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________________ (२०६) चरकसंहिता-भा० टी। और यहां यह भी कहा जाताहै कि प्रमेहके बिना भी मेदके दूषित होनेसे यह विद्रधिय उत्पन्न होजाती है। जब तक यह विद्रधियां जड नहीं वांधलेती अर्थात् अपना नमाव नहीं करलेती तब तक पहिचानी नहीं जासकतीं ॥ ९९ ॥ शराविकाकच्छपिकाजालिनीचेतिदुसहाः। . जायन्तेताह्यतिवला:प्रभूतश्लेष्ममदसाम् ॥ १० ॥ शरांविका, कच्छपिका और जालनी, यह तीन प्रकारको पिडका अतिनुःसह होतीहैं और कफप्रकृति तथा मेदस्वी शरीरमें यह पिडका अतिवलपूर्वक होतीहैं१०० सर्पपीचालजीचैवविनताविद्रधीचयाः। सद्यःपित्तोल्वगास्ताहिसम्भवन्त्यल्पमेदसाम् ॥ १०१ ॥ सर्षपी, अलनी, और विनता, तथा बाह्य विद्रधि यह पिडका पित्तप्रधान होती हैं और साध्य हैं, तथा अल्पमेदवाले शरीरमें होतीहैं ॥ १०१ ॥ इनकी साध्यासाध्यता। मर्मस्वंसेगुदेपाल्योःस्तनेसन्धिषुपादयोः । जायन्तेयस्यपि. डकाःसप्रमेहीनजीवति॥१०२॥तथान्याःपिडकाःसन्तिरक्तपीतासितारुणाः। पाण्डुराःपाण्डुवर्णाश्चभस्माभामेचकप्रभाः १०३॥ - मृदयश्चकठिनाश्चान्या:स्थूलाःसूक्ष्मास्तथापराः। मन्दवेगामहावगाःस्वल्पशूलामहारुजाः ॥ १०४ ॥ जिस प्रमेहपीडित मनुष्पके मर्मस्थान, कंधा, गुदा, पाली, स्तन, संधि और पैरामें पिडका होनावे उसकी अवश्य मृत्यु होती है ॥ १०२ ॥ इनके सिवाय अन्य पिडका (फोडे) भी अनेक प्रकारकी होतीहैं । वह पिडका-पीली, लाल, सफेद, किंचित् लाल, भूरी, पाण्डुरङ्गकी, भस्मके रङ्गकी, मेचकके रंगकी, कोई नरम, कोई कठोर, कोई छोटी, कोई वडी, कोई मंदवेगवाली, कोई शीघ्र वेगवाली, कोई अल्प पीडावाली, कोई महापीडावाली होती है ।। १०३ ॥ १०४ ॥ ताबुद्धामारुतादीनांयथाखेहतुलक्षणैः ॥ बृयादुपाचरेच्चाशुप्रागुपद्रवदर्शनात् ॥ १०५॥ उन पिरकायाको वातादिकांके हेतु लक्षगांद्वारा जानकर वातज, पित्तज, कफज, सन्निपातन, जो हो सो करें और उत्पन्न होते ही उपद्रव वढनेसे पहले यत्न करे ॥ १०५॥
SR No.009547
Book TitleCharaka Samhita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamprasad Vaidya
PublisherKhemraj Shrikrushnadas Shreshthi Mumbai
Publication Year1923
Total Pages939
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Medicine
File Size48 MB
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