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निंदानस्थान-अ० ७. (४८३) रुतिकरणञ्चव्याधेः । स्वनेचदर्शनमभीक्ष्णंभ्रान्तचलितावस्थितानवस्थितानाश्चरूपाणामप्रशस्तानाञ्चतिलपीडकचक्राधिरोहणंवातकुण्डलिकाभिश्चोन्मथनंनिमज्जनंकलुषाणासम्भसामावत्तेषु चक्षुषोश्चापसर्पणामति दोषनिमित्तानामुन्मादानांपूर्वरूपाणि ॥ ३॥
उस उन्माद रोगके यह पूर्वरूप होतेहैं । जैसे-शिरका शून्य होजाना, नेत्रोंका व्याकुल होना,कानोंमें शब्दका होना, ऊपरको श्वास लेनेकी अधिकता होना,मुखसे लारका बहना,अन्नसे द्वेष,अरुचि, अविपाक,हृदयका रुकना,विना किसी कारणके ध्यानसा लगा रहना,शरीरमें थकावट प्रतीत होना एवम् संमोह, उद्वेग, निरन्तर रोमोंका खडा होना,ज्वर हरसमय उन्मत्त चित्त होना,उदर्दरोग होना,अदितवायुसे पीडित हुए मनुष्यकीसी आकृति बनाये रखना, स्वप्नमें निरन्तर भूलेहुएसा तथा चलित और अतिचंचल तथा अधिक भयानक रूपोंको देखना । अपने आपको तेलीके कोल्हूपर चढेहुए देखना, वात कुण्डलिका (मूत्रकी विमारी )रोगसे पीडित होना, विगडे हुए जलोंके चक्रमें अपनेको डूबतेहुए देखना, नेत्रोंका चलायमान होजाना यह सव उन्माद रोगके पूर्वरूप होतेहैं ॥ ३ ॥ .
उन्मादकी पहिचान । . • ततोऽनन्तरमुन्मादाभिनिवृत्तिस्तत्रेदमुन्मादविज्ञानं भवति ।
तद्यथा-परिसर्पणमक्षिभ्रुवामोष्ठांसहनुहस्तपादविक्षेपणामक.. स्मात् अनियतानाञ्च सततं गिरामुत्सर्गःफेनागमनमास्थात् .
स्मितहसितनृत्यगीतवादित्रादिप्रयोगाश्चास्थाने, वीणावंशश. वशम्यातालशब्दानुकरणम् असाम्ना । यानमयानरलंकरणमलंकारिकैव्यैलोभोऽभ्यवहार्येष्वलब्धेषु । लब्धेषुचावमानस्तीनं मात्सयं काश्य पारुष्यमुत्पिण्डतारुणाक्षता. वातोपशयविपर्यासादनुपशयिता चति वातोन्मादलिङ्गानि भवन्ति ॥४॥ उसके उपरान्त उन्मादंरोग प्रगट होजाताहै सो उसके लक्षणविशेषोंका कथन करतेहैं । जैसे नेत्र और भौंका चलायमान होना, वह रोगी अकस्मात होठ, कंधा, ठोडी, हाथ और पांव इनको हिलावे, सदैव अंटसंट बकवाद करे,मुखसे झाग गिरे।