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चरकसंहिता - मा० टी० ।
रस्थेजीवलिङ्गान्युपलभ्यन्तेतस्य चापगमान्नोपलभ्यन्ते तस्मादन्यः शरीरादात्मा नित्यः शरीराच्चेति ॥ ६९ ॥
प्रतिवादी दोषयुक्त वाक्यको परिहरण करतेहुए जो सत्यताका प्रतिपादन कियाजय उसको परिहार कहते हैं। जैसे कहाजाय कि शरीरमें स्थित हुआ आत्मा जीवके लक्षणोंसे उपलब्ध होताहै, जब आत्मा शरीरको त्यागकर अलग होजाता है तव जीवन लक्षण नहीं दिखाई देते। इससे सिद्ध है कि आत्मा नित्य है और शरीर से भिन्न है । इसप्रकार प्रतिवादीके वाक्यदोषका परिहार किया जाता है ॥ ६९ ॥ प्रतिज्ञाहानिः ।
प्रतिज्ञाहानिर्नामयः पूर्वप्रतिगृहीतांप्रतिज्ञां पर्य्यनुयुक्तः परित्यजतियथाप्राक्प्रतिज्ञांकृत्वानित्यः पुरुषइतिपर्य्यनुयुक्तस्त्वाह अनित्यइति ॥ ७० ॥
दूसरे के दोषों को दिखाते हुए अपनी प्रतिज्ञाको त्याग देना प्रतिज्ञाहानि कही जाती है । जैसे पहिले यह प्रतिज्ञा करे कि पुरुष नित्य है फिर प्रतिपक्षीको युक्तियों द्वारा दूषित होकर यह कहदेवे कि हां पुरुष अनित्य होता है । इसको प्रतिज्ञाहानि कहतेहै ॥ ७० ॥
अभ्यनुज्ञा । अभ्यनुज्ञानामयद्दष्टानिष्टाभ्युपगमः ॥ ७१ ॥
प्रतिवादीके इष्ट अनिष्ट वाक्योंको स्वीकार करलेना अर्थात् वादिके कहे इष्ट अनिष्ट वाक्यको मानना अभ्यनुज्ञा कहता है ॥ ७१ ॥
'हत्वन्तर । हेत्वन्तरनामंप्रकृतहेतौ वाच्येयद्विकारहेतुमाह ॥ ७२ ॥
प्रकृति हेतुको कथन करते समय विकारहेतुको कथन कर देना हेत्वन्तर कहा है७२ अर्थान्तर । अर्थान्तरंनामज्वरलक्षणेवाच्यप्रमेहलक्षणमाह ॥ ७३ ॥
ज्वरके लक्षणोंको कथन करनेके समय प्रमेहके लक्षणोंको कथन करना अर्थान्तर कहाताहै ॥ ७३ ॥
निग्रहस्थान | निग्रहस्थानंनामपराजयप्राप्तिस्तञ्च्चत्रिरुक्तस्य वाक्यस्य अवि