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________________ (२६२) चरकसंहिता-भा० टी०। प्रमीलकाः । विद्रधीरक्तमेहश्चप्रदरोवातशोणितम् ॥ १० ॥ वेवर्ण्यमग्निनाशश्चपिपासागुरुगात्रतासन्तापश्चातिदावल्यम रुचिःशिरसश्चरुक् ॥ ११ ॥ विदाहश्चान्नपानस्यतिक्ताम्लोद्रणंक्लमः। क्रोधप्रचुरतावुद्धेःसंमोहोलवणास्यता ॥ १२ ॥ स्वेदःशरीरदौर्गन्ध्यंमदःकम्पःस्वरक्षयातन्द्रानिद्रातियोगश्चतमसश्चातिदर्शनम् ॥ १३ ॥ कण्डूरुकोठपिडकाः कुष्ठचर्मदलादयः। विकाराःसर्वएवैतेविज्ञेयाःशोणिताश्रयाः॥ १४ ॥ फिर वह दुष्ट हुआ रक्त अनेक प्रकारके रोगोंको उत्पन्न करताहै।उन रोगोंका यहां वर्णन करतेहैं मुखरोग तथा मुख, नाक और नेत्रोंका परिपाक होना, नाकसे आर मुखसे दुर्गन्ध आना, गुल्म, उपदंश, विसर्प, रक्तपित्त, प्रमालक, विद्रधि, रक्तमूत्र (पेशावमं रक्तका आना),प्रदर, वातरक्त,शरीरकी विवर्णता,मंदाग्नि,प्यास,भारीपन, संताप, अति दुर्बलता,अरोचक, मस्तकपीडा, अन्नपानका विदाही परिपाक होना, खट्टे तथा कडुए डकार आना,क्लम,क्रोधकी अधिकता, बुद्धिका नाश,मुखका,नमफीन स्वाद, दुर्गंधित स्वेद, शरीरमें दुर्गध, मस्ती, कम्प, स्वरभंग, तन्द्रा, अत्यन्त निद्रा, अंधकार, खाज, पीडा, कोष्ठरोग, पिडका, कुष्ठ चर्मदल ऐसे२ रोग रक्तके दृषित होनेसे उत्पन्न होते हैं ॥९॥ १० ॥ ११ ॥ १२ ॥ १३ ॥ १४ ॥ शीतोष्णस्निग्धरूक्षायैरुपक्रान्ताश्चयेगदाः। सम्यक्साध्यानसिध्यन्तिरक्तजास्ताविभावयेत् ॥१५॥ इसी प्रकार जो रोग साध्य प्रतीत होने पर भी शीतल, उष्ण तथा रूक्ष आदि निया करनेपर भी शांत नहीं होते उनको भी रक्तके विकारसे उत्पन्न हुआ जानना ॥ १५ ॥ दूपितरक्तम कर्तव्य कर्म। कुर्याच्छोणितरोगेपुरक्तपित्तहरी नियाम् । विरेकमुपवासंवास्रावणंशोणितस्यवा ॥ १६ ॥ रतके विकाराम रक्तपित्तनाशक क्रिया, विरेचन, उपवास एवम् रक्तका निकालना मेले २ उपायांसे करे । रक्तमोक्षण ( फस्त खुलाना) के समय देश, काल, पल और दीप एवम् शुद्धरतका प्रमाण जानकर तथा शागीरक स्थान परीक्षा करके ही राम निकालना चाहिये ।। १६ ॥
SR No.009547
Book TitleCharaka Samhita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamprasad Vaidya
PublisherKhemraj Shrikrushnadas Shreshthi Mumbai
Publication Year1923
Total Pages939
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Medicine
File Size48 MB
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