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________________ (८४) चरकसंहिता-भा० टी०। देकर एक अंश और कम करे, इस प्रकार चार चार दिनके अंतरसे एकरअंश कम करते२ अहित पदार्थको त्यागदेवे । इसी प्रकार एकर अंश वढाते हुए हित पदार्थका . अभ्यास करे । ऐसे ही जो २ अवगुण ( दोष) हों उनको क्रमसे छोडता २ त्यागदेवे । और गुणोंको क्रमपूर्वक अभ्यास करते २ ग्रहण करलेवे । ऐसा करनेसे गुण . निश्चल हो शरीरमं निवास करते हैं और दोष अपना बल नहीं करसकते॥३४.३६॥ वातादिकी समता विषमता। समपित्तानिलकफाः केचिद्गर्भादिमानवाः । दृश्यन्तेवातलाः केचित्पित्तलाःश्लेष्मलास्तथा ॥३७॥ तेषामनातुराःपूर्वेवातलाद्याःसदातुराः।दोषानुशयिता ह्येषांदेहप्रकृतिरुच्यते ॥३८॥ विपरीतगुणस्तेपांस्वस्थवृत्तेविधिर्हितः । समसवरसंसात्म्यं समधातोःप्रशस्यते ॥३९॥ कोई पुरुष ऐसे भाग्यवान् होते हैं जिनके शरीरमें गर्भसे ही वात, पित्त, कफ, साम्यावस्थावाले होते हैं। किसीकी प्रकृति वातकी, किसीकी पित्तकी, तथा किसीकी कफमधान होतीहै । इन सव मनुष्योंमें पहले कहेहुए (समप्रकृतिके) नीरोग रहतेहैं और वाकी तीन सदा रोगी रहतेहैं । जिसके शरीरमें जो दोष प्रधान होताहै उसके अनुसार उसकी प्रकृति कही जाती है।३७ ॥३८ ॥ जिनके शरीरमें वातादि दोष बढेहुए हैं उनके शरीरमं वायुआदि दोषोंसे विपरीत गुणवाली क्रिया हितकारक होतीह (असे वातप्रकृतिवालेको उष्ण और निग्ध तथा लवणरसयुक्त पदार्थाका सेवन हितकर है)। और जिसके शरीरम वातादिक और धातुसाम्य हो उसके शरीरमं तो सब रस सात्म्य (शरीरानुकूल ) ही होतेहैं ।। ३९ ।। शरीरगत छिद्रांका वर्णन । द्वेअधःसप्तशिरसिखानिस्वेदमुखानि च। - मलायनानिवाध्यन्तेदुष्टेर्मात्राधिकैर्मलैः ॥४०॥ शरीरके नचिके भागमें गुदा, लिंग यह दो मलमार्ग होतेहै । ऊपरके भागम दों नेत्र. दो कान, दो नासिका, एक मुख यह सात मलमार्ग होते हैं और इनसे अन्य रोममार्ग पसीना निकालनेके मार्ग हैं।इन सबको मलमार्ग कहते हैं । मल दुष्ट होने अथवा अधिक होनसे मलमागीको दूपित करते हैं ॥ ४० ॥ मलवृद्धि आदिका ज्ञान । मलवृमिंगुरुत्वेनलाघनान्मलसंक्षयम् । मलायनानांबुच्येतल होत्सगतिविच ॥ ११ ॥
SR No.009547
Book TitleCharaka Samhita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamprasad Vaidya
PublisherKhemraj Shrikrushnadas Shreshthi Mumbai
Publication Year1923
Total Pages939
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Medicine
File Size48 MB
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