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भूमिका
आयुर्वेदोपदेशेषु विधेयः परमादरः ।
आयुर्वेद के उपदेशों को परम आदरसे धारण करना चाहिये | यह क्यों ? इसलिये 'कि, यह धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चार पुरुषार्थोंकी आधारभूत मनुष्यकी आरोग्यताकी प्राप्ति और आयुकी रक्षाके लिये है । और "हिताहितं सुखं दुःखमायुस्तस्य हिताहितम् । मानञ्च तच्च यत्रोक्तमायुर्वेदः स उच्यते ॥ " अर्थात् जिस शास्त्रमें बायुसंवाहित अवस्था, आहत अवस्था, सुखी अवस्था, दुःखी व्यवस्था, आयु, आयुका हित और अहित तथा आयुका परिमाण यथार्थ रूपसे कहे हों उसे आयुर्वेद कहते हैं । महात्मा धन्वन्तरिजीने सुश्रुतसे कहा है कि, "एफोत्तरं मृत्युशतमथर्वाणः प्रचक्षते । तत्रकः काल संज्ञस्तु शेषास्त्वागन्तवः स्मृताः॥” मर्थात् - अथर्ववेद के जाननेवाले '१०१ मृत्युएँ होती हैं' ऐसा कहते हैं, उनमेंसे जो अवश्यम्भावी समयोचित एक मृत्यु है उसको कालमृत्यु कहते हैं, शेष सौ मृत्युओको आगन्तुक, ( अकालमृत्यु ) कहते हैं । उन १०० मृत्युओंसे वचने के लिये ही आयुर्वेदके उपदेशोंको परम आदरसे धारण करना चाहिये क्योंकि, यह आयुर्वेदही धर्मादि चतुर्विध पुरुषार्थका साधनभूत आयुका रक्षक है ।
यह आयुर्वेद प्रथम ब्रह्मा के हृदयमें आविर्भूत हुआ, ब्रह्माने दक्ष प्रजापतिको पढाया, दक्षसे अश्विनीकुमारोंने पढा, अश्विनीकुमारोंने इन्द्रको पढाया, इन्द्र के यहांसे भरद्वाज (आयुर्वेदको ) लाये और सांगोपांग ऋषियों को सुनाया। और इसी आयुर्वेदको महात्मा आत्रेयजीने आत्रेयसंहितानामक पचास हजार श्लोकोंमें एक संहिता बनाकर अभिवेश आदि अपने छः शिष्योंको पढाया । फिर इन छः य शिष्योंने भगवान् आयजीसे व्यायुर्वेदको पढकर अपने २ नामसे छः संहितायें बनाई उन सर्वो में अग्निवेशकृत संहिता अत्युतम मानी गई, इस संहिताकी ऋषि और देव: चाओंने भी प्रशंसा की । यह संपूर्ण संहितायें आज कल लुप्तप्राय सी होगई हैं।
इनके सिवाय शल्पशालाक्य तंत्र में भगवान् धन्वंतरि जी की संहिता अत्युत्तम मानी गई । भगवान् धन्वतरिजीने सुश्रुत आदि व्यपने शिष्योंको शल्यशालाक्य प्रधान जो आयुर्वेदका उपदेश किया उसको महात्मा नागार्जुनने संग्रह किया, वह य" सुश्रुतसंहिता " नाम से प्रख्यात और अतिउत्तम तथा शल्यशालाक्य चिकि सामें अति श्रेष्ठतम मानागया । और वृद्धवाग्भट्ट वाग्भट्टआदि और संहितायें भी चरक और सुश्रुतसे पीछे वनीं ।