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शारीरस्थान-अ० १.
(६८७) नेको विषयोंसे न हटासकना धृतिभ्रंश कहाजाताहै । क्योंकि धृतिही महत् अर्थोंको नियममें लानेवाली होनेसे नियमात्मिका कहीजातीहै । रजोगुणसे और मोहसे आवृत हुए मनुष्यकी स्मरणशक्तिका नष्ट होजाना स्मृतिभ्रंश कहाजाताहै। ज्ञानका स्मरण रहनाही स्मर्तव्य विषय है और उस स्मर्त्तव्य विषयके धारण करनेवाली स्मृति होतीहै ॥ ९७॥ ९८ ॥ ९९ ।। १०० ॥
प्रज्ञापराध । धीधृतिस्मृतिविभ्रष्टःकर्मयस्कुरुतेऽशुभम् । प्रज्ञापराधतविद्यात्सवदोषप्रकोपणम्॥१०१।।उदीरणंगतिमतामुदीर्णानाञ्चनिग्रहः । सेवनंसाहसानाञ्चनारीणाञ्चातिसेवनम् ॥ १०२ ॥ कर्मकालातिपातश्चमिथ्यारम्भश्चकर्मणाम् । विनयाचारलोपश्चपूज्यानाञ्चाभिधर्षणम् ॥ १०३ ॥ ज्ञातानांस्वयमर्थानामहितानांनिषेवणम् । परमौन्मादिकानाञ्चप्रत्ययानांनिषेवणम् ॥ १०४ ॥ अकालादेशसञ्चारोमैत्रीसंक्लिष्टकभिः । इन्द्रियोपक्रमोक्तस्यसदृत्तस्यचवर्जनम् ॥ १०५ ॥ ईर्ष्यामानमदक्रोधलोभमोहमदभ्रमाः । तज्जंवाकर्मयक्लिष्टंक्लिष्टंयदेहकर्मच॥१०६॥ यच्चान्यदीदृशंकर्मरजोमोहसमुत्थितम् । प्रज्ञापराधंतशिष्टाबुवतेव्याधिकारणम् ॥१०७॥ वुद्धयाविषमविज्ञानविषमञ्चप्रवतनम् । प्रज्ञापरा,जानीयान्मनसोगोचरहितत् ॥ १०८ ॥ . बुद्धि, धृति और स्मृतिके नष्ट होनेसे यह मनुष्य जिन अशुभ कर्मोंको करताहै उसको प्रज्ञापराध अर्थात् बुद्धिका दोष कहते हैं। और वह बुद्धिका दोष सव दोषोंको कुपित करनेवाला होताहै। जैसे-काम, क्रोधादि वेगोंको न रोकना और मल मूत्रादि वेगोंको रोकलेना अयोग्य साहस करना, अति स्त्रीसंग करना, संपूर्ण कोंको यथासमय न करना, कर्मोंका मिथ्यारंभ करना, विनय और आचार त्यागेदना, माता पिता गुरुजन आदिकोंका अपमान करना, जानबूझकर बुरे काँका सेवन करना, परम उन्मादकेसे कर्मोंका करना, बेसमय निंदित स्थानमें डोलना, फिरना,खोटे कमोंमें प्रेम रखना,इन्द्रियोपक्रम अर्थात् इन्द्रियोपयोगी श्रेष्ठ आचरणका त्यागदेना, ईषः, मान, मद, क्रोध, लोभ, मोह और भ्रम उनका धारण करना और इनसे उत्पन्न होनेवाले निंदित कर्मों का सेवन करना एवम् देहजनित और मनके सब खोटे काका सेवन तथा इसी प्रकारके अन्य कर्म जोरजो;