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________________ सूत्रस्थान-अ० २८... (३८९, काही सेवन करना चाहिये क्योंकि यह शरीरं आहारसे.ही उत्पन्न होताहैः॥४३॥ ...४४॥ ४५ ॥ • • आहारस्यविधावष्टौविशेषाहेतुसंज्ञकाः।शुभाशुभसमुत्पत्तौता-:.:. परीक्ष्योपयोजयेत् ॥४६॥ परिहा•ण्यपथ्यानिसदापारहर--- नरः । भवत्यनृणतांप्राप्तःसाधूनामिहपण्डितः॥४७॥ आहारके सम्बन्धमें हेतुसंज्ञक आठप्रकारका विधान किया गयाहै (विमानस्थान देखो)। मनुष्यको उचित है कि शुभ और अशुभकी उत्पत्तिके विषयमें पूर्णरूपसे परीक्षा करता हुआ आहारका उपयोग करे जो पदार्थ त्याग देने योग्य हों उनको त्यागताहुआ पथ्य वस्तुओंका सेवन करे ऐसा करनेसे बुद्धिमान् मनुष्य त्रिविध ऋणसे विमुक्त होकर सुखको प्राप्त होताहै ॥ ४६ ॥ ४७ ।। यत्तुरोगसमुत्थानसशक्यमिहकेनचित् । परिहानतत्प्राप्यशाचितव्यंमनीषिणा ॥४८॥ और जो मनुष्य गेगके कारणरूपी अहित सेवनको त्यागनेमें असमर्थ है वह मूर्ख बुद्धिमानों करके सोचने योग्य है अथवा यदि कोई रोगका ऐसा कारण हो जो किसीमकार भी दूर न किया जासक्ता हो तो बुद्धिमानको चाहिये कि उसके लिये चिंतित होकर अपने शरीरको और भी कष्ट न बढावे ।। १८॥ तत्र श्लोकाः। 'आहारप्रभवोयस्तुरोगाश्चाहारसम्भवाः। हिताहितविशेषाश्च विशेष:सुखदुःखयोः ॥४९॥ सहत्वेचासहवेचदुःखानांदेहसत्त्वयोः। विशेषोरोगसंघाश्चधातुजायेपृथक्पृथक् ॥ ५० ॥ तेषाञ्चैवप्रशमनंकोष्ठाच्छाखाउपत्यच । दोषायथाप्रकुप्यन्ति शाखाभ्यःकोष्ठमेत्यच ॥ ५१॥ प्राज्ञाज्ञयोर्विशेषश्चस्वस्थातुर. हितञ्चयत् । विविधाशितपीतीयेतत्सर्वसम्प्रकाशितम् ॥ ५२॥.. इति अग्निवेशकतेतन्त्रेचरकप्रतिसंस्कृतेसत्रस्थानअन्नपानचतुष्कविविधाशितपीतीयोनामअष्टाविंशोऽध्यायःसमाप्तः। "यहांपर अध्यायकी पूर्तिमें श्लोक है । आहारसे उत्पन्न होनेवाला. रोग और आहारसे उत्पन्न होनेवाला शरीर,शरीरका हित और अहित तया हित और अहित विशेषसे सुख दुःख विशेष और दुःख के सहन योग्य तथा असहन योग्य शरीर,
SR No.009547
Book TitleCharaka Samhita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamprasad Vaidya
PublisherKhemraj Shrikrushnadas Shreshthi Mumbai
Publication Year1923
Total Pages939
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Medicine
File Size48 MB
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