________________
चरकसंहिता-भा. टी.
स्त्रीके दूधका गुण। जीवनंबृहणंसात्म्येस्नेहनमानुषपयः।
नावनंरक्तपित्तेचतर्पणञ्चाक्षिशूलिनाम् ॥ २१८॥ स्त्रीका दूध-जीवनदायक, पुष्टिकारक, सात्म्य, स्नेहन, रकपित्तम नसवार भौर नेत्ररोगमें नेत्रतर्पणके लिये परमहितकारक है ॥ २१८॥
दहीके गुण । रोचनंदीपनंवृष्यस्नेहनंबलवईनम् । पाकेऽम्लमुष्णवातघ्नमइलंबृहणंदधि ॥ २१९ ॥ पीनसेचातिसारेचशीतकविषमज्व. रे। अरुचौमूत्रकृच्छेचकाश्येचदधिशस्यते ॥ २२० ॥ दही-रुचिकारक, दीपन, वीर्यवर्द्धक, स्नेहन, बलवर्द्धक, पाकमें अम्ल, उष्ण, वातनाशक, मंगलकारक, एवम् पुष्टिननक होताहै । दही-प्रतिश्याय, अतिसार, शीतकरोग, विषमज्वर, अरुचि, मूत्रकृच्छ्र, और कृशतारोगेमें परम हिवा कारक है ॥ २१९ ॥ २२० ॥
दहीका निषेध। शरद्ग्रीष्मवसन्तेषुप्रायशोदधिगर्हितम्।
रक्तपित्तकफोत्थेषुविकारेष्वहितञ्चतत् ॥ २२१ ॥ शरद, ग्रीष्म और वसन्तऋतुमें दही नहीं खाना चाहिये । रक्तपित्त और कफसें उत्पन्नभये रोगोंमें भी दहीका खाना उचित नहीं २२१ ॥
मन्दकदहीके गुण। त्रिदोषमन्दकंजातंवातनंदधिशुक्रलम् ।
सररश्लेष्मानिलघ्नस्तुमण्डःस्रोतोविशोधनः ॥ २२२ ॥ मंदक दही अर्थात् विना जमा दूध-त्रिदोषकारक होताहै । दहीकी मलाई वातनाशक और वीर्यवईक होतीहै । दहीका तोड-दस्तावर, कफवातनाशक एवम् रोममार्गको शुद्ध करनेवाला होताहै ॥ २२२॥ के
तक्रके गुण । . शोफाशोंग्रहणीदोषमुत्रकृच्छोदरारुचि।
स्नेहव्यापदिपाण्डुत्वेतकंदद्याद्गरेषुच ॥ २२३ ॥ तक सूजन, अर्श, संग्रहणी, मूत्रकृच्छू, उदररोग, अरुचि, स्नेहपानसे उत्पन्न दुआ दोष, पांडुरोग, गरदोष, इन सबमें सेवन करना योग्य है ॥ २२३ ॥