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वरकसंहिता - भा०टी० ।
वादका लक्षण ।
तत्र वादोनामयत्परस्परेणसहशास्त्रपूर्वकं विगृह्यकथयति । स . वादोद्विविधः संग्रहेण, जल्पवितण्डाच । तत्रपक्षाश्रितयोर्वच नंजल्पः । जल्पविपर्य्ययोवितण्डा । यथैकस्यपक्षः पुनर्भवोऽस्तीतिनास्तीत्यपरस्य । तौच स्वपक्षस्वहेतुभिः स्वस्वपक्ष स्थापयतः परपक्षमुद्भावयतः एष जल्पोजल्पविपर्य्ययोवितण्डा | वितण्डानामपरपक्षेदोषवचनमात्रमेवमेव ॥ २५ ॥
जीतने की इच्छा से शास्त्रार्थंमें क्रमपूर्वक परस्पर तर्क वितर्क करनेको वाद कहते हैं । उसवाद के संग्रहक्रमसे दो भेद हैं । १ जल्प । २ वितण्डा । उनमें अपने पक्षको लेकर शास्त्रसम्मत उक्तिद्वारा अपने २ पक्षके जयकी इच्छासे संभाषण करना जल्प कहाता है जल्पसे विपरीत अर्थात् अपने पक्षको स्थापन न करके दूसरक पक्ष में दोष देते जानेको वितण्डा कहते हैं । जैसे- एकका पक्ष है कि पुनर्जन्म होता है दूसरेका पक्ष है कि पुनर्जन्म नहीं होता । यह दोनों अपने २ पक्षको स्थापन करते हुए और हेतुओं द्वारा पुष्ट करते हुए परस्पर दूसरे के पक्ष में दोष दिखातेहुए जो शास्त्रार्थ होता है उसको जल्प कहते हैं। इससे विपरीत वितण्डा होती है । वितण्डा केवल दूसरे के पक्ष में दोष निकालनेका ही नाम है अर्थात् दूसरेमें दोष निकालने के सिवाय अपना कोई खास पक्ष न रखना वितण्डा कहाती है ॥ २५ ॥ द्रव्यादि लक्षण | द्रव्यगुणकर्मसामान्यविशेषसमवायाः स्वलक्षणैः श्लोकस्थाने
पूर्वमुक्ताः ॥ २६ ॥
द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष और समवाय इन सबको इनके लक्षणोंकें द्वारा पहिले सूत्रस्थानमें कथन कर चुके हैं ॥ २६ ॥
अथ प्रतिज्ञा । प्रतिज्ञानामसाध्यवचनंयथानित्यः पुरुषइति ॥ २७ ॥
अब प्रतिज्ञादिकोंका कथन करते हैं । साध्यवचनका कथन करना प्रतिज्ञा कहा जाता है। जैसे- पुरुष नित्य है इस जगह किसी हेतु आदिसे प्रथम जिस बातकों सिद्ध करना हो उसको दृढतासे कथन करना प्रतिज्ञा कहता है। इस स्थानमें" पुरुष " नित्य है" । इस वाक्यके कथन करनेको प्रतिज्ञा कहते हैं ॥ २७ ॥