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चरकसंहिता-मा० टी०। द्वितीयोऽध्यायः।
-CRETRIENONअथातस्त्रिविधंकुक्षीयांवमा व्याख्यास्यामइतिहस्माह भगवानात्रेयः । अब हम त्रिविधकुक्षीय विमानका कथन करते हैं । इस प्रकार भगवान् आत्रे: यजी कहनेलगे।
त्रिविधकुक्षीयका वर्णन। त्रिविधंकुक्षौस्थापयेदवकाशांशमाहारस्याहारमुपयुञ्जानः ।तयथैकमवकाशांशमूर्तानामाहारविकाराणामेकंद्रवाणामेकंयुनर्वातपित्तश्लेष्मणाम् ॥१॥ भोजन करते समय-उदरमें तीन विभाग करने चाहिये । उनमें उदरके एक भागको पेडा, पूडी, परांवठा आदि गरिष्ठ पदार्थोंसे पूरित करना चाहिये । और एक भागको खीर, दूध आदि पतले पदार्थों से पूरित करना चाहिये। तीसरा भाग वात, पित्त, कफके संचारके लिये खाली रखना चाहिये ॥१॥
एतावतींयाहारमात्रामुपयुञ्जानोनामात्राहारजंकिञ्चिदशुभंप्रानोति । नचकेवलंमात्रावत्वादेवाहारस्यकत्लमाहारफलसौष्ठवमवातुंशक्यम् । प्रकृत्यादीनामष्टालामाहारविधिविशेषायतनानांप्रविभक्तफलकत्वात् । तत्रतावदाहारराशिमधिकृत्यमात्रामात्राफलविनिश्चयार्थःप्रकृतः एतावानेवह्याहारराशिविधिविकल्पोयावन्मात्रावत्त्वममात्रावत्त्वञ्चतत्रमात्रावत्वंपूर्वमु· पदिष्टंकुक्ष्यंशविभागेन। तद्भूयोविस्तरेणानुव्याख्यास्यामः॥२॥
यही आहारकी मात्रा है । इस प्रकार मात्रासे भोजन करनेवाला मनुष्य आहा. . रजनित विकारोंसे बचा रहता है अर्थात् उसको आहारजानत कोई रोग नहीं होता
और यथोचित रीतिपर भोजन करनेके कारण आहार करनेके जो उत्तम फल होते हैं और शरीरको पुष्टता आदि उत्तम गुण प्राप्त होते हैं। संपूर्ण आहार पूर्वोक्त आहारके आठ आयतनोंको विचारकर फिर मात्रानुसार भोजन करना चाहिये। आहारके समूहमें इतना ही विधि और विकल्प है कि उसको मात्रा और अमा,