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(१६) चरकसंहिता-भा० टी०।
अत्युष्णेवादिवापीतेवातपित्ताधिकेनच। मूछौंपिपासामुन्मादकामलांवासमीरयेत् ॥ १८॥ वात पित्तकी अधिकताम अतिगर्मीके समयमें दिनमें स्नेह पान करनसे मूर्छा, पास, उन्माद और कामलारोग होतेहैं ॥ १८॥
शीतेरात्रौपिवेत्स्नेहनरः श्लेष्माधिकोअपवा।
आनाहमाचं शूलंपाण्डुतावासमृच्छति ॥ १९॥ कफकी अधिकताम और शीतकालमें रात्रिके समय स्नेहपान करनेसे अफारा, अरुचि, शूल, पांडुरोग यह रोग होतेहैं ॥ १९ ॥
स्नेहपर अनुपान । जलमुष्णघृतेपेयंयूषस्तैलेऽनुशस्यते ।
वसासनोऽस्तुमण्डःस्यात्सर्वेषूष्णमथाम्बुवा ॥२०॥ घृतपान करके ऊपरसे गर्म जल पीना चाहिये । और तैल पीकर ऊपरसे मांसरस पीना चाहिये । वसा और मज्जाके पीछे मांड पीना चाहिये। अथवा सन स्नेहोंके पीछे गर्म जल पीवै ॥ २०॥
स्नेहकी विचारणा। ओदनश्चविलेपीचरसोमांसंपयोदधि । यवागःसूपशाकौचयूषः काम्बालकःखडः ॥२१॥ सक्तवस्तिपिष्टश्चमद्यलेहास्तथैवच । भक्ष्यमभ्यञ्जनंवस्तिस्तथाचोत्तरवस्तयः ॥ २२ ॥गण्डपःकर्णतेलञ्चनस्तःकर्णाक्षितर्पणम् । चतुर्विंशतिरित्यता: स्नेहस्यप्रविचारणाः ॥ २३॥
भांत आदि अन्न, गोइ, मांसरस, मांस, दूध, दही, यवागू, सूप, साग,कांवलिफष, पवृष, सत्तू, तिलपिष्टक, सुरा, अवलेह, सब प्रकारके भोजन, मालिश,
स्ति, उत्तम्वस्ति, गंटूप, कानकी औषधी डालना, नस्य कर्म, कानका तर्पण,नेत्रतण, इन भदास सहकी चौबीस प्रकारकी विचारणा है ॥ २१ ॥ २२ ॥ २३ ॥
असंयुक्तम्रहका वर्णन । अच्छपेयेस्तुर्यःस्नेहोनंतमाहुर्विचारणाम् । स्नेहस्यसभिपग्दृष्टःकल्पःप्राथमकल्पिकः ॥ २४॥