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_ विमानस्थान-अ०८. १९७) इसके उपरान्त विगृह्य संभाषाका कथन करतेहैं । जब वैद्य दूसरे वैद्योंसे अपने कल्याण अर्थात् जीतनेकी इच्छासे एवम् दूसरे वैद्यको पराजय करनेकी इच्छासे शास्त्रार्थ करना चाहे तो प्रथम संभाषण करनेसे पहिले ही परावरान्तर ( अपना और दूसरे वैद्यका शास्त्रमें बल) तथा परिषद् (सभा) विशेषको उचित रीतिपर परीक्षा कर लेवे । प्रथम भले प्रकार परीक्षा करलेनाही बुद्धिमानोंको कार्यमें प्रवृत्त होनेका तथा निवृत्त होनेका समय दिखादेताहै । इसलिये प्रथम परीक्षा करलेनेकी प्रशंसा करतेहैं । परीक्षा करतेहुए अपने और दूसरेके शास्त्रबलमें अन्तरको तथा जल्प (जीतनेकी इच्छासे शास्त्रार्थ ) करनेवाले के गुणोंको उसके और अपने कल्याणकारी भावोंको एवम् दोषोंको भलेप्रकार परीक्षा करे । वह गुण और दोष इस प्रकार होतेहै । जैसे श्रुत, विज्ञान, धारणा, स्फुरणा, तेजस्विता, वाक्यशक्ति यह शास्त्रार्थ करनेवालके श्रेयस्कर अर्थात् कल्याणकारी गुण कहेजाते हैं। क्रोधित होना, बोलनमें.चतुराई न होना, डरना, असावधान रहना यह शास्त्रार्थ करनेवालेके दोष होतेहैं। प्रथम अपने और दूसरेके इन दोनों प्रकारके गुणदोषोंको बुद्धिमें तौल लेवे ॥ १९ ॥ . तत्रत्रिविधःपरःसम्पद्यते,प्रवरःप्रत्यवरःसमोवागुणविनिक्षेपतो . नत्वेवकात्स्यै न ॥ १६ ॥ . प्रतिवादी तीन प्रकारका होता है । १ अपनेसे उत्तम गुणवाला । २ अपनेसे हीन गुणवाला।३ अपनेसे समान गुणवाला । यह तीन प्रकारका भेद केवल गुण निक्षेपसे ही कहा है संपूर्ण विषयोंमें नहीं ॥ १६ ॥
सभाके भेद । परिषच्चखलुद्विविधा,ज्ञानवतीमूढपरिषञ्च, सैवद्विविधासतीत्रिविधापुनरनेनकारणविभागेनसुहृत्परिषत्, उदासीनपरिषत्प्रतिानिविष्टपरिषञ्चेति ॥ १७॥ परिषद् अर्थात् सभा दो प्रकारकी होती है । १ ज्ञानवती सभा । २ मूढसभा । यह दो प्रकारकी होतीहुई भी इस प्रकार कारणभेदसे प्रत्येक सभा तीनतीन प्रका. रकी होती है । जैसे-सुहृद परिषद् ( अपने मित्रोंकी सभा) उदासीन परिषद् (सामान्य पुरुषोंकी संभा) और प्रतिनिविष्ट (पंडितों अथवा बडे पुरुषोंकी)
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प्रतिवादीके भेद ।
परिषद् ॥ १७॥
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