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________________ (२३२) घरकसंहिता-भा० टी०। वैद्यको उचित है कि मधुर, अम्ल, लवण, निग्ध और उष्ण द्रव्य द्वारा वातकी चिकित्सा करे । वातनाशक स्वेदन, स्नेहन, आस्थापन, अनुवासन, नस्यकर्म, - उष्णस्निग्धभोजन, अभ्यंग, उत्सादन और परिषेक आदिसे मात्रा और काल विचारकर वायुको जोते । वातनाशक सब क्रियाओंमें वैद्य लोग आस्थापन और अनुवासन वस्तिकर्मको ही मुख्य मानतेहे ॥ १४ ॥ तयादितएवपक्वाशयमनुप्रविश्यकेवलंवैकारिकंवातमूलंछिनत्ति । तत्रावजितवातेऽपिशरीरान्तर्गतावातविकाराःप्रशान्तिमापद्यन्ते । यथावनस्पते लेछिन्नस्कन्धशाखावरोहकुसुमफलपलाशादीनांनियतोविनाशस्तद्वत् ॥१५॥ (क्योंकि) आस्थापन और अनुवासन कर्म पक्काशयमें प्रवेश करके विकार करनेवाले वायुको जडसे ही नष्ट कर देताहै । जब पक्काशयस्थ वैकारिक वायु नष्ट होजाता है फिर वातजन्य विकार स्वयं शांतिको प्राप्त होजातेहैं । जैसे वृक्षकी जड काटदेनेसे उसके टहने, टहनियां,अवरोह,फूल, फल,पत्ते आदि सव स्वयं विनाशको प्राप्त होजाते हैं। ऐसे ही पक्वाशयस्थ वायुके उच्छेदसे सब वातविकार शांत होजा. तेहैं ।। १५॥ पित्तके ४० रोग। पित्तविकाराश्चत्वारिंशदतऊर्द्धव्याख्यास्यन्ते।तद्यथा-ओषश्च, प्लोषश्च, दाहश्च, दवथुश्च, धूमकश्च, अम्लकश्च, विदाहश्च, अन्तर्दाहश्च,अंसदाहश्च,ऊपमाधिक्यञ्च,अतिस्वेदश्चाङ्गगन्धश्च, अङ्गावयवदरणञ्च, शोणितक्लेदश्च, मांसक्लेदश्च, त्वग्दाहश्च, मांसदाहश्च, त्वङ्मांसदरणञ्च, चर्मदरणञ्च, रक्तकोठाश्च, रक्तविस्फोटाश्च, रक्तपित्तञ्च, रक्तमंडलानिच, हरितत्वञ्च, हारिद्रत्वञ्च, नीलिकाच, कक्षाच, कामलाच, तिक्तास्यताच, पतिमुखताच, तृष्णायाआधिक्यञ्च, अतृप्तिश्च,आस्यपाकश्च, गलपाकश्च, आक्षिपाकश्च, गुदपाकश्च,मेट्रपाकश्च, जीवादानञ्च,तमःप्रवेशश्च, हरितहारिद्रमृत्रनेत्रवर्चस्त्वञ्चेतिचत्वारिंयात्पित्तविकाराः। पित्तविकाराणामपरिसंख्येयानामाविष्ठततमात्याख्याताभवन्ति ॥ १६ ॥
SR No.009547
Book TitleCharaka Samhita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamprasad Vaidya
PublisherKhemraj Shrikrushnadas Shreshthi Mumbai
Publication Year1923
Total Pages939
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Medicine
File Size48 MB
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