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चरकसंहिवा-भा० टी०। आधे शिरम पीडा होना वा संपूर्ण शिरम पीडा होना, प्रतिश्याय, मुखरोग, नासागेग.अक्षिरोग,कणरोग,शिरका भ्रमणा,लकवा,शिरकंप,गलेका अकडजाना, मन्यास्तंभ, नुस्तंभ तथा अन्य भी अनेक प्रकारके रोग दातादिभेदसे और कृमिजन्य रोग शिरमें होते हैं। इनसे अलग जो पांच प्रकारके रोग महर्षियोंने संग्रहमें कहेहें उन शिरके नोगांको, जिन २ अपने कारणोंसे वह होतेहैं और उनके लक्षणोंको सुनी ।। १२ ॥ १३ ॥
वातन रोगांके कारण । उच प्यातिभाष्याभ्यांतीक्ष्णपानात्प्रजागरात् । शीतमारुतसंस्पर्शाद्वयवायाद्वेगनिग्रहात् । उपवासाचाभिघाताद्विरेकादमनादपि ॥ १४ ॥ वाष्पशोकपरित्रासाद्भारमार्गातिकर्षणात् । शिरोगतःशिरावृद्धोवायुराविश्यकुप्यति ॥१५॥ ततःशूलंमहत्तस्यवातात्समुपजायते । निस्तुद्यतेभृशंशंखौघाटासम्भिद्यतेतथा ॥ १६ ॥ भ्रुवोर्मध्यललाटंचतपतीवातिवेदनम्। वाध्येतेस्वनतःश्रोत्रनिष्कृष्येतइवाक्षिणी ॥१७ ॥ पूर्णतीव शिरःसर्वसन्धिभ्यइवमुच्यते । स्फुरत्यतिशिराजालंतुद्यतेच शिरांधरा ॥१८॥
बहुत ऊंचे और अधिक बोलनेसे, तीक्ष्ण मद्यादि पीनेसे, रात्रिम जागनेसे,शीत पवनके लगनेंस, अति कसरतसे, मलादिवेगोंको रोकनेसे, उपवास करनेसे, अभि. घातसे. विरेचन और वमनजन्य विकारसे, रोनेसे, शोकसे, भयसे, त्रासस, वोझ उठानसे. अति मार्ग चलनेसे, अत्यंत दुःखसे,मस्तकगत वायु शिरकी नसोम प्रवेश कर कुपित होजाताह तब उस वायुसे भारी गूल उत्पन्न होताहै । और दोनों कनपटियाम पीडा होना, गरदन पांडा, भावाके मध्यम पाडा, मस्तकका तपना और पीडायुक्त होना, कानाम शब्दसा होना, नेत्राम खिंचावट, शिरका घूमना और शिकी संधियोंका खुलसा जाना, शिरकी नसोका फडकना, शिरके धारण करनेवाली नसीम पीडा होना. यह लक्षण वातजन्य शिरोरोगमः होना ॥ ४॥ १५ ॥ १६ ॥ १७॥ १८ ॥ निग्धाप्णमुपसंवेतशिरीरोगनिलात्मके ॥ १९ ॥ नाप निमेगेगम स्निग्ध और उष्णक्रियाका सेवन करे ॥ १९ ॥