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सूत्रस्थान अ० २६. (२९९) अम्लोरसोभक्तंरोचयति, आग्निंदपियति, देहव्यति, जर्जरयति, मनोबोधयति, इन्द्रियाणिदृढीकरोति, बलंवर्द्धयति, वातमनुलोमयति, हृदयंतर्पयति, आस्यंसंस्रावयति, भुक्तमपकर्षयति, केदंजनयति, प्रीणयतिलघुरुष्णःस्निग्धश्च॥६०॥ खट्टा रस अन्नमें रुचि, अग्निको दीपन, देहमें पुष्टि करताहै। नीर्णकारी है, मनकों वोधन करताहै, इन्द्रियोंको दृढ करताहै, बलकी वृद्धि करताहै, वायुको अनुलोमन करताहै, हृदयको तृप्त करताहै, मुखको स्रावण करताहै, आहारको नीचेकी ओर खींचताहै, क्लेदको उत्पन्न करताहै, प्रीणन करताहै एवम् लघु उष्ण तथा तीक्ष्ण गुणयुक्त है ॥ ६॥
सएवंगुणोऽप्येकएवात्यर्थमुपयुज्यमानोदन्तान्हर्षयतितर्पयति, समीलयतिआक्षणी, संवीजयतिलोमानि, कफविलापयति, पित्तमभिवर्द्धयति, रक्तंदूषयति, मांसंविदहति, काशिथिलीकरोति, क्षीणक्षतकृशदुर्बलानांश्वयथुमापादयति । अपि चक्षताभिहतदष्टभग्नशूलिच्युतावमृदितपरिसर्पितमार्दतच्छिनविद्धोस्पिष्टादानिपाचयत्याग्नयस्वभावात्पारदहातिकण्ठमुरो हृदयश्च ॥ ६१॥ इस प्रकारके गुणवाला अम्लरस अत्यन्त और निरंतर सेवन करनेसे दंतहर्ष रोग करताहै । भोजनमें अनिच्छा, नेत्रसंमीलन और रोमहर्षको उत्पन्न करताहै । अपने स्वभावमें स्थित कफको पतला करताहै, पित्तको बढाताहै, रक्तको दूषित करताहै, मांसको विदग्ध करताहै, शरीरको शिथिल करताहै । क्षीण, क्षत, कृश, तथा दुर्वल मनुष्योंके शरीरमें सूजन उत्पन्न करताहै । यह रस आग्नेय गुण प्रधान होनेसे क्षत, आहत, दष्ट, दग्ध, भग्न, शूलाहत, प्रच्युत, मृदित, परिसर्पित, मर्दित, छिन्न, विद्ध, उत्पिष्ट स्थानोंमें पाकको उत्पन्न करताहै तथा अपने स्वभावसे कण्ठ, छाती एवम् हृदयमें दाहको उत्पन्न करताहै ॥ ६१ ।।
लवणोरसःपाचनःकेदनोदीपनश्च्यावनश्छेदनोभेदनस्तीक्ष्णः सरोविकास्यधावस्यवकाशकरोवातहर स्तम्मबन्धसंघातविधमनःसर्वरसप्रत्यनीकभूतआस्यविस्त्रावयति, कफविष्यन्दय