टं यथा “वाताष्ठीला सुसंवृत्ता दारुणा हदि तिष्ठति" इति, छाया भौतिकी पञ्चरूपा, प्रतिच्छाया तु देहच्छायावत् नेत्रकुमारिकापि प्रतिच्छायारूपापि गृह तव्या, अयं च छायादिभेद: पत्ररूपीयेन्द्रिये दर्शयितव्यः आतुरकुश्व भावावस्थारिष्टं यथा-"अमिपूर्णानि पात्राणि भिन्नानि विशिखानि च । भिषङ्मुमूर्षतां वेश्म प्रविशन्नेव पश्यति" इत्यादि, भेषजसंवृत्तो रिष्टं यथा
यमुदिश्यातुरं वैद्यः सम्वर्तयितुमौषधम् । यतमानो न शक्नोति दुर्लभ तस्य जीवितम्" भेषजस्य विकारण समं या युक्तिः तन्त्र रिष्टं यथा-"विज्ञातं बहुशः सिद्धं विधिवच्चावचारितम्। न सिध्यत्यौषधं यस्य तस्य नास्ति चिकित्सितमः शेषे बहुरिष्टोदाहरणमुक्तम्, इति समाप्ती,प्रत्यक्षपूर्वकत्वात् सर्वप्रमाणानामिहादौ प्रत्यक्षं कृतम् । यद्यपि वर्णादयः भायुलक्षणप्रतिपादिता दीघायुःप्रमाणजिज्ञासायामेव परीक्ष्यन्ते, तथापीह प्रकरणे आयुःप्रमाणा विशेषज्ञानार्थमेव पक्षिणीयाः, अत उक्तम्"प्रमाणविशेष जिज्ञासमानेन' इति । पुरुषमनाश्रयाणि दूताद्याश्रयाणि रिष्टानि । युक्तितश्चत्यनुमानत' इत्यर्थः, अत्र युक्तरपि रिष्टत्वावधारणे क्षमत्वात्, प्रत्यक्षं हि दूतादीनां स्वरूपमात्रं गृहूणाति, रिष्टन्तु दूतादीनामागमादेव ज्ञायत; पुरुषाश्रयिवर्णादिगतरिष्टग्रहणे तु प्रत्यक्षमपि तत्तदरिष्टविशेषग्रहणे तद्विशेषेण व्याप्रियत इति मत्वा तत् प्रतिषिद्धम्, अनुमानन्तु रिष्त्वेन प्रतिपादितमानिमित्तत्वादिति घमीवचारे व्याप्रियते, एवं सर्वत्र, प्रकृतिश्चोते विकृतिज्ञा हेतुतया प्रकृती रिष्टज्ञाने व्याप्रियते, पत्प्रकृतिर्शनाधीन विकृतिज्ञानं भवति, परीक्षा त्वत्राधिकृता प्रसिद्धः प्रत्यक्षादिमिरेव ज्ञेया।
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इन्द्रियस्थान - अ० १.
(८११/
रोग जीवन, मरण तथा आयु विशेष के प्रमाण जानने की इच्छा करनेवाले वैद्यकों योग्य है कि, प्रत्यक्ष, अनुनान और आप्तोपदेशके द्वारा परीक्षा करे ॥ १ ॥ परीक्ष्यवस्तुओंके भेद |
तत्रतुखलु एषांपरीक्ष्याणां कानिचित्पुरुषमनाश्रितानि कानिचिचपु :रुषसंश्रयाणि । तत्रयानिपुरुषमनाश्रितानितानि उपदेशतोयु कित परीक्षेत | पुरुषसंश्रयाणिपुनःप्रकृतितश्चविकृतितश्च ॥ २ ॥ इन सब प्रकार की परीक्षाओंमें बहुतसी परीक्षा तो पुरुषके आश्रय होती हैं और बहुतसी ऐसी हैं जो पुरुषाश्रित नहीं हैं । उनमें जो पुरुषाश्रित नहीं हैं उनकी उपदेश और युक्ति अर्थात् अनुमान और आप्तोपदेशके द्वारा परीक्षा करनी चाहिये । एवम् जो पुरुषाश्रित हैं उनकी प्रकृति और विकृतिद्वारा परीक्षा करनी चाहिये ॥ २ ॥
I
प्रकृतिवर्णन |
तत्र प्रकृतिजीतिप्रसक्ता कुलप्रसक्ताच देशानुपातिनीच कालानुपातिनीचवयोऽनुपातिनीचं प्रत्यात्मनियताचेति । एतावज्जातिकुल: : देशकालवयः प्रत्यात्मनियताहितेषां तेषां पुरुषाणांते ते भावविशेषा भवन्ति ॥ ३ ॥
प्रकृति (स्वभाव) की परीक्षा इतने प्रकारकी होती है । जैसे- जातिगत प्रकृति, कुलगत प्रकृति, देशके अनुरूप प्रकृति, तथा समयानुरूप प्रकृति और प्रतिपुरुषमें उसकी आत्मनियत प्रकृति इसप्रकार पुरुषकी जाति, कुल, देश, काल, अवस्था और शररिभेदसे प्रकृति अर्थात् स्वभाव प्रत्येक पुरुषका उसके अनुरूप होता है सौं इन भेदोंसे और पुरुष भेदसे मनुष्यों में भाव विशेष होते हैं । इन सब भावका अपने अपने ठीक स्वभावमें रहना प्रकृति कहाजाताहै ॥ ३ ॥
विकृतिका वर्णन ।
विकृतिः पुनर्लक्षणनिमित्ताचलक्ष्यानिमित्ताचनिमित्तानुरूपाच । तत्रलक्षणनिमित्तानामसायस्याः शरीरेलक्षणान्येव हेतुभूतानि भव-न्ति । लक्षणानिहिकानिचिच्छरीरोपनिबद्धानि भवन्तिायानिहित स्मिंस्तस्मिंस्तत्राधिष्ठान मासाद्यतां तांविकृतिमुत्पादयन्ति ॥ ४ ॥
आर विकृति तीन प्रकार की होती है । जैसे-लक्षणनिमित्ता विकृति, लक्ष्यनि मत्ता विकृति और निमित्तानुरूपा विकृति । शरीरकी आरोग्यता के हेतुभूत जो
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६ ८१२) चरकसंहिता-भा० टी०। लक्षण होतेहैं उनके विकृत होजानेसे वह विकृतिके निमित्त मानेजातेहैं उनको लक्षणनिमित्ता विकृति कहतेहैं क्योंकि कोई २ लक्षणही इसप्रकार शरीरसे बेघहुए हैं समय समयपर प्रगट होकर जिस २ समयमें जिस २ प्रकारसे शरीरमें वह लक्षण होतेहैं उस उस प्रकारकी विकृति (विकार ) को उत्पन्न करतेहैं ॥ ४ ॥ लक्ष्यनिमित्तालुलायस्याउपलभ्यतेनिमित्तंयथोक्तंनिदानेषु ॥५॥
रोगका निदान कथन करनेके समय लक्ष्यनिमित्ता विकृतिका कथन करचुके अर्थात् रोगोंके निमित्तरूप वातादिकोंकी विकृतिको लक्ष्यनिमित्ता विकृति कहतेहैं ॥५॥
निमित्तानुरूपाके लक्षण । निमित्तानुरूपातुनिमित्तार्थानुकारिणीयातामनिमित्तांनिमित्तमायुपाप्रमाणज्ञानस्येच्छन्तिभिषजोभूयश्चायुषःक्षयनिमित्तांप्रेतलिङ्गानुरूपायालायुषोऽन्तर्गतस्यज्ञानार्थमुपदिशन्तिधीराः ॥६॥
निमित्तकी अर्थानुरूपा विकृतिको निमित्तानुरूपा विकृति कहतेहैं अर्थात् विनाही कारणके स्वभावादिकोंमें विकृति होजाना निमित्तानुरूपा विकृति कही. जातीहै । इसी विकृतिको वैद्यलोग अनिमित्त होनेसे आयुकी परीक्षाका निमित्त मानते हैं । बुद्धिमान् इसी विकृतिको आयुके क्षयका निमित्त और प्रेतत्वका चिह्न, मानतेहै । तथा गतायु मनुष्यको आयुनाशके ज्ञानके लिये इसी विकृतिको क्रथन करतेहैं ॥ ६॥
यामधिकृत्यपुरुषसंश्रयाणिमुमूर्षतांलक्षणानिउपदेक्ष्यामः। - इत्युदेशः । तद्विस्तरेणानुव्याख्यास्यामः ॥ ७ ॥
इस विकृतिके आश्रयसेही मरनेवाले पुरुषके लक्षणोंका उपदेश करेंगे । यह उद्देश है । पुरुषके जिन लक्षणोंको देखकर उसके मरनका ज्ञान होसकता है उन्हीं विकृति आदिकोंको विशेषरूपसे वर्णन करते हैं ॥ ७ ॥
प्रकृतिवर्ण । "- तत्रादितएववर्णाधिकारस्तद्यथाकृष्णःकृष्णश्यामःश्यामावदातोवदातश्चइतिप्रकृतिवर्णाःशरीरस्यं ॥
..., : उनमें पहिले वर्णकी प्रकृति और विकृतिका वर्णन करते हैं । जैसे-कृष्णवर्ण,- . कृष्ण श्यामवर्ण, श्याम गौरवर्ण और गौरवर्ण यह शरीरके प्रकृतिवर्ण अर्थात् स्वाभाविक वर्ण होतेहैं ॥ ८ ॥
ton"
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इन्द्रियस्थान-अ० १. यांश्चापरानुपेक्षमाणोविद्यादनूकतोऽन्यथावापिनिर्दिश्यमानां.
स्तज्ज्ञः ॥९॥ . इनके सिवाय और भी जो शरीरके वर्ण (रंग) होतेहैं वह सब इन ऊपर कहै. हुए. वों की न्यूनाधिक्यतासे और वर्णविशेषको जानलेना चाहिये । वर्णके जाननेवाले बुद्धिमान इसप्रकार उपदेश करतेहैं और यह शरीरके स्वाभाविक वर्ण हैं ॥ ९ ॥
वैकारिकवर्ण। नीलश्यामताम्रहरितशुक्लाश्चवर्णाःशरीरस्यवैकारिकाभवन्तिा यांश्चापरानुपेक्षमाणोविद्यात्प्रास्विकृतानभूत्वोत्पन्नानितिप्रकतिविकृतिवर्णाभवन्त्युक्ताःशरीरस्य ॥ १० ॥ | नील, श्याम,ताम्र,हरित और सफेद, यह शरीरके विकृति वर्ण हैं ।इनके सिवाय
और भी जैसे कि नो वर्ण पहिले देखा न हो अथवा पहिलेसे दूसरे प्रकारका होजाय 'रटरको भी विकृतवर्ण कहतेहैं बुद्धिमानोंको पहिले शरीरको प्रकृतिवर्ण और विकृत वर्णकी परीक्षा करनी चाहिये । इसमकार शरीरके वर्णकी प्रकृति और विकृति वर्णन कीगईहै। १०॥
वर्णजन्यरष्टलक्षण । तत्रप्रकृतिवर्णोऽर्द्धशरीरेविकृतिवर्णोऽशरीरेद्वावपिवौँमा- . दाविभक्तौदृष्टायद्येवंसव्यदक्षिणविभागेनयद्येवंपूर्वपश्चिमविभागेन यद्यत्तराधरविभागेनयन्तहिविभागेनआतुरस्यारिपरिमतिविद्यात् ॥ ११ ॥ यदि प्रकृतिवर्णवाले मनुष्यके शरीरमें वामभाग अथवा दक्षिण भाग या आगे पीछे दोनों ओर या केवल पीछे तथा केवल आगे या किसी अंगमें स्वाभाविक
और किसी अंगमें वैकारिक वर्ण दिखाई देवे तो उस रोगीको अरिष्ट लक्षण जानना ॥ ११॥
एवमेववर्णभेदोमुखेऽप्यन्यतोवर्तमानोमरणायभवति ॥ १२ ॥ यदि रोगीके मुखका वर्ण पाहिलेसे बिलकुल बदलजाय अथवा और प्रकार स्वार भाविक वर्ण एकदम पलटजाय तो यह मृत्युका चिह्न जानना ॥ १२ ॥ .
वर्णभेदेनग्लानिहर्षरोक्ष्यस्नेहाव्याख्याताः ॥ १३ ॥ वर्णभेदसे. ग्लान, हर्ष, रूक्षता और स्नेह इनसबका निर्देश कियागयाहै॥१३॥
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( ८१४) . चरकसंहिता-भा० टी० ।
तथापिप्लवव्यंगतिलकालकपिडकानासन्यतस्याननेजन्मा'तुरस्यैवमेवअप्रशस्तविद्यात् ॥१४॥ • तथा प्लव ( लहसन ) व्यंग, तिल, कालक, पिडका इनका बेसमय एकाएक -रोगीके मुखपर प्रगट होजाना रोगीके लिये अशुभ कहाजाताहै ॥ १४॥
नखनयनवदनमत्रपुरीषहस्तपादौष्ठादिष्वपिचकारिकोक्तानां वर्णानामन्यतमस्यप्रादुर्भावोहीनबलवणेन्द्रियेषुलक्षणमायुषः क्षयस्यभवति । यच्चान्यदपिकिञ्चिद्वर्णवैकतमभूतपूर्वसहसोत्पद्येतानिमित्तमेवहीयमानस्यातुरस्यतचारिष्टमितिवर्णाधिकारः ॥१५॥ रागांके नख, नेत्र,सुख,मूत्र,मल और हाथ पैरोंके वर्ण एकाएक विकृत होजाये' तथा स्वाभाविक नष्ट होकर और प्रकारके वैकारिक वर्ण उत्पन्न होजाय अथवा तल. वर्ण और इन्द्रियोंमें एकाएक हीनता उत्पन्न होजाय तो यह रोगी आयुनाशक चिह्न जानने चाहिये इनके सिवाय भी और जो कभी पाहिले न देखो उस प्रकारके वर्णविकारका एकाएक उत्पन्न होजाना भी रोगीकी मृत्युका चिा होता है।इसप्रकार अरिष्टकारक वर्णाधिकारका वर्णन कियागया ॥ १५ ॥
स्वराधिकारः। स्वराधिकारस्तुहंसक्रौञ्चनेमिदुन्दुभिकलविंककाककनोतझर्झरानुकराःप्रकृतिस्वराः। यांश्चापरानुपेक्षमाणोऽपिविद्यादनकतोन्यथावापिनिर्दिश्यमानांस्तज्ज्ञैः ॥ १६ ॥ अब स्वराधिकार वर्णन करतेहैं । हंस,बगुला, चकवा, नगारा, चिडा, कौआ, कबूतर और झींगुर इनके समान स्वर होनेसे प्रकृतिस्वर अर्थात् स्वाभाविक स्वर है इनके सिवाय जिनका कथन यहांपर नहीं कियाः गयाहै उनको भी जिसमकार स्वरके जाननेवालोंने कथन कियाहो उस प्रकारसे जानलना चाहिये । यह स्वाभाविक स्वर वर्णन कियागया ॥ १६ ॥
वैकृतिकस्वरका लक्षण। । एडकयस्ताव्यक्तगद्गदक्षामदीनानुकीर्णास्तुआतुराणांस्वरावैकारिकाः। यांश्चापरानुपेक्षमाणोऽपिविद्यात्माग्विकतानसूत्वोत्पन्नानइतिप्रकतिविकृतिस्वराव्याख्याताः ॥१७॥
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इन्द्रियस्थान-अ० १.
(८१६. यदि रोगियोंका स्वर मेढेके समान अथवा जो समझा न जाय इसप्रकारका या गद्गद स्वर अथवा शान्त और हीनशब्द या फटाहुआ हो तो चैकारिकस्वर जानना। इसके सिवाय जो पहिले श्रवण न कियाहो इसप्रकारका अभूतपूर्व स्वर भी बैका. ईरेक होताहै। यह स्वरोंकी प्रकृति और विकृतिका वर्णन कियागया ॥ १७ ॥
__ आसन्नमृत्युरोगीका लक्षण । तत्रप्रतिवैकारिकाणांस्वराणामाश्वभिनिर्वृत्तिःस्वरानेकत्वमेकस्यचानेकत्वमप्रशस्तमितिस्वराधिकारः । इतिवर्णस्वराधिकारी यथावदुक्तौमुमूर्षतांज्ञानार्थमिति ॥ १८॥ रोगियोंके स्वरका एकाएकी वदलजाना और अनेक प्रकारका स्वर होना तथा अनेक प्रकारसे फटाहुआसा होजाना यह रोगियोंके अरिष्टका चिह्न है। इस प्रकार अरनवाले रोगियोंके स्वर और वर्णका उनके मृत्युज्ञानके लिये वर्णन किया गया ॥१८॥
तत्रश्लोकाः। यस्यवैकारिकोवर्णःशरीरउपजायते ।
अर्द्धवायदिवाकत्लेऽनिमित्तनचनास्तिसः ॥ १९ ॥ यहांपर श्लोक हैं-जिस मनुष्यके शरीरमें आधे संपूर्णमें वा एकाएकी वैचारिक वर्ण प्रगट होजाय वह मनुष्य अवश्य मृत्युको प्राप्त होताहै ॥ १९ ॥
नीलंबायदिवाश्यावंतानवायदिवारुणम्। .
मुखार्द्धमन्यथावर्णोमुखाईरिष्टमुच्यते ॥२०॥ . 'यदि रोगीके आधेमुखका वर्ण नीला,श्याम,ताम्रवर्ण या लालवर्ण होजाय और आधा अन्य वर्णका हो तो यह अरिष्टकारक लक्षण होतेहैं ॥ २०॥
स्नेहोमुखासुिव्यकोरौक्ष्यमर्द्धमुखंभृशम् ।
ग्लानिरःतथाहयोंमुखाबेंप्रेतलक्षणम् ॥ २१ ॥ आधा मुख चिकना हो अर्थात् तेलसे भिगाहुआसा प्रतीत होताहो तथा आधा मुख विलकुल रूक्ष हो तथा आधे चेहरेमें ग्लानि और आधेमें हर्ष प्रतीत होता हो वो • यह रोगीकी मृत्यु होने के लक्षण हैं ॥ २१॥
तिलकापिप्लवोव्यङ्गाराजयश्चपृथग्विधाः।
आतुरस्याशुजायन्तेमुखेप्राणान्मुमुक्षतः ॥२२॥ जिस रोगीके मुखपर एकाएकी तिल पिप्लव (लहसुन), व्यंग, (झाई.)तथा
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८१६) . चरकसंहिता-मा० टी०। अनेक प्रकारकी रेखा आदि विचित्ररूपसे प्रगट होजायँ तो उसके · मरणख्यापक लक्षण जानना ॥ २२॥
पुष्पाणिनखदन्तेषुपङ्कोवादन्तसंस्थितः।
चर्णकोवापिदन्तेषुलक्षणंमरणस्यतत् ॥ २३॥ जिस रोगीके नख और दांतोंपर रंगविरंगे फूलसे पडजाय अथवा दांतोपर बहुतगाढी मैल जमजाय एवं दांतोंमें चूर्णसा लगा हुआ प्रतीत हो तो उस रोगीके मर णके लक्षण जानना ॥ २३ ॥
ओष्ठयोः पादयोः पाण्योरक्ष्णोर्मूत्रपुरीषयोः।
नखेष्वपिचवैवर्ण्यमेतत्क्षीणवलेऽन्तकृत् ॥ २४ ॥ जिस रोगीके दोनों, होठ दोनों पा , हाथ, नेत्र, मूत्र, पुरीष और नख इन , सबमें एकाएकी विवर्णता उत्पन्न होजाय और वह रोगी क्षीणवल हो तो उसकी'; मृत्युके लक्षण जानना ॥ २४॥
यस्यनीलावुभावोष्ठौपक्जाम्बवसान्निभो।।
मुमधुरितितंविद्यान्नरोधीरोगतायुषम् ॥ २५॥ जिस रोगीके दोनों होठ नीले या पकीहुई जामुनके समान होजायँ तो उस रोगीको बुद्धिमान मनुष्य गतायु जाने ॥ २५॥
एकोवायदिवानेकोयस्यवैकारिकःस्वरः।
सहसोत्पद्यतेजन्तोहीयमानस्यनास्तिसः ॥ २६ ॥ जिस रोगीका एकाएकी स्वर बदल जाय अथवा अनेक प्रकारका वैकारिक होजाय उस नष्ट आयु रोगीको नहीं है ऐसा जानना ॥ २६ ॥
यच्चान्यदपिकिञ्चित्स्याद्वैरुतस्वरवर्णयोः ।
बलमांसविहीनस्यतत्सर्वमरणोदयम् ॥ २७ ॥ बल और मांसहीन रोगीके स्वर और वर्णमें अन्य किसीप्रकारकी विकृति होना भी उसके मरणका चित्र जानना ॥ २७ ॥
इतिवर्णस्वरावुक्तौलक्षणाथमुमूर्षताम् ।
यस्तुसम्यग्विजानातिनायुनेसमुह्यति ॥ २८ ॥ इति चरकसंहितायामिन्द्रियस्थाने वर्णस्वरीयमिंद्रियम् ॥ १॥
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इन्द्रियस्थान - अ० २.
( ८१७ )
इसप्रकार मरणाभिमुख मनुष्योंके लक्षणोंको जाननेके लिये वर्ण और स्वरका 'कथन कियाहै । जो वैद्य इनके ज्ञान कोभलेमकार जानता है वह आयुके जाननेमें मोहको प्राप्त नहीं होता ॥ २८ ॥
इति श्रीमहर्षि चरकप्रणीतानुर्वेदसंहितायामिन्द्रियस्थाने टकसाळनिवासिपं० रामप्रसादवेद्यो - पाण्यायविरचितप्रसादन्याख्यभाषाटीकायां वर्णस्वरीयमिन्द्रियं नाम प्रथमोऽध्यायः ॥ १ ॥
द्वितीयोऽध्यायः ।
अथातो पुष्पितमिन्द्रियं व्याख्यास्याम इति इस्माह भगवा
नात्रेयः ॥
अब हम पुष्पित इन्द्रियकी व्याख्या करतेहैं इसप्रकार भगवान् यात्रेयजी कथन करनेलगे ॥
पुष्पंयथा पूर्वरूपं फलस्येहभविष्यतः ।
तथालिङ्ग मारिष्टाख्यंपूर्वरूपमरिष्यतः ॥ १ ॥
जैसे - जगत् में होनेवाले फलका पूर्वरूप फूल देखा जाता है वैसेही मरनेहारे मनुव्यका पूर्वरूप अरिष्टनामक लक्षण भी है ॥ १॥
अप्येवन्तु भवेत्पुष्पं फलेनाननुबन्धियत् । फलञ्चापिभवेत्किञ्चिय
१ ननु पुष्पफलव्यभिचारमपि शिष्यो गृहणीयादिति तन्निरासार्थमाद - फळेनाननुबन्धीति, गया वेतसपुष्पम्, यस्य पुष्पं न पूर्व्वजमपि शाखादेव फलम् ; जातस्योत सम्पूर्णस्यः किञ्चिदुदितेरिटेसम्पूर्णे नावश्यं मृत्युः, अन्ये तु जातस्य नियतस्येति वर्णयन्ति । द्विविधं हि रिष्टं नियतञ्चानियतं च; तत्र नियतम्, "मृतमेव तमात्रेयो व्याचक्षेच पुनर्वसुः" इत्यादि । अनियतं यथा - "संशय प्राप्तं मात्रेयो मन्यते तस्य जीवितम् । अरोगः संशयं मत्वा कश्चिदेव प्रमुच्यते" इति । तथा नियतारिष्टाभिप्रायेणैव सुश्रुतेप्युक्तम्- "ध्रुवं त्वरिष्ठे मरणं ब्राह्मणैस्तत् किलामलैः । रसायनतपोजप्यतत्परैर्वा निवार्य्यते” एदच्चान्येन मन्यन्ते, भाचाय्र्येण रिष्टमरणयोरव्याभिचारस्य महता प्रयत्नेन दर्शितत्वात् । "संशयप्राप्तम्” इति चचनं मरणप्रतिपादकमेवाचार्येण संग्यन्तरेणोक्तम् यथाऽऽचाय्र्यस्यारिष्टार्थस्तथा तद्द्मन्य एव व्याख्यास्यामः । यत्तु रसायनादिसाध्यत्वं रिष्टस्य तदनुमतमेव रसायनमदेश्वरप्रसादादयो हि सर्वलोकमदामपि हन्तुं क्षमाः । तेन तद्व्यभिचारमपेक्ष्य ग्रन्थः क्रियते। महेश्वरो हि भस्मीभूतं कामं पुनर्जीवयति स्म, तपसा च रामेण मूत्रपि विश्वपुत्रः पुनर्जीवित इत्याद्यनुकरणीयम् । अन्ये तु कालमृदयावेव रिष्टपूर्वकं मरणं भवति इति वर्णयन्ति वदन्ति च ' यद्यकालमृत्यो रिष्टं भवति, तदा वर्णाद्ये मृत्यु
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( ८१८ )
चरकसंहिता - मा० टी० ।
स्यपुष्पन पूर्वजम् ॥ २ ॥ नत्वारिष्टस्यजातस्यनाशोऽस्तिमरणादृते । मरणञ्चापितन्नास्तियन्नारिष्टपुरःसरम् ॥ ३ ॥
यद्यपि इसप्रकारके भी बहुतसे फूल होते हैं जिनसे फलकी उत्पत्ति नहीं होती और ऐसे फल भी बहुत से हैं जिनके फूल नहीं होते परन्तु ऐसा कोई अरिष्ट नहीं होता जो मृत्युको उत्पन्न न करताहो और ऐसा मृत्यु भी नहीं होता जिससे पहिले अरिष्ट न होताहो ॥ २ ॥ ॥ ३ ॥
मिथ्यादृष्टमरिष्टाभमनरिष्टमजानता ।
अरिष्टञ्चाप्यसम्बुद्धमेतत्प्रज्ञापराधजम् ॥ ४ ॥
प्रायः बहुत स्थानों में अरिष्टके न जाननेवाले मनुष्य विनाही अरिष्टके लक्षणोंसे अरिष्ट मानलेते हैं। और बहुतसी जगह अरिष्टके लक्षण होतेहुए भी अपनी बुद्धिके दोषसे अरिष्टको नहीं समझते ॥ ४ ॥
ज्ञानसम्बोधनार्थन्तुलिङ्गैर्मरणपूर्वकैः ।
पुष्पितानुपदेक्ष्या मोन रान्बहुविधाञ्छृणु ॥ ५ ॥
ऐसे बुद्धिहीन वैद्योंकी बुद्धिको चैतन्य करनेके लिये मृत्युसे प्रथम होनेवाले अरणरूपापक पुष्पितनामक चिह्नोंको कथन करतेहैं उन अनेक प्रकारके लक्षणोंको श्रवण करो । ( निश्चय नियत मरणके बतलानेवाले लक्षणको अरिष्टं कहते हैं ) ॥५॥ पुष्पितके लक्षण |
नानापुष्पोपमो गन्धोयस्यवातिदिवानिशम् । पुष्पितस्यवनस्येव नानाद्रुमलतायतः ॥६॥ तमाहुः पुष्पितंधीरानरंमरणलक्षणेः । .: सवैसंवत्सरा देहं जहातीतिविनिश्चयः ॥ ७ ॥
जिस शरीरमें अनेक प्रकार के पुष्पित बनके समान अनेक वृक्ष, लताके फूलोंके समान सुगंध दिनरात वराबर आनेलगे उस मनुष्यको बुद्धिमान् मनुष्य मरणके लक्षणोंसे पुष्पित समझे और वह मनुष्य एकवर्ष के अन्दर निश्चयही देहको त्याग कर देता है ॥ ६ ॥ ७ ॥
-पदं रिष्टम् तत् विकल स्यात् येन कालमृत्यु चिज्ञाचरणेरेि परं मृत्युर्भवति, तत्र रिठे जाते यद्युचिता किया क्रियते तदा मृत्युभवितुमहति तेन कालगतमेव रिष्टम्” इति तच्च न, अविशेषेण काला कालमरणेरिष्टपद्भावनियमात् अकालमूत्र च काल नृत्यौ च यदेव क्रिया थमतिकान्तोऽप्रचारजनितो व्याधिर्भवति, तदंत्र रं रिष्टं भवति, अतरवोतन् "क्षगेनैव रिष्टाः प्रादुर्भवन्तिदति यनं न स्त्रीकरोति, तस्य निवाचारजन्यावेता कदापि न स्यात् येन यथापचारजा दोषा अतिशमप्रमादादसाध्यध्याविजनका भवन्ति तथा मरणपूरिननका अपि भवन्ति ।
१ मरणख्यापक चिह्न |
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इन्द्रियस्थान - अ०.२...
एवमेकैकशःपुष्पैर्यस्यगन्धःसमोभवेत्। इष्टैर्वायदिवानिष्ठैःसच पुष्पितउच्यते ॥ ८ ॥ समासेनाशुभान्गन्धानेकत्वेनाथवा पुमान् । आजिघेद्यस्य गात्रेषुतंविद्यात्पुष्पितभिषक् ॥ ९ ॥ आप्लुतानाप्लुतेकायेयस्यगन्धाः शुभाशुभाः । व्यत्यासेनानिमित्ताः स्युःस चपुष्पितउच्यते ॥ १० ॥
जिस मनुष्य के शरीरमें किसी एकएक फूलकी गंध आतीहो वह गंध सुगंधिव अथवा दुर्गंधित हो परन्तु उसको पुष्पित कहते हैं । अथवा जिस मनुष्यकें शरीर में एक अथवा अनेक प्रकारकी अशुभ गंध आतीहो उसको भी - वद्य पुष्पित जाने | अथवा जिस मनुष्यके स्नान न करनेपर अथवा स्नान करने पर भी बिनाही कारण व्यशुभगंध आतीहो उसको भी पुष्पित कहते हैं ॥ ८ ॥ ९ ॥ १० ॥ तद्यथा चन्दनंकुष्ठंतगरागुरुणीमधु । माल्यंमूत्रपुरीषेवामृतानि कुणपानिवा ॥ ११ ॥ येचान्येविविधात्मानो गन्धाविविधयोनयः । तेऽप्यनेनानुमानेनविज्ञेयाविकृतिं गताः ॥ १२ ॥ इदञ्चीप्यतिदेशार्थंलक्षण गन्धसंश्रयम् । वक्ष्यामोयदभिज्ञायभिषड्- ' मरणमादिशेत् ॥ १३ ॥
(ees)
जिसके शरीर में चंदन, कूट, तगर, अगर, शहद, माला, मूत्र, मल और मुर्देकीसी - तथा अनेक प्रकारको अनेक कारणोंवाली गंधे आतीहों वह मनुष्य भी विकृतिको प्राप्तहुआ जानलेना चाहिये । इसप्रकार अनुमान द्वारा गंधज्ञानसे मरणके लक्षण जानने के लिये यह निर्देश किया गया है और भी गंधाश्रित लक्षणोंको कथन करते हैं जिनको जानकर वैद्य मनुष्य के मृत्युका कथन कर सकताहै ॥ ११ ॥ १२ ॥ १३ ॥ गंधका ज्ञान ।
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वियोनिर्विदुरोयस्यगन्धा गात्रेषुदृश्यते ।
इष्टोवायदिवानिष्टोनस जीवतितांसमाम् ॥ १४ ॥
जिस मनुष्यकी देहमें विनाही कारण पशु पक्षियोंकीती सुगंधि अथवा दुर्गंधि आनेलगे वह मनुष्य उसीवर्ष में मृत्युको प्राप्त होजाता है ॥ १४ ॥ एतावद्गन्धविज्ञानं रसज्ञानमतः परम् ।
आतुराणां शरीरेषु वक्ष्यामो विधिपूर्वकम् ॥ १५ ॥
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(८२०)
चरकसंहिता-भा० टी०। इसप्रकार गंधके विज्ञानको वर्णन करचुके अव इससे आगे रसके ज्ञानकों कथन करते हैं, जिसमकार रोगियोंके शरीरमें विधिपूर्वक रस जानना चाहिये ॥ १५ ॥
- रसज्ञान । योरस प्रकृतिस्थानांनराणांदेहसंम्भवः। .
सएषांचरमेकालविकारान्भजतेद्वयम् ॥ १६ ॥ जो रस प्रकृतिस्थ मनुष्योंकी देहमें उत्पन्न होताहे वह मरनेके समय दो प्रकारकी विकृतिको धारण करता है ॥ १६ ॥
कश्चिदेवास्यवैरस्यमत्यर्थमुपपद्यते ।
स्वादुत्वमपरश्चापिविपुलंभजतेरसः ॥ १७ ॥ कोई रस तो अत्यन्तही विरसताको प्राप्त होजाताहै और कोई अत्यन्त भारी स्वादुताको प्राप्त होजाताहै । यदि मरणके समय रसके दो भेद होते हैं ॥ १७ ॥
वमनेनानुमानेन विद्याद्रिकृतिमागतम् ।
मनुष्योहिमनुष्यस्यकथंरसमवाप्नुयात् ॥ १८ ॥ मनुष्य मनुष्य के शरीरके रसको किसप्रकार जान सकताहै सो कहते हैं कि शरीरके विकृतहुए रसको इसप्रकार अनुमानसे जाने कि मनुष्यके मरणासन्न होनेसे जब शरीरका रस विकृत होजाताहै अर्थात् बहुत बदजायका होजाताहै ॥ १८ ॥
विरसताका ज्ञान । मक्षिकाश्चैवयूकाश्चदंशाश्चमशक सह ।
विरसादपसर्पन्तिजन्तोःकायान्मुमूर्षतः ॥ १९ ॥ तो उसके शरीरपर मक्खी, जूऑ, दंश, मच्छर आदि कोई भी स्पर्श नहीं करते अर्थात् अलग होजातेहैं ॥ १९॥
मधुरताका ज्ञान । अत्यर्थरसिकंकायंकालपक्कस्यमक्षिकाः।
आपिस्नातानुलिप्तस्यभृशमायान्तिसर्वशः॥ २०॥ तथा जिसके शरीरमें कालके परिपाकसे अर्थात् मरणासन्न समयमें रस अत्यन्त सुस्वादु होजाताहै तो वह मनुष्य याद स्नान आदि कर और चंदनका लेपन करनेसे
शुद्ध भी हो तो भी उसके शरीरपर चारों ओरसे बहुतही मक्खिये, मच्छर, या . आकर पडते हैं ॥ २० ॥
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इन्द्रियस्थान-अं०३.
तत्रश्लोकः। यान्येतानिमयोक्तानिलिङ्गानिरसगन्धयोः ।
पुष्पितस्यनरस्यैतैःफलंमरणमादिशेत् ॥ २१॥ इति चरकसं०इन्द्रि-पुष्पितमिंद्रियं समाप्तम् ॥ २॥ : यहांपर श्लोक है-कि जो वैद्य इन हमारे कहेहुए रस और गन्धके लक्षणोस पुष्पित ( मरणासन्न ) मनुष्यके लक्षणोंको जानलेता है वह मृत्युके लक्षणोंको कथन कर सकता है ॥ २१॥
इवि श्रीमहर्षिचरक० इंद्रियस्थाने भाषाटीकायां पुष्पितामिन्द्रियनाम द्वितीयोऽयायः॥ २
तृतीयोऽध्यायः।
, अथातःपरिमर्षणीयमिन्द्रियंव्याख्यास्यामइतिहस्माहभगवानात्रेयः। .
अब हम परिमर्षणीय इन्द्रियाध्यायकी व्याख्या करते हैं इसप्रकार भगवान आत्रेयजी कथन करनेलगे।
वर्णेस्वरेचगन्धेचरसेचोक्तंपृथक्पृथक् ।
लिङ्गसमर्षतांसम्यक्स्पशेष्वपिनिबोधत ॥१॥ हे अग्निवेश वर्ण, स्वर और गंध तथा रसविज्ञानसे मरणासन्न मनुष्यों के लक्षण कथन किये गयेहैं। अब स्पर्शसे भी मरनेवाले मनुष्यों के लक्षणोंको श्रवण करो॥१॥ स्पर्शप्राधान्येनआतुरस्यायुषःप्रमाणावशेषांजज्ञासुःप्रकृतिस्थे.. नपाणिनाकेवलमस्यशरीरंस्पृशेत् । परिमर्षयेद्वान्येन ॥ २॥.. रोगीकोःस्पर्शद्वारा उसकी आयुका विशेषरूपसे प्रमाण जाना जासकताहै इसलिये रोगीकी आयु जाननेकी इच्छावाला रोगरहित मनुष्पके हाथसे केवल इसके शरीरका स्पर्श करावे अथवा स्वयं करे ॥ २॥
. स्पर्शक लक्षण.। परिमृषतातुखलुआतुरशरीरमिमेभावास्तत्रावबोद्धव्याः। तद्यथा सततस्पन्दनानांशरीरोद्देशानांस्तम्भः नित्योमणां. शीतीभावः। मृदूनांदारुणत्वम् । श्लक्ष्णानांखरत्वम् । सता. .
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चरकसंहिता भा०टी० ।
मसद्भावःसन्धीनांस्त्रंसभ्रंशच्यवनानि । मांसशोणितयावतीभावः । दारुणत्वंस्वेदानुबन्धः स्तम्भोवायच्चान्यदपिकीचशविकृतमनिमित्तंस्यादितिलक्षणंस्पृश्यानां भावानाम् ॥ ३ ॥
( ८२२ )
स्पर्श करनेवाले मनुष्यको स्पर्शद्वारा रोगीके यह भाव जानने चाहिये । जैसे- जा शरीर के अंग निरंतर फडकनेवाले हों उनका स्थिर होकर स्तंभ होजाना । जो अंग नित्य गरम रहने वाले हैं उनका शीत होजाना। जो नरम हों उनका कठिन होजाना । जो चिकने हों उनका खरदरे होजाना । जिनका जिस स्थानमें होना उचित हो उनका उसस्थानमें न रहना । संधियोंका ढीला पडजाना या विगडजाना तथा नष्ट हो - जाना। मांस और रक्तका देहसे हीन होजाना । शरीरका कठिन होजाना । पसीना अधिक आना अथवा बिल्कुल न आना । शरीरका स्तंभ होजाना । इनके सिवाय विनाही कारण एकाएकी स्पृश्य भावोंके जो लक्षण उत्पन्न हों उनकी भी जानलेना चाहिये । इन स्पर्शजनित लक्षणोंसे रोगीको कालग्रस्त जानना चाहिये. ॥३॥ विस्तारपूर्वक स्पर्शका लक्षण ।
तद्वयासतोऽनुव्याख्यास्यामः तस्य चेत्परिदृश्यमानं पृथक्त्वेन पादजंघोरुस्फिंगुंदरपार्श्वयष्टेषिकापाणिग्रीवातात्वोष्ठललाटं खिन्नंशतिप्रस्तब्धं दारुणं वीतमांसशोणितवास्यात्परासुरयं पुरुषोनचिरात्कालंकरिष्यतीतिविद्यात् ॥ ४ ॥
उन्हीं स्पृश्यभावको विस्तारपूर्वक वर्णन करते हैं। यदि उस रोगीके संपूर्ण दृश्यमान अंगोंको एक एक कर देखाजाय पांव, जंघा, घुटना, पार्श्वभाग, कुले, गुदा, उदर, पीठका बांस, हाथ, गर्दन, तालु, होठ और ललाट यह शीतल, पसीनेयुक्त, स्तब्ध, कठोर, मांस और रक्तरहित होजायँ तो इस गतायु मनुष्यको तत्काल मरजानेवाला जानना चाहिये ॥ ४ ॥
तस्यचेत्परिमृश्यमानानिपृथक्त्वेनगुल्फजानुवंक्षणगुदवृषणमेदूनाभ्यंसस्तनमणिक हनुस्पर्शकानासिका कर्णाक्षिशंखादीनिस्रस्तानिव्यस्तानिच्युतानिस्थानेभ्यः स्युः परासुरयं पुरुषोन चिरात्कालंकरिष्यतीतिविद्यात्
यदि रोगी के यह अंग पृथक २ देखे जायँ जैसे गुल्फ, घुटने, वंक्षण, गुदा, अण्डकोष, लिंग, नामि, कंधे, स्तन, दोनों हाथोंके पहुँचे, ठोढी, पसली, नाक, कान, नेत्र, भौंह
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इन्द्रियस्थान - ० ३.
( ८२३ -१
और कनपटी आदि अंग अलग २ अपने स्थानसे छूटजायँ और हटजायं तो उस मनुष्यको गतायु अर्थात् शीघ्र मरनेवाला जानना चाहिये ॥ ५ ॥
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तथास्योच्छासमन्यादन्तपक्ष्मचक्षुः केशलोमोदरन खांगुलीरालक्षयेत् । तस्य चेदुच्छ्रासोऽतिदीर्घः अतिह्रस्वोवास्यात्परासुरितिविद्यात् । तस्यचेन्मन्ये परिदृश्यमानेनस्पन्देयातां परासुरिति विद्यात् । तस्यचेद्दन्ताःप्रतिकीर्णाः श्वेतजातशर्कराः स्युः परासुरितिविद्यात् । तस्यचेत्पक्ष्माणिजटावद्वानिस्युः परासुरितिविद्यात् । तस्यचेच्चक्षुषी प्रकृतिहीने विकृतियुक्त अव्युत्पिण्डितेअतिप्रविष्टेअतिजिह्मेअतिविषमेअतिप्रस्रुतेअतिविमुक्तवन्धने सततोन्मेषितसततनिमेषितेनिमेषोन्मषातिप्रवृत्तविभ्रान्तहष्टिकेतिपरीतदृष्टि केहीन दृष्टिकेव्य स्तदृष्टि केन कुलान्धेकपोतान्धे अलातवर्णेकृष्णनीलपीतश्यावताग्रहरितद्दारिद्रशक्कवैकारिकाणांवर्णानामन्यतमेनाभितं कृतवास्यातांपरा सुरितिविद्यात् ६ ॥
तथा रोगीके उच्छ्रास, ठोडी, दांत, पलकें, नेत्र, केश, लोम, उदर, नख और अंगुली इनकी भी परीक्षा करनी चाहिये । यदि रोगीका उच्छ्रास अत्यंत लंबा या बहुतही ह्रस्व चलने लगे तो रोगीको प्राणरहित होनेवाला जानना चाहिये । जिस रोगीकी दोनों तरफसे ठोढीकी नाडे फडकनेलगें और ठोडी हिलनेलगे उस रोगीको भी गतायु जानना चाहिये जिस रोगीके दांत अधिक मैले विखरेहुए और सफेद शर्करायुक्त हों उसको भी शीघ्र मृत्युग्रस्त होनेवाला जानना चाहिये। जिस रोगीकीपलकें जटाके समान वधजायँ वह भी गतायु होता है । जिस रोगीके नेत्र अपने स्वभावसे हीन होकर विकृत होजायँ अत्यंत बाहर निकल आयें अथवा अधिक भीतरकों बढजायँ या टेढे होजायँ या एक वडा एक छोटा होजाय अथवा एक बंद होजाय एक खुला रहे एवम् अत्यंत पानी बहना, बहुत ही शिथिल होजाना बिलकुल बंद होजाना या खुलेही रहना या थोडी २ देरमें खुलना या बंद होवें अथवा फटेसे होजायँ या भयानक शतिसे देखे या दृष्टिहीन होजायँ या अपूर्वदृष्टि होजायँ, दिनमें सव वस्तुएं साधारण देखना अथवा सव वस्तुयें काली देखना अंगारके समान काले, नीले, पीले, श्याम, ताम्रवर्ण, हरे, हल्दी के रंगके या सफेद इन सब वणॉर्मेंसे अत्यन्त विकृत होकर किसी वर्णका होना यह सब लक्षण गतायु मनुष्यके हैं ।। ६ ।।
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सकराम खींचने से श और रोमांकासातवियात
१८२१). चरकसंहिता-मा०टी०।
केशवरीक्षा । अथास्यकेशलोमान्यायच्छेततस्यचेत्केशलोमान्यायम्यमानानिप्रलुच्येरनचेद्वेदयेत्परासुरितिविद्यात् ॥७॥ रोगी मनुष्यके केश और रोमोंकी भी परीक्षा करनी चाहिये ।निस रोगीके केश या रोम खींचनेसे उखडजायं और उस रोगीको किवित् पीडा भी प्रवीत न हों उसको गतायु जानना ॥ ७॥
उदरपरीक्षा। तस्यचेदुदरेशिराः प्रदृश्येरन, श्यावताम्रनीलहारिद्रशुक्ला वास्युःपरासुरितिविद्यात् ॥८॥ जिस रोगीके पेटपर काली, लाल, पीत और श्वेत नसें दीखनेलगें उसको भी गतप्राण जानना चाहिये ॥८॥
नखपरीक्षा। तस्यचेन्नखावीतमांसशोणिताःपकजाम्बववर्णाःस्युःपरासुरितिविद्यात् ॥ ९॥ जिस रोगी नख मांसरहित तथा रुधिररहित होनाय और पकेहुये जामुनके समान काले वर्णके होजायें उसको भी गतप्राण जानना चाहिये ॥ ९ ॥
अंगुलीपरीक्षा। अथास्यांगुलीरायच्छेत्तस्यचेदंगुलयआयम्यमानानचेत्स्फुटेयुः परासुरितिविद्यात् ॥ १० ॥ इसके उपरांत इसकी अगुलियोंकी भी परीक्षा करनी चाहिये । यदि रोगीको अंगार्लय खचिनेसे शब्द नहीं करें तो उस रोगीको भी मरणासन्न जानना चाहिये१०
भवतिचात्र । एतान्स्पृश्यान्बहून्भावान्यःस्पृशन्नावबुध्यते।
आतुरेनससम्मोहमायुानस्थगच्छति ॥ ११ ॥ इति चरकसंहितायामिन्द्रियस्थान परिमर्षणीयामिंद्रियं
समाप्तम् ॥३॥ यहांपर अध्यायके उपसंहारमें श्लोकहै जो वैद्य इन अनेक प्रकारके स्पृश्यभावीको स्पर्शद्वारा जानलेताहै वह रागीके भायुज्ञानमें मोहको प्राप्त नहीं होता ॥११॥ इति श्रीमहापचरफ इन्द्रियस्थाने भाषाक़िायांपरिमर्षणीयमिन्द्रियनाम तृतीयोऽध्यायः ॥३॥
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इन्द्रियस्थान - अ० ४.
चतुर्थोध्यायः ।
-२०
(८२५ )
अथात इन्द्रियानीकमिद्रियंव्याख्यास्याम इतिहस्माह भग
- वानात्रेयः ।
व्यव हम इंद्रियानीक इंद्रियको व्याख्या करते हैं इसप्रकार भगवान् यात्रेयजी कथन करने लगे ।
इन्द्रियाणियथाजन्तोः परीक्षेतविशेषवित् ।
ज्ञातुमिच्छन्भिपङ्मानमायुषस्तन्निबोधमे ॥ १ ॥
हे
वेश ! बुद्धिमान् वैद्यको आयुका प्रमाण जानने की इच्छासे जिसप्रकार - अनुष्य के इंद्रियोंकी परीक्षा करना चाहिये सो तुम श्रवण करो ॥ १ ॥ अनुमानात्परीक्षेत दर्शनादीनितत्त्वतः । अद्धाहिविदितंज्ञानमिन्द्रियाणामतीन्द्रियम् ॥ २ ॥ अथवाविकृतंयस्यज्ञानामिन्द्रियसम्भवम् ।
आलक्ष्येतानिमित्तेनलक्षणंमरणस्यतत् ॥ ३ ॥
मनुष्यकी दर्शनादिक संपूर्ण इंद्रियोंके तत्वको अनुमान द्वारा परीक्षा करनी चाहिये जिसको अकस्मात् अतीन्द्रिय ज्ञान इन्द्रियोंद्वारा साक्षात् होनेलगे । अथवा जिस मनुष्यके इंद्रियांका ज्ञान विनाकारणही सहस्रा विकृत होजाय तो यह लक्षण - मृत्युका पूर्वरूप है ॥ २ ॥ ३ ॥
इत्युक्तं लक्षणंसर्वमिन्द्रियेष्वशुभोदयम् । तदेवतुपुनर्भूयोविस्तरेणनिबोधत ॥ ४ ॥
इसप्रकार संक्षेपते सब इन्द्रिवेंभि होनेवाले अशुभ लक्षण कथन किये गये हैं । अब उनको ही विस्तार से वर्णन करतेहै ॥ ४ ॥
नेत्रइन्द्रियद्वारा परीक्षा ।
घनीभूतमिवाकाशमाकाशमिव मेदिनीम् । विगीतंद्युभयं ह्येतत्पश्यन्मरणमृच्छति ॥ ५ ॥
जिस मनुष्यको आकाश पृथ्वी के समान घनीभूत ( कठोर ) दिखाई देवे और पृथ्वी आकाशके समान खाली दिखाई देने लगे इसप्रकार विपरीतभाव दोनोंमें प्रतीत हो तो वह मनुष्य मृत्युको प्राप्त होताहै ॥ ५ ॥ .
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(६२६) चरकसंहिता-मा० टी०।
यस्यदर्शनमायातिमारुतोऽम्बरगोचरः ।
आग्नि यातिवादीप्तस्तस्यायुःक्षयमादिशेत् ॥६॥ जिस रोगोको आकाशमें विचरनेवाली वायु मूर्तिमान दिखाई देनेलगे अथवा प्रज्वलित आन दिखाई न देवे उसकी शीव मृत्यु होजातीहै ॥६॥
जलेसुविमलेजालमजालावततेतथा ।
स्थितेगच्छतिवादृष्ट्वाजीवितात्परिमुच्यते ॥ ७॥ . जिस रागीको निर्मल जलमें जिसमें जाल न पडाहो उसमें जाल प्रतीत हो और जो स्थिरजलको चंचल समझे वह मनुष्य मृत्युको प्राप्त होताहै ॥ ७ ॥
जागत्पश्यतियःप्रेतात्रक्षांसिविविधानिच ।
अन्यद्वाप्यद्भुतंकिंच्चिन्नसजीवितुमर्हति॥८॥ जिस रोगीको जाग्रत् अवस्थामेही अनेक प्रकारके प्रेत और राक्षस दिखाई देनेअथवा अन्य इसीप्रकार अद्भुत सामान प्रतीत होनेलगे वह जीता नहीं रहसकता अर्थात् मृत्युको प्राप्त होताहै ॥ ८॥
योऽग्निप्रतिवर्णस्र्थनीलंपश्यतिनिष्प्रभम् ।
कृष्णंवायदिवाशुक्लनिशांवसतिसप्तमीम् ॥९॥ जो रोगी अपने ठीक स्वभाव और वर्णमें स्थित अग्निको नीले रंग और कांतिरहित अथवा कृष्ण या श्वेत देखे वह आठदिनके बीचमें मृत्युको प्राप्त होताहै॥९॥
मरीचीनसतोमेघान्मेघान्वाप्यसतोऽम्बरे।
विद्युतोवाविनामधैः पश्यन्मरणमृच्छति ॥१०॥ जिप्स रोगीको विना प्रकाशके आकाशमें प्रकाश प्रतीत होताहो अथवा विनाही बादलोंके आकाश मेघाच्छन्न प्रतीत होताहो अथवा विनाही मेघोंके बिजली चमकबी दिखाई देतीहो वह अवश्य मृत्युको प्राप्त होताहै ॥१०॥
मृण्मयीमिवयःपात्रीकृष्णाम्बरसमावृताम् ।
आदित्यमीक्षतशुद्धचन्द्रवालसजीवति ॥ ११॥ जिस रोगीको स्वच्छ सूर्य अथवा चन्द्रमा काले कपडेसे लिपटाहुभा या मट्टीके. पात्रके समान दिखाई देवे वह मृत्युको प्राप्त होताहै ॥ ११॥
. अपर्वणियदापश्येत्सूर्याचन्द्रमसोर्यहम् । .., अव्याधितोव्याधितोवातदन्ततस्यजीवनम् ॥ १२...
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इन्द्रियस्थान-9०४."
(८३७) - जिस मनुष्यको पर्वके विनाही सूर्य और चन्द्रमाका ग्रहण दिखाई देताहो वह रोगी हो अथवा निरोगी हो अवश्य मृत्युको प्राप्त होताहै ॥ १२ ॥
नसूय॑महश्चन्द्रमनग्नौधममुत्थितम् ।
अग्निवानिष्प्रभंरात्रौदृष्ट्वामरणमृच्छति ॥१३॥ जिस मनुष्यको रात्रिको सूर्य और दिनमें चंद्रमाका प्रकाश दिखाई देताहो और अग्निके विना ही धुओं उठता दिखाई देताहो अथवा रात्रिके समय प्रकाशमान . मान भी प्रभारहित दिखाई देताहो वह मृत्युको प्राप्त होताहै ॥ १३ ॥
प्रभावतःप्रभाहीनान्निष्प्रभावान्प्रभावतः।
नराविलिङ्गान्पश्यन्तिभावान्प्राणाझिहासवः ॥ १४ ॥ जिस मनुष्यको प्रकाशमान वस्तुयें निस्तेज प्रतीत होतीहों और प्रकाश रहित प्रकाशमान दिखाई देती हों। इसी प्रकार अन्य द्रव्यों में भी विपरीत लक्षणोंको देखे उस मनुष्यकी अवश्य मृत्यु होती है ॥ १४ ॥
व्याकतानिविवर्णानिविसंख्योपगतीनिच ।
विनिमित्तानिपश्यन्तिरूपाण्यायुक्षियनराः ॥ १५॥ जिस रोगांकी आयु नष्ट होगयीहो वह संपूर्ण वस्तुओंको विकृतिरूपसे विकृत. वर्णवाली और विपरीत संख्यावाली तथा कारणसे विपरीत ही देखनाहै ॥ १५ ॥ • यश्चपश्यत्यदृश्यान्वैदृश्यान्यश्चनपश्यति ।
तावुभौपश्यतः क्षिप्रयमक्षयमसंशयम् ॥ १६ ॥ जो मनुष्य अदृश्य वस्तुओंको देखे और जो दृश्योंको भी न देखे यह दोनों निश्चय मृत्युको प्राप्त होतेहैं ॥ १६ ॥
कर्णेन्द्रियद्वारा परीक्षा । अशब्दस्यचय:श्रोताशब्दान्यश्चनबुध्यते ।
द्वावप्यतौयथाप्रेतीतथाज्ञेयौविजानता ॥ १७॥ नव रोगी शब्दोंको श्रवण न करे और जो विना ही शब्द होनेके शब्दोंको सुने यह दोनों मृत्युके मुखमें पड़े जानना चाहिये ।। १७॥
संवृत्त्याङ्गुलिभिःकर्णीज्वालाशब्दयआतुरः।
नशृणोतिगतासुंतबुदिमान्परिवर्जयेत् ॥१८॥ जो रोगी अपने दोनों कानोंको अंगुलियोंसे दवाकर बन्द कर लेनेपर सॉय सार्य
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( ८२८ )
वरकसंहिता - मा० टी० ।
· सुनाई पडनेवाला अनाहत शब्द जो होता है उसको न सुनसके उसकी व्यवश्य मृत्यु होती है | बुद्धिमान् वैद्य ऐसे रोगियोंको मृतप्राय समझकर त्याग देवे ॥ १८ ॥ नासिकाद्वारा परीक्षा ।
विपर्ययेणयोविद्याद्धानां साध्वसाधुताम् । नवातान्सर्वशेोविद्यात्तविद्याद्विगतायुषम् ॥ १९ ॥
जो रोगी उत्तम सुगंधिको दुर्गंध और दुर्गंधको उत्तम सुगंध प्रतीत करे अथवा "बिल्कुल गंधज्ञानरहित होजाय उसको गतायु जानना चाहिये ॥ १९ ॥
त्वचाद्वारा परीक्षा | योरसान्नाविजानातिनवाजानातितत्त्वतः ।
मुखपाकादृते पक्कंतमाहुः कुशलानरम् ॥ २० ॥
जिस रोगीको विना किसी मुखके विकारके किसी प्रकार के भी मीठे हे रसका ज्ञान हो अथवा रसके तत्त्वको न जानसके उस मनुष्यको मरणासन्न जानना -चाहिये ॥ २० ॥
उष्णाञ्छीतान्खराज्छुणान्मृदूनपिचदारुणान् । स्पर्शान्स्पृष्ट्वा ततोऽन्यत्वंमुमूर्षुस्तेषुमन्यते ॥ २१ ॥
जो मनुष्य उष्ण द्रव्योंको शीतल, खरदरे द्रव्योंको चिकने, नरम द्रव्योंको कठोर इनके सिवाय अन्य भी स्पृश्य वस्तुओंको स्पर्श कर विपरीत प्रतीत करे उसको भी मरनेवाला जानना चाहिये ॥ २१ ॥ अन्तरेणतपस्तीत्र्योगंवाविधिपूर्वकम् ।
इन्द्रियैरधिकं पश्यन्पञ्चत्वमधिगच्छति ॥ २२ ॥
जो मनुष्य तीव्र तपस्या के विना अथवा विधिवत् योगसाधन विना अतीन्द्रिय विषयोंको जानने लगजाय अथवा इन्द्रियोंसे देखने लगजाय वह मृत्युको प्राप्त होताहै ॥ २२ ॥
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इन्द्रियाणामृते दृष्टेरिन्द्रियार्थान्न पश्यति ।
विपर्य्ययेणयोविद्यात्तविद्याद्विगतायुषम् ॥ २३ ॥
जो मनुष्य दृष्टिके विना अन्य इंद्रियकि शब्दादि ज्ञानको न जानसके परन्तु : दृष्टिद्वारा अन्य इन्द्रियों के विषयोंको भी जानने लगजाय अथवा संपूर्ण इन्द्रि योक ज्ञानको विपरीत भावसे जाने वह मृत्युको प्राप्त होताहै ॥ २३ ॥
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इन्द्रियस्थान-अ० ५. (८२९) स्वस्था:प्रज्ञाविपर्यासरिन्द्रियार्थेषुवैकृतम् । ।
पश्यन्तियेऽसबहुशस्तषांमरणमादिशेत् ॥ २४॥ यदि स्वस्थ मनुष्य भी बुद्धिके विपरीत भावसे संपूर्ण इन्द्रियोंके विषयोंको विपरीव देख एवम अच्छेको बुरा और बुरेको अच्छा प्रतीत करे वह भी मरणासन्न जानना चाहिये ॥ २४ ॥
तत्रश्लोक। एतदिन्द्रियविज्ञानयःपश्यतियथातथा।
मरणंजीवितंचैतत्सभिषज्ञातुमर्हति ॥ २५॥ इति चरकसंहितायामिन्द्रि० इंद्रियानीकमिंद्रियं समाप्तम् ॥ ४॥
यहां अध्यायके उपसंहारमें एक श्लोक है-कि जो वैद्य इस इन्द्रियविज्ञानको यथोचित रीतिपर ठीक परीक्षा करना जानता है वही वैद्य मनुष्यके जीवन और मरणको जान सकता है ॥ २५ ॥ इति श्रीमहार्षिचरक० इन्द्रियस्थाने भाषाटीकायामिन्द्रियानकिमिन्द्रियनाम चतुर्योध्यायः ॥४॥
पञ्चमोऽध्यायः। -
- अथातः पूर्वरूपीयमिद्रियं व्याख्यास्याम इति हस्माह भग. वानात्रेयः।
अब हम पूर्वरूपीय इन्द्रियकी व्याख्या करतहैं इसप्रकार भगवान् आत्रेयजी कथन करनेलगे।
पर्वरूपाण्यसाध्यानांविकाराणांपृथक्पृथक् ।
भिन्नाभिन्नानिवक्ष्यामोभिषजांज्ञानवृद्धये ॥१॥ वद्यजनोंके ज्ञानवृद्धिके लिये पृथक् २ रोगोंके असाध्य पूर्वरूपोंको अलग २ करके वर्णन करतेहैं ॥ १॥
पूर्वरूपाणिसर्वाणिज्वरोक्तान्यतिमात्रया।
यविशन्तिविशत्येनंमृत्युवरपुरःलरः ॥ २॥ यादि ज्वरके संपूण पूर्वरूप बलवान् होकर अधिकत्तासे जिस रोगीका आश्रय लेखें तो उस रोगीके शरीरमें ज्वरको आगेकर मृत्यु प्रवेश करतीहै ॥२॥
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(८३०)
चरकसंहिता-माटी। अन्यस्यापिचरोगस्यपूर्वरूपाणियं नरम् ! . . .
विशन्त्येतेनकल्पेनतस्यापिमरणंध्रुवम् ॥ ३ ॥ . अन्य रोगोंमें भी यदि किसी रोगके संपूर्ण पूर्वरूप बलवान होकर अधिकरूपसे जिस मनुष्यके शरीरमें प्रवेश करतेहै तो उसकी अवश्य मृत्यु होजातीहै ॥ ३ ॥
पूर्वरूपैकदेशांस्तुवक्ष्यामोऽन्यान सुदारुणान् । .
सेरोगाननुबध्नान्तिमृत्युर्यैरनुबध्यते ॥४॥ अब अन्य रोगोंमें भी जो दारुण पूर्वरूप होनेसे रोग मनुष्यकी मृत्यु कर देते. उन पूर्वरूपोंका वर्णन करते हैं ॥ ४॥
भिन्न २ मृत्युकारक रोग।। बलञ्चहीयतेयस्यप्रतिश्यायश्चवईते।
तस्यनारीप्रसक्तस्यशोषोन्तायोपजायते ॥५॥ जिस मनुष्यका बल क्षीण होगयाहो और प्रतिश्याय बहुत जोरसे बढाहुआ हो -वह मनुष्य यदि स्त्रीसंगमें आसक्त रहे तो उस मनुष्यको शोषरोग अवश्य नष्ट करदेताहै ॥ ५ ॥
श्वभिरुष्ट्रःखरैपियातियोदक्षिणांदिशम् ।
स्वप्नेयक्ष्माणमासाद्यजीवितंसविमुञ्चति ॥ ६॥ जो मनुष्य स्वप्नमें कुचा, उंट वा गधेके ऊपर चढकर दक्षिणकी ओर गमन करे उस मनुष्यको राजयक्ष्मा रोग प्रवेश कर उसके जीवनको नष्ट करदेताहै ॥६॥
प्रेतैःसहपिबेन्मद्यस्वप्नयःकृष्यतेशुना ।
सघोरंज्वरमासाद्यनजावेनचसृज्यते ॥ ७॥ जो मनुष्य स्वप्नमें प्रेतों (मरेहुए) के साथ मिलकर प्रद्यको पीताहै अथवा जिसको स्वप्नमें कुचे घसीटते हैं उस मनुष्यको घोर ज्वर उत्पन्न होकर नष्ट करदेताहै ॥७॥
लाक्षारक्ताम्बराभं यःपश्यत्यम्बरमन्तिकात् ।
सरक्तपित्तमासाद्यतेनैवान्तायनीयते ॥८॥ जिस मनुष्यको अपने समीपका आकाश लाखके रंगसे रंगाहुमासा प्रतीत होर उस मनुष्यको.रक्तपित्त रोग होकर शीघ्र यमलोकको लेजानाहै ॥८॥
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इन्द्रिपस्थान अ०६. रक्तस्रग्रक्तसंवागोरक्तवासामुहुईसन्।
यःस्वप्नेहियतना-सरतंत्राप्यसीदति ॥९॥ जिस मनुष्यको स्वप्नमें लाल पख, लालफूलोंकी माला पहिनेहुए सम्पूर्ण लाल अंगोंवाली स्त्री वारंवार हंसतीहुई आकर हरण करती है,उसको रक्तपित्त रोग होकर मृत्युको प्राप्त करदेताहै ॥९॥
शूलाटोपान्त्रकूजाश्चदौर्बल्यंचातिमात्रया।
नखादिषुचवैवण्यंगुल्मेनान्तकरोग्रहः ॥ १० ॥ जिस मनुष्यको अत्यन्त शूल, अफारा, आंतोंका कूजन, दुर्बलता यह अधिक होजायं और नखादिकोंमें विवर्णता होजाय उस मनुष्य की गुलमरोग द्वारा मृत्यु होजाती है ॥ १० ॥
लताकण्टकिनीयस्यदारुणाहृदिजायते ।
स्वप्नेगुल्मस्तमन्तायक्रूरोविशतिमानवम् ॥ ११ ॥ जिस मनुष्यको स्वप्नमें अत्यन्त कांटोंसे युक्त बेल अपने गलेमें पढीहुई छाती‘पर लटकती दिखाई दे उसकी गुल्मरागस मृत्यु होजातीहै ॥ ११॥
कायेऽल्पमपिसंस्पृष्टंसुभृशंयस्यदीर्यते ।
क्षतानिचनरोहन्तिकुष्ठैर्मृत्यहिनस्तितम् ॥ १२॥ जिस मनुष्य के शरीरमें थोडासास्पर्श करनेसे भी शरीर फटजाय और जो शरी__ रमें घाव उत्पन्न हों वह हटे नहीं तो उस मनुष्यकी कुष्ठरोगसे मृत्यु होजाती है १२।।
नमस्याज्यावसिक्तस्यजुहतोऽग्निमर्चिषम् ।
पद्मान्युरसिजायन्तेस्वप्नकुष्ठमरिष्यतः ॥ १३॥ जो मनुष्य स्वप्नमें नग्न होकर सम्पूर्ण देहमें घी लगा ज्वालारहित अनिमें हवन करे अथवा अपने छातीमें कमल उत्पन्न हुआ देखे तो उस मनुष्यकी कुष्टरोगसे मृत्यु होती है ॥ १३ ॥
स्नातानुलितगात्रेऽपियस्मिन्गृभन्तिमक्षिकाः ।। .. लप्रमेहेणसंस्पर्शप्राप्यतेनैवहन्यते ॥ १४ ॥ जिस मनुष्यके शरीरपर मानकर चन्दन आदि लगा लेनेपर भी बहुतसी मक्खि आकर बैठे उस मनुष्यकी प्रमेह रोगसे मृत्यु होती है ॥ १४॥
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(८३२) चरकसंहिता-मा० टी०।
स्नेहंबहुविधस्वभेचण्डाल सहयःपिबेत् ।
बुध्यतेसप्रमेहणस्पृश्यतेऽन्तायमानवः ॥१५ ॥ जो मनुष्य स्वप्नमें चाण्डालोंके साथ मिलकर अनेक प्रकारके घृत, तेलभादिकोंका पान करताहै उसकी प्रमेह रोगसे मृत्यु होती है ॥ १५ ॥
ध्यानायासौतथोद्वेगोमोहश्चास्थानसम्भवः ।
अरतिर्बलहानिश्चमृत्युरुन्मादपूर्वकः ॥ १६ ॥ जिस मनुष्यको ध्यान, थकावट, घबराहट, भ्रम, उद्वेग और मोह तथा वित्तकाः न लगना यह सब एकही कालमें उत्पन्न होजाय उसकी उन्माद रोगसे मृत्यु होती
आहारद्वषिणपश्यल्लुंतचित्तमुदार्दितम् ।
विद्याद्धारोमुमघुतमुन्मादेनातिपातिना ॥ १७ ॥ जिस मनुष्यको भोजनके सब पदार्थ बुरे प्रतीत होतेहों और ज्ञान जातारहे,उदर्द रोग हो उस मनुष्यको बुद्धिमान उन्माद रोगसे मृत्यु होनेवाला जाने ॥१७॥
क्रोधनत्रासबहुलंसकत्प्रहसिताननम् ।
मच्छापिपासाबहलंहन्त्युन्मादःशरीरिणम् ॥ १८॥ जिस मनुष्यको अत्यन्त क्रोध,त्रास,और हास्य ये एककालमें ही प्रगट होजाय तथा वारवार मूर्छा आर प्यासकी अधिक. उसकी उन्माद रोगसे मृत्यु होतीहै ॥ १८॥
नृत्यन्त्रक्षोगणेःसाईयःस्वप्नेऽम्भासिसीदति ।
सप्राप्यभृशमुन्मादयातिलोकमतःपरम् ॥ १९ ॥ जो मनुष्य स्वप्नमें राक्षसों के साथ नाच करता हुआ जलमें डूवजाय वह उन्माद रोगसे ग्रसित होकर परलोकको प्राप्त होताहै ॥ १९ ॥.
असत्तमः पश्यतियःशृणोत्यप्यसतःवरान् ।
बहून्बहुविधाजाप्रत्सोऽपस्मारणबध्यते ॥२०॥ जिस मनुष्यको विना अंधकारके अंधकार प्रतीत होताहो और बिना ही किसीप्रकारको आवाजसे अनेक प्रकारके गायनके स्वरोंको श्रवण करे वह मनुष्यः मुगी रोगसे मृत्युको प्राप्त होताहै ॥ २०॥
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इन्द्रियस्थान-म०५. मचंनृत्यन्तमाविध्यप्रेतोहतियनरम् ।
स्वप्नेहराततमृत्युरपस्मारपुरःसरः ॥२१॥ जो मनुष्य स्वनमें अपनेको उन्मच होकर नाचताहुआ देखे और उस नाचवींहुई अवस्थामें उसको प्रेत उठाकर लेजावे । ऐसा स्वप्न आनेवाले मनुष्यको अप: स्मार (मृगी) रोगको आगेकर मृत्यु प्रवेश करताहै ॥२१॥
स्तुभ्येवेप्रतिबुद्धस्यहनुमन्येतथाक्षिणी।. . यस्यतंबहिरायामोगृहीत्वाहन्त्यसंशयम् ॥ २२ ॥ जिस मनुष्यके ठोडी,गर्दन और दोनों नेत्र अकडनाय उसको बहिरायाम नामक वातव्याधि प्राप्त होकर नष्ट करदेतीहै ॥ २२ ॥ __ शष्कुलीरप्यपूपान्वैस्वप्नैखादतियोनरः ।
सचेत्ताहकूछर्दयतिप्रतिवुद्धोनजीवति ॥२३॥ जो ममुष्य स्वप्न में पूडिये और: पूवोंको खाताहै और जागकर उन्हींके समान बमन कर देताहै वह मृत्युको प्राप्त होताहै ॥ २३ ॥
एतानिपर्वरूपाणियःसम्यगवबुद्धयते।
सएषामनुबन्धश्चफलञ्चज्ञातुमर्हति ॥२४॥ इन सब प्रकारके पूर्वरूपोंको जो वैद्य भलेप्रकार जानताहै वह ही इस अनुबंधक फलको जानताहै । अर्थात् मनुष्यकी रोगों द्वारा मृत्युको कहसकताहै ॥ २४ ॥
यइमांश्चापरान्स्वप्नान्दारुणानुपलक्षयेत् ।
व्याधितानांविनाशायक्लेशायमहतेऽपिवा ॥२५॥ जो मनुष्य इन आगे कहे दारुण स्वप्नोंको देखताहै वह यदि रुग्णावस्थामें देखें तो अवश्य मृत्यु हातहि और याद स्वस्थावस्थामें देखे तो महान् कष्ट उपस्थित होताहै ॥ २५ ॥
यस्योत्तमाञ्जायन्तेवंशगुल्मलतादयः । वयांसिचविलीयन्ते स्वप्ने मौढयसियाच्चयः ॥२६॥ गृघोलूकश्वकाकायैःस्वप्नेयःपरिः वार्यते । रक्षाप्रेतांपशाचस्त्रीचण्डालद्रवितान्धकैः ॥२७॥ वंशवेत्रलताप शतृणकण्टकसंकटे । प्रमुह्यतिहियःस्वप्नेलग--तिप्रपतत्यपि । २८ ॥
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( ८३४ )
चरकसंहिता - मा० टी० !
जिस मनुष्य के स्वप्न में शिरपर बांस, गुल्म, बेलें आदि प्रकट होजायँ और कौआ यदि पक्षी मुख आदि किसी अंगमें छिपजावें अथवा स्वप्नमें जिसका शिर मुण्डन Thयानावे अथवा गीध, उल्लू, कुत्ते, काग, राक्षस, प्रेत, पिशाच, स्त्रियें, चाण्डाल और दैत्य आदि चारों तरफसे घेरे हुए हों अथवा वांस, वेत, लता, फांसी, तृण, कांटे आदि संकटमें फसजाय और उन्हीमें फंसकर बेहोश हो गिरजाय तो यदि यह स्वप्न रोगीको आवे तो उसकी मृत्यु होय और स्वस्थ अवस्थामें आवे तो वह महान संकट में पडे ॥ २६ ॥ २७ ॥ २८ ॥
पापधानायां वल्मीकेवाथभस्मनि । श्मशानायतनेश्वस्वप्लेयः प्रपतत्यपि ॥ २९ ॥ कलुषेऽम्भसिपंकेच कृपेवातमसावृते । स्वप्रेमज्जतिशीघ्रेणस्रोतसाहियते चयः ॥ ३० ॥ स्नेहपानंतथाभ्यङ्गःस्वप्नेबम्धंपराजयौ । हिरण्यलाभः कलहः प्रच्छदनविरेचने ॥ ३१ ॥ उपानद्युगनाशश्चप्रपातः पांशुचर्मणोः । हर्षः स्वप्रकुपि - तैः पितृभिश्चापिभर्त्सनम् ॥ ३२ ॥ दन्तचन्द्रार्क नक्षत्र देवतादीपचक्षुषाम् | पतनंवाविनाशोवास्वप्ने भेदोनगस्यवा ॥ ३३ ॥
जो मनुष्य स्वममें धूलियुक्त पृथ्वीमें अथवा सांपकी बाँबोमें या भस्ममें या श्मशान में या गढे में गिरजाय अथवा मलिन जलमें, कचिडमें, कुएमें, या अन्धकारं डूब जाता है या नदी प्रवाहमें वहजाता है अथवा स्नेहपान या अपने शरीरपर तैल मर्दन करता है या बन्धनमें फँसजाय अथवा शत्रुओंसे हारजाय या जिसको स्व
सुवर्ण मिले या कलह हो वमन अथवा विरेचन हो अथवा दोनों जूते नष्ट होकर शरीरपर बालू और चमडेकी स्वप्नमें वृष्टि हो स्वममें हँसना और कुपित हुए पितरोंसे खाडित होना या स्वप्न में दांत, चन्द्रमा, सूर्य, नक्षत्र, देवता, दीपक और नेत्रोंका गिरजाना देखे या नष्ट होते देखे एवं पर्वतका फटना देखे तो वह यदि रोगी हो तो मृत्युको प्राप्त होता है और आरोग्य हो तो संकटमें पडता है २९ ॥ ३० ॥ ३१ ॥ ३२ ॥ ३३ ॥ रक्तपुष्पवनं भूमिपापकर्मालयंचिताम् । गुहान्धकारसम्बाधंस्वप्ने यः प्रविशत्यपि ॥ ३४ ॥ रक्तमालीहसन्नुच्चैर्दिग्वासादक्षिणांदिशम्। दारुणामटवींस्वप्ने कपियुक्तः प्रयातिवा ॥ ३५ ॥ कषायिणामसौम्यानां नग्नानांदण्डधारिणाम् (कृष्णानांरकनेत्राणां स्वप्ने नेच्छन्तिदर्शनम्॥३६॥कृष्णापापानिराचारा दीर्घकेशनखस्तनी । विराग
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+ गुफामें प्रवेशा बन्दरके ऊपर नग्न हाथोंमें डण्डालवर्णकी पापाला वस्त्रोंवाला
इन्द्रियस्थान-अ०६. (८३६) माल्यवसनास्वप्नेकालनिशामता ॥ ३७॥इत्यन्येदारुणाःस्वप्ना रोगीयैर्यातिपञ्चताम् । अरोगःसंशयंगत्वाकश्चिदेवविमुच्यते॥३८॥ जो मनुष्य स्वप्नमें लाल फूलोंके वनमें तथा पापकर्म होतेहुए स्थानमें, अंधकार युक्त गुफामें प्रवेश करता है अथवा लाल फूलोंका हार धारण किये हुए हंसता २ -दाक्षण दिशामें या बन्दरके ऊपर चढकर घोरे जंगलमें प्रवेश करताहै अथवा भगएं वस्त्र पहिने विकराल रूपवाले नग्न,हाथोंमें डण्डे लियेहुए कृष्णवर्ण और लाल नेत्रोंवाले दूतोंको स्वममें देखकर डरता है अथवा कालेवर्णकी पापाचारिणी लम्बे वालोंवाली तथा लंबे नख और स्तनांवाली मलिन भाला और मलिन वस्खोवाली काली निशाचरीको देखताहै अथवा अन्य इसीप्रकारके दारुण स्वप्नोंको देखता है तो वह यदि रोगी हो तो मृत्युको प्राप्त होताहै और निरोगी मनुष्यभी ऐसे स्व: नोंको देख महान् कष्टको प्राप्त होताहै ।। ३४ ॥ ३५ ॥ ३६ ॥ ३७॥ ३८ ॥ मनोवहानांपूर्णत्वादोषरतिबलैत्रिभिः । स्रोतसांदारुणान्स्वप्नान्कालेपश्यतिदारुणे ॥ ३९ ॥ नातिप्रसुप्तःपुरुषःसफलानफलानपि । इन्द्रियेशेनमनसास्वप्नान्पश्यत्यनेकधा ।। ४०॥
जव वातादि तीनों दोषं बलवान होकर मनकी वहन करनेवाली नाडियोंमें प्राप्त होजाते हैं तब उस समयमें वह मनुष्य शुभ और अशुभ स्वप्नोंको देखताहै । जिस -समय मनुष्य आधिक निद्रामें नहीं होता उस समय इन्द्रियोंके पति मनके द्वाराअनेक प्रकारके स्वप्नोंको देखता है वह स्वप्न कोई सफल होतेहैं कोई निष्फल होतेहैं३९॥४०
स्वप्नके भेद । दृष्टंश्रुतानुभूतश्चप्रार्थितंकल्पितंतथा।
भाविकंदोषजञ्चैवस्वतंसप्तविधविदुः ॥ ११ ॥ सुनेहुए,देखेहुए,अनुभव कियेहुए,इच्छा कियहुए,कल्पना किये हुए,भावी फलक करनेवाले और तीनों दोषोंसे होनेवाले इन भेदोंसे स्वप्न सात प्रकारके होतेहैं॥४१॥
तत्रपञ्चविधपूर्वमफलंभिषगादिशेत् ।
दिवास्वप्नमतिहस्वमीतदीर्घञ्चबुद्धिमान् ॥ ४२ ॥ इनमें पहिले पांच प्रकारके स्वप्नोंको वैद्य निष्फल कथन करे।अथवा जो स्वप्न दिनमें देखा गया या बहुत छोटासा हो या बहुत लम्बा हो उसको भी बुद्धिमान निष्फल जाने ॥४२॥
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चरकसंहिता-मा० टी०। दृष्टःप्रथमरात्रेयःस्वप्नःसोऽल्पफलोभवेत् ।
नस्वंपेद्यःपुनदृष्टाससद्यःस्यान्महाफलः॥४३॥ जो स्वप्न रात्रिके प्रथम प्रहरमें दिखाई देताहै वह अल्प फलको करनेवाला होताहै जिस स्वप्नको देखकर मनुष्यको फिर निद्रा न आवे वह स्वप्न महाफलको देनेवाला होताहै ॥ ४३ ॥
अकल्याणमपिस्वप्नदृष्टातत्रैवयःपुनः।
पश्येत्सौम्यंशुभाकारंतस्यविद्याच्छुभंफलम् ॥४४॥ यदि प्रथम अशुभ स्वप्नको देखकर फिर उसी समय शुभ स्वप्न को देखे तो उसका शुभही फल होताहै ॥ ४४ ॥
तत्रश्लोकः। पूर्वरूपाण्यथस्वप्नान्यइमान्वेत्तिदारुणान् ।
नसमोहादसाध्येषुकर्माण्यारभतेभिषक् ॥ ४५ ॥ इति चरकसंहितायामिन्द्रियस्थाने पूर्वरूपीयमिंद्रियंसमाप्तम्॥५॥
जो वैद्य इन संपूर्ण पूर्वरूपोंको तथा इन दारुण स्वमीको भलेप्रकार जानताहै वह असाध्यरोगोंमें मोहके वश चिकित्सा करनेके लिये नहीं फंसता ॥ ४५ ॥ इति श्रीमहर्षचर० इन्द्रियस्थाने भाषा कायां पूर्वरूपायर्यामीद्रयं नाम पञ्चमोऽध्यायः॥५॥
षष्टोऽध्यायः।
अथातः कतमानिशरीरीयामन्द्रियंव्याख्यास्याम इतिहस्माह भगवानात्रेयः।
अब हम कतमानिशरीरीय इन्द्रियाध्यायकी व्याख्या करतेहैं इसप्रकार भगवाद आत्रेयजी कथन करनेलगे।
कतमानिशरीराणिव्याधिमन्तिमहामुने।।
यानिवैद्यःपरिहरेयेषुकर्मनसिध्यति ॥ १॥ अग्निवेश कहनेलगे कि हे महामुने !.कितने प्रकारको व्याधियोंवाले रोगियोंके शरीर ऐस होते हैं जिनको वैद्य त्याग देवे और जिनमें चिकित्सा कीडई सफल नहीं होती ॥१॥
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इन्द्रियस्थान-अ०६. (८३७) इत्यात्रेयोऽग्निवेशेनप्रश्नपृष्टःसुदुर्वचम् । ..
आचचक्षेयथातस्मैभगवंस्तन्निबोधमे ॥ २॥ इसप्रकार यह गहन विषय अग्निवेशके पूछनेपर भगवान् आत्रेयनीने जिसप्रकार अग्निवेशके प्रति वर्णन किया उसको श्रवण करो ॥२॥
त्याज्यरोगोंक लक्षण । यस्थवैभाषमाणस्यरुजत्यूर्ध्वमुरोभृशम् । अन्नश्चच्यवतेमुक्तंस्थित श्चापिनजीति ॥३॥ बलञ्चहीयतेयस्यतृष्णाचाभिप्रवर्द्धते । जायतेहृदिशूलञ्चतंभिषक्परिवर्जयेत् ॥ ४॥
जिस रोगीके बोलते समय छातीके ऊपरके भागमें अत्यंत पीडा हो और भोजन कियाहुआ उसी समय निकलजाया करे अर्थात् उदरमें ठहर नहीं सके यदि ठहरे भी तो पचे नहीं और जिसका प्रतिदिन बल क्षीण होता जाय तथा प्यास बढती चलीजाय हृदयमें शूल हो उसको वैद्य त्याग देवे ॥३॥४॥
हिवागम्भीरजायस्यशोणितश्चातिसार्यते।
नतस्मैभेषजंदद्यात्स्मरन्नात्रेयशासनम् ॥ ५॥ निस रोगीको गंभीरनामक हिचकी आनेलगे और अत्यंत रुधिर निकलताहा उसको आत्रेयनीकी आज्ञाका स्मरण करताहुआ कोई औषध न देवे ॥५॥ ...
आनाहश्चातिसारश्चयमेतौदुर्बलंनरम् ।
व्याधितंविशतोरोगौदुर्लभंतस्यजीवितम् ॥ ६ ॥ जो रोगी अत्यंत दुर्वल होजाय और उस क्षीण अवस्थामें अफारा और आतिः सार भी आकर प्रवेश होजायं तो उस रोगीके जीवनको दुर्लभ जानना चाहिये। अर्थात् उसकी अवश्य मृत्यु होजायगी ॥ ६ ॥
आनाहश्चैवतृष्णाचयमेतौदुर्बलंनरम् ।
विशतोविजहत्येनंप्राणानातिचिरान्नरम् ॥७॥ जिस रोगीको अफारा और तृष्णा यह दोनों अत्यंत बढजाय और वह रोगी अधिक दिनोंसे बीमार होनेके कारण अत्यंत दुर्बल हो तो यह रोग उस मनुष्यके आणोंको थोडे ही समयमें नष्ट कर डालतेहैं ॥ ७॥ ज्वर पौर्वाहिकोयस्यशुष्कः कासश्चदारुणः । ज्वरायस्थापराहेतु श्लेष्मकासश्चदारुणः। बलमांसविहीनस्ययथाप्रेतस्तथैवसः ॥८॥
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(८३८) चरकसंहिता-मा० टी.। । जिस मनुष्यको प्रातःकालमें ज्वर चढजायाकरें और साथ ही साथ दारुण सूखी खांसी भी होजाय और इस ज्वर तथा खांसीसे बल और मांत क्षीण होजाय तों उस मनुष्यकी मृत्यु होनेवाली है ऐसा जानना अथवा अपराहमें नित्य ज्वर उत्पन्न होताहो और कफकी खांसी अत्यंत दारुण हो तथा इसी ज्वर, खांसीसे बल औरमांस क्षीण होजायँ तो वह रोगी भी अवश्य मृत्युको प्राप्त होताहै ॥ ८॥
यस्यमूत्रपुरीषञ्चग्रथितंसम्प्रवर्तते।
निरुष्मिणोजठरिणःश्वसनोनसजीवति ॥९॥ जिस रोगीका मल और मूत्र गांठदार निकले और शरीरमें गर्मी बिल्कुल न रहे तथा उदररोग हो और श्वासका रोग हो वह रोगी अवश्य मृत्युको प्राप्त होताहै।९।
श्वयथुयस्यकुक्षिस्थोहस्तपादंविसर्पति ।।
ज्ञातिसंघससंक्लिश्यतेनरोगेणहन्यते ॥१०॥ जिस रोगीके कुक्षि (कोख ) से आरम्भ होकर संपूर्ण हाथपावापर सूजन पहुँच जाय वह सूजन उसके जातिसमूहको कष्ट देवा रोगीको नष्ट करडालताहै ॥ १० ॥
श्वयथुर्यस्यपादस्थस्तथास्रस्तेचपिण्डिके।
सीदतश्चाप्युभेजंघेतंभिषकपरिवर्जयेत् ॥ ११॥ जिस रोगीके पैरोंमें सूजन उत्पन्न हो जाय और दोनों पिण्डलिये शिथिल पड-. जायँ तथा दोनों जंघा हिल न सकें उस रोगाको वैद्य त्याग देवे ॥ ११ ॥
शूनहस्तंशूनपादशूनगुह्योदरंनरम् ।
हीनवर्णबलाहारमौषधैननॊपपादयेत् ॥ १२॥ · जिस रोगीके हाथपांव सूख जाय तथा गुह्यस्थान और उदरपर सूजन होजाय,. वर्ण और बल तथा आहार हीन होजाय उस रोगीकी औषधों द्वारा चिकित्सा नहीं करनी चाहिये क्योंकि वह अवश्य मरजानेवाला है ॥ १२ ॥
उरोयुक्तोबहुश्लेष्मानीलःपीतःसलोहितः।
सततंच्यवतेयस्यदूरात्परिवर्जयेत् ॥ १३ ॥ " जिस पुराने रोगीकी छाती से नीलवर्ण और पीला तथा लालीयुक्त बहुतसा बलगम आताहो तो उस रोगीको दूरसेही त्याग देवे ॥ १३ ॥ . हृष्टरोमासान्द्रमूत्रःशूनःकासज्वरादितः।
क्षीणमांसोंनरोदूराद्वज्योंवैयेनजानता ॥ १४ ॥
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इन्द्रियस्थान - व्य०.६.
( ८३९ )
जिस रोगी के रोम खडे हों, मूत्र आंत्रसहित आताहो, शरीरपर सूजन हो तथा खांसी और ज्वरसे पीडित हो, मांस क्षीण होगयाहो उसका ज्ञानी वैद्य दूरसे हीं त्याग देवे ॥ १४ ॥
त्रयः प्रकुपितायस्य दोषाः कोष्ठे ऽभिलक्षिताः । कंशस्य बलहीनस्यनास्तितस्यचिकित्सितम् ॥ १५ ॥
जिस बलहीन दुर्बल रोगीके कोष्ठमें वातादि तीनों दोष कुपित होकर प्राप्त.. होजायें उस रोगी की कोई चिकित्सा नहीं है अर्थात् वह अवश्य मरेगा ॥ १५ ॥ ज्वरातिसारौशोफान्तेश्वयथुर्वातयोः क्षये ।
दुर्बलस्यविशेषेणनरस्यान्तायजायते ॥ १६ ॥
जिस मनुष्यको ज्वर और व्यतिसार के अन्तमें सूजन उत्पन्न होना अथव सूजन के अन्तमें ज्वर और अतिसार उत्पन्न होजायँ और वह मनुष्य विशेषरूपसेबलहीन हो तो उसकी अवश्य मृत्यु होती है ॥ १६ ॥
पाण्डूदरः कृशोऽत्यर्थं तृष्णयाभिषरिप्लुतः ।
डम्बरी कुपितांच्छ्रासः प्रत्याख्येयोविजानता ॥ १७ ॥
जो रोगी पांडुरोग सहित उदर रोगसे पीडित हो और अत्यन्त कृश तथा तृषासे व्याकुल हो, दोनों नेत्र जिसके बैठजावें और बेगसे श्वास चलनेलगे तो उस रोगीको प्रत्याख्येय जानना अर्थात् यह नहीं बचेगा इसप्रकार कहदेने योग्य जानना ॥ १७ ॥
हनुमन्याग्रहस्तृणाबलहासोऽतिमात्रया ।
प्राणाश्चोरसिवर्त्तन्तेयस्यतंपरिवर्जयेत् ॥ १८ ॥ .
जिस रोग की ठोडी और मन्या यह दोनों अकड गई हों प्यासकी अधिकता हो, वल अत्यन्त क्षीण होगयाहो और प्राण केवल छाती में आगये हों उस रोगीको त्यागेदेना चाहिये ॥ १८ ॥
ताम्यत्यायच्छतेशर्म न किञ्चिदपिविन्दति । क्षीणमांसबलाहारोमुमूर्षुरचिरान्नरः ॥ १९ ॥
जो रोगी अत्यन्त व्याकुल होगयाहो और उसको किसभिकारभी शान्ति प्राप्त न होती हो, ज्ञान एकदम नष्ट होगयाहो एवं मांस बल और आहार क्षीण होग: हों उसको थोड़े ही समय में मरनेवाला जानना चाहिये ॥ १९ ॥
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चरकसंहिता - भा० टी० ।
विरुद्धयोनयोय स्थविरुपक्रमाभृशम् । वर्द्धन्तेदारुणा रोगाः शीघ्रंशीघ्रं सहन्यते ॥ २० ॥
सब रोग परस्पर विरोधी कारणोंके उत्पन्न होनेसे तथा बिरोधी चिकित्सह होनेसे शीघ्र २ वृद्धिको प्राप्त होकर मनुष्यको मारडालते हैं ॥ २० ॥ बलविज्ञानमारोग्यं ग्रहणीमांसशोणितम् ।
( ८४० )
एतानियस्यक्षीयन्तेक्षिप्रक्षिप्रं हन्यते ॥ २१ ॥
जिस मनुष्यका बल, ज्ञान, आरोग्य, ग्रहणी, मांस और रक्त वह क्षीण होगये हों वह रोगी शीघ्र मृत्युको प्राप्त होता है ॥ २१ ॥ विकारायस्यवर्द्धन्तेप्रकृतिः पारिहीयते । सहसासह सातस्य मृत्युर्हरतिजीविनम् ॥
२२ ॥ जिस रोगी के शरीर में विकार बढते चलेजायँ और स्वाभाविक प्रकृति नष्ट होती चलीजाय उस रोगकेि जीवितको मृत्यु शीघ्र हरलेती है ॥ २२ ॥
तत्रश्लोकः । इत्येतानिशरीराणिव्याधिमन्तिविवर्जयेत् ।
नह्येषुधीराः पश्यन्तिसिद्धिंकाञ्चिदुपक्रमात् ॥ २३ ॥
इति चरकसंहितायामिंद्र०कतमानिशरीरीयमिंद्रियं समाप्तम् ॥६॥ अब अध्यायके उपसंहारमें एक श्लोक है इसप्रकार ऊपर कहे लक्षणोंवालें रोगियोंको त्यागदेना चाहिये क्योंकि इसप्रकार के रोगियोंकी किसीमकार चिकित्सा करनेमें बुद्धिमान् सिद्धिको नहीं देखते ॥ २३ ॥
इति श्रीमहार्ष चरक ० इन्द्रियस्थाने भाषा • कतमानिशररीियमिन्द्रियं नाम षष्ठोऽध्यायः ॥ ६॥
सप्तमोऽध्यायः ।
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अथातः पन्नरूपीयमिंद्रियंव्याख्यास्याम इतिहस्माहभगवानात्रेयः । अब हम पन्नरूपीय इन्द्रियनामक अध्यायकी व्याख्या करते हैं इसप्रकार भगवा आयजी कथन करनेलगे ।
दृष्टयांयस्यविजानीयात्पन्नरूपांकुमारिकाम् । प्रतिच्छायामयीमक्ष्णोर्नैनमिच्छेच्चिकित्सितुम् ॥ १ ॥
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इन्द्रियस्थान - अ० ७.
( ८४१ )
जिस रोगीकी छाया विकृतिरूपं दिखाई दें अथवा दिखाई न देवे या उस रोगीको व्यपनी छाया न दिखाई देती हो या वह किसीकी छाया न देखसकता हो तो वैद्य उसकी चिकित्सा करने में यत्नवान् न होवे ॥ १ ॥
ज्योत्स्नायामात पेदीपे सलिलादर्शयोरपि ।
अङ्गेषुविकतायस्यछायाप्रेतस्तथैवसः ॥ २ ॥
जिसको चंद्रमाकी चांदनी, धूप, दीपक इनके आगे खडे होनेसे अपनी छाया विकृतांग दिखाई देतीहो अथवा जल या शीशेमें अपने प्रतिबिम्बको विकृतांग देखे तो वह मनुष्य अवश्य मृत्युको प्राप्त होता है || २ ||
छिन्नाभिन्नाकुलाछायाहीनावाप्यधिकापिवा । नष्टातन्वीद्विधाछायाविशिरााविस्तृताचया ॥ ३ ॥ एताश्चान्याश्चयाः काश्चित्प्रतिच्छायाविगर्हिताः । सर्वामुमूर्षतांज्ञेयान चेल्लक्ष्यनिमित्तजाः ॥ ४॥ जिस मनुष्यकी छाया छिन्न, भिन्न, व्याकुल, हनि, अधिक, नष्ट, वारीक, दो भागों में कटी हुई, मस्तकरहित और बडे विस्तार पूर्वक दिखाई देतीहो इनके सिवाय अन्य निंदित प्रकारको या छिद्रयुक्त दिखाई देतीहो वह छाया भी यदि किसी पवन आदि निमित्तसे या ऊंचे नीचे स्थान आदि किसी कारणसे विकृत नहीं है तो अवश्य मृत्यु होनेवाले मनुष्यकी जाननी ॥ ३ ॥ ४ ॥
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संस्थानेनप्रमाणेन वर्णेन प्रभयातथा ।
छायाविवर्त्ततेयस्य स्वप्नेऽपिप्रेतवसः ॥ ५ ॥
जिस मनुष्यकी आकृति, वर्ण, प्रमाण, कांति व्यादिसे छाया विकृत हुई स्वप्नमें भी दिखाई दे वह अवश्य मृत्युको प्राप्त होता है ॥ ५ ॥
छायाके भेद ।
संस्थानमाकृतिज्ञेया सुषमाविषमाचया। मध्यमल्पंमहचोक्तंप्रमात्रिविधंनृणाम् ॥६॥ प्रतिप्रमाणसंस्थानाजलादर्शातपादिषु । छायायासाप्रतिच्छायायाचवर्णप्रभाश्रया ॥ ७ ॥
स्थान आकृतिको कहते हैं वह आकृति सुषमा (सुन्दरता ) और विषमा इन दो भेदोंसे दो प्रकारकी होती है और मनुष्यों का प्रमाण अल्प, मध्य और बृहत्के तीन प्रकारका होता है ॥ ६ ॥ प्रत्येक मनुष्यके अपने प्रमाण और आकृतिके अनुसार जल दर्पण और धूप आदिमें जो छाया पडती है उसीको छाया कहते हैं । छाया में वर्ण और प्रभा रहनेसे उसको प्रतिच्छायां तथा कांति कहते हैं ॥ ७ ॥
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(८४२ )
चरकसंहिता - भा० टी० ।
- पंचभूतात्मक छायाका लक्षण । खादीनां पञ्चपञ्चानांछायाविविधलक्षणाः । नाभसीनिर्मलानीलासस्नेहासप्रभेवच ॥ ८ ॥
आकाशादि पांच महाभूतोंकी अनेक प्रकारके लक्षणोंवाली छाया होती है उनमें नीलवणकी और निर्मल तथा चिकनी और कांतियुक्त छाया आकाशीय होती है ८ ॥
रूक्षाश्यावारुणायातुवायवीसाहतप्रभा ।
विशुद्ध रक्तात्वाशेवीदीनाभादर्शनप्रिया ॥ ९ ॥
रूक्ष, काली, लाल, प्रभारहित छाया वायवीय होती है । विशुद्ध, लालवर्णकी, कांतियुक्त, देखने में मिय इन लक्षणोंवाली अनेयी छाया होती है ॥ ९ ॥ शुद्धवैदूर्य्यविमलासुस्निग्धाचाभ्भसीमता स्थिरास्निग्धाघनाश्लक्ष्णाश्यामा श्वेताच पार्थिवी ॥ १० ॥
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स्वच्छ; वैदूर्यमणिके समान निर्मल और चिकनी जलकी छाया होती है । स्थिर, चिकनी, घनी, श्लक्ष्ण, श्याम और श्वेत पार्थिवी छाया होती है ॥ १० ॥ वायवीगर्हितात्वासांचतस्रः स्युः शुभोदयाः ।
वायवीतु विनाशाय केशाय महतेऽपिवा ॥ ११ ॥
इन सब छायाओं में वायवीय छाया निन्दनीय होती है । और चार प्रकारकी छाया सुखदायक होती हैं । वायवीय छाया तो मृत्युको करनेवाली अथवा महाकष्ट देनेवाली होती है ॥ ११ ॥
तैजसी प्रभाका वर्णन |
स्यात्तैजसीप्रभासर्वासातुसप्तविधास्मृता ।
रक्तापीतासिताश्यावाहारिता पाण्डुराऽसिता ॥ १२ ॥
सब प्रकारकी प्रभा तैजसी होती है और उस प्रभाके सात भेद हैं । जैसे लाल पीली, सफेद, श्याम, हरित, पाण्डुर और काली ॥ १२ ॥
तासांयाः स्युर्विकासिन्यः स्निग्धाश्चविपुलाश्चयाः । ताः शुभारूक्षमलिनाः संक्षिप्ताश्चाशुभोदयाः ॥ १३ ॥
उनमें जो प्रभा विकाशवाली, चिकनी और विपुल होती है वह तीन प्रकारकी प्रभा शुभ होती है । और रूक्ष, मार्लेन, संक्षिप्त यह तीन प्रकारकी अशुभ होती है ॥ १३॥ .
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इन्द्रियस्थान-अ०७. (८४३) वर्णमाक्रामतिच्छायाभास्तुवर्णप्रकाशिनी।
आसन्नालक्ष्यतेछायाभाःप्रकृष्टाप्रकाशते ॥ १४ ॥ छाया वर्णको छिपा लेतीहै अथवा यों कहिये कि वर्णरहित प्रतिबिम्बका छापा कहतेहैं ।और वर्ण प्रकाशयुक्त प्रतिविम्बको प्रभा कहतेहैं।छाया समीपके मनुष्यकी दिखाई देतीहै और प्रभा दूरके मनुष्यकी भी दिखाई देतीहै ॥ १४ ॥
नाच्छायोनाप्रभःकश्चिद्विशेषाञ्चिह्नयान्ततु ।
नृणांशुभाशुभोत्पत्तिकालेछायाःप्रभाश्रिताः ॥१५॥ किसी मनुष्यकी भी प्रभा और छाया विशेषरूपसे विकृत नहीं होती न कभी किसी मनुष्यको छायामें किसी प्रकारकी विशेषता देखने में आतीहै परन्तु जब किसी प्रकारका शुभ अथवा अशुभ होनेवाला होताहै तब ही छाया और प्रभामें किसीमकारके विशेष लक्षण दिखाई पड़तेहैं ॥ १५ ॥
कामलाक्ष्णोर्मुखपूर्णगण्डयोयुक्तमांसता ।
सन्त्रासश्चोष्णगात्रञ्चयस्यतंपरिवर्जयेत् ॥ १६ ॥ जिस रोगीके दोनों नेत्र कामलारोगसे पीले पडगयेहों, मुख बहुत भारी होगयाहो और दोनों कपोल मांससे फुले हुएसे होगये हों, अंगोंमें त्रास तथा उष्णता अधिक हो उस रोगीको त्याग देना चाहिये ॥ १६॥
उत्थाप्यमानःशयनात्प्रमोहंयातियोनरः।
मुहर्मुहुर्नसप्ताहंसजीवतिविकत्थनः॥ १७ ॥ जो मनुष्य शय्यासे उठाया हुआ झट बेहोश होजाय और वारम्बार इसीप्रकार हो तथा प्रलाप अर्थात् अंटसंट वकता हो वह मनुष्य सात दिनकी आयुवाला होताहै अर्थात् सातरोजमें मरजाताहै ॥ १७॥
संसृष्टाव्याधयोयस्यप्रतिलोमानुलोमगाः ।
व्यापन्नाग्रहणीप्रायःसोऽर्द्धमासंनजीवति ॥ १८॥ जिसके शरीरमें प्रतिलोमगामी अर्थात् उल्टी चलनेवाली और अनुलोमगामी अर्थात् सीधी चलनेवाली दोनों प्रकारकी व्याधयें आपसमें मिलजावें और जिसकी ग्रहणी दोषोंसे युक्त हो वह मनुष्य प्रायः पंद्रह दिनमें मरजाताहै ॥ १८॥
उपद्रुतस्यरोगेणकर्षितस्याल्पमश्नतः। बहुमूत्रपुरीषंस्थाद्यस्यतंपरिवर्जयेत् ॥ १९॥
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१८४४)
चरकसंहिता-भा० टी०। जो रोग रोगोंसे असाहुआ हो,जिसका शरीर कृश होगया हो तथा भोजन बहुत ही थोडा करता हो और मल मूत्र बहुत अधिक आताहो उस रोगीको त्यागेदना चाहिये ॥ १९॥
दुर्बलोबहुभुक्तेयःप्राग्भुक्तादन्नमातुरः ।।
अल्पमूत्रपुरीषश्चयथाप्रेतस्तथैवसः ॥ २० ॥ जो रोगी दुर्बल हो और उस रोगग्रस्त दुर्वल अवस्थामें यदि रोगी पहिलेसे भी अर्थात् अपनी स्वस्थ अवस्थासे भी बहुत अधिक खानेलगे और मलमूत्र भी बहुत कम त्याग करे तो उसको प्रेत ( मरेहुए ) के समान जानना चाहिये ॥२०॥
वर्द्धिष्णुगुणसम्पन्नसन्नमनातियोनरः । .. शश्वञ्चबलवर्णाभ्यांहीयतेनसजीवति ॥ २१ ॥ नो मनुष्य पुष्टिकारक पदार्थोंको भोजन करताहुआ भी प्रतिदिन बल, वर्णते हीन होता चलाजाय वह मृत्युको प्राप्त होताहै ॥ २१॥
प्रकूजतिप्रश्वसितिशिथिलञ्चातिसार्यते। .
बलहीनःपिपासाचःशुष्कास्यानलजीवति ॥ २२ ॥ जिस रोगीका कण्ठ गूजे और श्वास अधिक आरे,शरीर शिथिल होजाय तथा अतिसार हो, बलहीन हो, प्यास अधिक लगे, मुख सूखजाय वह मनुष्य अवश्य मृत्युको प्राप्त होताहै ॥ २२ ॥
ह्रस्वञ्चयःप्रश्वसितिव्याविद्धंस्पन्दतेचयः ।
मृतमेवतमात्रेयोव्याचचक्षेपुनर्वसुः ॥ २३ ॥ जिसका श्वास अत्यंत हीन होजाय और बिंधे हुएकी समान खडकने लगे भग. • यान पुनर्वसुजी कहतेहैं कि, उस मनुष्यको मराहुआही समझना चाहिये ॥ २३ ॥
ऊर्द्धश्चय-प्रश्वसितिश्लेष्मणाचाभिभूयते ।
हीनवर्णबलाहारोयोनरोनसजीवति ॥ २४ ॥ जिस मनुष्यका अर्द्धश्वास जल्दी जल्दी चले और कफ अधिक बोलनेलगे। - बल, वर्ण और आहार हीन होगयेहों वह मनुष्य मृत्युको प्राप्त होता है ॥ २४ ॥
उ नयनेयस्यमन्येचानतकम्पने। . बलहीनःपिपासचिःशुष्कास्योनसजीवति ॥ २५॥ जिस रोगीके नेत्रों के अग्रभाग ऊपरको होगये हों और ठोडीकी दोनों संघिय
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इन्द्रियस्थान - अ० ७.
( ८४५ )
नचिको होकर कांपने लग वलसे हीन हो, प्याससे व्याकुल हो और मुख सुखजाय वो वह मृत्युको प्राप्त होताहै ॥ २५ ॥
यस्यगण्डावुपचितौज्वरकासौचदारुणौ ।
शूलीप्रद्वेष्टिचाप्यन्नतस्मिन्कर्मनासयति ॥ २६ ॥
जिस रोगी के दोनों गण्डस्थल (गडवाले) फूलजायँ, ज्वर और खांसी अत्यंत दारुण हो, छाती में झूल तथा अन्नसे द्वेष हो तो उस रोग की चिकित्सा करना वृथा है २६ ॥ व्यावृत्तमर्द्धनि ह्वाक्षोभ्रुवौयस्यचविच्युते
। कण्टकैश्चाचिताजिह्वायथा प्रेतस्तथैवसः ॥ २७ ॥
जिस रोगी के मस्तक, जीभ और दोनों भौंहें टेढी अथवा ऊपरको उल्टीसी होगई हों तथा भिके ऊपर बहुत कांटेसे होगयेहों उसको मरेहुए के समान जानना ॥ २७॥ शेफश्चात्यर्थमुत्सिक्तं निसृतौवृषणा भृशम् ।
अतश्चैवविपर्यासाविकृत्या प्रेतलक्षणम् ॥ २८ ॥
जिस मनुष्यका लिंग पीछेको इटगया हो और दोनों फोते लटक आये हों अथवा इससे विपरीत होगये हों या स्वभावसे विपरीत होगये हों यह मरनेवाले मनु suके लक्षण जानना ॥ २८ ॥
निचितंयस्यमांसस्यात्त्वगस्थिचैवदृश्यते ।
क्षीणस्यानश्नतस्तस्यमा समायुः परंभवेत् ॥ २९ ॥
जिस मनुष्य के शरीर में मांस बिलकुल क्षीण होगयाहो, केवल त्वचा और अस्थि मात्र दिखाई देते हों तथा वह आहार न करताहो इसप्रकार के क्षीण मनुष्यकी एक महीने की परमआयु समझना चाहिये ॥ २९ ॥
तत्र श्लोकः । इदंलिंगमरिष्टाख्यमनेकमभिजज्ञिवान् ।
आयुर्वेदविदित्याख्यांलभते कुशलोनरः ॥ ३० ॥
इति चरकसंहितायामिन्द्रि० पूर्वरूपीयमिद्रियं समाप्तम् ॥ ७ ॥ अव अध्यायके उपसंहारमें एक श्लोक है कि, जो वैद्य इन अरिष्टनामक अनेकप्रकारके लक्षणोंको भलेप्रकार जानता है उसी कुशल पुरुषको आयुर्वेदका जाननेवाला कहना चाहिये ॥ ३० ॥
इति श्रीमहर्षिचरक० इन्द्रियस्थाने भाषाटीकायां पूर्वरूपीयमिन्द्रियं नाम सप्तमोऽध्यायः ॥७॥
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८४६)
चरकसंहिता-मा० टी०॥
अष्टमोऽध्यायः।
अथातोऽवाशिरसायमिन्द्रियं व्याख्यास्याम इति हस्माह भगवानात्रेयः।
अब हम अवाशिरसीय नामक इंद्रियाध्यायकी व्याख्या करतेहैं इसप्रकार -भगवान् आत्रेयजी कथन करनेलगे ।
अवाशिरावाजिमावायस्यवाविशिराभवेत् ।
जन्तोरूपप्रतिच्छायाननमिच्छेचिकित्सितुम् ॥ १॥ जो मनुष्य अपनी छायाका नीचेको शिर देखे अथवा टेढा देखे या विना शिरके -देखे उस मनुष्यको चिकित्सा नहीं करनी चाहिये ॥१॥
जटीभूतानिपक्षमाणिदृष्टिश्चापिनिगृह्यते ।
यस्यजन्तोनतंधीरोभेषजेनोपपादयेत् ॥२॥ जिस मनुष्यकी पलकें जटाओंके समान बंधनायें और दृष्टि जाती रहे उस मनु'ख्यकी बुद्धिमान् वैद्य चिकित्सा न करे ॥ २ ॥
यस्यशूनानिवत्मानिनसमायान्तशुष्यतः ।
चक्षषीचोपदह्येतेयथाप्रेतस्तथैवसः॥३॥ जिस रोगीकी दोनों पलकें सूज जावें और दोनों पलकें आपसमें न मिलसके नेत्रोंमें अत्यंत दाह होताहो और वह पलकें सूखने में न आवें वह रोगी भी मृत्युके वश जानना ॥ ३ ॥ भ्रुवोयिदिवामूर्ध्निसीमन्तावमकान्बहून् ।अपूर्वानकृतान्व्यक्तान्दृष्वामरणमादिशेत् ॥४॥व्यहमेतेनजीवन्तिलक्षणेनातुरा नराः । अरोगाणांपुनस्त्वेतत्षडानंपरमुच्यते ॥ ५॥ जिस रोगीकी दोनों भौंहे या मस्तकमें अपूर्व जटासी होजायँ तो इन अपूर्वा' किसीकी बनाई प्रगट भंवरियोंको देखकर रोगीको मृत्यु जानलेना चाहिये यदि यह लक्षण रोगी मनुष्यके हों तो वह तीन दिनमें मरजाताहै और रोगरहितके होजायँ तो वह छः दिनमें मरजाताहै ॥ ४ ॥५॥
आयम्योत्पाटितवान्केशान्योनरोनावबुध्यते। अनातुरोवारोगीवाषड्रा–नातिवर्त्तते ॥६॥
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इन्द्रियस्थान - अ० ८.
( ८४७ )
जिस मनुष्यके बालों को खींचकर उखाड दियाजाय और वह उसके किसी प्रकारके दुःखको प्रतीत न करसके तो यदि वह रोगी हो तो तीन दिनमें और रोगरहित हो तो छः दिनमें मृत्युके वश होजाता है ॥ ६ ॥ यस्यकेशनिरभ्यङ्गादृश्यन्तेभ्यक्तसन्निभाः । उपरुद्धायुषंज्ञात्वा तंधीरः परिवर्जयेत् ॥ ७ ॥
जिस मनुष्य के केश बिनाही तेलके लगाये तेलसे भिगेहुए से प्रतीत हों तो उस रोगीको गतायु समझकर धीर वैद्य त्याग देवे ॥ ७ ॥ ग्लाय तो नासिकावंशः पृथुत्वंयस्यगच्छति ।
अशूनःशूनसङ्काशः प्रत्याख्येयः सजानता ॥ ८ ॥
जिस रोगी मनुष्यके नाकका वांस मोटा होजाय और सूजनके विनाही सुजा आसा दिखाई दे और वह पुराना रोगी तथा कृश शरीर हो तो उसको मरनेवाला जानना चाहिये ॥ ८॥
अत्यर्थंविवृतायस्ययस्यचात्यर्थसंवृता । जिह्वावापरिशुष्कावानासिकान सजीवति ॥ ९ ॥
जिस रोगी की जीभ अधिक बाहर निकल व्यावे अथवा अधिक भीतर चली जाय तथा नाका सूखजाय उस रोगीकी अवश्य मृत्यु होती है ॥ ९ ॥ मुखंशब्दस्त्रवावोष्ठौशुकुश्यावातिलोहितौ ।
विकृतौयस्यवानी लौन सरोगाद्विमुच्यते ॥ १० ॥
जिस मनुष्य के मुख से अवध्य शब्द निकलें अथवा मुख, कान, दोनों होठ यह काले या अत्यंत लाल, नीले एवं विकृत होजायँ वह रोगी मृत्युको प्राप्त होता है ॥ १० ॥
अस्थिश्वेताद्विजायस्य पुष्पिताः पङ्कसंवृताः । विकृत्यानसरोगतंविहायारोग्यमनुते ॥ ११ ॥
जिस रोगी के दांत विकृत होजायँ और श्वेत तथा फुलडीयुक्त, हड्डियोंके बुरादेंयुक्त एवं कीचडयुक्त हो जायँ वह मनुष्य कभी रोगों से मुक्त नहीं होता अर्थात् मस् जाता है ॥ ११ ॥
स्तब्धानिश्चेतना गुर्वी कण्टकोपचिताभृशम् । श्यावाशुष्काथवाशनाप्रेतजिह्वाविसर्पिणी ॥ १२ ॥
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(८४८)
चरकसंहिता-मा० टी० । . जिस रोगीकी नीम टेढी, बाहरको निकलीहुई, चैतन्यता रहित,भारी, काँटेयुक्त, काली, सूखी या सूजीहुई हो वह अवश्य मृत्युको प्राप्त होगाहै ॥ १२ ॥
दीर्घमुच्छस्ययोहस्वंनरोनिश्वस्यताम्यति ।
उपरुद्धायुषंज्ञात्वातंधारःपरिवर्जयेत्॥१३॥ जिस मनुष्यका श्वास लम्बा लम्बा आताहुआ क्रमसे धीरेधीरे अत्यंत हीन होजाय और वह मनुष्य बेहोश होजाय उसको गतायु जानकर त्यागदेना चाहिये ॥१३॥
हस्तौपादोचमन्येचतालुचैवातिशीतलम् ।
भवत्यायुःक्षयेक्रूरमथवापिभवेन्मृदु ॥ १४ ॥ जिस रोगीके हाथ पांव, मन्या और तालु यह सब अत्यंत शीतल अथवा कूल या बहुत नरम पडजाय उस रोगीका आयु क्षीण हुआ जानना ॥ १४ ॥
घट्टयञ्जानुनाजानुपादावुद्यम्यपातयन् ।
योऽप्यास्यतिमुहर्वक्रमातुरोनसजविति॥१५॥ जो रोगी अपनी दोनों जंघाओंको कटकट बजावे और पांवको उठा २ जमीन: पर फेंके और अपने मुखको बारबार फिरावे वह रोगी अवश्य मृत्युको प्राप्त होताहै ॥ १५॥
दन्तैच्छिन्दन्नखायाणिनखैश्छिन्दशिरोरुहान।
काष्टेनभूमिविलिखन्नरोगात्परिमुच्यते ॥ १६ ॥ जो रोगी दांतोंसे अपने नखोंको काटे और नखोंसे अपने शिरके वालों को उखाडे एवं लकडीसें जमीनको खुरेदे वह रोगी अवश्य मृत्युको प्राप्त. होताहै ॥ १६॥
दन्तान्खादतियोजाग्रदसाम्नाविरुदन्हसन् ।
विजानातिनचेदुःखंनसरोगाद्विमुच्यते ॥ १७ ॥ जो रोगी अपनी जाग्रत् अवस्थामें दांतोंको पीसे और ऊंचे स्वरसे रोवें तथा हँसे और अपने शरीरके किसीप्रकारके दुःखोंका होश न हो वह रोगी रोगसे नहीं बचप्सकता अर्थात् मृत्युको प्राप्त होताहै ॥ १७ ॥
मुहुर्हसन्मुहुःक्ष्वेडशय्यांपादेनहन्तियः ।
उच्चैश्छिद्राणिविमृशन्नातुरोनसजीवति ॥ १८॥ जो रोगी बारबार हंसे और चरिख मारे,पैरोंसे अपनी शय्याको खराव करें तथा
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इन्द्रियस्थान-अ०८. ८४९) अपने हाथोंसे नाक कान आंख आदि छिद्रोंको मर्दन करे या छूता जाय उसको मरणासन्न जानना चाहिये ॥ १८॥
यविन्दतिपुराभावःसमेतैःपरमारतिम्।
तैरेवारममाणस्यग्लास्नोमरणमादिशेत् ॥ १९॥ जो भाव रोगीको अपनी रोगावस्थासे पहिले उत्तम प्रतीत होते हों, जो २ वस्तुएं अत्यन्त प्रिय हों वह सब जिस रोगीको दुरी और ग्लानिकारक प्रतीत हे नेलगे उसकी अवश्य मृत्यु होती है ॥ १९ ॥
नविभर्तिशिरोग्रीवांनपृष्ठंभारमात्मनः ।
नहनापिण्डमास्यस्थमातुरस्यमुमूर्षतः ॥ २० ॥ जिस रोगीकी गर्दन शिरके भारको न संभाल सके और पीठ शरीरके भारक न संभाल सके और ठोडी मुखके भारको न सँभालसके वह रोगी अश्य मृत्युको प्राप्त होताहै ॥ २० ॥
सहसाज्वरसन्तापस्तृष्णामूच्छबिलक्षयः।
विश्लेषणञ्चसन्धीनांमुमूर्षोरुपजायते ॥ २१ ॥ जिस रोगीको एकाएकी ज्वर, संताप, प्यास, मूर्छा, वलकी क्षीणता, सांक- . योंका ढीला हो जाना यह सव लक्षण होजाय उसकी मृत्यु होतीहै ॥ २१ ॥ ___ गोसर्गेवदनाद्यस्यस्वेदःप्रच्यवतेभृशम् ।
लेपज्वरोपतप्तस्यदुर्लभंतस्यजीवितम् ॥ २२ ॥ जिस प्रलेपक ज्वरखाले रोगीके मुखसे प्रातःकाल गौओंको छोडनेके समय अत्यंत पसीना टपकने लगे और वह प्रलेषक ज्वरसे पीडित हो तो उसका जीता रहनों कठिन है ॥ २२ ॥
नोपैतिकण्ठमाहारोजिह्वाकण्ठमुपति च ।
आयुष्यन्तंगतेजन्तोर्बलञ्चपरिहीयते ॥ २३ ॥ जिस रोगीकी जीभ कण्ठमें चलींगई हो, बल क्षीण होगया हो और आहार. . कण्ठसे नीचे न जा सकताहो उस रोगीकी आयुको नष्ट जानना चाहिये ॥ २३ ।। . शिरोविक्षिपतेकृच्छान्मुश्चयित्वाप्रपाणिको। .
ललाटप्रस्तुतस्वेदोमुमूर्षुःइलथबन्धनः ॥ २४ ॥ जो रोगी बडी कठिनतासे अपने दोनों हाथोंको शिरके ऊपर रखकर शिरको
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(८५०, चरकसंहिता-मा० टी०॥ बडे कष्टसे इधर उधर हिलासके और उसके मस्तकसे अत्यन्त पसीना निकलने लगे, शरीरके बंधन ढीले पडजायें तो उस रोगीको मृत्युवश जानना ॥ २४ ॥
तत्रश्लोकः।। इमानिलिङ्गानि नरेषुबुद्धिमान्विभावयेतावहितोमुहुर्मुहुः । क्षणेनभूत्वाह्यपयान्तिकानिचिन्नचाफललिङ्गमिहास्तिकिञ्चना॥२५॥ । इति चरकसंहितायामिन्द्रियस्थानेऽवाशिरसीयमिंद्रियं
समाप्तम् ॥ ८॥ अब अध्यायके उपसंहारमें एक श्लोक है बुद्धिमान् वैद्य मनुष्योंमें इन लक्ष. गोंको देखकर वारवार अपने अनुभवको सावधानीसे पुष्ट करता जाय स्योंकि बहुतसे ऐसेभी लक्षण होते हैं जो थोडेसे काल रहकर फिर नष्ट होजाते हैं। और कोई लक्षण ऐसे होतेहैं जो निष्फल नहीं जाते अर्थात् अवश्य मृत्युकेकरनेवाले होते हैं इसलिये सावधानीसे परीक्षा करतेहुए अपने अनुभवको पुष्ट कर लेना चाहिये २५॥ इति श्रीमहर्पिचरक० इन्द्रियस्थाने भापाटीकायामवाशिरमीयमिन्द्रियं नामाष्टमोऽध्यायः८॥
नवमोऽध्यायः।
07-. अथातोयस्यश्यावनिमित्तीयमिन्द्रियंव्याख्यास्याम इति हस्माह भगवानात्रेयः ।
अब हम यस्यश्यावनिमित्तीय इन्द्रियाध्यायकी. व्याख्या करते हैं इसप्रकार भगवान आत्रेयजी व.थन करनेलगे ।
यस्थश्यावपरिध्वस्तेहरितेचाषिदर्शने ।
आपन्नोव्याधिरन्तायज्ञेयस्तस्यविजानता॥१॥ जिस रोगीके दोनों नेत्र श्याम, अथवा हरे और टेढे अथवा शिथिल होजायें । बुद्धिमान वेद्य उसकी व्याधिको उसके नाशके लिय उपस्थित जाने ॥ १ ॥ ... निःसंज्ञःपरिशुष्कास्यःसंविद्धोव्याधिभिश्चयः।
उपरुद्धायुषंज्ञात्वातंधीरःपरिवर्जयेत् ॥२॥ जिस रोगीकी संज्ञा (होश ) नष्ट होजाय, मुख सूखजाय और व्याधियोंसे भत्यन्त संविद हो उस रोगीको गतायु समझ लेना चाहिये ॥२॥
बुद्धिमान् वैद्य
परिशुष्कास्था परिवर्जयेत् ॥ २॥
व्याधियोंसे
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इन्द्रियस्थान - ०९.
हरिताश्चशिरायस्य लोमक पाश्चसंवृताः । सोऽम्लाभिलाषीपुरुषः पित्तान्मरणमश्नुते ॥ ३ ॥
( ८५१ )
जिस रोगी की सब नसें हरी हो गई हों और संपूर्ण रोममार्ग बंद होगये हों और खटाई खाने की इच्छा रखता हो वह मनुष्य पित्तरोगसे मृत्युको प्राप्त होता है ॥ ३ ॥ शरीरान्ताश्चशोभन्तेशरीरञ्चोपशुष्यति ।
बलञ्चहीयतेयस्यराजयक्ष्माहिनस्तितम् ॥ ४ ॥
जिस रोगी के शरीरके सब अंग शोभायुक्त प्रतीत हों और शरीर सुखा हो तथा उस मनुष्यका बल नष्ट होगया हो वह राजयक्ष्मावाला रोगी अवश्य मृत्युको प्राप्त होता है ॥ ४ ॥
अंसाभितापोहिक्काचछर्दनं शोणितस्यच ।
आनाहःपार्श्वशूलञ्चभवत्यन्तायशोषिणः ॥ ५ ॥
जिस शोषरोगी के दोनों पार्श्वभागों में शूल होता हो तथा अफारा, हिचकी, रुधिकी छर्दि और कंधों में पीडा होती हो वह अवश्य मृत्युको प्राप्त होता है ॥ ५ ॥ .: वातव्याधिरपस्मारी कुष्ठीशोफतिथोदरी । गुल्मीचमधुमेहीचराजयक्ष्मीचयोनरः ॥ ६ ॥ अचिकित्स्याभवन्त्येतेबलमांसक्षयसति । अन्येष्वपिविकारेषु तान्भिषक्परिवर्जयेत् ॥ ७ ॥
वातव्याधि, अपस्मार, कुष्ठ, सूजन, उदर, गुल्म, मधुमेह और राजयक्ष्मा इन रोगों से किसी एक रोगवालेका बल और मांस क्षीण होजायँ तो वह चिकित्सा के योग्य नहीं रहता। इसीप्रकार अन्य विकारोंमें भी वल और मांसके क्षीण होजाने प प्रायः रोग असाध्य होजाते हैं ॥ ६ ॥ ७ ॥
विरेचनहृताना हो यस्तृष्णानुगतोनरः ।
विरिक्तः पुनराधमांतियथाप्रेतस्तथैव सः ॥ ८ ॥
. जिस रोगीको विरेचन होनेके अनन्तर अफारा दूर होनेपर अधिक प्यास लगे अथवा विरेचन होनेके पीछे फिर अफारा उत्पन्न होजाय वह रोगी अवश्य मृत्युको प्राप्त होताहै ॥ ८ ॥
पेयं पातु न शक्नोतिकण्ठस्यचमुखस्यच । उरसश्चविवद्धत्वापोनरोन सजीवति ॥ ९ ॥
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(८५१) ..
चरकसंहिता-भा० टी०। जिस रोगीका कण्ठ, मुख और छाती यह बिल्कुल रुकजायँ और वह जल, दूध आदि पतले पदार्थोको भी न पीसकें उसकी अवश्य मृत्यु होतीहै ॥ ९॥
स्वरस्यदुर्बलीभावहानिञ्चवलवर्णयोः।
रोगवृद्धिमयुक्त्याचदृष्ट्वासरणमादिशेत् ॥ १०॥ जिस रोगीका स्वर हीन होजाय, बल और वर्ण नष्ट होजाय और रोगकी वृद्धि होतीचलीजाय उसको विनाही किसी परीक्षाके मरनेवाला जानना चाहिये ॥१०॥ - अर्द्धश्वासंगतोष्माणशूलोपहतवंक्षणम् ।
शर्मचानधिगच्छन्तंबुद्धिमान्परिवर्जयेत् ॥११॥ जिस रोगीके ऊर्द्धश्वास चलनेलगे शरीर शीतल पडजाय,दोनों वक्षणोंमें अत्यंत शूल होनेलगे और किसीप्रकार भी शान्तिको प्राप्त न हो ऐसे रोगीको बुद्धिमान, त्याग देवे ॥११॥
अपस्वरभाषमाणंप्राप्तमरणमात्मनः ।
श्रोतारञ्चाप्यशब्दस्य दूरतःपरिवर्जयेत् ॥ १२॥ . जो रोगी अनेक प्रकारके विनाहुए शब्दोंको सुने और अपने मुखसे आप ही अपनी मृत्युको हतस्वरसे होनेवाली कथन करताहो उस रोगीको त्याग देना चाहिये।।१२॥ . यंनरंसहसारोगोदुर्वलंपरिमुञ्चति । संशयप्राप्तमात्रेयोजीवितंतस्य मन्यते॥१३॥अथचेज्ज्ञातयस्तस्ययाचेरन्प्रणिपाततः। रसेनायाः दितिब्यान्नास्मैदद्याद्विशोधनम् ॥१४॥ मासेनचेन्नदृश्येतविशेष
स्तस्यशोभनः । रसैश्वान्यैर्बहुविधैर्दुर्लभंतस्यजीवितम् ॥ १५ ॥ ' जिस अत्यंत दुर्बल रोगीको झट एकसाथ रोग छोडकर अलग होजाय उसका जीवन संशययुक्त ही जानना चाहिये यदि ऐसे समय रोगीके घरवाले वैद्यसे अधिक प्रार्थना करें कि, इसकी चिकित्सा कीजिये तो उनको कहे कि इसको मांसरस या विधिवत् बनायाहुआ यवोंका रस पीनेको दो परंतु ऐसे मनुष्यको विशोधन नहीं देना चाहिये। यदि उस रोगीको अनेक प्रकारके रस आदिकोंके सेवनसे एक महीने भी कुछ फायदा प्रतीत न हो तो उसका जीवन दुर्लभ समझकर त्याग देवं ॥ १३ ॥ १४॥ १५ ॥
निष्ठयूतञ्चपुरीषञ्चरेतश्चाम्भसिमजति । यस्यतस्यायुषःप्राधमन्तमाहुर्मनीषिणः ॥ १६ ॥ !
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इन्द्रियस्थान-अ०९. (८५३) • जिस रोगीका थूक, पुरीष और वीर्य जलमें डूवजाय बुद्धिमान् उस रोगीका अंत मायाहुआ कथन करतेहैं ॥ १६ ॥
निष्ठयूतेयस्यदृश्यन्तेवर्णाबहुविधाः पृथक् ।
तच्चसीदत्यपःप्राप्यनसजीवितुमर्हति ॥ १७॥ जिस रोगीका थूक अलग २ अनेक वर्णीवाला दिखाई दे और जलमें डालनेसे डूबजाय वह रोगी अवश्य मृत्युको प्राप्त होता है ॥ १७ ॥
पित्तमुष्मानुगंयस्यशंखोप्राप्यविमूछति।।
सरोगःशंखकोनाम्नात्रिरात्राद्धान्तिजीवितम् ॥ १८॥ जिसके पित्त ऊष्माको लेकर दोनों कनपटियोंमें प्राप्त होकर विमूच्छित होजाय उसको शंखके रोग कहतेहैं । (इस रोग कनपटिये अत्यंत चटकती हैं और उनमें अत्यंत दारुण शूल उत्पन्न होजाताहै ) इससे रोगी तीन दिनमें मरजाताहै ॥ १८॥
सफेनंरुधिरंयस्यमुहुरास्यात्प्रमुच्यते । .
शूलैश्चतुयतेकुक्षिःप्रत्याख्येयःसतादृशः ॥ १९॥ • जिस रोगीके मुखसे झाग मिलाहुआ रक्त वारवार गिरे और उस रोगीकी कुखमें अत्यंत शूल होता हो उस रोगीको मरजानेवाला जानना चाहिये ॥ १९ ॥
बलमांसक्षयस्तीबोरोगवृद्धिररोचकः ।
यस्थातुरस्यलक्ष्यन्तेत्रीनहान्नसजीवति ॥ २०॥ जिस रोगीका बल और मांस क्षीण होगया हो और रोग सहसा बढकर तीव्र होजाय तथा अरुचि हो वह रोगी तीन दिनमें मरजाताहै ॥ २०॥
तत्रश्लोको। विज्ञानानिमनुष्याणांमरणेप्रत्युपस्थिते । भवन्त्येतानिसम्पश्येदन्यान्येवंविधानिच ॥ २१॥ तानिसणिलक्ष्यन्तेनतुसर्वाणि मानवम् । विशन्तिविनशिष्यन्तंतस्माद्बोध्यानिसर्वशः ॥ २२ ॥ इति चरकसंहितायामिन्द्रियस्थाने यस्यश्यावमिद्रियंसमाप्तम्॥९॥
यहां अध्यायके उपसंहारमें दो श्लोक हैं जब मनुष्योंका मरणसमय आजाता है उस समय ऐसे२ लक्षण उत्पन्न होते हैं तथा इसी प्रकारके और भी लक्षण उत्पन्न होतेहैं सो वैद्यको चाहिये किं इन मरणख्यापकसब प्रकारके लक्षणोंको विज्ञानपू.
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. १८५४.) घरकसंहिता-मा० टी।
र्वक सावधानीसे देखा करें । सब लक्षण एक ही मनुष्यों नहीं होसकतें इसाले
अनेक मरणासन्न मनुष्योंमें सब प्रकारके लक्षणोंको सावधानीसे देखना चा . हिये ॥ २१ ॥ २२ ॥ इति श्रीमहर्षिचरक० इन्द्रि० स्था० भाषाटी० यस्यश्यावनिमित्तीयं नाम
नवमोऽध्यायः ॥९॥ दशमोऽध्यायः।
अथातः सद्योमरणीयमिन्द्रियंव्याख्यास्याम इतिहस्माहभग : वानात्रेयः। 'अब हम सद्योमरणीय इन्द्रियाध्यायकी व्याख्या करते हैं इसप्रकार भगवान आत्रेयजी कथन करनेलगे।
सद्यस्तितिक्षतःप्राणानुलक्षणानिपृथक्पृथक् ।
अग्निवेश ! प्रवक्ष्यामिसंस्पृष्टोयैर्नजीवति ॥ १॥ हे अग्निवेश! जिन लक्षणोंके स्पर्शमात्रसे ही मनुष्यकी शीघ्र मृत्यु होजातीहै उन प्राणोंके नष्ट करनेवाले लक्षणोंको हम अलग २ वर्णन करतेहैं ॥ १॥
वाताष्ठीलाः सुसंवृत्तास्तिष्ठन्तिदारुणाहृदि ।
तृष्णयाभिपरीतस्यसद्योमुष्णातिजीवितम् ॥ २॥ ..जिस मनुष्यके शरीरमें वाताष्ठीला रोग बढकर. हृदयमें दारुणभावसे स्थित होजाय तथा उसको अधिक प्यास लगनेलगे तो वह रोगी शीघ्र मरजाताहै ॥२॥
पिण्डिकेशिथिलीकत्यजिह्मीकत्यचनासिकाम् ।
वायुःशरीरेविचरन्सद्योमुष्णातिजीवितम् ॥ ३॥ . जिस रोगीके शरीरमें वायु दोनों पिण्डलियोंको शिथिल करके नाकको टेंडा बनादेवे तथा शरीरमें विचरण करनेलगजाय वह रोगी शीघ्र मृत्युको प्राप्त होता;
ध्रुवीयस्यच्युतेस्थानादन्तर्दाहश्चदारुणः।
तस्यहिकाकरोरोगस्सयोमुष्णातिजीवितम् ॥ ४॥ __ . जिस रोगीकी दोनों भौहें अपने स्थानसे हटजांय शरीरमें अत्यंत दारुण अन्त
हि हो और हिचकी मधिक आनेलगे वह रोगी शीघ्र मरजाताहैं ॥ ४॥ .
पा
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(८६५)
इन्द्रियस्थान-१० १०. क्षीणशोणतमांसस्यवायुरूर्द्धगतिश्चरन् । .
उभेमन्थेसमेयस्यसद्योमुष्णातिजीवितम् ॥ ५॥ जिस रोगीके रक्त और मांस क्षीण होगये हों तथा वायु ऊर्ध्वगतिसे चलनेलगें और दोनों मन्या (ठोडीकी दोनों ओरकी नाडिये ) अकडजाय वह मनुष्य शीघ्र मृत्युको प्राप्त होताहै ॥ ५ ॥
अन्तरेणगुदंगच्छन्नाभिश्चसहसानिलः।
कशस्यवंक्षणौगृह्णन्सद्योमुष्णातिजीवितम् ॥६॥ यदि क्षीण रोगीके शरीरमें वायु गुदासे नाभिमें होतीहुई दोनों वक्षों को ग्रहण करे अर्थात् गुदामेसे वायु उठकर नाभिमें प्रवेश करतीहुई दोनों वक्षणों (वक्खी) है। दारुण पीडाको उत्पन्न करे तो वह मनुष्य शीघ्रं मरजाताहै ॥६॥
वितत्यप कायाणिगृहत्विोरश्वमारुतः।
स्तिमितस्यायताक्षस्यसयोमुष्णाति जीवितम् ॥७॥ जिस रोगीके दोनों पांसुओंका अग्रभाग वायुसे फैलजाय तथा उसकी छातीको वायु रुककर अत्यन्त पीडा उत्पन्न करे उस पडिासे रोगीका संपूर्ण शरीर गीला होजाय और आंखें वडी २ खुलजायँ तो उस रोगीका शीघ्र मरण होताहै ॥७॥
हृदयञ्चगुदश्चोभेगृहीत्वामारुतोबली।
दुर्बलस्यविशेषेणसयोमुष्णातिजीवितम् ॥८॥ यदि दुर्बल रोगीके हृदयको और गुदाको रोककर बलवान् वायु अत्यंत पीडा उत्पन्न करे तो वह रोगी शीघ्र अपने जीवनको त्यागदेवाहै ॥ ८॥
वंक्षणाचगुदश्चोभेगृहीत्वामारुतोबली। ..
श्वासंसञ्जनयञ्जन्तोःसयामुष्णातिजीवितम् ॥९॥ याद बलवान् वायुं दोनों वंक्षण और उत्तरगुद तया अधोगुदको रोककर उनमें अत्यंत पंडिा करताहुंआ श्वासको उत्पन्नकर देवे तो रोगीके प्राणोंको शीघ्र नष्टकर देताहै ॥९॥
नाभिवस्तिशिरोमूत्रं पुरीषञ्चापिमारुतः।
विबध्यजनयञ्छ्रलंसद्योमुष्णातिजीवितम् ॥ १०॥ यदि बलवान् वायु मनुष्यके नाभि, बस्ति, शिर, मूत्र और पुरीषको रोककर दारुण शूलको उत्पन्न करदेवे तो मनुष्यका जीवन शीघ्र नष्ट होजाताहै ॥१०॥
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चरकसंहिता-मा० टी०। भिद्येतवंक्षणीयस्यवातशूलै समन्ततः।
सिन्नंपुरीषंतृष्णाचसद्यःप्राणाञ्जहातिसः॥११॥ जिस गेल के दोनों वंक्षणों जांघोंकी सन्धियों में वायुके शूलोंसे सर्वतः अत्य. न्त भेद काटनेकीसी पीडा) होतीहो तथा साथही दस्तोंका लगना और दारुण प्यास भी हो वह मनुष्य शीघ्र अपने जीवनको त्याग देताहै ॥११॥
आप्लुतमारतेनेहशरीरयस्यकेवलम् ।
भिन्न पुरषितृष्णाचसद्योजह्यात्स्टजीवितम् ॥ १२॥ जिस मनुष्यका शरीर फेवल वायुके वेगसेही पसीनेसे भीग जाय और साथमें दस्तोंका वेग तथा प्यास भी हो वह शीघ्र अपने जीवनको त्याग देताहै ॥ १२ ॥
शरीरंशोफितंयस्यवातशोफेनदेहिलः।
भिन्नंपुरीषतृष्णाचसद्योजह्यासजीवितम् ॥ १३॥" जिस मनुष्यका शरीर वायुकी सूजनसे सूजाहुआ हो और उसको दस्त तथा ध्यासकी भी अधिकता होजाय तो वह मनुष्य शीघ्र ही मृत्युको प्राप्त होताहै॥१५ " आमाशयसमुत्थानायस्यस्यात्परिकर्तिका।
तृष्णागुदग्रहश्चोग्रःसद्योजह्यात्सजीवितम् ॥ १४॥ . जिस मनुष्यके आमाशयमें मांस काटनेकी सी पीडा हो और अधिक प्यास खथा गुदामें उग्र पीडा भी साथमें प्रगट होजाय वह मनुष्य शीघ्र ही मरजाताहै॥१४॥
पक्वाशयमधिष्ठायहत्वासंज्ञाश्चमारुतः । • कण्ठेघुर्घरकंकत्वासद्योहरतिजीवितम् ॥ १५॥ जिस मनुष्यके पक्काशयमें वलवान् वायु प्रविष्ट होकर संज्ञाको नष्ट कर देताहै अर्थात् बेहोश करदेताहै और कण्ठमें घुरघुर शब्द करने लगताहै वह मनुष्य शीघ्र मृत्युको प्राप्त होताहै ॥ १५ ॥
दन्ताःकर्दमचाभामुखंचूर्णकसान्निभम् । . . . शिप्रायन्तेचगात्राणिलिङ्गंसद्योमरिष्यतः ॥ १६ ॥
जिस रोगीके दांतोंपर कीचडसा लगा हो और सफेद चूनासा बुरका प्रतीत होता हो तथा मुख भी चूने के समानसफेत होगया हो तथा सब अंग पसीनेसे युक्त . हों और शिथिल होजाय उसे शीघ्र मरनेवाला जानना ॥ १६ ॥
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इन्द्रियस्थान-अ० ११. (८५७) तृष्णाश्वासशिरोरोगमोहर्दोबल्यकूजनैः।
स्पृष्टःप्राणामहात्याशुशकद्भेदेनचातुरः ॥ १७॥ याद दुर्बल रोगीको प्यास, श्वास, शिरोरोग, मोह, क्षणिता, कण्ठका कूजन एक साथ होजायँ तथा दस्त लगनेलगे वह रोगी शीघ्र अपने प्राणोंको त्याग देताहै ॥ १७॥
तत्रश्लोकः । एतानिखलुलिङ्गानियःसम्यगवबुध्यते।
सजीवितश्चमयानांमरणश्चावबुध्यते ॥ १८ ॥ इति चरकसंहितायामिन्द्रिय० सद्योमरणीयमिंद्रियं समाप्तम् ॥१०॥ ' यहां अध्यायके उपसंहारमें एक श्लोक है । जो वैद्य इन संपूर्ण लक्षणोंको भले प्रकार जानताहै वह मनुष्योंके जीवन और मरणको भी अच्छीतरह जानलेताहै १८ इति श्रीमहापंचरक० इंद्रियस्थाने भाल्टी० सद्योमरणीयमिन्द्रियं नाम दशमोऽध्यायः ॥१०॥
एकादशोऽध्यायः।
अथातोऽणुज्योतीयमिन्द्रिय व्याख्यास्याम इति हस्माह भग
वानात्रेयः। : अब हम अणुज्योतीय इन्द्रियनामक अध्यायकी व्याख्या करतेहैं इसमकार मंगवान् आत्रेयजी कहनेलगे।
अणुज्योतिरनेकाग्रोदुश्छायोदुर्मनाःसदा ।
रतिनलभतेयातिपरलोकंसमान्तरे ॥१॥ .. " जिस मनुष्यकी ज्योति (कान्ति)क्षीण होजाय, चित्तमें अनेक प्रकारके संकल्प
विकल्प उत्पन्न हों, शरीरकी छाया हीन लक्षावाला होजाय, मन खिन्नसा रहे, किसी समय किसी वस्तुमें भी प्रीति न हो वह मनुष्य एक वर्ष के भीतर परलोककी यात्रा करताहै ॥ १॥
बलिंबलिभुजोयस्यप्रणीतनोपभुञ्जते । लोकान्तरगतःपिण्डंभुङ्क्तेसंवत्सरेणसः॥२॥
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(५८) चरकसंहिका-भा० टी० - जिस मनुष्य के हाथकी दी हुई बलि काग, कुत्ते आद न खातेहों वह मनुष्य एक ___ वर्षके भीतरही परलोकमें प्राप्त हो प्रेतत्वके पिंडको ग्रहण करताहै ॥२॥
सप्तर्षीणांसमीपस्थांयोनपश्यत्यरुन्धतीम् ।
संवत्सरान्तेजन्तुःससम्पश्यतिमहत्तमः ॥३॥ जो मनुष्य सामने आये हुए सप्तऋषियों ( तुलालग्नमें उदय होनेवाले साततारों) को और अरुंधतीको नहीं देखसकता वह मनुष्य एक वर्षके भीतरही यमलोकका दर्शन करताहै ॥ ३॥
विकृत्याविनिमित्तयःशोभामुपचयंधनम् ।
प्राप्नोत्यतोवाविभ्रंशसमान्तनसजीवति ॥४॥ __ जिस मनुष्यके शोभा, स्वभाव, पुष्टि, धन, विना ही कारणसे एकाएक अपने
स्वभावको छोडकर बदलजायँ अर्थात् विकृत होजाय वह मनुष्य एक वर्षके भीतर मृत्युको प्राप्त होजाताहै ॥४॥
भाक्तःशीलस्मृतिस्त्यागोबुद्धिर्बलमहेतुकम् । .
षडेतानिनिवर्तन्तेषद्धिासमरिष्यतः ॥ ५॥ जिस मनुष्यके भक्ति, शील ( स्वभाव ), स्मृति, त्याग, बुद्धि और बल यह विनाही कारणसे बदल जाय उस मनुष्यकी छ: महीनेके भीतर मृत्यु होतीहै ॥५॥
धमनीनामपूर्वाणांजालमत्यर्थशोभनम् ।
ललाटेदृश्यतेयस्यषण्मासान्नसजीवति ॥६॥ ' जिस मनुष्यके ललाटपर अपूर्व और सुन्दर नसोंका जाल दिखाई देने लगता है वह मनुष्य छः महीने में मृत्युको प्राप्त होताहै ॥ ६ ॥
लेखाभिश्चन्द्रवक्राभिर्ललाटमुपचीयते ।
यस्यतस्यायुषः षड्भिर्मासैरन्तसमादिशेत् ॥ ७॥ - जिस नुष्यक मस्तक में चन्द्रमाके समान एक ऊंची रेखासी उठ खही हो वह मनुष्य छः महीने में मरजाताहै ॥ ७॥ .. . ... शरीरकम्पःसंमोहोगतिर्वचनमेवच । : . . . मत्तस्यैवोपलक्ष्यन्तेयस्यमासंनजीवति ॥८॥
जिस मनुष्यका शरीर कांपने लगजाय और बेहोशी उत्पन्न होजाय तथा चलने और बोलनेकी गति.विगडजाय वह मनुष्य एक महीने में मृत्युको प्राप्त होताहै ICH
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इन्द्रवस्थान - अ० ११.
रेतोमूत्रपुरीषाणियस्यमज्जन्तिचाम्भसि । समासात्स्वजनद्वेष्टामृत्युवारिणिमज्जति ॥ ९ ॥
जिस मनुष्यका वीर्य, मूत्र और मल जल में डूबजाता है और अपने मित्रों को भी द्वेषभावसे देखने लगता है वह मनुष्य एक महीने में मृत्युको प्राप्त होजाता है ॥ ९ ॥ हस्तपादमुखञ्चो भौविशेषाद्यस्यशुष्यतः ।
शूयेतेवाविना देहात्सचमासंनजीवति ॥ १० ॥
जिस मनुष्यके हाथ, पांव, मुख, यह विशेषकर सुखजायँ अथवा इनमें सूजन उत्पन्न होजाय परन्तु वह सूजन और देहमें न हो वह मनुष्य एक महीने में मृत्युकों प्राप्त होजाता है ॥ १० ॥
ललाटे मूर्ध्निबस्तौवानीलायस्य प्रकाशते । राजीवालेन्दुकुटिलानसजीवितुमर्हति ॥ ११ ॥
(ers)
जिस मनुष्यके ललाट और मूर्धा (शिर) तथा वस्ति में बालचंद्रमाके समान नीले रंग की और टेढी रेखा उत्पन्न होजाय वह मनुष्य अवश्य मृत्युको प्राप्त. ॥ ११ ॥
प्रवालगुटिकाभासायस्यगात्रमसूरिकाः ।
उत्पाद्याशुविनश्यन्तिनचिरात्सविनश्यति ॥ १२ ॥
जिस मनुष्य के शरीर में मूंगे के वर्णवाली गोल मसूरिका ( शीतल, ) बहुतसी, निकल आयें और वह जल्दी सूखें नहीं तो वह रोगी अवश्य मृत्युको प्राप्त होता है ॥ १२ ॥
ग्रीवावमदबलवाजिह्वाश्वयथुरेवच ।
ब्रघ्नास्यगलपाकश्चयस्यपक्कंतमादिशेत् ॥ १३ ॥ .
जिस मनुष्यकी गर्दनमें अत्यंत पीडा होती हो तथा जीभ सूजजाय, बचें निकल आवें गला पकजाय वह मनुष्य अवश्यही शरीर के अंतको प्राप्त होता है ॥ १३ ॥ संभ्रमोऽतिप्रलापोऽतिभेदोऽस्थनामतिदारुणः । कालपाशपरीतस्यत्रयमेतत्प्रवर्तते ॥ १४ ॥ :
जो रोगी कालरूपी टना यह तीनोंही अति
<
से बंधजाता है उसको भ्रम, प्रलाप, और हड्डियों का
,
रुणरूपसे प्रगट होजाते हैं ॥ १४ ॥
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(८६० )
चरकसंहिता - भा० टी० ।
प्रमुाल्लुश्चयेत्केशान्परान्गृह्णात्यतीवच ।
नरः स्वस्थवदाहारमबलः कालचोदितः ॥ १५ ॥
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जो मनुष्य बेहोशीको प्राप्त होकर अपने केशोंको टवाडता है तथा अन्य मनु'योंसे लिपट जाता है एवं रुग्णावस्था में भी रोगरहित मनुष्योंके समान बहुत भोजन करता है वह क्षीण मनुष्य अवश्य मृत्युको प्राप्त होता है ॥ १५ ॥ समीपेचक्षुषोः कृत्वा मृगयेतांगुलीयकम् । स्मयतेऽपिचकालान्धऊ-र्द्धाक्षोऽनिमिषेक्षणः ॥ १६ ॥ शयनासनादङ्गात्काष्ठात्कुड्यादथापिवा । असन्मृगयते किञ्चित्समान्कालचोदितः ॥ १७ ॥
जो रोगी व्यपने हाथोंकी अंगुलियोंको नेत्रोंके समीप लेजाकर उनको वारवार देखे और विस्मितके समान ऊपरको नेत्र करके किसी विचित्र अवस्थाको देखे · तथा पलक न झपके अथवा अपनी शय्यामें वा अंगोंमें अथवा किसी काष्ठ या दीवार आदिमें जैसे किसी खोधी हुई वस्तुको ढूंढा करते हैं इस तरह वारवार टटोलें और बेहोश होजाय वह मनुष्य कालका प्रेरा हुआ जानना चाहिये ॥ १६ ॥ १७ ॥ आहास्य हसनोमुह्यन्प्रलेढि दशनच्छदौ । शीतपादकरोच्छ्रासोयोनरोनसजीवति ॥ १८ ॥
जो रोगी विना ही कारण हंसे, बिना ही किसी कारणके बेहोश होजाय तथा अपने दांतोंको और होठोंको जीभ से चाटे, जिसके हाथ और पांव ठण्डे हों तथा जो दर्घि श्वास लेता हो वह मनुष्य अवश्य मृत्युको प्राप्त होता है ॥ १८ ॥ आह्वायन्तंसमीपस्थंस्वजनंजनमेववा ।
महामोहावृतमनाः पश्यन्नपिनपश्यति ॥ १९ ॥
जो रोगी अपने समीप बैठेहुए बांधवों को भी अमुक कहां हैं अमुक कहाँ है इस 'अकार बुलावे और मनके महामोहावृत होनेके कारण देखता हुआ भी न देखे अथवा अपने पास बैठे हुए बांधवों को भी न देखकर मेहामोहसे व्याकुल हो और वारंवार . gora as अवश्य मृत्युको प्राप्त होता है ॥ १९ ॥
अयोगमतियोगंवा शरीरेमतिमान्भिषक् ।
P
खादीनां युगपद्दष्टा भेषजंनावचारयेत् ॥ २० ॥
जिस रोगी के शरीर में पांचभौतिक पदार्थोंको हीन देखे अथवा अत्यंत वढे देखे उसकी चिकित्सा न करे ॥ २० ॥
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इन्द्रियस्थान-अ० ११. अतिप्रवृद्ध्यारोगाणांमनसश्चबलक्षयात् ।।
वालमुत्सृजतिक्षिप्रंशरीरीदेहसंज्ञकम् ॥२१॥ रोगोंके अत्यंत बढकर बलवान होनेसे, मन और बलके क्षीण हो जानेसे जीव देहरूपी घरको छोडकर शीघ्र बाहर होजाताहै ॥ २१ ॥
वर्णस्वरावग्निबलंवागिन्द्रियमनोबलम् ।
हीयतेऽसुक्षयेनिद्रानित्याभवतिवानवा ॥ २२ ॥ जव मनुष्यके वर्ण, स्वर, अनि, बल, वाणी,इन्द्रिय और मन इनका बल क्षीणः होजाताहै तब वह मनुष्य या तो अधिक सोता ही रहताहै अथवा जागताही रहवा है तब इस मनुष्यके प्राण शीघ्र नष्ट होजाते हैं ॥ २२ ॥
भिषग्भेषजपानान्नगुरुमित्रद्विषश्चये।
वशगा:सर्वएवैतेबोद्धव्याःसमर्चिनः ॥२३॥ जो मनुष्य-वैद्य, मौषधि, अन्न, पान, माता, पिता आदि गुरुजन,और मित्र आदिकोंसे द्वेष करने लगते हैं कालवश हुए इस प्रकारके मनुष्य एक वर्षके भीतर मृत्युको प्राप्त होजाते हैं ॥ २३ ॥
एतेषुरोगःक्रमतेभेषजंप्रतिहन्यते।।
नैषामन्नानिभुञ्जीतनचोदकमपिस्पृशेत् ॥ २४ ॥ इस प्रकार असाध्य रोगियोंको औषध नहीं देना चाहिये और न इनके अन और जलका स्पर्श करना चाहिये ॥ २४॥
पादाःसमेताश्चत्वारःसम्पन्नाःसाधकैगुणः।
व्यर्थागतायुषोद्रव्याद्विनानास्तिगुणोदयः ॥ २५॥ यदि एकत्रित औषध, वैद्य, परिचारक, रोगी यह सब चिकित्साके चारों पाद साधकगुणोंसे सम्पन्न भी हो तो भी आयुरहित मनुष्यकी चिकित्सा करना वृथा है। जैसे-औषधके बिना गुण नहीं रह सकता उसी प्रकार आयुके विना चिकित्सा भी निष्फल है ॥ २५॥
परीक्ष्यमायुभिषजानीरुजस्यातुरस्यच। ,, आयुर्वेदफलंकृत्स्नमायुह्यनुवर्तते ॥ २६ ॥
वैद्यको चाहिये कि रोगी तथा नीरोग मनुष्यके आयुकी परीक्षा करके हमें चिकित्सा करे। क्योंकि सम्पूर्ण आयुर्वेदका फल आयु ही है । वह आयु देहके
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१८६९)
चरकसंहिता-भाटी। अधीन है इसलिये रोगीका देह तथा आयुकी परीक्षा कर चिकित्सा प्रवृत्त होना चाहिये ॥ २६ ॥
तत्रश्लोकः। क्रियापथमतिकान्ता:केवलंदेहमाप्लुताः।
चिह्रकुर्वतियघोषास्तदरिष्टंनिरुच्यते ॥ २७॥ इति चरकसंहितायामिन्द्रियस्थानेऽणुज्योतीयामंद्रियं समाप्तम्॥११॥
यके उपसंहारमें श्लोक है-क वातादि दोष क्रियामार्गसे अतिक्रान्त हों अथ द चिकित्सा डा. सिद्ध होनेवाले न रहकर केवल शरीरमें प्राप्त हाकरं जिन लक्षणोंको करते हैं उनको अरिष्ट कहते हैं । अर्थात् अवश्य मृत्यु करनेवाले लक्ष 'गोंको आरिष्ट कहते हैं ॥ २७ ॥
इति श्रीमहर्षिचरक० इन्द्रियस्थाने भा० टी० अप्पुज्योतीयमिन्द्रियं नामैकादशोऽध्यायः॥११॥
द्वादशोऽध्यायः।
-CETRGINअथातो गोमयचूर्णीयमिन्द्रियं व्याख्यास्यामः इति हस्माह
भगवानात्रेयः। ___ अब हम गोमयचूर्णीय नामक इन्द्रियाध्यायकी व्याख्या करते हैं इसप्रकार भगबान आत्रेयजी कथन करने लगे।
यस्यगोमयचूणाभंचूर्णमूर्द्धनिजायते ।
सस्नेहेंभ्रश्यतेचैवमासान्तंतस्यजीवितम् ॥ १ ॥ जिस रोगांके मस्तकमें गोबरके चूर्णके समान (चूर्णसा) उत्पन्न होजाय तथा बह चूर्ण चिकनाई युक्त होकर झडे तो उस रोगीका जीवन एक महीनेके भीतर नष्ट होजाताहै ॥१॥ ...; निर्घर्षन्निवयःपादोच्युतांसःपरिधावति । . विकत्यानसलोकेऽस्मिश्चिरंवसातमानवः॥२॥
जिंस रोगीको अपने दोनों पांव आपसमें घिसतेहुएसे भागते प्रतीत होते हों और दोनों कन्धे या छातीके अंश ढीले पडकर गिरेहुएसे प्रतीत हों वह मनुष्य इस विकृतिसे मनुष्यलोकमें अधिक नहीं रह सकता ॥२॥
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इन्द्रियस्थान-अ० १२.. (८६३) यस्यस्नातानुलिप्तस्यपूर्वशुष्यत्युरोभृशम् । ..
आर्टेषुसर्वगात्रेषुसोऽर्द्धमासनजीवति ॥ ३॥ जिस मनुष्पके स्नान करनेपर अथवा चन्दनादि लेपन करनेपर सम्पूर्ण अंग गोले रहते हुए भी छाती झटपट सूखजाय वह मनुष्य पन्द्रह दिनके भीतरमें मृत्युको प्राप्त होता है ॥३॥
यमुद्दिश्यातुरवैद्यःसंवर्तयितुमौषधम् ।
यतमानोनशक्नोतिदुर्लभंतस्यजीवितम्॥४॥ जिस रोगीको योग्य वैद्योंसे अनेक प्रकार चिकित्सा कराई जानेपर भी औष पियें अपना कुछ गुम न करसकें उस मनुष्यका जीवन दुर्लभ ही जानना चाहिये४॥
विज्ञातंबहुशासिद्धविधिवच्चावचारितम् ।
नसिध्यत्यौषधंयस्यनास्तितस्यचिकित्सितम् ॥५॥ जिन औषधियोंका अनेक रोगियोंपर अनेक प्रकारसे अनुभव करचुके हैं और बह तत्काल फल दिखानेवाली हों उन औषधियोंसे योग्य वैद्य विधिपूर्वक अनेक प्रकारसे जिसकी चिकित्सा करे उनसे भी उसको किश्चित लाभ न पहुंचे तो उस रोगीकी चिकित्साही नहीं है ॥ ५॥
आहारमुपयुञ्जानोभिषजासूपकल्पितम्। .
यःफलंतस्यनाप्नोतिदुर्लभंतस्यजीवितम् ॥६॥ जिस रोगीको वैद्यकशास्त्रके अनुसार विधिवत् पथ्य आहार दिया जावे और उस पथ्यका कुछ भी फल न होकर विपरीत गुण उत्पन्न होवे उस रोगीका जीवन दुर्लभ . जानना चाहिये ॥ ६ ॥
दूतपरीक्षा। दूताधिकारेवल्यामोलक्षणानिमुमूर्षताम् ।।
यानिदृष्ट्राभिषक्प्राज्ञःप्रत्याख्येयादसंशयम् ॥७॥ . . अव दूतपरीक्षा वर्णन करते हैं। इस दूताधिकारमें मरनेवाले, रोगियोंके लक्षणोंको दूतको देखनेसेही जानकर रोगीको प्रत्याख्येय (चिकित्सा न करनेयोग्य) कह सकताहै ॥ ७॥
मुक्तकेशेऽथवानग्नेरुदत्यप्रयतेऽथवा । ... भिषगभ्यागतंदृष्ट्वादूतमरणमादिशेत् ॥ ८॥..
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(८६४) चरकसंहिता-० टी०।
यदि दूत शिरके बालोंको छोडाये हुए, नंगशिर, अथवा नंगा हाथसे अपने मुखपर पवन करता हुआ, अपवित्र अवस्थामें वैद्यको बुलाने आवे तो उसको देखकर रोगी मरजावेगा ऐसा समझ लेवे ॥८॥
सुतेभिषजिये दूताश्छिन्दत्यपिचभिन्दति ।
आगच्छन्तिभिषक्तेषांनभरिमनुव्रजेत् ॥९॥ यदि वैद्यं सो रहा हो, अथवा कुछ काट रहा हो या कुछ छेदन कर रहा हो उस समय जो दूत वैद्यको बुलाने आवे तो उसके मालिककी चिकित्सा करने नहीं जाना चाहिये ।। ९॥
जुह्वत्यग्निंतथापिण्डपितृभ्योनिर्वपत्यपि।
वैद्यदूतायआयान्तितेनन्तिप्रजिघांसवः ॥ १०॥ . जब वैद्य अग्निमें हवन कररहाहो अथवा पितरोंके अर्पण श्राद्ध कररहाहो तों ऐसे समय यदि रोगीका दूत बुलाने आवे तो जानलेना चाहिये कि यह दूत - रोगीके प्राणोंका नाशक है ॥ १०॥ .
कथयत्यप्रशस्तानिाचिन्तयत्यथवापुनः ।
वैयेदूतामनुष्याणामागच्छन्तिमुमूर्षताम् ॥ ११ ॥ याद वैद्य किसी प्रकारकी अशुभ वातें कररहा हो अथवा किसी प्रकारकी वितामें मग्न हो तो उस समय जो किसी रोगीका दूत आवे तो वह दूत रोगीके, मृत्युका पूर्वरूप जानना ॥ ११ ॥
मृतदग्धविनष्टानिभजतिव्याहरत्यपि ।
अप्रशस्तानिचान्यानिवैद्यदूतामुमूर्षताम् ॥ १२ ॥ जब वैद्य किसी मरी अथवा जली या नष्ट हुई वस्तुके विषयमें शोचता हों अथवा उसी विषयमें कुछ कार्य करता हो या अन्य किसी निंदित कर्मकी बातचीत कररहा हो उस समय रोगीका दूत वैद्यको बुलाने आवे तो वह रोगीके मृत्युका कारण होताहै ॥ १२ ॥
क्किारसामान्यगुणेदेशकालेऽथवाभिषक् ।।
" दूतमभ्यागतंदृष्टानातुरंतमुपाचरेत् ॥ १३ ॥ · अथवा रोगके समान गुणवाले देश, कालमें अर्थात् जिस प्रकृतिका रोगी हाँ .. उस रोगको वढानेवालाही देश और काल हो तो ऐसे समयमें यदि रोगीका दूत
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इन्द्रियस्थान - अ० १२.
( ८६६ )
वैद्यक बुलाने आवे तो वैद्यको उस समय उसकी चिकित्सा करनेके लिये नहीं जाना चाहिये ॥ १३ ॥
दीन भीतद्रुतत्रस्तांमलिना मसती स्त्रियम् । त्रीन्व्याकृतांश्चपण्डांश्चदूतान्विद्यान्मुमूर्षताम् ॥ १४ ॥
यदि वैद्यको बुलाने रजस्वला अथवा व्यभिचारिणी, मालन, दीन, भयभीत स्त्री अथवा तीन त्रियें मिलकर या जल्दी २ भागीहुई स्त्रियें बुलाने आयें अथवा बुलानेके लिये तीन दूत इकट्ठे होजायं, या विकृत अंगवाला दृत हो अथवा नपुंसक दूत बुलाने आवे तो वैसे दूतोंको देखकर रोगी की मृत्यु जानना चाहिये ॥ १४ ॥ अङ्गव्यसनिनंदूतलिङ्गिनंव्याधितंतथा ।
संप्रेक्ष्य चोग्रकर्माणनवैद्यो गन्तुमर्हति ॥ १५ ॥
यदि वैद्यको बुलाने के लिये अंगहीन अथवा कोई सन्यास आदिका चिह्न वारकिये या रोगी अथवा किसी बिकट कर्मको करनेवाला रोगीका दूत आवे तो ऐसे दूतको देखकर वैद्यको चिकित्सा करनेके लिये जाना उचित नहीं ॥ १५ ॥
आतुरार्थमनुप्राप्तंखरोष्ट्रमथवाहनम् । दूतंदृष्टाभिषग्विद्यादातुरस्यपराभवम् ॥ १६ ॥
यदि दूत वैद्यको बुलाने के लिये गधा, उंट आदि निंदित सवारियों पर चढकर आवे तो ऐसे दूतको देखकर वैद्य रोगीके मरणको जान लेवे ॥ १६ ॥
पलालबुषमांसास्थिकेशलोमनखद्विजान् । मार्जनीं मुसलंशूर्पसुपानद्भग्नविच्युते ॥१७॥ तृणकाष्ठतुषाङ्गारं स्पृशन्तोलोष्टभस्मच । तत्पूर्वदर्शने दूताव्याहरन्ति मुमूर्षताम् ॥ १८ ॥
जब रोगका दूस वैद्यको बुलाने आवे और वह आतेही पहिले पराली, तुष, मांस, हड्डी, केश, लोम, नख, दांत, झाड, मूसल, सूप ( छाज ), जूता अथवा जूतेका टूटा हुआ चमडा, घास, लकडी, किसी प्रकारके अन्नका छिलका या अंगार, मिट्टीका डलो अथवा पत्थरका स्पर्श करे या इनके ऊपर हाथ रक्खे तो ऐसे दूतकों देखतेही रोगका मरण जान लेना चाहिये ॥ १७ ॥ १८ ॥ यस्मिंश्चदूते ब्रुवतिवाक्यं मातुरसंश्रयम् । पश्येन्निमित्तमशुभंतञ्चनानुव्रजेद्भिषक् ॥ १९ ॥
५५
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(८६६) . चरकसंहिता-भा० टी०॥
याद वैद्य दूतसे रोगकि संबन्धमें बातचीत करतेहुए अशुभ शकुनोंको देखे तो उस दूतके साथमें नहीं जाना चाहिये ॥ १९ ॥ : यथाव्यसनिनंप्रेतंप्रेतालङ्कारमेववा।भिन्नंदग्धविनष्टंवातद्वादीनि . वचांसिवा ॥ २०॥ रसोवाकटुकस्तीबोगन्धोवाकौणपोमहान् । स्पोवाविपुलःक्रूरोयद्वान्यदशुभंभवेत् ॥ २१ ॥तत्पूर्वमभितो पाश्यवाक्यकालेथवा पुनः । दूतानांव्याहृतंश्रुत्वाधीरोमरणमा- : दिशेत् ॥ २२ ॥
जब दूत वैद्यके पास बुलानेके लिये आवे और वैद्यसे रोगीके संबंधमें कुछ वातः । चीत करना चाहे तो उसी समय वैद्यके समीप बात करनेसे प्रथमही किसी व्यसन अथवा प्रेतकी बात चलपड अथवा कटेहुए,जले हुए या किसी नष्ट हुएंके विषयकी बात चलपडे । अथवा कडुए और ततिरस तथा मुर्दैकी दुर्गंध या किसी दुष्ट और जर वस्तुका स्पर्श होजाय या अन्य किसी प्रकारका अशुभ हो अथवा कोई सर्प बिच्छू भादि क्रूर जानवर दिखाई दे जाये तो यह अशुभ शकुन दूतकै आनके समय या दूतसे बात चीत करनेसे प्रथम अथवा दूतसे बोलते समय वा दूतळी वात सुननेक अनन्तर हो जाय तो बुद्धिमान् रोगीके सरणको कथन करे अर्थात् ऐसी. अवस्थामें रोगीको मरनेवाला जानकर दूतके साथ न जावे ॥ २०॥ २१ ॥ २२॥
इतिदूताधिकारोऽयमुक्त कृत्लोमुमूर्षताम् ।
पथ्यातुरकुलानाञ्चवक्ष्याम्योत्पातिक पुलः ॥ २३ ॥ . इस प्रकार मरनेवाले रोगियों के विषयमें सम्पूर्णरूपसे दूताधिकार वर्णन करदिया गया है।अब मरनेवाले रोगीको देखनेके लिये जातेहुए मार्गमें होनेवाले तथा रोगीके घरमें होनेवाले अशुभ उत्पातोंका वर्णन करतेहैं ।। २३ ॥
. . अशुभशकुन । अवक्षुतमथोत्क्रुष्टस्खलनपतनंतथा। आक्रोशःसंप्रहारोवाप्रतिषेधोविगर्हणम्॥२४॥ वस्त्रोष्णीषोत्तरासङ्गछनोपानागाश्रयम् । व्यसनदर्शनञ्चापिमृतव्यसनिनंतथा ॥२५॥ . ' जब वैद्य रोगीको देखने के लिये चले तो रास्तमें सामनेसे छींक होना अथवा । अशुभ किलकारीका सुनना या पांवका स्खलन होना अथवा ठोकर खाकर गिर
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इन्द्रियस्थान- म० १२. (८६७) जाना या चिंघाड वा गालीका सुनना या चोट लगना या चलते हुए कोई रोके . अथवा आगेसे कोई ताडना करे या कोई मनुष्य आगेसे कपंडा, पगडी, चद्दर,
छतरी, जूता, आदि मृत्शय्याका सामान लिये मिले अथवा इनमेंसे किसी एक वस्तुको भी लेकर मिले या रास्तेमें किसी प्रकारके व्यसनका दर्शन हो अथवा किसी मरेहुए मनुष्यका रोदन आदि सुनाई पडे या लाश दिखाई देवे तो रोगीको देखनेके लिये नहीं जाना चाहिये ॥ २४ ॥ २५ ॥
चैत्यध्वजपताकालांचूर्णानांपतनानिच । हतानिष्टप्रवादाश्चदर्शनं भस्मपांसुभिः॥ २६ ॥ पथच्छेदोविडालेनशुनासणवापुनः। . मृगद्विजानांकुराणांगिरोदीक्षांनिशंप्रति॥ २७॥शयनासनयानानासुत्तानानांप्रदर्शनम् । इत्येतान्यप्रशस्तानितर्वाण्याहुर्मनीषिणः ॥ २८॥
अथवा वौद्धोंका मन्दिर या देवस्थान,देववृक्ष या ध्वजापताका वा चूना रास्तमें गिराहुआ हो या गिरताहुआ दिखाईदे किसीकी मारनेकी अथवा अन्य प्रकारकी अनिष्ट आवाज सुनाईदे वा रास्तेमें राख या धूल उडती हो या बिल्ली, कुत्ता अथवा सांप वैद्यके आगे रास्ता काटकर निकलजावे या मृग अथवा पक्षियोंका सूर्यके सन्मुख दूर शब्द करना अथवा शय्या, आसन, यान रास्तेमें उलटे पडे देखना इत्यादि सब प्रकारके अशुभौंको बुद्धिमान् वैद्य रोगीको देखनेके लिये जाते समय अशुभ शकुन कहतेहैं ॥ २६ ॥ २७ ॥ २८ ॥
एतानिपथिवैचनपश्यतातरवमनि। .
शृण्वताचनगन्तव्यतदागारविपश्चिता ॥ २९ ॥ वैद्य मागेमें इस प्रकारके अशुभ शकुनोंको देखकर अथवा अशुभ शब्दोंको -सुनकर रोगीके घरको न जावे ॥ २९ ॥
इत्यौत्पातिकमाख्यातंपथिवैद्यविगार्हतम् ।
इमामापिचबुध्येतगृहावस्थांमुमूर्षताम् ॥ ३०॥ इसप्रकार रोगीको देखने जातेहुए मार्गमें होनेवाले अशुभ उत्पातोंका वर्णन कर दियागया है । अब रोगीके घर पहुंचनेपर जो मरनेवालेके उत्पात होतेहैं उनको भी
भवण करो ॥ ३०॥
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(८६८)
चरकसंहिता-मा० टी०॥ प्रवेशेपूर्णकुम्भाग्निमृद्दीजफलसर्पिषाम् । वृषब्राह्मणरत्नानांदेव तानांविनितिम् ॥ ३१ ॥ अग्निपूर्णानिपात्राणिभिन्नानिविशिखा निच । भिषङ्मुमूर्षतांवेश्मप्रविशन्नेवपश्यति ॥ ३२ ॥
जब वैध रोगीके घरमें प्रवेश करें उस समय रोगीके घरसे जलका भरा कलश आग्ने, मृत्तिका, फल, बीज, घृत, बैल, ब्राह्मण, रस्न और देवता आदिको बाहर निकलते देख तथा उसके घरके पात्रोंको अग्निसे भरेहुए, फूटेहुए, विना गलेके देखें तो समझे कि इस रोगीका मरण होनेवाला है ॥ ३१ ॥ ३२ ॥
छिन्नभिन्नविदग्धानिभमानिमुदितानिच ।।
दुबलानिचलेवन्तेमुमूर्षावैश्मिकाजनाः ॥ ३३ ॥ अथवा रोगीके घरके मनुष्य-छिन्न, भिन्न ( फूटे टूटे ), जलेहुए; फटेहुए,मलिन और दुर्बल वस्त्र आदि अशुभ द्रव्योंको धारण किये बैठे हों एवं अशुभ शब्दोंका करते हों तो रोगीका मृत्यु समीप जानना ॥ ३३ ॥
शयनवसनयानंगमनंभोजनरुतम्।
श्रूयतेऽमङ्गलंयस्यनास्तितस्यचिकित्सितम् ॥ ३४ ॥ : जिस रोगीको शय्या बिछाते समय, वस्त्र पहिनाते समय अथवा वैठते, उठते, चलते, फिरते, भोजनफरते समय रोनेकी अथवा अशुभ आवाज आती हो उस रोगीकी कोई चिकित्सा नहीं है ॥ ३४॥
शयनंवसनयानमन्यद्वापिपरिच्छदम् ।
प्रेतवद्यस्यकुर्वन्तिसुहृदःप्रेतएवसः॥३५॥ जिस रोगीके सुहृद्गण सोना,बैठना,उठना,वस्त्र पहिनाना,वा अन्य सब कर्म मरे हुएके समान करते हों उसको मराहि जानना चाहिये ।। ३५ ॥
अनंव्यापद्यतेऽत्यर्थज्योतिश्चैवोपशास्यति।
निवातेसेन्धनयस्यतस्यनास्तिचिकित्सितम् ॥ ३६ ॥ निस रोगीके लिये पथ्य आदि बनाते हुए किसी न किसी प्रकारका अशुभ उपः द्रव होजाय जिससे पथ्य बननेमें कोई विघ्न होजाय तथा विनाही पवनकेलगे लकी. आदि रहते हुए भी अग्नि बुझजाय अथवा तेल बत्ती रहतेहुए भी बिनाही कारण: दीपक बुझजाय उस रोगीकी चिकित्सा नहीं है अर्थात् वह मरजानेवाला है ॥३६
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इन्द्रियस्थान-अ०.१२. (८६९) आतुरस्यगृहेयस्यभिद्यन्तेवापतन्तिवा।
अतिमात्रममत्राणिदुर्लभतस्यजीवितम् ॥ ३७॥ जब वैद्य रोगीके घरमें पहुंचे तब यदि किसी बर्तन आदिका फूटना अथवा मट्टी, पत्थर बरसना आदि अत्यंत अमंगल उत्पात हों तो उस रोगीका वचना दुर्लभ जाने ॥ ३७॥
भवतिचात्र। यहादशभिरध्यायैासतःपरिकीर्तितम् । मुमूर्षतांमनुष्याणांलक्षणंजीवितान्तकृत् ।। ३८॥ तत्समासेनवक्ष्यामिपायान्तरमाश्रितम् । पर्यायवचनंह्यर्थविज्ञानायोपपद्यते ॥ ३९ ॥
अंब यहां कहतेहैं कि, मरणासन्न मनुष्यों के जीवनका अंत करनेवाले जो लक्षण इन बारह अध्यायोंमें विस्तारपूर्वक कथन करचुकेहैं उनको स्थानकी समाप्तिमें पर्याय भेदसे संक्षेप रूपमें वर्णन करतहैं। क्योंकि पर्यायद्वारा दूसरीवार कहाजानेसे पढने बालोंको अर्थविज्ञानका सहज उपाय होजाता है ॥ ३८॥ ३९॥ . इत्यर्थपुनरेवेयंविवक्षानोविधीयते।
'तस्मिन्नेवाधिकरणेयत्पूर्वमभिदर्शितम् ॥ ४०॥ . जिस विषयको हम पहिलेही इस इन्द्रियस्थानमें वर्णन करचुके हैं उसी विषयकों फिर वर्णन करतहैं ॥ ४० ॥ वसतांचरमेकालेशरीरेषुशरीरिणाम्। अत्युग्राणांविनाशायदेहेभ्यः प्रविवसताम् ॥ ४१ ॥ इष्टांस्तितिक्षतांप्राणान्कान्तवासंजिहाल, ' ताम् । तन्त्रयन्त्रेषुभिन्नषुतमोऽन्त्यप्रविविक्षताम् ॥ ४२ ॥ विनाशायेहरूपाणियान्यवस्थान्तराणिच । भवन्तितानिवक्ष्यामियथोदेशयथागमम् ॥४३॥ शरीरमें रहते हुए शरीरियोंके अन्तकालके समय शरीरके नष्ट करनेके लिये जो अत्यंत उग्र विकृतियां उत्पन्न होती हैं और देहरूपी यंत्रमें छिन्नभिन्नता उत्पन्न होकर प्राणोंको त्यागनेवाले और शरीररूपी घरको छोडकर प्रस्थान करनेवाले,अपने प्रिय शरीरको छोड देनेवाले, कालके मुखमें पडनेवाले, प्राणोंको त्यागनेवाले,माणि. योंके शरीरमें वा इन्द्रियोंमें अथवा अन्य शरीर संबंधी तंत्रों में शरीरके विनाशके
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(८७०)
'चरकसंहिता-भा० टी० लिये जो रूपांतर उत्पन्न होते हैं उन सबको शास्त्रानुसार यथा उद्देश वर्णन करते. हैं ॥४१॥४२॥ ४३ ॥
प्राणा:समुपतय्यन्तेविज्ञानमुपरुध्यतो वमन्तिवलमङ्गानिचेष्टा व्युपरमन्तिचः॥४४॥इन्द्रियाणिविनश्यन्तिखिलीभूतेवचेतना । ओत्सुक्यं भजतेसत्त्वंचेतोभीराविशत्यपि ॥४५॥स्मृतिस्त्यजति मेषाचहीश्रियौचापसर्पतः। उपप्लवन्तेपाप्मानओजस्तेजश्चनश्यति ॥ ४६॥
जैसे-प्राणोंको उपताप हो, ज्ञान नष्ट हो जाय, अंग वलहीन होजायँ, संपूर्ण . चेष्टा जातीरहे, इन्द्रिये नष्ट होजाय, चैतन्यता जाती रहे, मन व्याकुल होजाय,चित्त'
भयातुर होजाय, स्मृति जाती हे तथा मेधा, कांति, लज्जा यह सब नष्ट होजायें: . उपद्रवरूपी पापोंका प्रवेश हो, अज और तेज सव नष्ट होजायें यह सव यमलोक. जानेवाले मनुष्योंके लक्षण होते हैं ॥ ४४ ॥ ४५ ॥ १६ ॥
शीलंव्यावर्ततेऽत्यर्थभत्ति.श्वपरिसर्पते। विक्रियन्तेप्रतिच्छायाश्छायाश्चविरुतिंगताः॥४७॥शुक्रप्रच्यवतेस्थानादुन्मार्गभजतेऽनिलः। क्षयंमांसानिगच्छन्तिगच्छत्यसृगुपक्षयम् ॥४८॥ ऊ माणःप्रलयंयान्तिविश्लेषंयान्तिसन्धयः।गन्धाविकृततांयान्ति भेदवर्णस्वरौतथा॥४९॥वरस्यंमजतेकायःकायश्छिद्रविशुध्यति
धूमलनायतेमनिंदारुणाख्यश्चचर्णकः ॥ ५॥ .. — स्वभाव अत्यंत बिगडजाय,भक्ति जातीरहे,छाया और प्रतिच्छायामें विकाग्युक्त
लक्षण होनेलगे. अथवा स्थानसे वीर्य गिरताहो वायु अपने स्थानोंको छोड उलट 'मागाँसे गमन करने लगजाय, मांस क्षीण होजाय,रक्त नष्ट होजाय, शरीकी गरमी,
शान्त होजाय, संपूर्ण संधिये ढीली पडजायँ,गंधमें विकृति होजाय, वर्ण और स्वर बिगडजाय, शरीर विरस होजाय, संपूर्ण शरीरमें छिद्रोंकी उत्पत्ति होजाय अथवा । शरीरके छिद्र सुखजायँ, मस्तकसे धुआंसा निकले और मस्तकपर गोबरके चूर्णके समान दारुण चूर्णसा उत्पन्न होजाय यह सब शरीर त्याग करनेवाले रोगियोंके. लक्षण है ॥ ४७ ॥ ४८ ॥ ४९ ॥ ५० ॥ .
सततस्पन्दनादेशाःशरीरयेऽभिलक्षिताः। तेस्तम्भानुगताःसर्वेन . चलन्तिकथञ्चन॥५१॥गुणाःशरीरदेशानांशीतोष्णमृदुदारुणा
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(८७१)
· इन्द्रियस्थान - अ०-१२. विपर्य्यासेन वर्त्तन्तेस्थानेष्वन्येषुतद्विधाः ॥ ५२ ॥ नखेषुजायते पुष्पंपङ्कोदन्तेषुजायते। जटाः पक्ष्मसुजायन्तेसीमन्ताश्चापिमूर्द्धनि ॥ ५३ ॥ भेषजानिन संवृत्तिंप्राप्नुवन्तितथारुचिम् । यानिचाप्युपपद्यन्ते तेषांवीर्य्यं न सिध्यति ॥ ५४॥ नानाप्रकृतयः क्रूराविकाराविविधौषधाः ॥ ५५ ॥
शरीर के कई भागों में फडकन उत्पन्न होजाय अथवा शरीरके कई स्थान सोयेंदुए से सुन्न रहजायँ, हृदयकी गति अथवा धमनीकी गति बंद होजाय, या देह सब अंगोंका स्तंभ होकर हिलने चलनेसे बंद हो जायँ, शरीरके सब अंगों की शीतलत गरमी, नरमाई, कठोरपन यह सब विपरीतं भावको प्राप्त होज. यँ, अपने २ स्थानों गुणोंको छोड देवें । दूसरे अंगोंमें अन्य प्रकारके गुण उत्पन्न होजायें, नखपर फुल - डियेंसी पडजायें, दांतों पर कीचसा जमजाय; पलकों की जटेंसी बंधजायँ, शिर केशों में अपूर्व भौरिसी पडजायँ जिन औषधियोंको लेने जाय वह न मिलें अथवा अपना गुण न करें या उनके अनुरूप क्रिया न होसके तथा जो औषधियोंके द्वारा रा साध्य न हों ऐसे अनेक प्रकारके उपद्रव होजायँ । अथवा जिनमें अनेक प्रकारकी अलभ्य औषधियोंकी आवश्यकता पडे इस प्रकार के भयंकर और विरोधी विकार उत्पन्न होजायँ तो ऐसे लक्षणवाले रोगी प्रायः अवश्यही कालके मुखमें पडनेवालें होते हैं ॥ ५१ ॥ ५२ ॥ ५३ ॥ ५४ ॥ ६५ ॥
क्षिप्रंसमभिवर्त्तन्ते प्रतिहत्यबलौजसी शब्दः स्पर्शोरसोरूपं गन्धश्रेष्टाविचिन्तितम् ॥ ५६ ॥ उत्पद्यन्तेऽशुभान्येवप्रतिकर्मप्रवृत्तिषु । दृश्यन्तेदारुणाः स्वप्ना दौरात्म्यमुपजायते : ॥ ५७ ॥ प्रेष्याः प्रतीपतां यान्तिप्रेताकृतिरुदीर्य्यते । प्रकृतिर्हीय तेऽत्यर्थं विकृतिश्चाभिवर्द्धते ॥ ५८ ॥
रोगी के शब्द, स्पर्श, रस, रूप, गंध, और चेष्टा तथा अपकर्म यह सब अपनी २ शीघ्र गतिसे प्रवृत्त होजायँ जिससे रोगीका वल और मोज नष्ट होजाय । चिकित्सा करने के लिये प्रवृत्त होनेके समय अनेक प्रकारके अशुभ उपद्रव उत्पन्न होजायँ तथा खोटे दारुण स्वप्न दिखाई देनेलगें। और रोगी सबसे विनाही कारण द्वेष करने लगे aur प्रेष्य (नौकर चाकर) सब प्रतिकूल होजायें, रोगकि सब लक्षण मरेशु एकै समान होजायँ, शरीर के सब स्वभाव बिगडजायँ, वैकारिक स्वभाव उत्पन्न हो जायँ । यह सब मृत्युके ग्रास होनेवाले रोगियोंके लक्षण होते हैं ॥ ५६ ॥ ५७ ॥ ५८ ॥
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.. (६८७२)
चरकसंहिता-मा० टी०। कृत्स्नमौत्पातिकंघोरमरिष्टमपलक्ष्यते । .. इत्येतानिमनुष्याणांभवन्तिविनशिष्यताम् ॥ ५९॥
तथा संपूर्ण लक्षण घोर उत्पातकेसे होने लग जायँ । यह संपूर्ण लक्षण विना. शको प्राप्त होनेवाले मनुष्य के होतेहैं ॥ ५९॥ लक्षणानियथोद्देशयान्युक्तानियथागमम् । मरणायेहरूपाणिपश्यतापिभिषाग्विदा ॥६० ॥ अपृष्टेननवक्तव्यमरणप्रत्युपस्थितम् । पृष्टेनापिनवक्तव्यंतत्रयापघातकम् ॥ ६१ ॥ आतुरस्यभवेदुःखसथवान्यस्थकस्यचित् । अध्रुवंमरणंयस्यनैनमिच्छेचिकित्सितुम् । यस्यपश्येद्विनाशायलिङ्गानिकुशलोभिषक् ॥ ६२॥
यह सम्पूर्णलक्षण शास्त्रानुकूल और अपने उद्देश्य के अनुसार कथन करदियेगले है । इन मरणख्यापक रूपोंको देखतेहुए भी विना पूछे वैद्यको किसीके पास नहीं कहना चाहिये । और पूछनेपर भी यह अवश्य मरजायगा इस प्रकार नहीं कहना चाहिये और खासकर जिस जगह रोगी और रोगीके घरवाले हों. उस स्थानमें तो कहनाही नहीं चाहिये क्योंकि ऐसा खोटा शब्द कहनेसे रोगीको अत्यन्त दुःख होताहै और उसके घरवालों में भी व्याकुलता उत्पन्न होजाती है। जव वैद्य किसीको मरनेके लक्षणोंवाला देखे तो कहे कि इस समय हम इसकी चिकित्सा नहीं करसकते परन्तु यह कभी न कहे कि यह मरजायगा क्योंकि यदि दैवयोगसे वह वचजाय तो वैद्यको बडीमारी हानि पहुंचती है इसलिये कुशलवैद्य अपने मुखसे रोगीके पास य रोगियों संबन्धियोंके पास उसके मरणकी बात न कहे ॥ ६०॥ ६१ ॥ ६२ ॥
___ साध्यरोगीके लक्षण। लिङ्गेभ्योमरणाख्यभ्योविपरीतानिपश्यता। लिङ्गान्यारोग्यमागन्तुर्वक्तव्यंभिषजाध्रुवम् ॥ ६३ ॥ दूतैरौत्पातिकैीवैःपथ्यातुरकु. लाश्रयः । आतुराचारशीलेष्टद्रव्यसम्पत्तिलक्षणैः ॥ ६४॥ . जिस रोगीके कोई लक्षण उपरोक्त लक्षणों मेंसे न हों अर्थात् ऊपर कहुए सब अशुभ लक्षणोंसे विपरीत शुभ लक्षण दिखाई देते हों तथा अन्य किसी प्रकारके ::उत्सात न होते हों एवं दूतसम्बन्धी वा मार्गसम्बन्धी, कुलसम्बन्धी, पथ्यसम्बन्धी किसी प्रकारके अशुभ लक्षण न हों तथा रोगीके आचार, स्वभाव, इन्द्रियादि द्रष्टः ज्य विषय और शारीरिक सम्पत्ति इन सबके शुभ लक्षण हों तो वह रोगी अवश्य नाराग होजाताहै ऐसा वैद्यको कहना चाहिये ॥ ६३ ॥ ६४॥
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इन्द्रियस्थान-अ० १२० (८७३) स्वाचारहृष्टमव्ययशस्यंशुक्लवाससम्।अमुण्डमजदंदूतंजातिवेशक्रियासमम् ॥६५॥ अनुष्ट्रखरयानस्थमसन्ध्यास्वग्रहेषुच । अदारुणेषुनक्षत्रेष्वनुग्रेषुध्रुवेषुच ॥ ६६ ॥ विनाचतुर्थीनवमींविनारिक्ताश्चतुर्दशीमामध्याह्नञ्चार्द्धरात्रञ्चभूकम्पराहुदर्शनम् ॥६७॥
यदि दूत शुद्ध आचारवाला,प्रसन्न, सर्वांगसम्पन्न, यशस्वी, श्वेत वस्त्रोंको धार'णकिये, न शिर मुंडा और न जटोंवाला, अपनी जातिके अनुकूल वेष और क्रियावाला हो तथा गधे,ऊँट आदि सवारियों पर न चढा हो,संध्याके समय अथवा क्रूरसमयमें न आया हो, खोटे नक्षत्रमें, उग्रनक्षत्रोंमें ध्रुवसंज्ञक नक्षत्रोंमें (ज्येष्ठा, मूल, आदि उग्रनक्षत्र एवं उत्तराभाद्रपद, उत्तराषाढा आदि नक्षत्रोंके उदयमें) न आया हो तथा चतुर्थी नवमी, चतुर्दशी इन रिक्ता तिथियोंमें मध्यानके समय अथवा आधीरात्रिमें जब भूकम्प होरहा हो उस सयय तथा ग्रहणकालमें न आया हो तो वह दूत शुभ जानना ॥६५॥ ६६ ॥ ६ ॥
बिनादेशमशस्तञ्चशस्तोत्पातिकलक्षणम् । .
. दूतंप्रशस्तमव्यग्रनिर्दिशेदागतंभिषक् ॥६॥ • तथा वेसमय, निन्दितस्थानमें और निन्दित वस्तुओंको बिनाछए, उत्पातकें लक्षणोंके विना शुभ समयमें शुभदेशमें शुद्ध चित्तवाला दूत यदि वैद्यको बुलाने आवे तो उत्तम जानना चाहिये ॥ ६८ ॥ । दध्यक्षतद्विजातीनांवृषभाणांनृपस्यच । रत्नानांपूर्णकुम्भानांसि . तस्यतुरगस्यच ॥६९ ॥ सुरध्वजपताकानांफलानांयाचकस्यच । कन्यानांवर्द्धमानानांबद्धस्यैकपशोस्तथा॥ ७० ॥ पृथिव्याउछुतायाश्चवहःप्रज्वलितस्यच । मोदकानांसुमनसांशुक्लानांचन्दनस्थच ॥७॥मनोज्ञस्यानपानस्यपूर्णस्यशकटस्यच । नृभिधेन्वाः सवत्सायावडवाया:स्त्रियास्तथा ॥ ७२ ॥
रागार्क घरको जातेसमय वैद्यको दही, अक्षत, ब्राह्मण, बल, राजा, रत्न जल: . अरे घट, सफेद घोडा, आगे मिले अथवा इन्द्रधनुष, ध्वजा, पताका, हल,याचक, बढनेवाली कन्या, बंधाहुआ पशु, खुदीहुई भूमि,प्रज्वलित अमि, मोदक, सफेदफूल, • सफेद चंदन, मनोज्ञ अन्नपान और मनुष्योंसे भराहुआ शकट (छकडा ) बछडे;
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(८७४) चरकसंहिता-मा० टी० । वाली गौओंको आगे किये मनुष्य,बच्चेवाली घोडी,लडकेको गोदमें लिये स्त्री इन सबका आगे मिलना रोगीकी मारोग्यताके लिये शुभ होताहै६९॥७०॥७१।७२।३. जीवञ्जीवकसिद्धार्थसारसप्रियवादिनाम् । हंसानांशतपत्राणांचा.. षाणांशिखिनांतथा ॥ ७३ ॥ मत्स्याजद्विजशंखानांप्रियङ्गूनांघतस्यच । रोचिष्कादर्शसिद्धानांरोचनायाश्चदर्शनम् ॥७४ ॥
तथा जविन्तशिाक, जीवक, सफेद सरसों अथवा सारस पक्षी, चकोर,चातक, हंस, शतपत्र (खुटकबडहिया) पक्षी,या गुलावके फूल अथवा शतपत्री (कमल); '. नीलकण्ठ, मोर,मछली,बकरी, श्वेतवस्त्रोंको धारणकिये ब्राह्मण,शंख, प्रियंगु, घृत, नमक, दर्पण, सिद्ध, गोरोचन इनका दर्शन होना रोगीको आरोग्य करनेवाला शुभः लक्षण जानना ।। ७३ ॥ ७४ ।। गन्धःसुरभिवर्णश्चसुशुक्कोमधुरोरसः। मृगपक्षिमनुष्याणांप्रशस्ताश्वगिरःशुभाः ॥७५॥ छत्रध्वजपताकानामुत्क्षेपणमभिप्लतिः ।। भेरीमृदङ्गशंखानांशब्दाःपुण्याहनिस्वनाः ॥७६॥ वेदाध्ययनशब्दाश्चसुखोवायु प्रदाक्षणः। पथिवेश्मप्रवेशेतुविद्यादारोग्यलक्षणम् ॥ ७७॥
सुगंधित पदार्थ, सुन्दर वर्णवाले श्वेत पदार्थ, मीठे रस, मृग, पक्षी और मनुः प्योंकी शुभवाणी, छत्र, ध्वजा और पताकाका ऊपरको उठाना, भेरी और मृदंग आदिका शब्द, शंखध्वनि, पुण्याहवाचन आदिका मधुरस्वर, वेदाध्ययनका शब्द, सुन्दर सुखदायी दहिनी ओरका पवन यह सब शकुन वैद्यको रोगीके घरको जावे: हुए या रोगीके घरमें प्रवेश करते हुए होना रोगीकी आरोग्यताका लक्षण जानना चाहिये ॥ ७५ ॥ ७६ ॥ ७७ ॥ मङ्गलाचारसम्पन्नःसातुरोवैश्मिकोजनः। श्रद्दधानोऽनुकूलश्चप्रभू तद्रव्यसंग्रहः ॥७८ ॥ धनैश्वर्य्यसुखावाप्तिरिष्टलाभःसुखेनच । द्रव्याणांतत्रयोग्यानांयोजनासिादिरेवच ॥ ७९ ॥
रोगीके घरमें संपूर्ण मनुष्य मंगलाचारसे संपन्न हों और सब श्रद्धावान हों और अनुकूल हों तथा चिकित्साके उपयोगी सब द्रव्य विधिवत् संग्रह किये हों.
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. इन्द्रियस्थान-अ० १२. (८७५), और रोगी भी शुभगुणसंपन्न हो एवं धन, ऐश्वर्य, मुख इनसे संपन्न हो और जिस वस्तुकी उस जगह इच्छा की जाय वह सुखपूर्वक झट प्राप्त होसकती हो ऐसे स्थानमें वैद्य योग्य औषधियोंके द्वारा चिकित्सा करे तो शीघ्र सिद्धिको प्राप्त होता है ॥ ७८ ॥ ७९ ॥
गृहप्रासादशैलानांनागानांवृषभस्यच । हयानांपुरुषाणाञ्चस्वप्ने समधिरोहणम् ॥८०॥ सोमार्काग्निद्विजातीनांगवानृणांयशस्विनाम् । अर्णवानांप्रतरणवद्धिःसम्बाधनिःसृतिः ॥ ८१॥ ' . .
जो रोगी स्वममें घर, महल, पर्वत,हाथी, बैल, अथवा घोडेके ऊपर चढे तथा . चंद्रमा, सूर्य, अग्नि, ब्राह्मण और गौको देखे एवं यशस्वी पुरुषों से मिलाप करे, समुद्रको तैरकर पार हो किसी बडे भारी संकटमेंसे छूटे तो अवश्य आरोग्यताको प्राप्त होताहै ॥ ८० ॥ ८१॥ स्वप्नेदेवैःसपितृभिःप्रसन्नैश्चाभिभाषणम् । दर्शनंशुक्लवस्त्राणांइदस्यविमलस्यच ॥ ८२॥ मांसमत्स्यविषामध्यच्छत्रादर्शपारग्रहः । स्वप्नेसुमनसाश्चैवशुक्लानादर्शनंशुभम् ॥ ८३ ॥ एवं स्वममें देवता और पितरगणों को प्रसन्न देखना और प्रसन्नतापूर्वक भाषण सुनना, सफेद वस्त्रोंका देखना, निर्मल तालावका देखना, मांस, मछली, विष और अपवित्र वस्तुओंको, तथा छत्री और दर्पणको ग्रहण करना, सफेद फूलोको देखना यह स्वम रोगीके लिये शुभकारक होतेहैं ।। ८२ ॥ ८३ ॥
अश्वगोरथयानश्चयानंपूर्वोत्तरेणच । रोदनपतितोत्थानद्विषताञ्चावमर्दनम् ॥ ८४॥
- इसी प्रकार घोडा, गौ, और रथमें चढना तथा उनपर चढकर पूर्व या उत्तरको दिशामें जाना, रोना और शत्रुको जीतना यह सब स्वन शुभकारक होतेहैं ।।८४॥
रोगमुक्तलक्षण। सत्त्वलक्षणसंयोगाभक्तिवैद्यद्विजातिषु ।। साध्यत्वनचनिवेदस्तदारोग्यस्यलक्षणम् ॥ ८५ ॥
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(७६)
चरकसंहिता-मा० टी०। . अब रोग मुक्तके लक्षणोंको कहते हैं । मन प्रसन्न होना, शरीरमें चैतन्यता : प्रतीत होना; वैद्य और ब्राह्मणोंमें भक्ति होना, रोगमें साध्यता उत्पन्न होकर शरीरमें किसी प्रकारकी पीडा या ग्लानि न होना यह आरोग्यताके लक्षण हैं । अर्थात जब मनुष्य रोगसे छूटकर आरोग्य होजाताहै तब उसके यह लक्षण होतेहैं ॥८॥ - आरोग्याइलमायुश्चसुखञ्चलभतेमहत् ।
इष्टांश्चाप्यपरान्भावान्पुरुषःशुभलक्षणः ॥८६॥ आरोग्य होनेसे मनुष्य वल आयु तथा महान् सुखके लाभको प्राप्त होताहै । तथा अन्य भी उत्तम २ भावोंको वह शुभलक्षण पुरुष प्राप्त होताहै ॥ ८६ ॥
. तत्रश्लोकः। उक्तंगोमयचीयेमरणारोग्यलक्षणम् ।
दतस्वप्नातुरोत्पातयुक्तिसिद्धिव्यपाश्रयम् ॥ ८७ ॥ यहां अध्यायके उपसंहारमें एक श्लोक है कि, इस गोमयचूर्णीय नामक अध्यायमें रोगीके मरनेके और आरोग्यताके लक्षणोंका कथन कियागयाहै तथा दूत और स्वप्न और उत्पात तथा वैद्यकी सिद्धिके आश्रित लक्षणोंक्षा कथ कियागयाहै ।। ८७॥
__भवतिचान । इतीदमुक्तंप्रकृतंयथातथातदन्ववेक्ष्यसततमिषग्विदा। तथाहिलिद्धिञ्चयशश्चशाश्वतंससिद्धकर्मालभतेधनानिच ॥८॥
इति चरकसंहितायामिन्द्रियस्थानं समाप्तम् ॥ यहां यह श्लोक है कि,इस इन्द्रियस्थानमें जो संपूर्ण तत्त्व जिसप्रकार मनुष्यकी प्रकृति और विकृतिक विषयमें वर्णन कियागयोहै । वैद्यलोगोंको यह सब जिस २ प्रकार वर्णन कियागया है उसको जानकर इन संपूर्ण लक्षणोंको देखना चाहिये । इस प्रकार करनेसे वैद्यको सिद्धि और स्वच्छ यश तथा धनकी प्राप्ति होती है और वह सिद्धकर्मा होजाताह ॥ ८८ ॥ इति श्रीमहर्षिचरकप्रणीतायुर्वेदसंहितायामिन्द्रियम्थाने टकसालनिवासिपं०रामप्रसादवैद्यो. पाध्यायविरचितप्रसादन्याख्यभाषाटीकायां गोमयचूर्णीयमिन्द्रिय नाम .
द्वादशोऽध्यायः ॥ १२ ॥
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इन्द्रियस्थान ५.
(८७७)
दोहा।
मनुजनके जीवन मरण, विषयक पूरण ज्ञान ॥ जानाचाहैं भिषक् जो, पढलें इन्द्रिय स्थान ॥ १॥ द्वादश अध्यायन विषे, ऋषिजन वाक्य विचार ।। सो प्रसादनीयुत भयो, तिलकित भलेप्रकार ॥२॥ वैद्यजननको चाहिये, राखें नित निज ध्यान ॥ ऋषिप्रणीत इस तंत्रमें, पूरण पंचमस्थान ॥ ३ ॥
॥ इतीन्द्रियस्थानं पञ्चमम् ॥
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जाहिरात। क्रय्य पुस्तकें-(वैद्यक-ग्रन्थाः )।
नाम.
....
'की. रु. भा. अष्टाङ्गहृदय-(वाग्भट) मूल मोटा अक्षर वाग्भट विरचित '.... ५-० अष्टाङ्गहृदय-(वाग्भट) वाग्भटविरचित तथा पं० रविदत्तकृत भाषाटीकासहित और पं० ज्वालाप्रसादजी मिश्र संशोधित। ....
१०-० अमृतसागर-हिन्दीभाषामें-विना गुरु छोटे नगरोंमें दवाखाना कर:
सक्ते हैं । इसमें सर्व रोगोंका वर्णन और यल लिखेगये हैं ग्लेज कागज .... .... .... .... ... ३-८ , तथा रफ कागज
३-० अर्कप्रकाश-( रावणकृत) भाषाटीकासमेत । इसमें नानाप्रकारके , यन्त्रोंसे औषधियोंका अर्क खींचना और गुणवर्णन भलीप्रकार कियागयाहै. ग्लेज कागज ... ... .... १-८
तथा रफ कागज .... .... ..... .... १-४ अनुपानदर्पण-भाषाटीकासमेत । इसमें रस-धातु बनानेकी किया ।
और अनुपान देना तथा रोगों पर औषधों में क्या २ अनुपान देना । यह सब वर्णित हैं. ....
.... १-० अनुभूतयोगावली-चिकित्साग्रन्थ । इसमें अनुभव कीहुई हरेक रोगकी उत्तम उतम औषधियां वर्णित हैं
.... ०-१२ अजीर्णतिमिरभास्कर-भाषामें-क्याखूव रामप्रसाद कृत अजीर्णमञ्जरी-भाषाटीकासहित । इसमें किन २ चीजोंका अजीर्ण किन २ चीजोंके सेवनसे दूर होताहै इत्यादि विषय भलीप्रकार लिखे हैं
... .... .......... -४ आयुर्वेदसुषेणसहिता-भाषाटीकासहित । इसमें सामान्य औषधीवर्ग, • धान्यवर्ग, पयवर्ग इत्यादिकोंका गुण-दोष वणित है. आयुर्वेदचिन्तामणि-भाषाटीकासहित। पं० बलदेवप्रसाद मिश्र संगृहीत २-८
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जाहिरात |
नाम.
6060
: इलाजुलगुवा - नूतन मथुराका छपा है औषधीक्रिया - मराठी भाषाटीकासमेत । "आर्यभिषकूपुस्तकावली" मेंसे यह स्वतन्त्र निकाला गया है | मराठी भाषा जाननेवालों को परमोपयोगी है. अंजननिदान - भाषाटीकासमेत । इसमें सुगमता से रोगका निदान
....
0800
लिखा है,
6330
6000
6000
www.
....
....
कल्पपञ्चकप्रयोग- भाषाटीकासमेत । इस ग्रन्थमें चोपचीनीकल्प रुद्रवन्तीकल्प, रागदमनीयकल्प, शिवलिङ्गीकल्प, तथा पलाशकल्पा
0.00
त्मक भी हैं, -करिकल्पलता-छन्दोबद्ध - हिन्दी भाषामें । केशवसिंहजी तअल्लुकेदार रचित । इसमें - हाथियों के शुभाशुभलक्षण व उनके रोगनाशार्थ अनेक औषधिविधान चित्रोंसमेत वर्णित हैं कामकुतूहल- भाषा टीकासमेत । इसमें शरीरकी क्षीणतादिमें अपूर्व
2007
....
दवाइयोंका संग्रह है. -कामरत्न - योगेश्वर नित्यनाथप्रणीत और विद्यावारिधि पं० ज्वालाप्रसादजी मिश्रकृत भाषाकासमेत । इस ग्रन्थमें कामशास्त्रादि विषय और रोगोंकी औषधि तथा वाजीकरण औषधी अनुभूत हैं और वशीकरणादि प्रयोगभी हैं -कालज्ञान-भाषाटीकासमेत इस ग्रन्थका सम्पूर्ण अभ्यास करनेसे भूठ,
भविष्य, वर्त्तमानका ज्ञान होता है
...
10.0
- क्याखूवडिबिया - ( जर्राहीयोग) चौबे क्याखूबजीकी हमेशा पास रखने योग्य है देखनेसे मालूम होसकेगा, कुमारतन्त्र - रावणकृत मूल तथा भाषाटीकासमेत । इसमें बालकों की दवाइयोंका अपूर्व वर्णन है. कूटमुद्गर - सटीक संस्कृत. कूटमुद्गर - भाषाटीकासमेत. गुणोंकी पिटारी - काशीनिवासी स्वामी परमानन्दने बड़े परिश्रमसे हिन्दीभाषा में बनाई है । इसमें अनेक प्रकारकी धातुओंके फूंकने व सेवन करने व सिन्दूरादिके बनाने तथा साबुन, पारा, गन्धक और सिंगरफ वगैरह के वर्तनोंके बनानेके परमोपयोगी नानाप्रका रके तरीके भी लिखेगये हैं
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9000
की. रु. आ.
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बनाई हुई
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१-१२
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०-४
०-८
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०-३
०-३
· १-०
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जाहिरात |
नाम.
गौरीकांचालिकातन्त्र - भाषाटीकासमेत । इसमें तन्त्र, मन्त्र और
दवाइयोंका संग्रह परमोपयोगी लिखा गया है. चक्षुरक्षक- इसमें नेत्र संबंधी दवाइयों का खजाना है. चर्याचन्द्रोदय - भाषा टीकासमेत । इसमें - व्यंजन बनाने की क्रिया
6606
6880
लिखी है.
....
2000
....
2009
चक्रदत्त - भाषाटीका सहित । इसमें और चिकित्साओंके अलावां तैल
साधनादि प्रकार बहुत अच्छा लिखा है
चरकसंहिता - टकसाल निवासी वैद्यपञ्चानन पं० रामप्रसाद वैद्योपाध्यायकृत प्रसादनी भाषाटीकासहित । चरकके आठोंस्थान एकसे एक अपूर्व होनेपर भी " चिकित्सास्थान" तो अद्वितीय है । उसमें नीरोग मनुष्य के लिये वे सहजप्रयोग लिखे हैं कि, वह कभी बीमारही न हो और रोगी चिकित्सा करनेपर तत्काल नीरोग हो । वैद्यमात्रको यह ग्रन्थ अवश्य संग्रह करना चाहिये पहलेसे अवकी बार बहुत बडा है जिस की सुन्दर सुनहरी दो जिल्द बँधी हैं २०-० चिकित्सांजन - भाषाटीकासमेत । इसमें ज्वर, खांसी, कुष्ठ, भगंदरादि कठिन रोगोंकी बहुत उत्तम चिकित्सा वर्णित है चिकित्साधातुसार-हिन्दीभाषा में धातू फूँकनके उत्तमोत्तम प्रयोग
०-१२
....
6430
9000
9339
लिखे हैं
जर्राहमिकाश - चारोंभाग । जर्राहीके उपकारार्थ जर्राहीसम्बन्धी संस्कृत, उर्दू तथा डाक्टरी आदि अनेक ग्रन्थोंके आधारसे
....
1419
9300
....
....
....
1000
विभूषित ज्वर तिमिरनाशक - भाषाटीका - सर्वप्रकारके दवाइयों का संग्रह है. डाक्टरीचिकित्सासार - भाषामें संक्षिप्त डाक्टरी निघण्ट. डाक्टरी चिकित्सार्णव- बडा - हिन्दीभाषा में - प्रत्येक रोगोंका डाक्टरी मतसे और साथ २ देशी वैद्यके मतसे नाम, लक्षण, रोगनिदान और उपाय आदि लिखे गये हैं । सारांश डाक्टरी सीखने के लिये यह पुस्तक परमोपयोगी है
...
600.
0.00
0.00
की. रु. आ.
moo?
0-6
०-१॥
२-८
४००
०-६
3-6
१-०
०-१०
२-०
पुस्तकें मिलनेका ठिकानाखेमराज श्रीकृष्णदास, 'श्रीवेंकटेश्वर" स्टीम् प्रेस - बंबई.
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