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• विमानस्थान-अ०८.
(६०१) इस प्रकार प्रतिवाद उठावे कि मैं आपसे बोलनेकी ताकत नहीं रखता यह सज्जन पुरुषोंकी सभा ही तुम्हारे अभिप्रायके अनुसार अथवा जैसा उचित, समझेगी वैसा हमारे तुम्हारे वादकी मर्यादाको स्थापनकर देगी । यह कहकर बुष्ठ 2 जाय ॥ २३ ॥
वादमर्यादाके लक्षण । तत्रेदंवादमर्यादालक्षणंभवतिइदंवाच्यमिदमवाच्यमेवसतिपु-DEO राजितोभवतीति इमानिखलुपदानिभिषग्वादमार्गज्ञानार्थमधिगम्यानिभवन्ति । तद्यथा वादो, द्रव्यं गुणाः, कर्म, सामान्यं, विशेषः, समवायः, प्रतिज्ञा, स्थापना, प्रतिष्ठापना, हेतुः, उपनयः, निगमनम्, उत्तरं, दृष्टान्तः, सिद्धान्तः, शब्दः, प्रत्यक्षम्, अनुमानम्, औपम्यम्, ऐतिचं, संशयः, प्रयोजनं, सव्यभिचारं, जिज्ञासा, व्यवसायः, अर्थप्राप्तिः, :. सम्भवः, अनुयोज्यम्, अननुयोज्यम, अनुयोगः, प्रत्यनु. योगः, वाक्यदोषः, वाक्यप्रशंस., छलम्, अहेतुः,अतीतकालम्, उपालम्भः; परिहारः, प्रतिज्ञाहानिः, अभ्यनुज्ञा, हे. त्वन्तरम्, अन्तरं, निग्रहस्थानमिति ॥ २४ ॥ वाद प्रतिवादमें अर्थात शास्त्रार्थ करते समय प्रथम शास्त्रार्थकी मर्यादाको स्थापितकर लेना चाहिये कि यह बात कहना और यह नहीं कहना । इसप्रकार मर्यादामें बांध लेनेसे प्रतिवादी परास्त होजाताहै । वैद्यको शास्त्रार्थका मार्ग जाननेकै लिये इन आगे कहेहुए वाक्योंको भलीप्रकार याद करलेना चाहिये । जैसे-वाद, द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष, समवाय, प्रतिज्ञा, स्थापना, प्रतिष्ठापना, हेतु, उपनय, निगमन, उत्तर, दृष्टांत, सिद्धांत, शब्द, प्रत्यक्ष, अनुमान,
औपम्य, ऐतिह्य. संशय, प्रयोजनं, सव्यभिचार, जिज्ञासा, व्यवसाय, अर्थप्राप्ति, संभव, अनुयोज्य, अननुयोज्य, अनुयोग, प्रत्यनुयोग, वाक्पदोष, वाक्यप्रशंसा, छल, अहेतु, अतिकाल, उपालंभ, परिहार, प्रतिज्ञाहानि, अभ्यनुज्ञा, हेत्वंतर, अर्थातर, निग्रहस्थान । इन सब शब्दाथाको यथोचित गीतिपर जानलेना चाहिये। आगे इन प्रत्येकका कथन करते हैं ॥ २४॥ . १ वादशन्देन चेह विगृह्य पक्षप्रतिपक्षवचनमात्रमुच्यते, सन्यायसम्भाषयैव तत्त्वबुभुत्सोवादउक्त: