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________________ (६४४ ) चरकसंहिता - भा० डी० ॥ तक्ष्ण होजाती है । उस समय दोषों के अत्यन्त नर्म होनेसे और औषधका तीक्ष्ण स्वभाव होजानेसे तथा शरीरके मृदु होनेसे संशोधनका अतियोग होजाता है। शरीरमें भी पिपासा आदि उपद्रव उत्पन्न होजाते हैं ॥ १४८ ॥ वर्षामें निषेध | वर्षासुतुमेघजालावतते गूढार्कचन्द्रतारेधाराकुलेवियतिभूमौ पङ्कजलपटलसंवृत्तायामत्यथों पक्लिन्नशरीरेषु भूतेषुविहतस्वभावेषुचकेवलेष्वोषधग्रामेषुतोयदानुगतमारुतसंसगापहतेषुगुरुप्रवृत्तीनिवमनादीनि भवन्ति । गुरुसमुत्थानानिशरीराणि । तस्माद्वमनादीनांनिवृत्तिर्विधीयतेवर्षान्तेषुऋतुषुनचेदात्ययि केकर्म ॥ १४९ ॥ वर्षाऋतु आकाश मेघजालसे सदैव आच्छादित रहता है, सूर्य, चन्द्रमा, तारागण मेघोंसे ढके रहते हैं । पृथ्वी कीचड और जलसे संवृत्त होती हैं, उस समय मनुष्यों के शरीर अत्यन्त आर्द्रतायुक्त होते हैं तथा औषधियों के स्वभाव विहत होजाते हैं तथा वर्षा जल और वायुसे उपहत स्वभाव होजाती हैं उससमय वमनादिक कर्म करनेसे उनकी अधिक प्रवृत्ति होती है । इसलिये वर्षाऋतु में किसी अत्यावश्यकता के विना चमन आदि कर्म नहीं करने चाहिये ॥ १४९ ॥ आत्ययिकेपुनः कर्म्मणिकाममृतुंविकल्प्यकृत्रिम गुणोपधानेन यथर्त्तुगुणविपरीतेन भैषज्यंसंयोगसंस्कारप्रमाणविकल्पेनोपपाद्यप्रमाणवीर्य्यससंकृत्वा ततः प्रयोजयेदुत्तमे नयत्नेनावहितः १५० ป यदि ऐसी ऋतुओं में शोधन करानेकी किसीप्रकार आवश्यकता पडजाय ता युक्तिपूर्वक उस ऋतुके गुणोंके विपरीत भाव उत्पन्न कर संयोग, संस्कार और प्रमाण विकल्पते औषध कल्पनाकर सब भावको समान बना सावधानीसे औषध. प्रयोग करनाचाहिये ॥ १५० ॥ कार्यकालनिर्णय | आतुरावस्थास्वपितृकार्याकार्य प्रतिकालाकाल संज्ञातद्यथा अस्यामवस्थायामस्य भेषजस्यकालोऽकालः पुनरस्यति ॥ १५१ ॥ .N. . रोगीको अवस्थामैभी कार्य, अकार्य, काल और अकालकी संज्ञा जाननी चाहिये जैसे इस अवस्थामें इस औषधका समय है अथवा नहीं है ॥ १५१ ॥
SR No.009547
Book TitleCharaka Samhita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamprasad Vaidya
PublisherKhemraj Shrikrushnadas Shreshthi Mumbai
Publication Year1923
Total Pages939
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Medicine
File Size48 MB
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