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सूत्रस्थान - अ० १७.
पिडिकाओंके उपद्रव |
तृश्वास मांससंकोथमोहहिकामदज्वराः । वीसर्पमन्दसंरोधाः पिडकानामुपद्रवाः ॥ १०६ ॥
प्यास, श्वास, मांसका पचना, मोह, हिचकी, मद, ज्वर, विसर्प, हृदयका रुकासा होना, यह पिडकाओं के उपद्रव होते हैं ।। १०६ ॥
दोषोंकी त्रिविध गति ।
क्षयः स्थानंच वृद्धिश्च दोषाणांत्रिविधागतिः । ऊर्ध्वञ्चाषश्चतिक्चविज्ञेयात्रिविधापरा ॥ १०७ ॥ त्रिविधाचापराकोष्ठशाखामर्मास्थिसन्धिषु । इत्युक्ताविधिभेदेन दोषाणां त्रिविधा गतिः ॥ १०८ ॥
क्षीण होजाना, साम्यावस्थामें रहना, और बढजाना, दोषों ( वातपित्तकफ ) की यह तीन प्रकारकी गति होती हैं । ऐसे ही ऊर्ध्वगमन, अधोगमन, तिर्यक् गमन, एक यह गति हैं । इनसे सिवाय कोष्ठगति, शाखा ( रक्तादि ) गति, और मर्म, अस्थि, संधिमें गति, यह अन्य तीन प्रकारकी गति हैं । इस प्रकार वातादि दोषोंकी विधिभेदसे तीन प्रकारकी तीन गतियां हैं ॥ १०७ ॥ १०८ ॥ दोष का चयकोपोपशम । चयप्रकोपप्रशमाः पित्तादिनिांयथाक्रमम् । भवन्त्येकैकशः षट्सु कालेष्वागमादिषु ॥ १०९ ॥
वर्षा आदि छः ऋतुओंमें क्रमपूर्वक पित्त, कफ और वात इनमें एक २ के संचय प्रकोप और उपशम होते हैं । अर्थात् वर्षांमें पित्तका संचय, शरदमें कोप, हेमंतमें शमन, शिशिर में कफका संचय, वसन्तमें कोप, ग्रीष्म में शांति, एवं ग्रीष्ममें वायुका संचय, वर्षांमें कोप, और शरदमें उपशम होता है ॥ १०९ ॥ गतिः कालकृताचैषाचयाद्यापुनरुच्यते ।
गतिश्चद्विविषादृष्टाप्राकृतावैकृताचया ॥ ११० ॥
यह वय आदि गति अर्थात दोषों का संचय, प्रकोप, उपशम यह त्रिविध गति कालकृत कही जाती है । वह कालकृत गति भी प्राकृत और बैकृत भेदसे दो प्रकारकी है ॥ ११० ॥
पित्ताढपूष्मोष्मणः पक्तिर्नराणामुपजायते । तच्चपित्तंप्रकुपितंविकारान्कुरुते बहून् ॥ १११ ॥
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