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(३००) चरकसंहिता-भा० टी०॥ ति, मार्गाञ्चोधयति, सर्वशरीरावयवान्मृदूकरोति, रोचयत्याहारमाहारयोगीचात्यर्थगुरुः स्निग्धउष्णश्च ॥ १२ ॥ लवण रस-पाचन है, क्लेदन है; दीपन है, च्यावन है, छेदन है, तीक्ष्ण है, सर है, विकाशी है, संसन है भ्रंसन है, वातनाशक है, स्तम्भनाशक है,विवंधके संघातको नष्ट करताहै, सवरसोंसे विपरीत है, मुखको त्रावण करताहै, कफको पतला करताहै, छिद्राको शोधन करताहै शरीरके संपूर्ण अवयाको नम्र करताहै, आहा. रमें रुचि प्रगट करताह तथा भोजनका अत्यंत उपयोगी है एवम् गुरु, स्निग्ध और उष्ण गुणमधान है ॥ ६२ ॥
सएवंगुणोऽप्येकएवात्यर्थमुपयुज्यमानः पित्तंकोपयति, रक्तंवर्द्धयति, तर्पयति, मूर्च्छयति, तापयति, दाहयति, कुष्णाति मांसानि, प्रगालयतिकुष्ठानि, विषवर्द्धयति, शोफान्स्फोटयति, दन्ताञ्छ्यावयति, पुंस्त्वंमुपहन्ति, इन्द्रियाण्युपरुणद्धि, वलीपलितखालित्यमापादयतिच, लोहितपित्ताम्लपित्तवीसपंवातरक्तविचार्चकेन्द्रलुप्तप्रभृतीन्विकारानुपजनयति ॥ ६३ ॥ इन गुणांवाला होनेपर भी लवण रस अधिक सेवन करनेसे पित्तको कुपित करताह. रक्तविकारको बढाताहै, और तुषा, मूछी, ताप, दाह, मांसमें खुजली इनको उत्पन्न करताह । कुष्टोको प्रगलित करताहै, विषके वेगको बढाताहै, सूजनोंको फटीहुईसी बनाताहै, दांतांको काला करताहै, पुरुषार्थको नष्ट करता है,इन्द्रियांका उपरोध करता है, शरीरमें सलवट, केशोंका सफेद होना, शिरमें गंजापन इन रोगोंको उत्पन्न करताहै तथा रक्तपित्त, अम्लपित्त, विसर्प, वातरक्त, विचचिंका, और इन्द्र: गुप्त रोगोंको प्रगट करताहै ॥ ६३ ।।
कटुकारोरसोवत्रंशोधयति, आनंदीपयति, भुक्तंशोपयति, प्राणमात्रावयति, चक्षुविरेचयति, स्फुटिकरोतीन्द्रियाणि, अलसकश्वयथूपचयोदर्दाभिष्यन्दस्नेहस्वेदलेदमलानुपहन्ति, रोचयत्यशनं. कण्डविनाशयति, व्रणानवसादयति, क्रिमीहिनस्ति, मांसंविलिखति, शोणितसंघातभिनत्ति, वन्धांकिननि, मार्गाविवृणोति, श्लेप्लाणंशमयति, लघुरुष्णो रुनश्च ॥ ६ ॥