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चरकसंहिता भा० टी०। मात्राकालनिपेवितः ॥ ४५ ॥ यदाचोरश्चकण्ठश्चशिरश्चलघुतांत्रजेत् । कफश्चतनुताप्राप्तःमुपांतधूममादिशेत् ॥ ४६ ॥ विरेचन धूम्रम २४ अंगुल लंबी नाली लेना चाहिये। स्नेह धूम्रपानमें३२अंगुली और प्रायोगिक धूम्रपानमें १६ अंगुलकी नली लेवे धूम्रपानकी नली मुखकी तर्फसे ऋमपूर्वक सीधी होनी चाहिये इसके जोडमें भीतर छिद्र रहना चाहिये । इसमें तीन टुकडे होतेहे इसकी नलीका छिद्र वेरकी गुठलीके समान होना चाहिये । जिन द्रव्यांसे वस्तीके नेत्र बनतेहैं उनहीसे धूमनेत्र बनाए जातेहैं दूसरे निकलकर खिंचता हुआ धूम नालके जोडमेको होताहुआ बंधकर नलीकी ओर आवे ऐसी नली लेना वाहिये । इस प्रकार मात्रा और कालके अनुसार पीया हुआ धूम इंद्रियोंकोवाधा नहीं करता। धूम पान करते जब छाती,कंठ, मस्तक,यह हलके प्रतीत होनेलगे और तफ पतला होकर निकलने लगे तो जानना कि ठीक धूमपान किया गया ॥ ४३-४६॥
धूमपान ठीक न होनेके दोष । अविशुद्धःस्वरोयस्यकंठश्चसकफोभवेत् । स्तिमितोमस्तकश्चैवमपीतंधूममादिशेत् ॥ ४७ ॥ तालुमू चकण्ठश्चशुष्यतेपरितप्यते । तृप्यतेमुह्यतेजन्तरक्तञ्चस्रवतेऽधिकम् ॥ ४८ ॥ यदि धूमपानसे स्वर शुद्ध न हो (बिगडजाय) कंठमें कफ बोले, मस्तक भारी होजाप, तो समझो कि धूम ठीक नहीं पीयागया ॥४७॥ अति धूम्रपानसे ताल, सूर्दा, कंट, यह सूखने लगतेहैं, और तपने लगतेहैं, प्याससे और चक्कर आनेसे जीव व्याकुल होने लगताह लोहू गिरने लगता है ॥ ४८ ।।
लगतह, प्यासस शिरश्चभ्रमतेऽत्यर्थमाचास्योपजायते।
इन्द्रियाण्युपतप्यन्तेधमेऽत्यर्थनिविते ॥४९॥ शिग्म बहुत चकर आने लगतहैं, मृी आने लगती है सव इंद्रिय व्याकुल होजातहिं, इस प्रकार उपद्रव होत ॥ ४९ ॥
अणुतेलका प्रयोग। वर्मवणुतेलञ्चकाले पुत्रिपुनाचरेत् । प्रावृद्गरहसन्तेगतमेघेनभस्तले ॥ ५२ :