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। सूत्रस्थान-अ० १.
(Y __व्याधयोहिसमुत्पन्नाःसर्वप्राणिभयंकराः। तद्ब्राहिमेशमोपाय
यथावदमरप्रभो ॥२०॥ तस्मैप्रोवाचभगवानायुर्वेदंशतक. . तुः । पदैरल्पैमतिबुद्धाविपुलांपरमषये ॥ २१॥ ___कि हे देवेश! पृथ्व में संपूर्ण मनुष्योंको दुःख देनेवाले भयंकर रोग उत्पन्न होग-.. यह कृपा करके उन रोगाके शांतिकारक उपायका कथन कीजिये । यह सुनकर भगवान् इन्द्रने भरद्वाजजीको विपुलबुद्धिशाली जानकर संक्षेपमें ही आयुर्वेद. शास्त्रका उपदेश करदिया ॥ २०॥ २१॥
आयुर्वेदका स्वरूप तथा भरद्वाजका इंद्रसे उसे प्राप्तकरना। हेतुर्लिंगौषधज्ञानंस्वस्थातुरपरायणम्। त्रिसूत्रंशाश्वतं पुण्यंबुवुधेयंपितामहः ॥२२॥ सोऽनन्तपारंत्रिस्कन्धमायुर्वेदमहामतिः। यथावदचिरात्सर्वबुबुधेतन्मनामुनिः ॥ २३॥ तेनायुरमितलेभेभरद्वाजःसुखान्वितः । ऋषिभ्योऽनधिकन्तञ्चशशं
साऽनवशेषयन् ॥२४॥ जिस शास्त्रमें हेतु अर्थात् रोगके उत्पन्न करनेवाला कारण और रोगबोधक चिह्न तथा औषधज्ञान होनेका भलीप्रकार वर्णन है । और आरोग्य (तन्दुरुस्त) तथा रोगियोंको परम उपयोगी है। जिसमें हेतु, लिङ्ग, और औषधज्ञान यह तीन प्रधान, सूत्र हैं ऐसे इस सनातन पवित्र आयुर्वेदशास्त्रको पहले पितामहने जाना अर्थात इसका आविर्भाव पहले ब्रह्माके हृदयमें हुआ।सो इस अनन्तपार आयुर्वेदको "जिसमें निघंटु, निदान,चिकित्सा, अथवा वही हेतु, लिङ्ग, औषधज्ञान, यह तीन स्कंछ अर्थात् कंधे हैं" महामति भरद्वाजजीने चित्त लगाकर थोडे ही कालमें संपूर्णरूपसे जानालया। फिर इस आयुर्वेदके प्रतापसे भरद्वाजजी दीर्घायु और सुखको प्राप्त हुए। और यह शास्त्र क्रमपूर्वक ऋषियोंको पढादिया ॥ २२ ॥ २३ ॥ २४ ॥
___ भरद्वाजसे ऋषियोंका आयुर्वेदका ग्रहण करना। ऋषयश्चभरद्वाजाजगहुस्तंप्रजाहितम्। दीर्घमायुश्चिकोर्षन्तो वेदंवर्धनमायुषः॥२५॥ महर्षयस्तेददृशुर्यथावज्ज्ञानचक्षुषा। सामान्यञ्चविशेषञ्चगुणान्द्रव्याणिकर्मच ॥२६॥समवायंचतज्ज्ञात्वातन्त्रोक्तंविधिमास्थिताः। लोभरेपरमंशसंजीवितंचापिनिर्गदम् ॥ २७॥ . . (१) त्रीणि हेत्वादीनि सून्यते यस्मिन् येन वा तत्रिसूत्रमिति चक्रपाणिः ।