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चरकसंहिता-भा० टी०।
जौ गेहूं आदिका मद्य । सुरासमण्डारूक्षोष्णायवानांवातपित्तला।
गुर्वीजीयतिविष्टायश्लेष्मलस्तुमधूलकः ॥ १०४॥ जवोंसे बनाहुआ मद्य-तथा उसका मंड-रूक्ष, उष्ण,वातपिचकारक, भारी तथा देरमें जीर्ण होनेवाला होताहै । मधूलकनामक मद्य कफकारक होताहै ॥ १८४ ॥
सौवीर-तुषोदकके गुण । दीपनंजरणीयञ्चहृत्पाण्डुक्रिमिरोगनुत् ।
ग्रहण्यशोहितंभदिसौवीरकतुषोदकम् ॥ १८५॥ सौवीरक (कांजीका भेद ) और तुषोदक यह दोनों दीपन, पाचन, हृद्रोग, पांडुरोग एवम् कृमिरोगनाशक, मलवेधक तथा ग्रहणी और अर्शरोगमें हिवका: रक होतेहैं ॥ १८५ ॥
अम्लकांजिकके गुण । दाहज्वरापहंस्पर्शात्पानाद्वातकफापहम् ।
विबन्धनमवित्रंसिदीपनश्चाम्लकाधिकम् ॥ १८६ ॥ खट्टी कांजी-स्पर्शसे दाहज्वरनाशक अर्थात् इसमें कपडा भिगोकर रोगीके शरीरपर लपेटनेसे ज्वरकी दाह शान्त होतीहै,पीनेसे वात,कफ,विबंध,मलबद्ध इनको नष्ट करतीहै तथा अग्निको दीपन करतीहै ॥ १८६ ॥
नवीन और पुराने मद्यके गुण । प्रायशोऽभिनवंमद्यगुरुदोषसमीरणम्॥स्त्रोतसांशोधनंजीर्णदीपनलघुरोचनम् ॥ १८७ ॥हर्षणंप्रीणनंबल्यंभयशोकश्रमापहम् ॥ प्रागल्भ्यवीर्यप्रतिभातुष्टिपुष्टिबलप्रदम् ॥ सात्त्विकैविधिवद्युक्त्यापीतंस्यादमृतयथा। १८८५ वर्गोऽयंसप्तमोमद्यमधिकृत्यप्रकीर्तितः॥ १८९॥ .
इतिमद्यवर्गः॥ प्रायः नवीन मद्य-भारी और दोषकारक होती है। पुरानी मद्य-स्रोतोंको शुद्ध करनेवाली, पाचन, दीपन, हलकी, रुचिकारक, हर्षकर्ता, पुष्टिजनक, बलवईक, भयकारक,शोकोत्पादक,भ्रमनाशक, वकवादकारक, वीर्यवर्द्धक तथा हृष्टपुष्ट करने वाली होतीहै । विधिपूर्वक पीनेसे-अमृतके समान होतीहै । इस प्रकार मद्यवर्ग- . नामक यह सातवाँ वर्ग समाप्त हुआ। इति मद्यवर्गः॥ १८७ ॥ १८८॥ १८९ ॥