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सूत्रस्थान - अ०.५.
(५९) कम् । धूर्मन भुक्त्वादघ्नाचनरूक्षः क्रुद्धएवच ॥ ३७ ॥ नतालुशोषेतिमिरेशिरस्यभिहते न च । नशंखकेनरोहिण्यांन मेहेनमदात्यये ॥ ३८ ॥ एषुधूममकालेषु मोहात्पिबतियोनरः । रोगास्तस्य प्रवर्द्धन्ते दारुणाधूमविभ्रमात् ॥ ३९ ॥
एवं श्रमयुक्त, मद्य पोकर, आमाजीर्णवाला, पित्तकी कुपित अवस्था में रात्रि आगाहुआ, यह भी धूमपान न करे। ऐसे ही मूर्छा, भ्रम, तृषा, क्षतक्षीण, इनसे ग्रसित मनुष्य, और मद्य, दूध, स्नेह, शहद, इनको पानकर भी धूम न पीवे । दही खाकर, रूक्ष, क्रोधयुक्त, तालुशोषी, तिमिररोगी, जिसके सिरमें चोट लगीहो, कनपटीके रोगवाला, रोहिणीरोगमें, प्रमेह में, मदात्ययमें, इनमें भी धूमपान न करे जो मनुष्य इन वर्जित रोगोंमें और अकालमें मोहवश धूमको पान करता है उस मनुष्यके धूमपानकी खराबीसे दारुण रोग वृद्धिको प्राप्त होते हैं ।। ३६- ३९ ॥ विशेष रोगों में विशेषस्थानोंसे धूमपान ।
धूमयोग्यः पिबेद्दोषेशिरोघ्राणाक्षिसंश्रये । घ्राणेनास्येनकण्ठस्थेमुखेनप्राणपोवमेत् ॥ ४० ॥ आस्येन धूमकवलान्पिवन्धाननोद्वभेत् । प्रतिलोमंग तोह्याशुधू मोहिंस्याद्धिचक्षुषी ॥ ४१ ॥ ऋज्वङ्गचक्षुस्तचेताः सूपविष्टत्रिपर्ययम् । पिबेच्छिद्रपिधायैकं नासाधूममात्मवान् ॥ ४२ ॥
जिसके मस्तक, नाक, नेत्रोंको वातादि दोष आक्रमण करलेवे तो धूमपानयोग्य वह मनुष्य नासिकाद्वारा धूमपान करके मुखमेंको धूम निकालदेवे । किंतु मुखद्वारा घूम पीकर नाकद्वारा न निकाले क्योंकि प्रतिलोम होकर धूम नेत्रोंको बिगाडदेता है, सब अंगों को नरम करके सुखपूर्वक बैठा हुआ धूमपानमें मन लगाकर नाकका एक छिद्र वेदकर दूसरे छिद्र द्वारा बुद्धिमान् मनुष्य तीन बार धूम्रपान करे ॥ ४० ॥ ४१ ॥ ४२ ॥
नेचा प्रमाण. 1.
चतुर्विंशतिकं नेत्रस्वं गुलीभिर्विरेचने । द्वात्रिंशदंगुल स्नेहेप्रयोगेऽध्यर्द्धमिष्यते ॥ ४३ ॥ ऋजुत्रिकोषाफलितं कोलास्थ्यग्रप्रमाणितम् । बस्तिनेत्र समद्रव्यं घूमनेत्रंप्रशस्यते ॥ ४४ ॥ दूराद्विनिर्गतः पर्वच्छिन्नोनाडीतनूकृतः । नेन्द्रियबाधतेधमो