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दहन कियाजायत्त पीडा होती है तो यह कफकी विद्वाना), अरुचि, स्तम
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चरकसंहिता-भा० टी०। पूर्वक शीघ्र पाकको प्राप्त होती है । इसलिये वही विदाही होनेसे विद्रधि कही जातीहै ॥ ८७-९१॥
व्यवच्छेदभ्रमानाहशब्दस्फुरणसर्पणः । वातिकीपत्तिकी तृष्णादाहमोहमदज्वरैः । जुम्भोक्लेशारुचिस्तम्भशीतकैः श्लैष्मिकीविदुः ॥ ९२ ॥ सर्वात्वासुमहच्छूलंविद्रधीषूपजायते । ततःशस्वैर्यथामथ्येतोल्मुकरिवदह्यते । विद्रधीव्यम्लतांयातावृश्चिकैरिवदश्यते ॥ ९३ ॥ वेधने और छेदनेकी सी पीडा, भ्रम, अफारा, शब्द, फडकना, सरसराहट, यह लक्षण वातकी विद्रधिमें होते हैं । प्यास, दाह, मोह, मद, तथा ज्वर यह पित्तकी विद्रधिम होतेहैं । जंभाई, उत्क्लेश (वमनको जी चाहना), अरुचि, स्तंभ, इनका होना तया विद्रधिका शीतल होना यह कफकी विद्रधिमें होतेहैं। इन सब प्रकारकी विद्रधियाम अत्यंत पीडा होतीहै । जैसे तपेहुए शस्त्रसे मथाजाय अथवा अंगारसे दहन कियाजाय ऐसा प्रतीत होताहै । जब विद्राधे परिपाकको प्राप्त होती है तो विच्छूके काटनेकी सी पीडा होताहै ॥ ९२ ॥ ९३ ॥
तनुरूक्षारुणस्रावफेनिलंवातविद्रधी । तिलमापकुलत्थोदसनिभपित्तविद्रधी ॥ ९४ ॥ श्लैष्मिकीस्रवतिश्वेतंवहुलंपिच्छिलंबहु । लक्षणंसर्वमेवैतद्भजतेसान्निपातिकी ॥९५ ॥ वातकी विद्रधि अल्प, रूखा, लाल, झागदार स्राव होताहै । पित्तकी विद्र धिमें तिल, उडद, अथवा कुलथीके काथकी समान स्राव होता है । कफकी विद्रधिमं-त, पिच्छिल,बहुत और गाढा स्राव होताहै । सन्निपातकी विद्रधिम तीनों दोपीके लक्षण होतेहैं ।। ९४ ॥ ९५ ॥
स्थानभेदसे विद्रधिलक्षण । अथासांविद्रधीनांसाध्यासाध्यविशेषज्ञानार्थस्थानकतंलिङ्गादिशेपमुपदेक्ष्यामः। तत्रप्रधानमर्मजायांविद्रध्याहृनतमकप्रमोहकासालोमजायांपिपासामुखशोपगलग्रहाः । यकृजायां श्वासः । प्लीहजायामुच्छासोपरोधः।कुक्षिजायांकुक्षिपार्थान्तरांसगुलम् । वृकजायांपाश्वपृष्टकटिग्रहः नाभिजायांहिका वंक्षणजायां सक्थिसादावस्तिजायांकृच्छूमत्रपतिवर्चस्त्वंचेति९६