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________________ . . ...... ... शारीरस्थान-०२. . (९५) . (उचर ) रोग तीन प्रकारके कारणों से उत्पन्न होताहै जैसे प्रज्ञापराध और मेमा स्प इन्द्रियासयोग तथा परिणाम काल । यह तीन रोगके उत्पत्तिके कारण हैं। इसीप्रकार संपूर्ण रोमोंकी शान्तिके भी तीनही उपाय हैं। जैसे ज्ञान सात्म्य, इन्द्रियार्थसंयोग, और कालका उचिवयोग । धर्मके काम करना आनन्दके देत हैं। और यावन्मात्र पापकर्म दुःखके कारण हैं। शारीरिक और मानसिक रोग रजोगुण और तमोगुणकी निवृत्ति होजानेपर शरीर और मनकी निवृत्ति होकर फिर उत्पन्न नहीं होते क्योंकि शरीर और मनकी जो धारावाही संतति है वह कहांसें हुई मोर कव उत्पन्न हुई इसप्रकार उसका कोई भादि क्रम नहीं है। परंतु परसंधृति भौर यौगिक स्मृति तथा बुदिकी विमलता होनेसे उन शारीरिक और मानसिक रोगोंकी सदाके.. हिये निवृत्ति . होजातीहै अर्थात् मोक्ष होजानेसे वह फिर कभी दु:खमुख नहीं भोगता ॥ ३८ ॥ ३९॥४०॥ दैवका लक्षण । सत्याश्रयेवाद्विविधेयथोक्तपूर्वगभ्यःप्रतिकर्म नित्वम् । . : जितेन्द्रियनानुपतन्तिरोगास्तत्कालयुक्तयादनास्तिदेवम्॥४१॥ देवपुरायत्कृतमुच्यतेतुतत्यौरुषंयत्त्विहकमदृष्टम् । प्रवृत्तिहेतुविषमःसदृष्टोनिवात्तहेतुस्तुसमःसएव ॥ ४॥ शरीर और, मन. यह दो प्रकारके रोगोंके स्थान कथन कियेहैं । अर्थात् संपूर्ण रोग शरीर और मनके आश्रय हैं। यदि मनुष्य जितेन्द्रिय और अपनेको वंशमें रखवा हुआ रोगोंसे प्रथमही यलवान रहे-मर्थात अहितका सेवन न करे तो प्रारब्धके आधीन आवश्यक कालमें होनेवाली व्यापिके.सिवाय और कोई रोग उत्प नहीं नहीं होसकता । पूर्वजन्मके.कियेहुए कर्मको प्रारब्ध कहते हैं । इस जन्ममें जो पुरुषार्थ कियाजाताहै उसको कर्म कहतेहैं । धर्मका सेवन करना रोगोंके निवृत्त होनेका कारण है और अधर्मका सेवन रोगोंकी प्रवृत्तिका कारण है अथवा विषम संयोगसे रोगोंकी प्रवृत्ति मौर. समसंयोगले आरोग्यताकी प्राप्ति होती हैं४१५४२॥ ऋतुओंके रोगोंका शमन । हैमन्तिकंदोषवयंवंसन्तप्रवाहयन्यैष्मिकमभ्रकाले। .. . धनात्यये वार्षिकमाशुसम्यक्प्राप्नोविरागानृतुजान्नजातु ॥४३॥ हेमन्तकालमें संचिवहर दोषोंको वसन्तकारमें शोधन कर देना चाहिया और श्रीमकालमें संचितहुए दोषोंको प्रावृटकाल में तथा वर्षाकालके संचिवहुए दोपोंकों
SR No.009547
Book TitleCharaka Samhita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamprasad Vaidya
PublisherKhemraj Shrikrushnadas Shreshthi Mumbai
Publication Year1923
Total Pages939
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Medicine
File Size48 MB
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